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सोमवार, 2 नवंबर 2020

समीक्षा - मैं सागर में एक बूँद सही


पुस्तक सलिला –
‘मैं सागर में एक बूँद सही’ प्रकृति से जुड़ी कविताएँ 
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – मैं सागर में एक बूँद सही, बीनू भटनागर, काव्य संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-७४०८-९२५-०, आकार २२ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द, पृष्ठ २१५, मूल्य ४५०/-, अयन प्रकाशन १/२० महरौली नई दिल्ली , दूरभाष २६६४५८१२, ९८१८९८८६१३, कवयित्री सम्पर्क binubhatnagar@gmail.com ]
*
कविता की जाती है या हो जाती है? यह प्रश्न मुर्गी पहले हुई या अंडा की तरह सनातन है. मनुष्य का वैशिष्ट्य अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक संवेदनशील तथा अधिक अभिव्यक्तिक्षम होना है. ‘स्व’ के साथ-साथ ‘सर्व’ को अनुभूत करने की कामना वश मनुष्य अज्ञात को ज्ञात करता है तथा ‘स्व’ को ‘पर’ के स्थान पर कल्पित कर तदनुकूल अनुभूतियों की अभिव्यक्ति कर उसे ‘साहित्य’ अर्थात सबके हित हेतु किया कर्म मानता है. प्रश्न हो सकता है कि किसी एक की अनुभूति वह भी कल्पित सबके लिए हितकारी कैसे हो सकती है? उत्तर यह कि रचनाकार अपनी रचना का ब्रम्हा होता है. वह विषय के स्थान पर ‘स्व’ को रखकर ‘आत्म’ का परकाया प्रवेश कर ‘पर’ हो जाता है. इस स्थिति में की गयी अनुभूति ‘पर’ की होती है किन्तु तटस्थ विवेक-बुद्धि ‘पर’ के अर्थ/हित’ की दृष्टि से चिंतन न कर ‘सर्व-हित’ की दृष्टि से चिंतन करता है. ‘स्व’ और ‘पर’ का दृष्टिकोण मिलकर ‘सर्वानुकूल’ सत्य की प्रतीति कर पाता है. ‘सर्व’ का ‘सनातन’ अथवा सामयिक होना रचनाकार की सामर्थ्य पर निर्भर होता है. 
इस पृष्ठभूमि में बीनू भटनागर की काव्यकृति ‘मैं सागर में एक बूँद सही’ की रचनाओं से गुजरना प्रकृति से दूर हो चुकी महानगरीय चेतना को पृकृति का सानिंध्य पाने का एक अवसर उपलब्ध कराती है. प्रस्तावना में श्री गिरीश पंकज इन कविताओं में ‘परंपरा से लगाव, प्रकृति के प्रति झुकाव और जीवन के प्रति गहरा चाव’ देखते हैं. ‘अवर स्वीटेस्ट सोंग्स आर दोज विच टेल ऑफ़ सैडेस्ट थौट’ कहें या ‘हैं सबसे मधुर वे गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’ यह निर्विवाद है कि कविता का जन्म ‘पीड़ा’से होता है. मिथुनरत क्रौन्च युग्म को देख, व्याध द्वारा नर का वध किये जाने पर क्रौंची के विलाप से द्रवित महर्षि वाल्मीकि द्वारा प्रथम काव्य रचना हो, या हिरनी के शावक का वध होने पर मातृ-ह्रदय के चीत्कार से निसृत प्रथम गजल दोनों दृष्टांत पीड़ा और कविता का साथ चोली दामन का सा बताती हैं. बीनू जी की कवितओं में यही ‘पीड़ा’ पिंजरे के रूप में है. 
कोई रचनाकार अपने समय को जीता हुआ अतीत की थाती ग्रहण कर भविष्य के लिए रचना करता है. बीनू जी की रचनाएँ समय के द्वन्द को शब्द देते हुए पाठक के साथ संवाद कर लेती हैं. सामयिक विसंगतियों का इंगित करते समय सकारात्मक सोच रख पाना इन कविताओं की उपादेयता बढ़ाता है. सामान्य मनुष्य के व्यक्तित्व के अंग चिंतन, स्व, पर, सर्व, अनुराग, विराग, द्वेष, उल्लास, रुदन, हास्य आदि उपादानों के साथ गूँथी हुई अभिव्यक्तियों की सहज ग्राह्य प्रस्तुति पाठक को जोड़ने में सक्षम है. तर्क –सम्मतता संपन्न कवितायेँ ‘लय’ को गौड़ मानती है किन्तु रस की शून्यता न होने से रचनाएँ सरस रह सकी हैं. दर्शन और अध्यात्म, पीड़ा, प्रकृति और प्रदूषण, पर्यटन, ऋतु-चक्र, हास्य और व्यंग्य, समाचारों की प्रतिक्रिया में, प्रेम, त्यौहार, हौसला, राजनीति, विविधा १-२ तथा हाइकु शीर्षक चौदह अध्यायों में विभक्त रचनाएँ जीवन से जुड़े प्रश्नों पर चिंतन करने के साथ-साथ बहिर्जगत से तादात्म्य स्थापित कर पाती हैं. 
संस्कृत काव्य परंपरा का अनुसरण करती बीनू जी देव-वन्दना सूर्यदेव के स्वागत से कर लेती हैं. ‘अहसास तुम्हारे आने का / पाने से ज्यादा सुंदर है’ से याद आती हैं पंक्तियाँ ‘जो मज़ा इन्तिज़ार में है वो विसाले-यार में नहीं’. एक ही अनुभूति को दो रचनाकारों की कहन कैसे व्यक्त करती है? ‘सारी नकारात्मकता को / कविता की नदी में बहाकर / शांत औत शीतल हो जाती हूँ’ कहती बीनू जी ‘छत की मुंडेर पर चहकती / गौरैया कहीं गुम हो गयी है’ की चिंता करती हैं. ‘धूप बेचारी / तरस रही है / हम तक आने को’, ‘धरती के इस स्वर्ग को बचायेंगे / ये पेड़ देवदार के’, ‘प्रथम आरुषि सूर्य की / कंचनजंघा पर नजर पड़ी तो / चाँदी के पर्वत को / सोने का कर गयी’ जैसी सहज अभिव्यक्ति कर पाठक मन को बाँध लेती हैं. 
छंद मुक्त कविता जैसी स्वतंत्रता छांदस कविता में नहीं होती. राजनैतिक दोहे शीर्षकांतर्गत पंक्तियों में दोहे के रचना विधान का पालन नहीं किया गया है. दोहा १३-११ मात्राओं की दो पंक्तियों से बनता है जिनमें पदांत गुरु-लघु होना अनिवार्य है. दी गयी पंक्तियों के सम चरणों में अंत में दो गुरु का पदांत साम्य है. दोहा शीर्षक देना पूरी तरह गलत है. 
चार राग के अंतर्गत भैरवी, रिषभ, मालकौंस और यमन का परिचय मुक्तक छंद में दिया गया है. अंतिम अध्याय में जापानी त्रिपदिक छंद (५-७-५ ध्वनि) का समावेश कृति में एक और आयाम जोड़ता है. भीगी चुनरी / घनी रे बदरिया / ओ संवरिया!, सावन आये / रिमझिम फुहार / मेघ गरजे, तपती धरा / जेठ का है महीना / जलते पाँव, पूस की सर्दी / ठंडी बहे बयार / कंपकंपाये, मन-मयूर / मतवाला नाचता / सांझ-सकारे, कडवे बोल / करेला नीम चढ़ा / आदत छोड़ आदि में प्रकृति चित्रण बढ़िया है. तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ अंग्रेजी-उर्दू शब्दों का बेहिचक प्रयोग भाषा को रवानगी देता है.
बीनू जी की यह प्रथम काव्य कृति है. पाठ्य अशुद्धि से मुक्त न होने पर भी रचनाओं का कथ्य आम पाठक को रुचेगा. शिल्प पर कथ्य को वरीयता देती रचनाएँ बिम्ब, प्रतीक, रूपक और अलंकार अदि का यथास्थान प्रयोग किये जाने से सरस बन सकी हैं. आगामी संकलनों में बीनू जी का कवि मन अधिक ऊँची उड़ान भरेगा. 
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४, दूरडाक – salil.sanjiv@gmail.com

हास्य गीत दीवाली और दीवाला

हास्य गीत 
दीवाली और दीवाला 
संजीव 
*
सजनी मना रही दीवाली
पर साजन का दीवाला है
दूने दाम बेच दिन दूना
होता लाला, घोटाला है
*
धन ते रस, बिन धन सब सूना,
निर्धन हर त्यौहार उपासा
नरक चौदहों दिन हैं उसको,
निर्जल व्रत बिन भी है प्यासा
कौन बताये, किससे पूछें?
क्यों ऐसा गड़बड़झाला है?
सजनी मना रही दीवाली
पर साजन का दीवाला है
*
छोड़ विष्णु आयी है लछमी,
रिद्धि-सिद्धि तजकर गणेश भी
एक साथ रह पुजते दोनों
विस्मित चूहा, चुप उलूक भी
शेष करें तो रोक रहा जग
कहता करते मुँह काला है
सजनी मना रही दीवाली
पर साजन का दीवाला है
*
समय न मिलता, भूमि नहीं है
पाले गाय कब-कहाँ बोलो
गोबर धन, गौ-मूत्र कौन ले?
किससे कहें खरीदो-तोलो?
'गो वर धन' बोले मम्मी तो
'जा धन कमा' अर्थ आला है
सजनी मना रही दीवाली
पर साजन का दीवाला है
*
अन्न कूटना अब न सुहाता
ब्रेड-बटर-बिस्कुट भाता है
छप्पन भोग पचायें कैसे?
डॉक्टर डाइट बतलाता है
कैलोरी ज्यादा खाई तो
खतरा भी ज्यादा पाला है
सजनी मना रही दीवाली
पर साजन का दीवाला है
*
भाई दूज का मतलब जानो
दूजा रहे हमेशा भाई
पहला सगा स्वार्थ निज जानो
फिर हैं बच्चे और लुगाई
बुढ़ऊ-डुकरिया से क्या मतलब?
निज कर्तव्य भूल टाला है
सजनी मना रही दीवाली
पर साजन का दीवाला है
*
चित्र गुप्त, मूरत-तस्वीरें
खुद गढ़ पूज रहे हैं लाला
दस सदस्य पर सभा बीस हैं
घर-घर काट-छाँट घोटाला
घरवाली हावी दहेज ला
मन मारे हर घरवाला है
सजनी मना रही दीवाली
पर साजन का दीवाला है
३१-१०-२०१६ 
*

गीत-प्रतिगीत राकेश खण्डेलवाल-संजीव वर्मा 'सलिल'

