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सोमवार, 14 सितंबर 2020

भाषा विविधा दोहा

भाषा विविध: दोहा
संस्कृत दोहा: शास्त्री नित्य गोपाल कटारे
वृक्ष-कर्तनं करिष्यति, भूत्वांधस्तु भवान्। / पदे स्वकीये कुठारं, रक्षकस्तु भगवान्।।
मैथली दोहा: ब्रम्हदेव शास्त्री
की हो रहल समाज में?, की करैत समुदाय? / किछु न करैत समाज अछि, अपनहिं सैं भरिपाय।।
अवधी दोहा: डॉ. गणेशदत्त सारस्वत
राम रंग महँ जो रँगे, तिन्हहिं न औरु सुहात। / दुनिया महँ तिनकी रहनि, जिमी पुरइन के पात।।
बृज दोहा: महाकवि बिहारी
जु ज्यों उझकी झंपति वदन, झुकति विहँसि सतरात। / तुल्यो गुलाल झुठी-मुठी, झझकावत पिय जात।।
कवि वृंद:
भले-बुरे सब एक सौं, जौ लौं बोलत नांहिं। / जान पडत है काग-पिक, ऋतु वसंत के मांहि।।
बुंदेली दोहा: रामेश्वर प्रसाद गुप्ता 'इंदु'
कीसें कै डारें विथा, को है अपनी मीत? इतै सबइ हैं स्वारथी, स्वारथ करतइ प्रीत।।
पं. रामसेवक पाठक 'हरिकिंकर': नौनी बुंदेली लगत, सुनकें मौं मिठियात। बोलत में गुर सी लगत, फर-फर बोलत जात।।
बघेली दोहा: गंगा कुमार 'विकल'
मूडे माँ कलशा धरे, चुअत प्यार की बूँद। / अँगिया इमरत झर रओ, लीनिस दीदा मूँद।।
पंजाबी दोहा: निर्मल जी
हर टीटली नूं सदा तो, उस रुत दी पहचाण। / जिस रुत महकां बाग़ विच, आके रंग बिछाण।।
-डॉ. हरनेक सिंह 'कोमल'
हलां बरगा ना रिहा, लोकां दा किरदार।/ मतलब दी है दोस्ती, मतलब दे ने यार।।
गुरुमुखी: गुरु नानक
पहले मरण कुबूल कर, जीवन दी छंड आस। / हो सबनां दी रेनकां, आओ हमरे पास।।
भोजपुरी दोहा: संजीव 'सलिल'-
चिउड़ा-लिट्ठी ना रुचे, बिरयानी की चाह।/ नवहा मलिकाइन चली, घर फूँके की राह।।
मालवी दोहा: संजीव 'सलिल'-
भणि ले म्हारा देस की, सबसे राम-रहीम। /जल ढारे पीपल तले, अँगना चावे नीम।।
निमाड़ी दोहा: संजीव 'सलिल'-
रयणो खाणों नाचणो, हँसणो वार-तिवार। / गीत निमाड़ी गावणो, चूड़ी री झंकार।।
छत्तीसगढ़ी दोहा: संजीव 'सलिल'-
जाँघर तोड़त सेठ बर, चिथरा झूलत भेस । / मुटियारी माथा पटक, चेलिक रथे बिदेस ।।
राजस्थानी दोहा:
पुरस बिचारा क्या करै, जो घर नार कुनार। /ओ सींवै दो आंगळा, वा फाडै गज च्यार।।
अंगिका दोहा: सुधीर कुमार
ऐलै सावन हपसलो', लेनें नया सनेस । / आबो' जल्दी बालमां, छोड़ी के परदेश।।
बज्जिका दोहा: सुधीर गंडोत्रा
चाहू जीवन में रही, अपने सदा अटूट। / भुलिओ के न परे दू, अपना घर में फूट।।
हरयाणवी दोहा: श्याम सखा 'श्याम'
मनै बावली मनचली, कहवैं सारे लोग। / प्रेम-प्रीत का लग गया, जिब तै मन म्हं रोग।।
मगही दोहा :
रउआ नामी-गिरामी, मिलल-जुलल घर फोर। / खम्हा-खुट्टा लै चली,
राजस्थानी दोहा:
पुरस बिचारा क्या करै, जो घर नार कुनार। / ओ सींवै दो आंगळा, वा फाडै गज च्यार।।
कन्नौजी दोहा:
ननदी भैया तुम्हारे, सइ उफनाने ताल। / बिन साजन छाजन छवइ, आगे कउन हवाल।।
सिंधी दोहा: चंद्रसिंह बिरकाली
ग्रीखम-रुत दाझी धरा कळप रही दिन रात। / मेह मिलावण बादळी बरस बरस बरसात ।।
दग्ध धरा ऋतु ग्रीष्म से, कल्प रही रही दिन-रात। / मिलन मेह से करा दे, बरस-बरस बरसात।।
गढ़वाली दोहा: कृष्ण कुमार ममगांई
धार अड़ाली धार माँ, गादम जैली त गाड़। / जख जैली तस्ख भुगत ली, किट ईजा तू बाठ।।
सराइकी दोहा: संजीव 'सलिल'
शर्त मुहाणां जीत ग्या, नदी-किनारा हार। / लेणें कू धिक्कार हे, देणे कूँ जैकार।।
मराठी दोहा: वा. न. सरदेसाई
माती धरते तापता, पर्जन्यची आस। / फुकट न तृष्णा भागवी, देई गंध जगास।।
गुजराती दोहा: श्रीमद योगिंदु देव
अप्पा अप्पई जो मुणइ जो परभाउ चएइ। / सो पावइ सिवपुरि-गमणु जिणवरु एम भणेइ।।
दोहा दिव्य दिनेश से साभार

