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शनिवार, 14 नवंबर 2020

बाल कविता: मेरे पिता

बाल कविता: 
मेरे पिता 
संजीव 'सलिल'
जब तक पिता रहे बन साया!
मैं निश्चिन्त सदा मुस्काया!
*
रोता देख उठा दुलराया 
कंधे पर ले जगत दिखाया 
उँगली थमा,कहा: 'बढ़ बेटा!
बिना चले कब पथ मिल पाया?' 
*
गिरा- उठाकर मन बहलाया 
'फिर दौड़ो'उत्साह बढ़ाया
बाँह झुला भय दूर भगाया 
'बड़े बनो' सपना दिखलाया 
*
'फिर-फिर करो प्रयास न हारो'
हरदम ऐसा पाठ पढ़ाया
बढ़ा हौसला दिया सहारा 
मंत्र जीतने का सिखलाया 
*
लालच करते देख डराया 
आलस से पीछा छुड़वाया 
'भूल न जाना मंज़िल-राहें 
दृष्टि लक्ष्य पर रखो' सिखाया 
*
रवि बन जाड़ा दूर भगाया 
शशि बन सर से ताप हटाया 
मैंने जब भी दर्पण देखा 
खुद में बिम्ब पिता का पाया
***

बाल गीत : चिड़िया

बाल गीत : 
चिड़िया
*
चहक रही 
चंपा पर चिड़िया 
शुभ प्रभात कहती है 
आनंदित हो 
झूम रही है 
हवा मंद बहती है 
कहती: 'बच्चों!
पानी सींचो,
पौधे लगा-बचाओ
बन जाएँ जब वृक्ष 
छाँह में 
उनकी खेल रचाओ 
तुम्हें सुनाऊँगी 
मैं गाकर 
लोरी, आल्हा, कजरी
कहना राधा से 
बन कान्हा 
'सखी रूठ मत सज री' 
टीप रेस, 
कन्ना गोटी,
पिट्टू या बूझ पहेली 
हिल-मिल खेलें 
तब किस्मत भी 
आकर बने सहेली 
नमन करो 
भू को, माता को 
जो यादें तहती है 
चहक रही 
चंपा पर चिड़िया 
शुभ प्रभात कहती है 
***

मुक्तक सलिला

मुक्तक सलिला 

*
जब तक मन में चाह थी,
तब तक मिली न राह.
राह मिली अब तो नहीं,
शेष रही है चाह.
.
राम नाम की चाह कर,
आप मिलेगी राह.
राम नाम की राह चल,
कभी न मिटती चाह.
.
दुनिया कहती युक्ति कर,
तभी मिलेगी राह.
दिल कहता प्रभु-भक्ति कर,
मिल मुक्ति बिन चाह.
.
भटक रहे बिन राह ही,
जग में सारे जीव.
राम-नाम की राह पर,
चले जीव संजीव.
.
लहर में भँवर या भँवर में लहर है?
अगर खुद न सम्हले, कहर ही कहर है.
उसे पूजना है, जिसे चाहना है
भले कंठ में हँस लिए वह ज़हर है

बाल मुक्तिका बिटिया छोटी

बाल रचना 
बिटिया छोटी 
*
फ़िक्र बड़ी पर बिटिया छोटी 
क्यों न खेलती कन्ना-गोटी?
*
ऐनक के चश्में से आँखें 
झाँकें लगतीं मोटी-मोटी 
*
इतनी ज्यादा गुस्सा क्यों है?
किसने की है हरकत खोटी 
*
दो-दो फूल सजे हैं प्यारे 
सर पर सोहे सुंदर चोटी 
*
हलुआ-पूड़ी इसे खिलाओ 
तनिक न भाती इसको रोटी 
*
खेल-कूद में मन लगता है
नहीं पढ़ेगी पोथी मोटी 
***

अचल धृति छंद

छंद सलिला:
अचल धृति छंद
संजीव
*
छंद विधान: सूत्र: ५ न १ ल, ५ नगण १ लघु = ५ (१ + १ +१ )+१ = हर पद में १६ लघु मात्रा, १६ वर्ण
उदाहरण:
१. कदम / कदम / पर ठ/हर ठ/हर क/र
ठिठक / ठिठक / कर सि/हर सि/हर क/र
हुलस / हुलस / कर म/चल म/चल क/र
मनसि/ज सम / खिल स/लिल ल/हर क/र
२. सतत / अनव/रत प/थ पर / पग ध/र
अचल / फिसल / गर सँ/भल ठि/ठकक/र
रुक म/त झुक / मत चु/क मत / थक म/त
'सलिल' / विहँस/कर प्र/वह ह/हरक/र
--

अचल छंद

छंद सलिला:
अचल छंद
संजीव
*
अपने नाम के अनुरूप इस छंद में निर्धारित से विचलन की सम्भावना नहीं है. यह मात्रिक सह वर्णिक छंद है. इस चतुष्पदिक छंद का हर पद २७ मात्राओं तथा १८ वर्णों का होता है. हर पद (पंक्ति) में ५-६-७ वर्णों पर यति इस प्रकार है कि यह यति क्रमशः ८-८-११ मात्राओं पर भी होती है. मात्रिक तथा वार्णिक विचलन न होने के कारण इसे अचल छंद कहा गया होगा। छंद प्रभाकर तथा छंद क्षीरधि में दिए गए उदाहरणों में मात्रा बाँट १२१२२/१२१११२/२११२२२१ रखी गयी है. तदनुसार
सुपात्र खोजे, तभी समय दे, मौन पताका हाथ.
कुपात्र पाये, कभी न पद- दे, शोक सभी को नाथ..
कभी नवायें, न शीश अपना, छूट रहा हो साथ.
करें विदा क्यों, सदा सजल हो, नैन- न छोड़ें हाथ..
*
वर्ण तथा मात्रा बंधन यथावत रखते हुए मात्रा बाँट में परिवर्तन करने से इस छंद में प्रयोग की विपुल सम्भावनाएँ हैं.
मौन पियेगा, ऊग सूर्य जब, आ अँधियारा नित्य.
तभी पुजेगा, शिवशंकर सा, युगों युगों आदित्य..
इस तरह के परिवर्तन किये जाएं या नहीं? विद्वज्जनों के अभिमत आमंत्रित हैं.

शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

कृष्णमोहन छन्द रूप चौदस

 १. कृष्णमोहन छन्द

विधान-
१. प्रति पंक्ति ७ मात्रा
२. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम गुरु लघु गुरु लघु लघु
गीत
रूप चौदस
.
रूप चौदस
दे सदा जस
.
साफ़ हो तन
साफ़ हो मन
हों सभी खुश
स्वास्थ्य है धन
बो रहा जस
काटता तस
बोलती सच
रूप चौदस.
.
है नहीं धन
तो न निर्धन
हैं नहीं गुण
तो न सज्जन
ईश को भज
आत्म ले कस
मौन तापस
रूप चौदस.
.
बोलना तब
तोलना जब
राज को मत
खोलना अब
पूर्णिमा कह
है न 'मावस
रूप चौदस
.
मैल दे तज
रूप जा सज
सत्य को वर
ईश को भज
हो प्रशंसित
रूप चौदस
.
वासना मर
याचना मर
साथ हो नित
साधना भर
हो न सीमित
हर्ष-पावस
साथ हो नित
रूप चौदस
.......

अमरकंटक छंद - नरक चौदस

हिन्दी के नये छंद १३
अमरकंटक छंद
विधान-
1. प्रति पंक्ति 7 मात्रा
2. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम लघु लघु लघु गुरु लघु लघु
गीत
नरक चौदस
.
मनुज की जय
नरक चौदस
.
चल मिटा तम
मिल मिटा गम
विमल हो मन
नयन हों नम
पुलकती खिल
विहँस चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
घट सके दुःख
बढ़ सके सुख
सुरभि गंधित
दमकता मुख
धरणि पर हो
अमर चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
विषमता हर
सुसमता वर
दनुजता को
मनुजता कर
तब मने नित
विजय चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
मटकना मत
भटकना मत
अगर चोटिल
चटकना मत
नियम-संयम
वरित चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
बहक बादल
मुदित मादल
चरण नर्तित
बदन छागल
नरमदा मन
'सलिल' चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.......

कुण्डलिया

कुण्डलिया
राजनीति आध्यात्म की, चेरी करें न दूर
हुई दूर तो देश पर राज करेंगे सूर
राज करेंगे सूर, लड़ेंगे हम आपस में
सृजन छोड़ आनंद गहेँगे, निंदा रस में
देरी करें न और, वरें राह परमात्म की
चेरी करें न दूर, राजनीति आध्यात्म की
***
संजीव, १३.११.२०१८

दोहा, मुक्तक

दोहा सलिला
चित्र गुप्त पर ब्रम्ह का, जीव ब्रम्ह के रूप.
जीव जीव को खा रहा, खोजे कहाँ अरूप?
*
तेज महालय था कभी, शिव-मंदिर अभिराम.
बसें भूतभावन अगर फ़िर हो तीरथ धाम.
*
मुक्तक :
कहो पर उपकार की क्या फसल बोई?
मलिनता क्या ज़िंदगी से तनिक धोई?
सत्य-शिव-सुन्दर 'सलिल' क्या तनिक पाया-
गहो ईश्वर की कृपा तब हो गहोई।।
*
कहो किसका कब सदा होता है कोई?
कहो किसने कमाई अपनी न खोई?
कर्म का औचित्य सोचो फिर करो तुम-
कर गहो ईमान तब होगे गहोई।।
*
सफलता कब कहो किसकी हुई गोई?
श्रम करो तो रहेगी किस्मत न सोई.
रास होगी श्वास की जब आस के संग-
गहो ईक्षा संतुलित तब हो गहोई।।
*
कर्म माला जतन से क्या कभी पोई?
आस जाग्रत रख हताशा रखी सोई?
आपदा में धैर्य-संयम नहीं खोना-
गहो ईप्सा नियंत्रित तब हो गहोई।।
*
सफलता अभिमान कर कर सदा रोई.
विफलता की नष्ट की क्या कभी चोई..
प्रयासों को हुलासों की भेंट दी क्या?
गहो ईर्ष्या 'सलिल' मत तब हो गहोई।
*
(गोई = सखी, ईक्षा = दृष्टि, पोई = पिरोई / गूँथी,
ईप्सा = इच्छा,

गीत

एक गीत
*
पूछ रही पीपल से तुलसी
बोलो ऊँचा कौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया
तब उत्तर पाया मौन
*
मीठा कोई कितना खाये
तृप्तिं न होती
मिले अलोना तो जिव्हा
चखने में रोती
अदा करो या नहीं किन्तु क्या
नहीं जरूरी नौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*
भुला स्वदेशी खुद को ठगते
फिर पछताते
अश्रु छिपाते नैन पर अधर
गाना गाते
टूथपेस्ट ने ठगा न लेकिन
क्यों चाहा दातौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*
हाय-बाय लगती बलाय
पर नमन न करते
इसकी टोपी उसके सर पर
क्यों तुम धरते?
क्यों न सुहाता संयम मन को
क्यों रुचता है यौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*

षट्पदी

एक षट्पदी
*
करे न नर पाणिग्रहण, यदि फैला निज हाथ
नारी-माँग न पा सके, प्रिय सिंदूरी साज?
प्रिय सिंदूरी साज, न सबला त्याग सकेगी
'अबला' 'बला' बने क्या यह वर-दान मँगेंगी ?
करता नर स्वीकार, फजीहत से न डरे
नारी कन्यादान, न दे- वरदान नर करे
***
दोहा सलिला
संजीव
*
सबसे बढ़िया दो जगह, हैं दुनिया में खास
दिल में करें निवास या, करें दुआ में वास
*
वक़्त बदलने में लगे, प्यारे उम्र तमाम
कौन कहे जीवन बदल, किस पल लगे विराम
*
स्याह कोठरी सियासत, घुसे लगेगा दाग
सत्ता पर हों भ्रष्ट यदि, भले दूर हों त्याग
*
मैंने मुश्किल में दिया, सदा सभी का साथ
मुश्किल में थामा नहीं, छाया ने भी हाथ
*
हँसी-रुदन बरखा सदृश, उत्तम एकाएक
प्यार-क्रोध के अश्व पर, संयम रखे विवेक
*
हो न सका यदि चाहकर, मत दो खुद को दोष
जो कर पाए यादकर, करो 'सलिल' संतोष
*
कभी जागकर बच सके, सोकर कभी बचाव
गिरे कभी तो रो दिए, गिर-उठ कभी निभाव
*
सोचो कुछ ऊँचा 'सलिल', नीचे हो गिरि श्रृंग
तूफां से टकरा बढ़ो, रंग न हो बदरंग
*
सोच-समझ ही हमेशा, सत्य न होती मान
सोच-समझ निस्वार्थ यदि, सत्य बढ़ाता मान
*
माँग एक से सौ बढ़ें, लेकर विविध सलाह
साथ न आता एक भी, अगर कठिन हो राह
*
उत्तम गुरु पथ दिखाते, पहले परख रुझान
बैसाखी बनते नहीं, रोकें नहीं उड़ान
*
चमत्कार की चाह में, भटकें नहीं हुजूर
भीतर-बाहर देख लें, अंतर रहें न सूर
*
हवामहल रचते नहीं, जुड़कर पत्ते-ताश
पैर धरा पर जमाकर, हाथ गहें आकाश
*
नायक श्रेष्ठ न बोलता, क्या करना है काम
पहले करता आप वह, ले न और का नाम
*
पल भर में जुड़ते नहीं, जन्मों के संबंध
चाह, धैर्य, कोशिश अथक, करे सुदृढ़ अनुबंध
*
परहित हेतु न चाहिए, कोई कारण मीत
निज हित हेतु करें नहीं, प्रीत न गाएँ गीत
*
१२-११-२०२०