कार्यशाला-
गीत-प्रतिगीत
राकेश खण्डेलवाल-संजीव वर्मा 'सलिल'
*
गह​​न निशा में तम की चाहे जितनी घनी घटाएं उमड़े
पथ को आलोकित करने को प्राण दीप मेरा जलता है
पावस के अंधियारों ने कब अपनी हार कहो तो मानी
हर युग ने दुहराई ये ही घिसी पिटी सी एक कहानी
क्षणिक विजय के उन्मादों ने भ्रमित कर दिया है मानस को
पलक झुकाकर तनिक उठाने पर दिखती फिर से वीरानी
लेकिन अब ज्योतिर्मय नूतन परिवर्तन की अगन जगाने
निष्ठा मे विश्वास लिए यह प्राण दीप मेरा जलता है
खो्टे सिक्के सा लौटा है जितनी बार गया दुत्कारा
ओढ़े हुए दुशाला मोटी बेशर्मी की ,यह अँधियारा
इसीलिए अब छोड़ बौद्धता अपनानी चाणक्य नीतियां
उपक्रम कर समूल ही अबके जाए तम का शिविर उखाड़ा
छुपी पंथ से दूर, शरण कुछ देती हुई कंदराएँ जो
उनमें ज्योतिकलश छलकाने प्राण दीप मे​रा जलता है
दीप पर्व इस बार नया इक ​संदेसा लेकर है आया
सीखा नहीं तनिक भी तुमने तम को जितना पाठ पढ़ाया
अब इस विषधर की फ़ुंकारों का मर्दन अनिवार्य हो गया
दीपक ने अंगड़ाई लेकर उजियारे का बिगुल बजाया
फ़ैली हुई हथेली अपनी में सूरज की किरणें भर कर
तिमिरांचल की आहुति देने प्राण दीप मेरा जलता है
३१ अक्टूबर २०१६
गीतसम्राट अग्रजवत राकेश खंडेलवाल को सादर समर्पित
​​
प्रति गीत
*
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
श्वास न रास आस की सकती थाम, तुम्हारे बिना निमिष भर
*
पावस के अँधियारे में बन विद्युत्छ्टा राह दिखलातीं
बौछारों में साथ भीगकर तन-मन एकाकार बनातीं
पलक झुकी उठ नयन मिले, दिल पर बिजली तत्काल गिर गयी
झुलस न हुलसी नव आशाएँ, प्यासों की हर प्यास जिलातीं
मेरा आत्म अवश मिलता है, विरति-सुरति में सद्गति बनकर,
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
*
खरा हो गया खोटा सिक्का, पारस परस पुलकता पाया
रोम-रोम ने सिहर-सिहर कर, सपनों का संतूर बजाया
अपनों के नपनों को बिसरा, दोहा-पंक्ति बन गए मैं-तुम
मुखड़ा मुखड़ा हुआ ह्रदय ही हुआ अंतरा, गीत रचाया
मेरा काय-कुसुम खिलता है, कोकिल-कूक तुम्हारी सुनकर
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
*
दीप-पर्व हर रात जगमगा, रंग-पर्व हर दिन झूमा सा
तम बेदम प्रेयसि-छाया बन, पग-वंदन कर है भूमा सा
नीलकंठ बन गरल-अमिय कर, अर्ध नारि-नर द्वैत भुलाकर
एक हुए ज्यों दूर क्षितिज पर नभ ने
मेरा मन मुकुलित होता है, तेरे मणिमय मन से मिलकर
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
*
टीप- भूमा = धरती, विशाल, ऐश्वर्य, प्राणी।
२.११.२०१६ जबलपुर
***

मुक्तिका

मुक्तिका
संजीव  
*
ज्यों मोती को आवश्यकता सीपोंकी.
मानव मन को बहुत जरूरत दीपोंकी.. 
*
संसद में हैं गर्दभ श्वेत वसनधारी
आदत डाले जनगण चीपों-चीपोंकी..
*
पदिक-साइकिल के सवार घटते जाते
जनसंख्या बढ़ती कारों की, जीपोंकी..
*
चीनी झालर से इमारतें है रौशन
मंद हो रही ज्योति झोपड़े-चीपों की..
*
नहीं मिठाई और पटाखे कवि माँगे
चाह 'सलिल' मन में तालीकी, टीपोंकी..
२-११-२०१०
**************

मुक्तिका

मुक्तिका:
नारी और रंग
संजीव 'सलिल'
*
नारी रंग दिवानी है
खुश तो चूनर धानी है

लजा गुलाबी गाल हुए
शहद सरीखी बानी है

नयन नशीले रतनारे
पर रमणी अभिमानी है

गुस्से से हो लाल गुलाब
तब लगती अनजानी है।

झींगुर से डर हो पीली
वीरांगना भवानी है

लट घुँघराली नागिन सी
श्याम लता परवानी है

दंत पंक्ति या मणि मुक्ता
श्वेत धवल रसखानी है

स्वप्नमयी आँखें नीली
समुद-गगन नूरानी है

ममता का विस्तार अनंत
भगवा सी वरदानी है
*
संवस
२७-४-२०१९
७९९९५५९६१८

लघुकथा सुरेश शर्मा

लघुकथा 
सुरेश शर्मा 
*
बूढा दुबला-पतला शरीर साइकिल रिक्‍शा चलाते हुए भी हांफ रहा था तो कभी कंधे पर लटके अंगोछे से पसीना पोंछ रहा था। जैसे ही पैडल पर उसके पांव का दबाव पड़ता,घटने के नीचें की नसें उभर उठती थी।
बाबा, इस उम्र में रिक्‍शा ढा रहे हो। देखभाल के लिए कोई बेटा-बेटी नहीं क्‍या ․․․․․? सहानुभति दर्शाते हुए मैंने पूछा।
भगवान की कृपा से एक हट्‌टा-ट्‌टा जवान बेटा है साब,पैडल रोककर उसने जवाब दिया, मगर भूल हमसे हो गयी। उसे कालेज की पढाई करवा कर डिग्री दिलवा दी। अब वह गली-गली में डिग्री ढोता फिर रहा है और मैं उसे ढो रहा हूँ।
*

