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गुरुवार, 11 मार्च 2021

मुक्तक

मुक्तक:
समय बदला तो समय के साथ ही प्रतिमान बदले.
प्रीत तो बदली नहीं पर प्रीत के अनुगान बदले.
हैं वही अरमान मन में, है वही मुस्कान लब पर-
वही सुर हैं वही सरगम 'सलिल' लेकिन गान बदले..
*
रूप हो तुम रंग हो तुम सच कहूँ रस धार हो तुम.
आरसी तुम हो नियति की प्रकृति का श्रृंगार हो तुम..
भूल जाऊँ क्यों न खुद को जब तेरा दीदार पाऊँ-
'सलिल' लहरों में समाहित प्रिये कलकल-धार हो तुम..
*
नारी ही नारी को रोके इस दुनिया में आने से.
क्या होगा कानून बनाकर खुद को ही भरमाने से?.
दिल-दिमाग बदल सकें गर, मान्यताएँ भी हम बदलें-
'सलिल' ज़िंदगी तभी हँसेगी, क्या होगा पछताने से?
*
ममता को समता का पलड़े में कैसे हम तौल सकेंगे.
मासूमों से कानूनों की परिभाषा क्या बोल सकेंगे?
जिन्हें चाहिए लाड-प्यार की सरस हवा के शीतल झोंके-
'सलिल' सिर्फ सुविधा देकर साँसों में मिसरी घोल सकेंगे?
*
११-३-२०१०

शिव भजन ५, स्व. शांति देवी वर्मा

पूज्य मातुश्री द्वारा रचित शिव भजन ५ 
धूमधाम भोले के गाँव 
स्व. शांति देवी वर्मा
*
धूमधाम भोले के गाँव,
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
कौन दिशा में?, कैसे जावें?, किते बसो भोले का गाँव ?
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
उत्तर दिशा में कैलाश परवत, बर्फ बीच भोले का गाँव।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
कौन के लालन किते भए हैं?, का है पिता को नाम?
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
गौरा के सखी लालन भए हैं, शंकर पिता को नाम।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
किते डालो लालन को पलना, बँधी काए की डोर  ।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
कल्प वृक्ष पे झूला डालो है, अमरबेल की है डोर ।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
कौन झुला कौन लोरी सुना रए?, कौन बलैंंया लेत?
चलो पाँव-पाँव सखी!
*
शंकर झुला उमा लोरी सुनाएँ, नंदी बलैंया लेत।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
कौन नाच रए झूम-झूम के, कहो पहिर मुंड माल?
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
भूत पिशाच जोगिनी नाचें, पहिरे गले मुंड माल। 
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
कौन चाह रए दर्शन पाएँ, कौन बाँच रए भाग?
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
ब्रह्मा-शारद; विष्णु लक्ष्मी, बाँच नें पाएँ भाग। 
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
कौन कर्म-फल लिखे भाग में, किनकी कृपा अपार?
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
लिखे कर्म फल चित्रगुप्त प्रभु, रिद्धि-सिद्धि मिले अपार। 
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
धूमधाम भोले के गाँव,
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
 

शिव भजन ४, शांति देवी वर्मा

पूज्य मातुश्री द्वारा रचित शिव भजन ४ 
भोले घर बाजे बधाई 
स्व. शांति देवी वर्मा
*
मंगल बेला आई,
भोले घर बाजे बधाई.....
*
गौरा मैया ने लालन जनमे, गणपति नाम धराई।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
द्वारे बंदनवार बँधे हैं, कदली खंब लगाई।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
हरे-हरे गोबर इन्द्राणी आँगन लीपें, मुतियन चौक पुराई।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
स्वर्ण कलश ब्रह्माणी लिए हैं, चौमुख दिया जलाई।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
लछमी जी पलना पौढ़ाएँ, झूलें गणेश सुखदाई।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
नृत्य करें नटराज झूमकर, नारद वीणा बजाई।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
देव-देवियाँ सोहर गावें, खुशियां त्रिभुवन छाईं।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
भले बाबा जोगी बैरागी, उमा लालन कहाँ से लाईं।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
सखियाँ सब मिल करें ठिठोली, उमा झेंप खिसियाईं।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
झूम हिमालय हवन कर रहे, मैना देव मनाईं।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
'शांति' गजानन दर्शन कर ले, सबरे पाप नसाई ।
भोले घर बाजे बधाई.....
*

शिव भजन ३, शांति देवी वर्मा

पूज्य मातुश्री द्वारा रचित शिव भजन ३ 
मोहक छटा पारवती-शिव की 
स्व. शांति देवी वर्मा
*
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
ऊँचो तेरहो-मेढ़ो कैलाश परवत, बीच मां बहे गंग धार।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
शीश पे उमा के मुकुट सुहावे, भोले के जूट-रुद्राक्ष।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
माथे पे गौरी के सिंदूर बिंदिया, शंकर के भस्मी राख।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
सती के कानों में हीरक कुंडल, त्रिपुरारी के बिच्छू कान।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
कंठ शिवा के नौलख हरवा, नीलकंठ के नाग।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
हाथ अपर्णा के मुक्तक कंगन,  डमरू साथ। 
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
कुँवरि बदन केसर-कस्तूरी, महादेव तन राख।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
पहने भवानी नौ रंग चूनर, भोले बाघ की खाल। 
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
दुर्गा रचतीं सकल सृष्टि को, महानाशक महाकाल।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
भुवन मोहनी महामाया हैं, औघड़दानी हैं नाथ ।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
'शांति' सार्थक जन्म दरस पा, सदय शिवा-शिव साथ। 
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*

शिव भजन २, शांति देवी

पूज्य मातुश्री द्वारा रचित शिव भजन २ 
गिरिजा कर सोलह सिंगार
स्व. शांति देवी वर्मा
*
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
माँग में सेंदुर; भाल पे बिंदी, नैनन कजरा सजाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
बेनी गूँथी मुतियन के संग; चंपा-चमेली महकाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
बांह बाजूबंद हाथ में कंगन, नौलखा कंठ सुहाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
कानन झुमका; नाक नथनिया, बेसर हीरा भाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
कटि करधनिया; पाँव पैजनिया, घुँघुरु रतन जड़ाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
बिछिया में मणि; मुंदरी नीलम, चलीं ठुमुक बल खाँय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
लहँगा लाल; चुनरिया नीली गोटा-जरी लगाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
ओढ़ चदरिया सात रंग की,  शोभा बरनि न जाय। 
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
गजगामिन हौले पग धरतीं, मन ही मन मुस्कांय। 
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
नत नयनों; बंकिम सैनों से, अनकहनी कँह जांय। 
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....

