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शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

मुक्तक

मुक्तक
*
मतदान कर, मत दान कर, जो पात्र उसको मत मिले।
सब जन अगर न पात्र हों, खुल कह, न रखना लब सिले।।
मत व्यक्त कर, मत लोभ-भय से, तू बदलना राय निज-
जन मत डरे, जनमत कहे, जनतंत्र तब फूले-फले।।
*
भाषा न भूषा, जात-नाता-कुल नहीं तुम देखना।
क्या योग्यता, क्या कार्यक्षमता, मौन रह अवलोकना।।
क्या नीति दल की?, क्या दिशा दे?, देश को यह सोचना-
उसको न चुनना जो न काबिल, चुन न खुद को कोसना।।
*
जो नीति केवल राज करने हेतु हो, वह त्याज्य है।
जो कर सके कल्याण जन का, बस वही आराध्य है।
जनहित करेगा खाक वह, दल-नीति से जो बाध्य है-
क्यों देश-हित में सत नहीं, आधार सच्चा साध्य है।।
*
शासन-प्रशासन मात्र सेवक, लोक के स्वामी नहीं।
सुविधा बटोरें, भूल जनगण, क्या यही खामी नहीं?
भत्ते व वेतन तज सभी, जो लोकसेवा कर सके-
वही जनप्रतिनिधि बने, क्यों भरें सब हामी नहीं??
*
संजीव
२७-११-२०१८

गुरुवार, 26 नवंबर 2020

अकथा नैवेद्य

एक अकथा 
नैवेद्य 
*
- प्रभु! मैं तुम सबका सेवक हूँ। तुम सब मेरे आराध्य हो। मुझे आलीशान महल दो। ऊँचा वेतन, निशुल्क भोजन, भत्ते, गाड़ी, मुफ्त इलाज का व्यवस्था कर दो ताकि तुम्हारी सेवा-पूजा कर सकूँ। बच्चे ने प्रार्थना की।
= प्रभु की पूजा तो उनको सुमिरन से होती है। इन सुविधाओं की क्या जरूरत है? 
- जरूरत है, प्रभु त्रिलोक के स्वामी हैं। उन्हें छप्पन भोग अर्पण तभी कर सकूँगा जब यह सब होगा।
= प्रभु भोग नहीं भाव के भूखे होते हैं। 
- फिर भाव अर्पित करनेवालों को अभाव में क्यों रखते हैं?
= वह तो उनकी करनी का फल है। 
- इसीलिये तो, प्रभु से माँगना गलत कैसे हो सकता है? फिर जो माँगा उन्हीं के लिए
= लेकिन यह गलत है। ऐसा कोई नहीं करता ।
- क्यों नहीं करता? किसान का कर्जा उतारने के लिए एक दल से दूसरे दल में जाकर सरकार बनाने की जनसेवा हो सकती है तो प्रभु से माँगकर प्रभु की जन सेवा क्यों नहीं हो सकती? 
मंदिर में दो बच्चों की वार्ता सुनकर स्तब्ध थे प्रभु लेकिन पुजारी प्रभु को दिखाकर ग्रहण कर रहा था नैवेद्य।
***
संजीव
७९९९५५९६१८ 
२६-११-२०१९

सामयिक नवगीत

 सामयिकबुंदेली नवगीत

*
नाग, साँप, बिच्छू भय ठाँड़े,
धर संतन खों भेस।
*
हात जोर रय, कान पकर रय,
वादे-दावे खूब।
बिजयी हो झट कै दें जुमला,
मरें नें चुल्लू डूब।।
की को चुनें, नें कौनउ काबिल,
कपटी, नकली भेस।
*
सींग मार रय, लात चला रय,
फुँफकारें बिसदंत।
डाकू तस्कर चोर बता रय,
खुद खें संत-महंत।
भारत मैया हाय! नोच रइ
इनैं हेर निज केस।
*
जे झूठे, बे लबरा पक्के,
बाकी लुच्चे-चोर।
आपन माँ बन रय रे मिट्ठू,
देख ठठा रय ढोर।
टी वी पे गरिया रय
भत्ते बढ़वा, सरम नें सेस।
*
संजीव,
२६-११-२०१८

दोहा सलिला

दोहा सलिला 
राम आत्म परमात्म भी, राम अनादि-अनंत
चित्र गुप्त है राम का, राम सृष्टि के कंत
*
विधि-हरि-हर श्री राम हैं, राम अनाहद नाद
शब्दाक्षर लय-ताल हैं, राम भाव रस स्वाद
*
राम नाम गुणगान से, मन होता है शांत
राम-दास बन जा 'सलिल', माया करे न भ्रांत
*

मुक्तक

 मुक्तक:

मेरी तो अनुभूति यही है शब्द ब्रम्ह लिखवा लेता
निराकार साकार प्रेरणा बनकर कुछ कहला लेता
मात्र उपकरण मानव भ्रमवश खुद को रचनाकार कहे
दावानल में जैसे पत्ता खुद को करता मान दहे
*
बात न करने को कुछ हो तो कहिये कैसे बात करें?
बिना बात के बात करें जो नाहक शह या मात करें
चोट न जो सह पाते देते पड़ती तो रो देते हैं-
दोष विधाता को दे कहते विधना क्यों आघात करे??
*

काव्यांजलि

काव्यांजलि 
*
सलिल-धार लहरों में बिम्बित 'हर नर्मदे' ध्वनित राकेश
शीश झुकाते शब्द्ब्रम्ह आराधक सादर कह गीतेश
जहाँ रहें घन श्याम वहाँ रसवर्षण होता सदा अनूप
कमल कुसुम सज शब्द-शीश गुंजित करता है प्रणव अरूप
गौतम-राम अहिंसा-हिंसा भव में भरते आप महेश
मानोशी शार्दुला नीरजा किरण दीप्ति चारुत्व अशेष
ममता समता श्री प्रकाश पा मुदित सुरेन्द्र हुए अमिताभ
प्रतिभा को कर नमन हुई है कविता कविता अब अजिताभ
सीता राम सदा करते संतोष मंजु महिमा अद्भुत
व्योम पूर्णिमा शशि लेखे अनुराग सहित होकर विस्मित
ललित खलिश हृद पीर माधुरी राहुल मन परितृप्त करे
कान्त-कामिनी काव्य भामिनि भव-बाधा को सुप्त करे
*
२६-११-२०१४ 

