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सोमवार, 9 दिसंबर 2019

समीक्षा दोहे पानीदार

कृति चर्चा :
दोहे पानीदार
चर्चाकार - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
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[कृति विवरण: दोहे पानीदार, दोहा संकलन, डॉ. ब्रह्मजीत गौतम, प्रथम संस्करण २०१९, आईएसबीएन ९७८-९३-८८९४६-८०-३, आकार २२.से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ २००, मूल्य १५० रु., बेस्ट बुक बडीज टेक्नोलॉजीस, नई दिल्ली, दोहाकार संपर्क - युक्का २०६, पैरामाउण्ट सिम्फनी, क्रॉसिंग रिपब्लिक, ग़ाज़ियाबाद २०१०१६ उ. प्र., चलभाष - ०९७६०००७८३८, ०९४२५१०२१५४०, ई-मेल bjgautam2007@gmail.com ।]
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भारत में किसी कार्य का श्री गणेश ईश वंदना से करने की परंपरा है। वरिष्ठ दोहाकार डॉ. ब्रह्मजीत गौतम ने एक नयी रीति का आरंभ ‘ध्यातव्य बातें’ शीर्षक के अंतर्गत दोहा-लेखन के दोषों की चर्चा से किया है। कबीर काव्य में प्रतीक विधान पर शोध और कबीर प्रतीक कोष की रचना करनेवाला दोषों को चुन-चुन कर चोट करने की कबीरी राह पर चले यह स्वाभाविक है। गौतम जी बहुआयामी रचनाकार हैं। शोधपरक कृति जनक छंद - एक विवेचन, काव्य संग्रह अंजुरी, ग़ज़ल संग्रह वक़्त के मंजर व एक बह्र पर एक ग़ज़ल, जनक छंद संग्रह जनक छंद की साधना, मुक्तक संग्रह दोहा मुक्तक माल तथा समीक्षा संग्रह दृष्टिकोण के रचनाकार सेवानिवृत्त हिंदी प्राध्यापक डॉ. गौतम ने दोहराव, अस्पष्टता तथा पूर्वापर संबंध को दोहा लेखन का कथ्यदोष तथा अनूठापन, धार और संदेशपरकता को दोहा लेखन का गुण ठीक ही बताया है। ‘शिल्प’ उपशीर्षक के अंतर्गत मात्रा गणना, अधिक मात्रा दोष, न्यून मात्रा दोष, ग्यारहवीं मात्रा लघु न होना, वाक्य भंजक दोष, लय दोष, मात्रा विभाजन दोष, तुक विधान दोष, अनुस्वार दोष, अवांछित व्यंजनागम की चर्चा है। भाषा रूप उपशीर्षक के अंतर्गत पुनरक्ति दोष, एक शब्द दो उच्चारण, शब्दों के मध्य अनावश्यक दूरी, पर का प्रयोग, अवैध संधि, लिंग, वचन, पुरुष, काल, अमानक शब्द-प्रयोग आदि पर विमर्श है तथा अंत में दोहा के २३ प्रकारों की निरर्थकता का संकेत है। डॉ. गौतम ने छंदप्रभाकरकार जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ द्वारा उल्लिखित नियमों का संदर्भ दिया है किन्तु पदारंभ में दग्धाक्षर व् जगण निषेध की चर्चा नहीं है। भाषा और नदी सतत परिवर्तित होकर निर्मल बनी रहती हैं। भानु जी ने ग्यारहवीं मात्रा को लघु रखे जाने का संकेत किया है किन्तु उनके पूर्व और पश्चात् के अनेक दोहाकारों (जिनमें कबीर, खुसरो, जायसी, तुलसी, बिहारी जैसे अमर दोहाकार भी हैं) ने इस नियम को अनुल्लंघनीय न मानकर दोहे रचे हैं।

