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मंगलवार, 29 मई 2018

साहित्य त्रिवेणी ७ अम्बरीश श्रीवास्तव 'अंबर' -हिंदी चित्रपटीय गीतों में छंद

७. हिंदी चित्रपटीय गीतों में छंद
इंजी० अंबरीष श्रीवास्तव ‘अंब

परिचय: आत्मज श्रीमती मिथलेश-स्व. रामकुमार श्रीवास्तव। शिक्षा: स्नातकभूकंपरोधी डिजाइन इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम,  आर्कीटेक्चरल इंजीनियर।  प्रकाशित: काव्य संग्रह जो सरहद पे जाए तथा देश को प्रणाम है, उपलब्धि: इंदिरा गांधी प्रियदर्शिनी अवार्ड २००७, सरस्वती रत्न सम्मानअभियंत्रण श्री सम्मान। अभिरुचि: बाँसुरी वादन,कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ। पता:९१,आगा कालोनी, सिविल लाइंस, सीतापुर।  चलभाष:९४१५०४७०२०८८५३२७३०६६८२९९१३२२३७, दूरभाष: ०५८६२-२४४४४०, ईमेल: ambarishji@gmail.com,  http://www.worldlibrary.in/articles/eng/Ambarish_Srivastava
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साहित्य, किसी वाङमय की समग्र सामग्री का नाम है। इस नश्वर संसार में जितना भी साहित्य मिलता है उनमें सर्वाधिक प्राचीनतम ऋग्वेद है और ऋग्वेद को छंदोबद्ध रूप में ही रचा गया है है। यह इस बात का अकाट्य प्रमाण है कि उस समय भी कला व विशेष कथन हेतु छंदों का प्रयोग होता था। छंद को यदि पद्य रचना का मापदंड कहें तो किसी प्रकार की अतिशयोक्ति न होगी। बिना कठिन साधना के कविता में छंद योजना को कदापि साकार नहीं किया जा सकता।वैदिकच्छंदसां प्रयोजनमाह आचार्यो वटः, स्वर्यं यशस्यमायुष्यं पुण्यं वृध्दिकरं शुभम्। कीर्तिमृग्यं यशस्यञ्च छंदसां ज्ञानमुच्यते ॥इति
हमारी हिंदी फिल्मों के अत्यंत कर्णप्रिय व मधुर गीत बरबस ही हम सबका मन मोह लेते हैं। प्रश्न उठता है कि उनके कर्णप्रिय होने का राज क्या है? इसका सटीक उत्तर है कि वे किसी न किसी छंद पर आधारित होते ही हैं। आवश्यक नहीं है कि वे सिर्फ एक ही छंद विशेष में ढले हों अपितु उनके स्थायी व अंतरा में अलग-अलग छंदों का प्रयोग भी देखने को मिलते हैं। गीतों की यही छंदबद्धता उनमें आकर्षण उत्पन्न करते हुए उन्हें गेय बनाती है। पुराने फ़िल्मी गीतों का प्रारंभ बहुधा एक दोहे से हुए करता था जो कि हमारे मन को आह्लादित करता था। चाँद जैसे मुखड़े पे बिंदिया सितारा गीत में उसका आरंभ सब तिथियन का चंद्रमा, जो देखा चाहो आज। धीरे-धीरे घूँघटा, सरकाओ सरताज' दोहे से ही हुआ है। अब विधाता या शुद्धगा छंद आधारित फ़िल्मी गीतों पर एक दृष्टि डालते हैं.... 
विधाता छंद:
विधान: यमाता दीर्घ चारों हों विधाता छंद हो जाए / जहाँ चारों मिलें साथी वहाँ आनंद हो जाए विधाता या शुद्धगा छंद का सूत्र है: (यगण+गुरु) x ४ अर्थात ४ x (यमाता गा) यहाँ गा का तात्पर्य गुरु से है) या १२२२ १२२२ १२२२ १२२२। उर्दू में इसे बहर-ए-हज़ज़ मुसम्मन सालिम कहते हैं जिसके अरकान हैं 'मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन' इस छंद पर आधारित फ़िल्मी गीतों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:
(१)   बहारों फू/ल बरसाओ/ मेरा महबू/ब आया है 
(२)  किसी पत्थर / की मूरत से/ मुहब्बत का/ इरादा है 
(३)  भरी दुनिया / में आके दिल/ को समझाने/ कहाँ जाएँ 
(४) चलो इक बा/र फिर से अज/नबी बन जा/एँ हम दोनों  
(५) ये मेरा प्रे/म पत्र पढ़कर/ कि तुम नारा/ज ना होना 
(६)  कभी पलकों/ में आँसू हैं/ कभी लब पे/ शिकायत है  
(७) ख़ुदा भी आ/समां से जब/ ज़मीं पर दे/खता होगा  
(८)  ज़रा नज़रों/ से कह दो जी/ निशाना चू/क ना जाए  
(९)  मुहब्बत ही/ न समझे जो/ वो जालिम प्या/र क्या जाने  
(१०) हजारों ख्वा/हिशें इतनी/ कि हर ख्वाहिश/ पे दम निकले  
(११) बहुत पहले/ से उन क़दमों/ की आहट जा/न लेते हैं 
(१२)  मुझे तेरी/ मुहब्बत का/ सहारा मिल/ गया होता  
(१३) सुहानी चाँ/दनी रातें/ हमें सोने/ नहीं देतीं  
(१४) कभी तन्हा/ईयों में भी/ हमारी या/द आएगी   
गीतिका छंद: 
पिंगलशास्त्र के अनुसार गीतिका छंद का विधान निम्न है: चार चरण, १४ पर यति देते हुए प्रत्येक में १४-१२ के क्रम से २६ मात्राएँ, ३री१०वीं१७वी२४वी मात्रा अनिवार्यतः लघु, कम से कम प्रथम दो व अंतिम दो चरण समतुकांत, अंत में गुरु-लघु/रगण, कर्णमधुर
गीतिका में ही छंद गीतिका की परिभाषा: 
चार चरणी छंद मात्रिकअंत लघु-गुरु 'गीतिका'
योग है छब्बीस मात्राप्रति चरणसुर प्रीति का
तीन दस सत्रह व चौबिसचाहिए लघु मात्रिका
शेष बारह चौदवीं यतितुक मनोहर वीथिका
गीतिका का शिल्प सूत्र गीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका’, गणसूत्र राजभागा राजभागा राजभागा राजभा अर्थात २१२२ २१२२ २१२१ २१२ है यहाँ गा का तात्पर्य गुरु से है  का उर्दू विधान में इसे बहर-ए-रमल मुसम्मन महजूफ़ कहते हैं सके अरकान फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन हैं। इस छंद पर आधारित कुछ फ़िल्मी गीत निम्नलिखित हैं:.  
(१) दिल ही दिल में/ ले लिया दिल/ मेहरबानी/ आपकी 
(२) आपकी नज/रों ने समझा/ प्यार के का/ बिल मुझे (स्थायी) उपरोक्त गीत के अंतरे में निम्न प्रकार से शिल्प में आंशिक  परिवर्तित हो रहा है:
जी हमें मं/ जूर था/ आपका ये/ फैसला (राजभागा राजभा राजभागा राजभा)
कह रही है/ हर नजर/ बंदापरवर/ शुक्रिया (राजभागा राजभा राजभागा राजभा)
तद्पश्चात उपरोक्त गीत पुनः मूल शिल्प में आ जाता है 
हँस के अपनी/ ज़िन्दगी में/ कर लिया शा/मिल मुझे
(३) दिल के टुकड़े/ टुकड़े करके/ मुस्कुरा के/ चल दिए
(४)  चुपके चुपके/ रात दिन आँ/सू बहाना/ याद है
(५) हुस्नवालों/ को खबर क्या/ बेखुदी क्या/ चीज है
(६) यारी है ई/मान मेरा/ यार मेरी/ ज़िंदगी
(७) मंज़िलें अप/नी जगह हैं/ रास्ते अप/नी जगह
(८) सरफरोशी/ की तमन्ना/ अब हमारे/ दिल में है 
(९) ऐ गम-ए-दिल/ क्या करूँ ऐ/ वहशत-ए-दिल/ क्या करूँ  
आजकल कुछ विद्वान् 'हिंदी ग़ज़ल को गीतिका कहते हैं। मेरे विचार में इसमें कहे गए मतले और मकते को छोड़कर हिन्दी ग़ज़ल विभिन्न छंदों पर आधारित एक ऐसी विधा है जिसमें कहे गए अधिकांशतः शेरों के में प्रति शेर एक मुक्त पंक्ति का प्रयोग होता ही होता है।  संभवतः इसीलिए आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी ने ‘हिंदी ग़ज़ल को मुक्तिका नाम दिया है| उनके इस कथन में हमारी भी पूर्ण सहमति है |
भुजंगप्रयात छंद: 
इस छंद पर आधारित निम्नलिखित गीत की छटा ही निराली है इसका गणसूत्र यमाता यमाता यमाता यमाता १२२ १२२ १२२ १२२ व उर्दू में अरकान फईलुन फईलुन फईलुन फईलुन है इसका गण विन्यास निम्न है:
तेरे प्या/र का आ/सरा चा/हता हूँ
१२२/ १२२/ १२२/ १२२
वफ़ा कर/ रहा हूँ/ वफ़ा चा/हता हूँ
दुपट्टे/ के कोने/ को मुँह में/ दबा के
ज़रा दे/ख लो इस/ तरफ मुस/कुराके
हमें लू/ट लो मे/रे नजदी/क आ के
के मैं आ/ ग से खे/ लना चा/हता हूँ
वफ़ा कर/ रहा हूँ/ वफ़ा चा/हता हूँ
मत्त सवैया या राधेश्यामी छंद:
अत्यंत लोक-प्रचलित छंद मत्त सवैया या राधेश्यामी छंद जिस पर पंडित राधेश्याम ने राधेश्याम रामायण रची है की बात ही निराली है अपने बचपन में हम, गाँवों में बच्चे-बच्चे को राधेश्यामी रामायण गाते हुए देखा करते थे। हमारे द्वारा रची गयी 'मत्त सवैयामें ही 'मत्त सवैयाकी परिभाषा  निम्न है:
कुल चार चरण गुरु अंतहि हैसब महिमा प्रभु की है गाई 
प्रति चरण जहाँ बत्तिस मात्रायति सोलह-सोलह पर भाई 
उपछंद समान सवैया कापदपादाकुलक चरण जोड़े 
कर नमन सदा परमेश्वर कोक्षण भंगुर जीवन दिन थोड़े 
चार चरण युक्त 'मत्त सवैयाछंद में प्रत्येक पंक्ति  में ३२ मात्राएँ होती हैं, १६१६ मात्राओं पर यति व् अंत गुरु से होता  है। इस पर आधारित गीत है आ जाओ तड़पते हैं अरमां अब रात गुज़रने वाली है. (मात्राएँ १६,१६)
उपरोक्त के जाओ शब्द में  का उच्चारण लघुवत है |
वाचिक द्विभक्ति छंद:  
वाचिक द्विभक्ति छंद का गणसूत्र है 'ताराज यमातागा ताराज यमातागा', २२१ १२२२ २२१ १२२२, मफ़ईलु मफाईलुन मफ़ईलु मफाईलुन  
(१) सौ बार/ जनम लेंगे/ सौ बार/ फ़ना होंगे  
(२) हंगामा/ है क्यों बरपा/थोड़ी सी/ जो पी ली है  
(३) हम तुमसे/ जुदा होके/ मर जायें/गे रो रो के 
(४) जब दीप/ जले आना/ जब शाम/ ढले जाना 
(५) साहिल से/ खुदा हाफ़िज़/ जब तुमने/ कहा होगा  
(६) इक प्यार/ का नगमा है/मौजों की/ रवानी है 
(७) हम आप/की आँखों में/ इस दिल को/ बसा दे तो 
(८) बचपन की/ मुहब्बत को/ दिल से न/ जुदा करना,
    जब याद/ मेरी आए/ मिलने की/ दुआ करना.  -स्थायी)
    घर मेरी/ उम्मीदों का/ अपना कि/ ये जाते हो
    दुनिया ही/ मुहब्बत की/ लूटे लि/ए जाते हो
    जो गम दि/ए जाते हो/ उस गम की/ दवा करना  -अंतरा 
यहाँ पर सबसे विशेष बात यह है कि फ़िल्मी गीतों की धुन सहज ही कंठस्थ हो जाती है। अतः इन धुनों को सहारा लेकर इन धुनों में ही छंद रचना अत्यंत सहज हो जाता है।  इसके बाद जब हम मात्राओं व गणों की गणना करते हैं तो वह तत्संबंधित छंद पर एकदम खरी ही उतरती है।  
 इस प्रकार से हिन्दी चित्रपटीय गीतों कि जितनी विवेचना की जाएगी अर्थात हम जितने ही गहरे उतारेंगें, हमें उनमें निहित छंदों से उतनी ही अधिक आनंद की अनुभूति होगी। 
 (टिप्पणी: उपरोक्त सभी गीतों में लघु-गुरु का निर्धारण उनके उच्चारण के अनुसार किया गया है।)
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साहित्य त्रिवेणी ५: छाया सक्सेना -बघेली लोकगीत

