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गुरुवार, 6 सितंबर 2018

पुस्तक चर्चा:

मनचाहा आकाश - सत्येन्द्र तिवारी

डॉ. मधु प्रधान 
गीत मन की कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति है। टूटते -बिखरते मन की पीड़ा का गायन भी कभी यथार्थ की कटुताओं को व्यक्त करता, कभी प्रेरक बन भविष्य के नवनिर्माण की नींव गढ़ता है। जीवन की आपा-धापी में सुकून के पल दुर्लभ से प्रतीत होते हैं। ऐसी स्थिति में गीत-संगीत मनुष्य की दुखती रग को सहलाता है। मन के घावों पर मरहम रखता है। अनचाहे बंधनों से तन भले ही बंधा रहे पर मन की चिड़िया तो कल्पना के पंख फडफड़ा कर उड़ जाती है अपना आकाश छूने के लिये।

अनेक गीत-नवगीत - संग्रहों की भीड़ में सत्येंद्र तिवारी जी का गीत संग्रह "मनचाहा आकाश" को पढ़ना एक सुखद एहसास है। रचनाकार ने अपने काव्य-संग्रह में जीवन के विभिन्न पहलुओं को छुआ है। संग्रह के पहले गीत "राम ही मालिक है" में वर्तमान व्यवस्था पर कड़ा प्रहार करते हुए रचनाकार कहता है -

जिसकी मुट्ठी में है ताकत
है उसका कानून

आतंकों के जश्न हो रहे, आश्वासन सुख नींद सो रहे
और चबाने को छोटे सुख, पैने सबके दाँत हो रहे
हड्डी से गरीब की करती
आजादी दातून
राम ही मालिक है

दूसरी रचना "शकुनि के पाँसे" में कवि का आक्रोश मुखर हो कर आया है-

जनगण के आँगन चौपड़ पर
जीते हैं शकुनि के पाँसे
वादे और दिलासे के हम
देख रहे खेल–तमाशे

खुशियों के हर दरवाजे पर
है बबूल की पहरेदारी।

राजनेताओं ने संविधान को खिलवाड़ बना दिया है जिससे उसकी मूल भावना ही तिरोहित हो गयी है।

बदल दिया संविधान को
राजमहल की वंशप्रथा ने
जाति धर्म के बँटवारों ने
मानवता की नई कथा ने।

दुर्व्यवस्था से आहत हर ओर से निराश हो कर कवि के मन में पलायन के भाव आ जाते हैं और वह कह उठता है -

कंक्रीट की तपती अंध गुफाओं में
ऊब गया मन
चलो गाँव की ओर चलें

माटी की सोंधी सुंगध को
खुशियों के उत्सुक प्रबंध को
आपा-धापी निगल गयी है
हर मौसम के सुखद छंद को।

मन अकुलाता है पर जिजीविषा उसे हारने नहीं देती। उसे एहसास होता है कि उसे जन्म दिया है माटी ने...
-दीपक हूँ माटी का...
दीपक का तो जन्म ही उजाला फैलाने के लिये हुआ है, उसका आत्म विश्वास जाग उठता है--

जूझा विपरीत हवाओं से
मुस्काकर पर बुझा नहीं।
नियति नटी ने सम्वेदन का
जो नेह भरा वो चुका नहीं।

कह कर कवि स्वयं को तो आत्म बल देता ही है, दूसरों को भी कभी हिम्मत न हारने की प्रेरणा देता है।
जब मनुष्य साहस कर कदम बढ़ाता है तो समूची कायनात उसका साथ देने लगती है। दूर बसे प्रिय की स्मृतियाँ कवि का संबल बन कर उसके अकेलेपन को मिटा देती हैं। देखें गीत "भीगी याद रही" की कुछ पंक्तियाँ -

माना तुम हो दूर किन्तु मैं
तनहा नहीं रहा
परछाई सी याद तुम्हारी
मेरे साथ रही।

गीत "मधुमास बाँध लें" उल्लास से परिपूर्ण मधुर गीत है। कुछ पंक्तियाँ देखें -

मन कहता है पंख खोल कर
मन चाहा आकाश बाँध लें

बहुत दिनों के बाद खुले हैं
अभिनन्दन वाले दरवाजे
मौसम रखता सगुन सलोने
निशिगंधा देती आवाजें

साँसों में खुशबु को घोले
मुस्काता मधुमास बाँध लें।

किन्तु समय कहाँ स्थिर रहता है। यायावर पाँव कहाँ ठहरे हैं। देखें गीत "हम बंजारे" में भटकन की व्यथा को -

हम बंजारे रहे बदलते
अपने ठौर ठिकाने को
कुछ दिन ठहरे और चल दिए...

कठिनाई का लोहा पीटें
साँस धौंकनी सी सुनते हैं
अधरों पर मुस्कान बिखेरें
सुख की चादर हम बुनते हैं।

जितना टूटे उतना जोड़े
जीवन ताने- बाने को।

संघर्षों के समय सुखद स्मृतियाँ शक्ति देती हैं, विशेषकर जब वह बचपन की हों। "बरखा में कागज की नौका” एक मधुर गीत है-

बरखा में कागज की नौका
याद दिलाती बचपन की

शिखरों से सागर तक भीगे
चले साथ हम बाँह पसारे
बिखरे सीप शंख से तट पर
निशा-मणि का रूप निहारे।

जैसे - जैसे उम्र बढ़ती जाती है आँखों पर स्वार्थ का पर्दा चढ़ने लगता है। वर्तमान समय में विभिन्न कारणों से परिवार बिखरते जा रहे हैं, रिश्तों में दूरियाँ बढ़ रही हैं। भावुक मन आहत हो कह उठता है -

अर्थ कुंठित हो रहे हैं
अर्थ युग में प्रीति के
वचन और सौगन्ध की
मत बात करना।

"अपनेपन को लगे भूलने", "सिसक रहे रिश्तों के", व "शहर बढ़े अजगर से" शीर्षक गीतों में बिखरन तथा टूटन को बड़ी बेबाकी से व्यक्त किया है। कवि ने महसूस किया है कि इन स्थितियों का कारण राजनैतिक व्यवस्थाएँ हैं। वह खीझ कर कह उठता है "राजा बड़े निकम्मे निकले" किन्तु केवल शिकायत करने से कुछ हासिल नहीं होगा कवि को अपनी जिम्मेदारी का एहसास है। उसे तो "प्यार का आखर बचाना है" तनाव भरे वातावरण में "प्यार का दम घुट रहा" अक्सर संवाद हीनता सम्बन्धों में दूरियों का कारण बन जाती है। कवि पुकारता है अपनों को "चलो चलें" गीत में-
चलो चलें मन
कहीं और हम चलो चलें

अब उस तट पर, जहाँ
मौन हिम से पिघले
दम घुटता है दर्द भरे
कोलाहल में।

स्वजनों का साथ हो तो सब अच्छा लगने लगता है। 'दिन फिर धूप नहाने वाले', 'समीर की बाँहों में', 'सुमन खिले है गाँव में' आदि गीतों में प्रकृति का मनमोहक चित्रण है। कवि का मूल स्वर प्रेम है। देखें -
खोल कर पंख को भर उड़ानें मधुर
ढूँढ खुशबू भरा गीत का मुग्ध घर
खिड़कियाँ हैं खुली, सामने है गगन...

और भी -
प्यास अधरों पर पलाशी हो गई
सुर्ख सेमल तन हुआ।

कवि के "आँगन में शब्द शब्द घुँघुरू सा" छनकता है। "आखर- आखर लय की सीढ़ी भावुक पाँव चढ़े" मन में "एक नदी बहती रहती है" फिर भी ''तृप्ति अधूरी रही आजतक''। कवि का बंजारा मन थका नहीं उसको तो दूर तक जाना है, उसे केवल अपनी पीड़ा ही नहीं सृष्टि में बिखरा दर्द भी आहत करता है। वर्तमान समय की विभीषिका को नवगीत "खूब उड़ता कबूतर" में बखूबी चित्रित किया गया है। "अंजुरी में ले आँसू" की पंक्ति -
चलो ऐसा कुछ करें
नम आँखें फिर से हँस दें
सच्ची मानवता के फिर से
सगुन सातिये रच दें

किन्तु सीमित साधन और सीमित दायरे में रहने वालों की स्थिति कुछ अलग होती है. कवि ने तालाब के माध्यम से कहा है -
हम तालाबों में बंधे हुए जल हैं।

हम क्या जानें शिखरों से
सागर की बातें
हम तो जान सके हैं केवल
कंकड़ की घातें।

उसे शिकायत है हर माँझी को
तुमने तो दे दिया किनारा
इतने पास रहे हम फिर भी
समझ सके ना दर्द हमारा।

मन में असमंजस की स्थिति आती है कि-

किस दिशा में चले हम
हर तरफ मावस मिली है।

ऐसी स्थिति में आक्रोश उभरना स्वाभाविक है-
शतरंज के मोहरे बने
हम सभी मानव जहाँ के।

और भी -

संशयों के भवन में
शान्ति की होती सभाएँ
पवन जैसी डोलती
निर्भीक बारूदी बलाएँ

स्वार्थ ने इंसानियत को
बना रखा अर्दली है।

वह राजनेताओं पर व्यंग करता है जो कभी रिटायर नहीं होते-
वृद्ध काँधों पर लड़ी शिक्षित जवानी जल रही
उम्मीद के स्तम्भ जर्जर संक्रमण बाहुबली है।
कवि का प्रश्न है-
किस ठौर हमें ले जायेगा अब पश्चिम का अन्धानुकरण।

कवि नव जवानों को आमंत्रण देता है- ओ नव जवान। जाग जा उठ एक जंग और कर। क्योंकि स्थितियाँ विषम हैं, संवेदनायें मर रही हैं, इंसान जानवर होता जा रहा है। आंतक और महँगाई की आग में इंसान जल रहा है -

पेड़ों पर खजूर के उन्नति
जा कर है ऐंठी
भूखे बच्चे लेकर गँवई
बिन छाया बैठी

महँगाई की कड़ी धुप में
लंघन चाटेगी
आश्वासन से नंगेपन को
कब तक ढाँपेगी।

भरोसे की गठरी चिन्दी चिन्दी हो गयी है। प्रतिभाओं को भूख और बेबसी तोड़ रही है। जिधर भी नजर जाती है, दर्द ही दर्द नजर आता है। प्रेम के मधुर गीत गाने वाले कवि को तब कहना पड़ता है -
एक मुश्त जो दर्द मिला है
टुकड़े टुकड़े काट रहे हैं
खंड खंड में मन की पीड़ा
हम गीतों में बाँट रहे है।

सिर धुनता रहता संविधान
है बेलगाम अब आजादी।

अंतिम गीत "खिलौने वाला” में जीवन को समग्र रूप में समेटने की चेष्टा की गयी है। खिलौनों के माध्यम से समाज में फैली विषमताओं को दूर कर सबके हित की कामना की गयी है। देखे-
पंछी की आजादी का
अधिकार बेचता हूँ
तूफानों में नौका की
पतवार बेचता हूँ