दोहा-कुण्डलिया

हर पल हिंदी को जिएँ, दिवस न केवल एक।
मानस मैया मानकर, पूजें सहित विवेक।।

कार्यशाला
षट्पदी (कुण्डलिया )
*
आओ! सब मिलकर रचें, ऐसा सुंदर चित्र।
हिंदी पर अभिमान हो, स्वाभिमान हो मित्र।। -विशम्भर शुक्ल
स्वाभिमान हो मित्र, न टकरायें आपस में।
फूट पड़े तो शत्रु, जयी हो रहे न बस में।।
विश्वंभर हों सदय, काल को जूझ हराओ।
मोदक खाकर सलिल, गजानन के गुण गाओ।। -संजीव 'सलिल'
*

हाइकु और मुक्तक

हाइकु गीत
*
बोल रे हिंदी
कान में अमरित
घोल रे हिंदी
*
नहीं है भाषा
है सभ्यता पावन
डोल रे हिंदी
*
कौन हो पाए
उऋण तुझसे, दे
मोल रे हिंदी?
*
आंग्ल प्रेमी जो
तुरत देना खोल
पोल रे हिंदी
*
झूठा है नेता
कहाँ सच कितना?
तोल रे हिंदी
*
मुक्तक
हिंदी का उद्घोष छोड़, उपयोग सतत करना है
कदम-कदम चल लक्ष्य प्राप्ति तक संग-संग बढ़ना है
भेद-भाव की खाई पाट, सद्भाव जगाएँ मिलकर
गत-आगत को जोड़ सके जो वह पीढ़ी गढ़ना है
*

हिंदी गीत

हिंदी गीत
*
देश-हितों हित
जो जीते हैं
उनका हर दिन अच्छा दिन है।
वही बुरा दिन
जिसे बिताया
हिंद और हिंदी के बिन है।
*
अपने मन में
झाँक देख लें
क्या औरों के लिए किया है?
या पशु, सुर,
असुरों सा जीवन
केवल निज के हेतु जिया है?
क्षुधा-तृषा की
तृप्त किसी की,
या अपना ही पेट भरा है?
औरों का सुख छीन
बना जो धनी
कहूँ सच?, वह निर्धन है।
*
जो उत्पादक
या निर्माता
वही देश का भाग्य-विधाता,
बाँट, भोग या
लूट रहा जो
वही सकल संकट का दाता।
आवश्यकता
से ज्यादा हम
लुटा सकें, तो स्वर्ग रचेंगे
जोड़-छोड़ कर
मर जाता जो
सज्जन दिखे मगर दुर्जन है।
*
बल में नहीं
मोह-ममता में
जन्मे-विकसे जीवन-आशा।
निबल-नासमझ
करता-रहता
अपने बल का व्यर्थ तमाशा।
पागल सांड
अगर सत्ता तो
जन-गण सबक सिखा देता है
नहीं सभ्यता
राजाओं की,
आम जनों की कथा-भजन है
***
हिंदी दिवस २०१६