बुधवार, 25 नवंबर 2020

व्यंग्य लेख : ब्रह्मर्षि घोंचूमल तोताराम

 व्यंग्य लेख : १ 

ब्रह्मर्षि घोंचूमल तोताराम
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
घोर कलिकाल में पावन भारत भूमि को पाप के ताप से मुक्त करने हेतु परमपिता परमेश्वर अनेकानि देवतानि महागुरु का स्वरूप धारण कर यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रगट होते भये। कोई देश में, कोई परदेश में, कोई विदेश में, कोई दाढ़ी बढ़ाकर, कोई मूँछ मुँड़ाकर, कोई चाँद घुटाकर, कोई भगवा वसन पहनकर, कोई अगवा नारी को ग्रहणकर, कोई आत्म कल्याण स्वहित व स्वसंतुष्टि के माध्यम से 'आत्मा सो परमात्मा' के सिद्धांतानुसार 'स्व सेवा' को 'प्रभु सेवा' मानकर, द्वैत दूरकर अद्वैत साधना के पथ पर प्रवीण होते भये। परदे के सम्मुख  'जो त्यागी-वैरागी सो आत्मानुरागी' का जयघोष  करते हुए, परदे के पीछे रासलीला की दिव्य ईश्वरीय क्रीड़ा को मूर्त करते हुए महागुरु विविध कथा प्रसंगों के माध्यम से भिन्न-भिन्न रूप धारणकर परकीया को स्वकीया बनाकर होने की निमग्न होते भये। 'महाजनो येन गत: स पंथा: की परंपरा का निर्वहनकर दैहिक ताप को मिटाने की सुरेंद्र परंपरा के नव अध्याय लिखते हुए रस भोग और रास योग करने की दिव्य कला साधना में निमग्न सिद्ध पुरुषों में हमारे लेख नायक महागुरु ब्रह्मर्षि श्री श्री ४२० घोंचूमल तोताराम जी महाराज अग्रगण्य हैं।

घोंचूमल तोताराम जी की दिव्य लीलावतरण कथा ब्लैक होल के घुप्प अन्धकार में प्रकाश कण के अस्तित्व की भाँति अप्राप्य है। 'मुर्गी पहले हुई या अंडा' के हल की तरह की तरह कोई नहीं जानता कि उन्होंने कहाँ-कब-किस महिमामयी के दामन को पल-पुसकर धन्य किया तथापि यह सभी जानते हैं कि अगणित लावण्यमयी ललनाओं को हास-परिहास, वाग-विलास व खिलास-पिलास के सोपानों पर सहारा देकर अँगुली पकड़ते ही पहुँचा पकड़ने में उन्होंने निमिष मात्र भी विलम्ब नहीं किया और असूर्यम्पश्याओं, लाजवंतियों तथा आधुनिकाओं में कोई भेद न कर सबको समभाव से पर्यंकशायिनी ही नहीं, दूध-पूतवती बनाकर उनके इहलोक व परलोक का बंटाढार करने की महती अनुकंपा करते समय 'बार बार देखो, हजार बार देखो' का अनुकरण कर अपरिमेय पौरुष को प्रमाणित किया है। 

महागुरु घोंचूमल जी का 'घों' घपलों-घोटालों संबंधी दक्षता तथा पुरा-पड़ोस में ताँक-झाँककर उनकी घरवालियों को अपनी समझने की वैश्विकता में प्रवीण होने का प्रतीक है। धर्म-संस्कार की ध्वजा थामे घोंचूमल ने नाम के आगे 'ब्रह्मर्षि' और पीछे 'महाराज' जोड़कर चेलों से प्रचारित कराने के लिए फ़ौरन से पेश्तर कदम उठाया। बसे बसाये घरों में सेंध लगाने के लिए दीवारों से कान लगाकर और वातायनों से झाँककर घरवाले के बाहर होते ही द्वार खटखटाकर किसी न किसी बहाने घरवालियों से संपर्क बढ़ाकर नवग्रहों और दैवीय विपदा का भय दिखाकर संकट निवारण के बहाने सामीप्य बढ़ाने की कला में कुशल, निपुण और प्रवीण घोंचूमल का जवाब नहीं है।  'विश्वैक नीड़म्' और 'वसुधैव कुटुंबकम्' के सनातन सिद्धांतों के पक्षधर महागुरु मोहल्ले, शहर, जिले, प्रदेश, देश और विश्व के हर क्षेत्र, धर्म, पंथ, रंग, शिक्षा, जाति आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करते। वे सभी सुंदरियों को समान भाव से प्रेम-पाश में आबद्ध कर रसामृत पाने-देने को जीवनोद्देश्य मानकर तरने-तारने की दिव्य क्रीड़ा करने में कभी नहीं चूकते। कर्मव्रती महागुरु निष्काम भाव से काम की आराधना करते समय फल की चिंता कतई करते।  

अपनी सुकुमार कंचन काया को श्रम करने के कष्ट से बचाकर, संबंधों के चैक को स्वार्थ की बैंक में भुनाने तथा नाज़नीनों को अपने मोहपाश में फाँसकर नचाने का पुनीत लक्ष्य निर्धारण कर घोंचूमल जी नयन मूँदकर देहाकारों के बिंदुओं-रेखाओं, वृत्तों-वर्तुलों, ऊँचाइयों-गहराइयों का अनुमान, निरीक्षण - परीक्षण करने की कला को विज्ञान बनाकर आजमाने का कोई अवसर नहीं गँवाते। महागुरु को कथाओं तथा उपदेशों में 'रासलीला प्रसंग' सर्वाधिक पसंद है। वे गायन, वादन, नर्तन तथा नाट्य अभिनय आदि कलाओं का सदुपयोग कर महिला मंडल की तारिकाओं के  शरतचंद्र की तरह सुशोभित होकर सोमरस पान और प्रसाद ग्रहण कराकर परायी को अपनी बनाने की कला के महाचार्य हैं। उनके चेले-चपाटे चयनिततन्वंगियों को गुरु सेवा कर भवसागर से पार उतरने की कथाएँ सुना-सुनाकर इस तरह सम्मोहित करते हैं कि वे 'सब कुछ गँवाकर होश में आए तो क्या किया' गुनगुनाते हुए अश्रुपात अलावा कुछ नहीं कर पातीं। हद तो यह की महागुरु के वाग्जाल से मोहित पति अपनी पत्नी को, पिता अपनी पुत्री को, भाई अपनी बहिन को गुरुसेवा के लिए आश्रम छोड़कर खुद को धन्य समझते हैं। सत्य से साक्षात् होने पर अपनी तथाकथित इज्जत बचाने के चक्कर में भयादोहन के शिकार हो, मुँह छिपाते फिरते हैं, अच्छे-अच्छेखान तीसमार खां भी महागुरु के आगे 'चूँ' तक नहीं कर पाते और । इस तरह महागुरु ने अपने नाम के 'चूँ को सार्थक कर लिया है। 