प्यार बढ़ाने को राखी के
तार बेचता हूँ।

ऐसे अनमोल खिलौने कौन नहीं लेना चाहेगा। ऐसा नहीं है कि संग्रह पूर्णता त्रुटिविहीन है, कहीं-कहीं पुनरावृति दोष है। एक शीर्षक से दो गीत होना खटकता है किन्तु गीतों के माधुर्य से सकुचा कर वे कमियाँ स्वतः ही नजरंदाज हो गयी हैं। यथार्थ, कल्पना और जिंदगी की कशमकश पर मधुरता के ताने-बाने से बुना, यह काव्य संग्रह पाठकों के लिये एक उपहार तुल्य है। इसके रचियता सत्येन्द्र तिवारी जी बधाई के पात्र हैं। उनकी अगली कृति की पाठकों को प्रतीक्षा रहेगी।
१५.४.२०१७ 
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गीत- नवगीत संग्रह - मनचाहा आकाश, रचनाकार- सत्येन्द्र तिवारी, प्रकाशक- शुभाञ्जली प्रकाशन, कानपुर-२०८०२३। प्रथम संस्करण- २०१६ मूल्य- पेपर बैक १८० तथा सजिल्द २५० रुपये, पृष्ठ-१२०, समीक्षा- डॉ. मधु प्रधान

समीक्षा

कृति चर्चा:

खुशबू सीली गलियों की- सीमा अग्रवाल

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
भाषा और साहित्य समाज और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में सतत परिवर्तित होता है। गीत मनुष्य के मन और जीवन के मिलन से उपजी सरस-सार्थक अभिव्यक्ति है। रस और अर्थ न हो तो गीत नहीं हो सकता। गीतकार के मनोभाव शब्दों से रास करते हुए कलम-वेणु से गुंजरित होकर आत्म को आनंदित कर दे तो गीत स्मरणीय हो जाता है। 'खुशबू सीली गलियों की' के गीत रस-छंद-अलंकार की त्रिवेणी में अवगाहन कर नव वसन धारण कर नवगीत की भावमुद्रा में पाठक का मन हरण करने में सक्षम हैं। 

गीत और अगीत का अंतर मुखड़े और अंतरे पर कम और कथ्य की प्रस्तुति के तरीके पर अधिक निर्भर है। सीमा जी की ये रचनायें २ से ५ पंक्तियों के मुखड़े के साथ २ से ५ अंतरों का संयोजन करती हैं। अपवाद स्वरूप 'झाँझ हुए बादल' में  ६ पंक्तियों के २ अंतरे मात्र हैं। केवल अंतरे का मुखड़ाहीन गीत नहीं है। शैल्पिक नवता से अधिक महत्त्वपूर्ण कथ्य और छंद की नवता होती है जो नवगीत के तन में मन बनकर निवास करती और अलंकृत होकर पाठक-श्रोता के मन को मोह लेती है। 

सीमा जी की यह कृति पारम्परिकता की नींव पर नवता की भव्य इमारत बनाते हुए निजता से उसे अलंकृत करती है। ये नवगीत चकित या स्तब्ध नहीं आनंदित करते हैं। धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय पर्वों-त्यहारों की विरासत सम्हालते ये गीत आसमाँ में उड़ान भरने के पहले अपने कदम जमीन पर मजबूती से जमाते हैं। यह मजबूती देते हैं छंद। अधिकाँश नवगीतकार छंद के महत्व को न आँकते हुए नवता की तलाश में छंद में जोड़-घटाव कर अपनी कमाई छिपाते हुए नवता प्रदर्शित करने का प्रयास करते हुए लड़खड़ाते हुए प्रतीत होते हैं किन्तु सीमा जी की इन नवगीतों को हिंदी छंद के मापकों से परखें या उर्दू बह्र के पैमाने पर निरखें वे पूरी तरह संतुलित मिलते हैं। पुरोवाक में श्री ओम नीरव ने ठीक ही कहा है कि सीमा जी गीत की पारम्परिक अभिलक्षणता को अक्षुण्ण रखते हुए निरंतर नवल भावों, नवल प्रतीकों, नवल बिम्ब योजनाओं और नवल शिल्प विधान की उद्भावना करती रहती हैं

 'दीप इक मैं भी जला लूँ' शीर्षक नवगीत ध्वनि खंड २१२२ (फाइलातुन) पर आधारित है- तुम मुझे दो शब्द  और मैं  शब्द को गीतों में ढालूँ इस नवगीत पर उर्दू का प्रभाव है। 'और' को औ' पढ़ना, 'की' 'में' 'है' तथा 'हों' का लघु उच्चारण व्याकरणिक दृष्टि से विचारणीय है। ऐसे नवगीत गीत हिंदी छंद विधान के स्थान पर उर्दू बह्र के आधार पर रचे गये हैं। इसी बह्र पर आधारित अन्य नवगीत 'उफ़! तुम्हारा मौन कितना बोलता है',  अनछुए पल मुट्ठियों में घेर कर', हर घड़ी ऐसे जियो जैसे यही बस खास है',  पंछियों ने कही कान में बात क्या? आदि हैं। पृष्ठ ७७ पर हिंदी पिंगल के २६ मात्रिक महाभागवत जातीय गीतिका छंद पर आधारित नवगीत [प्रति पंक्ति में १४-१२ मात्राएँ तथा पंक्त्याँत में लघु-गुरु अनिवार्य]  का विश्लेषण करें तो इसमें २१२२ ध्वनि खंड की ३ पूर्ण तथा चौथी अपूर्ण आवृत्ति समाहित किये है। स्पष्ट है कि उर्दू बह्रें हिंदी छंद की नीव पर ही खड़ी की गयी हैं। हिंदी में गुरु का लघु तथा लघु का गुरु उच्चारण दोष है जबकि उर्दू में यह दोष नहीं है। इससे रचनाकार को अधिक सुविधा तथा छूट मिलती है।

'फूलों का मकरंद चुराऊँ 
या पतझड़ के पात लिखूँ' (पृष्ठ ९८) में महातैथिक जातीय लावणी (१६-१४, पंक्यांत में मात्रा क्रम बंधन नहीं) का मुखड़ा तथा स्थाई हैं जबकि अँतरे में ३२ मात्रिक लाक्षणिक  प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु नियम को शिथिल किया गया है। 

'गीत कहाँ रुकते हैं 
बस बहते हैं तो बहते हैं' - (पृष्ठ १०९  में) २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंदों का मिश्रित प्रयोग है। मुखड़े में १२= १६, स्थाई में १४=१४ व १२ + १६  अंतरों में १६=१२, १४=१४, १२+१६  संयोजनों का प्रयोग हुआ है। गीतकार की कुशलता है  कि कथ्य के अनुरूप छंद के विधान में विविधता होने पर भी लय तथा रस प्रवाह अक्षुण्ण है। 
'बहुत दिनों के बाद' शीर्षक गीत पृष्ठ ९५ में मुखड़ा - 
'बहुत दिनों के बाद 
हवा फिर से बहकी है' ... में रोला (११-१३)  प्रयोग हुआ है किन्तु स्थाई में- 

'गौरैया आँगन में आ फिर से चहकी है
आग बुझे चूल्हे में शायद फिर दहकी है'

तथा 
'थकी-थकी अँगड़ाई चंचल हो बहकी है'  में  १२-१२ = २४ मात्रिक अवतारी जातीय दिक्पाल छंद का प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु-गुरु का पालन हुआ है। तीनों अँतरे रोला छंद में हैं।  
'गेह तजो या देवों जागो 
बहुत हुआ निद्रा व्यापार' 

पृष्ठ ६३ में आल्हा छंद (१६-१५, पंक्त्यांत गुरु-लघु) का प्रयोग करने का सफल प्रयास कर उसके साथ सम्पुट लगाकर नवता उत्पन्न करने का प्रयास हुआ है। अँतरे ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय मिश्रित छंदों में हैं। 'बहुत पुराना खत हाथों में है लेकिन' में  २२ मात्रिक महारौद्र जातीय छंद में मुखड़ा, अँतरे व स्थाई हैं किन्तु यति १०,  १२ तथा ८ पर ली गयी है। यह स्वागतेय है क्योंकि इससे विविधता तथा रोचकता उत्पन्न हुई है।

सीमा जी के नवगीतों का सर्वाधिक आकर्षक पक्ष उनका जीवन और जमीन से जुड़ाव है। वे कपोल कल्पनाओं में नहीं विचरतीं इसलिए उनके नवगीतों में पाठक / श्रोता को अपनापन मिलता है। आत्मावलोकन और आत्मालोचन ही आत्मोन्नयन की राह दिखाता है। 'क्या मुझे अधिकार है?' शीर्षक नवगीत इसी भाव से प्रेरित है। 'रिश्तों की खुशबु', 'कनेर', 'नीम', 'उफ़ तुम्हारा मौन', 'अनबाँची रहती भाषाएँ', 'कमला रानी', 'बहुत पुराना खत' आदि नवगीत इस संग्रह की पठनीयता में वृद्धि करते हैं। सीमा जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य प्रसाद गुण संपन्न, प्रवाहमयी, सहज भाषा है। वे शब्दों को चुनती नहीं हैं, कथ्य की आवश्यकतानुसार अपने आप  हैं इससे उत्पन्न प्रात समीरण की तरह ताजगी और प्रवाह उनकी रचनाओं को रुचिकर बनाता है। लोकगीत, गीत और मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल) में अभिरुचि ने अनजाने ही नवगीतों में छंदों और बह्रों  समायोजन करा दिया है। तन्हाई की नागफनी, गंध के झरोखे, रिवाज़ों का काजल, सोच में सीलन, रातरानी से मधुर उन्वान, धुप मवाली सी, जवाबों की फसल, लालसा के दाँव, सुर्ख़ियों की अलमारियाँ, चन्दन-चंदन बातें, आँचल की सिहरन, अनुबंधों की पांडुलिपियाँ आदि रूपक  छूने में समर्थ हैं।  

इन गीतों में सामाजिक विसंगतियाँ,  वैषम्य से जूझने का संकल्प, परिवर्तन की आहट, आम जन की अपेक्षा, सपने, कोशिश का आवाहन, विरासत और नव सृजन हेतु छटपटाहट सभी कुछ है। सीमा जी के गीतों में आशा का आकाश अनंत है:

पत्थरों के बीच इक 
झरना तलाशें 
आओ बो दें 
अब दरारों में चलो 
शुभकामनाएँ 
*

टूटती संभावनाओं 
के असंभव 
पंथ पर 
आओ, खोजें राहतों की 
कुछ रुचिर नूतन कलाएँ 
*
उनकी अभिव्यक्ति का अंदाज़ निराला है:

उफ़, तुम्हारा मौन 
कितना बोलता है  
वक़्त की हर शाख पर 
बैठा हुआ कल
बाँह में घेरे हुए मधुमास 
से पल 
अहाते में आज के 
मुस्कान भीगे 
गंध के कितने झरोखे 
खोलता है 