पुरोवाक्

पुरोवाक् :
'मरना भला बिदेस का' सामाजिक सत्य उद्घाटित करती बघेली लघुकथाएँ 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
कथा की सनातन परंपरा ही लघुकथा का मूल  
मानव जीवन में लघुकथा का प्रवेश माँ द्वारा शिशु को कही जाती बोध कथाओं से होता है। नवजात शिशु रुदन में अन्तर्निहित अनहद नाद गुँजाता हुआ संसार में प्रवेश करता है और उसके जन्म के पूर्व दारुण प्रसव पीड़ा भोगती माँ उसके जन्म के साथ ही आनंदमग्न हो जाती है। पीड़ा से आनंद का उद्भव ही लघुकथा के उद्देश्य है। शिशु अक्षर, शब्द, वाक्य या भाषा नहीं समझता पर पर ध्वनि में अन्तर्निहित 'रस' और मुख के 'भाव' देखकर 'कथ्य' को ग्रहण करने लगता है। माँ की वाणी 'वाक् सृष्टि' में प्रवेश खोलती है। माँ उससे कुछ सार्थक, कुछ निरर्थक कहती है और शिशु क्रमश: उनका अर्थ ग्रहण करने लगता है। बिन कहानी सुने दुग्धपान या भोजन ग्रहण भी उसे नहीं सुहाता। महाभारत में अभिमन्यु द्वारा गर्भ में ही चक्रव्यूह प्रवेश विधि जानने का प्रसंग तो यह भी बताता है कि जन्म से पूर्व भी शिशु कहानी सुन, समझ और ग्रहण कर लेता है। ये कहानियाँ जिन्हें शिशु कथा, बाल कथा, बोध कथा, दृष्टांत कथा, उपदेश कथा आदि अनेक नाम दिये गये हैं, लघ्वाकारी होती हैं। छोटी कहानी 'अफसाना', लेखक द्वारा कहा गया 'आख्यान', सिलसिलेवार कही गयी 'आख्यायिका', अनेक कथाएँ समेटे 'उपन्यास', छोटा पौराणिक 'उपाख्यान', धार्मिक 'कथा', यथार्थ घटना प्रधान 'कहानी', कम में अधिक कहता 'किस्सा', काल्पनिकता प्रधान 'गल्प', छंदबद्ध गाथा, विवरण प्रधान 'वृत्तांत', जनश्रुतियों पर आधृत 'दंतकथा', विवरणात्मक दास्तां, श्रृंखलाबद्ध धारावाहिक, बड़ी कथा के अंदर वर्णित छोटी 'परिकथा', सुन्दर नायिका प्रधान परीकथा, मनोरंजन प्रधान फ़साना, लघ्वाकारी यथार्थ घटनाधारित लघुकथा आदि सगोत्री सृजन विधाएँ हैं। अनुभूत को अभिव्यक्त कर किसी से कहने-सुनने-समझने की प्रवृत्ति ही इन विधाओं के मूल में है। 
भारतीय लघुकथा परंपरा 
भारतीय परिवेश में विकास की दृष्टि से लघुकथा को लोक कथा, कहावतों, मुहावरों, लोकोक्तियों आदि से जोड़कर देखा जाना चाहिए। भारत में कथा कहने-सुनने की परंपरा आदिकालीन है। आदिवासी समाज में प्रलय और सृष्टि उत्पत्ति संबंधी, गोत्र आदि के निर्धारण संबंधी कथाएँ अनूठी हैं। कृषकों में कही जानेवाली कथाएँ उनके परिवेश और कार्य से संबंधित हैं। हर गृहणी अपने परिवारजनों की सुरक्षा, उन्नति, सुख-शांति चाहती है, इसलिए पर्व-त्योहारों पर कही जानेवाली कथाएँ दिशादर्शी जीवनमूल्यों से संपन्न-समृद्ध हैं। गाँवों की चौपालों और पनघटों पर कही-सुनी जानेवाली कथाओं में सामाजिक समस्याओं और मनोरंजन को प्रधानता दी गयी। उद्देश्य की विविधता लोककथाओं के वर्गीकरण का आधार है। ये लोककथाएँ कहानी की तरह नहीं हैं। लोककथाओं में संदेश, प्रेरणा, सर्व कल्याण की भावना, मनोबल वृद्धि अथवा हास-परिहास सहज प्राप्य है। आरंभिक हिंदी लघुकथा में भी यही प्रवृत्ति प्रमुख रही। लोककथा किसी एक घटना को केंद्र में रखकर नायक-नायिका के विपत्ति में घिरने और प्रयास कर उससे उबरने को केंद्र में रखती है। कभी-कभी अलौकिक शक्ति की सहायता, कभी-कभी स्वप्रयास और सहयोग सहायक होते हैं। डॉ. अंजलि शर्मा अपने शोध की प्रस्तावना में लिखती हैं- "इसके बीज जहाँ वेद, उपनिषद से लेकर पुराण पर्यन्त तथा पंचतंत्र हितोपदेश आदि कथाओं में संस्थित है, वहीं पारंपरिक लोककथाओं में निहित प्रागैतिहासिक काल से लेकर महापर्यन्त जीवन के स्पंदनों से प्रमाणित है ।" 
पंचतंत्र, हितोपदेश, कथा सरित्सागर, बैताल कथाएँ, तोता मैना का किस्सा, रानी सारंगी की कहानी, सिंदबाद की कहानी, अलीबाबा चालीस चोर, अलिफ़-लैला, शीरीं- फरहाद, ढोला-मारू की कहानी आदि की जमीन ही वर्तमान लघुकथा जन्मदात्री है। अरबी भाषा में खलील जिब्रान, चीनी में लू शून, उर्दू में मंटो, रूसी में इवान तुर्गनेव और जर्मन में बर्तोल्त ब्रेख्त की लघुकथाएँ प्रसिद्ध हैं। संतों, फकीरों व्यापारियों के साथ कथा साहित्य देशों की सीमाएँ पार कर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' और 'विश्वैक नीड़म्' के आदर्श को मूर्त करता रहा। देश के विविध अंचलों में प्रचलित बोलिओं ने लोककथा और पर्व कथा के रूप में सामाजिक सरोकारों और विसंगतियों को न केवल उद्घाटित किया अपितु लोक कल्याण और वैयक्तिक उन्नति के मध्य सेतु स्थापित कर विविध वर्गों के मध्य सौहार्द्र स्थापित किया  तथा असहायों और निर्बलों के मन में आस्था का दीप जलाया।   
नंदलाल भारती के मतानुसार लघुकथा को हिन्‍दी साहित्‍य की नवीन विधा कहना न्‍यायोचित नहीं लगता क्‍योंकि लघुकथा तो हमारे सामाजिक सरोकारों जीवन पद्धति में रची बसी हुई है। लिखित रूप में भले ही लघुकथाओं का अस्‍तित्‍व नहीं था परन्‍तु मौखिक लोक कथाओें के रूप पहले भी था... हमें कहानियों के माध्‍यम से सामाजिक पारिवारिक, नैतिक एवं परमार्थ की दीक्षा अपरोक्ष रूप से दी जाती थी जो हमारे जीवन में ऐसी घर कर जाती थी कि जीवनपर्यन्‍त रची बसी रहती थी... गाँवों में मेहमान आते थे रात में कहानियों का दौर शुरू होता था और पूरी रात चलता था जिसमें छोटी-छोटी कहानियाँ होती थी। 
आधुनिक लघुकथा : उद्भव 
आधुनिक हिंदी के विकास के साथ हिंदी में विविध भारतीय तथा विदेशी रचना विधाओं में लिखने की प्रवृत्ति विकसित हुई। संस्कृत की दृष्टांत कथा, फ़ारसी के अफसाना तथा अंग्रेजी की शार्ट स्टोरी की तरह हिंदी में छोटी कहानी लिखी गयी जिसका मूल हमारी लोक कथाओं में है। लोक कथाओं की ही तरह लघुकथा को भी आरंभ में गंभीरता से नहीं लिया गया। वरिष्ठ रचनाकारों की प्रतिक्रिया कुछ-कुछ ऐसी ही थी जैसे ग़ज़ल को 'कोल्हू का बैल' और 'तंग गली' कहकर उस्ताद शायरों ने ग़ज़ल को नकारने की कोशिश की थी।
वर्ष १८२६ में प्रकाशित समाचार उदन्त मार्तण्ड कोलकाता ने लघुकथा रूपाकार में कई रचनाएँ प्रकाशित कीं जो हास-परिहास प्रधान हैं। बिहार के प्रथम हिन्दी साप्ताहिक पत्र 'बिहार-बन्धु' (१८७४ ई.) में कतिपय उपदेशात्मक लघुकथाओं का प्रकाशन हुआ था। इन लघुकथाओं के लेखक बिहार के प्रथम हिन्दी पत्रकार मुंशी हसन अली थे। - डॉ. राम निरंजन परिमलेन्दु, बिहार के स्वतंत्रता–पूर्व हिन्दी–कहानी–साहित्य, परिषद-पत्रिका, स्वर्ण जयंती अंक,वर्ष:५०, अंक:१-४, अप्रैल २०१० से मार्च २०११, बिहार–राष्ट्रभाषा–परिषद, पटना-४, पृष्ठ २६१) खेद है कि तरह के अन्य प्रयासों है कि इन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया और अनदेखी की गई। भारतेंदु हरिश्चंद्र के कथासंग्रह 'परिहासिनी' १८५७ ई. को प्रथम संग्रह माना जाता है। और आज तक चुटकुले कहकर उपेक्षा की जाती है। तत्पश्चात वर्ष १९०० में माधव राव सप्रे (१९-६-१८७१-२३-४-१९२६) द्वारा लिखी गयी 'टोकरी भर मिट्टी' को इस विधा की गंभीर रचना माना गया। इस कथा में एक जमींदार दुखियारी असहाय विधवा से हथियाई झोपड़ी यथार्थ का बोध होने पर पछताते हुए लौटा देता है।
तत्पश्चात छबीलेलाल गोस्वामी (विमाता), पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी (झलमला), माखनलाल चतुर्वेदी, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, जगदीशचंद्र मिश्र, आनंदमोहन अवस्थी, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, रामवृक्ष बेनीपुरी, यशपाल, विनोबा भावे, सुदर्शन, रामनारायण उपाध्याय, पाण्डेय बेचन शर्मा, उपेंद्रनाथ अश्क, भृंग तुपकरी, दिगम्बर झा, रामधारी सिंह 'दिनकर', शरद कुमार मिश्र 'शरद', हजारी प्रसाद द्विवेदी, हरिशंकर परसाई, रावी, श्यामानन्द शास्त्री, शांति मेहरोत्रा, शरद जोशी, विष्णु प्रभाकर, भवभूति मिश्र, रामेश्वरनाथ तिवारी, पूरन मुद्गल इत्यादि ने लघुकथा को अपने–अपने समय के सच को रेखांकित करते हुए लघुकथा को ठोस आधार दिया।
विकिपीडिया के अनुसार"इसे स्थापित करने में जितना हाथ भारतेन्दु हरिश्चंद्र, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, माखनलाल चतुर्वेदी, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, सुदर्शन, यशपाल, उपेन्द्रनाथ अश्क, रामवृक्ष बेनीपुरी, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, विष्णु प्रभाकर, रावी, अमृतलाल नागर, रामनारायण उपाध्याय, हरिशंकर परसाई, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, बलराम, सतीशराज पुष्करणा, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', रमेश बतरा, जगदीश कश्यप, कृष्ण कमलेश, भगीरथ, सतीश दुबे, बलराम अग्रवाल, डॉ. प्रमथनाथ मिश्र, रमाकांत श्रीवास्तव, कृष्णानंद कृष्ण, नागेंद्र प्रसाद सिंह, डॉ. सतीश दुबे, कृष्ण मोहन सक्सेना, सिद्धेश्वर, डॉ. कमलकिशोर गोयनका, विक्रम सोनी, सुकेश साहनी, संतोष श्रीवास्तव आदि लघुकथाकारों का रहा है उतना ही रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु', कमल चोपड़ा, अशोक भाटिया, अशोक जैन, योगराज प्रभाकर, रवि प्रभाकर, राजेश शॉ, सतीश राठी, बी. एल. आच्छा, उमेश महादोषी, कांता राय आदि का भी रहा है।" 
लघुकथा क्या है?
वर्ष १९८४ में सारिका के लघुकथा विशेषांक में राजेंद्र यादव ने 'लघुकथा और चुटकुला में साम्य' इंगित करते हुए लघुकथा लेखन को कठिन बताया। मनोहरश्याम जोशी ने लघुकथाओं को 'चुटकुलों और गद्य के बीच सर पटकता' कहा। शानि ने लघुकथाओं को चुटकुलों की तरह' पाया। मुद्राराक्षस के अनुसार 'लघुकथा ने साहित्य में कोई बड़ा स्थान नहीं बनाया।' पद्मश्री लक्ष्मीनारायण लाल ने लघुकथा को लेखक का 'अच्छा अस्त्र' कहा। 
विभारानी श्रीवास्तव के अनुसार सर्वप्रथम इसे परिभाषित करने का प्रयास किया बुद्धिनाथ झा 'कैरव' ने, जिन्होंने अपनी पुस्तक 'साहित्य साधना की पृष्ठभूमि' के पृष्ठ २६७ पर न मात्र 'लघुकथा' शब्द का प्रयोग किया अपितु उसे इस प्रकार परिभाषित भी किया,- "संभवत: लघुकथा शब्द अंग्रेजी के 'शॉट स्टोरी' शब्द का अनुवाद है। 'लघुकथा' और कहानी में कोई तात्विक अंतर नहीं है। यह लम्बी कहानी का संक्षिप्त रूप नहीं है। लघुकथा का विकास दृष्टान्तों के रूप में हुआ। ऐसे दृष्टान्त नैतिक और धार्मिक क्षेत्रों से प्राप्त हुए। 'ईसप की कहानियों', 'पंचतंत्र की कथाएँ', 'महाभारत', 'बाइबिल' जातक आदिकथाएँ इसी के रूप में हैं। -पटल सोच का सृजन 
लक्ष्मीनारायण लाल ने वर्ष १९५८ में हिन्दी साहित्य-कोश (भाग-१) पृष्ठ ७४० पर बुद्धिनाथ झा 'कैरव' द्वारा दी गई लघुकथा की परिभाषा को ही लगभग हू-ब-हू उतार दिया था। 'लघुकथा' नाम 'छोटी कहानी', 'मिनी कहानी', 'लघु कहानी' आदि नामों के बाद ही रूढ़ हुआ। 
शब्दकोश के अनुसार लघुकथा को अंग्रेजी में स्टोरिएट (storiette) एवं उर्दू में 'अफसांचा' कहा जाता है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, लंदन में डॉ. इला ओलेरिया शर्मा द्वारा प्रस्तुत शोध प्रबंध 'द लघुकथा ए हिस्टोरिकल एंड लिटरेरी एनालायसिस ऑफ ए मॉर्डन हिन्दी पोजजेनर' (The Laghukatha , A Historical and Literary Analysis of a modern Hindi Prose Genre') में उन्होंने लघुकथा को storiette न लिखकर 'लघुकथा' (Laghukatha) ही लिखा है। अत: storiette को छोटी कहानी कहा जा सकता है।
लघुकथा : जितने मुँह उतनी परिभाषाएँ 
सरला अग्रवाल - लघुकथा में किसी अनुभव अथवा घटना की टीस और कचोट को बहुत ही गहनता के साथ उद्घाटित किया जाता है। 
डॉ. प्रमथनाथ मिश्र - लघुकथा सामाजिक बुराई के काले-गहरे बादलों के बीच दबी विद्युल्लता की भाँति है।' 
स्व. रमाकांत श्रीवास्तव - वह (लघुकथा) यथार्थपरक कविता के अधिक निकट है, विशेषकर मुक्त छंद कविता के।अवधनारायण मुद्गल के अनुसार उपन्यास नदी, कहानी नहर और लघुकथा उपनहर है।
डॉ, कमलकिशोर गोयनका लघुकथा को लेखकविहीन विधा कहते हैं। जीवितराम सतपाल के अनुसार लघुकथा में अमिधा, लक्षणा और व्यंजना तीनों शब्द शक्तियों का प्रयोग किया जा सकता है। उनके अनुसार लघुकथा बरसात नहीं फुहार, ठहाका नहीं मुस्कान है।  
नामवर सिंह भारतीय लघुकथाओं को पाश्चात्य लघुकथाओं का पिछलग्गू नहीं, निजत्व और विराट भावबोध से संपन्न मानते हैं। सिद्धेश्वर लघुकथा को सर्वाधिक प्रेरक, संप्रेषणीय, संवेदीनशील और जीवंत विधा मानते हुए पाठ्यक्रम में स्थान चाहते हैं।  
तारिक असलम 'तनवीर' - लिजलिजी और दोहरी मानसिकता से ग्रस्त समीक्षकों की परवाह करने के बजाय कलम की ताकत पर ध्यान देने का मश्वरा देते हैं।
पृथ्वीराज अरोड़ा – "प्रामाणिक अनुभूतियों पर आधारित किसी एक क्षण को सुगठित आकार के माध्यम से लिपिबद्ध किया गया प्रारूप लघुकथा है।" 
डॉ. माहेश्वर – "दरअसल कम–से–कम शब्दों में काफी पुरअसर ढंग से जिंदगी का एक तीखा सच कथा में ढाल दिया जाये तो वह लघुकथा कहलाएगी।"
दिनेशचन्द्र दुबे – "जिए हुए क्षण के किसी टुकड़े को उसी प्रकार शब्दों के टुकड़े–भर में प्राण दे–देना लघुकथा है।"
विक्रम सोनी - "जीवन का सही मूल्य स्थापित करने के लिए व्यक्ति और उसका परिवेश, युगबोध को लेकर कम-से–कम और स्पष्ट सारगर्भित शब्दों में असरदार ढंग से कहने की विधा का नाम लघुकथा है।"
रामलखन सिंह – "अनुभव प्रायः घनीभूत होकर ही आते हैं और बिना पिघलाएं (डाइल्यूट किये) कहना लघुकथा है।"
मो. मोइनुद्दीन 'अतहर' - भाषा, कथ्य, शिल्प तथा संवेदना से परिपूर्ण २५०  से ५०० शब्दों का समुच्चय लघुकथा है। 
कृष्णानंद कृष्ण - लघुकथा लेखन के लिए 'वैचारिक प्रतिबद्धता' अनिवार्य है। 
बलराम अग्रवाल - लघुकथा को लेखन की पुरातन दृष्टांत, किस्सा या गल्प शैली में अवस्थित रहना है या कथा लेखन की वर्तमान शैली को अपना लेना है, तय हो जाना चाहिए। 
डॉ. गोपाल राय 'हिंदी कहानी का इतिहास' में कथा साहित्य नौ पदों में उपन्यास, लघु उपन्यास, लंबी कहानी, कहानी के साथ लघुकथा को भी रखते हैं।
स्व, डॉ. मिथलेश कुमारी मिश्र के अनुसार कथानक, वातावरण, कथोपकथन, चरित्र चित्रण, भाषा शैली और उपसंहार के अतिरिक्त लघुकथा का सातवाँ तत्व शीर्षक है। 
चित्रा मुद्गल - किसी व्यक्ति के मन का अंतर्द्व्न्द है लघुकथा। 
कमलेश भारतीय - यह अनुभूति के उन क्षणों की पकड़ है जिन्हें जान-बूझकर विस्तार नहीं दिया सकता। 
डॉ. चंद्रेश्वर कर्ण - यह संक्षेपण, समाहरण और संश्लेषण की विधा है। 
बलराम - कोई कथ्य जिसे संक्षेप में कहा जा सकता है वही लघुकथा का कथ्य होगा।
डॉ. कमल चोपड़ा - सधी हुई ठोस वैचारिकता, सरल  भाषिक सजगता, स्टिक शब्द चयन आदि मिलकर लघुकथा में ऐसा सशक्त गद्य निर्मित होता है जिसे लघुकथा कहा जाता है।
डॉ. हरिमोहन - लघुकथा विसंगतियों से जन्मी तीखे तेवरवाली व्यंग्यपरक विधा है।  
वेद हिमांशु ,–"एक क्षण की आणविक मनःस्थिति को शाब्दिक सांकेतिकता द्वारा जो अभिव्यक्ति दी जाती है तथा जिंदगी के व्यापक कैनवास को रेखांकित करती है–लघुकथा है।"
डॉ. सतीशराज पुष्करणा – "समाज में व्याप्त विसंगतियों में किसी विसंगति को लेकर सांकेतिक भाषा-शैली में चलने वाला सारगर्भित प्रभावशाली एवं सशक्त कथ्य जब झकझोर/छटपटा देनेवाली लघु आकारीय कथात्मक रचना का आकार धारण कर लेता है, तो लघुकथा कहलाता है।"
योगराज प्रभाकर - किसी बहुत बड़े घटनाक्रम में से किसी विशेष क्षण को चुनकर उसे हाईलाइट करने का नाम ही लघुकथा है। 
कांता रॉय के अनुसार "लघुकथा भूमिका विहीन विधा है जिसमें एक विशिष्ट कालखंड में चिन्हित विसंगतिपूर्ण कथ्य का निर्वाह यथार्थ के धरातल पर किया जाता है। हिन्दी गद्य साहित्य की यह सबसे तीक्ष्ण कलम है, जिसमें कम से कम शब्दों में एक गहरी बात कहना होता है जिसको पढ़ते ही झटके से पाठक मन चिंतन के लिए उद्वेलित हो जाये।
गौतम सान्याल के मत में लघुकथा अस्थिर समाज में उपजा शिवम् का आदर्श और संक्षिप्त आख्यान है जो सदैव नीति का निर्देश देता है। लघुकथाएँ उदारतम कथात्मक शब्दों की कृपणतम प्रस्तुति है। डॉ. पुष्पा बंसल के अनुसार घटना की प्रस्तुति मात्र लघुकथा है, अशोल लव के विचार में संक्षिप्तता में व्यापकता लघुकथा वैशिष्ट्य है।   
मेरे मत में लघुकथा एक घटना पर केंद्रित, कम से कम शब्दों में रची गई, सघन अनुभूतिपरक, मर्मस्पर्शी विचारोत्तेजक, कथात्मक गद्य रचना है। 
लघुकथा का आकार: 
योगराज प्रभाकर - लघुकथा का आकार वास्तव में उसके प्रकार पर निर्भर करता है। कथानक के हिसाब से एक लघुकथा अपना आकार स्वयं ही निर्धारित कर लिया करती है। स्मरण रखने योग्य बात केवल यह है कि लघुकथा इस प्रकार लिखी जाए कि उसमे एक भी अतिरिक्त शब्द जोड़ने अथवा घटाने की गुंजाइश बाकी न बचे। वैसे आम हिसाब से एक लघुकथा अधिकतम ३०० शब्दों से अधिक नहीं जानी चाहिए। 
अशोक भाटिया - लघुकथा आमतौर से पाँच-छह पंक्तियों से लेकर दो-ढाई पृष्ठों तक या पचास-साठ शब्दों से लेकर तीन-चार सौ शब्दों तक की होती है।
भगीरथ परिहार - कहानी की कम से कम शब्द सीमा १००० शब्द की है। अत: लघुकथा की अधिकतम सीमा  इससे बढ़कर तो नहीं हो सकती ...... लघुकथा की निम्नतम सीमा १५० शब्दों के आसपास होनी चाहिए। 
अंजू दुआ जैमिनी एक-डेढ़ पृष्ठ, अर्चना मिश्रा हजार शब्दों तक लघुकथा का आकार रखने के पक्ष में हैं। 
डॉ. आशा सिंह सिकरवार, विवेकरंजन, मृणाल आशुतोष, डॉ. रेखा सक्सेना, अशोक दर्द, डॉ.अंजुलता सिंह, डॉ. भारती वर्मा, सतीश राठी, डॉ. इंदिरा तिवारी, ओमप्रकाश क्षत्रिय, आशा शैली, डॉ. विभा रंजन 'कनक', वंदना पुणतांबेकर, डॉ. शील कौशिक आदि शब्द सीमा निर्धारण को अनावश्यक मानते हैं। मेरी राय में किसी रचना के कथ्य को स्वाभाविक रूप से विकसित होने देना चाहिए।रचनाकार माध्यम की तरह हो, अनावश्यक सायास संकुचन या विस्तार न करे। अनावश्यक संकुचन से बनी बोनसाई और विस्तार से बना विशाल वृक्ष लघुकथा की क्यारी हेतु उपयुक्त न होंगे। 
लघुकथा के अंग तथा तत्व - 
कथानक चयन, उद्देश्य, भाषा, शिल्प, शैली, शीर्षक तथा अंत को योगराज प्रभाकर रचना प्रक्रिया का अंग मानते हैं। कांता राय कथानक, शिल्प, पंच, कथ्य, भूमिकाहीनता, अंत, विसंगति, कालखंड दोष से मुक्ति, बोध-नीति-प्रेरणा-शिक्षा न होना, शाब्दिक मितव्ययिता, न्यूनतम पात्र व भाव, संदेश, परिहासहीनता, शैली तथा सामाजिक महत्व को लघुकथा के मानक तत्व बताती हैं। ऐसा प्रतीत होता है अंग तथा तत्व हैं जबकि तत्वों से लघुकथा बनती है, अंग लघुकथा के हिस्से हैं। जैसे पंचतत्वों (अग्नि, पवन, भू, नभ, सलिल) जगत है जबकि जगत के अंग जड़-चेतन, साकार-निराकार, ठोस-तरल-वायु आदि हैं। कुँवर प्रेमिल कथानक, प्रगटीकरण व समापन को, गुरुनाम सिंह रीहल कलेवर और कथनीयता क़ो, मोहम्मद मोइनुद्दीन अतहर भाषा, कथ्य,  शिल्प व संदर्भगत संवेदना को,डॉ. शमीम शर्मा सांकेतिकता तथा ध्वन्यात्मकता को लघुकथा का तत्व बताते हैं। बलराम अग्रवाल  के अनुसार कथानक और शैली लघुकथा के अवयव है, तत्व नहीं। वे वस्तु को आत्मा, कथानक को ह्रदय, शिल्प को शरीर और शैली को आचरण कहते हैं।   