शिव भजन १, शांति देवी वर्मा

पूज्य मातुश्री द्वारा रचित शिव भजन १ 
शिवजी की आई बारात 
स्व. शांति देवी वर्मा 
*
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।  
देखन चलिए, मुदित मन रहिए,
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
भूत प्रेत बैताल जोगिनी, खप्पर लिए हैं हाथ। 
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
कानों में बिच्छू के कुंडल सोहें, कंठ सर्प की माल। 
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
अंग बभूत, कमर बाघंबर, नैना हैं लाल विशाल। 
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
कर त्रिशूल-डमरू मन मोहे, नंदी करते नाच। 
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
कर सिंगार भोला बन दूलह, चंदा सजाए माथ। 
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
'शांति' सफल जीवन कर दर्शन, करिए जय-जयकार। 
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*

                 
                           


 

बुधवार, 10 मार्च 2021

लोककथाएँ कहावतों की

लोककथाएँ कहावतों की
१. ये मुँह और मसूर की दाल
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
एक राजा था, अन्य राजाओं की तरह गुस्से का तेज हुए खाने का शौक़ीन। रसोइया बाँकेलाल उसके चटोरेपन से परेशान था। राजा को हर दिन कुछ नया खाने की लत और कोढ़ में खाज यह कि मसूर मसालेदार दाल की दाल राजा को विशेष पसंद थी। मसूर की दाल बाँकेलाल के अलावा और कोई  बनाना नहीं जानता था। इसलिए बांके लाल राजा की मूँछ का बाल बन गया।  
एक दिन बाँकेलाल की साली, अपने जीजा के घर आई। उसकी खातिरदारी में कोई कमी न रह जाए इसलिए बाँकेलाल ने राजा से कुछ दिनों के लिए छुट्टी माँगी। 
राजा के पास उसके मित्र पड़ोसी देश के राजा के आगमन का संदेश आ चुका था।  
हुआ यह कि राजा ने अपने मित्र राजा से बाँकेलाल की बनाई मसूर की दाल की खूब तारीफ की थी। मित्र राजा अपनी रानी सहित आया, ताकि मसूर की दाल का स्वाद ले सके। इसलिए राजा ने बाँकेलाल की छुट्टी मंजूर नहीं की। बाँकेलाल की साली ने उसका खूब मजाक उड़ाया कि  जीजाजी साली से ज्यादा राजा का ख्याल रखते हैं। घरवाली का मुँह गोलगप्पे की तरह फूल गया कि उसकी बहिन के कहने पर भी बाँकेलाल ने उसके साथ समय नहीं बिताया। बाँकेलाल मन मसोसकर काम पर चला गया। 
खीझ के कारण उसका मन खाना बनाने में कम था। उस दिन दाल में नमक कुछ ज्यादा पड़ गया और दाल कुछ कम गली। मेहमान राजा को भोजन में आनंद नहीं आया। नाराज राजा से बाँकेलाल को नौकरी से निकाल दिया। बेरोजगारी ने बाँकेलाल के सामने समस्या खड़ी कर दी। राजा एक रसोइया रह चुका था इसलिए किसी आम आदमी के घर काम करने में उसे अपमान अनुभव होता। घर में रहता तो घरवाली जली-कटी सुनाती। 
कहते हैं सब दिन जात न एक समान, बिल्ली के भाग से छींका टूटा, नगर सेठ मन ही मन राजा से ईर्ष्या करता था। उसे घमंड था कि राजा उससे धन उधार लेकर झूठी शान-शौकत दिखाता था। उसे बाँकेलाल के निकले जाने की खबर मिली तो उसने बाँकेलाल को बुलाकर अपन रसोइया बना लिया और सबसे कहने लगा कि राजा क्या जाने गुणीजनों की कदर करना? 
अँधा क्या चाहे दो आँखें, बाँकेलाल ने जी-जान से काम करना आरंभ कर दिया। सेठ को राजसी स्वाद मिला तो वह झूम उठा। 
सेठ की शादी की सालगिरह का दिन आया। अधेड़ सेठ युवा रानी को किसी भी कीमत पर प्रसन्न देखना चाहता था। उसने बाँकेलाल से कुछ ऐसा बनाने की फरमाइश की जिसे खाकर सेठानी खुश हो जाए। बाँकेलाल ने शाही मसालेदार मसूर की दाल पकाई। सेठ के घर में इसके पहले मसूर की दाल कभी नहीं बनी थी। सेठ-सेठानी और सभी मेहमानों ने जी भरकर मसूर की दाल खाई। सेठ ने बाँकेलाल को ईनाम दिया। यह देखकर उसका मुनीम कुढ़ गया।   
अब सेठ अपना वैभव प्रदर्शित करने के लिए जब-तब मित्रों को दावत देकर वाहवाही पाने लगा। 
बाँकेलाल खुद जाकर रसोई का सामान खरीद लाता था इस कारण मुनीम को पहले की तरह गोलमाल करने का अवसर नहीं मिल पा रहा था। मुनीम बाँकेलाल से बदला लेने का मौका खोजने लगा। बही में देखने पर मुनीम ने पाया की जब से बाँकेलाल आया था रसोई का खर्च लगातार बढ़ था। उसे मौका मिल गया। उसने सेठानी के कान भरे कि बाँकेलाल बेईमानी करता है। सेठानी ने सेठ से कहा। सेठ पहले तो अनसुनी करता रहा पर सेठानी ने दबाव डाला तो उसकी नाराजगी से डरकर सेठ ने बाँकेलाल को बुलाकर डाँट लगाई और जवाब-तलब किया कि वह रसोई का सामान लाने में गड़बड़ी कर रहा है। 
बाँकेलाल को काटो तो खून नहीं, वह मेहनती और ईमानदार था। उसने सेठ को मेहमानों और दावतों की बढ़ती संख्या और मसलों के लगातार लगातार बढ़ते बाजार भाव का सच बताया और मसूर की दाल में गरम मसाले और मखाने आदि डलने की जानकारी दी। सेठ की आँखें फ़टी की फ़टी रह गईं। उसने नौकर को भेजकर किरानेवाले को बुलवाया और पूछताछ की। किरानेवाले ने बताया कि बाँकेलाल हमेशा उत्तम किस्म के मसाले पूरी तादाद में लता था और भाव भी काम करते था। बाँकेलाल बेईमानी के झूठे इल्जाम से बहुत दुखी हुआ और सेठ की नौकरी छोड़ने का निश्चय कर अपना सामान उठाने चला गया। 
वह जा ही रहा था कि उसके कानों में आवाज पड़ी सेठानी नौकर से कह रही थी कि शाम को भोजन में मसूर की दाल बनाई जाए। स्वाभिमानी बाँकेलाल ने यह सुनकर कमरे में प्रवेश कर कहा 'ये मुँह और मसूर की दाल'। मैं काम छोड़कर जा रहा हूँ। 
सेठ-सेठानी मनाते रह गए पाए वन नहीं माना। तब से किसी को सामर्थ्य से अधिक पाने की चाह रखते देख कहा जाने लगा 'ये मुँह और मसूर की दाल'। 
*
संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१। चलभाष ९४२५१८३२४४ (वॉट्सऐप), ईमेल salil.sanjiv@gmail.com 
 