तुम अधूरे स्वप्न से 
होते गए 
और मैं होती रही 
केवल प्रतीक्षा

कब हुई ऊँची मुँडेरें  
भित्तियों से 
क्या पता? 
दिन निहोरा गीत 
रचते रह गए 
रातें अनमनी 
मरती रहीं 
केवल समीक्षा 

'कम लिखे से अधिक समझना' की लोकोक्ति सीमा जी के नवगीतों के संदर्भ में सटीक प्रतीत होती है। नवगीत आंदोलन में आ रहे बदलावों के परिप्रेक्ष्य में कृति का महत्वपूर्ण स्थान है। अंसार क़म्बरी  कहते हैं: 'जो गीतकार भाव एवं संवेदना से प्रेरित होकर गीत-सृजन करता है वे गीत चिरंजीवी एवं ह्रदय उथल-पुथल कर देने वाले होते हैं' सीमा जी के गीत ऐसे ही हैं। सीमाजी के अपने शब्दों में: 'मेरे लिए कोई शै नहीं जिसमें संगीत नहीं, जहाँ पर कोमल शब्द नहीं उगते, जहाँ भावों की नर्म दूब नहीं पनपती। हँसी, ख़ुशी, उल्लास, सकार निसर्ग के मूल भाव तत्व हैं, तभी तो सहज ही प्रवाहित होते हैं हमारे मनोभावों में। मेरे शब्द इन्हें ही भजना चाहते हैं, इन्हीं का कीर्तन चाहते हैं।' यह कीर्तन शोरोगुल से परेशान आज के पाठक के मन-प्राण को आनंदित करने समर्थ है। सीमा जी की यह कीर्तनावली नए-नए रूप लेकर पाठकों को आनंदित करती रहे।
५.१०.२०१५  
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गीत-नवगीत संग्रह- खुशबू सीली गलियों की, सीमा अग्रवाल, अंजुमन प्रकाशन, ९४२ आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण- २०१५, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ- ११२, समीक्षा- संजीव सलिल।

समीक्षा

कृति चर्चा 

अँजुरी भर धूप - सुरेश कुमार पंडा

आचार्य संजीव  वर्मा 'सलिल'
नवगीत को साम्यवादियों की विसंगति और विडम्बना केन्द्रित विचारधारा जनीर मानकों की कैद से छुड़ा कर खुली हवा में श्वास लेने का अवसर देनेवाले गीतकारों में एक नाम भाई सुरेश कुमार पंडा का भी है। सुरेश जी का यह गीत-नवगीत संग्रह शिष्ट श्रृंगार रस से आप्लावित मोहक भाव मुद्राओं से पाठक को रिझाता है।
'उग आई क्षितिज पर
सेंदुरी उजास
ताल तले पियराय
उर्मिल आकाश
वृन्तों पर शतरंगी सुमनों की
भीग गई
रसवन्ती कोर
बाँध गई अँखियों को शर्मीली भोर
*
फिर बिछलती साँझ ने
भरमा दिया
लेकर तुम्हारा नाम
* अधरों के किस्लाई किनारों तक
तैर गया
रंग टेसुआ
सपनीली घटी के
शैशवी उतारों पर
गुम हो गया
उमंग अनछुआ
आ आकर अन्तर से
लौट गया
शब्द इक अनाम
लिखा है एक ख़त और
अनब्याही ललक के नाम

सनातन शाश्वत अनुभुतियों की सात्विकतापूर्ण अभिव्यक्ति सुरेश जी का वैशिष्ट्य है। वे नवगीतों को आंचलिकता और प्रांजलता के समन्वय से पठनीय बनाते हैं। देशजता और जमीन से जुड़ाव के नाम पर अप्रचलित शब्दों को ठूँसकर भाषा और पाठकों के साथ अत्याचार नहीं करते।

अछूती भावाभिव्यक्तियाँ, टटके बिम्ब और मौलिक कहन सुरेश जी के गीतों को पाठक की अपनी अनुभूति से जोड़ पाते हैं-
पीपल की फुनगी पर
टंगी रहीं आँखें
जाने कब
अंधियारा पसर गया
एकाकी बगर गया
रीते रहे पल-छिन
अनछुई उसांसें।

नवगीत की सरसता सहजता और ताजगी ही उसे गीतों से पृथक करती है। 'अँजुरी भर धूप' में यह तीनों तत्व सर्वत्र व्याप्त हैं। एक सामान्य दृश्य को अभिनव दृष्टि से शब्दित करने की क्ला में नवगीतकार माहिर है -
आँगन के कोने में
अलसाया
पसरा था
करवट पर सिमटी थी
अँजुरी भर धूप
*
तुम्हारे एक आने से
गुनगुनी
धूप सा मन चटख पीला
फूल सरसों का
तुम्हारे एक आने से
सहज ही खुल गई आँखें
उनींदी
रतजगा
करती उमंगों का।

सुरेश जी विसंगतियों, पीडाओं और विडंबनाओं ओ नवगीत में पिरोते समय कलात्मकता को नहीं भूलते। सांकेतिकता उनकी अभिव्यक्ति का अभिन्न अंग है -
चाँदनी थी द्वार पर
भीतर समायी
अंध कारा
पास बैठे थे अजाने
दुर्मुखों का था सहारा।

आज तेरी याद फिर गहरा गयी है, लिखा है एक खत, कौन है, स्वप्न से जागा नहीं हूँ, मन मेर चंचल हुआ है, अनछुई उसांसें, तुम आये थे, अपने मन का हो लें, तुम्हारे एक आने से, मन का कोना, कब आओगे?, चाँदनी है द्वार पर, भूल चुके हैं, शहर में एकांत, स्वांग, सूरज अकेला है, फागुन आया आदि रचनाएँ मन को छूती हैं। सुरेश जी के इन नवगीतों की भाषा अपनी अभिव्यंजनात्मकता के सहारे पाठक के मन पैठने में सक्षम है। सटीक शब्द-चयन उनका वैशिष्ट्य है। यह संग्रह पाठकों को मन भाने के साथ अगले संग्रह के प्रति उत्सुकता भी जगाता है।
१.२.२०१८
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गीत नवगीत संग्रह- अँजुरी भर धूप, सुरेश कुमार पांडा,  वैभव प्रकाशन अमीनपारा चौक, पुरानी बस्ती, रायपुर, प्रथम संस्करण, रु. १५०, पृष्ठ- १०४, ISBN ८१-८९२४४-१८-०४

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

 फिर उठेगा शोर एक दिन - शुभम श्रीवास्तव ओम

राजा अवस्थी 

कविता के उस हल्के में जहाँ देश का आम जन निवास करता है, कविता का गीतात्मक रुप सदैव उपस्थित रहा है और लगभग आधी सदी की निरन्तर दबंगई व षड़यंत्र को झेलने के बावजूद कविता की वास्तविक मुख्यधारा में नवगीत कविता ही है। नवगीत ने लगातार अपने समय को वाणी दी है और लगातार विकराल होते जा रहे समय में भी वह दृढ़ता व पूरे अपनत्व के साथ मनुष्य एवं मनुष्यता के पक्ष में खड़ा है।
मनुष्यता के पक्ष में खड़े नवगीत - कवियों की नई पीढ़ी में कवि शुभम श्रीवास्तव ओम का नाम काफी तेजी से उभरा है। शुभम श्रीवास्तव के प्रथम नवगीत संग्रह "फिर उठेगा शोर एक दिन" की नवगीत कविताओं को पढ़ते हुए कवि की जनसरोकारों के प्रति प्रतिबद्धता को बहुत गहराई से समझा जा सकता है। यह नवगीत संग्रह अपने वैविध्यपूर्ण शिल्प के साथ विषय, कथ्य व भाषा को लेकर भी चौंकाने की हद तक पाठक को खुद से जोड़ता है।

समय और स्थितियाँ सदैव अपने साथ रोशनी और अँधेरा एक साथ लेकर ही गतिमान हैं। यह अवश्य है कि एक समय में एक स्थान में प्रकाश और अंधकार दोनों में से एक की ही उपस्थिति दिखाई पड़ती है। जब घनघोर अँधेरा छाया हुआ हो तब भी शुभम एक दर्पण उगाने की बात करते हैं।
अँधेरे वक्त में दर्पण उगाने की यह कल्पना उम्मीद के बचे रहने और बचाये रखने के संकल्प का ही प्रमाण है। वे लिखते हैं -
"है अँधेरा वक्त जब तक
आइए दर्पण उगायें
पेड़ परजीवी, नुकीले फूल
नरभक्षी हवायें
एक नन्ही-सी बया का
मुँह दबाती सभ्यतायें
प्रश्न करतीं अस्मितायें
मौन आदिम भूमिकायें
नहीं मरने दे रहीं पर
शिलालेखी आस्थायें। "

मुक्तिबोध जिस जटिल और अबूझ संवेदना की फैंटेसी रचते हुए उसे विकरालता की हद तक अबूझ बनाते हैं, वैसी ही विकट स्थितियों को शुभम श्रीवास्तव ओम अपने नवगीतों में बहुत सरलता से हमारे ज्ञानात्मक संवेदन से जोड़ते हुए संवेदनात्मक ज्ञान तक ले आते हैं। वे लिखते हैं -
"हाथ - पाँव अँधियारा नाथे,
रस्ता सही अबूझ
साजिश लादे हँसी उतरती
हँस लेने से सिर भन्नाता
गीले ठण्डे हाथों में ज्यों
कोई नंगा तार थमाता
आदिम प्रतिमाओं की चुप्पी
बौने बोते लूझ
क्रूर कहकहे लिए प्रश्न फिर
रात वही काली अनुबंधित
चुप रहना भी सख्त मना है
उत्तर देना भी प्रतिबंधित
कंधों पर बैताल चढ़े हैं
कहते उत्तर बूझ। "

कविता मनुष्य को अपने भीतर उम्मीद को बचाये रखने की सीख देती आई है, किन्तु शुभम श्रीवास्तव कोरी उम्मीद बँधाने वाले कवि नहीं हैं। वे कर्म के बल पर उम्मीदों को पूरा करने की बात करते हैं। कहते हैं -
"कब तक उम्मीदों के दम पर
दुनिया का संचालन होगा
घिसी-पिटी इस रूढ़वादिता
का कब तक अनुपालन होगा
आओ थाह लगाकर आयें
कहाँ छुपी है भोर
पर्वत तक झुक जायेगा
यदि हो प्रयास पुरजोर। "

शुभम श्रीवास्तव समय के छद्म को न केवल पहचानते हैं, बल्कि उसे अनावृत करने से भी नहीं चूकते। उनके नवगीत 'बेचैन उत्तरकाल' को देखें -
" चाहतें अश्लील, नंगा नाच
फाड़े आँख मन बदलाव
काटना जबरन अँगूठा
रोप मन में एकलव्यी भाव
लोग बौने सिर्फ ऊँची तख्तियों के दिन।"