५. बघेली गीतों / लोकगीतों में छंद
 छाया सक्सेना ' प्रभु' - संजीव वर्मा 'सलिल'
परिचय: जन्म १५.८.१९७१, रीवा (म.प्र.)। शिक्षा: बी.एससी. बी.एड., एम.ए. राजनीति विज्ञान, एम.फिल.), संपर्क: १२ माँ नर्मदे नगर, फेज़ १, बिलहरी, जबलपुर , चलभाष ९४०६०३४७०३ ईमेल:chhayasaxena2508@gmail.com  

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वर्णों  का ऐसा संयोजन जो मन को आह्लादित करे तथा जिससे रचनाओँ को एक लय में निरूपित किया जा सके छंद कहलाता है-  'छन्दनासि  छादनात' सभी उत्कृष्ट पद्य रचनाओँ का आधार छंद होता है। बघेली काव्य साहित्य छंदों से समृद्ध है, काव्य जब छंद के आधार पर सृजित होता है तो हृदय में सौंदर्यबोध, स्थायित्व, सरस, मानवीय भावनाओं को उजागर करने की शाक्ति, नियमों के अनुसार धारा प्रवाह, लय आदि द्रष्टव्य होते हैं। लोक साहित्य, लोकगीतों में ही दृष्टव्य  होते हैं इनका स्वरूप विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि ये लोक कल्याण की भावना से सृजित किये गए हैं । इनका सृजन तो एक व्यक्ति करता है किंतु उसका दूरगामी प्रभाव विस्तृत होता है। अपने परंपरागत रूप में यह सामान्य व्यक्तियों द्वारा उनकी भावनाएँ व्यक्त करने का माध्यम बनता है। लोक-साहित्य पांडित्य की दृष्टि से परिपूर्ण भेले ही न रहा हो पर इनके सृजनकार भावनात्मक रूप से  सुदृढ़ रहे इसलिए ये गीत जनगण के मन में अपनी गहरी पैठ बनाने में समर्थ और कालजयी हो सके।
लोकगीत
लोकगीत लोक के गीत हैं जिन्हें कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि पूरा स्थानीय समाज अपनाता, गुनगुनाता है, गाता हैै। सामान्यतः लोक में प्रचलित, लोक द्वारा रचित एवं लोक के  लिए लिखे गए गीतों को लोकगीत कहते हैं । डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार “लोकगीत किसी संस्कृति के मुख बोलते चित्र हैं ।“ 
लोकगीतों में छंदों के स्वरूप के साथ-साथ मुहावरे, कहावतें व सकारात्मक संदेश भी अन्तर्निहित होते हैं जिनका उद्देश्य मनोरंजन मात्र नहीं अपितु भावी पीढ़ियों को सहृदय बनाना भी रहता है। अपनी बोली में सृजन करने पर भावों में अधिक स्पष्टता होती है। सामान्यत: लोकगीत मानव के विकास के साथ ही विकसित होते गए, अपने परंपरागत रूप में अनपढ़ किंतु लोक कल्याण की भावना रखनेवाले  लोगों द्वारा ये संप्रेषित हुए हैं। लोगों ने जो समाज में देखा-समझा उसे ही भावी पीढ़ी को बताया। आत्मानुभूत होने के कारण लोकसाहित्य की जड़ें बहुत गहरी हैं। हम कह सकते हैं कि हमारे संस्कारों को बचाने में  लोक साहित्य का बहुत बड़ा योगदान है ।
बघेली
बघेली बघेलखंड (मध्य प्रदेश के रीवा,सतना,सीधी, शहडोल ज़िले) में बोली जाती है। यहाँ के निवासी को 'बघेलखण्डी', 'बघेल', 'रिमही' या 'रिवई' कहे जाते हैं। बघेली में ‘व’ के स्थान पर ‘ब’ का अत्यधिक प्रयोग होता है। कर्म और संप्रदान कारकों के लिये ‘कः’ तथा करण व अपादान कारकों के लिये ‘कार’ परसर्गों का प्रयोग किया जाता है। ‘ए’ और ‘ओ’ ध्वनियों का उच्चारण करते हुए बघेली में ‘य’ और ‘व’ ध्वनियों का मिश्रण करने की प्रवृत्ति है।  सामान्य जन बोलते समय  'श' और 'स' में भी ज्यादा भेद नहीं मानते हैं। बघेली जन लोकपरंपरा में प्रचलित सभी संस्कारों को संपन्न करते समय ही नहीं ऋतु परिवर्तन, पर्व-त्यौहार आदि हर अवसर पर गीत गाते हैं। बघेलखंडी लोकगीतों में सोहर , कुंवा पूजा, मुंडन, बरुआ, विवाह, सोहाग, बेलनहाई, ढ़िमरहाई, धुबियाई, गारी गीत, परछन, बारहमासी, दादरा, कजरी, हिंडोले का गीत, बाबा फाग, खड़ा डग्गा, डग्गा तीन ताला आदि प्रमुख हैं। ये लोकगीत न केवल मनोरंजन करते हैं वरन जीने की कला भी सिखलाते हैं ।
सोहर
बच्चे के जन्मोत्सव पर  गाए जानेवाले गीत को सोहर कहते हैं। सभी महिलाएँ प्रसन्नतापूर्वक एक लय में सोहर गीत गाती है। सोहर गीत केवल महिलाएँ गाती हैं, पुरुष इन्हें नहीं गाते।  
तिथि नउमी चइत, सुदी आई हो, राम धरती पधरिहीं।      १८-१२  महातैथिक जातीय, चवपैयावत छंद 
बाजइ मने शहनाई हो,  राम धरती  पधरिहीं।।                   १४-१२ महाभागवत जातीय,गीतिका छंद  

धरिहीं रूप सुघर पुनि रघुवर, खेलिहिं अज अँगनइया।       १६-१२ महाभागवत जातीय,गीतिका छंद
बड़भागी दसरथ पुनि बनिहीं, कोखि कौसिला मइया ।।      १६-१२ 