'मेरा नाम हाऊ, मैं ना दैहौं काऊ' की लोकोक्ति का अनुकरण कर मन भानेवाले पराये माल को अपना बनाने की कला के प्रति प्राण प्राण से समर्पण को 'मन की मौज' मानने - मनवाने में महारथ हासिल कर चुके घोंचूमल ने अपने नाम में 'म' की सार्थकता स्वघोषित 'ब्रह्मर्षि' विरुद जोड़कर सिद्ध कर दी है। अपने नाम के साथ हर दिन एक नया विरुद जोड़कर उसकी लंबाई बढ़ाने को सफलता का सूत्र मान बैठे घोंचूमल प्राप्त सम्मानों की जानकारी 'अंकों' नहीं 'शतकों' में देते हैं। महागुरु के चमचे  चमत्कारों की अतिरेकी कथाएँ गढ़कर प्रचारित-प्रसारित करते रहते हैं। अपने प्रवचनों में नेताओं, पुलिस अधिकारियों, धनपतियों और पत्रकारों को विशेष रूप से आमंत्रित कर  करकमलों से अपना माल्यार्पण कराने और महाप्रसाद दे चित्र अख़बारों में छपाकर, उनके विराटाकारी पोस्टर महामार्गों के किनारे लगवाकर खुद को महिमामंडित करने की कला में  महागुरु।    

ब्रह्मर्षि के नाम के अंत में संलग्न 'ल' निरर्थक नहीं है। यह 'ल' उपेक्षित नहीं अपितु लंबे समय तक निस्संतान रही सौभाग्यवती के प्रौढ़ावस्था में उत्पन्न इकलौते लाल की तरह लाडला-लड़ैता है। यह अलग बात है कि यह 'ल' पांडवों जैसा लड़ाकू नहीं कौरवों जैसा लालची है। यह 'ल' ललनाओं के लावण्य को निरखने-पढ़ने की अहैतुकी सामर्थ्य का परिचायक है। ब्रह्मर्षि की उदात्त दृष्टि में अपने-पराये का भेद नहीं है। ब्रह्मर्षि 'शासकीय संपत्ति आपकी अपनी है' के सरकारी नारे को सम्मान देते हुए रेलगाड़ी के वातानुकूलित डब्बे में मनचाहा करने में लेशमात्र संकोच नहीं करते। 'जिसने की शरम, उसके फूटे करम / जिसने की बेहयाई, उसने पाई दूध-मलाई' के सुभाषित को जीनेवाले ब्रह्मर्षि किस 'लायक ' हैं यह भले ही कोई न बता सके पर वे अपने सामने बाकी सबको 'नालायक' बताने का नहीं चूकते।

अपने से कमजोर 'लड़इयों' से सामना होते ही ललकारने से न चूकनेवाले ब्रह्मर्षि खुद से शहजोर 'शेर' से सामना होते ही दम दबाकर लल्लो-चप्पो करने में देर। हर ईमानदार, स्वाभिमानी और परिश्रमी को हानि पहुँचाना परम धर्म मानकर, गुटबंदी के सहारे मठाधीशी को दिन-ब-दिन अधिकाधिक प्रोत्साहित करते ब्रह्मर्षि खुशामदी नौसिखियों को शिरोमणि घोषित करने का कोई  नहीं गँवाते। बदले में खुशामदी उन्हें युग पुरुष घोषित कर धन्य होता है। 'अँधा बाँटे रेवड़ी, चीन्ह-चीन्ह कर देय' की कहावत को सत्य सिद्ध करते हुए ब्रह्मर्षि असहमतियों के प्रति दुर्वासा और सहमतियों के प्रति धृतराष्ट्र बनने में देर नहीं करते।

इकलौते वालिद 'तोताराम' के एकमात्र ज्ञात कैलेंडर 'घोंचूराम' को 'तोताचश्म' तो होना ही था। सच्ची तातभक्ति प्रदर्शित करते हुए घोंचूमल ने मौका पाते ही 'बाप का बाप' बनने में देर न की। उनकी टें-टें सुनकर तोते भी मौन हो गए पर वाह रे मिटटी के माधो, कागज़ के शेर टें-टें बंद नहीं की, तो नहीं की। बंद तो उन्होंने अंग्रेजी बोलना भी नहीं किया। हुआ यूँ कि 'अंधेर नगरी चौपट राजा' की तर्ज पर एक जिला हुक्काम अंग्रेजी प्रेमी आ गया। हुक्कामों को नवाबों के हुक्के की तरह खुश रखकर काम निकलवाने में माहिर घोंचूमल ने चकाचक चमकने के लिए चमचागिरी करते हुए बात-बेबात अंग्रेजी में जुमलेबाजी आरंभ कर दी। 'पेट में हैडेक' होने, 'लेडियों को फ्रीडमता' न देने और पनहा-लस्सी आदि को 'कंट्री लिकर' बताने जैसी अंग्रेजी सुनकर हँसते-हँसते हाकिम के पेट में दर्द होने लगा तो घोंचूमल का ब्रह्मर्षि जाग गया। उन्होंने तत्क्षण दादी माँ के नुस्खों का पिटारा खोलकर ज्ञान बघारना शुरू किया ही था कि हाकिम के सब्र का बाँध टूट गया। फिर तो 'दे तेरे की' होना ही थी। तब से 'ब्रह्मर्षि' पश्चिम दिशा में सूर्य नमस्कार करते हैं क्यों कि हाकिम का बंगला इसी दिशा में पड़ता है। शायद नमस्कार उन तक पहुँच जाए।