अपने समकाल को अपनी कविता में अंकित करते हुए शुभम भाषा के भी जीवन्त प्रयोग करते हैं। इसी गीत में देखें -
भावनाएँ असहिष्णु, देह सहमी
काँपता कंकाल
बुलबीयर-सेंसेक्स,
उथली रात, उबली नींद, आँखें लाल
ड्राप कालें और बढ़ती दूरियों के दिन।।

'फिर उठेगा शोर एक दिन' की नवगीत कविताओं को पढ़ना, इनसे होकर गुजरना एक व्यापक दुनिया से होकर गुजरने जैसा अनुभव है। इन नवगीत कविताओं का पटल बहुत व्यापक है। इनमें हमारे अपनों का छद्म, विसंगति के विविध - विकराल और अनन्त रूप, व्याप्त भ्रष्टाचार, उम्मीदों का असमय मरण, बदलते हुए गाँव - शहर, सब कुछ जीवंत होता दिखता है। शुभम श्रीवास्तव घोषित रूप से नवगीत कवि हैं, इसलिए इनकी नवगीत कविताओं की पड़ताल करते हुए इनकी गीतात्मकता पर दृष्टि जाना स्वाभाविक है ;यद्यपि अपने कथ्य की प्रासंगिकता और दिन प्रतिदिन की ज़िन्दगी से जुड़े सवालों से भरे ये नवगीत पाठक की जिंदगी से जुड़े हुए हैं, तब भी गीतात्मकता का अपना महत्व तो है ही और यही वह तत्व है जो कविता के कथ्य को पाठक के भीतर तक पहुँचाता है एवं उसके प्रभाव को स्थायी बनाता है। इस संग्रह के अधिकांश गीतों की गीतात्मकता अपने श्रेष्ठ स्तर तक पहुँची हुई है, किन्तु कहीं - कहीं अनुपयुक्त शब्दों के चयन से लय व प्रवाह बाधित भी हुआ है, यद्यपि कुछ स्थलों पर कथ्य का दबाव भी इसका कारण हो सकता है।

शास्त्रकारों ने काव्य की तीन कोटियाँ बताई हैं। ये तीन कोटियाँ हैं - उत्तम, मध्यम और निम्न। उनके अनुसार व्यञ्जनागर्भी काव्य को उत्तम, लक्षणाधर्मी काव्य को मध्यम और अमिधामूलक काव्य को निम्न कोटि का काव्य माना जाता है। इस दृष्टि से भी शुभम श्रीवास्तव की कविताओं को श्रेष्ठ कोटि की कवितायें माना जा सकता है। दरअसल अर्थविस्तार की संभावनायें व्यञ्जना ही पैदा करती है और शुभम के नवगीतों में अनायास व्यञ्जना की पर्याप्तता मिलती है।
कुछ नवगीतों के अंश देखते हैं -
"देखते हैं कब छँटेगा ये धुँआ अब ?
आसमाँ बंजर, बनी बंधक उड़ानें
पर कुतरने के लिए सौ-सौ बहाने
धुंध आदमखोर छाई हर दिशा में
रंग गेहुँवन का हुआ है गेहुँवा अब।"
"नये दौर का नया ढंग है -
गुडमार्निंग से शुरू हुआ सब
गुडनाइट पर खत्म हुआ। "
" बंद कमरा, एक दर्पण, और तुम तितली /
आँख फाड़े देखती है ट्यूबलाइट
देह का ऐसे उघड़तापन
आँख पीती जा रही संकोच की बदली। "

नवगीत कविता वास्तव में लोक की ही सम्पत्ति है, क्योंकि इस कविता के तत्व लोक से ही आए हैं। इसीलिए नवगीत में लोकभाषा, लोकमान्यतायें, लोकसंस्कृति और लोकव्यवहार से लेकर लोक में मनाये जाने वाले सभी तीज - त्यौहार पूरे उल्लास और अर्थगाम्भीर्य के साथ उपस्थित हैं। ऐसा ही एक गीत है 'दबे पाँव फागुन' ; फागुन और बसंत का रिश्ता शाश्वत है। बसंत मन में फूटते या फूट चुके प्रणयगंधी अनुराग के पलने-पनपने का मौसम है। ऐसे में यह नवगीत एक सुन्दर और मोहक कथ्य के साथ उतरता है -
"भौजी की गाली खुश करती,
गाल लाल होते झिड़की पर
दिनभर में एकाध मर्तबा
तुम भी आ जातीं खिड़की पर
अपनी होली तभै मनेगी
अपने रंग रँगूँ जब तुमका।"

इस नवगीत संग्रह में फागुन और बसंत ही नहीं सावन की बारिस, जेठ की गर्मी, पूस की कड़कड़ाती ठण्ड एवं इस सबके बीच मनाये जाने वाले उत्सवों के अपनेपन के मध्य कहीं बढ़ते अजनबीपन को भी पढ़ा जा सकता है।

समकालीन गद्य कविता जिस आधुनिक भावबोध की बात करती है, वह सम्पूर्ण आधुनिक भावबोध, नई- टटकी- समकालीन भाषा, जटिलतम होता कथ्य शुभम श्रीवास्तव के नवगीतों में पूरी ऊर्जा के साथ उपस्थित है। मात्र २५ वर्ष की आयु का यह कवि नवगीत कविता में जिस भाव-बोध और भाषा बोध को लेकर आया है, वह अद्भुत और चौकाने वाला है। इनकी नवगीत कविताओं की भाषा में एक बिल्कुल नयी ही आहट सुनाई देती है। यद्यपि इनके उपयोग से कई जगह काव्यात्मकता में गतिरोध - सा भी आया है, किन्तु ये शब्द, इनकी उपस्थिति अपने समय की उपस्थिति को प्रामाणिक बनाते हैं।

व्यवस्था और परिवेश में आ रहे बदलाव को व्यक्त करने से कविता कभी चूकती नहीं। जहाँ राजनीति में स्त्रियों की बढ़ती भागीदारी ने उन्हें घर से निकाला है, वहीं लोकतंत्र में व्यवस्था के विरोध का एक अराजक माहौल भी पैदा हुआ है। यद्यपि यह विरोध कहाँ, कितना जरूरी है, यह प्रश्न अलग किन्तु महत्वपूर्ण है। तब भी शुभम लिखते हैं -
" पर्चे बाँटो /बसें जलाओ
काले झण्डे से दहलाओ
लोकतंत्र के हर पहलू को। "

किसी कविता को पढ़ते हुए कवि की दृष्टि को पढ़ना भी अनायास ही होता है, तो हम पाते हैं कि नवगीत कवि शुभम की दृष्टि और पीड़ा शिक्षा से वंचित पत्थर के दो टुकड़ों को बजाते - गाते बच्चे, पिटारी में साँप लेकर भीख मांगते बच्चे और भूख, गरीबी, गाली, अपमान, सब कुछ सहजता से सह - पी जाने वाले इन बच्चों की पीड़ा को भी अपनी कविता में ले आती है।
'बाल सपेरे भूख कमाते कोरस गाकर
भूख-गरीबी, गाली-झिड़की, सब स्वाभाविक
भीख माँगते तब आँखों में आँसू लाकर। "

कवि दृष्टि से कवि-ज्ञान और कवि-संवेदना मिलकर व्यञ्जना का वह वितान बनाने की दिशा में शुभम के कवि की यात्रा इस तरह अग्रसर होती देखी जा सकती है कि, जिससे कविता का केनवास व्यापक और बड़ा हो सके। ऐसा ही एक नवगीत 'अनुबंधों की खेती 'में वे लिखते हैं -
" बहुत देर डूबा-उतराया
मन में कोई मन का कोना।
सोख रही चिमनी सोंधापन
फीके कप बासी गर्माहट
डाइनिंग टेबल रोज देखता
है यह आपस की टकराहट
हर रिश्ते को डीठ लगी है
सपनों पर मुँहबंदी टोना।
बाँह थामती इक टहनी को
झूठे वादों से फुसलाकर
दिन की अपनी दिनचर्या है
घर से दफ्तर, दफ्तर से घर
बूढ़े बादल की लाचारी
कितना मुश्किल बादल होना। "

शुभम अपने गीतों में कभी-कभी एक फैंटेसी - सी रचने की कोशिश करते हैं। जहाँ वे ऐसा करते हैं, वहाँ कविता अपने कई-कई संदर्भ रचती प्रतीत होती है। ऐसा ही एक नवगीत कविता है - 'भारी माहौल'
" लावा जैसे बहे-ढहे स्तूप पिघलकर
एक तिलस्मी धूप हँस रही बीच सड़क पर
......................................................
यह ठण्डाई चोट आग रह-रह भड़काती
दे अनिष्ट आगाह आँख खुलते फड़काती
खंजर जैसी शक्ल पा रहे हैं लोह बेडौल।"
एवं
"मेज पर कुछ पड़े चेहरे,
अपशकुन - सी गर्म जोशी
चंद मिनटों के लिए,
वह औपचारिक ताजपोशी
जो निठल्ले लोग थे,
ठण्डी पहाड़ी माँग बैठे।"

शुभम किसी - किसी गीत को बिना मुखड़े का ही रहने देते हैं। यह उनकी शैल्पिक प्रयोगशीलता भी हो सकती है, किन्तु गीत कविता की दृष्टि से इसे ठीक नहीं कहा जा सकता। किसी भी गीत का मुखड़ा अर्थ ही नहीं लय की दृष्टि से भी कविता के ' मूल ' की भाँति होता है। कोई भी कविता जब तक आवर्त नहीं रचती, वह अपने कविता होने की शर्त को पूरी तरह पूरा नहीं करती। गीत कविता में लय का भी एक आवर्त होता है, जिसे कोई भी कविता बार-बार पूरा करती है और यह आवर्त मुखड़े को मध्य में रखकर ही पूरा होता है। ऐसा ही बिना मुखड़े वाला नवगीत है 'आदिम गंधी बेला'। यद्यपि यह नवगीत अपने अपने कथ्य, प्रवाह और प्रभाव की दृष्टि से अच्छा नवगीत है, तब भी नवगीत कविता में शिल्प की दृष्टि से भी विचार किया ही जाना चाहिए ; क्योंकि यह शिल्प वह महत्वपूर्ण कारण है, जो कविता को जन तक ले जाने और इसे आम पाठक, श्रोता, भावुक के निकट बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

इस संग्रह के रचनाकार की समय-दृष्टि प्रखर है। वह अपने नवगीतों में समय को इस तरह वर्तता है कि कविता अपने समय का दस्तावेजी पृष्ठ बन जाती है। जब वह -
"चुभते हैं कोलाज पुराने
सहमी हुई सदी की आँखें
दो तरफा संवेग पनपता
सारे आशय बगलें झाँकें
संकेतों ने अर्थ दिये
हालात बड़े संगीन।" कहता है तो इस सदी की स्थितियों और संभावनाओं के साथ पिछली सदी के अनुभवों को भी समेट लेता है।