अब वंदना के प्रथम दोहे से गौतम जी ने परंपरा-पालन किया है। दोहा मुक्तक छंद है। वह पूर्व या पश्चात् के दोहों से पूरी तरह मुक्त, अपने आप में पूर्ण होता है। आजकल एक विषय पर दोहों को एकत्र कर अध्यायों में विभक्त करने का चलन होने पर भी गौतम जी ने ५२० दोहे क्रमानुसार प्रकाशित कर लीक को ठीक ही तोडा है। सामान्य रचनाकार ‘स्वांत: सुखाय’ लिखता है जबकि गौतम जी जैसा रचनाकार इसके समानांतर श्रोता और पाठक में सत्साहित्य की समझ भी विकसित करते हैं। गौतम जी कबीर की तरह भाषा को शाब्दिक संस्कृतनिष्ठता का कुआँ न बनाकर कथ्यानुकूल विविध भाषाओँ से शब्द चयन कर ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के वैदिक आदर्श को मूर्त करते हैं। यह आदर्श धार्मिक समानता और समरसता की जननी है -

अल्ला या ईसा कहो, या फिर कह लो राम।
करता ‘वही’ सहायता, जब पड़ता है काम।।

गौतम जी ‘तत्तु समन्वयात’ के बौद्ध सूत्र को जीवन में अनिवार्य मानते हैं-

आत्मिक-भौतिक उन्नयन, दोनों हैं अनिवार्य।
यदि इनमें हो संतुलन, जीवन हो कृतकार्य।।

दोहों में लोकोक्तियों का प्रयोग करने की परंपरा गौतम जी को भाती है। लोकोक्ति दोहे को मुहावरेदार और लोक ग्राह्य बनाती है। ‘आप भले तो जग भला’ लोकोक्ति का सार्थक प्रयोग देखिए -

आप भले तो जग भला, कहें पुराने लोग।
जिसने समझा सूत्र यह, खुद पर करे प्रयोग।।

हिंदी व्याकरण के अनुसार ‘एक’ के स्थान पर ‘इक’ का प्रयोग गलत है किंतु गौतम जी ने ‘इक’ का प्रयोग किया है। भाषिक शुद्धता के पक्षधर विद्वान दोहाकार के लिए इससे बचना कठिन नहीं है पर संभवत: उर्दू ग़ज़ल से जुड़ाव के कारण उन्हें इसमें आपत्ति नहीं हुई।

इक तो आलस दूसरे, बात-बात में क्रोध।
कैसे ठहरे अनुज में, फिर विवेक या बोध।।

इक विरहानल दूसरे, सूरज का आतंक।
दो-दो ज्वालाएँ सहे, कैसे मुखी मयंक।।

महानगरीय स्वार्थपरक जीवन दृष्टि प्रकृति को भोग्य मानकर उसका शोषण कर विनाश को आमंत्रित कर रही है। दोहाकार उस जीवन पद्धति को अपनाने का गृह करता है जो प्रकृति के अनुकूल हो-

इस सीमा तक हो सहज, अपने जीवन-ढंग।
हो जाए जो प्रकृति से, एक रूप-रस-रंग।।

‘कर्म’ को महत्त्व देना भारतीय जन-जीवन का वैशिष्ट्य है. गीता ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते” कहती है तो तुलसी ‘कर्म प्रधान बिस्व करि राखा’ कहकर कर्म की महत्ता प्रतिपादित करते हैं। गौतम जी कर्मव्रती खद्योत को प्रणाम कर कर्म-पथ का महत्ता प्रतिपादित करते हैं-

उस नन्हें खद्योत को, बारंबार प्रणाम।
जो करता है रात में, तम का काम तमाम।।

कबीर ‘गुरु’ और ‘गोबिंद’ में से गुरु को पहले प्रणाम करते हैं चूँकि ‘गुरु’ ही ‘गोबिंद’ से मिलवाता है। कबीर के अनुयायी गौतम जी गुरु को कृपानिधान कहकर प्रणाम करते हैं-

उस सद्गुरु को है नमन, जो है कृपा-निधान।
ज्ञान-ज्योति से शिष्य का, जो हरता अज्ञान।।

