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बुधवार, 11 अक्टूबर 2017

laghukatha


लघुकथा
सफलता
*
गुरु छात्रों को नीति शिक्षा दे रहे थे- ' एकता में ताकत होती है. सबको एक साथ हिल-मिलकर रहना चाहिए- तभी सफलता मिलती है.'
' नहीं गुरु जी! यह तो बीती बात है, अब ऐसा नहीं होता. इतिहास बताता है कि सत्ता के लिए आपस में लड़ने वाले जितने अधिक नेता जिस दल में होते हैं' उसके सत्ता पाने के अवसर उतने ज्यादा होते हैं. समाजवादियों के लिए सत्ता अपने सुख या स्वार्थ सिद्धि का साधन नहीं जनसेवा का माध्यम थी. वे एक साथ मिलकर चले, धीरे-धीरे नष्ट हो गए. क्रांतिकारी भी एक साथ सुख-दुःख सहने कि कसमें खाते थे. अंतत वे भी समाप्त हो गए. जिन मौकापरस्तों ने एकता की फ़िक्र छोड़कर अपने हित को सर्वोपरि रखा, वे आज़ादी के बाद से आज तक येन-केन-प्रकारेण कुर्सी पर काबिज हैं.' -होनहार छात्र बोला.
गुरु जी चुप!
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navgeet

नवगीत
*
बचपन का
अधिकार
उसे दो
याद करो
बीते दिन अपने
देखे सुंदर
मीठे सपने
तनिक न भाये
बेढब नपने
अब अपना
स्वीकार
उसे दो
.
पानी-लहरें
हवा-उड़ानें
इमली-अमिया
तितली-भँवरे
कुछ नटखटपन
कुछ शरारतें
देखो हँस
मनुहार
उसे दो
.
इसकी मुट्ठी में
तक़दीरें
यह पल भर में
हरता पीरें
गढ़ता पल-पल
नई नज़ीरें
आओ!
नवल निखार
इसे दो
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मंगलवार, 10 अक्टूबर 2017

devata

एक चर्चा 
तैंतीस कोटि देवता : मत मतान्तर 
*
सनातन धर्म के अनुसार ३३ कोटि देव हैं। यहाँ 'कोटि' का अर्थ 'करोड़' है या 'प्रकार' इस पर मतभेद है। कोटि का अर्थ 'प्रकार' होता है और 'करोड़' भी होता है। ३३ प्रकार के देवी-देवताओं निम्न हैं-
 
देव- १. आदित्य- १२(१. अंशुमान, २. आर्यमा, ३. इन्द्र, ४. त्वष्टा, ५. धाता, ६. पर्जन्य, ७. पूषा, ८. भग, ९. मित्र, १०. वरुण, ११. विवस्वान और १२. विष्णु।), २. वसु ८ (१. अप, २. ध्रुव, ३. सोम, ४. धर, ५. अनिल, ६. अनल, ७. प्रत्यूष और ८. प्रभाष।),  ३. रुद्र ११ (१. शम्भू, २. पिनाकी, ३. गिरीश, ४. स्थाणु,५. भर्ग, ६. भव, ७. सदाशिव, ८. शिव, ९. हर, १०. शर्व और ११. कपाली।) और ४. इन्द्र १, ४. प्रजापति १ या अश्विनी कुमार : १. नासत्य और २. दस्त्र। कुल ३३ देवता। ३३ देवी-देवताओं के अलावा अन्य कई देवी-देवता हैं किन्तु सब मिलकर कुल संख्या ३३ करोड़ नहीं होती।
 
उपरोक्त तर्क का खंडन :
यहाँ कोटि का अर्थ करोड़ न होकर प्रकार है। कोटि का अर्थ प्रकार लें तो आदित्य एक प्रकार (श्रेणी, संवर्ग) है, आदित्य की कोटि में १२ देवता हैं। इन १२ को मिलकर एक कोटि है। ८ वसु, ११ रूद्र, तथा इंद्र व् प्रजापति को मिलकर ५ कोटि हुईं। अंतिम दो के स्थान पर अश्विनी कुमार लें तो देवों की ४ ही कोटि हुईं। 
 
देव योनि में मात्र यही ३३ देव नहीं, इनके अलावा मणिभद्र आदि अनेक यक्ष, चित्ररथ, तुम्बुरु, आदि गंधर्व, उर्वशी, रम्भा आदि अप्सराएँ, अर्यमा आदि पितृगण, वशिष्ठ आदि सप्तर्षि, दक्ष, कश्यप आदि प्रजापति, वासुकि आदि नाग, इस प्रकार और भी कई जातियाँ देवों में  हैं जिनमें से २-३ हजार के नाम सरलता से मिल सकते हैं।
 