इस घटना से सबक लेकर ब्रह्मर्षि ने संस्कृत और हिंदी का दामन थाम लिया। काम पड़े पर पर 'गधे को बाप बताने' और काम निकल जाने पर 'बाप को गधा बताने' से परहेज न करनेवाले ब्रह्मर्षि जिस दिन अख़बार में अपना नाम न देखें उन्हें खाना हजम नहीं होता। येन केन प्रकारेण चित्र छप जाए तो उनकी क्षुधा ही नहीं, खून भी बढ़ जाता है। जिस तरह दादी अम्मा की सुनाई कहानियों में राक्षस की जान तोते में बसा करती थी वैसे ही ब्रह्मर्षि की जान अभिनंदन पत्रों और स्मृति चिह्नों में बसती है। वे मिलने-जुलने वालों को हर दिन अभिनन्दन पत्रों और स्मृति चिन्हों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर बताते हुए परमवीर चक्र पाने जैसा गौरव अनुभव करते हैं। इन कार्यक्रमों में सहभागिता करता खींसें निपोरता, दीदे नटेरता उनका चौखटा विविध भाव मुद्राओं में कक्ष की हर दीवार पर है। कोई अन्य हो न हो वे स्वयं इन तस्वीरों और अभिनन्दन पत्रों को देख देखकर निहाल होते रहते हैं। परमज्ञानी घोंचूमल सकल संसार को माया निरूपित करते हुए हर आगंतुक से धन का मोह त्यागकर खुद का वंदन-अभिनन्दन मुक्त हस्त से करने का ज्ञान बिना फीस देने से नहीं चूकते। विराग में अनुराग की जीती जागती मिसाल घोंचूमल जैसी कालजयी प्रतिभाओं का यशगान करते हुए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में ठीक ही लिखा है -

टका धर्मष्टका कर्मष्टकाहि परमं पदं 
यस्य गृहे टका नास्ति हा टका टकटकायते 
===========
संपर्क : विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४।

