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गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

sadoka


ॐ​
सदोका पंचक
*
ई​ कविता में
करते काव्य स्नान ​
कवि​-कवयित्रियाँ .
सार्थक​ होता
जन्म निरख कर
दिव्य भाव छवियाँ।
*
ममता मिले
मन-कुसुम खिले,
सदोका-बगिया में।
क्षण में दिखी
छवि सस्मित मिले
कवि की डलिया में।
*
​न​ नौ नगद ​
न​ तेरह उधार,
लोन ले, हो फरार।
मस्तियाँ कर
किसी से मत डर
जिंदगी है बहार।
*
धूप बिखरी
कनकाभित छवि
वसुंधरा निखरी।
पंछी चहके
हुलस, न बहके
सुनयना सँवरी।
* ​
श्लोक गुंजित
मन भाव विभोर,
पूज्य माखनचोर।
उठा हर्षित
सक्रिय नीरव भी
क्यों हो रहा शोर?
***

बुधवार, 21 फ़रवरी 2018

muktak kavya

मुक्तक काव्य
*
मुक्तक काव्य परंपरा संस्कृत से अन्दर भाषाओं ने ग्रहण की है। मुक्तक का वैशिष्ट्य अपने आप में पूर्ण होना है। उसका कथ्य  पहले या बाद के छंद से मुक्त रहता है। दोहा, रोला, सोरठा आदि द्विपदिक मुक्तक छंद हैं।
सवैया चतुष्पदिक मुक्तक छंद है। कुंडली षट्पदिक मुक्तक छंद है।
चतुष्पदिक मुक्तक में १. पहली, दूसरी, चौथी २. पहली-दूसरी, तीसरी-चौथी तथा ३. पहली-चौथी, दूसरी-तीसरी पंक्ति के
पदांत साम्य तीन तरह के शिल्प में रचना की जाती है। मुक्तक को तुक्तक, चौपदा, चौका आदि भी कहा गया है।
हिंदी मुक्तक में मात्रा-क्रम पर कम, मात्रा योग पर अधिक ध्यान दिया जाता है। तुकांत नहीं, पदांत साम्य आवश्यक है।
विराट जी के उक्त मुक्तक में पहली दो पंक्तियां १८ मात्रिक, बाद की दो १९ मात्रिक हैं। यह अपवाद है। सामान्यत: सब पंक्तियों में मात्रा-साम्य होता है।
हिंदी मुक्तक में लघु को दीर्घ, दीर्घ को लघु पढ़ने की छूट नहीं है, यह काव्य दोष है।
कुमार विश्वास के उक्त मुक्तक में यह दोष है।

*

sadoka

सदोका
*
गुलाबी हाथ
मृणाल अंगुलियाँ
कमल सा चेहरा.
गुलाब थामे
चम्पा सा बदन
सुंदरी या बगिया?
*

haiku, sadoka, navgeet, doha, savaiya


विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर

- : समकालिक दोहा संकलन- "दोहा दुनिया" : -

विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में समकालिक दोहाकारों का प्रतिनिधि संकलन 'दोहा दुनिया १' शीघ्र ही प्रकाशित किया जाना है। संकलन में सम्मिलित प्रत्येक दोहाकार के १०० दोहे, चित्र, संक्षिप्त परिचय (नाम, जन्म तिथि व स्थान, माता-पिता, जीवनसाथी के नाम, शिक्षा, लेखन विधा, प्रकाशित कृतियाँ, पूरा पता, चलभाष, ईमेल आदि) १० पृष्ठों में प्रकाशित किया जाएगा। हर सहभागी के दोहों की संक्षिप्त समीक्षा तथा दोहा पर आलेख भूमिका में होगा। संपादन वरिष्ठ दोहाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा किया जा रहा है। दोहे स्वीकृत होने पर प्रत्येक सहभागी को ३०००/- सहयोग राशि अग्रिम देना होगी। संकलन प्रकाशित होने पर विमोचन कार्यक्रम में हर सहभागी को सम्मान पत्र तथा ११ प्रतियाँ निशुल्क भेंट की जाएँगी। प्राप्त दोहों में आवश्यकतानुसार संशोधन का अधिकार संपादक को होगा। दोहे unicode में भेजने हेतु ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com . चलभाष ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४
दोहा लेखन विधान: १. दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं। २. हर पद में दो चरण होते हैं। ३. विषम (पहला, तीसरा) चरण में १३-१३ तथा सम (दूसरा, चौथा) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं। ४. तेरह मात्रिक पहले तथा तीसरे चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है। ५. विषम चरणों की ग्यारहवीं मात्रा लघु हो तो लय भंग होने की संभावना कम हो जाती है। ६. सम चरणों के अंत में गुरु लघु मात्राएँ आवश्यक हैं। ७. हिंदी में खाय, मुस्काय, आत, भात, डारि जैसे देशज क्रिया रूपों का उपयोग न करें। ८. दोहा मुक्तक (अपने आप में पूर्ण) छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूरी हो जाना चाहिए। ९. श्रेष्ठ दोहे में लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, लयबद्धता, पूर्णता तथा सरसता होना चाहिए। १०. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग न करें। ११. दोहे में कोई भी शब्द अनावश्यक न हो। हर शब्द ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा न कहा जा सके। १२. दोहे में कारक का प्रयोग कम से कम हो। १३. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें। १४. दोहा सम तुकान्ती छंद है। सम चरण के अंत में समान तुक आवश्यक है। १५. दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता। *****
मात्रा गणना नियम-१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है।२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएं गिनी जाती हैंं।३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- अब = ११ = २, इस = ११ = २, उधर = १११ = ३, ऋषि = ११= २, उऋण १११ = ३ आदि।४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- आम = २१ = ३, काकी = २२ = ४, फूले २२ = ४, कैकेई = २२२ = ६, कोकिला २१२ = ५, और २१ = ३आदि। ५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = ११ = २, क्षमा = १२ =३आदि।६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, प्रिया १+२, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १२१ = ४ आदि। ७. रेफ को आधे अक्षर की तरह गिनें। बर्रैया २+२+२आदि। ८. हिंदी दोहाकार हिंदी व्याकरण नियमों का पालन करें। ९. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- कन्हैया = क+न्है+या = १२२ = ५ आदि। १०. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २१ = ३. कुंभ = कुम्भ = २१ = ३, झंडा = झन्डा = झण्डा = २२ = ४आदि। ११. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = ११ = २आदि। हँस = ११ =२, हंस = २१ = ३ आदि। मात्रा गणना करते समय शब्द का उच्चारण करने से लघु-गुरु निर्धारण में सुविधा होती है।