शुक्ल यजुर्वेद के अनुसार: 'अग्निर्देवता, वातो देवता, सूर्यो देवता, चन्द्रमा देवता, वसवो देवता, रुद्रा देवता, आदित्या देवता, मरुतो देवता, विश्वेदेवा देवता, बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता, वरुणो देवता' अर्थात १२ कोटि के देवता हैं।
 
अथर्ववेद में आया है : अहमादित्यरुत विश्वेदेवै। इसमें अग्नि और वायु का नाम भी देवता के रूप में आया है। आरंभिक ३३ देव नामावली में न होने से क्या इन्हें दें देव नहीं गिना जाएगा? 
 
भगवती दुर्गा की ५ प्रधान श्रेणियों में ६४ योगिनियाँ हैं। हर श्रेणी में ६४ योगिनी। इनके साथ ५२ भैरव भी हैं। सैकड़ों योगिनी, अप्सरा, यक्षिणी आदि हैं। ४९ प्रकार के मरुद्गण और ५६ प्रकार के विश्वेदेव होते हैं। इन्हें देव क्यों न मानेंगे? 
 
33 कोटि बताने वालों का दूसरा खंडन : 
शिव-सती: सती ही पार्वती है और वही दुर्गा है। उसी के ९ रूप हैं। वही १० महाविद्या है। शिव ही रुद्र हैं, हनुमानजी जैसे उनके कई अंशावतार भी हैं।
 
विष्णु-लक्ष्मी : विष्णु के २४ अवतार हैं, वही राम, कृष्ण, बुद्ध और नर-नारायण भी हैं। विष्णु जिस शेषनाग पर सोते हैं वही नागदेवता भिन्न-भिन्न रूपों में अवतार लेते हैं। लक्ष्मण और बलराम उन्हीं के अवतार हैं।
 
ब्रह्मा-सरस्वती : ब्रह्मा को प्रजापति कहा जाता है। उनके मानस पुत्रों के पुत्रों में कश्यप ऋषि की कई पत्नियाँ हुईं। जिनसे धरती पर पशु-पक्षी, नर-वानर आदि प्रजातियों का जन्म हुआ। वे हमारे जन्मदाता हैं इसलिए ब्रह्मा को प्रजापिता भी कहा जाता है। गणेश, कार्तिकेय, वीरभद्र, अग्नि, वायु, कुबेर, यमराज जैसे प्रमुख देव, सभी ग्रामदेव, कुलदेव, अजर आदि क्षेत्रपाल को देव कोटि में क्यों न गिनेगे?
 
इनके तर्क का पुन: खंडन 
यदि कश्यप आदि को देव न मानें कि ब्रह्मा के द्वारा इनका प्राकट्य हुआ है, सो ये सब ब्रह्मरूप हुए सो इनकी गिनती नहीं होगी तो कश्यप के द्वारा प्रकट किए गए १२ आदित्य, ८ वसु तथा ११ रुद्रों को कश्यप रूप मानकर छोड़ना होगा। 
 
सब रूद्र (हनुमान जी भी) शिव के अवतार हैं, तो भी पार्वती जी को उनकी पत्नी नहीं कहा जा सकता। रुद्रावतारओं में रूद्र की ऊर्जा होने पर भी स्वरूप और उद्देश्य भिन्न है। इसी तरह समग्र संसार नारायण रूप होने पर भी स्वरूपत: और उद्देश्यत: भिन्न हैं। सीता को कृष्ण-पत्नी और रुक्मिणी को राम-पत्नी नहीं कह सकते, क्योंकि अभेद में भी भेद है। सभी को एक मानें तो क्या विधि, हरि, हर ही नहीं सकल सृष्टि एक है फिर कोटि का प्रश्न ही नहीं होगा। 
 
वेदों में कही १३, कहीं ३६, कहीं ३,३३९ और कहीं ६,००० देवों की  चर्चा है। अकेले वालखिल्यों की संख्या६०,०००  है। ३३ प्रकारों में इनमें से कुछ को लिया है, कुछ को नहीं। मनुष्य की चर्चा में केवल उनका ही नाम लेते हैं जिनका उस चर्चा से संबंध हो, सभी का नहीं। वैसे ही प्रसंगानुसार कुछ देवों का नाम लेने का अर्थ यह नहीं है कि जिनकी चर्चा नहीं की गई, या अन्यत्र की गई, उनका अस्तित्व ही नहीं है। इस ३३ की श्रेणी में गरूड़, नंदी आदि के नाम नहीं हैं,जबकि वेदों में हैं। विनायक और वक्रतुण्ड की श्रेणी में गणेशजी के सैकड़ों अवतार के नाम तंत्र में हैं।
 