धनतेरस कब, क्यों और कैसे?
कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को भगवान धनवंतरी अमृत कलश लेकर सागर मंथन से उत्पन्न हुए थे। इस तिथि को धनतेरस या धनत्रयोदशी के नाम से जाना जाता है। भारत सरकार ने धनतेरस को राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस घोषित किया है। धनतेरस यानी अपने धन को १३ गुणा बनाने की लोक मान्यता का द‌िन है । धनतेरस पर बरतन वाहन, गहने, बहुमूल्य उपकरण आदि खरीदने की प्रथा है। 
धनतेरस पर धन्वन्तरि,लक्ष्मी, गणेश और कुबेर की पूजा करने से स्वास्थ्य-समृद्धि बनी रहती है। ॐ धं धन्वन्तरये नमः मंत्र का १०८ बार उच्चारण करभगवान धनवंतरी से अच्छी सेहत की कामना करें। धनवन्तरी की पूजा के बाद गणेश जी के समक्ष दिया-धूपबत्ती जला, फूल अर्पण कर मिठाई का नैवैद्य अर्पित करें। इसी तरह लक्ष्मी पूजन करें। धनतेरस और कुबीर देवता की पूजा हेतु एक लकड़ी के तख्ते पर स्वास्तिक का निशान बना लें।इस पर एक तेल का दिया रख-जलाकर,ढक दें। दिये के सब ओर तीन बार गंगा जल छिड़क, दीपक पर रोली-चावल से तिलक कर मीठे का भोग लगा 1 सिक्का रख लक्ष्मी और गणेश जी को अर्पण करें। दीपक को प्रणाम कर बड़ों से आशीर्वाद लें।दिया अपने घर के मुख्य द्वार पर दक्षिण दिशा की ओर बाती कर रखें। तेरह दिए बालकर घर में हर ओर रख दें।
*
लघुकथा:
धनतेरस
*
वह कचरे के ढेर में रोज की तरह कुछ बीन रहा था, बुलाया तो चला आया। त्यौहार के दिन भी इस गंदगी में? घर कहाँ है? वहाँ साफ़-सफाई क्यों नहीं करते? त्यौहार नहीं मनाओगे? मैंने पूछा।
'क्यों नहीं मनाऊँगा?, प्लास्टिक बटोरकर सेठ को दूँगा जो पैसे मिलेंगे उससे लाई और दिया लूँगा।' उसने कहा।
'मैं लाई और दिया दूँ तो मेरा काम करोगे?' कुछ पल सोचकर उसने हामी भर दी और मेरे कहे अनुसार सड़क पर नलके से नहाकर घर आ गया। मैंने बच्चे के एक जोड़ी कपड़े उसे पहनने को दिए, दो रोटी खाने को दी और सामान लेने बाजार चल दी। रास्ते में उसने बताया नाले किनारे झोपड़ी में रहता है, माँ बुखार के कारण काम नहीं कर पा रही, पिता नहीं है।
ख़रीदे सामान की थैली उठाये हुए वह मेरे साथ घर लौटा, कुछ रूपए, दिए, लाई, मिठाई और साबुन की एक बट्टी दी तो वह प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखते हुए पूछा: 'ये मेरे लिए?' मैंने हाँ कहा तो उसके चहरे पर ख़ुशी की हल्की सी रेखा दिखी। 'मैं जाऊँ?' शीघ्रता से पूछ उसने कि कहीं मैं सामान वापिस न ले लूँ। 'जाकर अपनी झोपड़ी, कपड़े और माँ के कपड़े साफ़ करना, माँ से पूछकर दिए जलाना और कल से यहाँ काम करने आना, बाक़ी बात मैं तुम्हारी माँ से कर लूँगी।
'क्या कर रही हो, ये गंदे बच्चे चोर होते हैं, भगा दो' पड़ोसन ने मुझे चेताया। गंदे तो ये हमारे फेंके कचरे को बीनने से होते हैं। ये कचरा न उठायें तो हमारे चारों तरफ कचरा ही कचरा हो जाए। हमारे बच्चों की तरह उसका भी मन करता होगा त्यौहार मनाने का।
'हाँ, तुम ठीक कह रही हो। हम तो मनायेंगे ही, इस बरस उसकी भी मन सकेगी धनतेरस'
कहते हुए ये घर में आ रहे थे और बच्चे के चहरे पर चमक रहा था थोड़ा सा चन्द्रमा।
**********
एक रचना
: पाँच पर्व :
*
पाँच तत्व की देह है,
ज्ञाननेद्रिय हैं पाँच।
कर्मेन्द्रिय भी पाँच हैं,
पाँच पर्व हैं साँच।।
*
माटी की यह देह है,
माटी का संसार।
माटी बनती दीप चुप,
देती जग उजियार।।
कच्ची माटी को पका
पक्का करती आँच।
अगन-लगन का मेल ही
पाँच मार्ग का साँच।।
*
हाथ न सूझे हाथ को
अँधियारी हो रात।
तप-पौरुष ही दे सके
हर विपदा को मात।।
नारी धीरज मीत की
आपद में हो जाँच।
धर्म कर्म का मर्म है
पाँच तत्व में जाँच।।
*
बिन रमेश भी रमा का
तनिक न घटता मान।
ऋद्धि-सिद्धि बिन गजानन
हैं शुभत्व की खान।।
रहें न संग लेकिन पूजें
कर्म-कुंडली बाँच।
अचल-अटल विश्वास ही
पाँच देव हैं साँच।।
*
धन्वन्तरि दें स्वास्थ्य-
धनहरि दें रक्षा-रूप।
श्री-समृद्धि, गणपति-मति
देकर करें अनूप।।
गोवर्धन पय अमिय दे
अन्नकूट कर खाँच।
बहिनों का आशीष ले
पाँच शक्ति शुभ साँच।।
*
पवन, भूत, शर, अँगुलि मिल
हर मुश्किल लें जीत।
पाँच प्राण मिल जतन कर
करें ईश से प्रीत।।
परमेश्वर बस पंच में
करें न्याय ज्यों काँच।
बाल न बाँका हो सके
पाँच अमृत है साँच
*****