मनबा न फूला समाई हो, राम .....                                १६-१२ 
इस बघेली लोक गीत में शब्द-संयोजन का लालित्य और स्वाभाविकता देखते ही बनती है। लोकगीत छंद-विधान का कडाई से पालन न कर उनमें छूट ले लेते हैं। लोकगायक अपने गायन-क्षमता, अवसरानुकूलता, कथ्य की आवश्यकता और श्रोताओं की रूचि के अनुकूल शब्द जोड़-घटा लेते हैं। मुख्य ध्यान कथ्य पर दिया जाता है जबकि मात्राओं / वर्णों की घट-बढ़ सहज स्वीकार्य होती है। इस कारण इन्हें मानक छंदानुसार वर्गीकृत करना सहज नहीं है।   
जौने दिना राम जनम भे हैं                               १७ / ११ 
धरती अनंद भई-धरती अनंद भई हैं हो              २६ / १८ 
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गउवन लुटि भई-गउवन लुटि भई हो                 २० / १७ 
आवा गउवन के नाते एक कपिला                      २१ / १४ 
रमइयां मुँह दूध पियें- रमइया मुँह दूध पिये हो    २८ /२१   
जौने दिना राम जनम भे हैं हो                             १९ / १२                  
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सोनवन लुटि भई- सोनवन लुटि भई हो                २० / १७ 
आवा सोनवा के नाते एक बेसरिया                       २३ / १४ 
कौशिला नाके सोहै- कौशिला नाके सोहइ हो         २८ /  १६ 
जौने दिना राम जनम भे हैं हो                              १९ / १२
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रुपवन लुटि भई- रुपवन लुटि भई हो                    २०/ १७ 
आवा रुपवा के नाते एक जेहरिया                         २३ / १४  
कौशिला पायें सोहै, कौशिला पायें सोहइ हो            २८ / १६ 
जौने दिना राम जनम भे हैं हो                               १९  / १२ 
इस सोहर गीत के अंतरों में २०-२३-२८-१९ मात्रिक पंक्तियों का दुहराव देखा जा सकता है। यह ९० मात्रिक अंतरा है। हिंदी पिंगल ग्रंथों में इतनी अधिक मात्रा के छंदों का वर्णन नहीं है। अत:, यहाँ संगीत के फ्यूजन की तरह चार छंदों का मिश्रण है। प्रथम पंक्ति महादैशिक जातीय, द्वितीय पंक्ति रौद्राक जातीय, तृतीय पंक्ति यौगिक जातीय तथा चौथी पंक्ति महापौराणिक जातीय है। वार्णिक छंद की दृष्टि से १७-१४-१६-१२ वर्णों के चार छंदों का संयोजन किया गया है। तदनुसार अथात्यष्टि: जातीय, शर्करी जातीय, अथाष्टि: जातीय तथा जगती जातीय छंदों का सम्मिलन है। इन गीतों में कुछ पंक्तियों में मात्रिक और कुछ अन्य में वार्णिक साम्य भी देखा जा सकता है। इससे इनमें गेयता का तत्व होते हुए भी पर्याप्त लय भिन्नता देखी जा सकती है।    
अधिकतर सोहर गीत राम-जन्म पर ही आधारित हैं। इनकी बाहुल्यता यहाँ देखी जा सकती है। इसका कारण रीवांचल में महर्षि वाल्मीकि आश्रम में सीता का वनवास तथा लव-कुश का जन्म होना है। रीवा नरेशों का क्षत्रिय तथा राम-भक्त होना भी सह कारण हो सकता है। निम्न सोहर गीत में जीवन शब्द चित्रों के साथ पारिवारिक संबंधों में सहज हास-परिहास की छटा दर्शनीय है- 
कारै पिअर घुनघुनवा तौ हटिया बिकायं आये / हटिया बिकाय आये हो
साहेब हमही घुनघुनवा कै साधि / घुनघुनवा हम लैबे-घुनघुनवा हम लेबई हो
नहि तुम्हरे भइया भतिजवा / न कोरवा बलकवा-न कोरवा बलकवउ हो
घुनघुनवा किन खेलइं हो / 
इस सोहर गीत में भौजी के स्नान को केंद्र में रख गया है- 
माघै केरी दुइजिया तौ भौजी नहाइनि / भौजी नहाइनि हो
रामा परि गा कनैरि का फूल मनै मुसकानी / मनै मुसक्यानी है हो
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माया गनैदस मास बहिनी दस आंगुरि / बहिनी दस आंगुरि हो
भइया भउजी के दिन निचकानि तौ भउजी लइ आवा / भउजी लेवाय लावा हो
सोवत रहिउं अंटरिया सपन एक देखेउं हो / सपन एक देखेउं हो
माया जिन प्रभु घोड़े असवार डड़िया चंदन केरी / डड़िया चन्दन केरी हो 
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कुआं पूजन
इस लोक गीत में जिस सुगढ़ बहू का गुणगान है वह बदर घिरने पर पानी भरने जा रही है। रोके जाने पर ससुर, जेठ, देवर और अंत में अपने पति को द्वार पर कुआं खुदवाने, जगत बंधवाने, रेशमी रस्सी बुलाने और सोने की घरौन्ची लाने का ठुबैना देती है-  
ऊपर बदरा घहरायं रे तरी गोरी पानी का निकरी २         २१ वर्ण अथप्रकृति: जातीय छंद 
जाइ कह्या मोरे राजा सुसुर से / द्वारे माँ कुंअना खोदावैं    
तौ गोरी धना पानी का निकरीं
जाइ कह्या मोरे राजा जेठ से / कुंअना मा जगत बंधावैं
तौ गोरी धना पानी का निकरीं
जाइ कह्या मोरे बारे देवर जी / रेशम रसरी मंगावैं
तौ गोरी धना पानी का निकरीं
जाइ कह्या मोरे राजा बलम से / सोने घइलना भंगावैं
तौ गोरी धना पानी का निकरीं
ऊपर बदरा घहरायं रे तरी गोरी पानी का निकरी। 
मुंडन
बच्चे के मुंडन संस्कार के समय बुआ अपने भेतीजे के जन्म के समय की झालर (बाल) अपने हाथों में लेती है। सभी सखियाँ  प्रेमपूर्वक गीत गाती हैं-
झलरिया मोरी उलरू झलरिया मोरी झुलरू
झलरिया शिर झुकइं लिलार
अंगन मोरे झाल विरवा
सभवा मा बैठे हैं बाबा कउन सिंह
गोदी बइठे नतिया अरज करैं लाग
हो बव्बा झलरिया मोरी उलरू झलरिया मोरी झुलरू
झलरिया शिर झुकइं लिलार
नतिया से बव्बा अरज सुनावन लाग
सुना भइया आवें देउ बसंत बहार
झलरिया हम देबइ मुड़ाय
फुफुवा जो अइहैं मोहर पांच देबई
झलरिया शिर देबइ मुड़ाय
सभवा भा बैइठे हैं दाऊ कउन सिंह
बधाई गीत
शुभ कार्यों के अवसर पर  शुभकामनाएं प्रेरित करने हेतु बधाई गीत गाए जाते हैं।
धज पताका  घर-घर फहरइहीं, सजहीं  तोरण  द्वार।
सदावर्त मन खोलि  लुटइहीं, राजा  परम  उदार।।
देउता  साधू  सुखीं  सब होइहीं, सरयू  मन हरसइहीं।
वेद पुराण गऊ  गुरु बाम्हन, सब मिल जय- जय  गइहीं।।
सुख गंगा  बही हरसाई हो, राम जनम  सुखदाई हो।।
सिखावन गीत 
सीख देते लोककाव्य भी इस अंचल में प्रचलित हैं। किरीट सवैया में रचित इस रचना में कीर्ति व अपकीर्ति के कारणों पर प्रकाश डाला गया है:
कीर्ति
पाहन से फल मीठ झरै तरु राह सदा नित छाँव करै कछु ।     
झूठ प्रपंचहि दूर रहै सत काम सदा नित   थाम करै कछु । 
हो हिय निर्मल प्रेम दया अभिमान नही तब नाम करै कछु - 
सो नर कीर्ति सदा फलती जब दीनन के हित काम करै कछु ।।
अपकीर्ति 
कंटक राह बिछाइ सदा जग में ब्यभिचार सुलीन रहै जब ।
श्राप सदा हिय में धरता पर का अधिकार कुलीन हरै जब । 
वो बधिता बनिके हर जीव चराचर कष्टहि कार करै  तब - 
सो नरकी अपकीर्ति सदा घट पाप सुरेश सुनीर भरै जब ।।      -सुरेश तिवारी खरहरी, रीवा
बरुआ  गीत
विद्यालय जाने से पूर्व बच्चे से पाटी-पूजा करवायी जाती है। बालक जब बड़ा हो जाता है तब उसका बरुआ होता है।  जनेऊ संस्कार की परंपरा यहाँ बहुत प्रचलित है ।
हरे हरे पर्वत सुअना नेउत दइ आवउ हो
गाँव का नाव न जान्यौं ठकुर नहि चीन्ह्योउ हो
गाँव का नाव अजुध्या ठकुर राजा दशरथ हो
हरे हरे सुअना नेउत दइ आवउ हो
पहिला नेउत राजा दशरथ दुसर कौशिला रानी
तिसरा नेउत रामचन्द्र तौ तीनौ दल आवइं हो।
महुआ गीत
जनसामान्य द्वारा दैनिक कार्यों को करते हुए भी गीत-गायन की परंपरा है। महुआ बीनते समय गाए जानेवाला गीत-
महुआ केर महातिम     
महुआ केर महातिम गाबइ जुग-जुग बीत जहान ,           कुंडलियावत 
ई विशाल बिरछा केर अँग-अँग उपयोगी गुणवान , 
उपयोगी गुणवान, बहुत महुआ का फूल व डोरी , 
बुँकबा, लाटा, चुरा, सुरा, महुआ केर फूल, महुअरी , 
कह घायल कविराय, गुलग़ुला खाय  लाल भा गलुआ, 
आमजनेन का साल भरे का रोजी -रोटी महुआ ।        -घायल
*                             
बघेली जन मानस धार्मिक प्रवत्ति के हैं  हर घर में तुलसी का पौधा, राम कृष्ण के चरित्र का गुणगान करते हुए गीत गाने वाले लोग मिलेंगे, अपनी बोली में  ह्रदय की अभिव्यक्ति और सहज लगती है ....
*बघेली सुंदरकाण्ड*
गोड़ लइ परें सीतय जिउ के, पुन घुसें बगइचा जाय।
फर खाईंन अउ बिरबा टोरिंन, दंउ दंहनय दिहिंन मचाय।।
करत रहें तकबारी होंईंन, रामंन के जोधा बहुतेर।
कुछंन का मारिंन हनमानय पुन, रामन लघे भगें कुछ फेर।।
एकठे आबा बाँदर सोमीं!,दीन्हिस बाग़ असोक उजारि।  -अरुण पयासी
कृष्ण महिमा
जब कीन्ह राधिका गौर ,  कदम के डाली ।  -राधिका छंद, १३-९
उत कान्हा बइठा  ठौर,   बजावे  ताली ।।
बाहर आ के ल्या चीर,  सुना  मधुबाला ।
उत  आवत  माखन चोर सुबह नंद लाला ।।  - सुरेश तिवारी, रीवा  
बघेलखण्ड में अधिकांश लोग किसानी का कार्य करते  हुए भी साहित्य साधना में लीन रहते हैं उनको लय का ज्ञान भी बहुत है जिससे उनके गीतों में छंद का प्रभाव अनायास ही उभर कर आता है जो मनभावक व कर्ण प्रिय हो जाता है ।
फसल कटाई का गीत:
अरहरि  कटि खरिहाने  आई, / मसूरी  अँगने  लोटी रही ।
गेहूं  कटे  हमय  खेतन म, / बिटिया  मटरन  क  खरभोटि  रही ।।
गारी
विवाह उत्सव के समय समधियों व मान रिश्तेदारों को चिढ़ाते हुए हँसी ,ठिठोली करने में लिए गारी गयी जाती है ।
झुल्लूर  गुल्ली, बब्बू  मुन्ना, रानिया टेटबन  काटैं।
पढ़े लिखै मा छाती फाटिगे, यहै  चोखैती चाटैं।
हम काहे का मसका मारी, चला फलाने  सोई।
तीस साल के वर अब बागैं, काज कहाँ  से होई।।
*
अंगने मोरे नीम लहरिया लेय / अंगने मोरे हो
जहना कउन सिंह गाड़े हिडोलना / गाड़े हिडोलना
अरे उन कर दिद्दा हरसिया झूलि झूलि जायं
अंगने मोरे नीम लहरिया लेय अंगने मां
जहना कउन सिंह गाडे हिडोलना गाड़े हिडोलना
उन कर फूफू हरसिया झूलि झूलि जायं
अंगने मां नीम लहरिया लेय-अंगने मां
माँ की महिमा
केखे तार ही महतारी अस, तारिउ होय कहाँ से?।
महतारी हय जबर बिस्स मां, अउरउ सबय जंहाँ से।।
हिरदंय के चाहत,राहत के, परम आसरा आय।
महतारी के माँन करब ता, इस्सर पूजा आय।।    -अरुण पयासी  
परछन
सास द्वारा परछन करते समय उपस्थित सभी महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला गीत -
लाला खोला खोला केमरिया हो / मैं देखौं तोरी धना
धौं सांवरि हैं धौं गोरि / देखौं मैं तोरी धना
लाला खोला केमरिया हो / मैं देखौं तोरी धना
दादरा गीत
मनोरंजन हेतु दादरा डग्गा तीन ताला का प्रचलन खूब  मिलता है-
सुरति रहे तो सुअना ले गा / बोल के अमृत बोल
नटई रहै तो कोइली लै गे / चढ़ि बोलइ लखराम
एतनी देर भय आये रैन न एकौ लाग
कोइली न लेय बसेरा न करन सुआ खहराय....
बघेली साहित्य न केवल मनोरंजन कर रहा है वरन सामाजिक मूल्यों के संरक्षण एवं विकास की दिशा में चेतना जागृत कर  व्यक्ति के जीवन को सुखी व अमूल्य बना रहा है । यहाँ के गीतों की एक विशिष्ट लय है जिसका आधार छंद है,  अधिकांश गीत धार्मिक परिवेश से प्रभावित  हैं ।
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सोमवार, 28 मई 2018

दोहा, हास्य कुण्डलिया, ओशो चिंतन, गीत, रचना-प्रतिरचना

दोहा सलिला
*
चित्रगुप्त का गुप्त है, चित्र न पाओ देख।
तो निज कर्मों का करो, जाग आप ही लेख।।
*
असल-नक़ल का भेद क्या, समय न पाया जान।
असमय बूढ़ा हो गया, भुला राम-रहमान।।
*
अकल शकल के फेर में, गुम हो हुई गुलाम।
अकल सकल के फेर में, खुद खो हुई अनाम।।
*
कल-कल करते कल हुआ, बेकल मन बेचैन।
कलकल जल सम बह सके, तब पाए कुछ चैन।।
*
२८.५.२०१८
हास्य कुंडलिया
गाय समझकर; शेरनी, थाम भर रहे आह!
कहो! समझ अब आ रहा, कहते किसे विवाह?
कहते किसे विवाह, न जिससे छुटकारा हो।
डलती नाक-नकेल, तभी जब पुचकारा हो।।
पड़े दुलत्ती सहो, हँसो ईनाम समझकर।
थाम शेरनी वाह कह रहे; गाय समझकर।।
*
२८.५.२०१८     
ओशो चिंतन:
देता हूँ आकाश मैं सारा भरो उड़ान।
भुला शास्त्र-सिद्धांत सब, गाओ मंगल गान।।
*
खुद पर निर्भर हो उठो, झट नापो आकाश।
पंख खोल कर तोड़ दो, सीमाओं के पाश।।
*
मानव के अस्तित्व की, गहो विरासत नाम।
बाँट वसीयत अन्य को, हो गुमनाम अनाम।।
*
ओ शो यह बढ़िया हुआ, अधरों पर मुस्कान।
निर्मल-निश्छल गा रही, ओशो का गुणगान।।
*
जिससे है नाराजगी, करें क्षमा का दान।
खुलते आज्ञा-ह्रदय के, चक्र शीघ्र मतिमान।।
*
संप्रभु जैसे आओ रे, प्रेम पुकारे मीत।
भिक्षुक जैसे पाओगे, वास्तु जगत की रीत।।
*
२८.५.२०१८
गीत:
जाग जाओ!
भाग जाओ!!
*
साँस जाने का समय आने न पाए।
रास गाने का समय जाने न पाए।
बेहतर है; पेश्तर
मन-राग गाओ!
जाग जाओ!
भाग जाओ!!
*
हीरकों की खदानों से बीन पत्थर।
फोड़ते क्यों हाय! अपने हाथ निज सर?
समय पूरा हो न पाए
आग लाओ!
जाग जाओ!
भाग जाओ!!
*
२८.५.२०१८
गीत
लघुतम जीवन
छोड़ अहं निज
बहो सलिल सम धीरे-धीरे।
नेह नर्मदा
पुलक निहारो
विहँस घूमते तीरे-तीरे।
*
क्षमा करो जो करी गलतियाँ
कभी किसी ने भी प्रमाद वश।
आज्ञा-ह्रदय चक्र मत कुंठित
होने देना निज विषाद वश।
खुलकर हँसो
गगन गुंजित हो
जैसे बजते हों मंजीरे।
लघुतम जीवन
छोड़ अहं निज
बहो सलिल सम धीरे-धीरे।

