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शनिवार, 30 मार्च 2019

चिंतन : संतान बनो


चिंतन :
संतान बनो
*
इसरो के वैग्यानिकों ने देश के बाहरी शत्रुओं की मिसाइलों, प्रक्षेपास्त्रों व अंतरिक्षीय अड्डों को नष्ट करने की क्षमता का सफल क्रियान्वयन कर हम सबको 'शक्ति की भक्ति' का पाठ पढ़ाया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि देश बाहरी शत्रुओं से बहादुर सेना और सुयोग्य वैग्यानिकों की दम पर निपट सकता है। मेरा कवि यह मानते हुए भी 'जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि' तथा 'सम्हल के रहना अपने घर में छिपे हुए गद्दारों से' की घुटी में मिली सीख भूल नहीं पाता। 
लोकतंत्र के भीतरी दुश्मन कौन और कहाँ हैं, कब-कैसे हमला करेंगे, उनसे बचाव कौन-कैसे करेगा जैसे प्रश्नों के उत्तर चाहिए?
सचमुच चाहिए या नेताओं के दिखावटी देशप्रेम की तरह चुनावी वातावरण में उत्तर चाहने का दिखावा कर रहे हो? 
सचमुच चाहिए 
तुम कहते हो तो मान लेता हूँ कि लोकतंत्र के भीतरी शत्रुओं को जानना और उनसे लोकतंत्र को बचाना चाहते हो। इसके लिए थोड़ा कष्ट करना होगा।
घबड़ाओ मत, न तो अपनी या औलाद की जान संकट में डालना है, न धन-संपत्ति में से कुछ खर्च करना है। 
फिर? 
फिर... करना यह है कि आइने के सामने खड़ा होना है।
खड़े हो गए? अब ध्यान से देखो। कुछ दिखा? 
नहीं? 
ऐसा हो ही नहीं सकता कि तुम आइने के सामने हो और कुछ न दिखे। झिझको मत, जो दिख रहा है बताओ।
तुम खुद... ठीक है, आइना तो अपनी ओर से कुछ जोड़ता-घटाता नहीं है, सामने तुम खड़े हो तो तुम ही दिखोगे।
तुम्हें अपने प्रश्नों के उत्तर मिला? 
नहीं?, यह तो हो ही नहीं सकता, आईना तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर ही दिखा रहा है।
चौंक क्यों रहे हो? हमारे लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा और उस खतरे से बचाव का एकमात्र उपाय दोनों तुम ही हो।
कैसे? 
बताता हूँ। तुम कौन हो? 
आदमी
वह तो जानता हूँ पर इसके अलावा...
बेटा, भाई, मित्र, पति, दामाद, जीजा, कर्मचारी, व्यापारी, इस या उस धर्म-पंथ-गुरु या राजनैतिक दल या नेता के अनुयायी...
हाँ यह सब भी हो लेकिन इसके अलावा?
याद नहीं आ रहा तो मैं ही याद दिला देता हूँ। याद दिलाना बहुत जरूरी है क्योंकि वहीं समस्या और समाधान है। 
जो सबसे पहले याद आना चाहिए और अंत तक याद नहीं आया वह यह कि तुम, मैं, हम सब और हममें से हर एक 'संतान' है। 'संतान होना' और 'पुत्र होना' शब्द कोश में एक होते हुए भी, एक नहीं है। 
'पुत्र' होना तुम्हें पिता-माता पर आश्रित बनाता है, वंश परंपरा के खूँटे से बाँधता है, परिवार पोषण के ताँगे में जोतता है, कभी शोषक, कभी शोषित और अंत में भार बनाकर निस्सार कर देता है, फिर भी तुम पिंजरे में बंद तोते की तरह मन हो न हो चुग्गा चुगते रहते हो और अर्थ समझो न समझो राम नाम बोलते रहते हो। 
संतान बनकर तुम अंधकार से प्रकाश पाने में रत भारत माता (देश नहीं, पिता भी नहीं, पाश्चात्य चिंतन देश को पिता कहता है, पौर्वात्य चिंतन माता, दुनिया में केवल एक देश है जिसको माता कहा जाता है, वह है भारत) का संतान होना तुम्हें विशिष्ट बनाता है। 
कैसे?
क्या तुम जानते हो कि देश को विदेशी ताकतों से मुक्त कराने वाले असंख्य आम जन, सर्वस्व त्यागने वाले साधु-सन्यासी और जान हथेली पर लेकर विदेशी शासकों से जूझनेवाले पंथ, दल, भाषा, भूषा, व्यवसाय, धन-संपत्ति, शिक्षा, वाद, विचार आदि का त्याग कर भारत माता की संतान मात्र होकर स्वतंत्रता का बलिवेदी पर हँसते-हँसते शीश समर्पित करते रहे थे?
भारत माँ की संतान ही बहरों को सुनाने के लिए असेंबली में बम फोड़ रही थी, आजाद हिंद फौज बनाकर रणभूमि में जूझ रही थी। 
लोकतंत्र को भीतरी खतरा उन्हीं से है जो संतान नहीं है और खतरा तभी मिलेगा जब हम सब संतान बन जाएँगे। घबरा मत, अब संतान बनने के लिए सिर नहीं कटाना है, जान की बाजी नहीं लगाना है। वह दायित्व तो सेना, वैग्यानिक और अभियंता निभा ही रहे हैं।
अब लोकतंत्र को बचाने के लिए मैं, तुम, हम सब संतान बनकर पंथ, संप्रदाय, दल, विचार, भाषा, भूषा, शिक्षा, क्षेत्र, इष्ट, गुरु, संस्था, आहार, संपत्ति, व्यवसाय आदि विभाजक तत्वों को भूलकर केवल और केवल संतान को नाते लोकहित को देश-हित मानकर साधें-आराधें।
लोकतंत्र की शक्ति लोकमत है जो लोक के चुने हुए नुमाइंदों द्वारा व्यक्त किया जाता है।
यह चुना गया जनप्रतिनिधि संतान है अथवा किसी वाद, विचार, दल, मठ, नेता, पंथ, व्यवसायी का प्रतिनिधि? वह जनसेवा करेगा या सत्ता पाकर जनता को लूटेरा? उसका चरित्र निर्मल है या पंकिल? हर संतान, संतान को ही चुने। संतान उम्मीदवार न हो तो निराश मत हो, 'नोटा' अर्थात इनमें से कोई नहीं तो मत दो। तुम ऐसा कर सके तो राजनैतिक सट्टेबाजों, दलों, चंदा देकर सरकार बनवाने और देश लूटनेवालों का बाजी गड़बडा़कर पलट जाएगी।
यदि नोटा का प्रतिशत ५००० प्रतिशत या अधिक हुआ तो दुबारा चुनाव हो और इस चुनाव में खड़े उम्मीदवारों को आजीवन अयोग्य घोषित किया जाए। 
पिछले प्रादेशिक चुनाव में सब चुनावी पंडितों को मुँह की खानी पड़ी क्योंकि 'नोटा' का अस्त्र आजमाया गया। आयाराम-गयाराम का खेल खेल रहे किसी दलबदलू को कहीं मत न दे, वह किसी भी दल या नेता को नाम पर मत माँगे, उसे हरा दो। अपराधियों, सेठों, अफसरों, पूँजीपतियों को ठुकराओ। उन्हें चुने जो आम मतदाता की औसत आय के बराबर भत्ता लेकर आम मतदाता को बीच उन्हीं की तरह रहने और काम करने को तैयार हो। 
लोकतंत्र को बेमानी कर रहा दलतंत्र ही लोकतंत्र का भीतरी दुश्मन है। नेटा के ब्रम्हास्त्र से- दलतंत्र पर प्रहार करो। दलाधारित चुनाव संवैधानिक बाध्यता नहीं है। संतान बनकर मतदाता दलीय उम्मीदवारों के नकारना लगे और खुद जनसेवी उम्मीदवार खड़े करे जो देश की प्रति व्यक्ति औसत आय से अधिक भत्ता न लेने और सब सुविधाएँ छोड़ने का लिखित वायदा करे, उसे ही अवसर दिया जाए।
संतान को परिणाम की चिंता किए बिना नोटा का ब्रम्हास्त्र चलाना है। सत्तर साल का कुहासा दो-तीन चुनावों में छूटने लगेगा।
आओ! संतान बनो।
*