अब तक दोहा सहमत हुए सहभागियों के वर्ण क्रमानुसार नाम - सर्व श्री / श्रीमती

१. अनिल मिश्र
२.अरुण अर्णव खरे
३. अरुण शर्मा
४. कांति शुक्ल
५. छगनलाल गर्ग
६. छाया सक्सेना
७. जयप्रकाश श्रीवास्तव
८. बसंत शर्मा
९. मिथलेश बड़गैया
१०. लता यादव
११. विजय बागरी
१२. विश्वम्भर शुक्ल
१३. श्यामल सिन्हा
१४. शोभित वर्मा
१५. सरस्वती कुमारी
१६. सुनीता सिंह
१७. सुरेश तन्मय
*

आज की रचना-

हाइकु
हिंदी का फूल
मैंने दिया, उसने
अंग्रेजी फूल।
*
सदोका
है चौकीदार
वफादार लेकिन
चोरियाँ होती रही।
लुटती रहीं
देश की तिजोरियाँ
जनता रोती रही।
*
नवगीत:
अंतर में
पल रही व्यथाएँ
हम मुस्काएँ क्या?
*
चौकीदार न चोरी रोके
वादे जुमलों को कब टोंके?
संसद में है शोर बहुत पर
नहीं बैंक में कुत्ते भौंके।
कम पहनें
कपड़े समृद्ध जन
हम शरमाएँ क्या?
*
रंग बदलने में हैं माहिर
राजनीति में जो जगजाहिर।
मुँह में राम बगल में छूरी
कुर्सी पूज रहे हैं काफिर।
देख आदमी
गिरगिट लज्जित
हम भरमाएँ क्या?
*
लोक फिर रहा मारा-मारा,
तंत्र कर रहा वारा-न्यारा।
बेच देश को वही खा रहे
जो कहते यह हमको प्यारा।।
आस भग्न
सांसों लेने को भी
तड़पाएँ क्या?
***
दोहा
शुभ प्रभात अरबों लुटा, कहो रहो बेफिक्र।
चौकीदारी गजब की, सदियों होगा जिक्र।।
*
पिया मेघ परदेश में, बिजली प्रिय उदास।
धरती सासू कह रही, सलिल बुझाए प्यास।।
*
बहतरीन सर हो तभी, जब हो तनिक दिमाग।
भूसा भरा अगर लगा, माचिस लेकर आग।।
*
नया छंद
जाति: सवैया
विधान: ८ मगण + गुरु लघु
प्रकार: २६ वार्णिक, ५१ मात्रिक छंद
बातों ही बातों में, रातों ही रातों में, लूटेंगे-भागेंगे, व्यापारी घातें दे आज
वादों ही वादों में, राजा जी चेलों में, सत्ता को बाँटेंगे, लोगों को मातें दे आज
यादें ही यादें हैं, कुर्सी है प्यादे हैं, मौका पा लादेंगे, प्यारे जो लोगों को आज
धोखा ही धोखा है, चौका ही चौका है, छक्का भी मारेंगे, लूटेंगे-बाँटेंगे आज
***

शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018

sameeksha: dantkshetra

कृति चर्चा:
दंतक्षेत्र : गतागत को जोड़ती समकालिक कृति
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: दंतक्षेत्र, राजीव रंजन प्रसाद, आई.एस.बी.एन. ९७८-९३-८४६३३-८३-७, प्रथम संस्करण २०१८,  आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ४५६, ५००/-, यश पब्लिशर्स, एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स १/१०७५३ सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, दिल्ली ११००३२, ९५९९४८३८५, प्रकाशक: yashpublicationdelhi@gmail.com, लेखक संपर्क: rajeevnhpc@gmail.com, ०७८९५६२४०८८]
*
                  विश्ववाणी हिंदी में प्रभूत लेखन होते हुई भी, समसामयिक परिदृश्य पर गतागत को ध्यान में रखते हुए सार्थक तथा दूरगामी सोच को आमंत्रित करता लेखन कम ही होता है। विवेच्य कृति दंतक्षेत्र (दंतेवाडा : थोड़ा जाना, थोड़ा अनजाना) एक ऐसी ही कृति है जिसे पढ़कर पाठक को गौरवमय विरासत, अतीत में हुई चूकों, वर्तमान में की जा रही गलतियों और भविष्य में उनसे होनेवाले दुष्प्रभावों का आकलन करने की प्रेरणा ही नहीं आधारभूत सामग्री भी प्राप्त होती है। विवेच्य पुस्तक वर्त्तमान में नक्सलवाद के नाम से संचालित खूनी दिशाहीन आन्दोलन से सर्वाधिक क्षत-विक्षत हुए बस्तर क्षेत्र पर केन्द्रित है। भारतीय राजनीति में चिरकाल से उपेक्षित यह अंचल अब आतंक और दहशत का पर्याय बन गया है। विधि की विडम्बना यह कि देश के औद्योगिक और आर्थिक उन्नयन में सर्वाधिक अवदान देते रहने के बाद भी इस अन्चल को उसका प्रदेय कभी नहीं मिला। 'जबरा मारे रोन न दे' की लोकोक्ति का अनुसरण करते हुए केंद्र सरकारें, चाहे वे विदेशी रही हों या भारतीय, जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे इस क्षेत्र के प्रति सौतेली माँ की वक्र-दृष्टि रखती रही हैं। लेखन राजीव रंजन प्रसाद इसी माटी के बेटे हैं, इसलिए उन्हें यह विसंगति अंतर्मन में सालती रही है। प्रस्तुत किताब दीर्घकालिक मन-मंथन से नि:सृत नवनीत है। 

                  विश्व की सर्वाधिक पुरानी गोंडवाना भूमि में प्राण संचार करते बस्तर के दण्डकारण्य क्षेत्र के ऐतिहासिक गौरव, प्राकृतिक वैभव, आर्थिक समृद्धि, मानवीय निश्छलता, राजनैतिक दुराग्रह्जनित दुश्चक्रों, आम जन की पीड़ा तथा रक्तरंजित सशस्त्र आन्दोलन की निष्पक्ष, पूर्वाग्रहरहित विवेचना करते राजीव रंजन ने अभिव्यक्ति की स्पष्टता, भाषा की सरलता तथा प्रस्तुति की सरसता का ध्यान रखा है। इस कारण यह कृति उपन्यास न होते हुए भी औपन्यासिक औत्सुक्य, कहानी न होने हुए भी कहानीवत कथानक, कविता न होते हुए भी काव्यवत रसात्मकता तथा निबंध न होते हुए भी नैबंधिक वैचारिकता से सम्पन्न है। इस कृति की अंतर्वस्तु विषय-बाहुल्य तथा विभाजनहीनता से कभी-कभी किसी वैचारिक उद्यान में टहलने जैसे प्रतीति कराती है।

                  दंतेवाडा के नामकरण, भूगर्भीय संरचना, पुरातात्विक महत्त्व और अवहेलना, ऐतिहासिक संघर्ष, स्वाधीनता प्रयासों तथा स्वातंत्र्योत्तर राजनीति सब कुछ को समेटने का यह प्रयास पठनीय ही नहीं विचारणीय भी है। बस्तर की भूमि से लगाव और जुड़ाव ने लेखक को गहराए में जाने के स्थान पर विस्तार में जाने को प्रेरित किया है। इसका अन्य अकारण विवाद टालने की चाह भी हो सकती है। पर्यावरणीय वैशिष्ट्य, वानस्पतिक वर्गीकरण, जैव विविधता, अंधाधुंध खनिजीय दोहन, प्राकृतिक विनाश, आम जन की निरंतर होती उपेक्षा हर आयाम को छुआ है लेखक ने। 

