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गुरुवार, 11 जुलाई 2019

लेख हाइकु

विशेष लेख:
जापानी छंद हाइकु : एक परिचय 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हाइकु सामान्यतः ३ पंक्तियों की वह लघु काव्य रचना है जिसमें सामान्यतः क्रमश: ५-७-५ ध्वनियों का प्रयोग कर एक अनुभूति या छवि की अभिव्यक्ति की जाती है। हिंदी को त्रिपदिक छंदों की विरासत संस्कृत से मिली है। वर्त्तमान में जापानी का हाइकु हिंदी साहित्य में हिंदी के संस्कार और भारतीयता का कलेवर लेकर लोकप्रिय हो रहा है।
हाइकु (Haiku 俳句 high-koo) ऐसी लघु कवितायेँ हैं जो एक अनुभूति या छवि को व्यक्त करने के लिए संवेदी भाषा प्रयोग करती हैं। हाइकु बहुधा प्रकृति के तत्व, सौंदर्य के पल या मार्मिक अनुभव से प्रेरित होते हैं। मूलतः जापानी कवियों द्वारा विकसित हाइकु काव्यविधा अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओँ द्वारा ग्रहण की गयी।
पाश्चात्य काव्य से भिन्न हाइकु में सामान्यतः तुकसाम्य, छंद बद्धता या काफ़िया नहीं होता।
हाइकु को असमाप्त काव्य चूँकि हर हाइकु में पाठक / श्रोता के मनोभावों के अनुसार पूर्ण किये जाने की अपेक्षा होती है। हाइकु का उद्भव 'रेंगा नहीं हाइकाइ (haikai no renga) सहयोगी काव्य समूह' जिसमें शताधिक छंद होते हैं से हुआ है। 'रेंगा' समूह का प्रारंभिक छंद 'होक्कु' मौसम तथा अंतिम शब्द का संकेत करता है। हाइकु अपने काव्य-शिल्प से परंपरा के नैरन्तर्य बनाये रखता है।
समकालिक हाइकुकार कम शब्दों से लघु काव्य रचनाएँ करते हैं. ३-५-३ सिलेबल के लघु हाइकु भी रचे जाते हैं।
हाइकु का वैशिष्ट्य
१. ध्वन्यात्मक संरचना:
पारम्परिक जापानी हाइकु १७ ध्वनियों का समुच्चय है जो ५-७-५ ध्वनियों की ३ पदावलियों में विभक्त होते हैं। अंग्रेजी के कवि इन्हें सिलेबल (लघुतम उच्चरित ध्वनि) कहते हैं। समय के साथ विकसित हाइकु काव्य के अधिकांश हाइकुकार अब इस संरचना का अनुसरण नहीं करते। जापानी या अंग्रेजी के आधुनिक हाइकु न्यूनतम एक से लेकर सत्रह से अधिक ध्वनियों तक के होते हैं। अंग्रेजी सिलेबल लम्बाई में बहुत परिवर्तनशील होते हैं जबकि जापानी सिलेबल एकरूपेण लघु होते हैं। इसलिए 'हाइकु चंद ध्वनियों का उपयोग कर एक छवि निखारना है' की पारम्परिक धारणा से हटकर, १७ सिलेबल का अंग्रेजी हाइकु १७ सिलेबल के जापानी हाइकु की तुलना में बहुत लंबा होता है। ५-७-५ सिलेबल का बंधन बच्चों को विद्यालयों में पढ़ाए जाने के बावजूद अंग्रेजी हाइकू लेखन में प्रभावशील नहीं है। हाइकु लेखन में सिलेबल निर्धारण के लिये जापानी अवधारणा "हाइकु एक श्वास में अभिव्यक्त कर सके" उपयुक्त है। अंग्रेजी में सामान्यतः इसका आशय १० से १४ सिलेबल लंबी पद्य रचना से है। अमेरिकन उपन्यासकार जैक कैरोक का एक हाइकू देखें:
Snow in my shoe मेरे जूते में बर्फ
Abandoned परित्यक्त
Sparrow's nest गौरैया-नीड़
२. वैचारिक सन्निकटता:
हाइकु में दो विचार सन्निकट हों: जापानी शब्द 'किरु' अर्थात 'काटना' का आशय है कि हाइकु में दो सन्निकट विचार हों जो व्याकरण की दृष्टि से स्वतंत्र तथा कल्पना प्रवणता की दृष्टि से भिन्न हों। सामान्यतः जापानी हाइकु 'किरेजी' (विभाजक शब्द) द्वारा विभक्त दो सन्निकट विचारों को समाहित कर एक सीधी पंक्ति में रचे जाते हैं। किरेजी एक ध्वनि पदावली (वाक्यांश) के अंत में आती है। अंग्रेजी में किरेजी की अभिव्यक्ति डैश '-' से की जाती है. बाशो के निम्न हाइकु में दो भिन्न विचारों की संलिप्तता देखें:
how cool the feeling of a wall against the feet — siesta
कितनी शीतल दीवार की अनुभूति पैर के विरुद्ध
आम तौर पर अंग्रेजी हाइकु ३ पंक्तियों में रचे जाते हैं। २ सन्निकट विचार (जिनके लिये २ पंक्तियाँ ही आवश्यक हैं) पंक्ति-भंग, विराम चिन्ह अथवा रिक्त स्थान द्वारा विभक्त किये जाते हैं। अमेरिकन कवि ली गर्गा का एक हाइकु देखें-
fresh scent- ताज़ा सुगंध
the lebrador's muzzle लेब्राडोर की थूथन
deepar into snow गहरे बर्फ में.
सारतः दोनों स्थितियों में, विचार- हाइकू का दो भागों में विषयांतर कर अन्तर्निहित तुलना द्वारा रचना के आशय को ऊँचाई देता है। इस द्विभागी संरचना की प्रभावी निर्मिति से दो भागों के अंतर्संबंध तथा उनके मध्य की दूरी का परिहार हाइकु लेखन का कठिनतम भाग है।
३. विषय चयन और मार्मिकता:
पारम्परिक हाइकु मनुष्य के परिवेश, पर्यावरण और प्रकृति पर केंद्रित होता है। हाइकु को ध्यान की एक विधि के रूप में देखें जो स्वानुभूतिमूलक व्यक्तिनिष्ठ विश्लेषण या निर्णय आरोपित किये बिना वास्तविक वस्तुपरक छवि को सम्प्रेषित करती है। जब आप कुछ ऐसा देखें या अनुभव करे जो आपको अन्यों को बताने के लिए प्रेरित करे तो उसे 'ध्यान से देखें', यह अनुभूति हाइकु हेतु उपयुक्त हो सकती है। जापानी कवि क्षणभंगुर प्राकृतिक छवियाँ यथा मेंढक का तालाब में कूदना, पत्ती पर जल वृष्टि होना, हवा से फूल का झुकना आदि को ग्रहण व सम्प्रेषित करने के लिये हाइकु का उपयोग करते हैं। कई कवि 'गिंकगो वाक' (नयी प्रेरणा की तलाश में टहलना) करते हैं आधुनिक हाइकु प्रकृति से परे हटकर शहरी वातावरण, भावनाओं, अनुभूतियों, संबंधों, उद्वेगों, आक्रोश, विरोध, आकांक्षा, हास्य आदि को हाइकु की विषयवस्तु बना रहे हैं।
४. मौसमी संदर्भ:
जापान में 'किगो' (मौसमी बदलाव, ऋतु परिवर्तन आदि) हाइकु का अनिवार्य तत्व है। मौसमी संदर्भ स्पष्ट या प्रत्यक्ष (सावन, फागुन आदि) अथवा सांकेतिक या परोक्ष (ऋतु विशेष में खिलने वाले फूल, मिलनेवाले फल, मनाये जाने वाले पर्व आदि) हो सकते हैं. फुकुडा चियो नी रचित हाइकु देखें:
morning glory! भोर की दमक
the well bucket-entangled, कूप - बाल्टी गठबंधन
I ask for water मैंने पानी माँगा
५. विषयांतर:
हाइकु में दो सन्निकट विचारों की अनिवार्यता को देखते हुए चयनित विषय के परिदृश्य को इस प्रकार बदलें कि रचना में २ भाग हो सकें। जैसे लकड़ी के लट्ठे पर रेंगती दीमक पर केंद्रित होते समय उस छवि को पूरे जंगल या दीमकों के निवास के साथ जोड़ें। सन्निकटता तथा संलिप्तता हाइकु को सपाट वर्णन के स्थान पर गहराई तथा लाक्षणिकता प्रदान करती हैं. रिचर्ड राइट का यह हाइकु देखें:
A broken signboard banging टूटा साइनबोर्ड तड़का
In the April wind. अप्रैल की हवाओं में
Whitecaps on the bay. खाड़ी में झागदार लहरें
६. संवेदी भाषा-सूक्ष्म विवरण:
हाइकु गहन निरीक्षणजनित सूक्ष्म विवरणों से निर्मित और संपन्न होता है। हाइकुकार किसी घटना को साक्षीभाव (तटस्थता) से देखता है और अपनी आत्मानुभूति शब्दों में ढालकर अन्यों तक पहुँचाता है। हाइकु का विषय चयन करने के पश्चात उन विवरणों का विचार करें जिन्हें आप हाइकु में देना चाहते हैं। मस्तिष्क को विषयवस्तु पर केंद्रित कर विशिष्टताओं से जुड़े प्रश्नों का अन्वेषण करें। जैसे: अपने विषय के सम्बन्ध क्या देखा? कौन से रंग, संरचना, अंतर्विरोध, गति, दिशा, प्रवाह, मात्रा, परिमाण, गंध आदि तथा अपनी अनुभूति को आप कैसे सही-सही अभिव्यक्त कर सकते हैं?
७. वर्णनात्मक नहीं दृश्यात्मक
हाइकु-लेखन वस्तुनिष्ठ अनुभव के पलों का अभिव्यक्तिकरण है, न कि उन घटनाओं का आत्मपरक या व्यक्तिपरक विश्लेषण या व्याख्या। हाइकू लेखन के माध्यम से पाठक/श्रोता को घटित का वास्तविक साक्षात कराना अभिप्रेत है न कि यह बताना कि घटना से आपके मन में क्या भावनाएं उत्पन्न हुईं। घटना की छवि से पाठक / श्रोता को उसकी अपनी भावनाएँ अनुभव करने दें। अतिसूक्ष्म, न्यूनोक्ति (घटित को कम कर कहना) छवि का प्रयोग करें। यथा: ग्रीष्म पर केंद्रित होने के स्थान पर सूर्य के झुकाव या वायु के भारीपन पर प्रकाश डालें। घिसे-पिटे शब्दों या पंक्तियों जैसे अँधेरी तूफानी रात आदि का उपयोग न कर पाठक / श्रोता को उसकी अपनी पर्यवेक्षण उपयोग करने दें। वर्ण्य छवि के माध्यम से मौलिक, अन्वेषणात्मक भाषा / शंब्दों की तलाश कर अपना आशय सम्प्रेषित करें। इसका आशय यह नहीं है कि शब्दकोष लेकर अप्रचलित शब्द खोजकर प्रयोग करें अपितु अपने जो देखा और जो आप दिखाना चाहते हैं उसे अपनी वास्तविक भाषा में स्वाभाविकता से व्यक्त करें।
८. प्रेरित हों:
महान हाइकुकारों की परंपरा प्रेरणा हेतु भ्रमण करना है। अपने चतुर्दिक पदयात्रा करें और परिवेश से समन्वय स्थापित करें ताकि परिवेश अपनी सीमा से बाहर आकर आपसे बात करता प्रतीत हो । आज करे सो अब: कागज़-कलम अपने साथ हमेशा रखें ताकि पंक्तियाँ जैसे ही उतरें, लिख सकें। आप कभी पूर्वानुमान नहीं कर सकते कि कब जलधारा में पाषाण का कोई दृश्य, सुरंग पथ पर फुदकता चूहा या सुदूर पहाड़ी पर बादलों की टोपी आपको हाइकू लिखने के लिये प्रेरित कर देगी।
पढ़िए-बढ़िए: अन्य हाइकुकारों के हाइकू पढ़िए। हाइकु के रूप विधान की स्वाभाविकता, सरलता, सहजता तथा सौंदर्य ने विश्व की अनेक भाषाओँ में सहस्त्रोंको लिखने की प्रेरणा दी है।अन्यों के हाइकू पढ़ने से आपके अंदर छिपी प्रतिभा स्फुरित तथा गतिशील हो सकती है।
९. अभ्यास:
किसी भी अन्य कला की तरह ही हाइकू लेखन कला भी आते-आते ही आती है। सर्वकालिक महानतम हाइकुकार बाशो के अनुसार हर हाइकु को हजारों बार जीभ पर दोहराएं, हर हाइकू को कागज लिखें, लिखें, फिर-फिर लिखें जब तक कि उसका निहितार्थ स्पष्ट न हो जाए। स्मरण रहे कि आपको ५-७-५ सिलेबल के बंधन में कैद नहीं होना है। वास्तविक साहित्यिक हाइकु में 'किगो' द्विभागी सन्निकट संरचना और प्राथमिक तौर पर संवादी छवि होती ही है।
१०. संवाद:
हाइकू के गंभीर और सच्चे अध्येता हेतु विश्व की विविध भाषाओँ के हाइकुकारों के विविध मंचों, समूहों, संस्थाओं और पत्रिकाओं से जुड़ना आवश्यक है ताकि वे अधुनातन हाइकु शिल्प और शैली के विषय में अद्यतन जानकारी पा सकें। हाइकु शिल्प का एक महत्त्वपूर्ण अंग है "किरेजि"। "किरेजि" का स्पष्ट अर्थ देना कठिन है, शाब्दिक अर्थ है "काटने (अलग करने) वाला अक्षर"। इसे हिंदी में ''वाचक शब्द'' कहा जा सकता है। "किरेजि" जापानी कविता में शब्द-संयम की आवश्यकता से उत्पन्न रूढ़ि-शब्द है जो अपने आप में किसी विशिष्ट अर्थ का द्योतक न होते हुए भी पद-पूर्ति में सहायक होकर कविता के सम्पूर्णार्थ में महत्त्वपूर्ण योगदान करता है। सोगि (१४२०-१५०२) के समय में १८ किरेजि निश्चित हो चुके थे। समय के साथ इनकी संख्या बढ़ती रही। महत्त्वपूर्ण किरेजि है- या, केरि, का ना, और जो। "या" कर्ता का अथवा अहा, अरे, अच्छा आदि का बोध कराता है।
यथा-
आरा उमि या / सादो नि योकोतोओ / आमा नो गावा [ "या" किरेजि]
अशांत सागर / सादो तक फैली है / नभ गंगा
***
सहायक पुस्तक: जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता, डा० सत्यभूषण वर्मा, पृष्ठ ५५-५६
***
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ई मेल salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष: ९४२५१८३२४४ ।