शिक्षा जगत से जुड़े गौतम जी को भाषा की उपेक्षा और गलत प्रयोग व्यथित करे, यह स्वाभाविक है. वे स्वतंत्र देश में विदेशी सम्प्रभुओं की भाषा के बढ़ते वर्चस्व को देखकर हिंदी के प्रति चिंतित हैं-

ए बी सी आये नहीं, पर अंग्रेजी बोल।
हिंदी की है देश में, नैया डाँवाडोल।।

अमिधा के साथ-साथ लक्षणा और व्यंजना का प्रयोग जगह-जगह बखूबी किया गया है है इस दोहा संग्रह में।

ओ पानी के बुलबुले!, करता क्यों अभिमान?
हवा चली हो जाएगा, पल में अंतर्ध्यान।।

नश्वर ज़िंदगी को ओस बूँद बताते इस दोहे में पापजनित ताप को नाशक ठीक ही बताया गया है-

ओस-बूँद सी ज़िंदगी, इसे सहेजें आप।
ताप लगा यदि पाप का, बन जाएगी भाप।।

‘बनने’ के लिए प्रयत्न करना होता है। नष्ट होने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करता। दोहाकार आप ही प्रथम पंक्ति में ज़िंदगी को सहेजने का संदेश देता है। ‘होना’ बिना प्रयास के होता है। ‘बन’ के स्थान पर ‘हो’ का प्रयोग अधिक स्वाभाविक होगा।

कब से यह मन रट रहा, सतत एक ही नाम।
कब यह मंज़िल पायगा, तू जाने या राम।।

यहाँ प्रयोग किया गया ‘पायगा’ शब्दकोशीय ‘पायेगा’ का अपभृंश है। इससे बच जाना उचित होता।

इस संग्रह का स्मरणीय दोहा शिव-निवासस्थली काशी और कबीर की इहलीला संवरणस्थली मगहर के मध्य सेतु स्थापित करने के साथ-साथ गौतम जी के दोहाकार की सामर्थ्य का भी परिचायक है -

कर दे मुझ पर भी कृपा, कुछ तो कृपा-निकेत।
तू काशी का देवता, मैं मगहर का प्रेत।।

‘आस्तीन में साँप’ मुहावरे का उपयोग कर गौतम जी ने एक और जानदार दोहा रचा है -

करते हैं अब साँप सब, आस्तीन में वास।
बांबी से बढ़कर उन्हें, यहाँ सुरक्षा ख़ास।।

काव्य रचना केवल मनोविलास या वाग्विलास नहीं है। यह सामान्यत: प्रसांगिक रहकर शांति और विशेष परिस्थितियों में क्रांति की वाहक होकर परिवर्तन लाती है -

कविता का उद्देश्य है, स्वांत: सुख औ’ शांति।
लेकिन वही समाज में, ला देती है क्रांति।।

कविता में यदि है नहीं, जन जीवन की पीर।
समझो सागर में भरा, केवल खारा नीर।।

सामाजिक विसंगतियों पर गौतम जी के दोहा-प्रहार सटीक हैं-

काम करना हो अगर, रखिये पेपरवेट।
जितना भारी काम हो, उतना भारी रेट।।

कुर्सी जिसको मिल गयी, हो जाता सर्वज्ञ।
कक्षा में जी उम्र भर, रहा भले हो अज्ञ।।

कोई चारा खा रहा, कोई खाता खाद।
नेताओं के स्वाद की, देनी होगी दाद।।

चाहे दिल्ली में रहो, या कि देहरादून।
पाओगे सर्वत्र ही, अंध-बधिर कानून।।

चिड़ियाँ चहकें किस तरह, किसे दिखाएँ नाज़।
मँडराते हैं जब निडर, नीड़-नीड़ पर बाज।।