शुभम श्रीवास्तव के इस नवगीत संग्रह "फिर उठेगा शोर एक दिन" के सभी नवगीतों को पढ़कर जो बात चौंकाती है, वह है एक नई शब्दावली की प्रबल आहट। वे डिजिटल होती दुनिया में प्रचलन में आ रहे शब्दों का बहुतायत में प्रयोग करते हैं। यथा - मैसेज, अनफ्रेंड, ब्लाक, पोक, बुल-बीयर, सेंसेक्स, ड्राप कालें, स्क्रीन, रोबोट - मन, डस्टबिन, हेडफोन, रिमिक्स, ब्रेड, कर्टसी, टावर, डी जे, गुडमाॅर्निंग, गुड नाइट, डिबेट, राईट, फाईट, बिट-बाइट, साईज, टैग, कोलाज, लोडिंग, असेम्बलिंग, इन्सेन्टिव, ओवरटाइम, नेटवर्क, रिट, स्टे आदि। यद्यपि जिस परिमाण में शुभम के नवगीतों में लोक और लोक के शब्द हैं, उनकी तुलना में अत्यल्प ही हैं, किन्तु आने वाले समय में भाषा में होने वाले घालमेल की आहट तो हैं ही। ऐसे शब्द कई जगह गीतात्मकता में अवरोध भी पैदा करते हैं। जैसा इनका वास्तविक उच्चारण होता है, गीत में प्रयुक्त होने पर ठीक वैसा उच्चारण नहीं रह जाता। गीतकार को यह सब भी देखना होगा। साहित्यकार को प्रवृत्तियों का पिछलग्गू होने से बचना चाहिए। उसका दायित्व अपनी भाषा, लोक, लय सबके संरक्षण का भी है। इसलिए अनियन्त्रित ढंग से हावी होती अनपेक्षित प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण की निरन्तर कोशिश करना भी उसका दायित्व होना चाहिए।

कविता में कथ्य बहुत महत्वपूर्ण चीज है, किन्तु बात जब नवगीत कविता की आती है, तो कथ्य को लय व प्रवाह में ढालकर कविता बना देना कवि की जवाबदारी है। कथ्य व विषय से समझौता किये बिना गीत में कहना ही तो उसकी चुनौती है, अन्यथा तो यहाँ गद्य भी कविता की श्रेणी में आ रहा है। इस दृष्टि से होने वाली चूकों से बचने की जरूरत है।

इस संग्रह के नवगीतों को पढ़ते हुए पाठक जिस राग बोध को जियेगा, वह राग बोध उसे गीतों को अपना ही राग बनाने का का काम करेगा। इसे पढ़कर जिन्दगी और समस्याओं को देखने की दृष्टि में कुछ नया भी जुड़ेगा, इसलिए भी यह संग्रह पढ़ा जाना चाहिए। इस संग्रह के कवि शुभम श्रीवास्तव को हार्दिक शुभकामनायें।
१.९.२०१८ 
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गीत नवगीत संग्रह- फिर उठेगा शोर एक दिन, रचनाकार- शुभम श्रीवास्तव ओम, प्रकाशक- अयन प्रकाशन, १/२०,महरौली,नई दिल्ली - ११००३०, प्रथम संस्करण२०१७, मूल्य- रु. २४०, पृष्ठ- ११२, समीक्षा- राजा अवस्थी, आईएसबीएन क्रमांक- ९७८८१७४०८७००३

समीक्षा

कृति चर्चा:

ढलती हुई धूप- सुरेशचंद्र सर्वहारा

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
अनुभूति की अभिव्यक्ति गद्य और पद्य दो शैलियों में की जाती है। पद्य को विविध विधाओं में वर्गीकृत किया गया है। कविता सामान्यतः छंदहीन अतुकांत रचनाओं को कहा जाता है जबकि गीत लय, गति-यति को साधते हुए छंदबद्ध होता है। इन्हें झरने और नदी के प्रवाह की तरह समझा जा सकता है।  अनुभूति और अभिव्यक्ति किसी बंधन की मुहताज नहीं होती। रचनाकार कथ्य के भाव के अनुरूप शैली और शिल्प चुनता है, कभी-कभी तो कथ्य इतना प्रबल होता है कि रचनाकार भी  उपकरण ही हो जाता है, रचना खुद को व्यक्त करा लेती है। कुछ पद्य रचनाएँ दो विधाओं की सीमारेखा पर होती हैं अर्थात उनमें एकाधिक विधाओं के लक्षण होते हैं। इन्हें दोनों विधाओं में वर्गीकृत किया जा सकता है।

कवि - गीतकार सुरेशचंद्र सर्वहारा की कृति 'ढलती हुई धूप' कविता के निकट नवगीतों और नवगीत के निकट कविताओं का संग्रह है। विवेच्य कृति की रचनाओं को दो भागों 'नवगीत' और 'कविता' में वर्गीकृत भी किया जा सकता था किन्तु सम्भवतः पाठक को दोनों विधाओं की गंगो-जमुनी प्रतीति करने के उद्देश्य से उन्हें घुला-मिला कर रखा गया है।      

कविता की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है,  न हो सकती है। गीत की समसामयिक विसंगति और विषमता से जुडी भावमुद्रा नव छन्दों को समाहित कर नवगीत बन जाती है जबकि छंद आंशिक हो या न हो तो वह कविता हो जाती है।  'ढलती हुई धूप' के मुखपृष्ठ पर अंकित चन्द्र का भ्रम उत्पन्न करता अस्ताचलगामी सूर्य इन रचनाओं के मिजाज की प्रतीति बिना पढ़े ही करा देता है।

कवि के शब्दों में- ''आज जबकि संवेदना और रसात्मकता चुकती जा रही है फिर भी इस धुँधले परिदृश्य में कविता मानव ह्रदय के निकट है।''

प्रथम रचना 'शाम के साये' में ६ पंक्तियों के मुखड़े के बाद ५ पंक्तियों का अंतरा तथा मुखड़े के सम भार और तुकांत की ३-३ पंक्तियाँ फिर ६ पंक्तियों का अन्तरा है। दोनों अंतरों के बीच की ६ में से ३ पंक्तियाँ अंत में रख दी जाएँ तो यह नवगीत है।  सम्भवत: नवगीत होने या न होने को लेकर जो तू-तू मैं-मैं समीक्षकों ने मचा रखी है उससे बचने के लिए  नवगीतों को कविता रूप में प्रस्तुत किया गया है।

दिन डूबा, उत्तरी धरती पर
धीरे-धीरे शाम
चिट्ठी यादों की ज्यों कोई
लाई मेरे नाम।

लगे उभरने पीड़ाओं के
कितने-कितने दंश
दीख रहे कुछ धुँधलाए से
अपनेपन के अंश।

सिमट गए सायों जैसे ही
जीवन के आयाम।

लगा दृश्य पर अँधियारों का
अब तो पूर्ण विराम।
पुती कालिमा दूर क्षितिज पर
सब कुछ हुआ उदास।

पंछी बन उड़ गए सभी तो
कोई न मेरे पास।

खुशियों की तलाश, जाड़े की शाम, धुँधली शाम, पत्ते, चिड़िया, दुःख के आँसू, ज़िंदगी, उतरती शाम, सूखा पेड़, गुलमोहर, टेसू के फूल, फूल हरसिंगार के, बासंती हवा, यादों के बादल, याद तुम्हारी, दर्द की नदी, कविता और लड़की, झुलसते पाँव, फूल बैंगनी, जाड़े की धूप, माँ का आँचल, रिश्ते, समय शकुनि, लल्लू, उषा सुंदरी आदि रचनाएँ शिल्प की दृष्टि से नवगीत के समीप हैं जबकि पहली बारिश, धुंध में, कागज़ की नाव, ढलती हुई धूप, सीमित ज़िंदगी, सृजन, मेघदर्शन, बंजर मन, पेड़ और मैं, याद की परछाइयाँ, सूखी नदी, फूल खिलते हैं, लड़कियाँ, अकेली लड़की, निशब्द संबंध, वह स्त्री, युद्ध के बाद, नंगापन, एक बुजुर्ग का जाना, नव वर्ष, विधवा की बेटी, वयोवृद्ध एवं बूढ़ा, वृद्धाश्रम आदि कविता के निकट हैं।

सर्वहारा जी के मत में ''साहित्य का सामाजिक सरोकार भी होना चाहिए जो सामाजिक बुराइयों का बहिष्कार कर सामाजिक परिवर्तन का शंखनाद करे।'' इसीलिए विधवा की बेटी, वयोवृद्ध एवं बूढ़ा, वृद्धाश्रम,वह स्त्री, युद्ध के बाद, नंगापन, लड़कियाँ, अकेली लड़की, निशब्द संबंध जैसी कवितायें लिखकर वे पीड़ितों के प्रति संवेदनाएँ व्यक्त करते हैं।

''युद्ध का ही दूसरा नाम है बर्बरता
जो कर लेती है हरण
आँखों की नमी के साथ
धरती की उर्वरता'', और ''खुश नहीं
रह पाते जीतनेवाले भी
अपराध बोध से रहते हैं छीजते
हिमालय में गल जाते हैं''

लिखकर कवि संतुष्ट नहीं होता, शायद उसे पाठकीय समझ पर संदेह है, इसलिए इतना पर्याप्त हो पर भी वह स्पष्ट करता है

''पांडवों के शरीर जो जैसे-तैसे कर
महाभारत हैं जीतते''।

पर्यावरण की चिंता सूखी नदी, फूल खिलते हैं, पेड़ और मैं, सूखा पेड़, गुलमोहर, टेसू के फूल, फूल हरसिंगार के, दर्द की नदी आदि रचनाओं में व्यक्त होती है।  फूलों और खुशियों का रिश्ता अटूट है-

''रह-रह कर झर रहे
फूल हरसिंगार के।

भीनी-भीनी खुशबू से
भीग गया मन
साँसों को बाँध रहा
नेह का बंधन

लौट रहे दिन फिर से
प्यार और दुलार के।

थिरक उठा मस्ती से
आँगन का पोर - पोर
नच उठा खुशियों से
घर-भर का ओर-छोर

गए रहा ही गीत कौन
मान और मनुहार के।

रातों को खिलते थे
जीवन में झूमते
प्रातः को हँस - हँस अब
मौत को हैं चूमते

अर्थ सारे खो गए हैं
जीत और हार के''

इस नवगीत में फूल और मानव जीवन के साम्य को भी इंगित किया गया है।  

सर्वहारा जी हिंदी - उर्दू की साँझा शब्द सम्पदा के हिमायती हैं। गीतों के कथ्य आम जन को सहजता से ग्राह्य हो सकने योग्य हैं।  उनका 'गुलमोहर' नटखट बच्चों की क्रीड़ा का साथी है

 ''दूर-दूर तक फैले सन्नाटों
औे लू के थपेड़ों को अनदेखा कर
घरवालों की  आँख चुराकर
छाँव तले आए नटखट बच्चों संग
खेलता गुलमोहर''

तो टेसू आस-विश्वास के रंग बिखेरता है -

 ''बिखर गए रंग कई
आशा-विश्वास के
निखर गए ढंग नए
जीवन उल्लास के

फागुन के फाग से
भा गए टेसू के फूल।''