नवगीत

नवगीत :
समारोह है 
*
समारोह है 
सभागार में। 
*
ख़ास-ख़ास आसंदी पर हैं,
खासुलखास मंच पर बैठे।
आयोजक-संचालक गर्वित-
ज्यों कौओं में बगुले ऐंठे।
करतल ध्वनि,
चित्रों-खबरों में
रूचि सबकी है
निज प्रचार में।
*
कुशल-निपुण अभियंता आए,
छाती ताने, शीश उठाए।
गुणवत्ता बिन कार्य हो रहे,
इन्हें न मतलब, आँख चुराए।
नीति-दिशा क्या सरकारों की?
क्या हो?, बात न
है विचार में।
*
मस्ती-मौज इष्ट है यारों,
चुनौतियों से भागो प्यारों।
पाया-भोगो, हँसो-हँसाओ-
वंचित को बिसराओ, हारो।
जो होता है, वह होने दो।
तनिक न रूचि
रखना सुधार में।
***
#हिंदी_ब्लॉगिंग

लघुकथा अकेले

लघुकथा 
अकेले 
*
'बिचारी को अकेले ही सारी जिंदगी गुजारनी पड़ी।' 
'हाँ री! बेचारी का दुर्भाग्य कि उसके पति ने भी साथ नहीं दिया।'
'ईश्वर ऐसा पति किसी को न दे।'
दिवंगता के अन्तिम दर्शन कर उनके सहयोगी अपनी भावनाएँ व्यक्त कर रहे थे।
'क्यों क्या आप उनके साथ नहीं थीं? हर दिन आप सब सामाजिक गतिविधियाँ करती थीं। जबसे उनहोंने बिस्तर पकड़ा, आप लोगों ने मुड़कर नहीं देखा।
उन्होंने स्वेच्छा से पारिवारिक जीवन पर सामाजिक कार्यक्रमों को वरीयता दी। पिता जी असहमत होते हुए भी कभी बाधक नहीं हुए, उनकी जिम्मेदारी पिताजी ने निभायी। हम बच्चों को पिता के अनुशासन के साथ-साथ माँ की ममता भी दी। तभी माँ हमारी ओर से निश्चिन्त थीं। पिताजी बिना बताये माँ की हर गतिविधि में सहयोग करते रहेऔर आप लोग बिना सत्य जानें उनकी निंदा कर रही हैं।' बेटे ने उग्र स्वर में कहा।
'शांत रहो भैया! ये महिला विमर्श के नाम पर राजनैतिक रोटियाँ सेंकने वाले प्यार, समर्पण और बलिदान क्या जानें? रोज कसमें खाते थे अंतिम दम तक साथ रहेंगे, संघर्ष करेंगे लेकिन जैसे ही माँ से आर्थिक मदद मिलना बंद हुई, उन्हें भुला दिया। '
'इन्हें क्या पता कि अलग होने के बाद भी पापा के पर्स में हमेश माँ का चित्र रहा और माँ के बटुए में पापा का। अपनी गलतियों के लिए माँ लज्जित न हों इसलिए पिता जी खुद नहीं आये पर माँ की बीमारी की खबर मिलते ही हमें भेजा कि दवा-इलाज में कोइ कसर ना रहे।' बेटी ने सहयोगियों को बाहर ले जाते हुए कहा 'माँ-पिताजी पल-पल एक दूसरे के साथ थे और रहेंगे। अब गलती से भी मत कहियेगा कि माँ ने जिंदगी गुजारी अकेले।
***
२-५-२०१७
#hindi_blogging

दोहा यमक

दोहा यमक मिले गले 
तारो! तारोगे किसे, तर न सके खुद आप.
शिव जपते हैं उमा को, उमा भजें शिव नाम.
*
चंद चंद तारों सहित, करे मौन गुणगान
रजनी के सौंदर्य का, जब तक हो न विहान
*
एक दोहा 
जब भी 'मैं' की छूटती, 'हम' की हो अनुभूति.
तब ही 'उस' से मिलन हो, सबकी यही प्रतीति..
७-७-२०१०

दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
पाठक मैं आनंद का, गले मिले आनंद 
बाहों में आनंद हो, श्वास-श्वास मकरंद
*
आनंदित आनंद हो, बाँटे नित आनंद
हाथ पसारे है 'सलिल', सुख दो आनंदकंद!
*
जब गुड्डो दादी बने, अनुशासन भरपूर
जब दादी गुड्डो बने, हो मस्ती में चूर
*
जिया लगा जीवन जिया, रजिया है हर श्वास
भजिया-कोफी ने दिया, बारिश में उल्लास
*
पता लापता जब हुआ, उड़ी पताका खूब
पता न पाया तो पता, पता कर रहा डूब 
***

षट्पदिक कृष्ण-कथा

षट्पदिक कृष्ण-कथा 
देवकी-वसुदेव सुत कारा-प्रगट, गोकुल गया 
नंद-जसुदा लाल, माखन चोर, गिरिधर बन गया
रास-लीला, वेणु-वादन, कंस-वध, जा द्वारिका 
रुक्मिणी हर, द्रौपदी का बन्धु-रक्षक बन गया 
बिन लड़े, रण जीतने हित ज्ञान गीता का दिया
व्याध-शर का वार सह, प्रस्थान धरती से किया
***
(महाभागवतजातीय गीतिका छंद, यति ३-१०-१७-२४, पदांत लघु गुरु)
***

सवैया मुक्तक


एक सवैया मुक्तक 

आसमान पर भा/व आम जनता/ का जीवन कठिन हो रहा 
त्राहिमाम सब ओ/र सँभल शासन, / जनता का धैर्य खो रहा 
पूंजीपतियों! धन / लिप्सा तज भा/व् घटा जन को राहत दो 
पेट भर सके मे/हनतकश भी, र/हे न भूखा, स्वप्न बो रहा

नवगीत धरती की छाती

एक रचना
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
दरक रे मैदान-खेत सब
मुरझा रए खलिहान।
माँगे सीतल पेय भिखारी
ले न रुपया दान।
संझा ने अधरों पे बहिना
लगा रखो है खून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
धोंय, निचोरें सूखें कपरा
पहने गीले होंय।
चलत-चलत कूलर हीटर भओ
पंखें चल-थक रोंय।
आँख मिचौरी खेरे बिजुरी
मलमल लग रओ ऊन।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
गरमा गरम नें कोऊ चाहे
रोएँ चूल्हा-भट्टी।
सब खों लगे तरावट नीकी
पनहा, अमिया खट्टी।
धारें झरें नई नैनन सें
बहें बदन सें दून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
लिखो तजुरबा, पढ़ तरबूजा
चक्कर खांय दिमाग।
मृगनैनी खों लू खें झोंकें
लगे लगा रए आग।
अब नें सरक पे घूमें रसिया
चौक परे रे! सून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
अंधड़ रेत-बगूले घेरे
लगी सहर में आग।
कितै गए पनघट अमराई
कोयल गाए नें राग।
आँखों मिर्ची झौंके मौसम
लगा र ओ रे चून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*