जंगल काटे स्वार्थवश, बनकर वीर प्रचंड
पर्यावरण विनाश का, धरा भोगती दंड।।

जो भू पर न बना सके, एक प्रेम का सेतु।
जा पहुँचे वे चाँद पर, शहर बसाने हेतु।।

इन दोहों में अलंकारों (अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश, यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, वक्रोक्ति, विरोधाभास, असंगति, अतिशयोक्ति आदि) के प्रचुर प्रयोग हैं-

पति पंचानन पुत्र हैं, गजमुख षड्मुख नाम।
देवि अन्नपूर्णा करें, उदर-पूर्ति अविराम।। -वक्रोक्ति

पत्ता हिले न ग्रीष्म में, हवा जेल में बंद।
कर्फ्यू में ज्यों गूँजते, सन्नाटों के छंद।। - अतिशयोक्ति

पीते हैं घी-दूध नित, पत्थर के भगवान्।
शिल्पकार उसके मगर, तजें भूख से प्राण।।

सारत: दोहे पानीदार के दोहे नवोदितों के लिए पाठ्य पुस्तक, स्थापितों के लिए प्रेरणा तथा सिद्धहस्तों के लिए संतोषकारक हैं। गौतम जी जैसे वरिष्ठ दोहाकार अपने मानक आप ही निर्धारित करते हैं -

भाषा-भाव समृद्ध हों, हो सुंदर अभिव्यक्ति।
कविता रस निष्पत्ति की, तब पाती है शक्ति।।

पाठक बेकली से गौतम जी के इस दोहा संग्रह कर काव्यानंद की जयकार करते हुए अगले दोहा संग्रह की प्रतीक्षा करेंगे।
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संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष - ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com

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द्विपदी - दोहा


द्विपदी दुनिया 
शिखर पर रहो सूर्य जैसे सदा तुम
हटा दो तिमिर, रौशनी दो जरा तुम
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खुशी हो या गम देन है उस पिता की
जिसे चाहते हम, जिसे पूजते तुम
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जितने भी दाना हैं, स्वार्थ घिरे बैठे हैं 
नादां ही बेहतर जो, अहं से न ऐंठे हैं.
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दोहा सलिला  


लोकतंत्र का हो रहा, भरी दुपहरी खून.
सद्भावों का निगलते, नेता भर्ता भून.
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मन में का? के से कहें? सुन हँस लैहें लोग.
मन की मन में ही धरी, नदी-नाव संजोग.
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पौधों, पत्तों, फूल को, निगल गया इंसान
मैं तितली निज पीर का, कैसे करूँ बखान?
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करें वंदना शब्द की ले अक्षर के हार 
सलिल-नाद सम छंद हो, जैसे मंत्रोच्चार
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सबखों कुरसी चाइए, बिन कुरसी जग सून.
राजनीति खा रई रे, आदर्सन खें भून.
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बुधवार, 4 दिसंबर 2019

समीक्षा गीत स्पर्श, गीत संकलन, डॉ. पूर्णिमा निगम ‘पूनम’

कृति चर्चा : 
गीत स्पर्श : दर्द के दरिया में नहाये गीत 
चर्चाकार - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
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[कृति विवरण: गीत स्पर्श, गीत संकलन, डॉ. पूर्णिमा निगम ‘पूनम’, प्रथम संस्करण २००७, आकार २१.से.मी.  x १३.से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १२२, मूल्य १५० रु., निगम प्रकाशन २१० मढ़ाताल जबलपुर। ]
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साहित्य संवेदनाओं की सदानीरा सलिला है। संवेदनाविहीन लेखन गणित की तरह शुष्क और नीरस विज्ञा तो हो सकता है, सरस साहित्य नहीं। साहित्य का एक निकष ‘सर्व हिताय’ होना है। ‘सर्व’ और ‘स्व’ का संबंध सनातन है। ‘स्व’ के बिना ‘सर्व’ या ‘सर्व’ के बिना ‘स्व’ की कल्पना भी संभव नहीं। सामान्यत: मानव सुख का एकांतिक भोग करना चाहता है जबकि दुःख में सहभागिता चाहता है।इसका अपवाद साहित्यिक मनीषी होते हैं जो दुःख की पीड़ा को सहेज कर शब्दों में ढाल कर भविष्य के लिए रचनाओं की थाती छोड़ जाते हैं। गीत सपर्श एक ऐसी ही थाती है कोकिलकंठी शायरा पूर्णिमा निगम ‘पूनम’ की जिसे पूनम-पुत्र शायर संजय बादल ने अपनी माता के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में प्रकाशित किया है। आज के भौतिकवादी भोगप्रधान कला में दिवंगता जननी के भाव सुमनों को सरस्वती के श्री चरणों में चढ़ाने का यह उद्यम श्लाघ्य है। 