गाँव से शहरों की पलायन की समस्या 'लल्लू' में मुखरित है-

लल्लू! कितने साल हो गए
तुमको शहर गए

खेतों में पसरा सन्नाटा
सूखे हैं खलिहान
साँय-साँय करते घर-आँगन
सिसक रहे दालान।

भला कौन ऐसे में सुख से
खाये और पिए।  

शब्द - सम्पदा और अभिव्यक्ति - सामर्थ्य के धनी सुरेश जी के स्त्री विमर्श विषयक गीत मार्मिकता से सराबोर हैं। इनमें  पीड़ा और दर्द का होना स्वाभाविक है किन्तु आशा की किरण भी है-

देखते ही देखते  बह चली
रोशनी की नदी
उसके पथ में आज
कई काली रातों के बाद
फैला है उजाला
सुनहरी भोर का
एक नया है यह आगाज।

सुरेश जी विराम चिन्हों को अनावश्यक समझने के काल में  उनके महत्त्व से न केवल परिचित हैं अपितु विराम चिन्हों का निस्संकोच प्रयोग भी करते हैं। अल्प विराम, पूर्ण विराम, संयोजक चिन्ह आदि का उपयोग पाठक को रुचता है। इन गीतों की कहन सहज प्रवाहमयी, भाषा सरस और अर्थपूर्ण तथा कथ्य सम - सामयिक है। बिम्ब और प्रतीक प्रायः पारम्परिक हैं। पंक्तयांत के अनुप्रास में वे कुछ छूट लेते हुए चिड़िया, बुढ़िया, गडरिया, गगरिया जैसे अंत्यानुप्रासिक प्रयोग बेहिचक करते हैं।

सारतः, इन नवगीतों में नवगीत जैसी ताजगी, ग़ज़लों जैसी नफासत, गीतों की सी सरसता, मुकतक की सी चपलता, छांदस संतुलन और मौलिकता है जो पाठकों को न केवल आकृष्ट करती है अपितु बाँधकर भी रखती है।  यह पठनीय कृति लोकप्रिय भी होगी।
१३.६.२०१६, अभिव्यक्ति  
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गीत- नवगीत संग्रह - ढलती हुई धूप, रचनाकार-  सुरेशचंद्र सर्वहारा, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७, सेक्र ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर। प्रथम संस्करण- २०१५, मूल्य- १०० रुपये, पृष्ठ-१२० , समीक्षा- आचार्य संजीव सलिल। ISBN 978-93-84989-80-5
http://sangrahaursankalan.blogspot.com/search/label/%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%20%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE
एक रचना 
*
देश हमारा है 
सरकार हमारी है, 
क्यों न निभायी 
हमने जिम्मेदारी है?
*
नियम व्यवस्था का
पालन हम नहीं करें,
दोष गैर पर-
निज, दोषों का नहीं धरें।
खुद क्या बेहतर
कर सकते हैं, वही करें।
सोचें त्रुटियाँ कितनी
कहाँ सुधारी हैं?
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
भाँग कुएँ में
घोल, हुए मदहोश सभी,
किसके मन में
किसके प्रति आक्रोश नहीं?
खोज-थके, हारे
पाया सन्तोष नहीं।
फ़र्ज़ भुला, हक़ चाहें
मति गई मारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
एक अँगुली जब
तुम को मैंने दिखलाई।
तीन अंगुलियाँ उठीं
आप पर, शरमाईं
मति न दोष खुद के देखे
थी भरमाई।
सोचें क्या-कब
हमने दशा सुधारी है?
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
जैसा भी है
तन्त्र, हमारा अपना है।
यह भी सच है
बेमानी हर नपना है।
अँधा न्याय-प्रशासन,
सत्य न तकना है।
कद्र न उसकी
जिसमें कुछ खुद्दारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
कौन सुधारे किसको?
आप सुधर जाएँ।
देखें अपनी कमी,
न केवल दिखलायें।
स्वार्थ भुला,
सर्वार्थों की जय-जय गायें।
अपनी माटी
सारे जग से न्यारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*

समीक्षा काल है संक्रांति का

पुस्तक चर्चा
काल है संक्रांति का - एक सामयिक और सशक्त काव्य कृति
- अमरेन्द्र नारायण
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', वर्ष २०१६, आवरण बहुरँगी, आकार डिमाई, पृष्ठ १२८, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैक २००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २४१११३१, गीतकार संपर्क- ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com]
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी बहुमुखी प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व के स्वामी हैं। वे एक सम्माननीय अभियंता, एक सशक्त साहित्यकार, एक विद्वान अर्थशास्त्री, अधिवक्ता और एक प्रशिक्षित पत्रकार हैं। जबलपुर के सामाजिक जीवन में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी यही बहुआयामी प्रतिभा उनकी नूतन काव्य कृति 'काल है संक्रांति का' में लक्षित होती है। संग्रह की कविताओं में अध्यात्म, राजनीति, समाज, परिवार, व्यक्ति सभी पक्षों को भावनात्मक स्पर्श से संबोधित किया गया है। समय के पलटते पत्तों और सिमटते अपनों के बीच मौन रहकर मनीषा अपनी बात कहती है-
'शुभ जहाँ है, उसीका उसको नमन शत
जो कमी मेरी कहूँ सच, शीश है नत।
स्वार्थ, कर्तव्यच्युति और लोभजनित राजनीतिक एवं सामाजिक व्यवस्था के इस संक्रांति काल में कवि आव्हान करता है-
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
अब भ्रान्ति टाल दो, जगो-उठो।
कवि माँ सरस्वती की आराधना करते हुए कहता है-
अम्ल-धवल, शुचि
विमल सनातन मैया!
बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान प्रदायिनी छैयाँ
तिमितहारिणी, भयनिवारिणी सुखदा
नाद-ताल, गति-यति खेलें तव कैयाँ
अनहद सुनवा दो कल्याणी!
जय-जय वीणापाणी!!
अध्यात्म के इन शुभ क्षणों में वह अंध-श्रद्धा से दूर रहने का सन्देश भी देता है-
अंध शृद्धा शाप है
आदमी को देवता मत मानिए
आँख पर पट्टी न अपनी बाँधिए
साफ़ मन-दर्पण हमेशा यदि न हो
गैर को निज मसीहा मत मानिए
लक्ष्य अपना आप हैं।
संग्रह की रचनाओं में विविधता के साथ-साथ सामयिकता भी है। अब भी जन-मानस में सही अर्थों में आज़ादी पाने की जो ललक है, वह 'कब होंगे आज़ाद' शीर्षक कविता में दिखती है-
कब होंगे आज़ाद?
कहो हम
कब होंगे आज़ाद?
गये विदेश पर देशी अंग्रेज कर रहे शासन
भाषण देतीं, पर सरकारें दे न स्की हैं राशन
मंत्री से सन्तरी तक, कुटिल-कुतंत्री बनकर गिद्ध
नोच-खा रहे भारत माँ को, ले चटखारे-स्वाद
कब होंगे आज़ाद?
कहो हम
कब होंगे आज़ाद?
आकर्षक साज-सज्जा से निखरते हुए इस संकलन की रचनाएँ आनन्द का स्रोत तो हैं ही, वे न केवल सोचने को मजबूर करती हैं बल्कि अकर्मण्यता दूर करने का सन्देश भी देती हैं।
कवि को हार्दिक धन्यवाद और बधाई।
गीत-नवगीत की इस पुस्तक का स्वागत है।
***
समीक्षक परिचय- अमरेंद्र नारायण, ITS (से.नि.), भूतपूर्व महासचिव एशिया पेसिफिक टेलीकम्युनिटी बैंगकॉक , हिंदी-अंग्रेजी-उर्दू कवि-उपन्यासकार, ३ काव्य संग्रह, उपन्यास संघर्ष, फ्रेगरेंस बियॉन्ड बॉर्डर्स, द स्माइल ऑफ़ जास्मिन, खुशबू सरहदों के पार (उर्दू अनुवाद)संपर्क- शुभा आशीर्वाद, १०५५ रिज रोड, दक्षिण सिविल लाइन जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २६०४६००, ईमेल- amarnar@gmail.com।
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बुधवार, 5 सितंबर 2018

ganesh stuti

प्रातस्मरण स्तोत्र (दोहानुवाद सहित) -संजीव 'सलिल'
II ॐ श्री गणधिपतये नमः II 
*
प्रात:स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं सिंदूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मं 
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमाखण्डलादि सुरनायक वृन्दवन्द्यं
*
प्रात सुमिर गणनाथ नित, दीनस्वामि नत माथ.
शोभित गात सिंदूर से, रखिये सिर पर हाथ..
विघ्न-निवारण हेतु हों, देव दयालु प्रचण्ड.
सुर-सुरेश वन्दित प्रभो!, दें पापी को दण्ड..
*
प्रातर्नमामि चतुराननवन्द्यमान मिच्छानुकूलमखिलं च वरं ददानं.
तं तुन्दिलंद्विरसनाधिप यज्ञसूत्रं पुत्रं विलासचतुरं शिवयो:शिवाय.
*
ब्रम्ह चतुर्मुखप्रात ही, करें वन्दना नित्य.
मनचाहा वर दास को, देवें देव अनित्य..
उदर विशाल- जनेऊ है, सर्प महाविकराल.
क्रीड़ाप्रिय शिव-शिवासुत, नमन करूँ हर काल..
*
प्रातर्भजाम्यभयदं खलु भक्त शोक दावानलं गणविभुंवर कुंजरास्यम.
अज्ञानकाननविनाशनहव्यवाह मुत्साहवर्धनमहं सुतमीश्वरस्यं..
*
जला शोक-दावाग्नि मम, अभय प्रदायक दैव.
गणनायक गजवदन प्रभु!, रहिए सदय सदैव..
*
जड़-जंगल अज्ञान का, करें अग्नि बन नष्ट.
शंकर-सुत वंदन नमन, दें उत्साह विशिष्ट..
*
श्लोकत्रयमिदं पुण्यं, सदा साम्राज्यदायकं.
प्रातरुत्थाय सततं यः, पठेत प्रयाते पुमान..
*
नित्य प्रात उठकर पढ़े, त्रय पवित्र श्लोक.
सुख-समृद्धि पायें 'सलिल', वसुधा हो सुरलोक..
***