नवगीत - परिवर्तन

नवगीत - 
परिवर्तन
*
करें भिखारी भीड़ बढ़ाकर 
आरक्षण की माँग 
अगर न दे सरकार तोड़ दें
कानूनों की टाँग
*
पढ़े-लिखे हम, सुख समृद्धि भी
पाई है भरपूर
अकल-अजीर्ण हो गया, सारी
समझ गयी है दूर
स्वार्थ-साधने खापों में
फैसले किये अंधे
रहें न रहने देंगे सुख से
कर गोरखधंधे
अगड़े होकर भी करते हैं
पिछड़ों का सा स्वाँग
*
भूमि, भवन, उद्योग हमारे
किन्तु नहीं है चैन
लूटेंगे बाज़ार, निबल को
मारेंगे दिन-रैन
वाहन जला, उखाड़ पटरियाँ
लज्जा लूटेंगे
आर्तनाद का भोग लगाकर
आहें घूंटेंगे
बात होश की हमें न करना
घुली कुएँ में भाँग
*
मार रहे मरतों को मिलकर
बहुत वीर हैं हम
मातृभूमि की पीड़ा से भी
आँख न होती नम
कोस रहे जन-सरकारों को
पी-पीकर पानी
लाल करेंगे माँ की चूनर
चीर यही ठानी
सोने का अभिनय करते हम
जगा न सकती बाँग
*
नहीं शत्रु की तनिक जरूरत
काफी हैं हम ही
जीवनदात्री राष्ट्र एकता
खातिर हम यम ही
धृतराष्ट्री हम राष्ट्रप्रमुख को
देंगे केवल दोष
किन्तु न अपने कर्तव्यों का
हमें तनिक है होश
हँसें ठठा हम रावण, बहिना
की सुनी कर माँग
***

कृति चर्चा: मुक्त उड़ान: कुमार गौरव अजितेंदु

कृति चर्चा:
मुक्त उड़ान: कुमार गौरव अजितेंदु के हाइकु और सम्भावनाओं की आहट  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण: मुक्त उड़ान, हाइकु संग्रह, कुमार गौरव अजितेंदु, आईएसबीएन ९७८-८१-९२५९४६-८-२ प्रथम संस्करण २०१४, पृष्ठ १०८, मूल्य १००रु., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, शुक्तिका प्रकाशन ५०८ मार्किट कॉम्प्लेक्स, न्यू अलीपुर कोलकाता ७०००५३, हाइकुकार संपर्क शाहपुर, ठाकुरबाड़ी मोड़, दाउदपुर, दानापुर कैंट, पटना ८०१५०२ चलभाष ९६३१६५५१२९]
*
विश्ववाणी हिंदी का छंदकोष इतना समृद्ध और विविधतापूर्ण है कि अन्य कोई भी भाषा उससे होड़ नहीं ले सकती। देवभाषा संस्कृत से प्राप्त छांदस विरासत को हिंदी ने न केवल बचाया-बढ़ाया अपितु अन्य भाषाओँ को छंदों का उपहार (उर्दू को बहरें/रुक्न) दिया और अन्य भाषाओं से छंद ग्रहण कर (पंजाबी से माहिया, अवधी से कजरी, बुंदेली से राई-बम्बुलिया, मराठी से लावणी, अंग्रेजी से आद्याक्षरी छंद, सोनेट, कपलेट, जापानी से हाइकु, बांका, तांका, स्नैर्यू आदि) उन्हें भारतीयता के ढाँचे और हिंदी के साँचे ढालकर अपना लिया।