                  प्रकृति-पुत्र वनवासियों का तथाकथित सभ्यजनों द्वारा शोषण, मालिक मक्बूजा काण्ड के कारण अपनी जमीन और वन से वंचित होते वनवासी जन सामान्य की पीड़ा और उनसे की गयी ठगी को राजीव रंजन ने बखूबी उजागर किया है। राजतन्त्र, विदेशी शासन और लोकतंत्र तीनों कालों में प्रशासनिक अधिकारियों की अदूरदर्शिता और मनमानी ने जन सामान्य का जीना दूभर करने में कोई कसर नहीं छोडी। जनजातीय जीवन पद्धति और जीवन मूल्यों को समझे बिना खुद को श्रेष्ठ समझा कर लिए गए आपराधिक प्रशासनिक निर्णयों की परिणति महारानी प्रफुल्ल कुमारी की हत्या से लेकर महाराज प्रवीर चंद भंजदेव की हत्या तक अबाध चलती रही है। बस्तर और छतीसगढ़ से गत ६ दशकों के निरंतर जुड़ाव के कारन मैं व्यक्तिगत रूप से उन्हीं निष्कर्षों को पा सका हूँ जो राजीव जी ने व्यक्त किये हैं। राजेव जी गैर राजनैतिक हैं इसलिए उन पर कोई वैचारिक प्रतिबद्धताजनित दबाव नहीं है। उन्होंने मुक्त मन से पौराणिक गाथाओं का भी उल्लेख यथास्थान किया है और आदिवासीय जीवन शैली के सकारात्मक-नकारात्मक प्रभावों का भी उल्लेख किया है। 

                  इस कृति में सभी आदिवासी विद्रोहों की संक्षिप्त पृष्ठभूमि, कारण, टकराव, संघर्ष, दमन और पश्चातवर्ती परिवर्तनों का संकेतन है। इस क्रम में वर्त्तमान नक्सलवादी आन्दोलन के मूल में व्याप्त राजनैतिक स्वार्थ, स्थानीय जन-हित की उपेक्षा, प्रशासनिक अदूरदर्शिता, विनाश और अलगावजनित जन-असंतोष की अनदेखी को भली-भाँति देखा और दिखाया है लेखक ने। आदिवासियों को बर्बर, असभ्य, क्रूर और नासमझ मानकर उन पर तथाकथित  जीवन शैली थोपना ही सकल विप्लवों का कारण रहा है। विडम्बना यह कि निरपराध और निर्दोष जन ही षड्यंत्रकारियों द्वारा मारे जाते रहे। वर्त्तमान शासन-प्रशासन भी पारंपरिक सोच से भिन्न नहीं है। सोच वही है, थोपने के तरीके बदल गए हैं। छतीसगढ़ बनने के पूर्व पीढ़ियों से वहाँ रहनेवाने लघु किसान और श्रमजीवी अब वहाँ नहीं हैं। उनकी छोटी-चोटी जमीनें शासन या व्यापारियों द्वारा येन-केन-प्रकारेण हडपी जा चुकी हैं। कुछ धन मिला भी तो टिका नहीं। 

                  आदिवासी जीवन शैली में अन्तर्निहित मानवीय मूल्य, ईमानदारी, निष्कपटता, निर्लोभता, नैतिकता आदि का ज़िक्र बार-बार हुआ है। नाग संस्कृति इन्हीं जीवन मूल्यों पर आधृत रही है। लिंगादेव औए आदिवासी वंश परंपरा का भी उल्लेख है। भगवान् राम का ननिहाल है यह क्षेत्र। राजीव ने इन सभी का संकेत तो किया है किंतु किसी पर व्यवस्थित-विस्तृत अध्ययन नहीं दिया।  इस पुस्तक की सामग्री को छोटे-छोटे अध्यायों में विभक्त कर विषय वार दिया जाता तो कुछ पृष्ठ संख्या बढ़ती किंतु उपयोगिता अधिक हो जाती। मेरा सुझाव है कि आगामी संस्करण में विषयवार और घटनावार अध्याय, अंत में अकारादिक्रम में शब्दानुक्रमणिका तथा सन्दर्भ ग्रन्थ सूची जोड़ दी जाए ताकि इसकी उपादेयता शोध छात्रों के लिए और अधिक हो सके। पुस्तक की विषय-वस्तु अत्यधिक व्यापक है। सामग्री की व्यवस्था बैठक खाने की तरह न होकर भंडार गृह की तरह हो गयी है। इससे विश्वसनीयता में कमी भले ही न हो, उपादेयता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। 

                  साहित्य की दृष्टि से इसे गद्य विधा में समाजशास्त्रीय विवेचनात्मक ग्रंथों में ही परिगणित किया जाएगा। लेखक ने पाठकीय दृष्टि से भाषा को सहज बोधगम्य, प्रसाद गुण संपन्न रखा है। यत्र-तत्र उद्धरण देकर अपनी बात की पुष्टि की है। मुद्रण की शीघ्रता में कुछ पाठ्य त्रुटियाँ छूट गयी हैं जो स्वादिष्ट खीर में कंकर की तरह हैं।  राजीव जी ने पुरातत्वीय सन्दर्भों में लिखा है- 'कोई भी विद्वान् एक स्पष्ट दिशा नहीं देते... अपने -अपने मायने निकाल रहे हैं।' इस कृति में भी लेखक वर्तमान से जुड़े अपना स्पष्ट मत देने बचा है। इस नीति का सुपरिणाम ह है कि पाठक खुद अपना मत निर्धारण बिना अन्य से प्रभावित हुए कर सकता है। बहुचर्चित और विश्व पुस्तक मेले में  लोकप्रिय  रही यह कृति पाठकों को बस्तर, दंतेवाडा और छतीसगढ़  गतागत के सम्बन्ध में चिंतन करने को प्रेरित करने में समर्थ है। शोध छात्रों के साथ हे राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों  को भी इसे पढ़कर यह समझना चाहिए कि स्थानीयता की उपेक्षा कर थोपी गयी जीवन पद्धति के परिणाम सकारात्मक नहीं होते। श्री ब्रम्हदेव शर्मा अथवा श्री नरोन्हा जैसे अधिकारसंपन्न अधिकारी जो एकतरफा निर्णय लेते हैं वे लोक जीवन और जीवन पद्धति को स्वीकार्य नहीं होते। 'लोकतत्र में तंत्र को लोक का सहायक होना चाहिए, स्वामी नहीं' राजीव रंजन इसे स्पष्ट शब्दों में न कहकर भी घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में विवेचन करते हुए व्यक्त कर देते हैं। हमारी सरकारों को दलीय और व्यक्तिगत हित से ऊपर उठकर आम जन के हित में सोचना होगा तभी जन कल्याणकारी राज्य की उद्भावना साकार हो सकेगी।  