नवगीत
*
मन-कुटिया में
दीप बालकर
कर ले उजियारा।
तनिक मुस्कुरा
मिट जाएगा
सारा तम कारा।।
*
ले कुम्हार के हाथों-निर्मित
चंद खिलौने आज।
निर्धन की भी धनतेरस हो
सध जाए सब काज।
माटी-मूरत,
खील-बतासे
है प्रसाद प्यारा।।
*
रूप चतुर्दशी उबटन मल, हो
जगमग-जगमग रूप।
प्रणय-भिखारी गृह-स्वामी हो
गृह-लछमी का भूप।
रमा रमा में
हो मन, गणपति
का कर जयकारा।।
*
स्वेद-बिंदु से अवगाहन कर
श्रम-सरसिज देकर।
राष्ट्र-लक्ष्मी का पूजन कर
कर में कर लेकर।
निर्माणों की
झालर देखे
विस्मित जग सारा।।
*
अन्नकूट, गोवर्धन पूजन
भाई दूज न भूल।
बैरी समझ कूट मूसल से
पैने-चुभते शूल।
आत्म दीप ले
बाल, तभी तो
होगी पौ बारा।।
***********
गीत:
दीप, ऐसे जलें...
संजीव 'सलिल'
दीप के पर्व पर जब जलें-
दीप, ऐसे जलें...
स्वेद माटी से हँसकर मिले,
पंक में बन कमल शत खिले।
अंत अंतर का अंतर करे-
शेष होंगे न शिकवे-गिले।।
नयन में स्वप्न नित नव खिलें-
दीप, ऐसे जलें...
श्रम का अभिषेक करिए सदा,
नींव मजबूत होगी तभी।
सिर्फ सिक्के नहीं लक्ष्य हों-
साध्य पावन वरेंगे सभी।।
इंद्र के भोग, निज कर मलें-
दीप, ऐसे जलें...
जानकी जान की खैर हो,
वनगमन-वनगमन ही न हो।
चीर को चीर पायें ना कर-
पीर बेपीर गायन न हो।।
दिल 'सलिल' से न बेदिल मिलें-
दीप, ऐसे जलें...
धन तेरस पर नव छंद
गीत
*
छंद: रविशंकर
विधान:
१. प्रति पंक्ति ६ मात्रा
२. मात्रा क्रम लघु लघु गुरु लघु लघु
***
धन तेरस
बरसे रस...
*
मत निन्दित
बन वन्दित।
कर ले श्रम
मन चंदित।
रचना कर
बरसे रस।
मनती तब
धन तेरस ...
*
कर साहस
वर ले यश।
ठुकरा मत
प्रभु हों खुश।
मन की सुन
तन को कस।
असली तब
धन तेरस ...
*
सब की सुन
कुछ की गुन।
नित ही नव
सपने बुन।
रख चादर
जस की तस।
उजली तब
धन तेरस
***
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४
धनतेरस पर विशेष गीत...
प्रभु धन दे...
*
प्रभु धन दे निर्धन मत करना.
माटी को कंचन मत करना.....
*
निर्बल के बल रहो राम जी,
निर्धन के धन रहो राम जी.
मात्र न तन, मन रहो राम जी-
धूल न, चंदन रहो राम जी..
भूमि-सुता तज राजसूय में-
प्रतिमा रख वंदन मत करना.....
*
मृदुल कीर्ति प्रतिभा सुनाम जी.
देना सम सुख-दुःख अनाम जी.
हो अकाम-निष्काम काम जी-
आरक्षण बिन भू सुधाम जी..
वन, गिरि, ताल, नदी, पशु-पक्षी-
सिसक रहे क्रंदन मत करना.....
*
बिन रमेश क्यों रमा राम जी,
चोरों के आ रहीं काम जी?
श्री गणेश को लिये वाम जी.
पाती हैं जग के प्रणाम जी..
माटी मस्तक तिलक बने पर-
आँखों का अंजन मत करना.....
*
साध्य न केवल रहे चाम जी,
अधिक न मोहे टीम-टाम जी.
जब देना हो दो विराम जी-
लेकिन लेना तनिक थाम जी..
कुछ रच पाए कलम सार्थक-
निरुद्देश्य मंचन मत करना..
*
अब न सुनामी हो सुनाम जी,
शांति-राज दे, लो प्रणाम जी.
'सलिल' सभी के सदा काम जी-
आये, चल दे कर सलाम जी..
निठुर-काल के व्याल-जाल का
मोह-पाश व्यंजन मत करना.....
दिवाली गीत:
आओ! दीपावली मनायें...
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
साफ़ करें कमरा, घर, आँगन.
गली-मोहल्ला हो मन भावन.
दूर करें मिल कचरा सारा.
हो न प्रदूषण फिर दोबारा.
पन्नी-कागज़ ना फैलायें.
व्यर्थ न ज्यादा शोर मचायें.
करें त्याग रोकेट औ' बम का.
सब सामान साफ़ चमकायें.
आओ! दीपावली मनायें...
*
नियमित काटें केश और नख.
सबल बनें तन सदा साफ़ रख.
नित्य नहायें कर व्यायाम.
देव-बड़ों को करें प्रणाम.
शुभ कार्यों का श्री गणेश हो.
निबल-सहायक प्रिय विशेष हो.
परोपकार सम धर्म न दूजा.
पढ़े पुस्तकें, ज्ञान बढायें
आओ! दीपावली मनायें...
*
धन तेरस पर सद्गुण का धन.
संचित करें, रहें ना निर्धन.
रूप चतुर्दशी कहे: 'सँवारो
तन-मन-दुनिया नित्य निखारो..
श्री गणेश-लक्ष्मी का पूजन.
करो- ज्ञान से ही मिलता धन.
गोवर्धन पूजन का आशय.
पशु-पक्षी-प्रकृति हो निर्भय.
भाई दूज पर नेह बढायें.
आओ! दीपावली मनायें...
*