द्विपदिक (द्विपदी, दोहा, रोला, सोरठा, दोसुखने आदि) तथा त्रिपदिक छंदों (कुकुभ, गायत्री, सलासी, माहिया, टप्पा, बंबुलियाँ आदि) की परंपरा संस्कृत व अन्य भारतीय भाषाओं में चिरकाल से रही है।  एकाधिक भाषाओँ के जानकार कवियों ने संस्कृत के साथ पाली, प्राकृत, अपभ्रंश तथा लोकभाषाओं में भी इन छंदों का प्रयोग किया। विदेशों से लघ्वाकारी काव्य विधाओं में ३ पंक्ति के छंद (हाइकु, वाका, तांका, स्नैर्यू आदि) भारतीय भाषाओँ में विकसित हुए।
हिंदी में हाइकु का विकास स्वतंत्र वर्णिक छंद के साथ हाइकु-गीत, हाइकु-मुक्तिका, हाइकु खंड काव्य के रूप में भी हुआ है। वस्तुतः हाइकु ५-७-५ वर्णों नहीं, ध्वनि-घटकों (सिलेबल) से निर्मित है जिसे हिंदी भाषा में 'वर्ण' कहा जाता है।
कैनेथ यशुदा के अनुसार हाइकु का विकासक्रम 'रेंगा' से 'हाइकाइ' फिर 'होक्कु' और अंत में 'हाइकु' है। भारत में कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी जापान यात्रा के पश्चात् 'जापान यात्री' में चोका, सदोका आदि शीर्षकों से जापानी छंदों के अनुवाद देकर वर्तमान 'हाइकु' के लिये द्वार खोला। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् लौटे अमरीकियों-अंग्रेजों के साथ हाइकु का अंग्रेजीकरण हुआ। छंद-शिल्प की दृष्टि से हाइकु त्रिपदिक, ५-७-५ में १७ अक्षरीय वर्णिक छंद है। उसे जापानी छंद तांका / वाका की प्रथम ३ पंक्तियाँ भी कहा गया है। जापानी समीक्षक कोजी कावामोटो के अनुसार कथ्य की दृष्टि से तांका, वाका या रेंगा से उत्पन्न हाइकु 'वाका' (दरबारी काव्य) के रूढ़, कड़े तथा आम जन-भावनाओं से दूर विषय-चयन (ऋतु परिवर्तन, प्रेम, शोक, यात्रा आदि से उपजा एकाकीपन), शब्द-साम्य को महत्व दिये जाने तथा स्थानीय-देशज शब्दों का करने की प्रवृत्ति के विरोध में 'हाइकाइ' (हास्यपरक पद्य) के रूप में आरंभ हुआ जिसे बाशो ने गहनता, विस्तार व ऊँचाइयाँ हास्य कविता को 'सैंर्यु' नाम से पृथक पहचान दी। बाशो के अनुसार संसार का कोई भी विषय हाइकु का विषय हो सकता है।
शुद्ध हाइकु रच पाना हर कवि के वश की बात नहीं है। यह सूत्र काव्य की तरह कम शब्दों में अधिक अभिव्यक्त करने की काव्य-साधना है। ३ अन्य जापानी छंदों तांका (५-७-५-७-७), सेदोका (५-७-७-५-७-७) तथा चोका (५-७, ५-७ पंक्तिसंख्या अनिश्चित) में भी ५-७-५ ध्वनिघटकों का संयोजन है किन्तु उनके आकारों में अंतर है।
छंद संवेदनाओं की प्रस्तुति का वाहक / माध्यम होता है। कवि को अपने वस्त्रों की तरह रचना के छंद-चयन की स्वतंत्रता होती है। हिंदी की छांदस विरासत को न केवल ग्रहण अपितु अधिक समृद्ध कर रहे हस्ताक्षरों में से एक कुमार गौरव अजितेंदु के हाइकु इस त्रिपदिक छंद के ५-७-५ वर्णिक रूप की रुक्ष प्रस्तुति मात्र नहीं हैं, वे मूल जापानी छंद का हिंदीकरण भी नहीं हैं, वे अपने परिवेश के प्रति सजग तरुण-कवि मन में उत्पन्न विचार तरंगों के आरोह-अवरोह की छंदानुशासन में बँधी-कसी प्रस्तुति हैं।
अजीतेंदु के हाइकु व्यक्ति, देश, समाज, काल के मध्य विचार-सेतु बनाते हैं। छंद की सीमा और कवि की अभिव्यक्ति-सामर्थ्य का ताल-मेल भावों और कथ्य के प्रस्तुतीकरण को सहज-सरस बनाता है। शिल्प की दृष्टि से अजीतेंदु ने ५-७-५ वर्णों का ढाँचा अपनाया है। जापानी में यह ढाँचा (फ्रेम) सामने तो है किन्तु अनिवार्य नहीं। बाशो ने १९ व २२ तथा उनके शिष्यों किकाकु ने २१, बुशोन ने २४ ध्वनि घटकों के हाइकु रचे हैं। जापानी भाषा पॉलीसिलेबिक है। इसकी दो ध्वनिमूलक लिपियाँ 'हीरागाना' तथा 'काताकाना' हैं। जापानी भाषा में चीनी भावाक्षरों का विशिष्ट अर्थ व महत्व है। हिंदी में हाइकु रचते समय हिंदी की भाषिक प्रकृति तथा शब्दों के भारतीय परिवेश में विशिष्ट अर्थ प्रयुक्त किये जाना सर्वथा उपयुक्त है। सामान्यतः ५-७-५ वर्ण-बंधन को मानने
अजितेन्दु के हाइकु प्राकृतिक सुषमा और मानवीय ममता के मनोरम चित्र प्रस्तुत करते हैं। इनमें सामयिक विसंगतियों के प्रति आक्रोश की अभिव्यक्ति है। ये पाठक को तृप्त न कर आगे पढ़ने की प्यास जगाते हैं। आप पायेंगे कि इन हाइकुओं में बहुत कुछ अनकहा है किन्तु जो-जितना कहा गया है वह अनकहे की ओर आपके चिंतन को ले जाता है। इनमें प्राकृतिक सौंदर्य- रात झरोखा / चंद्र खड़ा निहारे / तारों के दीप, पारिस्थितिक वैषम्य- जिम्मेदारियाँ / अपनी आकांक्षाएँ / कशमकश, तरुणोचित आक्रोश- बन चुके हैं / दिल में जमे आँसू / खौलता लावा, कैशोर्य की जिज्ञासा- जीवन-अर्थ / साँस-साँस का प्रश्न / क्या दूँ जवाब, युवकोचित परिवर्तन की आकांक्षा- लगे जो प्यास / माँगो न कहीं पानी / खोद लो कुँआ, गौरैया जैसे निरीह प्राणी के प्रति संवेदना- विषैली हवा / मोबाइल टावर / गौरैया लुप्त, राष्ट्रीय एकता- गाँव अग्रज / शहर छोटे भाई / बेटे देश के, राजनीति के प्रति क्षोभ- गिद्धों ने माँगी / चूहों की स्वतंत्रता / खुद के लिए, आस्था के स्वर- धुंध छँटेगी / मौसम बदलेगा / भरोसा रखो, आत्म-निरीक्षण, आव्हान- उठा लो शस्त्र / धर्मयुद्ध प्रारंभ / है निर्णायक, पर्यावरण प्रदूषण- रोक लेता है / कारखाने का धुँआ / साँसों का रास्ता, विदेशी हस्तक्षेप - देसी चोले में / विदेशी षडयंत्र / घुसे निर्भीक, निर्दोष बचपन- सहेजे हुए / मेरे बचपन को / मेरा ये गाँव, विडम्बना- सूखा जो पेड़ /जड़ों की थी साजिश / पत्तों का दोष, मानवीय निष्ठुरता- कौओं से बचा / इंसानों ने उजाड़ा / मैना का नीड़ अर्थात जीवन के अधिकांश क्षेत्रों से जुड़ी अभिव्यक्तियाँ हैं।
अजितेन्दु के हाइकु भारतीय परिवेश और समाज की समस्याओं, भावनाओं व चिंतन का प्रतिनिधित्व करते हैं. इनमें प्रयुक्त बिंब, प्रतीक और शब्द सामान्य जन के लिये सहज ग्रहणीय हैं। इन हाइकुओं के भाषा सटीक-शुद्ध है। अजितेन्दु का यह प्रथम हाइकु संकलन उनके आगामी रचनाकर्म के प्रति आश्वस्त करता है।
३०.३.२०१४ 
____________________
लेखक: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
salil.sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८   