प्रेम करो तो सच्चा करना 
कपट-कलुष मत मन में धरना।
समय कहे जब तब तत्क्षण ही 
ज्यों की त्यों तन-चादर धरना।
वस्तुजगत के 
कंकर फेंको
भावजगत के ले लो हीरे।
लघुतम जीवन
छोड़ अहं निज
बहो सलिल सम धीरे-धीरे।

तोड़ो बंधन, कर नादानी
पीर न देना, कर शैतानी।
कल-कल कलकल लहरियाँ
नर्तित आस मछलिया रानी।
शतदल खिले 
चेतना जाग्रत 
हूँ छोड़े यश-कीर्ति सजी रे।
लघुतम जीवन
छोड़ अहं निज
बहो सलिल सम धीरे-धीरे।

२८.५.२०१८ 
रचना-प्रतिरचना
चंद्रकांता अग्निहोत्री: 
चाँद का टीका लगाकर, माथ पर उसने मुझे,
ओढ़नी दे तारिकाओं की, सुहागिन कह दिया।
संजीव वर्मा 'सलिल'
बिजलियों की, बादलों की, घटाओं की भेंट दे 
प्रीत बरसा, स्वप्न का कालीन मैंने तह दिया।
चंद्रकांता अग्निहोत्री:
कैसे कहूँ तुझसे बच के चले जायेंगे कहीं। 
पर यहाँ तो हर दर पे तेरा नाम लिखा है
संजीव वर्मा 'सलिल'
चाहकर भी देख पाया, जब न नैनों ने तुझे 
मूँद निज पलकें पढ़ा, पैगाम दिखा है। 
चंद्रकांता अग्निहोत्री:
आज फिर तेरी मुहब्बत ने शरारत खूब की है 
नाम तेरा ले रही पर वो बुला मुझको रही है
संजीव वर्मा 'सलिल'
आज फिर तेरी शराफत ने बगावत खूब की है 
काम तेरा ले रही पर वो समा मुझमें रही है
२८.५.२०१८
***

घनाक्षरी

चित्र पर रचना

चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग

छंद: कवित्त, घनाक्षरी. मनहरण
विधान: वर्ण ८,८,८,७  पदांत गुरु
* श्रीधर प्रसाद द्विवेदी
कंचन वरण अंग वसन सपीत रंग, कंचन के आभरण सोह अंग अंग हैं।
बेंदीसँग बेसरकी संगति लावण्यमयी,  कंचन के कंकण नगीने बहु रंग हैं।
श्रवण समीप लोल कुण्डल सुडौल गोल, सौम्य मुख- मंडल भी नम्र कवि दंग हैं।
प्रतिमा सौन्दर्य की आ बैठी है साकार रूप, अथवा सलज्ज रति, पति जो अनंग हैं ।।
***
* संजीव वर्मा 'सलिल' 
रूपसी है अप्सरा है, या उषा पीतांबरा है, रति पति देखके, लजाई-मुस्कुराई है?  
हरिद्रा ने हरिद्रा के, गात हरिद्रा मली या, माखन-मलाई ढली, रूप की लुनाई है?
चाह-दाह है अथाह, बाँह में लिए पनाह, आह-वाह हाथ जोड़, करे पहुनाई है
अपने के सपने ने, दिन में भी रात करी, कोई और देख न ले, पलकें झुकाई है।।
***

रविवार, 27 मई 2018

साहित्य त्रिवेणी १० हिमाचली लोकगीतों में छंदबद्धता: आशा शैली

१०. हिमाचली लोकगीतों में छंदबद्धता
- आशा शैली 
*

जन्मः २ अगस्त १९४२,‘अस्मान खट्टड़’ (रावलपिण्डी, अविभाजित भारत), मातृभाषा पंजाबी, शिक्षा: विद्याविनोदिनी, लेखन विधाःकविता, कहानी, गीत, ग़ज़ल, शोधलेख, लघुकथा, समीक्षा, व्यंग्य, उपन्यास, नाटक एवं अनुवाद, भाषा: हिंदी, उर्दू, पंजाबी, पहाड़ी (महासवी एवं डोगरी) एवं ओड़िया। प्राकशित: काँटों का नीड़ (काव्य संग्रह), एक और द्रौपदी (काव्य संग्रह), सागर से पर्वत तक (ओड़िया-हिंदी काव्यानुवाद), नवजर्या, तन्हा, एक और द्रौपदी का बांग्ला में अनुवाद (अरु एक द्रौपदी), प्रभात की उर्मियाँ (लघुकथा), दादी कहो कहानी (लोककथा संग्रह)गर्द के नीचे (हिमाचल के स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियाँ), हमारी लोक कथाएँ छ: भाग,हिमाचल बोलता, आधुनिक नारी कहाँ जीती कहाँ हारी (स्त्री विमर्श), जलते सूरज की उदासियाँ (कहानी संग्रह), छाया देवदार की (उपन्यास-), द्वंद्व के शिखर ( कहानी संग्रह), हण मैं लिक्खा करनी ( पहाड़ी कविता संग्रह), चीड़ के वनों में लगी आग (संस्मरण), प्रकाशनाधीन: ७ पुस्तकें, उपलब्धियाँः साहित्यिक मंचों, पत्रिकाओं, आकाशवाणी, दूरदर्शन पर निरंतर सक्रिय, सम्मानः देश के कोने-कोने से अनेक साहित्यिक सम्मानसम्पादक, हिन्दी पत्रिका -शैलसूत्र (त्रै.),संपर्क: साहित्य सदन, ज़ेड़ सैक्टर, इंदिरा नगर २, पो. आॅ. लालकुआँ, जिला नैनीताल (उत्तराखण्ड) २६२४०२, चलभाष ९४५६७१७१५०, ०७०५५३३६१६८,८९५८११ ०८५९
*
गीतकाव्य मानव की आदिवाणी है। सारी प्रकृति ही छंदोबद्ध है। नदियों की कल-कल, पवन के वेग, पंछियों की चहचहाहट आदि में उनका अपना ही संगीत है, अपनी लय और खुद का एक छंद विद्यमान है। प्रत्येक भाषा की उत्पत्ति संगीत से हुई है और उसमें पहली सहज स्वच्छंद अभिव्यक्ति लघु स्फुट कविताओं या लोकगीतों के माध्यम से हुई है। भारतीय आचार्यों में महर्षि पिंगल का छंद-शास्त्र विश्व का प्राचीन और सर्वाधिक प्रामाणिक शास्त्र माना जाता है। आजा़दी से पूर्व विद्वान गुरुजनों की देख-रेख में पिंगल शास्त्र के नियमों का पूरी सख़्ती से पालन किया जाता रहा है, इसीलिए कविता पूर्णरूपेण छंदोबद्ध रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिंदी कविता को लेकर मनीषियों ने अनेक प्रयोग किए हैं। छंद काव्य के अनेक रूप हैं दोहा, छंद, सोरठा, चौपाई, गीत आदि लेकिन फिर भी, हिंदी के गीत-कवियों ने नए-नए छंदों के अनुसंधान के साथ ही दोहा, रोला और चौपाई छंद के साँचे का भरपूर प्रयोग किया। परिभाषा की ओर जाएँ तो महर्षि पिंगल के छंदशास्त्र के अनुसार छंद भी अनेक प्रकार के हैं, उसमें एक करोड़ ६७ लाख ७७ हजार से अधिक वर्ण-वृत्तों का उल्लेख है, जिनमें मात्र ५० छंदों को ही संस्कृत कवियों के कवित्व का अंग बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इनमें शिखरिणी, मंदाक्रांता, इंद्रवज्रा, शार्दूलविक्रीड़ित, भुजंगप्रयात छंद ज्यादा चर्चित हुए। 