दोहा-दोहा धन तेरस 
तेरह दीपक बालिए, ग्यारह बाती युक्त। 
हो प्रदीप्त साहित्य-घर, रस-लय हो संयुक्त।। 
लघु से गुरु गुरुता गहे, गुरु से लघु की वृद्धि। 
जब दोनों संयुक्त हो, होती तभी समृद्धि।। 
धन चराग प्रज्वलित कर, बाँटें सतत प्रकाश। 
ज्योतित वसुधा देखकर, विस्मित हो आकाश।। 
ज्योति तेल-बाती जले, दिया पा रहा श्रेय। 
तिमिर पूछता देव से, कहिए क्या अभिप्रेय?? 
ज्योति तेल बाती दिया, तनहा करें न काम। 
मिल जाएँ तो पी सकें, जग का तिमिर तमाम।। 
चल शारद-दरबार में, बालें रचना-दीप। 
निर्धन के धन शब्द हों, हर कवि बने महीप।। 
धन तेरस का हर दिया, धन्वन्तरि के नाम। 
बालें तन-मन स्वस्थ हों, काम करें निष्काम।। 
*
नवगीत
*
लछमी मैया!
भाव बढ़ रहे, रुपया गिरता
दीवाली है।
भरा बताते 
किन्तु खज़ाना और तिजोरी 
तो खाली है
*
धन तेरस पर
निर्धन पल-पल देश क्यों हुआ
कौन बताए?
दीवाली पर
दीवाला ही यहाँ हो रहा?
राम बचाए।
सत्ता चाहे
हो विपक्ष से रहित तंत्र तो
जी भर लूटे।
कहे विपक्षी
लूटपाट कर तंत्र सो रहा
छाती कूटे।
भरा बताते 
किन्तु खज़ाना और तिजोरी 
तो खाली है।
*
डाका डालें 
जन के धन पर नेता-अफसर
कौन बचाए?
सेठ-चिकित्सक, न्याय व्यवस्था 
सत्ता चाहे
हो विपक्ष से रहित तंत्र यह
कहे विपक्षी
लूटपाट कर तंत्र सो रहा
भरा दिखाते
किन्तु खज़ाना और तिजोरी 
तो खाली है।
*

गुरुवार, 12 नवंबर 2020

सरस्वती वंदना मराठी

सरस्वती वंदना मराठी 
वंदे वीणावादिनी वाणी!

नमो नमो मां कंबुज पाणी!
गीत ग़ज़ल मुक्तक ची दाता!
शब्द भाव शुचि उक्ति प्रदाता !
मुक्त छंद कविता बन फूला!
चरणी चढ़वु हे सुख मूला!
ग्यान दायिनी रूप अतूला!
हो जननि मज वर अनुकूला!२
वागीशा वरदायिनी अंबा!
कमल नयनि! जय बाहू प्रलंबा!
श्वेत वसन धारिणी जगदंबा!
ग्यान दायिनी ! कृपा कदंबा!३
अमल विमल पूजित सुरवृंदा!
जय मृदुहासिनी आनन चंदा!
दुख भय हारिणि! आनंदकंदा।!
ललित !रम्य ! गति मत्तगयंदा!!४
रसन कमल राजिनी मन हंसा!
करत देव मुनि सदा प्रशंशा।
काटिनि क्लेष कुमति घन कंसा!
तिमिर गहन जाड्यापह ध्वंशा!५
ध्याऊँ मात तुला निशि वासर!
कर कृपा समझ जड़ किंकर!
कर स्नेह हे मात पुस्त-कर!
सदा दे हे अंब सुअक्षर।
मात शारदे सुंदर स्वर दे!
कल्पन सुंदर! मौन मुखर दे!
मम कल्पन घट होउ ना रीता
हेच मागती विनित विनीता!
दोहा
आई मि तनया मंद मति, तुझ चरित अपार।
शब्द सुमन चा हार माते, मझ कडून कर स्वीकार।।
©विनिता राहुरीकर

सरस्वती वंदना कौरवी

सरस्वती वंदना कौरवी 
।। ओ विद्या माता।।
-----------------------------
मेरे स्व. मित्र हास्यकवि श्री हरिराम चमचा ने एक बार प्रेरित किया कि अधिक न हो,पर अपनी मातृभाषा का ऋण उतारने के लिए उसमें कुछ-न-कुछ लिखना अवश्य चाहिए। इसे गम्भीरता से लेते हुए मैंने जनपद मुज़फ्फरनगर की भाषा ( कौरवी) में कुछ लिखने की कोशिश की। यह वाणी-वंदना इसी क्रम में है जिसे दूसरी बार प्रस्तुत कर रहा हूँ।
ओ विद्या माता,अरी ओ विद्या माता।
मैं नू ही फूल्ला फिरता, मुझे न कुछ आत्ता।।
ओ विद्या माता।
लोग कलम सै उल्टा-सूद्धा लिक्खैं री।
कहते फिरैं जगत् मैं, तेरी सिद्धि करी।।
विद्या-बल का दुनिया,गलत प्रयोग करै,
क्या तुझसै देक्खा जात्ता,
ओ विद्या माता।
भासन कोई लिक्खै, अर कोई बाँचै।
जो बाँचै उसकी ही,होवै है जै-जै।।
झूठ बोल दुनिया मै, उजला शॉल खड़ा,
मुझै समझ ना आत्ता,
ओ विद्या माता।।
हे वीणा-वादिनी! जमाना,तो है ढोलों का।
गया शांति का बखत, मात! अब युग है शोलों का।।
स्वर के बदले जिसनै, कविता तोल लई,
सब यश दूज्जा ले जात्ता,
ओ विद्या माता।।
विद्या तुझको आ जावैगी, ठगी-डकैती की।
मोरपंख मै जो घुस जावै, शक्ति लठैती की।।
पढ़ा-लिखा हूँ, मंडी मै, कुछ बढ़कर भाव मिलै,
यदि संभव हो जात्ता,
ओ विद्या माता।।
पंकज परिमल/मई,2007