गीत

गीत
*
छंद बहोत भरमाएँ
राम जी जान बचाएँ
*
वरण-मातरा-गिनती बिसरी
गण का? समझ न आएँ
राम जी जान बचाएँ
*
दोहा, मुकतक, आल्हा, कजरी,
बम्बुलिया चकराएँ
राम जी जान बचाएँ
*
कुंडलिया, नवगीत, कुंडली,
जी भर मोए छकाएँ
राम जी जान बचाएँ
*
मूँड़ पिरा रओ, नींद घेर रई
रहम न तनक दिखाएँ
राम जी जान बचाएँ
*
कर कागज़ कारे हम हारे
नैना नीर बहाएँ
राम जी जान बचाएँ
*
ग़ज़ल, हाइकू, शे'र डराएँ
गीदड़-गधा बनाएँ
राम जी जान बचाएँ
*
ऊषा, संध्या, निशा न जानी
सूरज-चाँद चिढ़ाएँ
राम जी जान बचाएँ
*

रविवार, 13 सितंबर 2020

मुक्तिका

हिंदी ग़ज़ल (मुक्तिका)
*
परदेशी भाषा रुचे, जिनको वे जन सूर.
जनवाणी पर छा रहा, कैसा अद्भुत नूर
*
जन आकांक्षा गीत है, जनगण-हित संतूर
अंग्रेजी-प्रेमी कुढ़ें, देख रहे हैं घूर
*
हिंदी जग-भाषा बने, विधि को है मंजूर
उन्नत पिंगल व्याकरण, छंद निहित भरपूर
*
अंग्रेजी-उर्दू नशा, करते मिले हुजूर
हिंदी-रोटी खा रहे, सत्य नहीं मंजूर
*
हिंदी-प्रेमी हो रहे, 'सलिल' हर्ष से चूर
कल्प वृक्ष पिंगल रहे, नित्य कलम ले झूर
*
छंद - दोहा
***
संजीव
७९९९५५९६१८

दोहा मुक्तक

दोहा मुक्तक
कभी न लगने दीजिए, दुर्व्यसनों की चाट.
बिन दुश्मन करते व्यसन, खादी हमारी खाट.
कदम-कदम रखकर बढ़ें, गिर-उठ लक्ष्य न भूल
ईश्वर जब होते सदय, तब हों आप विराट.
*

समस्यापूर्ति

समस्या पूर्ति
किसी अधर पर नहीं
*
किसी अधर पर नहीं शिवा -शिव की महिमा है
हरिश्चन्द्र की शेष न किंचित भी गरिमा है
विश्वनाथ सुनते अजान नित मन को मारे
सीढ़ी , सांड़, रांड़ काशी में, नहीं क्षमा है
*
किसी अधर पर नहीं शेष है राम नाम अब
राजनीति हैं खूब, नहीं मन में प्रणाम अब
अवध सत्य का वध कर सीता को भेजे वन
जान न पाया नेताजी को, हैं अनाम अब
*
किसी अधर पर नहीं मिले मुस्कान सुहानी
किसी डगर पर नहीं किशन या राधा रानी
नन्द-यशोदा, विदुर-सुदामा कहीं न मिलते
कंस हर जगह मुश्किल उनसे जान बचानी
*
किसी अधर पर नहीं प्रशंसा शेष की
इसकी, उसकी निंदा ही हो रही न किसकी
दलदल मचा रहे हैं दल, संसद में जब-तब
हुआ उपेक्षित सुनता कोई न सिसकी
*
किसी अधर पर नहीं सोहती हिंदी भाषा
गलत बोलते अंग्रेजी, खुद बने तमाशा
माँ को भूले। पैर पत्नी के दबा रहे हैं
जिनके सर पर है उधार उनसे क्या आशा?
*
किसी अधर पर नहीं परिश्रम-प्रति लगाव है
आसमान पर मँहगाई सँग चढ़े भाव हैं
टैक्स बढ़ा सरकारें लूट रहीं जनता को
दुष्कर होता जाता अब करना निभाव है
*
किसी अधर पर नहीं शेष अब जन-गण-मन है
स्त्री हो या पुरुष रह गया केवल तन है
माध्यम जन को कठिन हुआ है जीना-मरना
नेता-अभिनेता-अफसर का हुआ वतन है
*