पुरोवाक ''कागज़ के अरमान' अग्निभ मुखर्जी

पुरोवाक
''कागज़ के अरमान'' - जमीन पर पैर जमकर आसमान में उड़ान 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
मानव सभ्यता और कविता का साथ चोली-दामन का सा है। चेतना के विकास के साथ मनुष्य ने अन्य जीवों की तुलना में प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण-पर्यवेक्षण कर, देखे हुए को स्मृति में संचित कर, एक-दूसरे को अवगत कराने और समान परिस्थितियों में उपयुक्त कदम उठाने में सजगता, तत्परता और एकजुटता का बेहतर प्रदर्शन किया। फलत:, उसका न केवल अनुभव संचित ज्ञान भंडार बढ़ता गया, वह परिस्थितियों से तालमेल बैठने, उन्हें जीतने और अपने से अधिक शक्तिशाली पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं पर भी विजय पाने और अपने लिए आवश्यक संसाधन जुटाने में सफल हो सका। उसने प्रकृति की शक्तियों को उपास्य देव मानकर उनकी कृपा से प्रकृति के उपादानों का प्रयोग किया। प्रकृति में व्याप्त विविध ध्वनियों से उसने परिस्थितियों का अनुमान करना सीखा। वायु प्रवाह की सनसन, जल प्रवाह की कलकल, पंछियों का कलरव, मेघों का गर्जन, विद्युतपात की तड़ितध्वनि आदि से उसे सिहरन, आनंद, प्रसन्नता, आशंका, भय आदि की प्रतीति हुई। इसी तरन सिंह-गर्जन सुनकर पेड़ पर चढ़ना, सर्प की फुंफकार सुनकर दूर भागना, खाद्य योग्य पशुओं को पकड़ना-मारना आदि क्रियाएँ करते हुए उसे अन्य मानव समूहों के अवगत करने के लिए इन ध्वनियों को उच्चरित करने, अंकित करने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस तरह भाषा और लिपि का जन्म हुआ। 
कोयल की कूक और कौए की काँव-काँव का अंतर समझकर मनुष्य ने ध्वनि के आरोह-अवरोह, ध्वनि खण्डों के दुहराव और मिश्रण से नयी ध्वनियाँ बनाकर-लिखकर वर्णमाला का विकास किया, कागज़, स्याही और कलम का प्रयोगकर लिखना आरंभ किया। इनमें से हर चरण के विकास में सदियाँ लगीं। भाषा और लिपि के विकास में नारी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। प्रकृति प्रदत्त प्रजनन शक्ति और संतान को जन्मते ही शांत करने के लिए नारी ने गुनगुनाना आरम्भ कर प्रणयनुभूतियों और लाड़ की अभिव्यक्ति के लिए रूप में प्रथम कविता को जन्म दिया। आदि मानव ने ध्वनि का मूल नारी को मानकर नाद, संगीत, कला और शिल्प की अधिष्ठात्री आदि शक्ति पुरुष नहीं नारी को मान जिसे कालान्तर में 'सरस्वती (थाइलैण्ड में सुरसवदी बर्मा में सूरस्सती, थुरथदी व तिपिटक मेदा, जापान में बेंज़ाइतेन, चीन में बियानचाइत्यान, ग्रीक सभ्यता में मिनर्वा, रोमन सभ्यता में एथेना) कहा गया। बोलने, लिखने, पढ़ने और समझने ने मनुष्य को सृष्टि का स्वामी बन दिया। अनुभव करना और अभिव्यक्त करना इन दो क्रियाओं में निपुणता ने मनुष्य को अद्वितीय बना दिया।
भाषा मनुष्य की अनुभूति को अभिव्यक्त करने के साथ मनन, चिंतन और अभिकल्पन का माध्यम भी बनी। गद्य चिंतन और तर्क तथा पद्य मनन और भावना के सहारे उन्नत हुए। हर देश, काल, परिस्थिति में कविता मानव-मन की अभिव्यक्ति का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम रही। इस पृष्ठभूमि में डॉ. अग्निभ मुखर्जी 'नीरव' की कविताओं को पढ़ना एक आनंददायी अनुभव है। सनातन सामाजिक मूल्यों को जीवनाधार मानते हुए सनातन सलिला नर्मदा के तट पर भारत के मध्यम श्रेणी के संस्कारधानी विशेषण से अलंकृत शहर जबलपुर में संस्कारशील बंगाली परिवार में जन्म व शालेय शिक्षाके पश्चात साम्यवाद के ग्रह, विश्व की महाशक्ति रूस में उच्च अध्ययन और अब जर्मनी में प्रवास ने अग्निभ को विविध मानव सभ्यताओं, जीवन शैलियों और अनुभवों की वह पूंजी दी, जो सामान्य रचनाकर्मी को नहीं मिलती है। इन अनुभवों ने नीरव को समय से पूर्व परिपक्व बनाकर कविताओं में विचार तत्व को प्रमुखता दी है तो दूसरी और शिल्प और संवेदना के निकष पर सामान्य से हटकर अपनी राह आप बनाने की चुनौती भी प्रस्तुत की है। मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता है कि अग्निभ की सृजन क्षमता न तो कुंठित हुई, न नियंत्रणहीन अपितु वह अपने मूल से सतत जुड़ी रहकर नूतन आयामों में विकसित हुई है। 
अग्निभ के प्रथम काव्य संग्रह 'नीरव का संगीत' की रचनाओं को संपादित-प्रकाशित करने और पुरोवाक लिखने का अवसर मुझे वर्ष २००८ में प्राप्त हुआ। ग्यारह वर्षों के अंतराल के पश्चात् यह दूसरा संग्रह 'कागज़ के अरमान' पढ़ते हुए इस युवा प्रतिभा के विकास की प्रतीति हुई है। गुरुवर श्री मुकुल शर्मा जी को समर्पण से इंगित होता है की अग्निभ गुरु को ब्रह्मा-विष्णु-महेश से उच्चतर परब्रह्म मानने की वैदिक, 'बलिहारी गुरु आपकी जिन गोविंद दियो बताय' की कबीरी और 'बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊँ?' की समकालिक विरासत भूले नहीं हैं। संकलन का पहला गीत ही उनके कवि के पुष्ट होने की पुष्टि करता है। 'सीना' के दो अर्थों सिलना तथा छाती में यमक अलंकार का सुन्दर प्रयोग कर अग्निभ की सामर्थ्य का संकेत करता है। 
जिस दिन मैंने उजड़े उपवन में
अमृत रस पीना चाहा,
उस दिन मैंने जीना चाहा!
काँटों से ही उन घावों को
जिस दिन मैंने सीना चाहा
उस दिन मैंने जीना चाहा!
जिस दिन मैंने उत्तोलित सागर
सम करना सीना चाहा
उस दिन मैंने जीना चाहा!
पुनरावृत्ति अलंकार का इतना सटीक प्रयोग काम ही देखने मिलता है - 
एक न हो हालात सभी के
एक हौसला पाया है,
एक एक कर एक गँवाता,
एक ने उसे बढ़ाया है।
कहा जाता है कि एक बार चली गोली दुबारा नहीं चलती पर अग्निभ इस प्रयोग को चाहते और दुहराते हैं बोतल में -
महफ़िल में बोतलों की
बोतल से बोतलों ने
बोतल में बंद कितने
बोतल के राज़ खोले।
पर सभी बोतलों का
सच एक सा ही पाया-
शीशे से तन ढका है,
अंदर है रूह जलती,
सबकी अलग महक हो
पर एक सा नशा है।
बोतल से बोतलें भी
टूटी कहीं है कितनी।
बोतल से चूर बोतल
पर क्या कभी जुड़ी है?
दिलदार खुद को कहती
गुज़री कई यहाँ से,
बोतल से टूटने को
आज़ाद थी जो बोतल।
हर बार टूटने पर
एक हँसी भी थी टूटी।
किसके नसीब पर थी
अब समझ आ रहा है।
बोतल में बोतलों की
तकदीर लिख गयी है।
बोतल का दर्द पी लो,
चाहे उसे सम्हालो।
पर और अब न यूँ तुम
भर ज़हर ही सकोगे।
हद से गुज़र गए तो
जितना भी और डालो
वो छलक ही उठेगा,
रोको, मगर बहेगा।
उस दिन जो बोतलों से
कुछ अश्क भी थे छलके
वे अश्क क्यों थे छलके
अब समझ आ रहा है।
नर्मदा को 'सौंदर्य की नदी' कहा जाता है। उसके नाम ('नर्मदा' का अर्थ 'नर्मंम ददाति इति नर्मदा' अर्थात जो आनंद दे वह नर्मदा है), से ही आनंदानुभूति होती है। गंगा-स्नान से मिलनेवाला पुण्य नर्मदा के 
दर्शन मात्र से मिल जाता है। अग्निभ सात समुन्दर पार भी नर्मदा के अलौकिक सौंदर्य को विस्मृत न कर सके, यह स्वाभाविक है - 
सुन ले जीवन एक बार ज़रा तू नीरव का संगीत।
महाघोष सुनाती बह चलती
नर्मदा तीर पर आज मिला,
चिर तर्ष, हर्ष ले नाच रही
जो पाषाणों में प्राण खिला ।
पाषाण ये मुखरित लगते हैं,
सोये हों फिर भी जगते हैं,
सरिता अधरों में भरती उनके आज नवल यह गीत ।
सुन ले जीवन एक बार ज़रा तू नीरव का संगीत ।।
अग्निभ के काव्य संसार में गीत और कविता अनुभूति की कोख से जन्मे सहोदर हैं।वे गीत, नवगीत और कविता सम्मिश्रण हैं। अग्निभ की गीति रचनाओं में छान्दसिकता है किन्तु छंद-विधान का कठोरता से पालन नहीं है। वे अपनी शैली और शिल्प को शब्दित लिए यथावश्यक छूट लेते हुए स्वाभाविकता को छन्दानुशासन पर वरीयता देते है। अन्त्यानुप्रास उन्हें सहज साध्य है।
लंबे विदेश प्रवास के बाद भी भाषिक लालित्य और चारुत्व अग्निभ की रचनाओं में भरपूर है। हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी, रूसी और जर्मनी जानने के बाद भी शाब्दिक अपमिश्रण से बचे रहना और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के नाम पर व्याकरणिक अनाचार न करने की प्रवृत्ति ने इन रचनाओं को पठनीय बनाया है। भारत में हिंगलिश बोलकर खुद को प्रगत समझनेवाले दिशाहीन रचनाकारों को अभिनव से निज भाषा पर गर्व करना सीखना चाहिए।
अग्निभ ने अपने प्रिय कवि रवींद्र नाथ ठाकुर की कविताओं का अनुवाद भी किया है। संकलन में गुरुदेव रचित विश्व विख्यात प्रार्थना अग्निभ कृत देखिये- 
निर्भय मन जहाँ, जहाँ रहे उच्च भाल,
ज्ञान जहाँ मुक्त रहे, न ही विशाल
वसुधा के आँगन का टुकड़ों में खण्डन
हो आपस के अन्तर, भेदों से अगणन ।
जहाँ वाक्य हृदय के गर्भ से उच्चल
उठते, जहाँ बहे सरिता सम कल कल
देशों में, दिशाओं में पुण्य कर्मधार
करता संतुष्ट उन्हें सैकड़ों प्रकार।
कुरीति, आडम्बरों के मरू का वह पाश
जहाँ विचारों का न कर सका विनाश-
या हुआ पुरुषार्थ ही खण्डों में विभाजित,
जहाँ तुम आनंद, कर्म, चिंता में नित,
हे प्रभु! करो स्वयं निर्दय आघात,
भारत जग उठे, देखे स्वर्गिक वह प्रात ।
''कागज़ के अरमान'' की कविताएँ अग्निभ के युवा मन में उठती-मचलती भावनाओं का सागर हैं जिनमें तट को चूमती साथ लहरों के साथ क्रोध से सर पटकती अगाध जल राशि भी है, इनमें सुन्दर सीपिकाएँ, जयघोष करने में सक्षम शङख, छोटी-छोटी मछलियाँ और दानवाकार व्हेल भी हैं। वैषयिक और शैल्पिक विविधता इन सहज ग्राह्य कविताओं को पठनीय बनाती है। अग्निभ के संकलन से आगामी संकलनों की उत्तमता के प्रति आशान्वित हुआ जा सकता है।
***
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, भारत 
चलभाष - ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com 
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बुंदेली छंद सड़गोड़ासनी