गीत स्पर्श की सृजनहार मूलत: शायरा रही है। वह कैशोर्य से विद्रोहणी, आत्मविश्वासी और चुनौतियों से जूझनेवाली रही है। ज़िंदगी ने उसकी कड़ी से कड़ी परीक्षा ली किन्तु उसने हार नहीं मानी और प्राण-प्राण से जूझती रही। उसने जीवन साथी के साथ मधुर सपने देखते समय, जीवन साथी की ज़िंदगी के लिए जूझते समय, जीवनसाथी के बिछुड़ने के बाद, बच्चों को सहेजते समय और बच्चों के पैरों पर खड़ा होते ही असमय विदा होने तक कभी सहस और कलम का साथ नहीं छोड़ा। कुसुम कली सी कोमल काया में वज्र सा कठोर संकल्प लिए उसने अपनों की उपेक्षा, स्वजनों की गृद्ध दृष्टि, समय के कशाघात को दिवंगत जीवनसाथी की स्मृतियों और नौनिहालों के प्रति ममता के सहारे न केवल झेला अपितु अपने पौरुष और सामर्थ्य का लोहा मनवाया। 

गीत स्पर्श के कुछ गीत मुझे पूर्णिमा जी से सुनने का सुअवसर मिला है। वह गीतों को न पढ़ती थीं, न गाती थीं, वे गीतों को जीती थीं, उन पलों में डूब जाती थीं जो फिर नहीं मिलनेवाले थे पर गीतों के शब्दों में वे उन पलों को बार-बार जी पाती थी। उनमें कातरता नहीं किन्तु तरलता पर्याप्त थी। इन गीतों की समीक्षा केवल पिंगलीय मानकों के निकष पर करना उचित नहीं है। इनमें भावनाओं की, कामनाओं की, पीरा की, एकाकीपन की असंख्य अश्रुधाराएँ समाहित हैं। इनमें अदम्य जिजीविषा छिपी है। इनमें अगणित सपने हैं। इनमें शब्द नहीं भाव हैं, रस है, लय है। रचनाकार प्राय: पुस्तकाकार देते समय रचनाओं में अंतिम रूप से नोक-फलक दुरुस्त करते हैं। क्रूर नियति ने पूनम को वह समय ही नहीं दिया। ये गीत दैनन्दिनी में प्रथमत: जैसे लिखे गए, संभवत: उसी रूप में प्रकाशित हैं क्योंकि पूनम के महाप्रस्थान के बाद उसकी विरासत बच्चों के लिए श्रद्धा की नर्मदा हो गई हिअ जिसमें अवगण किया जा सकता किन्तु जल को बदला नहीं जा सकता। इस कारण कहीं-कहीं यत्किंचित शिल्पगत कमी की प्रतीति के साथ मूल भाव के रसानंद की अनुभूति पाठक को मुग्ध कर पाती है। इन गीतों में किसी प्रकार की बनावट नहीं है। 

पर्सी बायसी शैली के शब्दों में ‘ओवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोस विच टेल ऑफ़ सेडेस्ट थॉट’। शैलेन्द्र के शब्दों में- ‘हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’। पूनम का दर्द के साथ ताज़िंदगी बहुत गहरा नाता रहा - 

भीतर-भीतर रट रहना, बहार हंसकर गीत सुनाना 
ऐसा दोहरा जीवन जीना कितना बेमानी लगता है? 