मुक्तिका

मुक्तिका
संजीव 'सलिल'
*
कद छोटा परछाईं बड़ी है.
कैसी मुश्किल आई घड़ी है.
चोर कर रहे चौकीदारी
सचमच ही रुसवाई बड़ी है..
बीबी बैठी कोष सम्हाले
खाली हाथों माई खड़ी है..
खुद पर खर्च रहे हैं लाखों
भिक्षुक हेतु न पाई पड़ी है..
'सलिल' सांस-सरहद पर चुप्पी
मौत शीश पर आई-अड़ी है.. 
३०.३.२०१०
*************************

नोटा

मतदाता विवेकाधिकार मंच 
*

सामयिक दोहे 
अपराधी हो यदि खड़ा, मत करिए स्वीकार।
नोटा बटन दबाइए, खुद करिए उपचार।।
*
जन भूखा प्रतिनिधि करे, जन के धन पर मौज।
मतदाता की शक्ति है, नोटा मत की फौज।।
*
नेता बात न सुन रहा, शासन देता कष्ट।
नोटा ले संघर्ष कर, बाधा करिए नष्ट।
*

त्रिपदिक छंद हाइकु
विषय: पलाश
विधा: गीत
*
लोकतंत्र का / निकट महापर्व / हावी है तंत्र
*
मूक है लोक / मुखर राजनीति / यही है शोक
पूछे पलाश / जनता क्यों हताश / कहाँ आलोक?
सत्ता की चाह / पाले हरेक नेता / दलों का यंत्र
*
योगी बेहाल / साइकिल है पंचर / हाथी बेकार
होता बबाल / बुझी है लालटेन / हँसिया फरार
रहता साथ / गरीबों के न हाथ / कैसा षड़्यंत्र?
*
दलों को भूलो / अपराधी हराओ / न हो निराश
जनसेवी ही / जनप्रतिनिधि हो / छुए आकाश
ईमानदारी/ श्रम सफलता का / असली मंत्र
***
संवस
७९९९५५९६१८

शुक्रवार, 29 मार्च 2019

चित्र पर लेखन

समस्यापूर्ति
चित्र पर लेखन















हाइकु

हँसिया लिए
बुराई से जूझती
भलाई जीती
*
निर्भय नारी
नहीं रही कोमल
तीक्ष्ण कटारी
*
माहिया

गोदी में सोई है
नन्हीं सी आशा
सपनों में खोई है
*
तुम दया न दिखलाना
दुष्टों पर मैया!
पानी को तरसाना
*
पताका

पा
मैया
से रक्षा,
सुता हुई
नींद में लीन।
सपने देखती
आने वाले कल के
गढ़ेगी नया भारत
सब होंगे सुखी संपन्न।
*

सोरठा

कर बुराई से बैर, अबला सबला हो गई,
अब न रहेगी खैर, कहाँ छिपा है दुशासन
*
ममतामय कर एक, दूजे में हथियार ले
पूर्ण करेगी टेक, अपराधी को मार कर
*
हो भविष्य निश्चिन्त, वर्तमान की गोद में
नींद ले सके कंत!, रखना इसका ख़याल तुम
*
अनाचार को देख, दुर्गा से काली हुई
शक्ति समय कर लेख, दुष्ट न अब बाकि बचें
*
संवस
७९९९५५९६१८
२९-३-२०१९



चिंतन: विश्वास और श्रद्धा

चिंतन 
विश्वास और श्रद्धा 
*
= 'विश्वासं फलदायकम्' भारतीय चिंतन धारा का मूलमंत्र है।

= 'श्रद्धावान लभते ग्यानम्' व्यवहार जगत में विश्वास की महत्ता प्रतिपादित करता है। 
बिना विश्वास के श्रद्धा हो ही नहीं सकती। शंकाओं का कसौटियों पर अनगिनत बार लगातार विश्वास खरा उतरे, तब श्रद्धा उपजती है।

= श्रद्धा अंध-श्रद्धा बनकर त्याज्य हो जाती है।
= स्वार्थ पर आधारित श्रद्धा, श्रद्धा नहीं दिखावा मात्र होती है।
= तुलसी 'भवानी शंकर वंदे, श्रद्धा विश्वास रूपिणौ' कहकर श्रद्धा और विश्वास के अंतर्संबंध को स्पष्ट कर देते हैं।
शिशु के लिए जन्मदात्री माँ से अधिक विश्वसनीय और कौन है सकता है? भवानी को श्रद्धा कहकर तुलसी अकहे ही कह देते हैं कि वे सकल सृष्टिकर्त्री आदि प्रकृति महामाया हैं। 
तुलसी शंकर को विश्वास बताते हैं। शंकर हैं शंकारि, शंकाओं के शत्रु। शंका का उन्मूलन करनेवाला ही तो विश्वास का भाजन होगा।

= यहाँ एक और महत्वपूर्ण सूत्र है जिसे जानना जरूरी है। अरि अर्थात शत्रु, शत्रुता नकारात्मक ऊर्जा है। संदेह हो सकता है कि क्या नकारात्मकता भी साध्य, वरेण्य हो सकती है? उत्तर हाँ है। यदि नकारात्मकता न हो तो सकारात्मकता को पहचानोगे कैसे? खट्टा, नमकीन, चरपरा, तीखा न हो मीठा भी आनंदहीन हो जाएगा।
सृष्टि की सृष्टि ही अँधेरे के गर्भ से होती है। निशा का निबिड़ अंधकार ही उषा के उजास को जन्म देता है। अमावस का घनेरा अँधेरा न हो तो दिये जलाकर उजाला का पर्व मनाने का आनंद ही न रहेगा।
= शत्रुता या नकारात्मकता आवश्यक तो है पर वह विनाशकारी है, विध्वंसक है, उसे सुप्त रहना चाहिए। वह तभी जागृत हो, तभी सक्रिय हो जब विश्वास और श्रद्धा की स्थापना अपरिहार्य हो। जीर्णोध्दार करने के लिए जीर्ण को मिटाना जरूरी है।
= भव अर्थात संसार, भव को अस्तित्व में लाने वाली भवानी, शून्य से- सर्वस्व का सृजन करनेवाली भवानी सकारात्मक ऊर्जा हैं। वे श्रद्धा हैं।
= विश्वास के बिना श्रद्धा अजन्मा और श्रद्धा के बिना विश्वास निष्क्रिय है। इसीलिए शिव तपस्यारत हैं। शत्रुता विस्मृति के गर्त में रहे तभी कल्याण है किंतु भवानी सक्रिय हैं, सचेष्ट हैं। यही नहीं वे शिव को निष्क्रिय भी नहीं रहने देती, तपस्या को भंग करा देती हैं भले ही शिव की रौद्रता काम का विनाश कर दे।
= काम क्या है? काम रति का स्वामी है। रति कौन है? रति है ऊर्जा। काम और रति का दिशा-हीन मिलन वासना, मोह और भोग को प्रधानता देता है। यही काम निष्काम हो तो कल्याणकारी हो जाता है। रति यदि विरति हो तो सृजन ही न होगा, कुरति हो विनाश कर देगी, सुरति है तो सुगतिदात्री होगी।
= काम को मार कर फिर जिलाना शंका उपजाता है। मारा तो जिलाया क्यों? जिलाना था तो मारा क्यों? शंका का समाधान न हो तो विश्वास बिना मरे मर जाएगा।
किसी वास्तुकार से पूछो- जीर्णोध्दार के लिए बनाने से पहले गिराना होता है या नहीं? ऊगनेवाला सूर्य न डूबे तो देगा कैसे? तुम कहो कि ऊगना ही है तो डूबना क्यों या डूबना ही है तो ऊगना क्यों? तो इसका उत्तर यही है कि ऊगना इसलिए कि डूबना है, डूबना इसलिए कि ऊगना है। जन्मना इसलिए कि मरना है, मरना इसलिए कि जन्मना है।
= शिव की सुप्त शक्ति पर विश्वास कर उसको जागृत करने-रखने वाली ही शिवा है। शिवारहित शिव शव सदृश्य हैं, मृत नहीं निरानंदी हैं। शिवा के काम को शांत कर ममता में बदलनेवाले ही शिव हैं। शिवरहित शिवा तामसी नहीं तापसी हैं, उपवासी हैं, अपर्णा हैं। पतझर के बाद अपर्णा प्रकृति सपर्णा न हो तो सृष्टि न होगी इसलिए अपर्णा का लक्ष्य सपर्णा और सपर्णा का लक्ष्य अपर्णा है ।
= विश्वास और श्रद्धा भी शिव और शिवा का तरह अन्योन्याश्रित हैं। शंकाओं के गिरि से- उत्पन्न गिरिजा विश्वास के शंकर का वरण कर गर्भ से जन्मती हैं वरद, दयालु, नन्हें को गणनायक गणेश को जिनसे आ मिलते हैं षडानन और तुलसी करते हैं जय जय-
जय जय गिरिवर राज किसोरी, जय महेश मुख चंद्र चकोरी।
जय गजवदन षडानन माता, जगत जननि दामिनी द्युति दाता।।
नहिं तव आदि मध्य अवसाना, अमित प्रभाव वेद नहिं जाना।।