वस्तुत: लघुकथा के तत्व घटना, संक्षिप्त अभिव्यक्ति और मर्मस्पर्शी तीक्ष्ण प्रभाव हैं। इनमें से कोई एक भी न हो तो प्रभावी लघुकथा नहीं हो सकती। घटना न हो तो लघुकथा ही न होगी, घटना हो किन्तु उस पर कुछ अभिव्यक्त न किया जाए तो भी लघुकथा न होगी, घटना हो उस पर कहा (लिखा) भी जाए किंतु प्रभाव न हो तो लघुकथा होकर भी न होने की तरह होगी। इन तत्वों जन्मी और विकसित लघुकथा के अवयव (अंग) शीर्षक, कथानक, भाषा शैली, उद्देश्य-संदेश तथा अंत हैं। यथार्थ बोध, मर्मोत्कर्ष, लेखकीय प्रवेश, कालातिक्रमण, बोध, उपदेश, प्रेरणा, दृष्टांत,  बिंब, मिथक, प्रतीक, देशज शब्द, मुहावरे, लोकोक्ति, चुटीले वाक्य आदि लेखन शैली के उपांग हैं, जो एक ही लघुकथाकार की लघुकथाओं में कभी मिल भी सकते हैं, कभी नहीं भी मिल सकते हैं।       
आचार्य रामचंद्र शुक्ल किसी रचना को सामाजिक यथार्थ और साहित्यिक दोनों कसौटियों पर खरा होना आवश्यक मानते हैं। साहित्य वह जिसमें सबका हित समाहित हो। बर्तोल्त ब्रेख्त के अनुसार रचनात्मक बाह्य सौंदर्य के लिए वस्तु (कथा) की बलि नहीं चढ़ाई जा सकती। प्रख्यात साहित्यकार - पत्रकार रघुवीर सहाय के मत में 'जहाँ कला बहुत होगी, वहाँ परिवर्तन नहीं होगा।
मुझे ऐसा लगता है कि साहित्य की अन्य विधाओं की तरह लघुकथा भी जीवन मूल्यों का दर्पण है। आदर्श और यथार्थ के बीच का अंतर ही विषमता है। सृजन का उद्देश्य आदर्श की प्राप्ति ही होता है। इसके दो रास्ते हैं आदर्श का महिमामंडन या अनादर्श की अप्रतिष्ठा। कोई भी सृजन विधा किसी एक लकीर की फ़कीर होकर बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सकती। लघुकथा भी इसका अपवाद नहीं है। लघुकथा में संदेश अमिधा में हो, बोध कराए तो उसे बोधपरक लघुकथा, शिक्षा की तरह सिखाया जाए तो उपदेशपरक लघुकथा, उदाहरण द्वारा समझाया जाए तो दृष्टांतयुक्त लघुकथा, पर्व विशेष पर कही जाए तो पर्व संबंधी लघुकथा, लोक द्वारा कही-सुनी जाती हो तो लोक लघुकथा, बच्चों की ज्ञान वृद्धि हेतु हो तो बाल लघुकथा, स्त्री शोषण के विरोध में हो तो स्त्री विमर्शपरक लघुकथा, श्रमिक समस्या पर केंद्रित हो तो श्रमिक विमर्शपरक लघुकथा आदि में वर्गीकृत किया जा सकता है। 
अन्य साहित्यिक विधाओं की तरह लघुकथा के प्रकार अगिन हैं। वस्तुत: हर लघुकथा अपने आपमें अनूठी होती है 'एकोsहं द्वितीयोनाsस्ति'। साहित्य का सृजन किसी अभियांत्रिकी संरचना की तरह नाप-तौलकर नहीं किया जा सकता। किसी कारखाने में होनेवाले उत्पादन की तरह लघुकथा को किसी साँचे में ढालकर नहीं लिखा जा सकता। दो लघुकथाकार समान अनुभूति को सर्वतः भिन्न तरीके से अभिव्यक्त कर दो भिन्न लघुकथाएँ रचते हैं। तभी पठनीयता और ग्रहणीयता बनी रह सकती है, ऐसा न हो तो एक जैसी प्रस्तुति को कौन पढ़ेगा? हर रचनाकार की रचना प्रक्रिया भिन्न होती है। 
रचना प्रक्रिया -
कई रचनाकार कलम विशेष से या समय विशेष पर, या किसी पर्यटन स्थल पर जाकर सृजन करते हैं हुए कहते हैं की वे इसके बिना लिख ही नहीं सकते, दूसरी और कई रचनाकार दैनिक जीवन की सामान्य परिस्थितियों में भी सृजन कर लेते हैं। मेरी अनेक रचनाएँ (लघुकथा, गीत, दोहे, ग़ज़ल, शे'र आदि) निर्माण स्थलियों पर कार्य सम्पादित कराते समय अथवा एक कार्यस्थली से दूसरी कार्यस्थली जाते समय मार्ग में लिखी गयी हैं। किसी रचनाकार की रचनाप्रक्रिया निर्धारित करने का अधिकार किसी अन्य को कैसे हो सकता है? इसी तरह संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कोई मठाधीश, समीक्षक या वरिष्ठ रचनाकार कैसे बाधित कर सकता है? यह हर रचनाकार का मौलिक अधिकार है की वह अपनी अनुभूति को अपने तरीके से अभिव्यक्त करे। पाठक या समीक्षक उसे पसंद या नापसंद कर सकता है, प्रशंसा या आलोचना कर सकता है किंतु उसे अमान्य करने का अधिकार उसे नहीं है। रचनाकर्म को खेत में उगती फसल या कारखाने  की तरह नहीं परखा जा सकता।
आंचलिक लघुकथा परंपरा -
गोंडवाना लैण्ड, जंबूद्वीप, आर्यावर्त, भारत, हिन्दुस्थान तथा इंडिया विश्व की सर्वाधिक प्राचीन और उन्नत संस्कृति का केंद्र रहा है। आदि मानव ने शिलाओं पर चित्रकथा अंकित कर यह प्रमाण छोड़े हैं कि मौखिक कथा - लघुकथा की परंपरा आदिकालिक है भले ही उसकी एक शाखा का लघुकथा नामकरण पश्चात्वर्ती है। देश की हर बोली में लोक कथाओं का समृद्ध भण्डार है। बुंदेली, बघेली, छत्तीसगढ़ी, गोंड़ी, निमाड़ी, मालवी, राजस्थानी, बृज, अवधी, भोजपुरी, पंजाबी आदि की लोककथाओं से परिचय के आधार  पर कह सकता हूँ कि इनमें आधुनिक लघुकथा का मूल आरंभ से ही है, भले ही शैल्पिक परिधान कालांतर में पहनाया गया है। लघुकथा के वर्तमान मठाधीश इनसे परिचित ही नहीं हैं तथापि वे बोलिओं में लघुकथा न होने और स्वनिर्मित मानक थोपते हुए तदनुसार पूर्व निर्धारित विषयों पर, स्वनिर्धारित मानकों के आधार पर अपने अनुयायियों से अगणित लघुकथाएँ उत्पादित कराकर कालजयी होने का भ्रम पाल रहे हैं। यह बाढ़ बरसाती पानी की तरह लघुकथा सरिता को आप्लावित भले ही कर ले, सनातन नहीं हो सकती। दूसरी और आंचलिक बोलिओं में किया जा रहा सृजन व्यापक भले ही न हो उसकी जड़ें लोकमानस में गहरी जमी हैं, विश्वविद्यालयी किताबी पंडित भले ही उन्हें महत्व न दें, वे ही सनातन परंपरा की कड़ी के रूप में चिरजीवी होंगी। 
बघेली और लघुकथा -     
बघेली या बाघेली, हिन्दी की एक बोली है जो भारत के बघेलखण्ड क्षेत्र में बोली जाती है। प्राचीन मध्यदेश की आठ मुख्य बोलिओं के समुदाय को भाषा शास्त्र की दृष्टि से पश्चिमी तथा पूर्वी उपभाषा के नाम से पुकारा जाता है। इनमें से खड़ी बोली, बांगरू, बृज, कन्नौजी तथा बुंदेली को भाषा सर्वे में 'पश्चिमी' तथा अवधी, बघेली तथा छत्तीसगढ़ी को 'पूर्वी' नाम से पुकारा गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से पश्चिमी का संबंध शौरसेनी प्राकृत से तथा पूर्वी का संबंध अर्ध मागधी प्राकृत से मान्य है। बघेली मध्यप्रदेश के रीवासतनासीधीउमरियाशहडोल तथा अनूपपुर में; उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद एवं मिर्जापुर जिलों में तथा  छत्तीसगढ़ के बिलासपुर एवं कोरिया
जनपदों में बोली जाती है। इसे "बघेलखण्डी", "रिमही" और "रिवई" भी कहा जाता है। 
बघेली में आधुनिक लघुकथा लेखन का आरंभ लगभग १९९० से हुआ। १९९२-९३ में डॉ. नीलमणि दुबे, शहडोल  की लघुकथाएँ मंगलदीप मुम्बई में प्रकाशित हुईं।  नव लघुकथाकारों में छाया सक्सेना जबलपुर, गीता शुक्ल शहडोल, शिल्पी सिंह शहडोल, सुषमा करचुरी सिहोरा, वीना सिंह दिल्ली आदि उल्लेखनीय हैं। डॉ. रामगरीब पाण्डे 'विकल' लिखित इस कृति 'मरना भला बिदेस का' को बघेली का प्रथम लघुकथा संकलन होने का श्रेय प्राप्त है। विकल जी अपने आपमें एक संस्था हैं। हाँ आंचलिक बोलिओं में लघुकथा लेखन की दिशा में नई कलमों को सतत प्रोत्साहित कर रहे हैं। लघुकथा विषयक उक्त पृष्ठभूमि में प्रथम बघेली लघुकथा संकलन पर करना सुखद अनुभव है। इस संकलन में ५१ लघुकथाएँ सम्मिलित हैं। विकल जी के समक्ष बघेली लघुकथा संकलनों की कोई पूर्व परंपरा नहीं है। उनका यह संकलन पश्चात्वर्ती लाघकथाकारों का पथ प्रदर्शन करेगा। यह स्थिति सुविधाजनक और चुनौतीपूर्ण दोनों है। बघेली लोक साहित्य की परम्परा और भाषिक वैशिष्ट्य का विकल जी की लघुकथाओं पर प्रभाव होना अवश्यम्भावी और स्वाभाविक है। यदि वे तथाकथित लघुकथा मठाधीशों द्वारा व्यक्त विचारों का अन्धानुकरण कर लिखते तो अपने परिवेश और परंपरा से दूर हो जाते। विकल जी ने समर्थ होते हुए भी, उक्त सभी विचारों से पूरी तरह अवगत और असहमत होकर,  स्वयं बनाने का संकल्प किया।फलत: यह कृति आपके हाथ।स्वाभाविक है कि स्वयं को आधुनिक हिंदी लघुकथा का मसीहा समझनेवाले नाक-भौं सिकोड़ें और नकारने का प्रयास करें किन्तु बघेली लोक इन लघुकथाओं में खुद को, अपने परिवेश को, अपनी परंपरा को, अपनी समस्याओं को, उनके समाधान को देख-समझकर आत्मसात करेगा।
संकलन की प्रथम लघुकथा 'पिरात त ओहू क होई' नायिका बबली की नींद कुत्ते के भौंकने से टूटने पर वह लाठी से मारती है, कुत्ते को लगने के बाद लाठी उछलकर बबली के माथे पर लगती है। वह दर्द से रोने लगती है, उसकी नंद कहती है कि पीड़ा तो उस (कुत्ते) को भी होती होगी। पशु संवेदनापरक इस लघुकथा में  जीवों के प्रति करुणा का संदेश अन्तर्निहित है। 'बदलाव' लघुकथा में नई पीढ़ी की बहू ग्रामीण वेशभूषाधारी दादा के साथ खेलने पर उन्हें 'गंदा' कहते हुए बच्चों को दंडित करती है। इससे मर्माहत दादा आँसू पोंछते हुए गाँव लौट जाते हैं। लघुकथा नई पीढ़ी में सरलता की अनदेखी कर. दिखावे के प्रति आकर्षण की विसंगति को उद्घाटित करती है। 'अम्मा' लघुकथा ममता की महत्ता पर केंद्रित है। पिता की मृत्यु होने पर उनके अंतिम क्रिया-कर्म के स्थान पर धन-संपत्ति में हिस्सेदारी की चिंता कर रहे (कु)पुत्रों पर केंद्रित लघुकथा 'ओसरी पारी' पढ़कर चलचित्र 'बागबान' की स्मृति ताजा होती है। लघुकथा 'को करे' में सेवानिवृत्ति पश्चात् गाँव में रह रहे अधिकारी को दुर्घटना में चोटिल होने के बाद भी बाजार से सामान लाते देख एक ग्रामीण द्वारा अपनी मोटरसाइकिल से घर पहुँचाने और भारी काम न करने की सलाह देने पर 'को करे?' कहना ऐसे वृद्ध जनों की विवशता को उद्घाटित करता है। 'मटिमगरा' लघुकथा सामाजिकता का महत्व व रक्तसंबंधों में अपनत्व का अभाव इंगित करती है। मेले में गुमा बच्चा बड़ा होकर मिलने पर, विक्षिप्त हो चुकी माँ द्वारा न पहचाने जाने की त्रासदी वर्णित है 'मेला बाली पगलिया' में। बेटे-बहू के ओछेपन से आहत पिता द्वारा बड़प्पन के व्यवहार कर उन्हें आइना दिखाने पर आधृत है 'मामला'। 'धब्बा' लघुकथा में दाऊ की जिद कारण दो प्रेमी विवाह नहीं कर पाते और प्रेमिका अन्यत्र विवाह संबंध के पूर्व आत्महत्या कर लेती है और प्रेमी के मन पर कभी न मिटनेवाला धब्बा लग जाता है। 'सोहारी' पोती के विवाह का भोज की राह देखते रुग्ण पिता का समय पर इलाज न मिल पाने से हुई मृत्यु की करुण कथा है।
 'मरना भला बिदेस का' पत्नी के निधन पश्चात् पुत्र-पुत्री के पालन-शिक्षण-विवाह पश्चात् बेटे-बहू द्वारा आघात के साधु हुए पिता की व्यथा का जीवंत दस्तावेज है। इस और कुछ अन्य लघुकथाओं के माध्यम से विकल जी यह प्रदर्शित करते हैं कि वे एक क्षणिक घटना को लघुकथा का आधार मानने की धारणा से सहमत नहीं हैं। 'जब दाँत तब चना नहीं, जब चना तब दाँत नहीं' की लोकोक्ति पर आधारित है लघुकथा 'भूँखि'। 'फेसबुक बियर' लीक से हटकर लिखी गयी लघुकथा है जिसमें आभासी दुनिया के मित्रों का नाकारापन संकेतित है। 'घर लक्चा बन लक्चा' लघुकथा आवश्यकता होने पर ससुराल में काम करने में न हिचकनेवाले  दामाद क्र माध्यम से संदेश देती है। 'सबसे निकही मूरति' का आत्मश्लाघा ग्रस्त मूर्तिकार द्वारा अपने कार्य के दोष न मानकर बतानेवालों को नासमझ कहता है। कोरोना महामारी से त्रस्त आम जन की पीड़ा, तंत्र की संवेदनहीनता और ग्रामीण के आत्म  विश्वास को बयां करती है लघुकथा 'धूधरि के बल'। 'घड़ी' लघुकथा में जैसी घड़ी पहनते दो मित्रों पर आधारित है।एक मित्र प्रवास से घर लौटकर स्नान करते समय घड़ी देखकर चौंकता है। उसकी अपनी घडी सूटकेस में है। सूटकेस उठाकर जाते समय उसकी पत्नी पुकारकर घड़ी देती है तो वह कहता है कि यह मेरी नहीं रंजन की है, जब आए तो दे देना। यह लघुकथा मित्र की घडी स्नानागार में मिलने के कारण का अनुमान पाठकों पर छोड़ती है।वरिष्ठ साहित्यकार को गुरु मानकर उससे रचनाकर्म सीखने के बात फेसबुक पर मिली प्रशंसा से बहके शिष्य को सामने लाटी है 'सयान चेला'।  'परिखाव' शीर्षक लघुकथा कोरोना महामारी के मारे बेरोजगार हुए घर लौटते श्रमिकों के रेलगाड़ी से कट जाने की दुर्घटना और परिवारजनों की व्यथा-कथा है। 'नउठत' नाकारा लड़कों और पारिवारिक कलह की लघुकथा है।
 माँ की मृत्यु होने पर उसका दाह संस्कार खेत में  करने से रोकनेवाले कृतघ्न पुत्र पर व्यंग्य के साथ पूर्ण होती है 'करियासन'। 'दुकनदारी' चिकित्सकों द्वारा निरीह रोगियों के शोषण आधारित है जबकि इसके सर्वथा विपरीत 'असीस' लघुकथा में सहृदय चिकित्सक विपणन रोगी को न केवल निशुल्क औषधि देता है अपितु पथ्य हेतु कुछ राशि भी देता है। संवेदना और सामाजिक सहकार का आदर्श प्रस्तुत करती यह लघुकथा अँधेरे में दीप की तरह है। 'नेउता' लघुकथा सामाजिकता का निर्वाह करते नायक की समझदारी के माध्यम से टूटन को रोकने का संदेश देती है। भुखमरी से मरे विपन्न के घर में अनाज के बोरे रखने और झूठी पोस्टमार्टम रिपोर्ट लिखवाकर सच को झुठलाने के प्रशासनिक तंत्र के पाखंड पर प्रहार करती है 'जउन कहब उहै लिखब'। व्यंजनापरक 'हम कस के जानब' के मूल में आशा कार्यकर्ता पर अधिकारी द्वारा अकारण दोषारोपण  किया जाना है। 'ब्रॉन्डेड' लघुकथा में  अधिक कीमत को उत्तम गुणवत्ता का पर्याय मान रहे युवा पर व्यंग्य है। सेवानिवृत्त पिता को मिली राशि के मोह में पुश्तैनी घर बेचकर अपने साथ ले जाने का विमर्श देनेवाले पुत्रों-पुत्रवधुओं के कदाचरण को उद्घाटित करती है 'सालगत्ती' शीर्षक लघुकथा। 'दूरी' लघुकथा के केंद्र में पिता की सलाह न मानकर अध्ययन हेतु शहर गए और अपराध से जुड़ गया युवक है। अत्यधिक लाड़-प्यार में पले, पढ़ाई के नाम पर मौज-मस्ती कर बमुश्किल कैजुअल लेबर बने युवक द्वारा खुद को वकील बताकर विवाह करने और सुशिक्षित सुस्थापित युवती द्वारा ठुकराए जाने का कथ्य 'न घर के न घाट के' में है।
पुरस्कार प्राप्त युवा कवयित्री द्वारा मंत्री के स्थान पर अपने साहित्यिक गुरु हाथों पुरस्कार ग्रहण कर 'गुरुदक्षिना' लघुकथा की नायिका ने गुरु की महत्ता का संदेश दिया है। उर्दू शायर ताज़िंदगी अपने उस्ताद का नाम फख्र के साथ लेते हुए खुद को उनका शागिर्द बताते हैं किन्तु हिंदी का साहित्यकार जिससे सीखता है, उसे भुला देता है। इस दूषित मनोवृत्ति पर प्रहार करती है यह लघुकथा। बच्चों के लिए माकन में बदलाव कर कमरे बनाते-बनाते घर से बाहर होने को विवश और बच्चों के मोह में पड़ी माँ की उपेक्षा सहते पिता की पीड़ा समेटे है लघुकथा 'बाउंड्री के बहिरे'। सेवानिवृत्त पिता की जमा-पूँजी लगवाकर व्यवसाय करनेवाले बेटे-बहू द्वारा उन्हें समय पर नाश्ता-भोजन आदि भी न मिलने और कामवाली द्वारा याद दिलाने पर लापरवाही से बहू का कहना 'उनहीं कहाँ जाय क है', लघुकथा 'कहाँ जाय क है' का कथ्य है। चुनाव में नेताओं द्वारा आम आदमी के शोषण और छलावे को समाने लाती है लघुकथा 'बोनस'। चार रचनाएँ लिख-लिखाकर मंचों पर पढ़ने और किसी साहित्यिक आयोजन में नामवर सिंह से हाथ मिलाकर खुद को बड़ा समझनेवाले तथाकथित साहित्यकार के बहाने नकली साहित्यकारों पर व्यंगाघात करती है 'ईं हाथ'। प्राध्यापक देवर और शिक्षिका देवरानी के प्रति द्वेषभाव रखती अशिक्षित जेठानी को केंद्र में रखकर लिखी गई है 'एतने झरियारे क टटिया'। 'जेउनारि' लघुकथा में कर्ज लेनेवाले, जमीन बेचकर झूठी शान दिखाते महीपत सिंघ पर व्यंग्य है। 'फरहार' लघुकथा में रोगी होने पर भी उपवास करती और फलाहार का प्रसाद बाँटकर खुद भूखी रह जाती बहू चित्रित है। निशुल्क मिलनेवाली वस्तु की महत्ता न रहने को लेकर लिखी गयी है लघुकथा 'जनेव'। बच्चों को लेकर आपस में द्व्न्द करती नासमझ माताओं पर कटाक्ष है 'कौआ कान लइग' में।
'तीजा' लघुकथा में नायिका को व्रत करता देख पति खिचड़ी बन-खाकर कार्यालय चला जाता है, लौटने पर पत्नी को गप-शप में लगा देख चाय बन-पीकर खोवा लेने बाजार जाता है, लौटकर दरवाजे तक आता है कि पत्नी का स्वर सुनाई देता है - 'इया मंसेरुआ क हमरे काम के परबाह नहीं आय, इया मरिउ नहीं जाय'। वह हँसते हुए कहता है 'जब हमरे मरइन के मनाबै क है त इया तीजा का ढोंग काहे करतेs है?' बोना सोचे-विचारे बोलने की कुप्रवृत्ति पर व्यंग्य और परिहास है इस लघुकथा में। आधा-अधूरा सीखकर सिखानेवाले को धता बताकर आगे बढ़ने और औंधेमुँह गिर पड़ने का कथानक बना गया है 'अब का देखी' में। 'गिनती' शीर्षक लघुकथा में ग़ज़ल का व्याकरण जाने बिना लिखनेवाले ग़ज़लकारों पर व्यंग्य है। येन-केन-प्रकारेण शोध करने किन्तु शोध का विषय न जाननेवालों पर शब्दाघात है ''मैडम का पता होई' में। पीढ़ियों तक मुकदमा चलने और फैसला न होने के न्यायालयीन तंत्र पर कटाक्ष है 'कहाँ धरब' लघुकथा में। 'इया तरकारी आय' के केंद्र में निराधार शंकाग्रस्त बड़े भाई का छोटापन है। बच्चे की गलतियों की अनदेखी करने पर उसके अपराध जगत से जुड़कर बर्बाद होने का कथ्य समेटे है 'गढ़ाइन त बसंतराम'। 'बाणींबीर' लघुकथा भूमिका लिखने के बहाने सालभर पांडुलिपि रोककर भूमिका न लिखनेवाले वाग्वीर साहित्यकार का खोखलापन उजागर करती है। 'पोस्टमार्टम' लघुकथा सही इलाज न कर, बेमतलब की जाँच करानेवाले डॉक्टरों के मुँह पर तमाचा है। सामान्यत: मौन रहनेवाली किन्तु पति को संकट में देखकर स्वनिर्णय कर पति के प्राण बचानेवाली पत्नी को केंद्र में रखकर लिखी गयी है लघुकथा 'जबरा'। संकलन की अंतिम लघुकथा 'पुनि के अउब' निस्वार्थ परोपकार करनेवाले युवा को लेकर लिखी गयी है। यह लघुकथा का संदेशपरक है।
 सामाजिक परिवर्तन और सन्देशवाही लघुकथाएँ 
विकल जी ने  लघुकथाओं के केंद्र में आम आदमी की दैनंदिन ज़िंदगी को रखते हुए समाज में हो रहे परिवर्तनों की नब्ज़ पकड़ी है। वे मुट्ठीभर धनकुबेरों, नेताओं या अफसरों की भोग-विलासप्रधान जीवन शैली को हाशिये पर रखते हुए यत्र-तत्र उनकी स्वकेन्द्रित जीवन शैली पर शब्द-प्रहार करते हैं किन्तु उन्हें केंद्र में रखकर लघुकथाएँ नहीं रचते। सामाजिक यथार्थ से आँखें मिलाते हुए विकल जी विसंगतियों और विडंबनाओं पर आघात करते हैं पर अधिकांश लघुकथाओं में प्रत्यक्ष या परोक्षत: स्वस्थ्य  दिशा परिवर्तन हेतु संदेश या संकेत अन्तर्निहित रहने देते हैं। यह विकल जी की लघुकथाओं का वैशिष्ट्य है। गत ६ दशकों से इसे बिंदु पर तथाकथित मठाधीशों से मेरा मतभेद रहा है। उनकी जमात लघुकथाओं में किसी प्रकार का संदेश, शिक्षा, समाधान या बोध होने को उसकी कमजोरी ही नहीं मानते ऐसी लघुकथाओं को ख़ारिज भी करते रहे हैं। विकल जी की लघुकथाओं ने नव लघुकथाकारों विशेषकर बघेली नवलघुकथाकारों के लिए स्वस्थ्य परंपरा स्थपित करने की पहल की है। इस हेतु वे साधुवाद के पात्र हैं।           
  