लेकिन इसी बेमानीपन में ज़िंदगी के मायने तलाशे उसने -

अब यादों के आसमान में, बना रही अपना मकान मैं  

न कहते-कहते भी दिल पर लगी चोट की तीस आह बनकर सामने आ गयी -

जान किसने मुझे पुकारा, लेकर पूनम नाम
दिन काटे हैं मावस जैसे, दुःख झेले अविराम 

जीवन का अधूरापन पूनम को तोड़ नहीं पाया, उसने बच्चों को जुड़ने और जोड़ने की विरासत सौंप ही दी - 

जैसी भी है आज सामने, यही एक सच्चाई 
पूरी होने के पहले ही टूट गयी चौपाई 

अब दीप जले या परवाना वो पहले से हालात नहीं                   

पूनम को भली-भाँति मालूम था कि सिद्धि के लिए तपना भी पड़ता है -

तप के दरवाज़े पर आकर, सिद्धि शीश झुकाती है
इसीलिए तो मूर्ति जगत में, प्राण प्रतिष्ठा पाती है

दुनिया के छल-छलावों से पूनम आहात तो हुई पर टूटी नहीं। उसने छलियों से भी सवाल किये-

मैंने जीवन होम कर दिया / प्रेम की खातिर तब कहते हो
बदनामी है प्रेम का बंधन / कुछ तो सोची अब कहते हो।

लेकिन कहनेवाले अपनी मान-मर्यादा का ध्यान नहीं रख सके -

रिश्ते के कच्चे धागों की / सब मर्यादाएँ टूट गयीं

फलत:,

नींद हमें आती नहीं है / काँटे सा लगता बिस्तर

जीवन एक जाल रेशमी / हम हैं उसमें फँसे हुए

नेक राह पकड़ी थी मैंने / किन्तु जमाना नेक नहीं

'बदनाम गली' इस संग्रह की अनूठी रचना है। इसे पढ़ते समय गुरु दत्त की प्यासा और 'जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ है' याद आती है। कुछ पंक्तियाँ देखें-

रिश्ता है इस गली से भाई तख्तो-ताज का / वैसे ही जैसे रिश्ता हो चिड़ियों से बाज का
जिनकी हो जेब गर्म वो सरकार हैं यहाँ / सज्जन चरित्रवान नोचते हैं बोटियाँ

वो हाथ में गजरा लपेटे आ रहे हैं जो / कपड़े की तीन मिलों को चला रहे हैं वो

रेखा उलाँघती यहाँ सीता की बेटियाँ / सलमा खड़ी यहाँ पे कमाती है रोटियाँ

इनको भी माता-बहनों सा सत्कार चाहिए / इनको भी प्रजातन्त्र के अधिकार चाहिए

अपने दर्द में भी औरों की फ़िक्र करने का माद्दा कितनों में होता है। पूनम शेरदिल थी, उसमें था यह माद्दा। मिलन और विरह दोनों स्मृतियाँ उसको ताकत देती थीं -

तेरी यादे तड़पाती हैं, और हमें हैं तरसातीं
हुई है हालत मेरी ऐसी जैसे मेंढक बरसाती

आदर्श को जलते देख रही / बच्चों को छलते देख रही

मधुर मिलान के स्वप्न सुनहरे / टूट गए मोती मानिंद

अब उनकी बोझिल यादें हैं / हल्के-फुल्के लम्हात नहीं

ये यादें हमेशा बोझिल नहीं कभी-कभी खुशनुमा भी होती हैं -

एक तहजीब बदन की होती है सुनो / उसको पावन ऋचाओं सा पढ़कर गुनो

तन की पुस्तक के पृष्ठ भी खोले नहीं / रात भर एक-दूसरे से बोले नहीं

याद करें राजेंद्र यादव का उपन्यास 'सारा आकाश'