= विश्वास और श्रद्धा के बिना गण और गणतंत्र के गणपति बनने के अभिलाषी तब जान लें कि काम-सिद्धि को साध्य मानने की परिणाम क्षार होने में होता है। पक्ष-विपक्ष शत्रु नहीं पूरक हैं। एक दूसरे के प्रति विश्वास और गण के प्रति श्रद्धा ही उन्हें गणनायक बना सकती है अन्यथा जनशक्ति का शिव उन्हें सत्ता सौंप सकता है तो जनाक्रोश का रुद्र उन्हें मिट्टी में भी मिला सकता है।
= विश्वास और श्रद्धा का वरण कर जनता जनार्दन नोटा के तीसरे नेत्र का उपयोग कर सत्ता प्राप्ति के काम के प्रति रति रखनेवाले आपराधिक प्रवृत्तिवाले प्रत्याशियों और उन्हें मैदान में उतारनेवाले दलों को क्षार कर, जनसेवा के प्रति समर्पित जनप्रतिनिधियों को नवजीवन देने से पीछे नहीं हटेगी।
***
संवस 
७९९९५५९६१८ 

पिरामिड कविता

पिरामिड कविता 

हूँ 
भीरु, 
डरता 
हूँ पाप से. .
न हो सकता 
भारत का नेता
डरता हूँ आप से.
*
है
कौन
जो रोके,
मेरा मन
मुझको टोंके,
गलती सुधार.
भयभीत मत हो.
*
जो
करे
फायर
दनादन
बेबस पर.
बहादुर नहीं
आतंकी है कायर.
*
हूँ
नहीं
सुरेश,
न नरेश,
आम आदमी.
थोडा डरपोंक
कुछ बहादुर भी.
*
मैं
देखूँ
सपने.
असाहसी
कतई नहीं.
बनाता उनको
हकीकत हमेशा.
*
२९.३.२०१८

बुंदेली हास्य रचना

बुंदेली हास्य रचना: 
उल्लू उवाच 
मुतके दिन मा जब दिखो, हमखों उल्लू एक.
हमने पूछी: "कित हते बिलमे? बोलो नेंक"
बा बोलो: "मुतके इते करते रैत पढ़ाई.
दो रोटी दे नई सके, बो सिच्छा मन भाई.
बिन्सें ज्यादा बड़े हैं उल्लू जो लें क्लास.
इनसें सोई ज्यादा बड़े, धरें परिच्छा खास.
इनसें बड़े निकालते पेपर करते लीक.
औरई बड़े खरीदते कैते धंधा ठीक.
करें परीच्छा कैंसिल बिन्सें बड़े तपाक.
टीवी पे इनसें बड़े, बैठ भौंकते आप.
बिन्सें बड़े करा रए लीक काण्ड की जाँच.
फिर से लेंगे परिच्छा, और बड़े रए बाँच
इतने उल्लुन बीच में अपनी का औकात?
एई काजे लुके रए, जान बचाखें भ्रात.
***
२९.३.२०१८

होली दोहा

होली दोहा सलिला:
*
मले उषा के गाल पर, सूरज छेड़ गुलाल
बादल पिचकारी लिए, फगुआ हुआ कमाल.
*
नीता कहती नैन से, कहे सुनीता-सैन.
विनत विनीता चुप नहीं, बोले मीठे बैन.
*
दोहा ने मोहा दिखा, भाव-भंगिमा खूब.
गति-यति-लय को रिझा कर, गया रास में डूब.
*
रोगी सिय द्वारे खड़ा, है लंकेश बुखार.
भिक्षा सुई-दवाई पा, झट से हुआ फरार.
*
शैया पर ही हो रहे, सारे तीरथ-धाम.
नर्स उमा शिव डॉक्टर, दर्द हरें निष्काम
*
बीमा? री! क्यों कराऊँ?, बीमारी है दूर.
झट बीमारी आ कहे:, 'नैनोंवाले सूर.'
*
लाली पकड़े पेट तो, लालू पूछें हाल.
'हैडेक' होता पेट में, सुन हँस सब बेहाल.
*
'फ्रीडमता' 'लेडियों' को, काए न देते लोग?
देख विश्व हैरान है, यह अंगरेजी रोग.
*
२९.३.२०१८