बलराम अग्रवाल अब कहते हैं "लघुकथा से जुड़नेवाले नए लेखक कुछ विशेष अनुशासनों और तत्संबंधी कथा-धैर्य से परिचित हों और सावधानियाँ बरतें। .... यह स्पष्ट कर देना आवश्यक समझता हूँ कि विश्व भर में समकालीन साहित्य लेखन शास्त्रीय अनुशासनों का अनुकरण मात्र न होकर जटिल संवेदनाओं की प्रस्तुति का सहज वाहक है। अत: किसी भी अनुशासन को पत्थर की लकीर मानकर उस पर आँख मूँदकर चलने की बजाय स्वविवेक से इनको अपनाने, न अपनाने की आवश्यकता है।" विकल जी स्वप्रेरणा से संवेदनाओं की सहज प्रस्तुति इन लघुकथाओं में कर सके हैं। 
हिंदवी, हिंदुस्तानी, हिंदी के वारिस 
इन लघुकथाओं को आंचलिक बघेली बोले में रचा गया है तथापि इनमें हिंदी संस्कृत, अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी आदि कई भाषाओँ के शब्दों का आवश्यकतानुसार यथास्थान प्रयोग करते हुए विकल जी ने खुद को खुसरो की हिन्दवी, गाँधी की हिंदुस्तानी और वर्तमान हिंदी का वारिस सिद्ध किया है। वे बघेली की शुद्धता पर व्यवहारिकता को वरीयता देते हैं। इन लघुकथाओं में व्यवहृत बघेली अबघेलीभाषी पाठकों के लिए भी सहज बोधगम्य है। कुछ ठेठ बघेली शब्द आना स्वाभाविक है। ऐसे शब्दों के अर्थ पाद टिपण्णी अथवा परिशिष्ट में देकर बघेली शदों की स्वीकार्यता का विस्तार किया जा सकता है। हिंदी में स्वीकार्य तत्सम-तद्भव परंपरा विकल जी की इन बघेली लघुकथाओं की भाषा में है। मैनर, मम्मी, मोबाइल, मोटरसाइकिल, डॉक्टर, एक्सीडेंट, रिटायर, फोटो आमलेट, अटैची जैसे लोक प्रचलित शब्द ज्यों के त्यों लिए गए हैं। कुछ आंग्ल शब्दों का बघेली रूपांतरण दिलचस्प है। यथा इस्टार्ट (स्टार्ट), चस्मा (चश्मा), इंजेक्सन (इंजेक्शन), बोतल (बॉटल), पलास्टर (प्लास्टर), अपसरी (ऑफिसरी), पंडिज्जी (पंडित जी), अपसरिन (अफसरिन बुंदेली), रस्ता (रास्ता), जादा (जियादह, जियादा, ज्यादा), जाघा (जगह), दबाई (दवा, दवाई) आदि। शब्द-रूपांतरण विविध भाषाओँ मध्य सेतु बनाकर उनकी लोक स्वीकार्यता और ग्राह्यता में वृद्धि करता है। आजकल भाषिक शुद्धि के नाम पर कतिपय शब्दों के बहिष्कार की जो संकुचित कुप्रवृत्ति फ़ैल रही है, विकल जी इन लघुकथाओं माध्यम से उस पर कुठाराघात कर सके हैं। उन्हें मीकाड्डम, खातिर, असर, हरकत जैसे अरबी-फ़ारसी शब्दों से तनिक भी परहेज नहीं है। इन शब्दों के  नुक्तेरहित भारतीय-हिंदी स्वरूप ही विकल जी को ग्राह्य हैं।
शब्द-युग्मों तथा शब्दवृत्ति का सटीक प्रयोग 
विकल जी की भाषा-शैली का वैशिष्ट्य शब्द युग्मों व शब्दवृत्तियों का स्वाभाविक प्रयोग है। शब्द युग्मों के द्वारा भाषिक प्रवाह और सरसता वृद्धि कर विकलजी गंभीर कथ्य को भी सरस बन पाते हैं। पानी-पिंगल, काम-धंधा, काज-गमन, सानी-बूसा, हाँथ-गोड़, रंज-गंज, अटैची-झोरा, जाँच-पड़ताल, गोली-दवाई, खाबे-पीवै, चारि-छै, नेउता-बराति, काज-गमन, लड़िकौ-बच्चा, दबाई-इलाज आदि आदि। इन युग्मों में विविषय दृष्टव्य है। कहीं प्रथम पद सार्थक है, दूसरा पद निरर्थक, कहीं प्रथम पद निरर्थक है दूसरा पद सार्थक, कहीं दोनों पद सार्थक हैं। प्राय: दूसरा पद पहले पद के पूरक की भूमिका निभाता है। करत-करत, खुच्च-खुच्च, जघा-जघा, एक-एक, बरत-बरत, परिखे-परिखे आदि शब्दवृत्तियों के प्रयोग किया पर जोर देते हैं, उसका महत्व दर्शाते हैं। ऐसे प्रयोगों से लेखक की शब्द सामर्थ्य और भाषिक नैपुण्यता झलकती है तथा रचना का अनावश्यक विस्तार नहीं होता। 
आँचलिक संस्कृति और परिवेश 
बघेलखण्ड की अपनी समृद्ध संस्कृति और प्राकृतिक वन्य संपदायुक्त परिवेश है। इन लघुकथाओं में यत्र-तत्र सामाजिक रीति-रिवाज, पर्व-त्यौहार आदि की झलकियाँ हैं। बघेलखण्ड से अपरिचित पाठक इन लघुकथाओं के माध्यम से बघेली परिवेश, समाज और संस्कृति को यत्किंचित जान सकते हैं। कथावस्तु को पूर्णता देने हेतु यथावश्यक दृश्य संयोजन, संवाद, बिम्ब व प्रतीक  कथावस्तु को पूर्णता देते हैं। विकल जी घटनांश नहीं पूर्ण घटना को शब्दित करना पसंद करते हैं ताकि पाठक को घटना से उत्पन्न भले-बुरे प्रभावों की अनुभूति हो सके।कथ्य की स्पष्टता हेतु एकाधिक घटना का कथ्य-प्रवेश भी विकल जी को सह्य है। घटना कल्पित हो या यथार्थ इससे पटक को कोई अंतर नहीं पड़ता यदि कथ्य उस के मन को छूता है। विकल जी का वैशिष्ट्य बोध-संदेश समेटती-पहुँचाती लघुकथाएँ लघुकथाएँ हैं। बघेली  प्रथम  होने के नाते विकल जी का दायित्व बहुत बढ़ जाता है। आगामी बघेली लघुकथाकार उनसे प्रेरणा ग्रहण करें यह स्वाभाविक है। नवोदित बघेली नव लघुकथाकारों तक लघुकथा के तत्वों और अबघेली पाठकों तक बघेली बोली, समाज, परिवेश और संस्कृति के पट खोलते इस लघुकथा संकलन के माध्यम से विकल जी व्यापक फलक तक अपनी बात पहुंचा सकेंगे और पाठक उनके अगले लघुकथा संग्रह की प्रतीक्षा करेंगे। 
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सन्दर्भ : 
अंतरजाल पटल / चिट्ठे - दिव्य नर्मदा, रचना प्रसंग, ओ बी ओ, विकीपीडिया, राजस्थान साहित्य अकादमी, बिजेन्दर जेमिनी, लघुकथा वृत्त,
पत्रिकाएँ :
सारिका लघुकथा विशेषांक १९८४। 
अविरल मंथन लखनऊ, लघुकथा विशेषांक २००१,  संपादक राजेंद्र वर्मा।
लघुकथा अभिव्यक्ति त्रैमासिकी जबलपुर, संपादक मो. मोइनुद्दीन 'अतहर', २२००५ से २००१५ के विविध अंक। 
प्रतिनिधि लघुकथाएँ  वार्षिकी जबलपुर, संपादक कुँवर प्रेमिल, २००९ से २०१५ विविध अंक। 
लघुकथा कलश अंक १ - २ पटियाला, मुख्य संपादक योगराज प्रभाकर । 
पुस्तकें :
ग्रामीण हिंदी , डॉ. धीरेन्द्र वर्मा  
तलाश, गुरुनाम सिंह रिहल 
पोस्टकार्ड, जीवितरण सतपाल 
चलें नीड की ओर, संपादक कांता रॉय 
समय की दस्तक, संपादक कांता रॉय 
लघुकथा संवाद, कल्पना भट्ट 
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संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com 
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ब्रजभाषा