नवगीत

नवगीत
*
सहनशीलता कमजोरी है
सीनाजोरी की जय
*
गुटबंदीकर
अपनी बात कहो
ताली पिटवाओ।
अन्य विचार
न सुनो; हूटकर
शालीनता भुलाओ।
वृद्धों का
अपमान करो फिर
छाती खूब फुलाओ।
श्रम की कद्र
न करो, श्रमिक के
हितकारी कहलाओ।
बातें करें किताबी पर
आचरण न किंचित है भय
*
नहीं गीत में
छंद जरूरी
मिथ्या भ्रम फैलाते।
नव कलमों को
गलत दिशा में
नाहक ही भटकाते।
खुद छंदों में
नव प्रयोग कर
आगे बढ़ते जाते।
कम साहित्य,
सियासत ज्यादा
करें; घूम मदमाते।
मौन न हारे,
शोर न जीते,
हो छंदों की ही जय
*
एक विधा को
दूजी का उच्छिष्ट
बताकर फूलो।
इसकी टोपी
उसके सर धर
सुख-सपनों में झूलो।
गीत न आश्रित
कविता-ग़ज़लों का
यह सच भी भूलो।
थाली के पानी में
बिम्ब दिखा कह
शशि को छू लो।
छद्म दर्द का,
गुटबंदी का,
बिस्तर बँधना है तय
*
संजीव
१२-११-२०१९

दोहा सलिला

 दोहा सलिला 

मैं औ' मेरी डायरी, काया-छाया संग
कहने को हैं दो मगर, 'सलिल'एक है रंग
*
अनपढ़ पढ़ता अनलिखा, समझ-बूझ चुपचाप
जीवन पुस्तक है बडी, अक्षर-अक्षर आप
*
छठ पूजन कर एक दिन, शेष दिवस नाबाद
दूध छठी का कराती, गृहस्वामी को याद
*
हरछठ पर 'हऱ' ने किए, नखरे कई हजार
'हिज़' बेचारा उठाता, नखरे बाजी हार
*
नाक-शीर्ष से सर तलक, भरी देख ले माँग
माँग न पूरी की अगर, बच न सकेगी टाँग
*
'मी टू' छठ का व्रत रही, तू न रहा क्यों बोल?
ढँकी न अब रह सकेगी, खोलेगी वह पोल
*
माँग नहीं जिसकी भरी, रही एक वर माँग
माँग भरे वह कर सके, जो पूरी हर माँग
*

दोहा यमक

दोहा सलिला
गले मिले दोहा यमक
--संजीव 'सलिल'
*
जिस का रण वह ही लड़े, किस कारण रह मौन.
साथ न देते शेष क्यों?, बतलायेगा कौन??
*
ताज महल में सो रही, बिना ताज मुमताज.
शिव मंदिर को मकबरा, बना दिया बेकाज..
*
भोग लगा प्रभु को प्रथम, फिर करना सुख-भोग.
हरि को अर्पण किये बिन, बनता भोग कुरोग..
*
योग लगते सेठ जी, निन्यान्नबे का फेर.
योग न कर दुर्योग से, रहे चिकित्सक-टेर..
*
दस सर तो देखे मगर, नौ कर दिखे न दैव.
नौकर की ही चाह क्यों, मालिक करे सदैव?
*
करे कलेजा चाक री, अधम चाकरी सौत.
सजन न आये चौथ पर, अरमानों की मौत..
*
चढ़े हुए सर कार पर, हैं सरकार समान.
सफर करे सर कार क्यों?, बिन सरदार महान..
*
चाक घिस रहे जन्म से. कोइ न समझे पीर.
गुरु को टीचर कह रहे, मंत्री जी दे पीर..
*
रखा आँख पर चीर फिर, दिया कलेजा चीर.
पीर सिया की सलिल थी, राम रहे प्राचीर..
*
पी मत खा ले जाम तू, है यह नेक सलाह.
जाम मार्ग हो तो करे, वाहन इंजिन दाह..
*
कर वट की आराधना, ब्रम्हदेव का वास.
करवट ले सो चैन से, ले अधरों पर हास..
*
१२-११-२०११   