kavita

कविता:
आत्मालाप:
संजीव 'सलिल'
*
क्यों खोते?, क्या खोते?,औ' कब? 
कौन किसे बतलाये?
मन की मात्र यही जिज्ञासा
हम क्या थे संग लाये?
आए खाली हाथ
गँवाने को कुछ कभी नहीं था.
पाने को थी सकल सृष्टि
हम ही कुछ पचा न पाये.
ऋषि-मुनि, वेद-पुराण,
हमें सच बता-बताकर हारे
कोई न अपना, नहीं पराया
हम ही समझ न पाये.
माया में भरमाये हैं हम
वहम अहम् का पाले.
इसीलिए तो होते हैं
सारे गड़बड़ घोटाले.
जाना खाली हाथ सभी को
सभी जानते हैं सच.
धन, भू, पद, यश चाहें नित नव
कौन सका इनसे बच?
जब, जो, जैसा जहाँ घटे
हम साक्ष्य भाव से देखें.
कर्ता कभी न खुद को मानें
प्रभु को कर्ता लेखें.
हम हैं मात्र निमित्त,
वही है रचने-करनेवाला.
जिससे जो चाहे करवा ले
कोई न बचनेवाला.
ठकुरसुहाती उसे न भाती
लोभ, न लालच घेरे.
भोग लगा खाते हम खुद ही
मन से उसे न टेरें.
कंकर-कंकर में वह है तो
हम किससे टकराते?
किसके दोष दिखाते हरदम?
किससे हैं भय खाते?
द्वैत मिटा, अद्वैत वर सकें
तभी मिल सके दृष्टि.
तिनका-तिनका अपना लागे
अपनी ही सब सृष्टि.
कर अमान्य मान्यता अन्य की
उसका हृदय दुखाएँ.
कहें संकुचित सदा अन्य को
फिर हम हँसी उड़ायें..
कितना है यह उचित?,
स्वयं सोचें, विचार कर देखें.
अपने लक्ष्य-प्रयास विवेचें,
व्यर्थ अन्य को लेखें..
जिनके जैसे पंख,
वहीं तक वे पंछी उड़ पायें.
ऊँचा उड़ें,न नीचा
उड़नेवाले को ठुकराएँ..
जैसा चाहें रचें,
करे तारीफ जिसे भायेगा..
क्या कटाक्ष-आक्षेप तनिक भी
नेह-प्रीत लाएगा??..
सृजन नहीं मसखरी,न लेखन
द्वेष-भाव का जरिया.
सद्भावों की सतत साधना
रचनाओं की बगिया..
शत-शत पुष्प विकसते देखे
सबकी अलग सुगंध.
कभी न भँवरा कहे: 'मिटे यह,
उस पर हो प्रतिबन्ध.'
कभी न एक पुष्प को देखा
दे दूजे को टीस,
व्यंग्य-भाव से खीस निपोरे
जो वह दिखे कपीश..
नेह नर्मदा रहे प्रवाहित
चार दिनों का साथ.
जीते-जी दें कष्ट
बिछुड़ने पर करते नत माथ?
माया है यह, वहम अहम् का
इससे यदि बच पाये.
शब्द-सुतों का पग-प्रक्षालन
करे 'सलिल' तर जाये.
******
५-९-२०१५

विमर्श

एक चैट वार्ता:
कुछ दिन पूर्व एक वार्ता आपसे साझा की थी. आज एक अन्य वार्ता से आपको जोड़ रहा हूँ. कोई कहानीकार इन पर कहानी का तन-बाना बुन सकता है. आपसे साझा करने का उद्देश्य समाज में बढ़ रही प्रवृत्तियों का साक्षात है. समाज में हो रहे वैचारिक परिवर्तन का संकेत इन वार्ताओं से मिलता है.
- hi
= नमस्कार
पर्व नव सद्भाव के
संजीव 'सलिल'
*
हैं आ गये राखी कजलियाँ, पर्व नव सद्भाव के.
सन्देश देते हैं न पकड़ें, पंथ हम अलगाव के..
भाई-बहिन सा नेह-निर्मल, पालकर आगे बढ़ें.
सत-शिव करें मांगल्य सुंदर, लक्ष्य सीढ़ी पर चढ़ें..
शुभ सनातन थाती पुरातन, हमें इस पर गर्व है.
हैं जानते वह व्याप्त सबमें, प्रिय उसे जग सर्व है..
शुभ वृष्टि जल की, मेघ, बिजली, रीझ नाचे मोर-मन.
कब बंधु आये? सोच प्रमुदित, हो रही बहिना मगन..
धारे वसन हरितिमा के भू, लग रही है षोडशी.
सलिला नवोढ़ा नारियों सी, कथा है नव मोद की..
शालीनता तट में रहें सब, भंग ना मर्याद हो.
स्वातंत्र्य उच्छ्रंखल न हो यह, मर्म सबको याद हो..
बंधन रहे कुछ तभी तो हम, गति-दिशा गह पायेंगे.
निर्बंध होकर गति-दिशा बिन, शून्य में खो जायेंगे..
बंधन अप्रिय लगता हमेशा, अशुभ हो हरदम नहीं.
रक्षा करे बंधन 'सलिल' तो, त्याज्य होगा क्यों कहीं?
यह दृष्टि भारत पा सका तब, जगद्गुरु कहला सका.
रिपुओं का दिल संयम-नियम से, विजय कर दहला सका..
इतिहास से ले सबक बंधन, में बंधें हम एक हों.
संकल्पकर इतिहास रच दें, कोशिशें शुभ नेक हों..
***
- hi
= कहिए, कैसी हैं?
- thik hu ji
= क्या कर रही हैं आजकल?
- kuch nahi ji. aap kyaa karte ho ji?
=मैं लोक निर्माण विभाग में इंजीनियर रहा. अब सेवा निवृत्त हूँ.
- aachha ji
= आपके बच्चे किन कक्षाओं में हैं?
- beta 4th me or beti 3 मे.
= बढ़िया. उनके साथ रोज शाम को रामचरित मानस के ५ दोहे अर्थ के साथ पढ़ा करें। इससे वे नये शब्द और छंद को समझेंगे। उनकी परीक्षा में उपयोगी होगा। गाकर पढ़ने से आवाज़ ठीक होगी।
- ji. me aapke charan sparsh karti hu. aap bahut hi nek or aachhe insan he.
= सदा प्रसन्न रहें। बच्चों की पहली और सबसे अधिक प्रभावी शिक्षक माँ ही होती है. माँ बच्चों की सखी भी हो तो बच्चे बहुत सी बुराइयों से बच जाते हैं.
- or sunaao kuch. mujhe aap s bat karke bahut aacha laga ji
= आपके बच्चों के नाम क्या हैं?
- beta sachin beti sandhya
= रोज शाम को एकाग्र चित्त होकर लय सहित मानस का पाठ करने से आजीवन शुभ होता है.
- wah wah kya bat he ji. aap mere guru ji ho
= आपकी सहृदयता के लिए धन्यवाद। बच्चों को बहुत सा आशीर्वाद
- orr sunaao aapko kya pasand he? mere layk koi sewa?
= आप कहाँ तक पढ़ी हैं? कौन से विषय थे.
- 10 pas hu. koi job karna chahti hu.
= अभी नहीं। पहले मन को मजबूत कर १२ वीं पास करें। प्राइवेट परीक्षा दें. साथ में कम्प्यूटर सीखें। इससे आप बच्चों को मदद कर सकेंगी. बच्चों को ८० प्रतिशत अंक मिलें तो समझें आप को मिले. आप के पति क्या करते हैं? आय कितनी है?
- ha par m padhai nahi kar sakti hu. computar chalaana to aata he mujhe
mobail repering ka kam he dukaan he khud ki
= तब तो सामान्य आर्थिक स्थिति है. बच्चे कॉलेज में जायेंगे तो खर्च अधिक होगा। अभी से सोचना होगा। आप किस शहर में हैं?
- ……।
= आय लगभग १५-२० हजार रु. मानूं तो भी आपको कुछ कमाना होगा। कम्प्यूटर में माइक्रौसौफ़्ट ऑफिस, माइक्रोसॉफ्ट वर्ड, विंडो आदि सीखना होगा। बच्चे छोटे हैं इसलिए घर में रहना भी जरूरी है. आप घर पर वकीलों और किताबों का टाइपिंग काम करें तो अतिरिक्त आय का साधन हो सकता है. बाहर नौकरी करेंगी तो घर में अव्यवस्था होगी.
- bahar bhi kar lugi yadi job achha he to. 10 hajar s jyada nahi kama pate he.
= अच्छी नौकरी के लिए १० वीं पर्याप्त नहीं है. आजकल प्राइवेट स्कूल १ से ३ हजार में शिक्षिकाएं रखते हैं जो BA या MA होती हैं. कंप्यूटर से टाइपिंग सीखने में २-३ माह लगेंगे और आप घर पर काम कर अच्छी आय कर सकती हैं. घर कहाँ है?
- steshan k pas men rod par, kabhi aana to hum s jarur milna aap.
= दूसरा रास्ता घर में पापड़, आचार, बड़ी आदि बनाकर बेचना है. यह घर, दूकान तथा सरकारी दफ्तरों में किया जा सकता है. नौकरी करने वाली महिलाओं को घर में बनाने का समय नहीं मिलता। आपसे स्वच्छ, स्वादिष्ट तथा सस्ता सामान मिल सकेगा। त्योहारों आर मिठाई भी बना कर बेच सकती हैं. इसमें लगभग ६० % का फायदा है. जबलपुर में मेरी एक रिश्तेदार ने इसी तरह अपने बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई कराई है. यह सुझाव उन्हें भी मैंने ही दिया था.
- thank u ji
= पति के साथ सोच-विचार कर कोई निर्णय करें जिसमें घर और बच्चों को देखते हुए भी आय कर सकें. घर में और कौन-कौन हैं?
- total femli 4 log, sas sasur nahi he, bhai sab aalag rahte he
= फिर तो पूरी जिम्मेदारी आप पर है, वे होते तो आपके बाहर जाने पर बच्चों को बड़े देख लेते। मेरी समझ में बेहतर होगा कि आप घर से ही काम करें।
- ji, hamari bhai ki ladki yahi p rahti he coleej ki padhai kar rahi he ghar ka kam to bo kar leti he. m jyadatar free rahti hu. isliye kuch karne ka socha
= घर में सामान बना कर बेचेंगी, अथवा पढ़ाई करेंगी या टाइपिंग का काम करेंगी तो समय कम पड़ेगा। घर पर करने से घर और बच्चों की देख-रेख कर सकेंगी. थकान होने पर सुस्ता सकेंगी, बाहर की नौकरी में घर छोड़ना होग. समय अधिक लगेगा. आने-जाने में भी खर्च होग. वेतन भी कम ही मिलेगा. उससे अधिक आप घर पर काम कर कमा सकती हैं. बनाया हुआ सामान बिकने लगे तो फिर काम बढ़ता जाता है. त्योहारों पर सहायक रखकर काम करना होता है. मैदा, बेसन आदि बोरों से खरीदने अधिक बचत होती है. आप लड्डू, बर्फी, सेव, बूंदी, मीठी-नमकीन मठरी, शकरपारे, गुझिया, पपड़ियाँ आदि बना लेती होंगी। अभी यह योग्यता घर तक सीमित है.
- mujhe ghumna pasand he. aap jese jankar or sammaniy logos bat karna aacha lagta he. gana gane ka shook he
= जब सामान बना लेंगी तो बेचने के लिए घूमना होगा। सरकारी दफ्तरों में काम करनेवाले कर्मचारी ही आपके ग्राहक होंगे. जिनके घरों में महिलायें बनाना नहीं जानतीं, बीमार हैं, या आलसी हैं वे सभी घर का बना साफ़-सुथरा सामान खरीदना पसंद करते हैं.गायन अच्छी कला है पर इससे धन कमाना कठिन है. अधिकांश कार्यक्रम मुफ्त देना होते हैं, लगातार अभ्यास करना होता है. आयोजक या व्यवस्था ठीक न हो तो कठिनाई होती है. पूरी टीम चाहिए। गायक-गायिका, वादक, माइक आदि
- ji, aapko kya pasand he
= आपकी परिस्थितियों, वातावरण और साधनों को देखते हुए अधिक सफलता घर में सामान बनाकर बेचने से मिल सकती है. नौकरीवालों के लिए टिफिन भी बना सकती हैं. इससे घर के सदस्यों का भोजन-व्यय बच जाता है. कमाई होती है सो अलग.
गायन, वादन, नर्तन आदि शौक हो सकते हैं पर इनसे कमाई की सम्भावना काम है.
- aapko kya pasand he
= मुझे हिंदी मैया की सेवा करना पसंद है. रिटायर होने के बाद रोज १०-१२ घंटे लिखता-पढ़ता हूँ. चैटिंग के माध्यम से समस्याएं सुलझाता हूँ.
- thank u. i l u. i lick u
= प्रभु आपकी सहायता करें.. कंप्यूटर पर हिंदी में लिखना सीख लें.
- aap bhi kuch sahayta karo
= इतना विचार-विमर्श और मार्गदर्शन सहायता ही तो है.
- haa ji
= आपने गायन के जो कार्यक्रम किये उनसे कितनी आय हुई ?
- मै आपको मिल जाऊँ तो आप क्या करोगे । 1. दोस्ती, 2.प्यार, 3. सेक्स। mene koi karykaran nahi kiya he kewal shook he ghar p gati rahti hu
= मैं केवल लेखन और परामर्श देने में रूचि रखता हूँ. दोस्ती जीवन साथी से, प्यार बच्चों से करना उत्तम है. सेक्स का उद्देश्य संतान उत्पत्ति है. अब उसकी कोई भूमिका नहीं है.
- मै आपसे दोस्ती करना चाहती हूँ,
= सम्बन्ध तन, नहीं मन के हों तभी कल्याणकारी होते हैं. आप विवाहिता हैं, माँ भी हैं, किसी के चाहने पर भी देह के सम्बन्ध कैसे बना सकती हैं?
- m kuch bhi kar sakti hu, paresan hu. peeso ki jarurathe mujhe
= चरित्र से बड़ा कुछ नहीं है. ऐसा कुछ कभी न करें जिससे आप खुद, पति या बच्चे शर्मिंदा हों. देह व्यापार से आत्मा निर्बल हो जाती है. मन को शांत करें, नित्य मानस-पाठ करें. दुर्गा जी से सहायता की प्रार्थना करें।
- aap mujhe 10 hajar ru ki madad de sakte ho
= नहीं। अपने सहायक आप हो, होगा सहायक प्रभु तभी. श्रम करें, याचना नहीं।
- ok ji. muft ki salaah to har koi deta he kisi s 2 rupay mago to koi nahi deta. mene aapko aapna samajh kar madad magi thi kuch bhi kam karne k liy peesa ki jarurat to sabse pahle hoti he or wo mere pas nahi he ji
= राह पर कदम बढ़ाने से, मंज़िल निकट आती है. ठोकर लगे तो सहारा मिला जाता है अथवा ईश्वर उठ खड़े होने की हिम्मत देता है. किनारे बैठकर याचना करने पर भिक्षा मिल भी जाए तो मंज़िल नहीं मिलती.
- कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई
= आपको भी पर्व मंलमय हो
***