क्षणिका

क्षणिका
*
मैं
न खुद को जान पाया
आज तक।
अजाना भी हूँ नहीं
मैं
सत्य कहता।
***
*
इसने दी
ईद की बधाई।
भाग, जिबह कर देगा
बकरे की आवाज़ आई।
***

मुक्तक

मुक्तक
*
काश! कभी हम भी सुधीर हो पाते
संघर्षों में जीवन-जय गुंजाते
गगन नापते, बूझ दिशा अनबूझी
लौट नीड पर ग़ज़लें-नगमे गाते
*
माँ मरती ही नही, जिया करती है संतानों में
श्वास-आस अपने -सपने कब उसे भूल पाते हैं
हो विदेह वह साथ सदा, संकट में संबल देती-
धन्य वही सुत जो मैया के गुण आजीवन गाते
*
सुर जीत रहे तो अ-सुर हार कर खुद बाहर हो जायेंगे
गीत-गुहा में स-सुर साधना कर नवगीत सुनाएँगे
हर दिन होता जन्म दिवस है, नींद मरण जो मान रहे
वे सूरज सँग जाग, करें श्रम, अपनी मन्ज़िल पाएँगे
*
सुर जीत रहे तो अ-सुर हार कर खुद बाहर हो जायेंगे
गीत-गुहा में स-सुर साधना कर नवगीत सुनाएँगे
हर दिन होता जन्म दिवस है, नींद मरण जो मान रहे
वे सूरज सँग जाग, करें श्रम, अपनी मन्ज़िल पाएँगे

कुण्डलिया

कुण्डलिया
परमपिता ने जो रचा, कहें नहीं बेकार
ज़र्रे-ज़र्रे में हुआ, ईश्वर ही साकार
ईश्वर ही साकार, मूलतः: निराकार है
व्यक्त हुआ अव्यक्त, दैव ही गुणागार है
आता है हर जीव, जगत में समय बिताने
जाता अपने आप, कहा जब परमपिता ने

षट्पदी : निर्झर - नदी

षट्पदी : निर्झर - नदी
निर्झर - नदी न एक से, बिलकुल भिन्न स्वभाव
इसमें चंचलता अधिक, उसमें है ठहराव
उसमें है ठहराव, तभी पूजी जाती है
चंचलता जीवन में, नए रंग लाती है
कहे 'सलिल' बहते चल, हो न किसी पर निर्भर
रुके न कविता-क्रम, नदिया हो या हो निर्झर