सप्तश्लोकी दुर्गा

नवरात्रि और सप्तश्लोकी दुर्गा स्तोत्र हिंदी काव्यानुवाद सहित)
*
नवरात्रि पर्व में मां दुर्गा की आराधना हेतु नौ दिनों तक व्रत किया जाता है। रात्रि में गरबा व डांडिया रास कर शक्ति की उपासना तथा विशेष कामनापूर्ति हेतु दुर्गा सप्तशती, चंडी तथा सप्तश्लोकी दुर्गा पाठ किया जाता है। दुर्गा सप्तशती तथा चंडी पाठ जटिल तथा प्रचण्ड शक्ति के आवाहन हेतु है। इसके अनुष्ठान में अत्यंत सावधानी आवश्यक है, अन्यथा क्षति संभावित हैं। दुर्गा सप्तशती या चंडी पाठ करने में अक्षम भक्तों हेतु प्रतिदिन दुर्गा-चालीसा अथवा सप्तश्लोकी दुर्गा के पाठ का विधान है जिसमें सामान्य शुद्धि और पूजन विधि ही पर्याप्त है। त्रिकाल संध्या अथवा दैनिक पूजा के साथ भी इसका पाठ किया जा सकता है जिससे दुर्गा सप्तशती,चंडी-पाठ अथवा दुर्गा-चालीसा पाठ के समान पूण्य मिलता है।
कुमारी पूजन
नवरात्रि व्रत का समापन कुमारी पूजन से किया जाता है। नवरात्रि के अंतिम दिन दस वर्ष से कम उम्र की ९ कन्याओं को माँ दुर्गा के नौ रूप (दो वर्ष की कुमारी, तीन वर्ष की त्रिमूर्तिनी चार वर्ष की कल्याणी, पाँच वर्ष की रोहिणी, छः वर्ष की काली, सात वर्ष की चण्डिका, आठ वर्ष की शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा, दस वर्ष की सुभद्रा) मान पूजन कर मिष्ठान्न, भोजन के पश्चात् व दान-दक्षिणा भेंट करें।
सप्तश्लोकी दुर्गा

निराकार ने चित्र गुप्त को, परा प्रकृति रच व्यक्त किया।
महाशक्ति निज आत्म रूप दे, जड़-चेतन संयुक्त किया।।
नाद शारदा, वृद्धि लक्ष्मी, रक्षा-नाश उमा-नव रूप-
विधि-हरि-हर हो सके पूर्ण तब, जग-जीवन जीवन्त किया।।
*
जनक-जननि की कर परिक्रमा, हुए अग्र-पूजित विघ्नेश।
आदि शक्ति हों सदय तनिक तो, बाधा-संकट रहें न लेश ।।
सात श्लोक दुर्गा-रहस्य को बतलाते, सब जन लें जान-
क्या करती हैं मातु भवानी, हों कृपालु किस तरह विशेष?
*
शिव उवाच-
देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी।
कलौ हि कार्यसिद्धयर्थमुपायं ब्रूहि यत्नतः॥
शिव बोले: 'सब कार्यनियंता, देवी! भक्त-सुलभ हैं आप।
कलियुग में हों कार्य सिद्ध कैसे?, उपाय कुछ कहिये आप।।'
*
देव्युवाच-
श्रृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम्‌।
मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते॥
देवी बोलीं: 'सुनो देव! कहती हूँ इष्ट सधें कलि-कैसे?
अम्बा-स्तुति बतलाती हूँ, पाकर स्नेह तुम्हारा हृद से।।'
*
विनियोग-
ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिः
अनुष्टप्‌ छन्दः, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः
श्रीदुर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकीदुर्गापाठे विनियोगः।
ॐ रचे दुर्गासतश्लोकी स्तोत्र मंत्र नारायण ऋषि ने
छंद अनुष्टुप महा कालिका-रमा-शारदा की स्तुति में
श्री दुर्गा की प्रीति हेतु सतश्लोकी दुर्गापाठ नियोजित।।
*
ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥१॥
ॐ ज्ञानियों के चित को देवी भगवती मोह लेतीं जब।
बल से कर आकृष्ट महामाया भरमा देती हैं मति तब।१।
*
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्‌यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥२॥
माँ दुर्गा का नाम-जाप भयभीत जनों का भय हरता है,
स्वस्थ्य चित्त वाले सज्जन, शुभ मति पाते, जीवन खिलता है।
दुःख-दरिद्रता-भय हरने की माँ जैसी क्षमता किसमें है?
सबका मंगल करती हैं माँ, चित्त आर्द्र पल-पल रहता है।२।
*
सर्वमंगलमंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते॥३॥
मंगल का भी मंगल करतीं, शिवा! सर्व हित साध भक्त का।
रहें त्रिनेत्री शिव सँग गौरी, नारायणी नमन तुमको माँ।३।
*
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तुते॥४॥
शरण गहें जो आर्त-दीन जन, उनको तारें हर संकट हर।
सब बाधा-पीड़ा हरती हैं, नारायणी नमन तुमको माँ ।४।
*
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तुते॥५॥
सब रूपों की, सब ईशों की, शक्ति समन्वित तुममें सारी।
देवी! भय न रहे अस्त्रों का, दुर्गा देवी तुम्हें नमन माँ! ।५।
*
रोगानशोषानपहंसि तुष्टा
रूष्टा तु कामान्‌ सकलानभीष्टान्‌।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्माश्रयतां प्रयान्ति॥६॥
शेष न रहते रोग तुष्ट यदि, रुष्ट अगर सब काम बिगड़ते।
रहे विपन्न न कभी आश्रित, आश्रित सबसे आश्रय पाते।६।
*
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्र्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्यद्वैरिविनाशनम्‌॥७॥
माँ त्रिलोकस्वामिनी! हर कर, हर भव-बाधा।
कार्य सिद्ध कर, नाश बैरियों का कर दो माँ! ।७।
*
॥इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा संपूर्णम्‌॥
।श्री सप्तश्लोकी दुर्गा (स्तोत्र) पूर्ण हुआ।
२९.३.२०१७
***

नवगीत

नवगीत-
दरक न पाऐँ दीवारें
हम में हर एक तीसमारखाॅं
कोई नहीं किसी से कम ।
हम आपस में उलझ-उलझकर
दिखा रहे हैं अपनी दम ।
देख छिपकली डर जाते पर
कहते डरा न सकता यम ।
आॅंख के अंधे देख-न देखें
दरक रही हैं दीवारें ।
*
फूटी आॅंखों नहीं सुहाती
हमें, हमारी ही सूरत ।
मन ही मन में मनमाफि़क
गढ़ लेते हैं सच की मूूरत ।
कुदरत देती दंड, न लेकिन
बदल रही अपनी फितरत ।
पर्वत डोले, सागर गरजे
टूट न जाएॅं दीवारें ।
*
लिये शपथ सब संविधान की
देश देवता है सबका ।
देश हितों से करो न सौदा
तुम्हें वास्ता है रब का ।
सत्ता, नेता, दल, पद झपटो
करो न सौदा जनहित का ।
भार करों का इतना ही हो
दरक न पाएॅं दीवारें ।
*
ग्रेनेडियर्स प्रिंटिंग प्रैस, १५़३०
२१.३.२०१६