गीत

एक रचना 
*
देश हमारा है 
सरकार हमारी है, 
क्यों न निभायी 
हमने जिम्मेदारी है?
*
नियम व्यवस्था का
पालन हम नहीं करें,
दोष गैर पर-
निज, दोषों का नहीं धरें।
खुद क्या बेहतर
कर सकते हैं, वही करें।
सोचें त्रुटियाँ कितनी
कहाँ सुधारी हैं?
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
भाँग कुएँ में
घोल, हुए मदहोश सभी,
किसके मन में
किसके प्रति आक्रोश नहीं?
खोज-थके, हारे
पाया सन्तोष नहीं।
फ़र्ज़ भुला, हक़ चाहें
मति गई मारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
एक अँगुली जब
तुम को मैंने दिखलाई।
तीन अंगुलियाँ उठीं
आप पर, शरमाईं
मति न दोष खुद के देखे
थी भरमाई।
सोचें क्या-कब
हमने दशा सुधारी है?
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
जैसा भी है
तन्त्र, हमारा अपना है।
यह भी सच है
बेमानी हर नपना है।
अँधा न्याय-प्रशासन,
सत्य न तकना है।
कद्र न उसकी
जिसमें कुछ खुद्दारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
कौन सुधारे किसको?
आप सुधर जाएँ।
देखें अपनी कमी,
न केवल दिखलायें।
स्वार्थ भुला,
सर्वार्थों की जय-जय गायें।
अपनी माटी
सारे जग से न्यारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
११-८-२०१६

सोमवार, 3 सितंबर 2018

सितम्बर

सितम्बर : 
सितम्बर में जन्में जातक परिश्रमी, शांत, बुद्धिजीवी, पर्यटक, कलाप्रिय होते हैं। शुभ: रवि, बुध, गुरुवार, ३, ७, ९ संख्याएँ, मोती, पन्ना। 
कब-क्या???
१. जन्म: फादर कामिल बुल्के, दुष्यंत कुमार, शार्दूला नोगजा
४. जन्म: दादा भाई नौरोजी, निधन: धर्मवीर भारती
५. जन्म: डॉ. राधाकृष्णन (शिक्षक दिवस), निधन मदर टेरेसा
८. जन्म: अनूप भार्गव, विश्व साक्षरता दिवस
९. जन्म: भारतेंदु हरिश्चन्द्र
१०. जन्म: गोविंद वल्लभ पन्त, रविकांत 'अनमोल'
११. जन्म: विनोबा भावे, निधन: डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, महादेवी वर्मा
१४. जन्म: महाराष्ट्र केसरी जगन्नाथ प्रसाद वर्मा, हिंदी दिवस

१५. भारतरत्न सर मोक्षगुन्दम विस्वेसराया जयंती, अभियंता दिवस
चंपक रमन पिल्लई १८९१ तिरुअनंतपुरम केरल, निधन २६.५.१९३४ जर्मनी, स्वाधीनता सेनानी   
१८. बलिदान दिवस: राजा शंकर शाह-कुंवर रघुनाथ शाह , जन्म: काका हाथरसी
१९. निधन: पं. भातखंडे
२१. बलिदान दिवस: हजरत अली,
२३. जन्म: रामधारी सिंह दिनकर

२४. भीखाजी कामा १८६१, निधन १३.८.१९३६, स्वतंत्रता सेनानी, विदेश में सर्वप्रथम राष्ट्रीय ध्वज फहराया।    
२७. भगत सिंह जन्म १९०७, शहादत २३.३.१९३१ फांसी, भारत की स्वतंत्रता हेतु सशस्त्र क्रान्ति के अगुआ। 
विट्ठल भाई पटेल २७.९.१८७३नाडियाद गुजरात, निधन २२.१०.१९३३, प्रखर स्वतंत्रता सत्याग्रही, सरदार पटेल के बड़े भाई, विधान वेत्ता, 
निधन: राजा राम मोहन राय, 
विश्व पर्यटन दिवस
२९. जन्म: ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, विश्व ह्रदय दिवस

muktak

मुक्तक सलिला:
संजीव
*
मनमानी कर रहे हैं
गधे वेद पढ़ रहे हैं
पंडित पत्थर फोड़ते
उल्लू पद वर रहे हैं
*
कौन किसी का सगा है
अपना देता दगा है
छुरा पीठ में भोंकता
कहे प्रेम में पगा है
*
आप टेंट देखे नहीं
काना पर को दोष दे
कुर्सी पा रहता नहीं
कोई अपने होश में
*
भाई-भतीजावाद ने
कमर देश की तोड़ दी
धारा दीन-विकास की
धनवानों तक मोड़ दी
*
आय नौकरों की गिने
लेते टैक्स वसूल वे
मालिक बाहर पकड़ से
कहते सही उसूल है
*

vimarsh

विमर्श:
देवताओं को खुश करने पशु बलि बंद करो : हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय
हमाचल प्रदेश उच्च न्यायलय ने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए की जानेवाली पशुबलि पर प्रतिबन्ध लगते हुए कहा है कि हजारों पशुओं को बलि के नाम पर मौत के घाट उतरा जाता है. इसके लिए पशुओं को असहनीय पिद्दा साहनी पड़ती है. न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और सुरेश्वर ठाकुर की खंडपीठ के अनुसार इस सामाजिक कुरीति को समाप्त किया जाना जरूरी है. नेयाले ने आदेश किया है कि कोई भी पशुओं की बलि नहीं देगा।
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों के निर्णय के मुताबिक पशुओं को हो रही असनीय पीड़ा और मौत देना सही नहीं है. प्रश्न यह है कि क्या केवल देव बलि के लिए अथवा मानव की उदर पूर्ती लिए भी? देवबली के नाम पर मरे जा रहे हजारों जानवर बच जाएँ और फिर मानव भोजन के नाम पर मारे जा रहे जानवरों के साथ मारे जाएँ तो निर्णय बेमानी हो जायेगा। यदि सभी जानवरों को किसी भी कारण से मारने पर प्रतिबंध है तो माँसाहारी लोग क्या करेंगे? क्या मांसाहार बंद किया जायेगा?
इस निर्णय का यह अर्थ तो नहीं है की हिन्दु मंदिर में बलि गलत और बकरीद पर मुसलमान बलि दे तो सही? यदि ऐसा है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है. आप सोचें और पानी बात यहाँ कहने के साथ संबंधित अधिकारीयों और जनप्रतिनिधियों तक भी पहुंचाएं।

chitragupta vandna

श्री चित्रगुप्त वंदना
-डॉ.सतीश सक्सेना 'शून्य', ग्वालियर 
चित्रगुप्त भगवान प्रभूजी तुम हो सबके दाता
अल्पबुद्धि में बालक तेरा गीत तुम्हारे गाता
और नहीं है कोई मेरा तुम्ही पिता तुम माता
उसे सहारा मिलता है जो गीत तुम्हारे गाता
मुझको दो विद्या अरु बुद्धि मैं बालक नादान
मन में भरदो मेरे श्रद्धा करूँ सदा गुण गान
सदा भलाई की ही सोचूँ करूँ भले ही काम
मिटे बुराई जब समाज से तब ही लूँ विश्राम
बनें एक सब रहें एक सब चलें एक सम भाव
कहें वही सब करें वही सब रहे न कोई छलाव
धर्मराज के सवल सहायक गुण वल बुद्धि निधान
करूँ तुम्हारा सुमिरन प्रभुजी पग पग हो कल्याण
कमल नयन श्यामल वदन कर में कलम दवात
उसका जीवन सुख से बीते जो उठ ध्यावे प्रात
***