गीत का सीधा संबंध गेयता से है, कण्ठ से है। गीत उल्लास, प्रसन्नता और उमंग ही नहीं, दुःख और चिंता के भी प्रतीक होते हैं, अध्यात्म और वैराग्य के भी, प्रेम और विरक्ति के भी। गीत अनपढ़ कंठों से भी प्रस्फुटित होते हैं और सधे-मँजे रागों से भी सुसज्जित होते हैं, भरपूर वाद्ययंत्रों का सहारा भी लेते हैं और लोक में प्रचलित पारंपरिक यंत्रों का भी। शास्त्रीय संगीत को जहाँ कठिन और श्रम साध्य अभ्यास की आवश्यकता होती है वहीं लोक संगीत और लोकगीतों में भाव-प्रधान शब्द सामर्थ्य और अभिव्यक्ति की निपुणता की आवश्यकता होती है, जिसके लिए लोकमानस को न तो किसी पाठशाला की आवश्यकता होती है और न ही किसी अभ्यास की। लोकगीत अपने-आप में किसी भी देश-प्रदेश को उसकी संपूर्णता के साथ अपनी संस्कृतिगत अथवा परंपरागत शैली में जीवंत रखने में पूर्णतया समर्थ होते हैं। एक निश्चित मीटर में मुख-दर-मुख ये लोकगीत न जाने कब से गाये जा रहे हैं और यही निश्चित मीटर छंद कहलाता है। सच पूछिए तो बिना छंद के गीत की कल्पना हो ही नहीं सकती, फिर लोकगीत इससे अछूते कैसे रह सकते हैं? लोकगीतों के छंद-विधान का पिंगल-शास्त्र से कुछ लेना-देना नहीं है। लोकगीतों का अपना ही छंद विधान है और वे उसी विधान से सजते-सँवरते हैं। शब्द छंदों से अलंकृत हों उठे झंकार मन में, जब शब्द छंदों का साथ लेते हैं, मन झंकृतत होता है, तभी गीत बनते हैं और मन में तरंगें पैदा करते हैं। भारत के किसी भी दूसरे क्षेत्र की भाँति हिमाचल प्रदेश भी अपनी सांस्कृतिक धरोहरों के रूप में अपने लोकगीतों की एक समृद्ध विरासत अपने आँचल में समेटे हुए है।
वैदिक काल में 'त्रिगर्त' के नाम से पुकारे जाने वाले पहाड़ी भू-भाग हिमाचल प्रदेश के अस्तित्व में आने से पूर्व तक पंजाब का हिस्सा थे। विभाजन के बाद भारत प्रदेशों के साथ पहचाना गया और हिमाचल प्रदेश का जन्म हुआ। हम यहाँ ‘शिमला’ जिले के लोकगीतों पर चर्चा कर रहे हैं, पूरे हिमाचल पर नहीं। शिमला जिला पूर्व में 'महासू' कहा जाता था और इसकी बोली 'महासवी'। महासवी रामपुर बुशहर, कोटगढ़-कुमारसेन, रोहड़ू, निमण्ड आदि तहसीलों में थोड़े-थोड़े उच्चारण भेद से बोली जाती है। गीतों की दृष्टि से महासवी अति समृद्ध बोली है। शिमला जिले के अतिरिक्त शेष हिमाचल की बोलियों पर पंजाबी भाषा का प्रभाव स्पष्टत: देखा जा सकता है। 
हिमाचल प्रदेश में विभिन्न प्रकार के लोकगीत प्रचलन में हैं, जिनमें गंगी (टप्पे), नाटी (नृत्यगीत), ब्रह्मभक्ति (भक्तिगीत) आदि के साथ लामण लोकगीत खूब प्रचलन में हैं। अलबत्ता गंगी का प्रचलन किन्नौर को छोड़कर पूरे हिमाचल में है और ब्रह्मभक्ति (भक्तिगीत) का प्रचलन केवल बुशहर क्षेत्र में है। वैसे तो हिमाचल प्रदेश के ऊपरी भागों में लोकनृत्य की दो परंपराएँ प्रचलित हैं: एक एकल नृत्य और दूसरी नाटी शैली। नाटी शैली अलग-अलग नामों से देश के हर भाग में प्रचलित है परंतु नाटी महासू क्षेत्र की विशेषता है। यह समूह नृत्य होता है जिसे स्त्री-पुरुष गोल घेरा बना कर प्रस्तुत करते हैं। गंगी विशुद्ध पंजाबी टप्पा है। इसके गायक आपस में उत्तर-प्रत्युत्तर भी देते हैं और इसे एकल भी गाया जाता है। वस्तुतः गंगी प्रेम गीतों का पर्याय ही है। नाटी की श्रेणी में नृत्य गीत आते हैं जिन्हें नृत्य के समय गाया जाता हैं। ब्रह्मभक्ति अपने नाम के अनुरूप भक्ति गीत हैं। इन गीतों की विशेषता यह है कि इन्हें ब्राह्मण समुदाय द्वारा गाया जाता है। ब्रह्मभक्ति के माध्यम से सभी देवी-देवताओं की आराधना की जाती है।
हिमाचली लोकगीतों में लामण का विशेष स्थान है, इसके गायक-गायिकाएँ न केवल मधुर कण्ठ के स्वामी होते हैं, अपितु बिना रियाज़ के मंजे कंठ से अर्थपूर्ण शब्दों का प्रयोग कर सुनने वाले को मोहित करने में पूर्ण समर्थ होते हैं। लामण का अर्थ अक्सर प्रेम गीतों के रूप में लिया जाता है किंतु ऐसा है नहीं। यह बात विभिन्न लामण सुनने-पढ़ने से स्पष्ट हो जाती है। लामण का रूप द्विपदी (दोहा या शे'र) का सा होता है किंतु दोहे की तरह मात्राओं की गणना यहाँ महत्व नहीं रखती, न ही शे‘र की तरह ग़ज़ल का एक हिस्सा होती है, न ही इसके मिस्रे बँधे होते हैं। हर लामण अपने आप में परिपूर्ण होता है। लामण के भाव जीवन की प्रत्येक खुशी अथवा दुःख की ही सशक्त अभिव्यक्ति नहीं करते, यह तो जीवन के प्रत्येक पहलू को हमारे सामने खोलकर रख देते हैं।
‘‘सुख रे लामण दुखा रे गैणे गीता, / दुख न सम्भलो ईजी रे गर्भा भीता’’     म्म्म्
(लामण सुख में मुख से फूटे दुख में गीत भले हैं / मातृगर्भ से सुख-दुःख सारे मानव संग चले हैं)
पहाड़ी लोकगीतों की अदायगी का अंदाज़ भी अपनी अलग ही विशिष्ट पहचान रखता है। जंगल में घास अथवा खेतों में फसल की कटाई के समय, जंगल में भेड़-बकरी चराते हुए अथवा अन्य किसी भी फुर्सत के क्षण में बुशहर के पर्वतवासी आपको लामण गाते सुनाई देते हैं। ये लोक-गीत जो जंगल के एक कोने में बिना किसी वाद्ययंत्र की सहायता के गाए जाते हैं और दूसरे कोने से दूसरे पक्ष द्वारा दोहराए जाते हैं या उत्तर में दूसरा लामण गाया जाता है। इसे स्त्री-पुरुष दोनों ही गाते हैं। यह लामण किसी एक भाव की प्रस्तुति नहीं करते अन्यथा इनमें आप पहाड़ी परंपरा के पूरे जीवन को जान-पहचान और अनुभव कर सकते हैं। लामण लोकगीतों की प्रथम पंक्ति यद्यपि कभी-कभी निरर्थक सी प्रतीत होती है, परंतु वास्तव में वह निरर्थक कतई नहीं होती जबकि कभी-कभी प्रथम पंक्ति का प्रयोग केवल तुक मिलाने के लिए ही किया जाता है, अधिकतर वह हिमाचली कला और संस्कृति की वाहक होती है। प्रथम पंक्ति पर्वतीय परिवेश की प्राकृतिक संपदा और वहाँ के रीति-रिवाजों का आइना रहती है। अलबत्ता दूसरी पंक्ति ही असली मंतव्य प्रकट करती है।
यहाँ कुछ लामण उनके हिंदी अनुवाद के साथ प्रस्तुत हैं। आप भी इन पहाड़ी झरनों जैसे मधुर गीतों का आनंद लीजिए। जरा देखिए, सांसारिकता और जीवन के यथार्थ को लामण किस गहराई से उकेरता है।
जाणा थी बैणे (बहन) साहूकारा लै नाणो / जो लिओ (लिखा) कोरमा सो जा तैंडलो खाणो   
(चाहा था साहूकारों के घर में ब्याह कर जाना / जैसा लिखा भाग्य में बहना पड़ता वैसा खाना)       
अब इसे छंद कहें या न कहें, पर हर लामण में तुकांत है, गेयता है और है दोनों पंक्तियों का आपसी ताल-मेल। हिमाचल के तीखे पहाड़ और उनकी विषम जीवन-यात्रा कठिन और श्रमसाध्य होती है। आज भले ही हिमाचली महिला पूर्णरूपेण शिक्षित और प्रगति पथ पर अग्रसर है परन्तु कुछ ही दहाइयों पूर्व छोटी आयु की लड़कियों को ब्याह देना यहाँ का आम रिवाज रहा है। उन दिनों आवागमन के भी इतने साधन नहीं थे। अब बेटी परदेस में अपने दुःख किससे कहे? इसका निर्वाह लामण ने पूर्ण दक्षता से किया है। ससुराल में पहाड़ी लड़की किस तरह से अपनी बात लामण के माध्यम से कहती है।
चन्द्रा-सूरजा आपु रसोइये बेठो / आेंरो१ मेरो कोरमा कोह् दी लाइया हेठो२ (१-खोटे कर्म, २-दोष)
(हे चंदा, हे सूरज तुम्हें रसोई में बैठाऊँ / खोटे भाग्य हमारे हैं तो किसको दोष लगाऊँ?)
मायके और ससुराल के प्रेम का झूला झूलती नायिका का मन टटोलने के बाद आइए अब जरा श्रृंगार रस का आनंद लें। हिमाचली लामण में नायक-नायिका अपने प्रेम की अभिव्यक्ति किस प्रकार करते हैं-
मना रौ भाउणों नाई गयो धारटी पौरू१  / चींजे न शुणदों२ बेदे ना आउंदो औरू (१ पर्वत पार, २ पुकार सुनता नहीं)
(पर्वत के उस पार खो गये मीत मेरे मन भावन / सुनते नहीं पुकार हमारी होगा कैसे आवन)
शाल़टी१ गउए तेरे कड़ोलुए शींगा / रीशदो माणशा२ धुरी बिले३ बादल़ी रींगा  (१ साँवली, २ ईर्ष्यालु मनुष्य, ३ क्षितिज पर)
गोल कड़े से सींग तुम्हारे ए री गाय साँवली सी रूठा प्रेमी बदली जैसे, फिरे क्षितिज पर पगली सी
भांग्रिए डालि़ए उचिए कुम्बरी खाओ / होरि शाए रिलुआ हमु न बिसरी जाओ  
(हरी भांग की डाली, कोंपल हुई नशीली चाहे तुम खाना / रूपछटा पर औरों की प्रियतम, मत भूल हमें जाना)    
वर्णन सांसारिकता का हो, या लोक व्यवहार अथवा प्रेम या श्रृंगार या फिर संवेदनशीलता का ही क्यों न हो हिमाचली लामण छंद हर क्षेत्र में अपना दखल रखता है। इन लोकगीतों में कला के सभी रस आपको अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए मिलेंगे।लामण में जनसाधारण के प्रति अद्भुत संवेदनशीलता है-  
उशटे१ टिबेआ तोड़ा पाणिओ सोरा२ (१ ऊँचे, २ सरोवर)
ढल़े मुंदी टिबेआ, तोड़ा३ ढ़ला माणुओ घोरा (३नीचे)
(ऊँचे टीले पर गहरे पानी का सरवर लहराये  
ओ टीले गिरना मत, नीचे मानव ने घर बनवाये)        
आगे खाए जिंजणा१, दुईं खाए फेडुए टोरे (१ विभिन्न व्यंजन)
जेई पड़ी बिबता तेई नेई कसिए सौरे 
(पहले छत्तिस व्यंजन मिले बाद में कोंपल घास      
कोई नहीं साथी विपदा में कोई न बैठे पास)
शाड़टु बाड़ेआ१ आड़े लागो जंजाले़ (१अल्हड़ अवस्था), 
चीणी नीणों सौरगे, ढाड़े लाणो पाइताले़    
(बाली उम्र कलेस प्रेम का मन का सब जंजाल 
मन करता निर्माण स्वर्ग तक, गिर मिलता पाताल)     
माला के सुंदर मनकों जैसा ही है महासू का लोकगीत लामण। महासू क्षेत्र के पर्वतवासी जन-जन में सभी रसों के संचार करनेवाले शुद्ध श्रृंगारी लोकगीत गंगी छंद का भी रस लीजिए। लगता है यह छंद यहाँ का मूल छंद नहीं है। पंजाबी के माहिया छंद का प्रभाव इस पर स्पष्ट देखा जा सकता है। देखिए गंगी का एक टुकड़ा-
‘तेरी पिठी पांधे लाल बसता / पारिए न जायां छोहरुआ / तांखे वारिए नवेला रसता’
(पीठ पर लाल बस्ता लेकर जाने वाले लड़के! उधर से क्यों जाते हो, इस ओर से तुम्हारे लिए एकांत वाला रास्ता मैंने देखा है)
हरी छिछड़ी बणाई खुर्शी / मेरी गल शुण छोह्रुआ / तू बी बणि जांदा बाबू मुनशी।
(हरी छिछड़ी, एक प्रकार की कोमल झाड़ी होती है।)
नायिका कहती है, मैंने हरी छिछड़ी की कुर्सी बनाई है। मेरी बात मान, इस पर बैठ। तू मुंशी बाबू बन जाएगा।
नाटी का अर्थ है 'नृत्य', वह गीत जिसे गाकर नाचा जा सके। गीत में यदि छंदबद्धता न होगी तो नाचा कैसे जाएगा? लोकनृत्य लयबद्ध होते हैं। अब नाटी का प्रचलन विवाह और मेलों तक रह गया है किन्तु नब्बे के दशक तक लोग घरों में नाटियों का आयोजन करते थे। छोटे-छोटे पहाड़ी खेत, थोड़ी-थोड़ी उपज, घर के आँगन में बने छोटे से खलिहान में दो-तीन दिन की धूप में सुखाए गए गेहूँ, जौ और धान, रात को नाटी लगा कर मढ़ाई की जाती। आज इसके गेहूँ हैं तो कल उसके। रात के भोजन के बाद पूरा गाँव स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े सब नाटी में आ जुड़ते और एक दूसरे का हाथ पकड़े रात-रात भर नाचते। घर के बड़े-बूढ़े, बीच-बीच में दरांती से पैरों तले के अनाज को उलट-पलट करते रहते और अंत में दाने और भूसी अलग हो जाती।
गाँवों में प्रतिभाओं की तो कमी है नहीं, नाटी में गाए जानेवाले गीत कभी-कभी किसी प्रेमी जोड़े पर गाँठ लिए जाते और कभी किसी घटना विशेष पर। इनमें व्यंग्य के स्वर भी आ मिलते हैं और गाथा के भी। दो पत्नियोंवाले पति का चित्रण नाटी में देखिए-
गदिए आणी गाद्दणाी, दुई दुई गदाणी लो।
एक चाणदी फुलके, एक आणदी पाणी लो। ओ मेरेया गादिया दुइ-दुइ गादाणी लो।।
गद्दी आणी दुई गद्दणी, बडो पड़ो पुवाड़ो लो। / एक मांगदी कांटे-बाड़ू, एक मांगदी हारा लो।।
दो पत्नियाँ हैं चरवाहे की, एक रोटी बनाती है तो दूसरी पानी भरकर ला रही है, मुसीबत यह है कि एक झुमके और नथ माँगती है और दूसरी हार माँग रही है।इतने पर ही बस नहीं करते ये गीत। ननद भाभी का प्यार भी दिखाते हैं-
औरु दे भाभिए मेरी जुटी, औरु दे भाभिए मेरी जुटी।
भाभिए तेरी ताईं छुटी, भाभिए तेरी ताईं छुटी।
ननद कह रही है भाभी मेरा चुटीला (चोटी में गूँथने वाले धागे की डोरियाँ) दे दो। मैं तो तेरे ही कारण ससुराल छोड़कर आ गई हूँ।
औरु दे भाभिए मेरी दाची, औरु दे भाभिए मेरी दाची।
देओ नरैणु लाणी पाची, देओ नरैणु लाणी पाची।।
-भाभी! मेरी दरांती दो तो नारायण देव को चढ़ाने के लिए, पूजा के लिए पत्तियाँ काट लाऊँ।
बिंदराबणे बाशा शियारी, बिंदराबणे बाशा शियारी।
भाभी लागी जात्तरै तियारी, भाभी लागी जात्तरै तियारी।
वृंदावन में चिड़िया बोल रही है और मेरी भाभी मेले में जाने की तैयारी कर रही है। तो इस प्रकार हम देखते हैं कि इन लोकगीतों में कितनी लयबद्धता है। समस्या यह है कि हम अपने से इतर भाषा की जानकारी न रखने के कारण इनका रस नहीं ले पाते। जबकि फिल्मी निदेशक इन्हीं धुनों का प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं तो लोग झूमते हैं। यही छंदबद्धता का रस है हमारे लोकगीतों में।
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शनिवार, 26 मई 2018