 बुंदेली छंद सड़गोड़ासनी

संजीव
*
छंद - सड़गोड़ासनी।
पद - ३, मात्राएँ - १५-१२-१५।
पहली पंक्ति - ४ मात्राओं के बाद गुरु-लघु अनिवार्य।
गायन - दादरा ताल ६ मात्रा।
*
मैया शारदे! पत रखियो
मोखों सद्बुधि दइयो
मैया शारदे! पत रखियो
जा मन मंदिर मैहरवारी
तुरतइ आन बिरजियो
मैया शारदे! पत रखियो
माया-मोह राच्छस घेरे
झट सें मार भगइयो
मैया शारदे! पत रखियो
अनहद नाद सुनइयो माता!
लागी नींद जगइयो
मैया शारदे! पत रखियो
भासा-आखर-कवित मोय दो
लय-रस-भाव लुटइयो
मैया शारदे! पत रखियो
मात्रा-वर्ण; प्रतीक बिम्ब नव
अलंकार झलकइयो
मैया शारदे! पत रखियो
***
२५-११-२०१९
९४२५१८३२४४

दोहा मुक्तिका

दोहा मुक्तिका
संजीव 
*
स्नेह भारती से करें, भारत माँ से प्यार।
छंद-छंद को साधिये, शब्द-ब्रम्ह मनुहार।।
*
कर सारस्वत साधना, तनहा रहें न यार।
जीव अगर संजीव हों, होगा तब उद्धार।।
*
मंदिर-मस्जिद बन गए, सत्ता हित हथियार।।
मन बैठे श्री राम जी, कर दर्शन सौ बार।।
*
हर नेता-दल चाहता, उसकी हो सरकार।।
नित मनमानी कर सके, औरों को दुत्कार।।
*
सलिला दोहा मुक्तिका, नेह-नर्मदा धार।
जो अवगाहे हो सके, भव-सागर से पार।।
*
२५.११.२०१८

कार्यशाला

 कार्यशाला

प्रश्न- मीना धर द्विवेदी पाठक
लै ड्योढ़ा ठाढ़े भये श्री अनिरुद्ध सुजान
बाणासुर की सेन को हनन लगे भगवान
इसका अर्थ क्या है?
ड्योढ़ा = ?
*
प्रसंग
श्री कृष्ण के पुत्र अनिरुद्ध पर मोहित होकर दानवराज बाणासुर की पुत्री उषा उसे अचेत कर ले गई और महल में बंदी कर लिया। ज्ञात होने पर कृष्ण उसे छुड़ाने गए। भयंकर युद्ध हुआ।
शब्दार्थ
ड्योढ़ी = देहरी या दरवाज़ा
ड्योढ़ा = डेढ़ गुना, सामान्य से डेढ़ गुना बड़ा दरवाज़ा। दरवाजे को बंद करने के लिए प्रयोग किये जाने वाले आड़े लंबे डंडे को भी ड्योढ़ा कहा जाता है।
पदार्थ
श्री अनिरुद्ध ड्योढ़ा लेकर खड़े हुए और कृष्ण जी बाणासुर की सेना को मारने लगे।
भावार्थ
कृष्ण जी अनिरुद्ध को छुड़ाने के लिए बाणासुर के महल पर पहुँचे। यह जानकर अनिरुद्ध दरवाज़ा बंद करने के लिए प्रयोग किये जानेवाले डंडे को लेकर दरवाजे पर आ गये। बाणासुर की सेना ने रोका तो भगवान सेना का वध करने लगे।
*
संजीव,
२० - ११ - २०१८

क्षणिका, दोहा, मुक्तक

क्षणिका 
गीत क्या?, 
नवगीत क्या? 
बोलें, निर्मल बोलें 
बात मन की करें 
दिल दरवाजे खोलें.
*
दोहा 
निर्मल है नवगीत का,त्रिलोचनी संसार.
निहित कल्पना मनोरम, ज्यों संध्या आगार.
*
मुक्तक 
यायावर मन दर-दर भटके, पर माया मृग हाथ न आए
निर्मल संध्या कर प्रदीप ले; शरद पूर्णिमा मधु बिखराए  
सलिल साथ खिल पंकज विहँसे, चंचल मधुकर बंधु खोजता-
ले रणजीत चाहता लेकिन, मोहपाश में बंध पछताए 
*

समीक्षा जीवन मनोविज्ञान डॉ. कृष्ण दत्त

कृति चर्चा- 
जीवन मनोविज्ञान : एक वरदान 
[कृति विवरण: जीवन मनोविज्ञान, डॉ. कृष्ण दत्त, आकार क्राउन, पृष्ठ ७४,आवरण दुरंगा, पेपरबैक, त्र्यंबक प्रकाशन नेहरू नगर, कानपूर]
वर्तमान मानव जीवन जटिलताओं, महत्वाकांक्षाओं और समयाभाव के चक्रव्यूह में दम तोड़ते आनंद की त्रासदी न बन जाए इस हेतु चिंतित डॉ. कृष्ण दत्त ने इस लोकोपयीगी कृति का सृजन - प्रकाशन किया है. लेखन सेवानिवृत्त चिकित्सा मनोवैज्ञानिक हैं. 