         

अमृत महोत्सव गीत ९

गीत ९
सर्वोदय गीत 
सर्वोदय भारत का सपना।
हो साकार स्वप्न हर अपना।।
*
हम सब करें प्रयास निरंतर।
रखें न मनुज मनुज में अंतर।।
एक साथ हम कदम बढ़ाएँ।
हाथ मिला श्रम की जय गाएँ।।
युग अनुकूल गढ़ों नव नपना।
सर्वोदय भारत का सपना।।
*
हर जन हरिजन हुआ जन्म से।
ले-देकर है वणिक कर्म से।।
रक्षा कर क्षत्रिय हैं हम सब।
हो मतिमान ब्राह्मण हैं सब।।
कर्म साध्य नहिं माला जपना।
सर्वोदय भारत का सपना।।
*
श्रम सीकर में विहँस नहाएँ।
भूमिहीन को भू दे गाएँ।।
ऊँच-नीच दुर्भाव मिटाएँ। 
स्नेह सलिल में सतत नहाएँ।।
अंधभक्ति तज, सच है वरना।
सर्वोदय भारत का सपना।।
*

गीत प्रतिभा सक्सेना

 पठनीय गीत

हिन्दी पढ़ना भूल गए ,
डॉ. प्रतिभा सक्सेना
*
ये मेरे भारत के सपूत अब हिन्दी पढ़ना भूल गए ,
हिन्दी की गिनती क्या जाने, वो पढ़े पहाड़े भूल गए !
सारे विशेष दिन भूल गए त्यौहार कौन सा कब होता,
क्रिसमस की छुट्टी याद कि जैसे पट्टी पढ़ लेता तोता ,
लल्ला-लल्ली से ज्यादा अपने लगते हैं पिल्ला-पिल्ली ,
अंग्रेजी,असली मैडम है ,हिन्दी देसी औरत झल्ली.
रह गये नकलची बंदर बन वह मौज मस्तियाँ भूल गए !
दादी-नानी ये क्या जाने सब इनकी लगती हैं ग्रम्मा
मौसा फूफा क्या होते हैं,,चाची मामी में अंतर ना
फागुन और चैत बला क्या है कितनी ऋतुएं कैसी फसलें,
कुछ अक्षर जैसे ठ ढ़,ण अब श्रीमुख से कैसे निकलें
ञ,फ ,ङ,क्षत्रज्ञ बिसरे अंग्रेज़ी पढ़ कर फूल गए !
करवा पर टीवी का बतलाया ठाठ सिंगार सुहाता है
पर गौरा की पूजा कैसे हो कहाँ समझ में आता है ,
मामा-काका की संताने बस हैं उनके कज़िना-कज़नी,
जीजा-भाभी के नाते इन-लॉ लग कर बन जाते वज़नी,
उनसठ-उन्तालिस-उन्तिस का अन्तर क्या जाने, कूल भए !
इन-लॉ बन कर सब हुआ ठीक ,बिन लॉ के कोई बात नहीं .
है सभी ज़बानी जमा-खर्च रिश्तों में खास मिजाज़ नहीं.
ये अँग्रेज़ी में हँसते हैं ,इँगलिश में ही मुस्काते हैं,
इंडिया निकलता है मुख से भरत तो समझ न पाते हैं
वे सारे अक्षर ,-गुरु स्वर ,मात्राएँ आदि समूल गए !
हा,अमरीका में क्यों न हुए या लंदन में पैदा होते
क्यों नाम हमारा चंदन है ,लिंकन होते ,विलियम होते
आँखें नीली-पीली होतीं ये केश जरा भूरे होते ,
ये वेश हमारा क्यों होता क्यों ब्राउन हैं गोरे होते
हम काहे भारत में जन्मे, क्यों हाय जनम के फ़ूल भये !
*

घनाक्षरी

घनाक्षरी
*


नैन पिचकारी तान-तान बान मार रही, देख पिचकारी ​मोहे ​बरजो न राधिका
​आस-प्यास रास की न फागुन में पूरी हो तो, मुँह ही न फेर ले साँसों की साधिका
गोरी-गोरी देह लाल-लाल हो गुलाल सी, बाँवरे से ​साँवरे की कामना भी बाँवरी-
बैन​ से मना करे, सैन से न ना कहे, नायक के आस-पास घूम-घूम नायिका ​
*
होली पर चढ़ाए भाँग, लबों से चुआए पान, झूम-झूम लूट रहे रोज ही मुशायरा
शायरी हसीन करें, तालियाँ बटोर चलें, हाय-हाय करती जलें-भुनेंगी शायरा
फख्र इरफान पै है, फन उन्वान पै है, बढ़ता ही जाए रोज आशिकों का दायरा
कत्ल मुस्कान करे, कैंची सी जुबान चले, माइक से यारी है प्यारा जैसे मायरा
*