सोमवार, 2 नवंबर 2020

समीक्षा दिन कटे हैं धूप चुनते, अवनीश त्रिपाठी

समीक्षा 
'दिन कटे हैं धूप चुनते' हौसले ले स्वप्न बुनते 
समीक्षाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : दिन कटे हैं धूप चुनते, नवगीत संग्रह, अवनीश त्रिपाठी, प्रथम संस्करण २०१९, आईएसबीएन ९७८९३८८९४६२१६, आकार २२ से.मी. X १४ से.मी., आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, बेस्ट बुक बडीज टेक्नोलॉजीस प्रा. लि. नई दिल्ली, कृतिकार संपर्क - ग्राम गरएं, जनपद सुल्तानपुर २२७३०४, चलभाष ९४५१५५४२४३, ईमेल tripathiawanish9@gmail.com]
*
धरती के 
मटमैलेपन में 
इंद्रधनुष बोने से पहले,
मौसम के अनुशासन की 
परिभाषा का विश्लेषण कर लो। 
साहित्य की जमीन में गीत की फसल उगाने से पहले देश, काल, परिस्थितियों और मानवीय आकांक्षाओं-अपेक्षाओं के विश्लेषण का आव्हान करती उक्त पंक्तियाँ गीत और नवगीत के परिप्रेक्ष्य में पूर्णत: सार्थक हैं। तथाकथित प्रगतिवाद की आड़ में उत्सवधर्मी गीत को रुदन का पर्याय बनाने की कोशिश करनेवालों को यथार्थ का दर्पण दिखाते नवगीत संग्रह "दिन कटे हैं धूप चुनते" में नवोदित नवगीतकार अवनीश त्रिपाठी ने गीत के उत्स "रस" को पंक्ति-पंक्ति में उँड़ेला है। मौलिक उद्भावनाएँ, अनूठे बिम्ब, नव रूपक, संयमित-संतुलित भावाभिव्यक्ति और लयमय अभिव्यक्ति का पंचामृती काव्य-प्रसाद पाकर पाठक खुद को धन्य अनुभव करता है। 
स्वर्ग निरंतर 
उत्सव में है 
मृत्युलोक का चित्र गढ़ो जब,
वर्तमान की कूची पकड़े 
आशा का अन्वेषण कर लो। 
मिट्टी के संशय को समझो 
ग्रंथों के पन्ने तो खोलो,
तर्कशास्त्र के सूत्रों पर भी
सोचो-समझो कुछ तो बोलो। 
हठधर्मी सूरज के 
सम्मुख 
फिर तद्भव की पृष्ठभूमि में 
जीवन की प्रत्याशावाले
तत्सम का पारेषण कर लो। 
मानव की सनातन भावनाओं और कामनाओं का सहयात्री गीत-नवगीत केवल करुणा तक सिमट कर कैसे जी सकता है? मनुष्य के अरमानों, हौसलों और कोशिशों का उद्गम और परिणिति डरे, दुःख, पीड़ा, शोक में होना सुनिश्चित हो तो कुछ करने की जरूरत ही कहाँ रह जाती है? गीतकार अवनीश 'स्वर्ग निरंतर उत्सव में है' कहते हुए यह इंगित करते हैं कि गीत-नवगीत को उत्सव से जोड़कर ही रचनाकार संतुष्टि और सार्थकता के स्वर्ग की अनुभूति कर सकता है। 
नवगीत के अतीत और आरंभिक मान्यताओं का प्रशस्तिगान करते विचारधारा विशेष के प्रति प्रतिबद्ध गीतकार जब नवता को विचार के पिंजरे में कैद कर देते हैं तो "झूमती / डाली लता की / महमहाई रात भर" जैसी जीवंत अनुभूतियाँ और अभिव्यक्तियाँ गीत से दूर हो जाती हैं और गीत 'रुदाली' या 'स्यापा' बनकर जिजीविषा की जयकार करने का अवसर न पाकर निष्प्राण हो जाता है। अवनीश ने अपने नवगीतों में 'रस' को मूर्तिमंत किया है-
गुदगुदाकर 
मंजरी को 
खुश्बूई लम्हे खिले, 
पंखुरी के 
पास आई 
गंध ले शिकवे-गिले,
नेह में 
गुलदाउदी 
रह-रह नहाई रात भर। 
कवि अपनी भाव सृष्टि का ब्रम्हा होता है। वह अपनी दृष्टि से सृष्टि को निरखता-परखता और मूल्यांकित करता है। "ठहरी शब्द-नदी" उसे नहीं रुचती। गीत को वैचारिक पिंजरे में कैद कर उसके पर कुतरने के पक्षधरों पर शब्दाघात करता कवि कहता है-
"चुप्पी साधे पड़े हुए हैं
कितने ही प्रतिमान यहाँ
अर्थ हीन हो चुकी समीक्षा 
सोई चादर तान यहाँ 
कवि के मंतव्य को और अधिक स्पष्ट करती हैं निम्न पंक्तियाँ- 
अक्षर-अक्षर आयातित हैं 
स्वर के पाँव नहीं उठते हैं 
छलते संधि-समास पीर में 
रस के गाँव नहीं जुटते हैं। 
अलंकार ले 
चलती कविता 
सर से पाँव लदी। 
अलंकार और श्रृंगार के बिना केवल करुणा एकांगी है। अवनीश एकांगी परिदृश्य का सम्यक आकलन करते हैं -
सौंपकर 
थोथे मुखौटे 
और कोरी वेदना,
वस्त्र के झीने झरोखे 
टाँकती अवहेलना,
दुःख हुए संतृप्त लेकिन 
सुख रहे हर रोज घुनते। 
सुख को जीते हुए दुखों के काल्पनिक और मिथ्या नवगीत लिखने के प्रवृत्ति को इंगित कर कवि कहता है- 
भूख बैठी प्यास की लेकर व्यथा 
क्या सुनाये सत्य की झूठी कथा 
किस सनातन सत्य से संवाद हो 
क्लीवता के कर्म पर परिवाद हो 
और 
चुप्पियों ने मर्म सारा 
लिख दिया जब चिट्ठियों में, 
अक्षरों को याद आए 
शक्ति के संचार की
अवनीश के नवगीतों की कहन सहज-सरल और सरस होने के निकष पर सौ टका खरी है। वे गंभीर बात भी इस तरह कहते हैं कि वह बोझ न लगे -
क्यों जगाकर 
दर्द के अहसास को 
मन अचानक मौन होना चाहता है? 
पूर्वाग्रहियों के ज्ञान को नवगीत की रसवंती नदी में काल्पनिक अभावों और संघर्षों से रक्त रंजीत हाथ दोने को तत्पर देखकर वे सजग करते हुए कहते हैं- 
फिर हठीला 
ज्ञान रसवंती नदी में 
रक्त रंजित हाथ धोना चाहता है। 
नवगीत की चौपाल के वर्तमान परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए वे व्यंजना के सहारे अपनी बात सामने रखते हुए कहते हैं कि साखी, सबद, रमैनी का अवमूल्यन हुआ है और तीसमारखाँ मंचों पर तीर चला कर अपनी भले ही खुद ठोंके पर कथ्य और भाव ओके नानी याद आ रही है- 
रामचरित की 
कथा पुरानी 
काट रही है कन्नी 
साखी-शबद 
रमैनी की भी 