असामान्यता क्या है?, मानव मन का वैज्ञानिक विश्लेषण, अहम सुरक्षा तकनीक, हम स्वप्न क्यों देखते हैं?, मन एक विवेचन एवं आत्म सुझाव, मां पेशीय तनावमुक्तता एवं मन: शांति, जीवन में तनाव- कारण एवं निवारण,समय प्रबंधन, समस्या समाधान, मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता के शीलगुण, बुद्धि ही नहीं भावना भी महत्वपूर्ण, संवाद कौशल, संवादहीनता: एक समस्या, वाणी: एक अमोघ अस्त्र, बच्चे आपकी जागीर नहीं हैं, मांसक स्वास्थ्य के ३ प्रमुख अंग, मन स्वस्थ तो तन स्वस्थ, संसार में समायोजन का मनोविज्ञान,जीवन में त्याग नहीं विवेकपूर्ण चयन जरूरी, चेतना का विस्तार ही जीवन, जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि, क्रोध क्यों होता है?, ईर्ष्या कहाँ से उपजती है?, संबंधों का मनोविज्ञान, संबंधों को कैसे संवारें?, सुखी दांपत्य जीवन का राज, अवांछित संस्कारों से कैसे उबरें?, अच्छे नागरिक कैसे बनें? तथा प्रेम: जीवन ऊर्जा का प्राण तत्व २९ अध्यायों में जीवनोपयोगी सूत्र लेखन ने पिरोये हैं. 
निस्संदेह गागर में सागर की तरह महत्वपूर्ण यह कृति न केवल पाठकों के समय का सदुपयोग करती है अपितु आजीवन साथ देनेवाले ऐसे सूत्र थमती है जिनसे पाठक, उसके परिवार और साथियों का जीवन दिशा प्राप्त कर सकता है. 
स्वायत्तशासी परोपकारी संगठन 'अस्मिता' मंदगति प्रशिक्षण एवं मानसिक स्वास्थ्य केंद्र, इंदिरानगर,लखनऊ १९९५ से मंदमति बच्चों को समाज की मुख्यधारा में संयोजित करने हेतु मानसोपचार (साइकोथोरैपी) शिविरों का आयोजन करती है. यह कृति इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है जिससे दूरस्थ जान भी लाभ ले सकते हैं. इस मानवोपयोगी कृति के लिए लेखक साधुवाद के पात्र हैं.

प्रेमा छंद

छंद सलिला
प्रेमा छंद 
संजीव 
*
यह दो पदों, चार चरणों, ४४ वर्णों, ६९ मात्राओं का छंद है. इसका पहला, दूसरा और चौथा चरण उपेन्द्रवज्रा तथा दूसरा चरण इंद्रवज्रा छंद होता है.
१. मिले-जुले तो हमको तुम्हारे हसीं वादे कसमें लुभायें 
देखो नज़ारे चुप हो सितारों हमें बहारें नगमे सुनाये 
*
२. कहो कहानी कविता रुबाई लिखो वही जो दिल से कहा हो
देना हमेशा प्रिय को सलाहें सदा वही जो खुद भी सहा हो 
*
३. खिला कचौड़ी चटनी मिठाई मुझे दिला दे कुछ तो खिलौने
मेला लगा है चल घूम आयें बना न बातें भरमा रे!
**** 
२५-११-२०१३ 

मुक्तिका: सबब क्या ?

मुक्तिका:
सबब क्या ?
संजीव 'सलिल'
*
सबब क्या दर्द का है?, क्यों बताओ?
छिपा सीने में कुछ नगमे सुनाओ..

न बाँटा जा सकेगा दर्द किंचित.
लुटाओ हर्ष, सब जग को बुलाओ..

हसीं अधरों पे जब तुम हँसी देखो.
बिना पल गँवाये, खुद को लुटाओ..

न दामन थामना, ना दिल थमाना.
किसी आँचल में क्यों खुद को छिपाओ?

न जाओ, जा के फिर आना अगर हो.
इस तरह जाओ कि वापिस न आओ..

खलिश का खज़ाना कोई न देखे.
'सलिल' को भी 'सलिल' ठेंगा दिखाओ..
************************
२५-११-२०१० 

मंगलवार, 24 नवंबर 2020

विश्ववाणी हिंदी संस्थान

ॐ 
विश्ववाणी हिंदी संस्थान 
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सामयिक लघुकथाएँ 
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दोहा शतक मंजूषा
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान तथा आचार्य संजीव 'सलिल' व डॉ. साधना वर्मा के संपादन में दोहा शतक मंजूषा के ३ भाग 'दोहा-दोहा नर्मदा', 'दोहा सलिला निर्मला' तथा 'दोहा दीप्त दिनेश' का प्रकाशन कर सहयोगियों को भेजा जा चुका है। ८००/- मूल्य की ३ पुस्तकें ( ५०० से अधिक दोहे, दोहा-लेखन विधान, २५ भाषाओँ/बोलिओं में दोहे, हर रस के दोहे,  अपभृंश बी हिंदी के प्रतिनिधि दोहे,  तथा बहुमूल्य शोध-सामग्री) ५०% छूट पर पैकिंग-डाक व्यय निशुल्क सहित उपलब्ध हैं। इस कड़ी के भाग ४ "दोहा आशा-किरण" हेतु यथोचित सम्पादन हेतु सहमत दोहाकारों से १२० दोहे, चित्र, संक्षिप्त परिचय (जन्मतिथि-स्थान, माता-पिता, जीवन साथी, साहित्यिक गुरु व प्रकाशित पुस्तकों के नाम, शिक्षा, लेखन विधाएँ, अभिरुचि/आजीविका, डाक का पता, ईमेल, चलभाष क्रमांक आदि) ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com पर आमंत्रित हैं। नव दोहाकारों को दोहा लेखन विधान, मात्रा गणना नियम व मार्गदर्शन उपलब्ध है।
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शांति-राज स्व-पुस्तकालय योजना
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में नई पीढ़ी के मन में हिंदी के प्रति प्रेम तथा भारतीय संस्कारों के प्रति लगाव तभी हो सकता है जब वे बचपन से सत्साहित्य पढ़ें। इस उद्देश्य से पारिवारिक पुस्तकालय योजना आरम्भ की जा रही है। इस योजना के अंतर्गत ५००/- भेजने पर निम्न में से ७००/- की पुस्तकें तथा शब्द साधना पत्रिका व् दिव्य नर्मदा पत्रिका के उपलब्ध अंक पैकिंग व डाक व्यय निशुल्क की सुविधा सहित उपलब्ध हैं। राशि अग्रिम पे टी एम द्वारा चलभाष क्रमांक ९४२५१८३२४४ में जमाकर पावती salil.sanjiv@gmail.com को ईमेल करें। इस योजना में पुस्तक सम्मिलित करने हेतु salil.sanjiv@gmail.com या ७९९९५५९६१८/९४२५१८३२४४ पर संपर्क करें। 
पुस्तक सूची
०१. मीत मेरे कविताएँ -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' १५०/-
०२. काल है संक्रांति का गीत-नवगीत संग्रह -आचार्य संजीव 'सलिल' १५०/-
०३. कुरुक्षेत्र गाथा खंड काव्य -स्व. डी.पी.खरे -आचार्य संजीव 'सलिल' ३००/-
०४. पहला कदम काव्य संग्रह -डॉ. अनूप निगम १००/-
०५. कदाचित काव्य संग्रह -स्व. सुभाष पांडे १२०/-
०६. Off And On -English Gazals -Dr. Anil Jain ८०/-
०७. यदा-कदा -उक्त का हिंदी काव्यानुवाद- डॉ. बाबू जोसफ-स्टीव विंसेंट ८०/-
०८. Contemporary Hindi Poetry - B.P. Mishra 'Niyaz' ३००/-
०९. महामात्य महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' ३५०/-
१०. कालजयी महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' २२५/-
११. सूतपुत्र महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' १२५/-
१२. अंतर संवाद कहानियाँ -रजनी सक्सेना २००/-
१३. दोहा-दोहा नर्मदा दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा २५०/-
१४. दोहा सलिला निर्मला दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा २५०/-
१५. दोहा दिव्य दिनेश दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा ३००/-
१६. सड़क पर गीत-नवगीत संग्रह आचार्य संजीव 'सलिल' ३००/-
१७. The Second Thought - English Poetry - Dr .Anil Jain​ १५०/-
१८. हस्तिनापुर की बिथा कथा (बुंदेली संक्षिप्त महाभारत)- डॉ. एम. एल. खरे २५०/- 
१९. काव्य कालिंदी काव्य संग्रह डॉ. संतोष शुक्ला २५०/-
२०. काव्य मंदाकिनी काव्य संग्रह - ३२५/- 
***