गीत

गीत:
*
ओ! मेरे प्यारे अरमानों, 
आओ, तुम पर जान लुटाऊँ. 
ओ! मेरे सपनों अनजानों- 
तुमको मैं साकार बनाऊँ... 
*
मैं हूँ पंख उड़ान तुम्हीं हो, 
मैं हूँ खेत, मचान तुम्हीं हो. 
मैं हूँ स्वर, सरगम हो तुम ही- 
मैं अक्षर हूँ गान तुम्हीं हो. 
ओ! मेरी निश्छल मुस्कानों 
आओ, लब पर तुम्हें सजाऊँ... 
*
मैं हूँ मधु, मधु गान तुम्हीं हो. 
मैं हूँ शर संधान तुम्हीं हो. 
जनम-जनम का अपना नाता- 
मैं हूँ रस रसखान तुम्हीं हो. 
ओ! मेरे निर्धन धनवानों 
आओ! श्रम का पाठ पढाऊँ... 
*मैं हूँ तुच्छ, महान तुम्हीं हो. 
मैं हूँ धरा, वितान तुम्हीं हो. 
मैं हूँ षडरसमधुमय व्यंजन. 
'सलिल' मान का पान तुम्हीं हो. 
ओ! मेरी रचना संतानों 
आओ, दस दिश तुम्हें गुंजाऊँ...
***
१०-३-२०१० 

दोहा

दोहा दुनिया
आँखमिचौली खेलते , बादल सूरज संग।
यह भागा वह पकड़ता, देखे धरती दंग।।
*
पवन सबल निर्बल लता , वह चलता है दाँव।
यह थर-थर-थर काँपती , रहे डगमगा पाँव।।
*
देवर आये खेलने, भौजी से रंग आज।
भाई ने दे वर रंगा, भागे बिगड़ा काज।।
*

मंगलवार, 9 मार्च 2021

अमृत महोत्सव गीत ८

अमृत महोत्सव गीत ८
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारत की जय बोल 
विश्व मिल भारत की जय बोल।। 
*
मनुज सभ्यता का जन्मस्थल, 
वेद भूमि, नर का कर्मस्थल। 
आदर्शों का जीवनदाता,
जग-जीवन माने धर्मस्थल।।
करे काम निष्काम, 
आप ले अपनी करनी तोल।
भारत की जय बोल 
विश्व मिल भारत की जय बोल।। 
*
दुर्दिन आए, गौरव खोया, 
तजा न साहस, तनिक न रोया।।
धीरज-धर्म सहारे जूझा-
त्याग बीज जन-मन में बोया।।
सत्तावन की क्रांति  
देख अरि दल था डाँवाडोल।  
भारत की जय बोल 
विश्व मिल भारत की जय बोल।। 
हुई जागृति, मिटी भ्रांति जब, 
युवा देश हित करें क्रांति सब। 
गोली खाई, फाँसी झूले-
सत्ता खीझी, हुई न शांति तब।।
'वंदे मातरम्' गान 
रहा था, गोरों में भय घोल। 
भारत की जय बोल 
विश्व मिल भारत की जय बोल।। 
भारत की सरकार बनाई,
नेताजी ने आस जगाई। 
देख फ़ौज थर्राए गोरे-
'दिल्ली चलो' दहाड़ लगाई।।
अणुबम से जापान डरा 
आया जैसे भूडोल। 
भारत की जय बोल 
विश्व मिल भारत की जय बोल।। 
सत्याग्रह का शस्त्र मिला जब,
आंदोलन का अस्त्र फला तब। 
दांडी जाकर नमक बनाया 
बापू ने, अरि-सूर्य ढला अब।।
नव संकल्पों की साक्षी 
रावी थी रही किलोल। 
भारत की जय बोल 
विश्व मिल भारत की जय बोल।। 
गाँधी की आँधी में, गोरा 
शासन तिनके भाँति उड़ गया। 
आजादी की हँसी-ख़ुशी में 
बँटवारे का दर्द जुड़ गया।।  
पस्त हुए अंग्रेज, 
खुल गई  अन्यायी की पोल। 
भारत की जय बोल 
विश्व मिल भारत की जय बोल।। 
नव भारत ने होश सम्हाला,
पंचशील का सपना पाला। 
बाँध कारखानों सड़कों से 
ट्राम्बे ने था हाथ मिलाया।।
द्रुत विकास का
चक्र चल पड़ा पिटा विश्व में ढोल। 
भारत की जय बोल 
विश्व मिल भारत की जय बोल।। 
*   
स्वतंत्रता के साल पचहत्तर, 
निर्भरता का फूँकें मंतर।
साबरमती कहे सब मिलकर,
बना देश को दें अभ्यंकर।।
कंकर-कंकर कर दें शंकर
करें न टालमटोल। 
भारत की जय बोल 
विश्व मिल भारत की जय बोल।। 
*   
हर मुश्किल को मानें अवसर,
परचम फहरे जल-थल-नभ पर। 
आयुर्वेद-योग गुरु हैं हम,
जगवाणी हिंदी दे अवसर।।
नेह नर्मदा सलिल 
आचमन कर लें किस्मत खोल। 
भारत की जय बोल 
विश्व मिल भारत की जय बोल।। 
*