लेख शंभुनाथ सिंह -बुद्धिनाथ मिश्र

स्मृति आलेख -
हिंदी नवगीत प्रवर्तक डॉ. शम्भुनाथ सिंह
डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र
*
हिन्दी नवगीत परंपरा के शीर्ष प्रवर्तक होने के कारण आधुनिक भरत मुनि की प्रतिष्ठा पानेवाले प्रगतिशील कवि डॉ. शम्भुनाथ सिंह का यह शताब्दी वर्ष है | उनके साहित्यिक महत्त्व को सम्मान देते हुए केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने 8 जुलाई को उनकी कर्मभूमि वाराणसी में राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की है,जिसमें देश के अनेक जाने-माने साहित्यकार भाग लेंगे | इसके अलावा देश के विभिन्न नगरों और संस्थानों में शम्भुनाथ शती समारोह मनाने की तैयारी चल रही है | वे ऐसे जुझारू रचनाकार थे,जिन्होने जीवन भर विपरीत परिस्थितियों से लोहा लिया और अपने दम पर हारी हुई बाजी को हमेशा जीत में बदलकर दिखाया। वे परवर्ती पीढ़ियों के संरक्षक भी थे और सहभागी भी। वे एक साथ सृजन की कई दिशाओं पर राज करते थे। वे कवि थे, कहानीकार थे, समीक्षक थे, नाटककार थे, प्राध्यापक थे, पुरातत्वविद थे और आगे बढ़कर, हर किसी की मदद करनेवाले नेक इन्सान थे। इसलिए, आज पूरा हिन्दी जगत उस महान कृती पुरुष के सम्मान में खड़ा है | 
शम्भुनाथ जी ने न केवल नवगीत के स्वरूप और सीमान्त का निर्धारण किया, बल्कि अपने `नवगीत दशकों’ के माध्यम से उन्होंने समकालीन हिंदी कविता में नवगीत को `डीही’ का स्थान दिलाने की पुरजोर कोशिश की,जिससे आज नवगीत विधा विभिन्न विश्वविद्यालयों में शिक्षण और शोध के विषय के रूप में प्रतिष्ठित है | काशी में शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर, उन्होंने जिस समय काव्ययात्रा शुरू की, उस समय काशी साहित्य-सृजन के क्षेत्र में चरमोत्कर्ष पर थी | उसका लाभ डॉक्टर साहब को भी मिला और वे `कुछ कर गुजरने के लिए’ निरंतर सृजनशील रहे |

प्रथम संग्रह `रूपरश्मि’ से `समय की शिला’ के प्रकाशन तक डॉक्टर साहब सही अर्थों में राहों के अन्वेषी थे | इसी मोड़ पर (1969) मैं उनसे मिला था | तबतक उन्होंने नवगीत विधा को शैक्षणिक जगत की उपेक्षा और अवहेलना से उबारने के लिए कमर कस ली थी | उसके बाद उनके जो संग्रह आये, चाहे वह `जहां दर्द नीला है’ हो या `माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ या `वक्त के मीनार पर’,सबमें उन्होंने अपनी अपार सृजन-क्षमता से नवगीत के नए प्रतिमान स्थापित किये |
उनके एक गीत ने हिन्दी काव्यमंचों पर वैश्विक प्रसिद्धि पाई :
समय की शिला पर मधुर चित्र कितने
किसीने बनाये, किसीने मिटाये।
एक और गीत था, जो लोकगीतों की प्रश्नोत्तर शैली में लिखा गया था और जिसे वे उन काव्यमंचों पर जरूर सुनाते थे, जो ग्रामीण शिक्षालयों में होते थे:
टेर रही प्रिया, तुम कहाँ? किसकी यह छाँह और किसके ये गीत रे/ बरगद की छाँह और चैता के गीत रे। सिहर रहा जिया, तुम कहाँ?
लेकिन उनके जिस नवगीत ने एक नया वैज्ञानिक गवाक्ष खोला ,वह था ‘दिग्विजय’:
बादल को बाँहों में भर लो/ एक और अनहोनी कर लो। अंगों में बिजलियाँ लपेटो/ चरणों में दूरियाँ समेटो/ नभ को पदचापों से भर दो/ ओ दिग्विजयी मनु के बेटो! इन्द्रधनुष कंधों पर धर लो /एक और अनहोनी कर लो।
इसी प्रकार का उनका एक और गीत ‘अन्तर्यात्रा’ शीर्षक से है:
टूट गये बन्धन सब टूट गये घेरे/ और कहाँ तक ले जाओगे मन मेरे! छूट गयीं नीचे धरती की दीवारें/आँगन के फूल बने,चाँद और तारे/घुल-मिलकर एक हुए रोशनी-अँधेरे/और कहाँ तक ले जाओगे मन मेरे!
शम्भुनाथ जी मूलतः देवरिया के ग्रामीण परिवार के थे। देवरिया जनपद के रावतपार गाँव में संवत्‌(सन्‌1916) की ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी यानी 17 जून को उनका जन्म हुआ था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. और पीएच.डी. करने के बाद उन्होने कुछ दिनो तक पत्रकारिता भी की थी, मगर जल्द ही वे अपने रचना-कर्म के लिए अनुकूल अध्यापन-कार्य से जुड़ गये और काशी विद्यापीठ में व्याख्याता(1948-59),वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष (1959-70), फिर काशी विद्यापीठ में हिन्दी विभागाध्यक्ष (1970-76) रहने के बाद पाँच वर्षों तक(1975- 80) विद्यापीठ के तुलसी संस्थान के निदेशक रहे। सन्‌से वे विधिवत्‌लिखने लगे थे। 1941 में उनका पहला गीत संग्रह ‘रूप रश्मि’ प्रकाशित हुआ था और दूसरा संग्रह ‘छायालोक’ 1945 में। ये दोनो उनके पारम्परिक गीतों के संग्रह थे। इसके बाद वे नयी कविता के आकर्षण में आये,जिसकी उपज है ‘उदयाचल’(1946) मन्वन्तर (1948),माध्यम मैं और खण्डित सेतु|