 ब्रजभाषा : एक परिचय 
ब्रजभाषा एक धार्मिक भाषा है, जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड में बोली जाती है। इसके अलावा यह भाषा हरियाणा, राजस्थान और मध्यप्रदेश के कुछ जनपदों में भी बोली जाती है। अन्य भारतीय भाषाओं की तरह ये भी संस्कृत से जन्मी है। इस भाषा में प्रचुर मात्रा में साहित्य उपलब्ध है। भारतीय भक्ति काल में यह भाषा प्रमुख रही। ब्रजभाषा में ही प्रारम्भ में काव्य की रचना हुई। सभी भक्त कवियों ने अपनी रचनाएं इसी भाषा में लिखी हैं जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, रहीम, रसखान, केशव, घनानंद, बिहारी, इत्यादि। अपने विशुद्ध रूप में ब्रजभाषा आज भी भरतपुर, आगरा, धौलपुर, हिण्डौन सिटी, मथुरा, अलीगढ़, हाथरस, मैनपुरी, एटा, और मुरैना जिलों में बोली जाती है। इसे हम "केंद्रीय ब्रजभाषा" के नाम से भी पुकार सकते हैं। केंद्रीय ब्रजभाषा क्षेत्र के उत्तर पश्चिम की ओर बुलंदशहर जिले की उत्तरी पट्टी से इसमें खड़ी बोली की लटक आने लगती है। उत्तरी-पूर्वी जिलों अर्थात् बदायूँ और एटा जिलों में इसपर कन्नौजी का प्रभाव प्रारंभ हो जाता है। डॉ॰ धीरेंद्र वर्मा, "कन्नौजी" को ब्रजभाषा का ही एक रूप मानते हैं। दक्षिण की ओर ग्वालियर में पहुँचकर इसमें बुंदेली की झलक आने लगती है। पश्चिम की ओर गुड़गाँव तथा भरतपुर का क्षेत्र राजस्थानी से प्रभावित है।