कीमत हुई अठन्नी 
तीसमारखाँ 
मंचों पर अब 
अपना तीर चलाएँ ,
कथ्य-भाव की हिम्मत छूटी 
याद आ गई नानी। 
और 
आज तलक 
साहित्य जिन्होंने 
अभी नहीं देखा है,
उनके हाथों 
पर उगती अब 
कविताओं की रेखा। 
नवगीत को दलितों की बपौती बनाने को तत्पर मठधीश दुहाई देते फिर रहे हैं कि नवगीत में छंद और लय की अपेक्षा दर्द और पीड़ा का महत्व अधिक है। शिल्पगत त्रुटियों, लय भंग अथवा छांदस त्रुटियों को छंदमुक्ति के नाम पर क्षम्य ही नहीं अनुकरणीय कहनेवालों को अवनीश उत्तर देते हैं- 
मात्रापतन 
आदि दोषों के
साहित्यिक कायल हैं 
इनके नव प्रयोग से सहमीं 
कवितायेँ घायल हैं 
गले फाड़ना 
फूहड़ बातें 
और बुराई करना,
इन सब रोगों से पीड़ित हैं 
नहीं दूसरा सानी। 
'दिन कटे हैं धूप चुनते' का कवि केवल विसंगतियों अथवा भाषिक अनाचार के पक्षधरताओं को कटघरे में नहीं खड़ा करता अपितु क्या किया जाना चाहिए इसे भी इंगित करता है। संग्रह के भूमिकाकार मधुकर अष्ठाना भूमिका में लिखते हैं "कविता का उद्देश्य समाज के सम्मुख उसकी वास्तविकता प्रकट करना है, समस्या का यथार्थ रूप रखना है। समाधान खोजना तो समाज का ही कार्य है।' वे यह नहीं बताते कि जब समाज अपने एक अंग गीतकार के माध्यम से समस्या को उठता है तो वही समाज उसी गीतकार के माध्यम से समाधान क्यों नहीं बता सकता? समाधान, उपलब्धु, संतोष या सुख के आते ही सृजन और सृजनकार को नवगीत और नवगीतकारों के बिरादरी के बाहर कैसे खड़ा किया जा सकता है? अपनी विचारधारा से असहमत होनेवालों को 'जातबाहर' करने का धिकार किसने-किसे-कब दिया? विवाद में न पड़ते हुए अवनीश समाधान इंगित करते हैं- 
स्वप्नों की 
समिधायें लेकर 
मन्त्र पढ़ें कुछ वैदिक,
अभिशापित नैतिकता के घर 
आओ, हवन करें। 
शमित सूर्य को 
बोझल तर्पण 
यासित संबोधन,
आवेशित 
कुछ घनी चुप्पियाँ 
निरानंद आवाहन। 
निराकार 
साकार व्यवस्थित 
ईश्वर का अन्वेषण,
अंतरिक्ष के पृष्ठों पर भी 
क्षितिज चयन करें। 
अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए नवगीतकार कहता है- 
त्रुटियों का 
विश्लेषण करतीं
आहत मनोव्यथाएँ 
अर्थहीन वाचन की पद्धति 
चिंतन-मनन करें। 
और 
संस्कृत-सूक्ति 
विवेचन-दर्शन 
सूत्र-न्याय संप्रेषण 
नैसर्गिक व्याकरण व्यवस्था 
बौद्धिक यजन करें। 
बौद्धिक यजन की दिशा दिखाते हुए कवि लिखता है -
पीड़ाओं 
की झोली लेकर 
तरल सुखों का स्वाद चखाया...
.... हे कविता!
जीवंत जीवनी 
तुमने मुझको गीत बनाया। 
सुख और दुःख को धूप-छाँव की तरह साथ-साथ लेकर चलते हैं अवनीश त्रिपाठी के नवगीत। नवगीत को वर्तमान दशक के नए नवगीतकारों ने पूर्व की वैचारिक कूपमंडूकता से बाहर निकालकर ताजी हवा दी है। जवाहर लाल 'तरुण', यतीन्द्र नाथ 'राही, कुमार रवींद्र, विनोद निगम, निर्मल शुक्ल, गिरि मोहन गुरु, अशोक गीते, संजीव 'सलिल', गोपालकृष्ण भट्ट 'आकुल', पूर्णिमा बर्मन, कल्पना रामानी, रोहित रूसिया, जयप्रकाश श्रीवास्तव, मधु प्रसाद, मधु प्रधान, संजय शुक्ल, संध्या सिंह, धीरज श्रीवास्तव, रविशंकर मिश्र बसंत शर्मा, अविनाश ब्योहार आदि के कई नवगीतों में करुणा से इतर वात्सल्य, शांत, श्रृंगार आदि रसों की छवि-छटाएँ ही नहीं दर्शन की सूक्तियों और सुभाषितों से सुसज्ज पंक्तियाँ भी नवगीत को समृद्ध कर नई दिशा दे रही है। इस क्रम में गरिमा सक्सेना और अवनीश त्रिपाठी का नवगीतांगन में प्रवेश नव परिमल की सुवास से नवगीत के रचनाकारों, पाठकों और श्रोताओं को संतृप्त करेगा। 
वैचारिक कूपमंडूकता के कैदी क्या कहेंगे इसका पूर्वानुमान कर नवगीत ही उन्हें दशा दिखाता है-
चुभन 
बहुत है वर्तमान में 
कुछ विमर्श की बातें हों अब,
तर्क-वितर्कों से पीड़ित हम 
आओ समकालीन बनें। 
समकालीन बनने की विधि भी जान लें-
कथ्यों को 
प्रामाणिक कर दें 
गढ़ दें अक्षर-अक्षर,
अंधकूप से बाहर निकलें 
थोड़ा और नवीन बनें। 
'दर्द' की देहरी लांघकर 'उत्सव' के आँगन में कदम धरता नवगीत यह बताता है कि
खोज रहे हम हरा समंदर,
मरुथल-मरुथल नीर,
पहुँच गए फिर, चले जहाँ से, 
उस गड़ही के तीर .
नवगीत विसंगतियों को नकारता नहीं उन्हें स्वीकारता है फिर कहता है- 
चेत गए हैं अब तो भैया 
कलुआ और कदीर। 
यह लोक चेतना ही नवगीत का भविष्य है। अनीति को बेबस ऐसे झेलकर आँसू बहन नवगीत को अब नहीं रुच रहा। अब वह ज्वालामुखी बनकर धधकना और फिर आनंदित होने-करने के पथ पर चल पड़ा है -
'ज्वालामुखी हुआ मन फिर से
आग उगलने लगता है जब 
गीत धधकने लगता है तब 
और 
खाली बस्तों में किताब रख 
तक्षशिला को जीवित कर दें 
विश्व भारती उगने दें हम 
फिर विवेक आनंदित कर दें
परमहंस के गीत सुनाएँ 
नवगीत को नव आयामों में गतिशील बनाने के सत्प्रयास हेतु अवनीश त्रिपाठी बधा ई के पात्र हैं। उन्होंने साहित्यिक विरासत को सम्हाला भर नहीं है, उसे पल्लवित-पुष्पित भी किया है। उनकी अगली कृति की उत्कंठा से प्रतीक्षा मेरा समीक्षक ही नहीं पाठक भी करेगा। 
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[संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com]