मनमोहन छंद

छंद सलिला:
मनमोहन छंद
संजीव
*
लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, यति ८-६, चरणांत लघु लघु लघु (नगण) होता है.
लक्षण छंद:
रासविहारी, कमलनयन
अष्ट-षष्ठ यति, छंद रतन
अंत धरे लघु तीन कदम
नतमस्तक बलि, मिटे भरम.
उदाहरण:
१. हे गोपालक!, हे गिरिधर!!
हे जसुदासुत!, हे नटवर!!
हरो मुरारी! कष्ट सकल
प्रभु! प्रयास हर करो सफल.
२. राधा-कृष्णा सखी प्रवर
पार्थ-सुदामा सखा सुघर
दो माँ-बाबा, सँग हलधर
लाड लड़ाते जी भरकर
३. कंकर-कंकर शंकर हर
पग-पग चलकर मंज़िल वर
बाधा-संकट से मर डर
नीलकंठ सम पियो ज़हर
२९.३.२०१४
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)

दोहा दोहा काव्य रस

विशेष आलेख
दोहा दोहा काव्य रस
संजीव
दोहा भास्कर काव्य नभ, दस दिश रश्मि उजास ‌
गागर में सागर भरे, छलके हर्ष हुलास ‌ ‌
रस, भाव, संधि, बिम्ब, प्रतीक, शैली, अलंकार आदि काव्य तत्वों की चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि दोहों में इन तत्वों को पहचानने और सराहने के साथ दोहा रचते समय इन तत्वों का यथोचित समावेश कर किया जा सके। ‌
रसः
काव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला आनंद ही रस है। काव्य मानव मन में छिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है। भरत मुनि के अनुसार "विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः" अर्थात् विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं-
स्थायी भावः मानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है।
रस: १. श्रृंगार, २. हास्य, ३. करुण, ४. रौद्र, ५. वीर, ६. भयानक, ७. वीभत्स, ८. अद्भुत, ९. शांत, १०. वात्सल्य, ११. भक्ति।
क्रमश:स्थायी भाव: १. रति, २. हास, ३. शोक, ४. क्रोध, ५. उत्साह, ६. भय, ७. घृणा, ८. विस्मय, निर्वेद, ९. १०. संतान प्रेम, ११. समर्पण।
विभावः
किसी व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति भी विभाव हो सकती है। ‌विभाव के दो प्रकार आलंबन व उद्दीपन हैं। ‌
आलंबन विभाव के सहारे रस निष्पत्ति होती है। इसके दो भेद आश्रय व विषय हैं ‌
आश्रयः
जिस व्यक्ति में स्थायी भाव स्थिर रहता है उसे आश्रय कहते हैं। ‌श्रृंगार रस में नायक नायिका एक दूसरे के आश्रय होंगे।‌
विषयः
जिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषय कहते हैं ‌ "क" को "ख" के प्रति प्रेम हो तो "क" आश्रय तथा "ख" विषय होगा।‌
उद्दीपन विभाव:
आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। वन में सिंह गर्जन सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जन आदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँ हैं ।
अनुभावः
आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना आदि अनुभाव हैं। ‌
संचारी भावः
आश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावों को संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं।
रस
१. श्रृंगार
अ. संयोग श्रृंगार:
तुमने छेड़े प्रेम के, ऐसे राग हुजूर
बजते रहते हैं सदा, तन-मन में संतूर
- अशोक अंजुम, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार
आ. वियोग श्रृंगार:
हाथ छुटा तो अश्रु से, भीग गये थे गाल ‌
गाड़ी चल दी देर तक, हिला एक रूमाल
- चंद्रसेन "विराट", चुटकी चुटकी चाँदनी
२. हास्यः
आफिस में फाइल चले, कछुए की रफ्तार ‌
बाबू बैठा सर्प सा, बीच कुंडली मार
- राजेश अरोरा"शलभ", हास्य पर टैक्स नहीं
व्यंग्यः
अंकित है हर पृष्ठ पर, बाँच सके तो बाँच ‌
सोलह दूनी आठ है, अब इस युग का साँच
- जय चक्रवर्ती, संदर्भों की आग
३. करुणः
हाय, भूख की बेबसी, हाय, अभागे पेट ‌
बचपन चाकर बन गया, धोता है कप-प्लेट
- डॉ. अनंतराम मिश्र "अनंत", उग आयी फिर दूब
४. रौद्रः
शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश ‌
जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश
- संजीव
५. वीरः
रणभेरी जब-जब बजे, जगे युद्ध संगीत ‌
कण-कण माटी का लिखे, बलिदानों के गीत
- डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा "यायावर", आँसू का अनुवाद
६. भयानकः
उफनाती नदियाँ चलीं, क्रुद्ध खोलकर केश ‌
वर्षा में धारण किया, रणचंडी का वेश
- आचार्य भगवत दुबे, शब्दों के संवाद
७. वीभत्सः
हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध ‌
हा, पीते जन-रक्त फिर, नेता अफसर सिद्ध
- संजीव
८. अद्भुतः
पांडुपुत्र ने उसी क्षण, उस तन में शत बार ‌
पृथक-पृथक संपूर्ण जग, देखे विविध प्रकार
- डॉ. उदयभानु तिवारी "मधुकर", श्री गीता मानस
९. शांतः
जिसको यह जग घर लगे, वह ठहरा नादान ‌
समझे इसे सराय जो, वह है चतुर सुजान
- डॉ. श्यामानंद सरस्वती "रौशन", होते ही अंतर्मुखी
१० . वात्सल्यः
छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल ‌
पान करा पय मनाती, चिरजीवी हो लाल
-संजीव
११. भक्तिः
दूब दबाये शुण्ड में, लंबोदर गजमुण्ड ‌
बुद्धि विनायक हे प्रभो!, हरो विघ्न के झुण्ड
- भानुदत्त त्रिपाठी "मधुरेश", दोहा कुंज
दोहा में हर रस को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य है। आशा है दोहाकार अपनी रुचि के अनुकूल खड़ी बोली या टकसाली हिंदी में दोहे रचने की चुनौती को स्वीकारेंगे। हिंदी के अन्य भाषिक रूपों यथा उर्दू, बृज, अवधी, बुन्देली, भोजपुरी, मैथिली, अंगिका, बज्जिका, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, बघेली, कठियावाड़ी, शेखावाटी, मारवाड़ी, हरयाणवी आदि तथा अन्य भाषाओँ गुजराती, मराठी, गुरुमुखी, उड़िया, बांगला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, डोगरी, असमीआदि तथा अभारतीय भाषाओँ अंग्रेजी इत्यादि में दोहा भेजते समय उसका उल्लेख किया जाना उपयुक्त होगा ताकि उस रूप / भाषा विशेष में प्रयुक्त शब्दरूप व क्रियापद को अशुद्धि न समझा जाए।
**********