`खण्डित सेतु’ मात्र एक टूटा हुआ पुल नहीं था, बल्कि नयी कविता के पक्षधर समीक्षकों की गोलैसी के कारण मुक्तछन्द कविता में अपनी पहचान न बना पाने के कारण शम्भुनाथ जी का खण्डित विश्वास भी था,जिसने उन्हें फिर से गीतों की ओर मुड़ने को बाध्य किया। उसके बाद उनके दो नवगीत संग्रह ‘समय की शिला पर’(1968) और ‘जहाँ दर्द नीला है’(1977)प्रकाशित हुए,जिनमें उनके नये तेवर के गीत संकलित हैं| परवर्ती काल में उनके दो और संग्रह आये-‘वक्त की मीनार पर'(1986) और `माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः'(1991) जो हिन्दी नवगीत के प्रतिमान बने। प्रारम्भिक दौर में उनके दो कहानी संग्रह ‘रातरानी’(1946) और ‘विद्रोह’(1948) भी छपे थे,लेकिन कवि के अतिरिक्त जिस सर्जनात्मक विधा ने उन्हें विशेष प्रतिष्ठा , वह थी नाट्य-विधा। उनके नव नाटक ‘धरती और आकाश’(1950) और ‘अकेला शहर’ (1975) को हिन्दी के प्रतिनिधि नाटकों में रखा जा सकता है। काशी की प्रतिष्ठित नाट्य संस्था ‘श्रीनाट्यम’ ने जब ‘अकेला शहर’ को नगर में मंचित किया,तो उसमें एक छोटी-सी भूमिका मेरी भी थी।यदि इन नाटकों की चर्चा हिंदी कक्षाओं में नहीं होती है, तो इसे हिंदी अध्यापकों का जन्मान्धत्व ही माना जाए |
मूलतः हिन्दी का छात्र न होने के कारण काशी के अन्य रचनाकारों की तरह शम्भुनाथ जी से भी मेरा कोई परिचय नहीं था। सन्‌में अंग्रेजी से एम.ए. करने के बाद मैं कविगोष्ठियों में जाने लगा था और दो-एक कविगोष्ठी से ही मुझे वह पहचान मिल गयी थी,जो अन्य कवियों को वर्षों बाद भी नसीब नहीं होती। ऐसी ही एक मराठियों के गणेशोत्सव वाली गोष्ठी में शम्भुनाथ जी ने मेरा गीत ‘नाच गुजरिया नाच! कि आयी कजरारी बरसात री’ सुनी,तो मुझे बहुत प्यार से रिक्शे पर बैठाकर अपने घर ले गये और रास्ते भर मुझे पारम्परिक गीत और नवगीत में अन्तर बताते हुए नवगीत लिखने के लिए प्रेरित करते रहे।
मैं मिश्र पोखरा मुहाल में रहता था,जो उनके सोनिया स्थित घर के पास ही था; और मेरे पास कोई खास काम भी नहीं था,इसलिए मैं अक्सर उनके घर जाने लगा और उस परिवार में ऐसा शामिल हुआ कि डॉक्टर साहब कभी-कभी व्यंग्य भी कर देते थे कि ‘तुम पूर्व जन्म में जरूर चूहा रहे होगे’। जैसे चूहा रसोई घर के कोना –कोना छान मारता है, वैसे ही मैं भी सीधे रसोई घर तक जाकर गृहस्वामिनी से, जिन्हें मैं ‘सन्तोषी माता’ कहा करता था, कुछ न कुछ खाद्य पदार्थ प्राप्त कर लेता था। उनके तीनो बेटे और दोनो बेटियों से मेरी जो प्रगाढ़ आत्मीयता बन गयी थी, वह आज भी तरोताजा है।
उस परिवार से, मुझसे पूर्व श्रीकृष्ण तिवारी, उमाशंकर तिवारी और मेरे बाद डॉ. सुरेश (व्यथित) भी उसी तरह जुड़े थे। उमाशंकर काशी विद्यापीठ के छात्र थे । छात्र के रूप में ही एक बार उन्होंने उस मंच से एक गीत पढा, जो फिल्मी धुन पर था। डॉक्टर साहब ने उसे रोक दिया। छात्रों ने हंगामा कर दिया,लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। काव्यमंच पर वे किसी प्रकार की अनुशासनहीनता या गन्दगी बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। काश! यही दृढ़ता यदि उस समय के अन्य अग्रणी गीतकारों ने दिखायी होती, तो कविसम्मेलनों की आज इतनी दुर्दशा नहीं होती। उस समय उमाशंकरजी को उन्होने डाँट दिया,मगर बाद में उन्हें अपने घर बुलाकर गीत लिखने की कला सिखाते रहे, जिसके कारण उमाशंकर नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर बन गये। इसी प्रकार ,श्रीकृष्ण तिवारी को भी उन्होने हाथ पकड़कर नवगीत लिखना सिखाया। मैं गंडा बँधवाकर उनका शिष्य तो नहीं बन सका, लेकिन उनकी दिवालोक में अपना पथ निर्माण करने में मुझे भरपूर सम्बल मिला था।
उन्होंने मूर्तिकला की कोई शिक्षा नहीं पाई थी,मगर काशी में राय कृष्णदास के बाद मूर्तिकला के वही विशेषज्ञ थे | उन्होंने मिर्जापुर के वनांचलों से अनेक दुर्लभ मूर्तियों का उद्धारकर पहले अपने घर पर,बाद में काशी विद्यापीठ में उन्हें संग्रहालय का अंग बनाया |
धारा के विरुद्ध चलकर,नवगीत विधा को प्रतिष्ठित करने में उन्होने जीवन के अन्तिम चरण में जो अहर्निश संघर्ष किया, वह स्वतन्त्रता सेनानी बाबू कुँवर सिंह के बलिदान की याद दिलाता है। 1980 के दशक में उन्होने अज्ञेय-सम्पादित ‘सप्तकों’ के जवाब में न केवल तीन खण्डों में ‘नवगीत दशक’ (पराग प्रकाशन,दिल्ली) निकाले, बल्कि हर खण्ड में लम्बी भूमिका लिखकर नवगीत की परती जमीन को नयी फसल के लिए तैयार किया। इतना ही नहीं, इन ‘दशकों’ के प्रचार-प्रसार के लिए नगर-नगर में उन्होने, अपने सम्बन्धों का उपयोग करते हुए, ऐतिहासिक आयोजन भी किये, जिनमें दिल्ली में तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के आवास पर हुई काव्यगोष्ठी चिरस्मरणीय है। 3 सितम्बर 1991 को उनके निधन से नवगीत की वह विजय-यात्रा एक प्रकार से थम-सी गयी,क्योंकि उनके बाद रथ पर चढ़नेवाले तो बहुत थे, मगर रथ में जुतनेवाला कोई नहीं। तथापि, उन्होंने जो नवगीत की अमराई लगायी है,वह अच्छी तरह फल-फूल रही है और हर साल नयी कलमें पुराने बीजू वृक्षों का स्थान ले रही हैं |
आज शताब्दी वर्ष में उनकी ही गीत-पंक्तियों से उन्हें नमन करता हूँ:
मैं वह पतझर,जिसके ऊपर से/धूल भरी आँधियाँ गुजर गयी/दिन का खँडहर जिसके माथे पर/अँधियारी साँझ-सी ठहर गयी/जीवन का साथ छुटा जा रहा/ पुरवैया धीरे बहो। मन का आकाश उड़ा जा रहा/ पुरवैया धीरे बहो।
डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र

देवधा हाउस,गली-5, वसन्त विहार एन्क्लेव, देहरादून-248006
मो.-9412992244 buddhinathji@yahoo.co.in

साभार सृजनगाथा


भोजपुरी हाइकु

भोजपुरी हाइकु: संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पावन भूमि / भारत देसवा के / प्रेरण-स्रोत.
भुला दिहिल / बटोहिया गीत के / हम कृतघ्न.
देश-उत्थान? / आपन अवदान? / खुद से पूछ.
अंगरेजी के / गुलामी के जंजीर / साँच साबित.
सुख के धूप / सँग-सँग मिलल / दुःख के छाँव.
नेह अबीर / जे के मस्तक पर / वही अमीर.
अँखिया खोली / हो गइल अंजोर / माथे बिंदिया.
भोर चिरैया / कानन में मिसरी / घोल गइल.
काहे उदास? / हिम्मत मत हार / करल प्रयास.
*

बुधवार, 10 जुलाई 2019

कार्यशाला : दोहा - कुण्डलिया

कार्यशाला : दोहा - कुण्डलिया
*
अपना तो कुछ है नहीं,सब हैं माया जाल। 
धन दौलत की चाह में,रूचि न सुख की दाल।।  -शशि पुरवार 
रुची न सुख की दाल, विधाता दे पछताया।
मूर्ख मनुज क्या हितकर यह पहचान न पाया।।
सत्य देख मुँह फेर, देखता मिथ्या सपना।

चाह न सुख संतोष, मानता धन को नपना।।  संजीव 'सलिल'

*
कुण्डलिया के विविध अंत: 

पहली पंक्ति का उलट फेर 


सब हैं माया जाल, नहीं है कुछ भी अपना

एक चरण 

सत्य देख मुख फेर, दुःख पाता फिर-फिर वहीं 

कहते ऋषि मुनि संत, अपना तो कुछ है नहीं 

शब्द समूह 

सत्य देख मुख फेर, सदा माला जपना तो 

बनता अपना जगत, नहीं कुछ भी अपना तो 

एक शब्द

देता धोखा वही, बन रहा है जो अपना 

एक अक्षर 

खाता धोखा देख, अहर्निश मूरख सपना 

एक मात्रा 

रो-पछताता वही, नहीं जो जाग सम्हलता

*

द्विपदी

द्विपदी:
करें शिकवे-शिकायत आप-हम दिन-रात अपनों से 
कभी गैरों से कोई बात मन की कह नहीं सकता.