साहित्य त्रिवेणी १२ - डॉ. वसुंधरा उपाध्याय -कुमाऊँ लोकगीतों में छंद

१२. कुमाऊनी लोकगीत में छंद : एक विमर्श

डाॅ0 वसुंधरा उपाध्याय
सहा. प्राध्यापक हिंदी विभाग
  एल.एस.एम.रा.स्ना.महा. पिथौरागढ़ 
भारत के अन्य भागों की तरह कुमाऊँ में लोक साहित्य की परंपरा उतनी ही पुरानी है जितनी पुरानी मानव जाति है। लोकगीत, लोक कथा, लोकोक्ति, पहेली आदि की परपंरा सनातन से मौखिक रही है। लिपिबद्ध किए जाने के कारण शिष्ट साहित्य की परपंरा हर देश में क्रमबद्ध रूप में मिलती है, लेकिन लोकसाहित्य की नहीं। लोकसाहित्य की उत्पत्ति तथा विकास की कथा बहुत रोचक है। लोकगीतों का बीज सबसे प्राचीन-पवित्र ग्रंथ ऋग्वेद में मिलता है। जिन गाथाओं का उल्लेख स्थान-स्थान पर प्राचीन साहित्य में उपलब्ध है। ये गाथाएँ लोकगीतों की पूर्व प्रतिनिधि हैं। पद्य / गीत के अर्थ में 'गाथा' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर है।१ लोकसाहित्य की परिधि में मानव के समस्त आचार-विचार की विरासत आ जाती है। इसमें मानव का पारंपरिक रूप प्रत्यक्ष हो उठता है। इसका प्रमुख स्रोत लोक मानस होता है। इनमें संस्कार एवं परिमार्जन की चेतना कार्य नहीं करती। लौकिक-धार्मिक विश्वास, धार्मिक गाथाएँ व कथाएँ, कहावतें, पहेलियाँ आदि लोक साहित्य के अंग हैं। हम लोकवार्ता (फोक लोर) का अर्थ जन-साहित्य / ग्रामीण कहानी  नहीं, जन की वार्ता करते हैं।२
'लोक' शब्द अपनी परिसीमा में अत्यंत व्यापक और सम है। ‘यह ब्रह्म की ही तरह अनंत, अक्षर और असीम है। जीवन का प्रतीक और पर्याय है। 'लोक' की सीमा केवल ग्राम या साधारण जनता तक सीमित नहीं है। ऐसा संकीर्ण अर्थ बहुत बड़ी साहित्यिक,सामाजिक और सांस्कृतिक भूल का द्योतक है। समस्त चराचर में लोक की अलंकृति ही परम उपादेय और मांगलिक है। लोकसाहित्य का आशय है जन साहित्य। लोकसाहित्य के सुंदर रूप को जड़ विज्ञान ने कृत्रिम तथा नीरस कर डाला है। फलस्वरूप इसका आध्यात्मिक स्रोत सूखता जा रहा है। जड़ विज्ञान के कारण पंचतत्व निर्मित मानव पशु ने अपने मूल स्रोत आत्मा और संस्कृति के हिमालय का परित्याग कर पाशविकता का वरण किया है। लोक साहित्य विकृत हो चला है। लोकसाहित्य के आत्मवाद द्वारा ही बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की परिकल्पना सम्भव है। भारतीय जीवन दर्शन में अंतर्निहित शालीन गौरव प्रिय-अप्रिय, सुख-दुख से कभी पराजित नहीं होता था। भारतीय जीवन-दर्शन ने हृदय से अपराजित होकर अविचल जीवन दृष्टि और 'अकुतोभावमय' के भाव से जीवन को ग्रहण किया है -‘सुखं वा यदि वा दुःखं, प्रियं वा यदि वाडप्रियं प्राप्तं प्राप्तं मुपासीत हृदये न पराजितः। - महाभारत शांति पर्व।२५.२६
इसीलिए वह मृत्यु की ओर से निर्भय था। जीवनरस की मादकता प्राप्त करने वाले को मृत्यु से डर कहाँ? एक लोकगीत में हृदय के समस्त उल्लास ओर घुमड़ते दर्द को दुनिया में बाँटकर, दर्द को दवा में परिणत कर विश्व के कण-कण में जीवन-रस को सहेजकर सभी प्राणियों में दीप्ति एवं तृप्ति देने की महती सदिच्छा रखने वाले लोक गीतकार की दतन्नी फूट पड़ती है-
'रसवा को भेजली भवरवां के संगियाॅ / रसवा ले अइले हो थोर
एतना ही रसवा में केकरा के बॅटबों / सगरी नगरिया  हित मोर।
लोकसाहित्य का यही मधु हमें तन्मय कर देता है। इससे हमें अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। अचल अनुरक्ति मिलती है और मिलती है हमें 'जिजीविषा की अदम्य शक्ति'।३
परंपरा और प्रयोग की दृष्टि से कुमाऊँनी साहित्य को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। मौखिक और लिखित। हिमालय के उपकंठ में स्थित कुमाऊँनी बोली के उद्भव के साथ ही उसका लोक साहित्य भी परंपरित हुआ। क्षेत्रीय विस्तार की दृष्टि से वर्तमान में अल्मोड़ा, नैनीताल और पिथौरागढ़ जनपद के अंतर्गत कुमाऊँनी भाषा/बोली में प्रचलित लोकसाहित्य कुमाऊँनी लोक साहित्य कहलाता है। अन्य भारतीय लोक साहित्यों की तरह  कुमाऊँ के लोकसाहित्य का अपना विशिष्ट महत्व है। कुमाऊँनी लोक साहित्य की परंपरा प्राचीन समृद्ध और व्यापक है। यह आज तक कंठानुकंठ ‘श्रुति’ रूप में अजस्र रूप से प्रवाहित है। यहाॅं की प्रकृति जलवायु एवं विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों का यहाॅं के लोक जीवन पर अत्यंत गहरा प्रभाव पड़ा है।
कुमाऊँनी लोकसाहित्य की कई विधाओं में श्रव्य और दृश्य के गुण एक साथ हैं। कुमाऊँनी के हजयोड़ा, चाँचरी, छपेली आदि गीत प्रमुख रूप से सुने और देखे जाते हैं। लोक की अधिकांश साहित्यिक अभिव्यक्ति गेय होती है। गीत में कविता का एक स्फुट भावशाली मनोभाव दृश्य या जीवन को लेकर उसकी समस्याओं में केंद्रित हो जाता है। गीतों में माधुर्य की प्रधानता है। इसमें मानसिक स्वरूपों, सूक्ष्म मनोभावों और मनोगतियों की सुषमा व संगीत्मकता की प्रधानता है। गीतों में ध्वन्यात्मकता या नाद सौंदर्य पर रचनाकार का ध्यान केंद्रित रहता है। जिन रचनाओं में छोटी-छोटी भावनाएॅं एकरूप होकर गेय हो जाती हैं, उन्हें गीत कहते हैं। अपने लघु कलेवर में गीत पूर्ण तथा मार्मिक होता है। इसमें भावनाएँ इतनी घनीभूत हो जाती हैं कि प्रत्येक शब्द की अपनी निजी व्यंजना पाठकों तथा श्रोताओं के मन को अपनी ओर खींच लेती है। गाँव के प्रायः निरक्षर लोग नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र या व्यवहारिक ज्ञान पुस्तकों को पढ़कर नहीं पा सकते थे। घर-गृहस्थी के कार्यों में संलिप्ततता के कारण वे किसी विद्वान या उपदेशक के पास बैठने का समय भी न पा सकते थे। इस कमी को दूर करने के लिए वाक् द्वारा सरल शब्दों में कही गयी गूढ़ार्थ युक्त वार्ताएँ ही उनकी गुरु हैं।४
लोकगीत लोकमानस की सुख-दुखात्मक अनुभूति ही अगेय़, गेय और वाचिक लोकगीत के रूप में फूट पड़ती है। गेयता ही लोकगीत को जनसामान्य तक पहुँचाती है। लोकगीतों की प्रकृति सामाजिक है। समाज से प्राप्त और समाज के लिए अर्पित लोकगीत का मूल प्रेरक समाज है। सामाजिक प्रकृति और परिवेश के प्रभाव में लोकगीतों का सृजन होता है। अपनी रचना विधि में समाज सापेक्ष कल्पना का सार्थक हस्तक्षेप ही लोकगीत का उत्स है, जहाँ समाज की उपेक्षा का प्रश्न ही नहीं उठता। लोकगीतों का सहज विकास जीवन की व्यापक परिस्थितियों के प्रभाव के कारण हुआ है। सभी सामाजिक गतिविधियाँ, पर्व, प्रकाश, उत्साह, उछाह का प्रेरक लोकगीत ही है।
लोकगीत मूलतः सामाजिक स्थितियों का पुनर्सृजन है। सामाजिक आदर्श, नियम-संयम, जीवन-मूल्य, रीति-नीति, संस्कृति-सभ्यता के अनुरूप इसकी गूँज होती है। इस गूँज में अंतर भी होता है। विविध सामाजिक सभ्यता के आचार-विचार,  परंपराओं, परिवेश और परिप्रेक्ष्य स्तरों के अनुसार ‘यह मानवीय सुख-दुख की जमीन में उगा हुआ वह पौधा है जो निरंतर खुली धूप, ताजी हवा व स्वच्छ पानी से पुष्ट होता हुआ मानव मात्र को छाँह और फल देने वाला विशाल वट वृक्ष बन गया है। लोकगीतों का विकास प्रत्येक देश की सामाजिक सरंचना के अनुरूप होता है। सामाजिक परिवर्तन का पूरा असर लोकगीतों पर पड़ा है।
साहित्यिक दृष्टि से काव्यात्मक गुणों की अभिजात्यता के अभाव में भी इनका अपना अलग ही नैसर्गिक सौंदर्य होता है। यह लोकजीवन की धरती से स्वतः स्फूर्त जलधार की तरह उद्गमित होते है। इनमें लोकमानस का आदिम और जातीय संगीत सन्निहित रहता है। अतः, लोकभाषा अथवा बोली में लोक हृदय से प्रकृत सहज और स्वाभाविक रूप से प्रस्फुटित भावमय मौखिक और गेय उद्गार ही लोकगीत हैं। लोकगीतों में किसी प्रकार का प्रयत्नज अलंकरण एवं उक्ति वैचित्र्य नहीं होता, न ही उनमें इस रूढ़ कल्पना और दुर्बोधता होती है। ये गीत धरती से उगते हैं। प्रकृति इन्हें पल्लवित, पुष्पित और सुरभित करती है। किसी एक व्यक्ति द्वारा रचित होने पर भी इनमें निर्वैयक्तिकता होती है। लोकगीत आंचलिक संस्कृति के मुँहबोले चित्र हैं। इनमें रागात्मकता, लयात्मकता, स्वतःस्फूर्तता, अनुभूति प्रवणता, गतिशीलता, वस्तु तथ्यता व लोकमानस की सहजता मिलती है।