अमृत महोत्सव गीत ७

अमृत महोत्सव गीत ७  
*
ध्वजा तिरंगी वंदन करती 
स्वतंत्रता का फहर फहर कर। 
साबरमती नदी की लहरें 
कलकल करतीं सिहर सिहर कर।।
*
संकल्पों की नई इबारत, 
दांडी यात्रा ने लिख दी थी। 
सत्याग्रहियों ने सत्ता से, 
जूझ नाक में दम कर दी थी।। 
गोरों की काली सत्ता का, 
मिटा अँधेरा; सूरज ऊगा-
लाल किले से नव युग की 
वाणी गूँजी थी ठहर ठहर कर।   
ध्वजा तिरंगी वंदन करती 
स्वतंत्रता का फहर फहर कर।। 
*
ट्राम्बे भेल भिलाई भाखरा, 
नव भारत के तीर्थ बने तब।
सर्वोदय से अंत्योदय तक 
करी यात्रा जनगण ने अब।।
जगवाणी हो हिंदी कहती 
जगद्गुरु भारत की महिमा-
इसरो, आई टी, कोरोना में  
क्षमता बिखरी शिखर नगर पर। 
ध्वजा तिरंगी वंदन करती 
स्वतंत्रता का फहर फहर कर।। 
*
पर न मारता कोई परिन्दा 
सरहद पर सेना सशक्त है। 
उद्यम कौशल युवा शक्ति का 
सचमुच सारा जगत भक्त है।।
योग सिखाते जगद्गुरु हम, 
लिखते कथा-कथानक कल का- 
हैं संजीव न जीव मात्र हम,
प्रतिभा निखरे उभर उभर कर।  
ध्वजा तिरंगी वंदन करती 
स्वतंत्रता का फहर फहर कर।। 
*

राजीव गण / माली छंद

 कार्यशाला

राजीव गण / माली छंद
*
छंद-लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १८ मात्रा, यति ९ - ९
लक्षण छंद:
प्रति चरण मात्रा, अठारह रख लें
नौ-नौ पर रहे, यति यह परख लें
राजीव महके, परिंदा चहके
माली-भ्रमर सँग, तितली निरख लें
उदाहरण:
१. आ गयी होली, खेल हमजोली
भिगा दूँ चोली, लजा मत भोली
भरी पिचकारी, यूँ न दे गारी,
फ़िज़ा है न्यारी, मान जा प्यारी
खा रही टोली, भाँग की गोली
मार मत बोली,व्यंग्य में घोली
तू नहीं हारी, बिरज की नारी
हुलस मतवारी, डरे बनवारी
पोल क्यों खोली?, लगा ले रोली
प्रीती कब तोली, लग गले भोली
२. कर नमन हर को, वर उमा वर को
जीतकर डर को, ले उठा सर को
साध ले सुर को, छिपा ले गुर को
बचा ले घर को, दरीचे-दर को
३. सच को न तजिए, श्री राम भजिए
सदग्रन्थ पढ़िए, मत पंथ तजिए
पग को निरखिए, पथ भी परखिए
कोशिशें करिए, मंज़िलें वरिये
************************
९-३-२०२०

महिला दिवस

एक रचना
महिला दिवस
*
एक दिवस क्या
माँ ने हर पल, हर दिन
महिला दिवस मनाया।
*
अलस सवेरे उठी पिता सँग
स्नान-ध्यान कर भोग लगाया।
खुश लड्डू गोपाल हुए तो
चाय बनाकर, हमें उठाया।
चूड़ी खनकी, पायल बाजी
गरमागरम रोटियाँ फूली
खिला, आप खा, कंडे थापे
पड़ोसिनों में रंग जमाया।
विद्यालय से हम,
कार्यालय से
जब वापिस हुए पिताजी
माँ ने भोजन गरम कराया।
*
ज्वार-बाजरा-बिर्रा, मक्का
चाहे जो रोटी बनवा लो।
पापड़, बड़ी, अचार, मुरब्बा
माँ से जो चाहे डलवा लो।
कपड़े सिल दे, करे कढ़ाई,
बाटी-भर्ता, गुझिया, लड्डू
माँ के हाथों में अमृत था
पचता सब, जितना जी खा लो।
माथे पर
नित सूर्य सजाकर
अधरों पर
मृदु हास रचाया।
*
क्रोध पिता का, जिद बच्चों की
गटक हलाहल, देती अमृत।
विपदाओं में राहत होती
बीमारी में माँ थी राहत।
अन्नपूर्णा कम साधन में
ज्यादा काम साध लेती थी
चाहे जितने अतिथि पधारें
सबका स्वागत करती झटपट।
नर क्या,
ईश्वर को भी
माँ ने
सोंठ-हरीरा भोग लगाया।
*
आँचल-पल्लू कभी न ढलका
मेंहदी और महावर के सँग।
माँ के अधरों पर फबता था
बंगला पानों का कत्था रँग।
गली-मोहल्ले के हर घर में
बहुओं को मिलती थी शिक्षा
मैंनपुरी वाली से सीखो
तनक गिरस्थी के कुछ रँग-ढंग।
कर्तव्यों की
चिता जलाकर
अधिकारों को
नहीं भुनाया।
***

षट्पदी

षट्पदी 
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य 
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश 
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश 
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म 
ज्यों की त्यों चादर रखे, निभा 'सलिल' निज धर्म
*

समीक्षा मन के वातायन नीलमणि दुबे

'मन के  वातायन'  में गूँजते प्रेम गीत  
नीलमणि दुबे:

'प्रेम ' के उच्चारण मात्र से अधरोष्ठ जुड़ जाते हैं; वहीं 'विदायी' के उच्चारण में अधरोष्ठ से लेकर नाभि तक कंपित करती वायु उच्छ् वसित होकर गहरा झटका देती हुयी प्राणों को ही खींच ले जाती है! प्रेम का मूल राग है ¡ राग अर्थात् जुड़ना ¡
मनुष्य विशिष्ट, समशील और इतर से सहज जुड़ जाता है ¡ राग का विलोम वैराग्य या विराग है ;जिसका एक अर्थ विशिष्ट के प्रति राग भी है¡ साहित्य, संगीत व कलाओं का मूल राग -रूप प्रेम ही है ¡ भले ही ज्ञानी जन- "राग रोष इरषा मद मोहू!जनि सपनेहुँ इनके बस होहू!! "- का उपदेश दें ;किंतु सहज मानव-प्रकृति राग से आमूलचूल आबद्ध होकर ही सहज सार्थकता पाती है ¡ "मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही ना हाथ"-की उद्घोषणा करने वाले 'प्रेम का ढाई आखर पढ़ कर पंडित हुए' कबीर मनुष्य होने की सार्थकता प्रेम में पाते हैं-" जेहि घट प्रीति न संचरै सो घट जान मसान! "
प्रेम के वशीभूत ब्रह्म 'छछिआ भर छाछ' पर नाचता है, शकुंतला की विदायी में लताएँ पीतपत्र -रूप अश्रु मोचित करती हैं, यक्ष की पीड़ा के शमनार्थ मेघ और नागमती के विरह से द्रवित पक्षी दूत -कर्म स्वीकार करते हैं, राम 'खग, मृग और मधुकर श्रेनी' से सीता का पता पूछते हैं ; तो घनानंद रक्त की अंतिम बूँद से निष्ठुर सुजान को पत्र भेजते हैं ¡
यह प्रेम ही है -"जो चेतन कहँ जड़ करइ, जड़हिं करइ चैतन्य"-की सामर्थ्य रखता है ¡
इस प्रेम का मार्ग इतना सीधा है कि चतुरता का थोड़ा भी टेढ़ापन इसे अस्वीकार्य है! इस मार्ग में होश खो देने वाले चल पाते हैं ;तो होश रखने वाले थक जाते हैं-"सूधे ते चलैं, रहैं सुधि कै थकित ह्वै!" इस गहरे सागर में हजारों रसिकों के मन डूब जाते हैं¡ प्रेम में हार कोटिश: जीत से श्रेयस्कर है ¡ श्री 'श्याम मनोहर सीरोठिया' जी की कृति 'मन के वातायन ' इसी महत्तर प्रेम का महत्तर आख्यान और सुष्ठु गीतों की महत्वपूर्ण कड़ी है ¡ अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से सम्मानित, आजीविका से चिकित्सक श्री सीरोठिया जी शल्यक्रिया और रोगों के निदान में जितने सिद्धहस्त हैं;मनोभावों की पड़ताल और भाव-भंगिमाओं के अंकन में भी उतने ही निष्णात हैं ¡
प्रत्येक गीत गहरे भाव- सागर में पैठकर निकाला गया महार्घ मोती है¡ 
कबीर एकात्मक संबंध को प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति -"हरि मोर पीव, मैं राम की बहुरिया, राम बड़े, मैं छटुक लहुरिया"- कहकर देते हैं!
प्रेम के रस का पान करने के लिए सिर अर्थात् अहं और द्वित्व का विसर्जन करना पड़ता है ¡ प्राण साधना में दीप से जलते हैं; तो कभी सुधियाँ ही दीप बन जाती हैं ¡नारी प्रेरणा मयि ज्योति का प्रतिरूप है और प्रेम गहन तिमिर में उज्ज्वल प्रकाश-
"मन की चौखट पर सुधियों का;
निशदिन मैंने दीप जलाया,
दीप- रश्मियों में स्वर्णिम सा;
रूप तुम्हारा मैने पाया,
तुम जीवन के अँधियारों में;
नये उजाले भर जाती हो! "
किसी शायर ने कहा है-
"दिन अपने चरागों के मानिंद गुज़रते हैं,
हर सुबह को जल जाना, हर शाम को बुझ जाना !"-किंतु सीरोठिया जी के गीतों में निराश -नाकाम उम्मीद नहीं , प्रतीक्षा की अविराम जगमगाहट है ;जो चौंकाती नहीं, आश्वस्त करती है! वह क्षण भी आता है जब पूजा के बाह्य उपादानों की आवश्यकता नहीं रह जाती-
"गीत प्रणय की पूजा थाली,
अक्षत चंदन है ¡
मनुहारों की सजल प्रार्थना,
उर का वंदन है ¡¡"
आतुर -आकुल हृदय निरंतर अवदान में सार्थकता पाता है-"तृप्ति पाने के लिए खुद बूँद से गलते रहें ¡" हलाँकि -"इच्छाओं की दीपशिखा को कुंठाओं ने बुझा दिया"; किंतु कवि की आत्मिक शक्ति उसका अखंड विश्वास है-"मंजिलों के फासले हों ;किंतु हम चलते रहें ¡"
अभाव व्यतीत की महत्ता का बोध कराता है ¡ प्रिय के साथ बिताए गए क्षणों की सुधि कवि का पाथेय है-
"महुआ थे, संदल थे वे क्षण;
जिनमें अपना साथ रहा,
हर मुश्किल आसान हो गयी;
जब हाथों में हाथ रहा,
हमने एक उमर जी ली थी;
पल -दो -पल सँग रह करके ¡"
महुआ वन -प्रांतर को मोहक- मादक और संदल परिवेश को पावन-सौम्य सुरभि से महमहा देते हैं! यह मदिर मादकता और पावन स्पर्श की अनुभूति चेतना में आज भी रची- बसी प्राणों का संचार करती है ¡
स्मृतिकार लिखतीं हैं-
"प्रत्येक वस्तु में सहसा;
स्पर्श जाग उठता है,
मैं यहाँ छिपा हूँ , पा लो,
हँसकर अमूर्त कहता है! "
इसी अमूर्त स्पर्श की अनुभूत संतुष्टि छटपटाहट में परिणत होकर आशा-निराशा के शतरंगे दुकूल बुनती है ¡अदम्य जिजीविषा के केंद्र में स्वस्फूर्त आशा चेतना रूप झरती और जीवन को आलोकित करती है! समूची प्रकृति प्रिय की पुकार बन जाती है-
"घने बादलों के पीछे से;
छुप-छुप कर यह किसे पुकारे,
पहले भी आता था लेकिन;
आज चाँद के तेवर न्यारे,
बजा गया आकर चुपके से;
रजनी के द्वारे की साँकल ¡"
ऐसे सुंदर बिंब कृति में यत्र-तत्र उरेहे गए हैं ¡ अव्याहत कांत कल्पनाएँ और चारु चित्र मुग्ध करते हैं-
"सकुचायी, सिमटी, घबरायी;
रजनी आज लाज से हारी,
चपल चाँद का प्रणय -निवेदन;
ठुकराये अथवा स्वीकारे ¡"
सुख के उपादान विरह में मर्मांतक पीड़ा देते हैं ¡ समूची प्रकृति मनोभावों का दर्पण हो जाती है-
"मेरी आँखों के मोती ही;
सुबह ओस बनकर बिखरे हैं,
पुष्पों के मनमोहक रँग भी;
मेरे सपनों में निखरे हैं ¡"
कवि की पीड़ा ,बेबसी और भावना संकीर्ण सीमाओं को लाँघ समष्टि तक विस्तार पाती हैं ! भाषा और भावों की सूक्ष्मता और सांकेतिकता में मर्यादित गांभीर्य सर्वत्र दिखलायी पड़ता है-
"याद हैं कश्मीर की वे;
बर्फ से भींगी हवाएँ,
किंतु जब छूलें हमें तो;
देह में पावक जगाएँ,
इस दहकती आग को फिर;
शमन करने का इशारा! "
कहीं भी भाव व भाषा संयम की वल्गा नहीं छोड़ते ¡
'मन के वातायन' से अनुभूत मनोभावों के शीतल-सुखद झोंके और अपनी झलक दिखाता विविध वर्णी भाव-भंगिमाओं का दृष्यमान मनमोहक सुंदर संसार आद्यंत बाँधे रहता है ¡ महादेवी वर्मा संबंध को परिभाषित करते हुए लिखती हैं-
"मैं हूँ तुमसे एक, एक हैं जैसे रश्मि-प्रकाश!
मैं हूँ तुमसे भिन्न, भिन्न ज्यों घन से तड़ित -विलाश!! "
निराला जी लिखते हैं-