ब्रज भाषा आज के समय में प्राथमिक तौर पर एक ग्रामीण भाषा है, जो कि मथुरा-भरतपुर केन्द्रित ब्रज क्षेत्र में बोली जाती है। यह मध्य दोआब के इन जिलों की प्रधान भाषा है: भरतपुर, मथुरा, आगरा, फ़िरोज़ाबाद, मैनपुरी, एटा, हाथरस, बुलंदशहर, गौतम बुद्ध नगर, अलीगढ़, पलवल, कासगंज। गंगा के पार इसका प्रचार बदायूँ, बरेली होते हुए नैनीताल की तराई, उत्तराखंड के ऊधम सिंह नगर जिले तक चला गया है। उत्तर प्रदेश के अलावा इस भाषा का प्रचार राजस्थान के भरतपुर, धौलपु,र हिण्डौन सिटी जिलों में भी है जिसके पश्चिम से यह राजस्थानी की उप-भाषाओं में जाकर मिल जाती है। हरियाणा में दिल्ली के दक्षिणी इलाकों फ़रीदाबाद जिला और गुड़गाँव और मेवात जिलों के पूर्वी भाग में भी बृज बोली जाती है 

अपने विशुद्ध रूप में ब्रजभाषा आज भी भरतपुर, आगरा, धौलपुर, हिण्डौन सिटी, मथुरा, अलीगढ़, हाथरस, मैनपुरी, एटा, और मुरैना जिलों में बोली जाती है। इसे हम "केंद्रीय ब्रजभाषा" के नाम से भी पुकार सकते हैं। केंद्रीय ब्रजभाषा क्षेत्र के उत्तर पश्चिम की ओर बुलंदशहर जिले की उत्तरी पट्टी से इसमें खड़ी बोली की लटक आने लगती है। उत्तरी-पूर्वी जिलों अर्थात् बदायूँ और एटा जिलों में इसपर कन्नौजी का प्रभाव प्रारंभ हो जाता है। डॉ॰ धीरेंद्र वर्मा, "कन्नौजी" को ब्रजभाषा का ही एक रूप मानते हैं। दक्षिण की ओर ग्वालियर में पहुँचकर इसमें बुंदेली की झलक आने लगती है। पश्चिम की ओर गुड़गाँव तथा भरतपुर का क्षेत्र राजस्थानी से प्रभावित है।






संजीव 'सलिल'




*

आँख में सपने सुनहरे झूलते हैं.

रूप लख भँवरे स्वयं को भूलते हैं.




झूमती लट नर्तकी सी डोलती है.

फिजा में रस फागुनी चुप घोलती है.




कपोलों की लालिमा प्राची हुई है.

कुन्तलों की कालिमा नागिन मुई है.




अधर शतदल पाँखुरी से रसभरे हैं.

नासिका अभिसारिका पर नग जड़े हैं.




नील आँचल पर टके तारे चमकते.

शांत सागर मध्य दो वर्तुल उमगते.




खनकते कंगन हुलसते गीत गाते.

राधिका है साधिका जग को बताते.




कटि लचकती साँवरे का डोलता मन.

तोड़कर चुप्पी बजी पाजेब बैरन.




सिर्फ तू ही तो नहीं मैं भी यहाँ हूँ.

खनखना कह बज उठी कनकाभ करधन.




चपल दामिनी सी भुजाएँ लपलपातीं.

करतलों पर लाल मेंहदी मुस्कुराती.




अँगुलियों पर मुन्दरियाँ नग जड़ी सोहें.

कज्जली किनार सज्जित नयन मोहें.




भौंह बाँकी, मदिर झाँकी नटखटी है.

मोरपंखी छवि सुहानी अटपटी है.




कौन किससे अधिक, किससे कौन कम है.

कौन कब दुर्गम-सुगम है?, कब अगम है?




पग युगल द्वय कब धरा पर?, कब अधर में?

कौन बूझे?, कौन-कब?, किसकी नजर में?




कौन डूबा?, डुबाता कब-कौन?, किसको?

कौन भूला?, भुलाता कब-कौन?, किसको?




क्या-कहाँ घटता?, अघट कब-क्या-कहाँ है?

क्या-कहाँ मिटता?, अमिट कुछ-क्या यहाँ है?




कब नहीं था?, अब नहीं जो देख पाये.

सब यहीं था, सब नहीं थे लेख पाये.




जब यहाँ होकर नहीं था जग यहाँ पर.

कब कहाँ सोता-न-जगता जग कहाँ पर?




ताल में बेताल का कब विलय होता?

नाद में निनाद मिल कब मलय होता?




थाप में आलाप कब देता सुनायी?

हर किसी में आप वह देता दिखायी?




अजर-अक्षर-अमर कब नश्वर हुआ है?

कब अनश्वर वेणु गुंजित स्वर हुआ है?




कब भँवर में लहर?, लहरों में भँवर कब?

कब अलक में पलक?, पलकों में अलक कब?




कब करों संग कर, पगों संग पग थिरकते?

कब नयन में बस नयन नयना निरखते?




कौन विधि-हरि-हर? न कोई पूछता कब?

नट बना नटवर, नटी संग झूमता जब.




भिन्न कब खो भिन्नता? हो लीन सब में.

कब विभिन्न अभिन्न हो? हो लीन रब में?




द्वैत कब अद्वैत वर फिर विलग जाता?

कब निगुण हो सगुण आता-दूर जाता?