कुमाऊॅंनी लोकगीत हमारे समाज में अनेक अवसरों पर अलग-अलग गीत गाए जाते हैं। इनके वर्गीकरण हेतु समग्र रूप से पहचान आवश्यक है।लोक साहित्य के विद्वान अध्येताओं ने कुमाऊँनी लोकगीत के वर्गीकरण का विषयगत आधार ही अपनाया है। लोकगीतों का तात्पर्य सामान्यतः लघु कलेवर वाले मुक्तक गीतों से ही समझा जाता है।  लोकगीतों के अंतर्गत कुमाऊँ की मुक्तक गीत पद्धतियों का परिचय इस प्रकार है-
१. न्यौली
न्यौली कुमाऊँनी गीतों की एक गायन पद्धति है। न्यौली की उत्पत्ति ‘नवल’ या ‘नवेली’ शब्द से है। ‘न्यौली’ में नवेली को आलंबन मानकर या संबोधित कर गाए जानेवाले  प्रेमपरक गीतों का प्रतिपाद्य विषय श्रृंगार है।५ न्यौली में श्रृंगार की चारों स्थितियों पूर्वराग, मान, प्रवास और करूण में से प्रवास का आधिक्य है। संयोग में प्रिय-मिलन की आकुलता छेड़-छाड़, हास-परिहास, उत्कंठा, उपालंभ, सुख-कामना आदि दशाओं का चित्रण होता है। वियोग में प्रोषितपतिका की अतलस्पर्शी पीड़ा हिलोर लेती है। विरह की संपूर्ण अंतदर्शाओं-अभिलाषा, चिंता, स्मृति, गुणकथन, उद्वेग, उन्माद, प्रलाप, अश्रु व जड़ता का मार्मिक अंकन न्यौली गीतों में है।
संयोग श्रृंगार
सिल्गड़ी का / पाल चाल, कलूॅं फुल्या लाल।
छोड़ सड़ी पिछोड़ी चाल, फल्जू माया जाल।२
विप्रलंभ श्रृंगार विरह लोकगीतों का प्राण है। न्योली गीतों की नायिका प्रोषितपतिका है। प्रिय प्रवासी है-
ऊॅंचा धुरा सुको डाण, पानी की तुडुक। /  अगास बादल रिट्यो, रवे ऊॅंछी धुडुक।६४ 
सौंदर्य वर्णन
के कालि धमेली का बीच टसर को फुंद। / इसी ठसक ले हिट टुटि पड़ो छंद।६७० 
प्रेम निरूपण 
तु है जाली माता सुवा, मै है जू जोगी१७५/ काली बाकरी बन लैछ, बन की बनै छ।
कै थे कयो क्या हुन्या हो, म नही मनै छ।३३४ 
ऋतु वर्णन और बारहमासा 
अगास को दल बादल घुड़ घुड़ घुड़ कुँछ। / छिया मै नासूर है गो, सुड़ सुड़ सुट कुँछ।११५
प्रकृति वर्णन 
सर्ग भरी तारा छिया बीच में जुनु लागी। / तेरि सुवा मैलं भेटी, बाटै मे रून लागी।
अलंकार योजना 
के कालो कलेजी रंग, के कालो क्वीचन। / के दुख हलि का बल्द, के दुख मै छन।१०१२ 
२.जोड़ 
जोड़ का शाब्दिक अर्थ है योग या संधि।  अपने व्यापक अर्थ में गेयता की दृष्टि से जोड़ का तात्पर्य हुआ 'वह लय अथवा पंक्ति जो एक भाव, लय अथवा पंक्ति को दूसरे से जोड़ती है। कुमाऊँनी गीतों में ध्रुवक, टेक या स्थायी के पश्चात पल्लव, संपद या अंतरे  के रूप में आने वाली पक्तियों को जोड़ कहा जाता है। गीतों में टेक पद के पश्चात पक्तियाँ निर्मित करने की प्रक्रिया 'जोड़ मारना' कहा जाता है। जोड़ों का सिलसिला अटूट-अबाध रहता है। जोड़ अपने कलेवर व अर्थवत्ता में हिंदी के दोहा-चौपाई, उर्दू के शेर तथा अंग्रेंजी के कपलेट से समानता रखता है।६ 
जोड़ और न्यौली 
टेक के बाद गीत की पंक्तियों को जोड़ने की प्रवृत्ति के आधार पर सामान्यतः न्यौली को जोड़ लिया जाता है पर न्यौली और जोड़ में लयात्मक अंतर है। न्यौली सम मुक्तक वर्णिक छंद है और जोड़ विषय मुक्तक वर्णिक। न्यौली को लयात्मक आधार पर जोड़ में नहीं बदला जा सकता, जबकि जोड़ को बड़ी सुगमता से न्यौली में परिवर्तित किया जा सकता है।
जोड़
पाखै की दन्यार। / भूलि जूॅलो दाॅतपाटी, नि भुलूॅ अन्वार।
पाखै की दन्यार, सुवा, पाखै की दन्यार। / भूलि जूॅलो दाॅतपाॅटी, नि भूलि अनवार।
प्रेमिका जिस पर्वत शिखर पर है प्रेमी को वह पर्वत प्रांतर ही रसमय लगता है
घा काटो ओसिलो। / जै धुरा छू मेरि सुवा, ऊ धुरो रसिलो।
सौंदर्य वर्णन में कवि के उपमान इतने सहज हैं कि पाठक को कल्पना में बिंब बांधने का प्रयत्न नहीं करना पड़ता: "हेलसि को घोल। / चुव जसी मसिणि छै पुव जसी गोल।"
कुमाऊँनी लोकसाहित्य के मर्मज्ञ डाॅ0 त्रिलोचन पाण्डे, डाॅ0 केशवदत्त रूवाली, डाॅ कृष्णानंद जोशी, डाॅ0 भवानीदत्त उप्रेती, डाॅ. नारायणदत्त पालीवाल आदि विद्वानों ने जोड़ को 'भग्नौल' नाम से भी निरूपित किया है।७ लयारंभ कर बीच में गद्य प्रयोग की स्वतंत्रता लेकर गद्यांत में वह प्रारंभिक पंक्तियों की तुक पकड़ता है तथा छंदांत में सहगायक भाग लेते है:
झुमुरा की घान/  धोइनि लुकुड़ि रैगे, / खैचीयूॅं कमान, / काॅं उसा मानिख रैगे / काॅ उसे इमान। 
कुमाऊँनी के लिखित साहित्य में ‘गोर्दा’ ने जोड़ छंद का प्रयोग ६-८-६ वर्णों की यति के आधार पर किया है-
मडुवा को बालो देखुलो स्वराज्य जवै तव दुख जालो।
सानण की पाई मुलुक गारत -हजययो लड़ि लड़ि भाई।
३. चाँचरी 
'चाँचरी',चाँचरिया चाँचुड़ी शब्द संस्कृत ‘चर्चरी’ शब्द से विकसित है। जिसका अर्थ है ' नृत्य ताल समन्वित गीत'। डाॅ0 त्रिलोचन पाण्डे चाँचरी की उत्पत्ति चंचरीक से मानते है। चंचरीक की भांति वृत्ताकार घेरे में क्रमशः आगे बढ़ते हुए लोग घेरे को कम करते जाते हैं या पीछे की ओर हटते हुए और हटते हुए उसे बढ़ाते जाते हैं।८
कालिदास के विक्रमोर्वशीयम और श्री हर्ष के नाटकों में 'चर्चरी' का उल्लेख मिलता है। प्राकृत पैंगलम् में चर्चरी छंद का उल्लेख है। अपभ्रंश में जिनदत्त सूरि ने ‘चर्चरी’ की रचना की थी। हिंदी के भक्तिकालीन कवियों कबीर जायसी आदि के काव्य में भी चाँचरी का वर्णन हुआ है। जायसी ने अपने काव्य में लिखा है -'होई फाग भलि चाँचरी जोरी।' ९ 
चाँचरी नृत्यगान शैली भी है। यह मेलों में किया जानेवाला सामूहिक नृत्यगीत है। विविध उत्सवों, त्योहारों और मांगलिक अवसरों पर भी इनका आयोजन होता है। चाँचरी में वाद्ययंत्र के रूप में प्रायः हुड़का बजता है जो मुख्य गायकों द्वारा बजाया जाता है। मुख्य गायक गीत की पंक्ति गाता है, दूसरा उसे दुहराता है:
पुरूष- सुब्दारै की चेलि बसती, द्यो लागो नैनिताला। / स्त्री- रामलाल का च्याल दीवाना, ये बाटा कब आला।
चाँचरी घास काटते, लकड़ी काटते, जंगल आते-जाते, कृषि कार्य करते, पशुचारण करते एकाकी रूप से गाई जाती है। पूजा, नवरात्रि आदि के अवसर पर देवी-देवताओं के मंदिरों में भक्तिभाव से परिपूर्ण मर्यादित चाॅंचरी गाई जाती है: छमा पिनुरी का धुरा देवी छम / छमा पड़ि गो बरफ देवी छम / छमा दैण हये भग्वती देवी छमा / छमा सब की तरफ देवी छम ....
उद्दाम प्रेम एक ऐसी अवस्था होती जब प्रेमी-प्रेमिका दोनों को ही किसी भी प्रकार का बंधन स्वीकार नहीं होता, दुनिया का डर नहीं होता। प्रेमी कहता है: स्यारघाट की नंदी बाना चैजा मेरा घर, / कालि टोपी घुंगरवाली जुल्फी कैकि कंछै डर।
४. झोड़ा -ं
'झोड़ा', इवाड़ा या इवाड का मूल हिंदी 'जोड़ा' शब्द है। कुमाऊॅंनी में 'ज' ध्वनि सुगमता से 'झ' ध्वनि में परिवर्तित हो जाती है। चाँचरी की भाॅति झोड़ा भी कुमाऊॅं की प्रसिद्ध सामहिक नृत्यगान शैली है। झोड़ा' को नेपाल में 'हथज्वाड़' या 'हथजोड़ा' (बुंदेलखंड में हथजोड़ा-सं.) कहा जाता है।  देवी-देवताओं के मंदिरों में झोड़े गाये जाते हैं। इनमें दैवीय शक्ति का गुणगान कर उनके कार्यों को स्मरण किया जाता है। यह मुक्तक और प्रबंध दोनों प्रकार से गाए जाते हैं। सोमेश्वर, अल्मोड़ा और द्वाराहाट आदि क्षेत्रों में मुक्तक झोड़ा का प्रयोग होता है। पिथौरागढ़-जनपद के सोर, सीरा, मुनस्यारी, अस्कोट और चंपावत क्षेत्र में चाँचरी और झोड़ा के समान ही खेल या हथजोड़ा नृत्यगीत प्रचलित है। यह खेल भादों के महीने में गौरा-महेश्वर के आगमन, जन्मोत्सव, विवाह, विसर्जन आदि अवसरों पर आयोजित होते हैं। ''(ओहो) गोरी गंगा भागरथी को क्या भलो रेवाड़ा / (ओहो) खोलि दे माता खोलि भवानी धरम के बाड़ा / (ओहो) के लै रैछै भेट बैना म्यारा दरबारा / (ओहो) द्धी जौयां बाकरा लायूॅं त्यारा दरबारा...... खोलि दे'' 