गुरु पर दोहे

: विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर :
गुरु पूर्णिमा पर दोहोपहार 
*
दर्शन को बेज़ार हूँ, अर्पित करूँ प्रणाम 
सिखा रहे गुरु ज्ञात कुछ, कुछ अज्ञात-अनाम
*

नहीं रमा का, दिलों पर, है रमेश का राज।
दौड़े तेवरी कार पर, पहने ताली ताज।।
*
आ दिनेश संग चंद्र जब, छू लेता आकाश।
धूप चाँदनी हों भ्रमित, किसको बाँधे पाश।।
*
श्री वास्तव में साथ ले, तम हरता आलोक।
पैर जमाकर धरा पर, नभ हाथों पर रोक।।
*
चन्द्र कांता खोजता, कांति सूर्य के साथ।
अग्नि होत्री सितारे, करते दो दो हाथ।।
*
देख अरुण शर्मा उषा, हुई शर्म से लाल।
आसमान के गाल पर, जैसे लगा गुलाल।।
*
खिल बसन्त में मंजरी, देती है पैगाम।
देख आम में खास तू, भला करेंगे राम।।
*
जो दे सबको प्रेरणा, उसका जीवन धन्य।
गुप्त रहे या हो प्रगट, है अवदान अनन्य।।
*
जो दे सबको प्रेरणा, उसका जीवन धन्य।
गुप्त रहे या हो प्रगट, है अवदान अनन्य।।
*
वही पूर्णिमा निरूपमा, जो दे जग उजियार।
चंदा तारे नभ धरा, उस पर हों बलिहार।।
*
प्रभा लाल लख उषा की, अनिल रहा है झूम।
भोर सुहानी क्यों हुई, किसको है मालूम?
*
श्वास सुनीता हो सदा, आस रहे शालीन।
प्यास पुनीता हो अगर, त्रास न कर दे दीन।।
*
भाव अल्पना डालिए, कर कल्पना नवीन।
शब्दों का ऐपन सरस, बिम्ब-प्रतीक नवीन।।
*
हीरा लाल न जोड़ते, लखे नेह अनिमेष।
रहे विनीता मनीषा, मन मोहे मिथलेश।।
*
जिया न रज़िया बिन लगे,बेकल बहुत दिनेश।
उषा दुपहरी साँझ की, आभा शेष अशेष।।
*
कांता-कांति न घट सके, साक्षी अरुण-उजास।
जय प्रकाश की हो सदा, वर दे इंद्र हुलास ।।
*

समीक्षा 'काल है संक्रांति का' डॉ. रोहिताश्व अस्थाना

पुस्तक समीक्षा 
आधुनिक समय का प्रमाणिक दस्तावेज 'काल है संक्रांति का' 
समीक्षक- डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, हरदोई 
*

गीत संवेदनशील हृदय की कोमलतम, मार्मिक एवं सूक्ष्मतम अभिव्यक्तियों की गेयात्मक, रागात्मक एवं संप्रेषणीय अभिव्यक्ति का नाम है। गीत में प्रायः व्यष्टिवदी एवं नवगीत में समष्टिवादी स्वर प्रमुख होता है। गीत के ही शिल्प में नवगीत के अंतर्गत नई उपमाओं, एवं टटके बिंबों के सहारे दुनिया जहान की बातों को अप्रतिम प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। छन्दानुशासन में बँधे रहने के कारण गीत शाश्वत एवं सनातन विधा के रूप में प्रचलित रहा है किंतु प्रयोगवादी काव्यधारा के अति नीरस स्वरूप के विद्रोह स्वरूप नवगीत, ग़ज़ल, दोहा जैसी काव्य विधाओं का प्रचलन आरम्भ हुआ।
अभी हाल में भाई हरिशंकर सक्सेना कृत 'प्रखर संवाद', सत्येंद्र तिवारी कृत 'मनचाहा आकाश' तथा यश मालवीय कृत 'समय लकड़हारा' नवगीत के श्रेष्ठ संकलनों के रूप में प्रकाशित एवं चर्चित हुए हैं। इसी क्रम में समीक्ष्य कृति 'काल है संक्रांति का' भाई आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के गीतों और नवगीतों की उल्लेखनीय प्रस्तुति है। सलिल जी समय की नब्ज़ टटोलने की क्षमता रखते हैं। वस्तुत: यह संक्रांति का ही काल है। आज सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में टूटने एवं बिखरने तथा उनके स्थान पर नवीन मूल्यों की प्रतिस्थापना का क्रम जारी है। कवि ने कृति के शीर्षक में इन परिस्थितियों का सटीक रेखांकन करते हुए कहा है- "काल है संक्रांति / तुम मत थको सूरज / प्राच्य पर पाश्चात्य का / चढ़ गया है रंग / शराफत को शरारत / नित का कर रही है तंग / मनुज-करनी देखकर खुद नियति भी है दंग' इसी क्रम में सूरज को सम्बोधित कई अन्य गीत-नवगीत उल्लेखनीय हैं।
कवि सत्य की महिमा के प्रति आस्था जाग्रत करते हुए कहता है-
''तक़दीर से मत हों गिले 
तदबीर से जय हों किले 
मरुभूमि से जल भी मिले
तन ही नहीं, मन भी खिले 
करना सदा- वह जो सही।''

इतना ही नहीं कवि ने सामाजिक एवं आर्थिक विसंगति में जी रहे आम आदमी का जीवंत चित्र खींचते हुए कहा है-
"मिली दिहाड़ी 
चल बाजार। 
चवल-दाल किलो भर ले ले,
दस रुपये की भाजी। 
घासलेट का तेल लिटर भर 
धनिया मिर्ची ताज़ी।"

सचमुच रोज कुआं खोदकर पानी पीनेवालों की दशा अति दयनीय है। इसी विषय पर 'राम बचाये' शीर्षक नवगीत की निम्न पंक्तियाँ भी दृष्टव्य है -
"राम-रहीम बीनते कूड़ा 
रजिया-रधिया झाड़ू थामे 
सड़क किनारे बैठे लोटे 
बतलाते कितने विपन्न हम ?"

हमारी नयी पीढ़ी पाश्चात्य सभ्यता के दुष्प्रभाव में अपने लोक जीवन को भी भूलती जा रही है। कम शब्दों में संकेतों के माध्यम से गहरे बातें कहने में कुशल कवि हर युवा के हाथ में हर समय दिखेत चलभाष (मोबाइल) को अपसंस्कृति का प्रतीक बनाकर एक और तो जमीन से दूर होने पर चिंतित होते हैं, दूसरी और भटक जाने की आशंका से व्यथित भी हैं-
" हाथों में मोबाइल थामे 
गीध-दृष्टि पगडण्डी भूली,
भटक न जाए। 
राज मार्ग पर जाम लगा है 
कूचे-गली हुए हैं सूने। 
ओवन-पिज्जा का युग निर्दय
भटा कौन चूल्हे में भूने ?"