मुक्तक

मुक्तक
संजीव
*
मुख पुस्तक मुख को पढ़ने का ग्यान दे
क्या कपाल में लिखा दिखा वरदान दे
शान न रहती सदा मुझे मत ईश्वर दे
शुभाशीष दे, स्नेह, मान जा दान दे
*
मुख पर आते भाव, कहते कैसा किसका चाव 
चाह रहा है डुबाना या पार लगाना नाव? 
मुखपोथी को पढ़ सखे! तभी हो सके पार- 
सत्य जानकर शांत रह; होगा तभी निभाव 
*
मुखपोथी पर गुरु मिले अगिन; न लेकिन शिष्य
खुद का ज्ञात न; बाँचते दुनिया का भवितव्य 
प्रीति पुरातन से नहीं यहाँ किसी को काम-
करें न लेकिन चाहते; प्रीति पा सकें नव्य 
***

नवगीत

नवगीत
.
बसर ज़िन्दगी हो रही है
सड़क पर.
.
बजी ढोलकी
गूंज सोहर की सुन लो
टपरिया में सपने
महलों के बुन लो
दुत्कार सहता
बचपन बिचारा
सिसक, चुप रहे
खुद कन्हैया सड़क पर
.
लत्ता लपेटे
छिपा तन-बदन को
आसें न बुझती
समर्पित तपन को
फ़ान्से निबल को
सबल अट्टहासी
कुचली तितलिया मरी हैं
सड़क पर
.
मछली-मछेरा
मगर से घिरे हैं
जबां हौसले
चल, रपटकर गिरे हैं
भँवर लहरियों को
गुपचुप फ़न्साए
लव हो रहा है
ज़िहादी सड़क पर
.
कुचल गिट्टियों को
ठठाता है रोलर
दबा मिट्टियों में
विहँसता है रोकर
कालिख मनों में
डामल से ज्यादा
धुआँ उड़ उड़ाता
प्रदूषण सड़क पर
.
२४-११-२०१७ 

लघुकथा: बुद्धिजीवी और बहस

 लघुकथा:

बुद्धिजीवी और बहस
संजीव
*
'आप बताते हैं कि बचपन में चौपाल पर रोज जाते थे और वहाँ बहुत कुछ सीखने को मिलता था. क्या वहाँ पर ट्यूटर आते थे?'
'नहीं बेटा! वहाँ कुछ सयाने-समझदार लोग आते थे जिनकी बातें बाकी सभी लोग सुनते-समझते और उनसे पूछते भी थे.'
'अच्छा, तो वहाँ टी. वी. बहसों की तरह आरोप-प्रत्यारोप भी लगते होंगे?'
'नहीं, ऐसा तो कभी नहीं होता था.'
'यह कैसे हो सकता है? लोग हों, वह भी बुद्धिजीवी और बहस न हो... आप गप्प तो नहीं मार रहे?'
दादा समझाते रहे पर पोता संतुष्ट न हो सका.
*
२४-११-२०१४

समीक्षा

 पुस्तक सलिला: हिन्दी महिमा सागर

[पुस्तक विवरण: हिन्दी महिमा सागर, संपादक डॉ. किरण पाल सिंह, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ २०४, प्रकाशक भारतीय राजभाषा विकास संस्थान, १००/२ कृष्ण नगर, देहरादून २४८००१]


हिंदी दिवस पर औपचारिक कार्यक्रमों की भीड़ में लीक से हटकर एक महत्वपूर्ण प्रकाशन हिंदी महिमा सागर का प्रकाशन है. इस सारस्वत अनुष्ठान के लिए संपादक डॉ. किरण पाल सिंह तथा प्रकाशक प्रकाशक भारतीय राजभाषा विकास संस्थान देहरादून साधुवाद के पात्र हैं. शताधिक कवियों की हिंदी पर केंद्रित रचनाओं का यह सारगर्भित संकलन हिंदी प्रेमियों तथा शोध छात्रों के लिए बहुत उपयोगी है. पुस्तक का आवरण तथा मुद्रण नयनाभिराम है. भारतेंदु हरिश्चंद्र जी, मैथिलीशरण जी, सेठ गोविन्ददास जी, गया प्रसाद शुक्ल सनेही, गोपाल सिंह नेपाली, प्रताप नारायण मिश्र, गिरिजा कुमार माथुर, डॉ. गिरिजा शंकर त्रिवेदी डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, आदि के साथ समकालिक वरिष्ठों अटल जी, बालकवि बैरागी, डॉ. दाऊ दयाल गुप्ता, डॉ. गार्गी शरण मिश्र 'मराल' , संजीव वर्मा 'सलिल', आचार्य भगवत दुबे, डॉ. राजेंद्र मिलन, शंकर सक्सेना, डॉ. ब्रम्हजित गौतम, परमानन्द जड़िया, यश मालवीय आदि १०८ कवियों की हिंदी विषयक रचनाओं को पढ़ पाना अपने आपमें एक दुर्लभ अवसर तथा अनुभव है. मुख्यतः गीत, ग़ज़ल, दोहा, कुण्डलिया तथा छंद मुक्त कवितायेँ पाठक को बाँधने में समर्थ हैं.
***