५. छपेली 
'छपेली' का अर्थ है 'क्षेपण', 'क्षिप्र गति' या त्वरा'। इस नृत्य-गान शैली में नृत्य और गायन दोनों में क्षिप्रता रहती है। छपेली कुमाऊँनी लोकगीतों की एक मुक्तक नृत्यगान शैली है। विवाह, मेलों, उत्सवों, आदि के अवसर पर अनेक गायकों और नर्तकों द्वारा छपेली का मंचन किया जाता है। इसमें नृत्य और गायन दोनों का समावेश होने के कारण इसमें दृश्य और श्रृव्य दोनों में ही आनंद आता है। मुख्य एक गायक और एक नर्तक होता है।'बिर्ति ख्याला पानी बगौ उकाला। / तेरो-मेरो जोड़ों हुछ पगाला।' १
६. बैर 
'बैर' से तात्पर्य है द्वंद या संघर्ष। यह प्रश्नोत्तर शैली में होने वाले गीतात्मक प्रतिद्वन्द्विता है। गायकों में एक दूसरों को पराजित करने की होड़ रहती है। यह प्रश्नोत्तर शैली में होने वाले गीतात्मक प्रतिद्वन्द्विता है। अनेक अवसरों पर इस गीत शैली का प्रयोग होता है। एक गायक गीत शुरू कर प्रश्न पूछता है, दूसरा गायक उत्तर देकर प्रति प्रश्न पूछता है। यह क्रम अबाध गति से चलता है। जो गायक प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाता, हार जाता है। प्रश्न गूढ़, दुरूह, बिंबात्मक, प्रतीकात्मक तथा उक्ति वैचित्र्यपूर्ण होते हैं। इनका समापन मंगलकामना के साथ होता है। 
७. शकुनाखर/फाग 
'शकुनाखर' / 'फाग' कुमाऊँ में विभिन्न संस्कारों के अवसर पर गाये जानेवाले मंगलगीत हैं। संस्कारों से जुड़े होने के कारण इन्हें संस्कार गीत भी कहा जाता है। औद्यान (गर्भाधान), पुत्र जन्म, षष्ठी, नामकरण, व्रतबंध, विवाह आदि संस्कारों के अवसरों पर फाग और शकुनाखर गाए जाते है। धार्मिक उत्सव, देवी-देवताओं की गाथाएँ ‘फाग’ फालगुन के महीने में गाए जानेवाले गीतों से भिन्न है। अन्य प्रदेशों के सोहर, बन्ना-बन्नी, सगुन आदि गीतों की ही भाँति कुमाऊँ में कुछ शगुन गीत कुमाऊँनी भाषा में भी मिलते हैं। इन गीतों में लोक-वेद की रीति का अभूतपूर्ण समन्वय होता है। इनका प्रारंभ आकाश-पाताल, पृथ्वी आदि के देवी-देवताओं की वंदना से होता है। इनमें गणेश-पूजन, मातृ-पूजन, कलश-स्थापन आदि गीतों के साथ परिवार व उसके उसके सदस्यों-संबंधियों के प्रति मंगलकामना निहित रहती है। कामनापरक 'ओछन गीत' में गर्भिणी की स्थिति का मनोवैज्ञानिक चित्रण मिलता है। ''खै लियो बोज्यू, मनै की इछिया जो, / खै लिया बोज्यू, बासमती को भात,
उड़द की दाल, घिरत भुटारो, दाख दाड़ीमा / छोलिड-बिजौरा, कैली-कचैरी, लाखी की सीकारा।''
कन्या की विदाई पर गाए जानेवाले गीत इतने व्यथापूर्ण, करूण व हृदयद्रावक होते हैं कि श्रोता के मानस की सीपी अपने दृगद्वार खोलकर मुक्त अश्रुओं से रोती बालिका का अभिषेक करती जान पड़ती है:  ''छोडू यो छोडू यो बाली त्वीले, / धुलमाटी को खेल, छोड़या बाली माणूनी का खाजा। / किलै छोड़ि, बाली त्वीले, मायूड़ी की कोखकिलै छोड़, यो, बाबा ज्यू के घौर।।''
फाग गीतों में वाक्यांश और पद़ों की पुनरावृत्ति होती है। फाग गायन पद्धति भी है और छंद रूप भी। यह कुमाऊँनी का अर्द्धसम मुक्तक वर्णिक अतुंकात छंद है।
८.होली 
मूलतः बृजशैली का गीत 'होली' समस्त भारत में समान रूप से लोकप्रिय है। पहाड़ की होली का तो ठाठ ही निराला है। संपूर्ण कुमाऊँ में पूस के प्रथम रविवार से होली का गायन आरंभ हो जाता है। शिवरात्रि के दिन रस रंग और श्रृंगारपरक होली गायी जाती है। इससे पूर्व धार्मिक होली गायी जाती है। 'छलड़ी' के दिन सब बेलगाम हो जाते हैं। चार दिनों तक होली चलती है। होलियों का मूल स्वर श्रृंगारी है। सीता-राम, राधा-कृष्ण आदि के साथ रंग में डूबते हुये होली गीत मस्ती का समा बना देते हैं। भोलेनाथ बाबा भी अपने गणों के साथ होली खेलते नृत्य भी करते हैं। देवर-भाभी के गीत स्नेहादि की दृष्टि से मधुर है। 'तू करिले अपनो ब्याह देवर हमरो भरोसो झन करिये। / मैलै बुलाये एकलो हो एकले। / तू ल्याये जन चार देवर हमरो भरोसोझन करिये।''
कहीं किसी गोरी के रस भरे, मद भरे नैनों में रम जाने की कामना करती होली की बात ही निराली है- 'अच्छा हाँ, गोरी नैना तुमारे रसा भरे। / कहो तो ये रमि जाय गोरी नैना तुम्हारे रसा भरे।''
होली वसंतोत्सव की श्रेष्ठ-सशक्त लोक परंपरा है। यह फाल्गुनी रंगों में मानव-मन की उल्लास और उन्मादमयी चिरंतन अभिव्यक्ति है। होली के बाद एक दूसरे घर जा जाकर सारे परिवारी जनों के प्रति मंगलकामनाएँ प्रकट की जाती है और अगली फाल्गुन में फिर मिलेंगे ऐसी आकांक्षा भी प्रकट की जाती है। ''आज की होली न्हेगैछ / फागुन ऊॅंलो कैगैछ / गावै खौले देवे असीस हो हो होलकारे / बरस दीवाली बरसै फाग हो हो होलकारे / जोनर जीवे खेलें फाग हो हो होलकारे / आजक बसंत कैका घरा, हो हो होलकारे / जीरौ लाख नरीस हो हो होलकारे'' 'बैठकी होली' शास्त्रीय संगीत के मूलभूत रागों को लेकर गाई जाती है।
९. बालगीत: 
कुमाऊँ में बालगीतों की संख्या बहुत कम है। जब माँ बच्चे को सुलाती है, तब कुमाऊँनी स्त्रियाँ यह गीत गाती हैं-  'हल्लोरी बाला हल्लोरी / तेरी इजा पालुरी का घास जै रैछ / चुचि भरि ल्याली, चाड़े मारि ल्याली / चुचि खाप लालै / चड़ि खेल लगालै / हल्लोरी बाला हल्लोरी' 
स्त्रियाँ बच्चों को खिलाते समय अपने पावों पर बैठाकर पीठ के बल लेटकर मुड़े हुए घुटनों को ऊपर उठाते हुए प्रश्नोत्तर शैली में ‘‘घुगति बासूति’’ नामक गीत गाया जाता हैती हैं- 'घुघुति बासूति, आॅम काॅ छड़ भाड़ में छ। / कि करनैछ खाट हाल नैछ / कि लालि खाट लालि / को खाल दिदि खालि मामा खाल..... / नै नै नै मैं खूल''
ये बालगीत समाप्ति के कगार पर हैं। शहरी अपसंस्कृति ग्राम्य संस्कृति का भक्षण कर रही है। आजकल उत्सवों में भौंडे फिल्मी गीतों पर थिरकने का चलन है। लोग अपनी संस्कृति, अपनी पहचान भुला रहे हैं। कुछ पुराने, लोग जिन्हें शहर का पानी नहीं लगा है, अपनी धरोहर से प्रेम है इन गीतों को गाते-गुनगुनाते हैं। यही हाल रहा तो धीरे-धीरे गीतों की गायन परंपरा किताबों में ही सिमटकर रह जाएगी। स्वतंत्रता के बाद शासकीय, संस्थागत स्तर पर आकाशवाणी दूरदर्शन, अन्य संचार माध्यम, विदेशों में आयोजित लोकगीतों के प्रचार-प्रसार में सांस्कृतिक आदान-प्रदान तथा अर्थोपार्जन हुआ है किंतु समस्याओं का अंत नहीं हुआ।  लोकगीत के अस्तित्व एवं भविष्य का संकट तभी समाप्त हो सकता है जब ऊपरी चमक-दमक से बचे। हमें निष्ठा से अपनी आने वाली सन्तंति को समझाना होगा कि यह लोकगीत ही हमारी भारतीय संस्कृति की धरोहर है। इन्हें सहेजकर रखना होगा नही तो यह धीरे-धीरे लुप्त हो जाएगी।
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संदर्भ ग्रंथ: १. डा.श्रीराम शर्मा, लोक साहित्य: स्वरूप और मूल्यांकन पृ.१-ं२, २. डा. सुधाकर तिवारी, हिंदी लोक साहित्य में प्रकृति  पृ. ५२, ३. उक्त २ पृ. ५३, ४. उक्त २  पृ. ६३,  ५. डॉ. त्रिलोचन पांडे, कुमाऊॅं का लोक-साहित्य पृ. ९४,  ६. पुरवासी: रामलीला स्मारिका १९९०, पर्वतीय अंक, जोड़ और जोड्यूण एक वृहद रचना प्रक्रिया, जगदीश जोशी का लेख पृ.सं. २६-ं२७, ७. डॉ. देवसिंह पोखरिया: कुमाऊॅंनी भाषा साहित्य एवं संस्कृति पृ.३१, ८. कुमाऊॅं का लोक साहित्य पृ.८७, ९. जायसी ग्रंथावली पृ. १२०, १०. कुमाऊॅंनी भाषा साहित्य एवं संस्कृति: देवसिंह पोखरिया पृ. ४६।
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