सलिल जी ने अपने कुछ नवगीतों में राजनैतिक प्रदूषण के शब्द-चित्र कमाल के खींचे हैं। वे विविध बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से बहुत कुछ ऐसा कह जाते हैं जो आम-ख़ास हर पाठक के मर्म को स्पर्श करता है और सोचने के लिए विवश भी करता है-
"लोकतंत्र का पंछी बेबस 
नेता पहले दाना डालें 
फिर लेते पर नोच। 
अफसर रिश्वत-गोली मारें
करें न किंचित सोच।"

अथवा 
"बातें बड़ी-बड़ी करते हैं,
मनमानी का पथ वरते हैं। 
बना-तोड़ते संविधान खुद 
दोष दूसरों पर धरते हैं।"

इसी प्रकार कवि के कुछ नवगीतों में छोटी-छोटी पंक्तियाँ उद्धरणीय बन पड़ी हैं। जरा देखिये- "वह जो खासों में खास है / रूपया जिसके पास है। ", "तुम बंदूक चलो तो / हम मिलकर कलम चलायेंगे। ", लेटा हूँ मखमल गादी पर / लेकिन नींद नहीं आती है। ", वेश संत का / मन शैतान। ", "अंध श्रृद्धा शाप है / बुद्धि तजना पाप है। ", "खुशियों की मछली को। / चिंता बगुला / खा जाता है। ", कब होंगे आज़ाद? / कहो हम / कब होंगे आज़ाद?" आदि।
अच्छे दिन आने की आशा में बैठे दीन-हीन जनों को सांत्वना देते हुए कवि कहता है- "उम्मीदों की फसल / उगाना बाकी है 
अच्छे दिन नारों-वादों से कब आते हैं ?
कहें बुरे दिन मुनादियों से कब जाते हैं??"

इसी प्रकार एक अन्य नवगीत में कवि द्वारा प्रयुक्त टटके प्रतीकों एवं बिम्बों का उल्लेख आवश्यक है- 
"खों-खों करते / बादल बब्बा 
तापें सूरज सिगड़ी। 
पछुआ अम्मा / बड़बड़ करतीं 
डाँट लगातीं तगड़ी।"

निष्कर्षत: कृति के सभी गीत-नवगीत एक से बरहकर एक सुन्दर, सरस, भाव-प्रवण एवं नवीनता से परिपूर्ण हैं। इन सभी रचनाओं के कथ्य का कैनवास अत्यन्त ही विस्तृत और व्यापक है। यह सभी रचनाएँ छन्दों के अनुशासन में आबद्ध और शिल्प के निकष पर सौ टंच खरी उतरने वाली हैं।
कविता के नाम पर अतुकांत और व्याकरणविहीन गद्य सामग्री परोसनेवाली प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं को प्रस्तुत कृति आइना दिखने में समर्थ है। कुल मिलाकर प्रस्तुत कृति पठनीय ही नहीं अपितु चिन्तनीय और संग्रहणीय भी है। इस क्षेत्र में कवि से ऐसी ही सार्थक, युगबोधक परक और मन को छूनेवाली कृतियों की आशा की सकती है। 
***
[पुस्तक परिचय - काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ म. प्र., प्रकाशन वर्ष २०१६,मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैंक २००/-, चलभाष ९४२५१८३२४४]
समीक्षक- डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, निकट बावन चुंगी चौराहा, हरदोई २४१००१ उ. प्र. दूरभाष ०५८५२ २३२३९२। 
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समीक्षा- काल है संक्रांति का डाॅ. अंसार क़म्बरी

पुस्तक समीक्षा -
नव आयामी नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का'
डाॅ. अंसार क़म्बरी
*

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी का गीत-नवगीत संग्रह ‘‘काल है संक्रांति का’’ प्राप्त कर हार्दिक प्रसन्नता हुई। गीत हिन्दी काव्य की प्रभावी एवं सशक्त विधा है । इस विधा में कवि अपनी उत्कृष्ट अनुभूति एवं उन्नत अभिव्यक्ति व्दारा काव्य का ऐसा उदात्त रूप प्रस्तुत करता है जिसके अंतर्गत तत्कालीन, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों को साकार करते हुये मानव-मनोवृृत्तियों की अनेक प्रतिमायें (बिम्ब)चित्रित करता है। आत्मनिरीक्षण और शुक्ताचरण की प्रेरणा देते हुये कविवर आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है तथा नवगीत को नए आयाम दिए हैं।
इधर समकालीन कवियों ने भी विचार बोझिल गद्य-कविता की शुष्कता से मुक्ति के लिये गीत एवं नवगीत मात्रिक छंद को अपनाना श्रेष्ठकर समझा है, जैसा कि सलिल जी ने प्रस्तुत संग्रह में बड़ी सफलता से प्रस्तुत किया हैं। प्रस्तुत संग्रह में उनकी भाषा भाव-सम्प्रेषण में कहीं अटकती नहीं है। उन्होंने आम बोलचाल के शब्दों को धड़ल्ले से प्रयोग करते हुये आंचलिक भाषा का भी समावेश किया है जो उनके गीतों का प्राण है। उनके गीत नवीन विषयों को स्वयम् में समाहित करने के उपरान्त अपनी अनुशासनबध्दता यथा- आत्माभिव्यंजकता, भाव-प्रवणता, लयात्मकता, गेयता, मधुरता एवं सम्प्रेषणीयता आदि प्रमुख तत्वों से सम्पूरित हैं अर्थात उन्होंने हिन्दी-गीत की निरंतर प्रगतिशील बहुभावीय परम्परा एवं नवीनतम विचारों के साथ गतिमान होने के बावजूद गीति-काव्य की सर्वांगीणता को पूर्णरुपेण समन्वित किया है।
'काल है संक्रान्ति का' में नवगीतकार ने प्रत्येक गीत को एक शीर्षक दिया है जो कथ्य तक पहुँचने में सहायक होता है। आचार्य जी, चित्रगुप्त प्रभु एवं वीणापाणि के चरणों में बैठकर रचनाधर्मिता, जीवंतता तथा युगापेक्षी सारस्वत साधनारत समर्थ प्रतीक रस सिध्द कवि हैं। वंदन करते हुये वो अपनी लेखनी से विनती करते हैं:
शरणागत हम
चित्रगुप्त प्रभु !
हाथ पसारे आये।
अनहद, अक्षय, अजर, अमर हे !
अमित, अभय, अविजित, अविनाशी
निराकार-साकार तुम्हीं हो
निर्गुण-सगुण देव आकाशी।
पथ-पग, लक्ष्य, विजय-यश तुम हो
तुम मत-मतदाता प्रत्याशी।
तिमिर मिटाने
अरुणागत हम
व्दार तिहारे आये।
$ः$ः$ः
माॅै वीणापाणि को - स्तवन
सरस्वती शारद ब्रम्हाणी।
जय-जय वीणापाणी।।
अमल-धवन शुचि, विमल सनातन मैया।
बुध्दि-ज्ञान-विज्ञान प्रदायिनी छैंया।
तिमिरहारिणी, भयनिवारिणी सुखदा,
नाद-ताल, गति-यति खेलें तब कैंया।
अनहद सुनवा दो कल्याणी।
जय-जय वीणापाणी।।
उनके नवीन गीत-सृजन समसामयिक चेतना की अनुभूति एवं अभिव्यक्ति से संपन्न हैं किंतु वे प्रारम्भ में पुरखों को स्मरण करते हुए कहते है। यथा:
सुमिर लें पुरखों को हम
आओ ! करें प्रणाम।
काया-माया-छायाधारी
जिन्हें जपें विधि-हरि-त्रिपुरारी
सुर, नर, वानर, नाग, द्रविण, मय
राजा-प्रजा, पुरुष-शिशु-नारी
मूर्त-अमूर्त, अजन्मा-जन्मा
मति दो करें सुनाम।
आओ! करें प्रणाम।
पुस्तक शीर्षक को सार्थकता प्रदान करते हुये ‘संक्रांति काल है’ रचना में जनमानस को कवि झकझोरते हुये जगा रहा है। यथा:
संक्रांति काल है
जगो, उठो
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आॅैखें रहते भी हो सूर
संसद हो चैपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर।
अब भ्रांति टाल दो
जगो, उठो।
उक्त भावों को शब्द देते हुये कवि ने सूरज के माध्यम से कई रचनाएँ दी हैं जैसे - उठो सूरज, हे साल नये, जगो सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे, सूरज बबुआ, छुएँ सूरज आदि - यथा:
आओ भी सूरज।
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ।
गाओ भी सूरज।
$ः$ः$ः$ः$ः
उग रहे या ढल रहे तुम
क्रान्त प्रतिपल रहे तुम ।
उगना नित
हँस सूरज।
धरती पर रखना पग
जलना नित, बुझना मत।
उनके गीत जीवन में आये उतार-चढ़ाव, भटकाव-ठहराव, देश और समाज के बदलते रंगों के विस्तृत व विश्वसनीय भावों को उकेरते हुये परिलक्षित होते हैं। इस बात की पुष्टि के लिये पुस्तक में संग्रहीत उनके गीतों के कुछ मुखड़े दे रहा हूँ। यथा:
तुम बंदूक चलाओ तो
हम मिलकर
क़लम चलायेंगे।
$ः$ः$ः$ः
अधर पर धर अधर छिप
नवगीत का मुखड़ा कहा।
$ः$ः$ः$ः
कल के गैर
आज हैं अपने।
$ः$ः$ः$ः
कल का अपना
आज गैर है।
$ः$ः$ः$
काम तमाम, तमाम का
करतीं निश-दिन आप।
मम्मी, मैया, माॅै, महतारी
करुॅै आपका जाप।
अंत में इतना ही कह सकता हूॅै कि आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ आदर्शवादी संचेतना के कवि हैं लेकिन यथार्थ की अभिव्यक्ति करने में भी संकोच नहीं करते। अपने गीतों में उन्होंने भारतीय परिवेश की पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि विसंगतियों को सटीक रूप में चित्रित किया है। निस्संदेह, उनका काव्य-कौशल सराहनीय एवं प्रशंसनीय है। उनके गीतों में उनका समग्र व्यक्तित्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। निश्चित ही उनका प्रस्तुत गीत-नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ साहित्य संसार में सराहा जायेगा। मैं उन्हें कोटिशः बधाई एवं शुभकामनाएँ देता हूॅै और ईश्वर से प्रार्थना करता हूॅै कि वे निरंतर स्वस्थ व सानंद रहते हुए चिरायु हों और माँ सरस्वती की ऐसे ही समर्पित भाव से सेवा करते रहें।
**********
संपर्क - ज़फ़र मंज़िल’, 11/116, ग्वालटोली, कानपुर-208001, चलभाष 9450938629

हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका

हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका 
[रौद्राक जातीय, मोहन छंद, ५,६,६,६]
*
''दिलों के / मेल कहाँ / रोज़-रोज़ / होते हैं''
मिलन के / ख़्वाब हसीं / हमीं रोज़ / बोते हैं 
*
बदन को / देख-देख / हो गये फि/दा लेकिन
न मन को / देख सके / सोच रोज़ / रोते हैं
*
न पढ़ अधि/क, ले समझ/-सोच कभी /तो थोड़ा
ना समझ / अर्थ राम / कहें रोज़ / तोते हैं
*
अटक जो / कदम गए / बढ़ें तो मि/ले मंज़िल
सफल वो / जो न धैर्य / 'सलिल' रोज़ / खोते हैं
*
'सलिल' न क/रिए रोक / टोक है स/फर बाकी
करम का / बोझ मौन / काँध रोज़ / ढोते हैं
***

बेटी पचीसा

बेटी पचीसा

(बेटी पर २५ दोहे)
*
सपना है; अरमान है, बेटी घर का गर्व।
बिखरा निर्झर सी हँसी, दुख हर लेती सर्व।।
*
बेटी है प्रभु की कृपा, प्रकृति का उपहार।
दिल की धड़कन सरीखी, करे वंश-उद्धार।।
*
लिए रुदन में छंद वह, मधुर हँसी में गीत।
मृदुल-मृदुल मुस्कान में, लुटा रही संगीत।।
*
नन्हें कर-पग हिलाकर, मुट्ठी रखती बंद।
टुकुर-टुकुर जग देखती, दे स्वर्गिक आनंद।।
*
छुई-मुई चंपा-कली, निर्मल श्वेत कपास।
हर उपमा फीकी पड़े, दे न सके आभास।।
*
पूजा की घंटी-ध्वनि, जैसे पहले बोल।
छेड़े तार सितार के, कानों में रस घोल।।
*
बैठ पिता के काँध पर, ताक रही आकाश।
ऐंठ न; बाँधूगी तुझे, निज बाँहों के पाश।।
*
अँगुली थामी चल पड़ी, बेटी ले विश्वास।
गिर-उठ फिर-फिर पग धरे, होगा सफल प्रयास।।
*
बेटी-बेटा से बढ़े, जनक-जननि का वंश।
एक वृक्ष के दो कुसुम, दोनों में तरु-अंश।।
*
बेटा-बेटी दो नयन, दोनों कर; दो पैर।
माना नहीं समान तो, रहे न जग की खैर।।
*
गाइड हो-कर हो सके, बेटी सबसे श्रेष्ठ।
कैडेट हो या कमांडर, करें प्रशंसा ज्येष्ठ।।
*
छुम-छुम-छन पायल बजी, स्वेद-बिंदु से सींच।
बेटी कत्थक कर हँसी, भरतनाट्यम् भींच।।
*
बेटी मुख-पोथी पढ़े, बिना कहे ले जान।
दादी-बब्बा असीसें, 'है सद्गुण की खान'।।
*
दादी नानी माँ बुआ, मौसी चाची सँग।
मामी दीदी सखी हैं, बिटिया के ही रंग।।
*
बेटी से घर; घर बने, बेटी बिना मकान।
बेटी बिन बेजान घर, बेटी घर की जान।।
*
बेटी से किस्मत खुले, खुल जाती तकदीर।
बेटी पाने के लिए, बनते सभी फकीर।।
*
बेटी-बेटे में 'सलिल', कभी न करिए फर्क।
ऊँच-नीच जो कर रहे, वे जाएँगे नर्क।।
*
बेटी बिन निर्जीव जग, बेटी पा संजीव।
नेह-नर्मदा में खिले, बेटी बन राजीव।।
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सुषमा; आशा-किरण है, बेटी पुष्पा बाग़।
शांति; कांति है; क्रांति भी, बेटी सर की पाग।।
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ऊषा संध्या निशा ऋतु, धरती दिशा सुगंध।
बेटी पूनम चाँदनी, श्वास-आस संबंध।।
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श्रृद्धा निष्ठा अपेक्षा, कृपा दया की नीति।
परंपरा उन्नति प्रगति, बेटी जीवन-रीति।।
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ईश अर्चना वंदना, भजन प्रार्थना प्रीति।
शक्ति-भक्ति अनुरक्ति है, बेटी अभय अभीति।।
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धरती पर पग जमाकर, छूती है आकाश।
शारद रमा उमा यही, करे अनय का नाश।।
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दीपक बाती स्नेह यह, ज्योति उजास अनंत।
बेटी-बेटा संग मिल, जीतें दिशा-दिगंत।।
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१०.७.२०१८, ७९९९५५९६१८