                  सारत: 'दंतक्षेत्र' शीर्षक यह कृति एक क्षेत्र विशेष तक सीमित न रहकर, समूचे मानवैतिहास में  व्याप्त प्रकृति-अनुकूल और प्रकृति-प्रतिकूल जीवन शैलियों के संघर्ष में अन्तर्निहित तत्वों की विवेचन व्यक्तियों और घटनाओं के माध्यम से करती है। लेखक इस महत प्रयास हेतु साधुवाद का पात्र है। 
*******
संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१, विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ७९९९५५९६१८, 
www.divyanarmada.in 

गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

doha kal baant

दोहा लेखन- कल (मात्रा) बाँट
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार
२१, २१, २२, १११ / ११ १२१ २२१
३, ३, ४, ३ / ३, २, ३, ३
सलिल बचा पौधे लगा दे पुस्तक उपहार
१११ १२ २२ १२ / २ २११ ११ २१
३, ३, ४, ३ / २, ४, २ ३
*
बरगद पीपल कहें आ, आँख मिचौली खेल
११११ २११ १२ २ २१ १२२ २१
४ ४ ३ २ / ३ ५ ३ इमली नीम न मानतीं, हो न सका है मेल
११२ २१ १ २१२ २ १ १२ २ २१
४ ३ १ ५ / २ १ ३ ३ ३
*
हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल
२२ २२ २१२ / २२ २११ २१
४ ४ ५ ४ ४ ३
सलिल संस्कृत सान दे, पूरी बने कमाल
१११ २११ २१ २ / २२ १२ १२१
३ ४ ३ २ ४ ३ १३
संस्कृत के उच्चारण में ५ मात्रा के बराबर समय लगता है जबकि लेखन के अनुसार ४ मात्रा होती हैं. ऐसा 'स' पर बलाघात के कारण होता है. यह अपवाद है सामान्यत: लेखन की ४ मात्रा को उच्चारण में ५ नहीं गिना जा सकता।
***
बरगद पीपल कहें
आँख मिचौली खेल.
इमली नीम न मानतीं
हो न सका है मेल.
बरगद पीपल कहें आ,
आँख मिचौली खेल.
इमली नीम न मानतीं
हो न सका है मेल.

बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

नवगीत

नवगीत
*
तू कल था
मैं आज हूं
*
उगते की जय बोलना
दुनिया का दस्तूर।
ढलते को सब भूलते,
यह है सत्य हुजूर।।
तू सिर तो
मैं ताज हूं
*
मुझको भी बिसराएंगे,
कहकर लोग अतीत।
हुआ न कोई भी यहां,
जो हो नहीं व्यतीत।।
तू है सुर
मैं साज हूं।।
*
नहीं धूप में किए हैं,
मैंने बाल सफेद।
कल बीता हो तजूंगा,
जगत न किंचित खेेद।।
क्या जाने
किस व्याज हूं?
***
७.२.२०१८

नवगीत

तलो पकौड़ा
बेचो चाय
*
हमने सबको साथ ले,
सबका किया विकास।
'बना देश में' का दिया,
नारा खासुलखास।
नव धंधा-आजीविका
रोजी का पर्याय
तलो पकौड़ा
बेचो चाय
*
सब मिल उत्पादन करो,
साधो लक्ष्य अचूक।
'भारत में ही बना है'
पीट ढिंढोरा मूक।।
हम कुर्सी तुम सड़क पर
बैठो यही उपाय
तलो पकौड़ा
बेचो चाय
*
लाइसेंस-जीएसटी,
बिना नोट व्यापार।
इनकम कम, कर दो अधिक,
बच्चे भूखे मार।।
तीन-पांच दो गुणित दो
देशभक्ति अध्याय
तलो पकौड़ा
बेचो चाय
***
७-२-२०१८

शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

doha hai ras-khan

दोहा है रस-खान 
दोहा छंद की भावाभिव्यक्ति क्षमता अनुपम है। हर रस को दोहा छंद भली-भाँति अभिव्यक्त करता है। हर दिन एक नए रस को केंद्र में दोहा रखकर दोहा रचने का आनंद अनूठा होगा। मैं आज रात्रि से १५ फरवरी तक रायपुर छतीसगढ़, दिल्ली तथा गुडगाँव यात्र्रा पर रहूँगा। यथावसर आप सबसे कुछ सीखता रहूँगा किंतु सुविधा न होने पर आप अपने दोहे प्रस्तुत करते रहें ताकि लौटकर उनका रसास्वादन कर सकूँ।  
श्रृंगार रस
            रसराज श्रृंगार रसराज अत्यंत व्यापक है। श्रृंगार शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है श्रृंग + आर।  'श्रृंग' का अर्थ है "कामोद्रेक", 'आर' का अर्थ है वृद्धि प्राप्ति। श्रृंगार का अर्थ है कामोद्रेक की प्राप्ति या विधि श्रृंगार रस का स्थाई भाव प्रेम है। पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका द्वारा प्रेम की अभिव्यंजना श्रृंगार रस की विषय-वस्तु है प्राचीन आचार्यों ने स्त्री पुरुष के शुद्ध प्रेम को ही रति कहा है। परकीया प्रिया-चित्रण को रस नहीं रसाभास कहा गया है किंतु 'लिव इन' के इस काल में यह मान्यता अनुपयुक्त प्रतीत होती है। श्रृंगार रस में अश्लीलता का समावेश न होने दें। श्रृंगार रस के २ भेद संयोग और वियोग हैं। प्रेम जीवन के संघर्षों में खेलता है, कष्टों में पलता है, प्रिय के प्रति कल्याण-भाव रखकर खुद कष्ट सहता है। ऐसा प्रेम ही उदात्त श्रृंगार रस का विषय बनता है।
३-३-२०१८ संयोग श्रृंगार: 


नायक-नायिका के मिलन, मिलन की कल्पना आदि का शब्द-चित्रण संयोग श्रृंगार का मुख्य विषय है। 
उदाहरण: 


तुमने छेड़े प्रेम के, ऐसे राग हुजूर
बजते रहते हैं सदा, तन-मन में संतूर। - अशोक अंजुम, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार


नयन नयन से मिल झुके, उठे मिले बेचैन।
नयन नयन में बस गए, किंचित मिले न चैन। - संजीव 


४-३-२०१८ वियोग श्रृंगार: 

नायक-नायिका में परस्पर प्रेम होने पर भी मिलन संभव नहीं हो तो वियोग श्रृंगार होता है। यह अलगाव स्थाई भी हो सकता है, अस्थायी भी। कभी मिले बिना भी विरह हो सकता है, मिल चुकने के बाद भी हो सकता है। विरह व्यथा दोनों और भी हो सकती है, एक तरफा भी।  प्राचीन काव्य शास्त्र ने वियोग के चार भाग किए हैं :-
१. पूर्व राग                     पहले का आकर्षण
२. मान                          रूठना
३. प्रवास                       छोड़कर जाना
४. करुण विप्रलंभ            मरने से पूर्व की करुणा।
उदाहरण:
हाथ छुटा तो अश्रु से, भीग गये थे गाल ‌
गाड़ी चल दी देर तक, हिला एक रूमाल - चंद्रसेन "विराट", चुटकी चुटकी चाँदनी

मन करता चुप याद नित, नयन बहाते नीर। 
पल-पल विकल गुहरातीं, सिय 'आओ रघुवीर'। - संजीव


५-३-२०१८ हास्यः

हास्य रस का स्थाई भाव 'हास्य 'है। साहित्य में हास्य रस का निरूपण कठिन होता है,थोड़ी सी असावधानी से हास्य फूहड़ मजाक बनकर रह जाता है । हास्य रस के लिए उक्ति व्यंग्यात्मक होना चाहिए।  हास्य और व्यंग्य में अंतर है।  दोनों का आलंबन विकृत या अनुचित होता है। हास्य खिलखिलाता है, व्यंग्य चुभकर सोचने पर विवश करता है।

उदाहरण:
अँग्रेजी से प्यार है, हिंदी से परहेज
ऊपर से हैं इंडियन, भीतर से अँगरेज - काका हाथरसी

'ममी-डैड' माँ-बाप को, कहें उठाकर शीश
बने लँगूरा कूदते, हँसते देख कपीश - संजीव 

व्यंग्यः
उदाहरण:
अंकित है हर पृष्ठ पर, बाँच सके तो बाँच ‌
सोलह दूनी आठ है, अब इस युग का साँच। - जय चक्रवर्ती, संदर्भों की आग

'फ्रीडमता' 'लेडियों' को, मिले दे रहे तर्क
'कार्य' करें तो शर्म है, गर्व करें यदि 'वर्क'। - संजीव 

७-३-२०१८ करुणः

भवभूति: 'एकोरसः करुण' अर्थात करूण रस एक मात्र रस है। करुण रस के दो भेद स्वनिष्ठ व परनिष्ठ हैं। 
उदाहरण:

हाय, भूख की बेबसी, हाय, अभागे पेट ‌
बचपन चाकर बन गया, धोता है कप-प्लेट। - डॉ. अनंतराम मिश्र "अनंत", उग आयी फिर दूब

चीर द्रौपदी का खिंचा, विदुर रो रहे मौन
भीग रहा है अंगरखा, धीर धराए कौन?।  - संजीव  

८-३-२०१८ रौद्रः
इसका स्थाई भाव क्रोध है विभाव अनुभाव और संचारी भावों के सहयोग से वासना रूप में समाजिक के हृदय में स्थित क्रोध स्थाई भाव आस्वादित होता हुआ रोद्र रस में परिणत हो जाता है ।
उदाहरण:
आगि आँच सहना सुगम, सुगम खडग की धार।  
नेह निबाहन एक रस, महा कठिन ब्यवहार।।   -कबीर 

शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश ‌
जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश।  - संजीव 

९-३-२०१८ वीरः

स्थाई भाव उत्साह काव्य-वर्णित विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से रस अवस्था में आस्वाद योग्य बनकर वीर रस कहलाता है । इसकी मुख्य चार प्रवृत्तियाँ हैं। 
उदाहरण:
१.दयावीर: जहाँ दुखी-पीड़ित जन की सहायता का भाव हो।  
देख सुदामा दीन को, दुखी द्वारकानाथ। 
गंगा-यमुना बह रहीं, सिसकें पकड़े हाथ।। -संजीव   

२. दानवीर : इसके आलंबन में दान प्राप्त करने की योग्यता होना अनिवार्य है।
उदाहरण:
क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।  
का रहीम हरि को घटो, जो भृगु मारी लात।।

राणा थे निरुपाय झट, उठकर भामाशाह।
चरणों में धन रख कहें, नाथ! न भरिए आह।। - संजीव    

३. धर्मवीर : इसके स्थाई भाव में धर्म का ज्ञान प्राप्त करना या धर्म-पालन करना प्रमुख है।
उदाहरण:
माया दुःख का मूल है, समझे राजकुमार। 
वरण किया संन्यास तज, प्रिया पुत्र घर-द्वार।। - संजीव 

4 युद्धवीर : काव्य व लोक में  युद्धवीर की प्रतिष्ठा होती है।  इसका स्थाई भाव 'शत्रुनाशक उत्साह' है।  
उदाहरण:

रणभेरी जब जब बजे, जगे युद्ध संगीत ‌
कण कण माटी का लिखे, बलिदानों के गीत - डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा "यायावर", आँसू का अनुवाद

धवल बर्फ हो गया था, वीर-रक्त से लाल। 
झुका न भारत जननि का, लेकिन पल भर भाल।। -संजीव    

१०-३-२०१८ भयानकः


विभाव, अनुभाव, संचारी भावों के प्रयोग से जब भय उत्पन्न या प्रकट होकर रस में परिणत हो तब भयानक रस होता है। भय केवल मनुष्य में नहीं, समस्त प्राणी जगत में व्याप्त है।
उदाहरण:
उफनाती नदियाँ चलीं, क्रुद्ध खोलकर केश। ‌
वर्षा में धारण किया, रणचंडी का वेश।। - आचार्य भगवत दुबे, शब्दों के संवाद

धांय-धांय गोले चले, टैंक हो गए ध्वस्त। 
पाकिस्तानी सूर्य झट, सहम हो गया अस्त।। -संजीव  

११-३-२०१८ वीभत्सः

घृणित वस्तुओं को देख, सुन जुगुप्सा नामक स्थाई भाव विभाव, अनुभाव, संचारी भावों के सहयोग से परिपक्व हो वीभत्स रस में परिणत हो जाता है। इसकी विशेषता तीव्रता से प्रभावित करना है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार वीभत्स रस का स्थाई भाव जुगुप्सा है। इसके आलंबन दुर्गंध, मांस-रक्त है, इनमें कीड़े पड़ना उद्दीपन, मोह आवेग व्याधि ,मरण आदि व्यभिचारी भाव है, अनुभाव की कोई सीमा नहीं है। वाचित अनुभाव के रूप में छिँछी की ध्वनि, अपशब्द, निंदा करना आदि, कायिक अनुभावों में नाक-भौं चढ़ाना , थूकना, आँखें बंद करना, कान पर हाथ रखना, ठोकर मारना आदि हैं। 

उदाहरण:
हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध।  ‌
हा, जनता का खून पी, नेता अफसर सिद्ध।। - संजीव 

१२-३-२०१८ अद्भुतः

अद्भुत रस के स्थाई भाव विस्मय में मानव की आदिम वृत्ति खेल-तमाशे या कला-कौशल से उत्पन्न विस्मय  उदात्त भाव है। ऐसी शक्तियां और व्यंजना जिसमें चमत्कार प्रधान हो वह अद्भुत रस से संबंधित है। अदभुत रस विस्मयकारी घटनाओं, वस्तुओं, व्यक्तियों तथा उनके चमत्कार कोके क्रिया-कलापों के आलंबन से प्रकट होता है।  उनके अद्भुत व्यापार, घटनाएँ, परिस्थितियाँ आदि उद्दीपन बनती हैं। आँखें खुली रह जाना, एकटक देखना प्रसन्नता, रोमांच, कंपन, स्वेद आदि अनुभाव सहज ही प्रकट होते हैं। उत्सुकता, जिज्ञासा, आवेग, भ्रम, हर्ष, मति, गर्व, जड़ता, धैर्य, आशंका, चिंता आदि संचारी भाव धारणकर अद्भुत रस में परिणत हो जाता है।
उदाहरण:

पांडुपुत्र ने उसी क्षण, उस तन में शत बार 
पृथक-पृथक संपूर्ण जग, देखे विविध प्रकार। -डॉ. उदयभानु तिवारी "मधुकर", श्री गीता मानस

पल में प्रगटे सामने, पल में होता लुप्त। 
अट्टहास करता असुर, लखन पड़े चित सुप्त।। - संजीव 

१३-३-२०१८ शांतः


शांत रस की उत्पत्ति तत्वभाव व वैराग्य से होती है। विभाव, अनुभाव व संचारी भावों से संयोग से हृदय में विद्यमान निर्वेद स्थाई भाव स्पष्ट होकर शांत रस में परिणित हो जाता है।  आनंदवर्धन ने तृष्णा और सुख को शांत रस का स्थाई भाव कहा है। वैराग्यजनित आध्यात्मिक भाव शांत रस का विषय है  संसार की अवस्था मृत्यु-जरा आदि इसके आलंबन हैं। जीवन की अनित्यता का अनुभाव, सत्संग-धार्मिक ग्रंथ पठन-श्रवण आदि उद्दीपन विभाव, और संयम स्वार्थ त्याग सत्संग गृहत्याग स्वाध्याय आत्म चिंतन आदि अनुभाव हैं। शांत रस के संचारी में ग्लानि, घृणा ,हर्ष , स्मृति ,संयोग ,विश्वास, आशा दैन्य आदि की परिगणना की जा सकती है।
उदाहरण:
जिसको यह जग घर लगे, वह ठहरा नादान ‌
समझे इसे सराय जो, वह है चतुर सुजान - स्व. डॉ. श्यामानंद सरस्वती "रौशन", होते ही अंतर्मुखी

कल तक था अनुराग पर, उपजा आज विराग। 
चीवर पहने चल दिया, भिक्षुक माया त्याग।। - संजीव 

१४-३-२०१८ वात्सल्यः

वात्सल्य रस के प्रतिष्ठा विश्वनाथ ने की। सूर, तुलसी आदि के काव्य में वात्सल्य भाव के सुंदर विवेचन पश्चात इसे रस स्वीकार कर लिया गया। वात्सल्य रस का स्थाई भाव वत्सलता है। बच्चों की तोतली बोली, उनकी किलकारियाँ, लीलाएँ उद्दीपन है। माता-पिता का बच्चों पर बलिहारी जाना, आनंदित होना, हँसना, उन्हें आशीष देना आदि इसके अनुभाव कहे जा सकते हैं। आवेग, तीव्रता, जड़ता, रोमांच, स्वेद आदि संचारी भाव हैं।वात्सल्य रस के दो भेद हैं।
१ संयोग वात्सल्य 
उदाहरण:
छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल
 ‌
पिला रही पय मनाती, चिरजीवी हो लाल
। - संजीव 
२ वियोग वात्सल्य

उदाहरण:
चपल छिपा कह खोज ले, मैया करें प्रतीति। 
लाल कंस को मारकर, बना रहा नव रीति।। - संजीव 

१५-३-२०१८ भक्तिः

संस्कृत साहित्य में व्यक्ति की सत्ता स्वतंत्र रूप से नहीं है। मध्यकालीन भक्त कवियों की भक्ति भावना देखते हुए इसे स्वतंत्र रस के रूप में व्यंजित किया गया इस रस का संबंध मानव उच्च नैतिक आध्यात्मिकता से हैइसका स्थाई भाव ईश्वर के प्रति रति या प्रेम है भगवान के प्रति समर्पण, कथा श्रवण, दया आदि उद्दीपन विभाव है अनुभाव के रूप में सेवा अर्चना कीर्तन वंदना गुणगान प्रशंसा आदि हैं अनेक कायिक, वाचिक, स्वेद आदि अनुभाव हैं। संचारी रूप में हर्ष, आशा, गर्व, स्तुति, धैर्य, संतोष आदि अनेक भाव संचरण करते हैंइसमें आलंबन ईश्वर और आश्रय उस ईश्वर के प्रेम के अनुरूप मन है | 

उदाहरण:
दूब दबाये शुण्ड में, लंबोदर गजमुण्ड। ‌
बुद्धि विनायक हे प्रभो!, हरो विघ्न के झुण्ड।। - भानुदत्त त्रिपाठी "मधुरेश", गोहा कुंज

चित्र गुप्त है नाथ का, सभी नाथ के चित्र। 
हैं अनाथ के नाथ भी, दीं जनों के मित्र।।
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