फागुन के मुक्तक

फागुन के मुक्तक
संजीव 'सलिल'
*
बसा है आपके ही दिल में प्रिय कब से हमारा दिल.
बनाया उसको माशूका जो बिल देने के है काबिल..
चढ़ायी भाँग करके स्वांग उससे गले मिल लेंगे-
रहे अब तक न लेकिन अब रहेंगे हम तनिक गाफिल..
*
दिया होता नहीं तो दिया दिल का ही जला लेते.
अगर सजती नहीं सजनी न उससे दिल मिला लेते..
वज़न उसका अधिक या मेक-अप का कौन बतलाये?
करा खुद पैक-अप हम क्यों न उसको बिल दिला लेते..
*
फागुन में गुन भुलाइए बेगुन हुजूर हों.
किशमिश न बनिए आप अब सूखा खजूर हों..
माशूक को रंग दीजिए रंग से, गुलाल से-
भागिए मत रंग छुड़ाने खुद मजूर हों..
*
२९.३.२०१३ 

होली की कुण्डलियाँ

होली की कुण्डलियाँ:
मनायें जमकर होली
संजीव 'सलिल'
*
होली अनहोली न हो, रखिए इसका ध्यान.
मही पाल बन जायेंगे, खायें भंग का पान..
खायें भंग का पान, मान का पान न छोड़ें.
छान पियें ठंडाई, गत रिकोर्ड को तोड़ें..
कहे 'सलिल' कविराय, टेंट में खोंसे गोली.
भोली से लग गले, मनायें जमकर होली..
*
होली ने खोली सभी, नेताओं की पोल.
जिसका जैसा ढोल है, वैसी उसकी पोल..
वैसी उसकी पोल, तोलकर करता बातें.
लेकिन भीतर ही भीतर करता हैं घातें..
नकली कुश्ती देख भ्रनित है जनता भोली.
एक साथ मिल भत्ते बढ़वा करते होली..
*
होली में फीका पड़ा, सेवा का हर रंग.
माया को भायी सदा, सत्ता खातिर जंग..
सत्ता खातिर जंग, सोनिया को भी भाया.
जया, उमा, ममता, सुषमा का भारी पाया..
मर्दों पर भारी है, महिलाओं की टोली.
पुरुष सम्हालें चूल्हा-चक्की अबकी होली..
*

२९.३.२०१३ 

गुरुवार, 28 मार्च 2019

muktika

मुक्तिका
संजीव
*
मुझमें कितने 'मैं' बैठे हैं?, किससे आँख मिलाऊँ मैं?
क्या जाने क्यों कब किस-किससे बरबस आँख चुराऊँ मैं??
*
खुद ही खुद में लीन हुआ 'मैं', तो 'पर' को देखे कैसे?
बेपर की भरता उड़ान पर, पर को तौल न पाऊँ मैं.
*
बंद करूँ जब आँख, सामना तुमसे होता है तब ही
कहीं न होकर सदा यहीं हो, किस-किस को समझाऊँ मैं?
*
मैं नादां बाकी सब दाना, दाना रहे जुटाते हँस
पाकर-खोया, खोकर-पाया, खो खुद को पा जाऊँ मैं
*
बोल न अपने ही सुनता मन, व्यर्थ सुनाता औरों को
भूल कुबोल-अबोल सकूँ जब तब तुमको सुन पाऊँ मैं
*
देह गेह है जिसका उसको, मन मंदिर में देख सकूँ
ज्यों कि त्यों धर पाऊँ चादर, तब तो आँख उठाऊँ मैं.
*
आँख दिखाता रहा जमाना, बेगाना है बेगाना
अपना कौन पराया किसको, कह खुद को समझाऊँ मैं?
२८.३.२०१४ 
***

महारास और न्यायालय

त्वरित प्रतिक्रिया
महारास और न्यायालय
*
महारास में भाव था, लीला थी जग हेतु.
रसलीला क्रीडा हुई, देह तुष्टि का हेतु..
न्यायालय अँधा हुआ, बँधे हुए हैं नैन.
क्या जाने राधा-किशन, क्यों खोते थे चैन?.
हलकी-भारी तौल को, माने जब आधार.
नाम न्याय का ले करे, न्यायालय व्यापार..
भारहीन सच को 'सलिल', कोई न सकता नाप.
नाता राधा-किशन का, सके आत्म में व्याप..
***
कुण्डलिया
*
मन से राधाकिशन तब, 'सलिल' रहे थे संग.
तन से रहते संग अब, लिव इन में कर जंग..
लिव इन में कर जंग, बदलते साथी पल-पल.
कौन बताए कौन, कर रहा है किससे छल?.
नाते पलते मिलें, आजकल केवल धन से.
सलिल न हों संजीव, तभी तो रिश्ते मन से.
*
संजीव, ७९९९५५९६१८

कार्यशाला- निवाला

कार्य शाला 
विषय: निवाला 
*
त्रिपदी: हाइकु 
निवाला मिला
ईश्वर का आभार 
भुला दो गिला। 
*
त्रिपदी: माहिया 
प्रभु की हो कृपा जिस पर 
उसे मिलता निवाला है 
कर शुक्रिया खा मानव 
*

* मुक्तक * 
निवाला मिला नहीं तो चाह निवाला। 
निवाला मिला तो कहा वाह निवाला।। 
निवाला पा भूख बढ़ी डाह निवाला। 
निवाला छीना तो हुआ आह निवाला।।
*
दोहा 
जीव जीव का निवाला, विधि का यही विधान। 
जोड़ रहे धन-संपदा, दो दिन के मेहमान।। 
*
कुण्डलिया 
भूख-निवाला का निभा, जन्म-जन्म का साथ। 
जीना इनके साथ ही, रहो मिलाकर हाथ।।
रहो मिलाकर हाथ, तभी तो खैर रहेगी। 
तनहाई में भूख, अधिक ही तुम्हें डँसेगी।।
रहना यदि संजीव, न करना गड़बड़ झाला। 
सलिल लगे जब भूख, निगलना तभी निवाला।। 
*


बुधवार, 27 मार्च 2019

दोहा गीत

दोहा गीत 
*
जो अव्यक्त हो, 
व्यक्त है 
कण-कण में साकार 
काश!
कभी हम पा सकें,
उसके भी दीदार
*
कंकर-कंकर में वही
शंकर कहते लोग
संग हुआ है किस तरह
मक्का में? संजोग
जगत्पिता जो दयामय
महाकाल शशिनाथ
भूतनाथ कामारि वह
भस्म लगाए माथ
भोगी-योगी
सनातन
नाद वही ओंकार
काश!
कभी हम पा सकें,
उसके भी दीदार
*
है अगम्य वह सुगम भी
अवढरदानी ईश
गरल गहे, अमृत लुटा
भोला है जगदीश
पुत्र न जो, उनका पिता
उमानाथ गिरिजेश
नगर न उसको सोहते
रुचे वन्य परिवेश
नीलकंठ
नागेश हे!
बसो ह्रदय-आगार
काश!
कभी हम पा सकें,
उसके भी दीदार

२७.३.२०१८
***