"तुम तुंग हिमालय- शृंग और मैं चंचल जल सुरसरिता!
तुम विमल हृदय उच्छ् वास और मैं कांत कामिनी कविता!! "
उसी महाभाव में अवस्थित कवि कहता है-
"बरसाने की व्यथा-कथा मैं;
वृंदावन का महारास तुम,
मैं मीरा का छंद वियोगी;
रसिक बिहारी का विलास तुम ,
शकुंतला का व्यथित हृदय मैं;
तुम पुरुवंशी उर-वसंत हो ¡"
हृदय के समर्पण, प्रिय के वैराट्य और स्व के लघुत्व का यह दिग्दर्शन प्रेम को उस उच्च भूमि पर प्रतिष्ठित करता है ;जहाँ वियोग भी योग बन जाता है ;बकौल गोस्वामी तुलसीदास-
"राम सों बड़ो है कौन;मोसों कौन छोटो!
राम सों खरो है कौन; मोसों कौन खोटो!! "
कवि का प्रिय अभौतिक,अमांशल या अशरीरी नहीं , वह उसका अनेकशः स्पष्ट उल्लेख करता है-
"समय लिए अपने हाथों में;
बीते जीवन की किताब को,
चुपके से रख देते थे हम;
खिले हुए मन के गुलाब को,
अपनेपन की गंध आज भी;
इसमें शेष हमें बहलाने ¡
साँझ ढले फिर याद तुम्हारी;
आयी चुपके से सिरहाने! "
मीर का शेर है-
"तुम मेरे पास होते हो;
गोया जब कोई दूसरा नहीं होता"! "एकांत क्षणों में हम अपने पास या अपनों के पास होते हैं --
" मन के सूने घर में अक्सर;
तुम चुपचाप चली आती हो,
मुझे अचानक छू जाती हो;
कभी- कभी शीतल समीर सी! "
हलचल भरे उर की अनुभूत कथा लिखने में अक्षर बौने हो जाएँ तो क्या आश्चर्य? किसी के होने का सुख हर मुश्किल आसान कर देता है! प्रिय का आभास हर पल मिलता है-
"तुम ही हो मुसकान हृदय की;
तुम ही रहती आभासों में,
कभी विरह के पतझर में तुम;
कभी मिलन के मधुमासों में,
× × ×
इंद्रधनुष मेरे सपनों में
चुपके से तुम भर जाती हो! "
ये भाव पीड़ा की अतल गहरायी और सघन -सांद्र अनुभूति से छन-छन कर निथरे हैं ¡ पीड़ा का उत्ताप और लंबी प्रतीक्षा प्रेम को तप बना देते हैं ¡ नागमती के प्राण भाड़ में भुनते , उस तप्त अनाज की तरह हैं ;जो गर्म रेत में उछलता तो है पर पुन: उसी में गिर पड़ता है- "लागेउँ जरैं, जरै जस भारू!
फिरि-फिरि भूँजेसि तजेसि न बारू!! "
आशा के दीप की लौ कभी मंद
नहीं होती-
"सपनों की चौखट पर अब भी;
आशाओं का दीप जल रहा,
शायद कभी लौट आओ तुम;
मन में यह संघर्ष चल रहा ¡"
कवि को दीप का उपमान अत्यंत प्रिय है ¡
पारिवारिक परिवेश और अपनेपन की ऊष्मा तथा गरिमामय आत्मीयता सबको अपने में समा लेती है-
"आंगन के तुलसी चौरा पर ;
आशीषों की गंध महकती ,
रहे सदा परिवार सुरक्षित;
मंदिर में सौगंध चहकती,
× × ×
भीतर-भीतर स्वयं टूटकर;
बाहर कौन बचाता है घर ¡"
प्रकृति सुख-दु:ख में सहभागी
आदि सहचरी है ¡संध्या, चाँदनी, बसंत, खिलते पुष्प सभी सुधियों के वाहक हैं ¡ उपमा, रूपक, सांगरूपक,रूपकातिशयोक्ति,
मानवीकरण, प्रतीकविधान, बिंब विधान,विशेषण-विपर्यय ,मनोवै-ज्ञानिक चित्रण आदि के द्वारा प्रकृति के सुंदर चित्र खींचे गए हैं-
" टेसू , गुलमोहर बौराये;
वाचाल हुयी अरुणाई है,
महुए की छाँव पवन बैठा;
लो मचल गयी तरुणाई है,
ऋतुराज कर रहा अश्वमेध;
चर्चा फैली यह दिग् दिगंत ¡"
सांकेतिक प्रकृति -चित्रण का एक उदाहरण दृष्टव्य है-
"शकुन लिए कागा मुँड़ेर पर;
ललित पुष्प अभिसार खिलेगा,
पतझर से बीमार विपिन को ;
मधुमासी उपचार मिलेगा ¡"
प्रकृति का उद्दीपक रूप देखें-
"बूँदों की वाणी में मुखरित;
मन के सब संवाद रसीले,
फिर से कसने लगे हृदय को;
सुधियों के भुजपाश गठीले,
मधुर मिलन की घड़ी आ गयी;
समय गया अब इंतजार का ¡"
× × ×
आज देह के चंदन वन में;
मचल उठीं मादक सरिताएँ;
संयम के दादुर पढ़ते हैं;
आदर्शों की वेद ऋचाएँ ¡ "
मानवीकरण-
"दिन बैठे हैं सन्यासी से,
जोगन सी रातें ¡"
मिथकीय प्रकृति -चित्रण-
मेघदूत लेकर आया है ;
नेह -निमंत्रण की पाती ¡"
रूपक-
"बाँच रही है घटा देह की;
छिपकर मन में सकुचाती ¡"
गीत को परिभाषित करते हुए महादेवी वर्मा कहती हैं-"सुख-दु:ख की भावावेश मयी अवस्था स्वरसाधना के अनुकूल गिने-चुने शब्दों में चित्रित करना गीतिकाव्य है ¡ " अर्थगांभीर्य, स्वानुभूति, आत्माभिव्यक्ति, संक्षिप्तता,सारल्य,आलंकारिकता, संगीतात्मकता, गेयता भावप्रवणताआदि गीतिकाव्य के प्रमुख तत्व हैं! इन सभी तत्वों से समृद्ध आलोच्य कृति के गीत हिंदी -गीत -परंपरा को समृद्ध करेंगे और सुधीजनों द्वारा समादृत होंगे इसी शुभाशंसा एवं मंगलाशा के साथ-
नीलमणि दुबे: महादेवी के आकुल प्राण पुकार उठते हैं-
"पर शेष नहीं होगी यह;
मेरे प्राणों की व्रीड़ा,
तुमको पीड़ा में ढूँढ़ा;
तुममें ढूढ़ूँगी पीड़ा ¡"
प्रीति वही सत्य है; जो प्रिय से विलग होते ही प्राणों का परित्याग कर दे-"बिछुरत दीन दयाल, प्रिय तन तृन इव परिहरेउ"-किंतु घनानंद कहते हैं वह मीन मेरी प्रीति की समानता को कैसे पा सकती है ;जो नीर के स्नेह को कलंकित कर निराश होकर प्राण त्याग देती है-
"हीन भये जल मीन अधीन; कहा भो मो अकुलान समानै,
नीर सनेही को लाय कलंक;
निरास ह्वै कायर त्यागत प्रानै!"
प्रीति की सार्थकता विश्वास बनाए रखकर पीड़ा के उत्ताप में मौन तपने में है-
"चुपचाप कहीं छिपकर मन में;
जब बरसों विरह दहकता है,
तब कहीं प्रीति का चंदन वन;
साँसों के बीच महकता है ¡
शब्दों तक सीमित नहीं कभी;
अपने पन की परिभाषा है,
यह भाव चेतना संवेदन;
सुख-दु:ख में आस-निराशा है ¡
उर भूमि डोलती घबराकर;
सुधियों के ज्वालामुखी फटे---"
विस्फोट के परिणामों का आकलन किया जा सकता है¡
कभी सुधियों के ज्वालामुखी विस्फोट करते हैं; तो कभी मन- मृग सुधियों की कस्तूरी में मग्न मरुथल में भटकता है-
"सुधियों की कस्तूरी ,मन मृग;
रिश्तों के मरुथल में भटका,
बचा नहीं हम सके अचानक;
विश्वासों का दर्पण चटका ¡"
किंतु आस्था और आशा की डोर हृदय नहीं छोड़ता-
"खंडित है मन लेकिन 
विश्वास नहीं टूटा ¡"
ज्योति रूप प्रिय की छवि अंधकार को दलमल देती है-
"तिमिर तिरोहित हुआ;
ज्योति तुम धन्य धवल हो! "
भले ही पीड़ाएँ हैं पर-"तुमको पा लेने का संकल्प नहीं छूटा" क्योंकि-
"बौराया मन नहीं सुन रहा:
मंत्र कहीं कोई सुधार का ¡"
यह मन बेमोल बिक गया है-
"बिना मोल के मन बिकता है;
निज के अर्पण में ¡"
*
प्रो.नीलमणि दुबे
विभागाध्यक्ष-हिंदी,
पं.एस.एन.शुक्ला वि.वि., शहडोल, म.प्र.
484001