एक दूजे में मन यूँ समाहित हुआ / झूठे अर्पण की हमको जरूरत नहीं

जीवन के विविध प्रसगों को कम से कम शब्दों में बयां करने की कला कोई पूनम से सीखे।

उठो! साथ दो, हाथ में हाथ दो, चाँदनी की तरह जगमगाऊँगी मैं
बिन ही भाँवर कुँवारी सुहागन हुई, गीत को अपनी चूनर बनाऊँगी मैं

देह की देहरी धन्य हो जाएगी / तुम अधर से अधर भर मिलाते रहो

लाल हरे नीले पिले सब रंग प्यार में घोलकर / मन के द्वारे बन्दनवारे बाँधे मैंने हँस-हँसकर

आँख की रूप पर मेहरबानी हुई / प्यार की आज मैं राजधानी हुई

राग सीने में है, राग होंठों पे है / ये बदन ही मेरा बाँसुरी हो गया

साँस-साँस होगी चंदन वन / बाँहों में जब होंगे साजन

गीत-यात्री पूनम, जीवन भर अपने प्रिय को जीती रही और पलक झपकते ही महामिलन के लिए प्रस्थान कर गयी -

पल भर की पहचान / उम्र भर की पीड़ा का दान बन गई
सुख से अधिक यंत्रणा / मिलती है अंतर के महामिलन में

अनूठी कहन, मौलिक चिंतन, लयबद्ध गीत-ग़ज़ल, गुनगुनाते-गुनगुनाते बाँसुरी सामर्थ्य रखनेवाली पूनम जैसी शख्सियत जाकर भी नहीं जाती। वह जिन्दा रहती है क़यामत मुरीदों, चाहनेवालों, कद्रदानों के दिल में। पूनम का गीत स्पर्श जब-जब हाथों में आएगा तब- तब पूनम के कलाम के साथ-साथ पूनम की यादों को ताज़ा कर जाएगा। गीतों में अपने मखमली स्पर्श से नए- नए भरने में समर्थ पूनम फिर-फिर आएगी हिंदी के माथे पर नयी बिंदी लिए।हम पहचान तो नहीं सकते पर वह है यहीं कहीं, हमारे बिलकुल निकट नयी काया में। उसके जीवट के आगे समय को भी नतमस्तक होना ही होगा।
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संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
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सरस्वती वंदना दयाशंकर द्विवेदी 'शंकर जलेसरी

स्मृतिशेष पंडित दयाशंकर द्विवेदी 'शंकर जलेसरी

जन्म - २७ जुलाई १९१२ (आश्विन शुक्ल ४ संवत १९६८), पंसारियान जलेसर, एटा, उत्तर प्रदेश।
निधन - बसंत पंचमी १९९६।
आत्मज - स्मृति शेष सेवाराम मिश्र।
शिक्षा - संस्कृत साहित्य रत्न, एल.टी.।
सृजन - प्रबंध काव्य - भारतीय शौर्य गाथा, शिवा शौर्य काव्य, भारतीय शौर्य सूर्य १- २, चंडी चरित्र, पूज्य बापू, सत्य सुधा सिंधु। साहित्य - कहानी, पूजा पुष्पांजलि, एकांकी - प्रियदर्शी अशोक, श्रवण कुमार, भक्त ध्रुव, चन्द्रगुप्त और चाणक्य, सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आज़ाद, बंदा बैरागी, पार्वती परिणय, नव निर्माण, दहेज दानव, परिवर्तन।
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सरस्वती वंदना
श्रवनन कुण्डल, बुलाक नाक में विमल, कंचन किरीट कल, शीश पर धारती।
भाल बिंदु लाल, कंठ डाल मणिमाल, नैन नीरज विशाल, श्वेत सारी को सँभारती।
पैरन पाजेब डार, वेद अक्षमाल धार, कर ले सितार तार,तार झनकारती।
हंस पै विराजती, दया की दृष्टि डालती, पधारो मेरी भारती, उतारूँ तेरी आरती।
छंद : घनाक्षरी
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