शनिवार, 12 सितंबर 2020

विमर्श - विसर्जन

 एक विमर्श

विसर्जन क्यों और कैसे?
*
अनंत चतुर्दशी गणेश विसर्जन और पुनरागमन प्रार्थना का पर्व।
चतुर्थी पर स्थापना, दस दिन पूजन और फिर विसर्जन के नाम पर प्रतिभाओं की दुर्दशा और अकल्पनीय प्रदूषण।
यह त्रासदी नव दुर्गा महोत्सव पर दोहराई जाएगी।
शोचनीय है कि जिन्हें विघ्नेश कहकर उनसे विघ्न निवारण हेतु प्रार्थना की, उन्हीं को विघ्नेश में डाल दिया। मूर्तियों की दुर्दशा करने से बेहतर है परंपरा का पालन करते हुए हल्दी और सुपारी में दैवीय शक्तियों का आव्हान-पूजन कर विसर्जन हो। इससे न तो प्रदूषण फैलेगा, न मूर्तियों की दुर्दशा होगी।
पुष्प तथा अन्य पूजन सामग्री महानगरों में नगर निगम वालों को दें तथा गाँवों में एक गड्ढा खोदकर उसमें दबा दें।
प्लास्टिक, रसायनों, एस्बेस्टस, प्लास्टर अॉफ पेरिस आदि का प्रयोग कतई न करें।
मूर्ति पूजन में श्रद्धा हो तो धातु (सोना, चाँदी, ताँबा, पीतल, अष्टधातु, पत्थर या एल्यूमीनियम) की मूर्ति का पूजन करें। इसे पूरे वर्ष भी पूज सकते हैं और विसर्जन के बाद अगले वर्ष के लिए सुरक्षित भी रखते सकते हैं। इससे घर वर्ष मूर्ति पर और उसे लाने-ले जाने में होने वाला खर्च भी बचेगी जो मँहगाई का मार कुछ कम करेगा।
अन्य उपाय मिट्टी की ६ इंच तक की मूर्ति को विसर्जन पश्चात घर में ही स्वच्छ जल में विसर्जित कर उसे पेड़-पौधों का जड़ में डाल देना है।
चित्र का पूजन भी समान फल देता है। इसे विसर्जित न करें।
सनातन धर्म की मूल परंपरा प्रतीक पूजन है। वैष्णव देवी जैसे पुरातन स्थलों पर अनगढ़ पाषाण पिंड ही पूजे जाते हैं। यह सर्वमान्य है कि ईश्वर निराकार हैं। 'जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी' के अनुसार भक्त अपने इष्ट को रूपाकार देकर पूजते हैं। कई बार माताएँ पुत्र को पुत्री के रूप में अथवा पुत्री को पुत्री के रूप में सज्जित कर अपनी मनस्तुष्टि करती हैं । यही भाव भक्त से प्रतिमा बनाता है। इसीलिए कहा जाता है 'भगत के बस में हैं भगवान। भगवान सौजन्यता वश भक्त के 'बस' में होने पर भी 'बेबस' नहीं है। भक्त अपने इष्ट की प्रतिमा की दुर्दशा का निमित्त बनकर अपने ही कष्ट को आमंत्रित करता है।
आवश्यक है कि हम दैवीय शक्तियों का आह्वान अपने अंतर्मन में करें। प्रतिमा पूजन कम और लघ्वाकारी विग्रहों का हो। शिवलिंग पूजन प्रतीक पूजन का कालजयी उदाहरण है।
सनातन धर्म की परंपरानुसार बुद्ध ने भी मूर्ति का निषेध किया, भक्तों ने सबसे अधिक मूर्तियाँ बुद्ध की बनाकर समझा कि महान कार्य किया पर काल साक्षी है कि वे मूर्तियाँ तोड़ा गईं, बौद्ध धर्म का पराभव हुआ। पुरातात्त्विक अवशेषों में बड़ी संख्या में मूर्तियों के ध्वंसावशेषों को देखकर भी हम उनकी निस्सारता न समझें तो हमारी समझ का ही दोष है।
मूर्तियों के निर्माण में लगने वाला श्रम और सामग्री किसी जीवनोपयोगी निर्माण में लगे तो सबका भला होगा। 'मंदिर मंदिर मूरत तेरी, कहुँ न देखी सूरत तेरी' का अर्थ समझ मम मंदिर में देव स्थापना कर सकें तो विसर्जन करने का मन ही न होगा।
क्या हम प्रतिमा के स्थान पर देव और दिव्यता को पूजकर दैवीय गुणों से युक्त हो सकेंगे?
***
संजीव

दोहा

दोहा सलिला

जो अच्छा उसको दिखे, अच्छा सब संसार धन्य भाग्य जो पा रहा, 'सलिल' स्नेह उपहार * शब्दों के संसार में, मिल जाते हैं मीत पता न चलता समय का, कब जाता दिन बीत * शरण मिली कमलेश की, 'सलिल' हुआ है धन्य दिव्या कविता सा नहीं, दूज मीत अनन्य *