शिव

शिव
"...कालिदास ने मालविकाग्निमित्र में शिव के नृत्य को देवताओं की आंखों को सुहाने वाला यज्ञ कहा है। तण्ड मुनि द्वारा प्रचारित होने से यह ताण्डव कहलाया। तण्डु ने अभिनय निमित्त इसे भरतमुनि को दिया। अभिनवगुप्त की टीका मंे तण्डु ही शिव के गण नन्दी हैं।
शिव का रूद्रावतार संगीत कला का पर्याय है। इसी अवतार में उन्होंने नारद को संगीत का ज्ञान दिया। ‘संगीत मकरंद’ में शिव की कला का ही गान है।..."

कृष्ण चिंतन ७

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर 
*
कृष्ण-चिंतन ७
कृष्ण चिंतन के गत छ: सत्रों में आप सबकी बढ़ती रुचि और सहभागिता हेतु हृदय से धन्यवाद। 
अगले सत्र का विषय है 'कृष्ण नीति'।
कृष्ण ने अनेक समस्याओं और शत्रुओं का सामना असाधारण योग्यता के साथ कर अपने शत्रुओं को अवाक किया। आपकी दृष्टि में कृष्ण के जीवन में कौन सी समस्या महत्वपूर्ण और जटिल है जिस के समाधान हेतु उन्होंने विशिष्ट नीति का अनुसरण किया?, उसकी उस समय में क्या उपादेयता थी? इस काल में वह नीति कितनी अनुकरणीय है? आदि बिंदुओं पर आलेख यूनीकोड में टंकित कर, रविवार रात तक संयोजक आचार्य संजीव वर्मा सलिल ९४२५१८३२४४ व संचालक सरला वर्मा ९७७०६७७४५४ को भेजिए।
आलेखों की जीवंत प्रस्तुति करने हेतु आप सोमवार अपराह्न चार बजे से छै बजे के मध्य गूगलमीट पर आमंत्रित हैं, लिंक सोमवार दोपहर को मिलेगी।
चयनित आलेख divyanarmada.in पर प्रकाशित किए जाएँगे।
*