कब बुलाता?, कब भुलाता?, कब झुलाता?

कब खिझाता?, कब रिझाता?, कब सुहाता?




अदिख दिखता, अचल चलता, अनम नमता.

अडिग डिगता, अमिट मिटता, अटल टलता.




नियति है स्तब्ध, प्रकृति पुलकती है.

गगन को मुँह चिढ़ा, वसुधा किलकती है.




आदि में अनादि बिम्बित हुआ कण में.

साsदि में फिर सांsत चुम्बित हुआ क्षण में.




अंत में अनंत कैसे आ समाया?

दिक् में दिगंत जैसे था समाया.




कंकरों में शंकरों का वास देखा.

और रज में आज बृज ने हास देखा.




मरुस्थल में महकता मधुमास देखा.

नटी नट में, नट नटी में रास देखा.




रास जिसमें श्वास भी था, हास भी था.

रास जिसमें आस, त्रास-हुलास भी था.




रास जिसमें आम भी था, खास भी था.

रास जिसमें लीन खासमखास भी था.




रास जिसमें सम्मिलित खग्रास भी था.

रास जिसमें रुदन-मुख पर हास भी था.




रास जिसको रचाता था आत्म पुलकित.

रास जिसको रचाता परमात्म मुकुलित.




रास जिसको रचाता था कोटि जन गण.

रास जिसको रचाता था सृष्टि-कण-कण.




रास जिसको रचाता था समय क्षण-क्षण.

रास जिसको रचाता था धूलि तृण-तृण..




रासलीला विहारी खुद नाचते थे.

रासलीला सहचरी को बाँचते थे.




राधिका सुधि-बुधि बिसारे नाचतीं थीं.

साधिका सब को नचातीं जाँचती थीं. 




'सलिल' ने निज बिंदु में वह छवि निहारी.

जग जिसे कहता है श्रीबांकेबिहारी.




***********

सरस्वती स्तवन बृज

 बृज पर्व 

सरस्वती स्तवन 

बृज 

*

मातु! सुनौ तुम आइहौ आइहौ,

   काव्य कला हमकौ समुझाइहौ।

      फेर कभी मुख दूर न जाइहौ

         गीत सिखाइहौ, बीन बजाइहौ।

            श्वेत वदन है, श्वेत वसन है  

               श्वेत लै वाहन दरस दिखाइहौ।

                  छंद सिखाइहौ, गीत सुनाइहौ,

                     ताल बजाइहौ, वाह दिलाइहौ।

                                       *

सुर संधान की कामना है मोहे,

   ताल बता दीजै मातु सरस्वती। 

      छंद की; गीत की चाहना है इतै,

         नेकु सिखा दीजै मातु सरस्वती।

            आखर-शब्द की, साधना नेंक सी 

               रस-लय दीजै मातु सरस्वती।  

                  सत्य समय का; बोल-बता सकूँ 

                     सत-शिव दीजै मातु सरस्वती। 

                                       *

शब्द निशब्द अशब्द कबै भए,

   शून्य में गूँज सुना रय शारद।

      पंक में पंकज नित्य खिला रय;

         भ्रमरों लौं भरमा रय शारद।

            शब्द से उपजै; शब्द में लीन हो, 

               शब्द को शब्द ही भा रय शारद। 

                  ताल हो; थाप हो; नाद-निनाद हो 

                     शब्द की कीर्ति सुना रय शारद। 

                                       *


रविवार, 1 नवंबर 2020

गीत हस्ती

गीत
हस्ती
*
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी
*
थर्मोडायनामिक्स बताता
ऊर्जा बना न सकता कोई
बनी हुई जो ऊर्जा उसको
कभी सकेगा मिटा न कोई
ऊर्जा है चैतन्य, बदलती
रूप निरंतर पराप्रकृति में
ऊर्जा को कैदी कर जड़ता
भर सकता है कभी न कोई
शब्द मनुज गढ़ता अपने हित
ऊर्जा करे न जल्दी-देरी
​​
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी
*
तू-मैं, यह-वह, हम सब आये
ऊर्जा लेकर परमशक्ति से
निभा भूमिका रंगमंच पर
वरते करतल-ध्वनि विभक्ति से
जा नैपथ्य बदलते भूषा
दर्शक तब भी करें स्मरण
या सराहते अन्य पात्र को
अनुभव करते हम विरक्ति से
श्वास गली में आस लगाती
रोज सवेरे आकर फेरी
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी
*
साँझ अस्त होता जो सूरज
भोर उषा-संग फिर उगता है
रख अनुराग-विराग पूर्ण हो
बुझता नहीं सतत जलता है
पूर्ण अंश हम, मिलें पूर्ण में
किंचित कहीं न कुछ बढ़ता है
अलग पूर्ण से हुए अगर तो
नहीं पूर्ण से कुछ घटता है
आना-जाना महज बहाना
नियति हुई कब किसकी चेरी
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी
*
१-११-२०१६

मेजर शैतान सिंह

मेजर शैतान सिंह


जन्म : १ दिसंबर १९२४, जोधपुर राज्य। 
शहादत : १८ नवंबर १९६२, रेजांग ला वॉर मेमोरियल, अहिर धामपुर।
पत्नी: शगुन कंवर (विवाह –१९६२) ।
माता-पिता: हेम सिंह भाटी।
परमवीर चक्र (मरणोपरांत): १९६३। 
पराक्रम कथा :


अक्टूबर १९६२ में चीन ने भारत पर आक्रमण किया। १३ वीं कुमाऊंनी बटालियन की सी कंपनी के १२० जवान लद्दाख में तैनात थे। १८ नवंबर १९६२ को २००० चीनी सैनिकों ने रेजांग ला में भारतीय सीमा का अतिक्रमण किया। चीनी मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में वीर सैनिकों ने हाड़ जमा देने वाली भीषण शीत में पर्याप्त कपड़ों और आधुनिक हथियारों के बिना चीनी सैनिकों का सामना किया। चीनी सेना अपेक्षाकृत उन्नत शस्त्रास्त्रोँ और साजो सामान से सुसज्जित थी। 
अनूठी रणनीति 
जब शैतान सिंह को आभास हुआ चीन की ओर से बड़ा हमला होने वाला है तो उन्होंने अपने अधिकारियों को रेडियो संदेश भेजा और मदद माँगी। विधि की विडंबना कि खराब मौसम के कारण कोई मदद पहुँचाना संभव नहीं हो सका। अत:, उनसे कहा गया कि सभी सैनिकों को लेकर चौकी छोड़कर पीछे हट जाओ। स्वाभिमानी मेजर शैतान सिंह ने हार मानकर पीछे न हटने का फैसला लिया। वह बखूबी जानते थे कि वक्त कम है और चीनी सेना कभी भी हमला बोल सकती है। ऐसी विषम परिस्थिति में तुरंत उन्होंने अपने सैनिकों को बुलाया और कहा- "हम १२० हैं, दुश्मनों की संख्या हमसे ज्यादा हो सकती है। पीछे से हमें कोई मदद नहीं मिल रही है। हो सकता है हमारे पास मौजूद हथियार कम पड़ जाए। हो सकता है हम से कोई न बचे और हम सब शहीद हो जाएँ, जो भी अपनी जान बचाना चाहते हैं वह पीछे हटने के लिए आजाद हैं, लेकिन मैं मरते दम तक मुकाबला करूँगा। मेजर शैतान सिंह ने संसाधनों की कमी और शत्रुओं की अधिक सैनिक संख्या को देखते हुए एक रणनीति तैयार की ताकि एक भी गोली बर्बाद न जाए। हर गोली निशाने पर लगे और शत्रु सैनिक के मारे जाने पर उनसे बंदूकें तथा कारतूस आदि छीन लिए जाएँ। 
चीनी सेना के दाँत खट्टे हुए
चीनी सेना ये मान चुकी थी कि भारतीय सेना ने चौकी छोड़ दी है। वह नहीं जानती थी उसका सामना जाबांज शैतान सिंह और उनके पराक्रमी वीर सैनिकों के साथ है। सवेरे लगभग ५ बजे भारतीय सैनिकों ने चीनी सेना पर गोली बरसाकर दुश्मनों को ढेर कर दिया। हर तरफ शत्रु सैनिकों की लाशें पड़ी थीं। मेजर शैतान सिंह ने कहा था कि यह मत समझो युद्ध का अंत हो गया है, यह तो सिर्फ शुरुआत है। कुछ समय बाद चीन ने दोबारा आक्रमण किया। लड़ते-लड़ते भारतीय सैनिकों के पास केवल ५-७ गोलियाँ बचीं। चीनियों ने रेजांग ला में मोर्टार तथा रॉकेटों से भारी गोलीबारी शुरू कर दी। भारतीय सैनिकों को केवल अपने जोश का सहारा था, क्योंकि रेजांग ला पर भारतीय बंकर भी नहीं थे और दुश्मन रॉकेट पर रॉकेट दागे जा रहा था। लड़ते हुएमेजर शैतान सिंह के हाथ में गोली भी लग चुकी थी। 
दूरंदेश मेजर शैतान सिंह
मेजर शैतान सिंह अच्छे से जानते थे कि २००० चीनी सैनिकों और उन्नत हथियारों का केवल १२० भारतीय अपेक्षाकृत कम उन्नत हत्यारों के साथ भारतीय सेना बहुत देर तक सामना नहीं कर सकेगी। यह भी कि सभी जवान शहीद हो गए तो भारत के लोग और सरकार यह बात कभी नहीं जान सकेगी कि आखिर रेजांग ला में क्या हुआ था? उन्होंने दो घायल सैनिकों रामचंद्र और निहाल सिंह से कहा कि वह तुरंत पीछे चले चले जाएँ। निहाल सिंह को चीनी सैनिकों ने पकड़ लिया और अपने साथ ले गए। १३ वीं कुमाऊँ बटालियन की इस पलटन में १२० में से केवल १४ जवान जिंदा बचे थे जिनमें से ९ गंभीर रूप से घायल थे. बता दें। भारत के केवल जवानों ने १३०० चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। बाद में चीन ने अपनी आधिकारिक रिपोर्ट में ये कबूल कर लिया कर लिया था कि १९६२ के युद्ध में सबसे ज्यादा नुकसान इसी मोर्चे पर हुआ था। 
जब बर्फ में दबे मिले शव
युद्ध को खत्म हुए ३ महीने हो गए थे किन्तु मेजर शैतान सिंह और उनके सैनिकों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल सकी थी। मौसम बदलने के साथ रेजांग ला की बर्फ पिघली और रेड क्रॉस सोसायटी और सेना के जवानों ने उन्हें खोजना शुरू किया। एक दिन एक गड़रिये अपनी भेड़ें चराने रेजांग की ओर जा रहा था। उसे बड़ी सी चट्टान में वर्दी में कुछ नजर आया। उसने तुरंत यह सूचना वहाँ पदस्थ सैन्य अधिकारियों को दी। सेना ने अविलंब वाहन पहुँचकर जांच-पड़ताल की। उन्होंने जो दृश्य देखा, उसे देखकर सबके होश उड़ गए। एक-एक सैनिक उस दिन भी अपनी-अपनी बंदूकें थामे ऐसे बैठे थे मानो अभी भी लड़ाई चल रही हो। उनमें शैतान सिंह भी अपनी बंदूक थामे बैठे थे। ऐसा लग रहे थे जैसे मानो अभी भी युद्ध के लिए तैयार हैं। युद्ध कितनी दे तक चला यह तो जानकारी नहीं मिल सकी किन्तु यह स्पष्ट हो गया था कि मेजर शैतान सिंह अपने बहादुर जवानों के साथ अंतिम गोली और अंतिम सांस तक देश के लिए लड़ते रहे थे और लड़ते-लड़ते बर्फ की आगोश में आ गए थे। मेजर शैतान सिंह का उनके होमटाउन जोधपुर में राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। उन्हें देश के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। आज रेजांग ला आज शूरवीरों का तीर्थ है। मेजर शैतान सिंह और उनकी बटालियन सैनिकों का अद्वितीय पराक्रम सैन्य इतिहास में अमर हो गया।
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