देवता केवल स्वर्ग में नहीं रहते। उनके सैकड़ों अन्य दिव्यलोक और भी हैं। वे सभी एकरूप होने से सीधे ब्रह्म के ही अंश हैं तो इन सबको मिलाकर ३३ करोड़ होंगे जिन्हें व्यवहारत: गिना नहीं जा सकता। 
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haiku, kashanika, janak chhand, soratha, sher, doha, muktak

हाइकु:
ईंट रेत का 
मंदिर मनहर 
देव लापता
क्षणिका :
*
पुज परनारी संग
श्री गणेश गोबर हुए.
रूप - रूपए का खेल,
पुजें परपुरुष साथ
पर
लांछित हुईं न लक्ष्मी
***
जनक छंद :
नोबल आया हाथ जब 
उठा गर्व से माथ तब 
आँख खोलना शेष अब
सोरठा :
घटे रमा की चाह, चाह शारदा की बढ़े 
गगन न देता छाँह, भले शीश पर जा चढ़े
***
शे'र : 
लिए हाथों में अपना सर चले पर 
नहीं मंज़िल को सर कर सके अब तक
दोहा :
तुलसी जब तुल सी गयी, नागफनी के साथ
वह अंदर यह हो गयी, बाहर विवश उदास.
मुकतक :
मेरा गीत शहीद हो गया, दिल-दरवाज़ा नहीं खुला
दुनियादारी हुई तराज़ू, प्यार न इसमें कभी तुला
राह देख पथराती अखियाँ, आस निराश-उदास हुई
किस्मत गुपचुप रही देखती, कभी न पाई विहँस बुला
***

muktak

मुक्तक सलिला 
*
प्रीत की रीत सरस गीत हुई
मीत सँग श्वास भी संगीत हुई
आस ने प्यास को बुझने न दिया
बिन कहे खूब बातचीत हुई
*
क्या कहूँ, किस तरह कहूँ बोलो?
नित नई कल्पना का रस घोलो
रोक देना न कलम प्रभु! मेरी
छंद ही श्वास-श्वास में घोलो
*
छंद समझे बिना कहे जाते
ज्यों लहर-साथ हम बहे जाते
बुद्धि का जब अधिक प्रयोग किया
यूं लगा घाट पर रहे जाते
*
गेयता हो, न हो भाव रहे
रस रहे, बिम्ब रहे, चाव रहे
बात ही बात में कुछ बात बने
बीच पानी में 'सलिल' नाव रहे
*
छंद आते नहीं मगर लिखता
देखने योग्य नहीं, पर दिखता
कैसा बेढब है बजारी मौसम
कम अमृत पर अधिक गरल बिकता
*
छंद में ही सवाल करते हो
छंद का क्यों बवाल करते हो?
है जगत दन्द-फन्द में उलझा
छंद देकर निहाल करते हो
*
छंद-छंद में बसे हैं, नटखट आनंदकंद
भाव बिम्ब रस के कसे कितने-कैसे फन्द
सुलझा-समझाते नहीं, कहते हैं खुद बूझ
तब ही सीखेगा 'सलिल' विकसित होगी सूझ
*
खून न अपना अब किंचित बहने देंगे
आतंकों का अरि-खूं से बदला लेंगे
सहनशीलता की सीमा अब ख़त्म हुई
हर ईंटे के बदले में पत्थर देंगे
*
खून न अपना अब किंचित बहने देंगे
आतंकों का अरि-खूं से बदला लेंगे
सहनशीलता की सीमा अब ख़त्म हुई
हर ईंटे के बदले में पत्थर देंगे
* ·
कहाँ और कैसे हो कुछ बतलाओ तो
किसी सवेरे आ कुण्डी खटकाओ तो
बहुत दिनों से नहीं ठहाके लगा सका
बहुत जल चुका थोड़ा खून बढ़ाओ तो
*
जीवन की आपाधापी ही है सरगम-संगीत
रास-लास परिहास इसी में मन से मन की प्रीत
जब जी चाहे चाहों-बाँहों का आश्रय गह लो 
आँख मिचौली खेल समय सँग, हँसकर पा लो जीत
*
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chitragupta vandana

वन्दन 
चित्रगुप्त वंदना
शरणागत हम
*
शरणागत हम
चित्रगुप्त प्रभु!
हाथ पसारे आये।
*
अनहद, अक्षय,अजर,अमर हे!
अमित, अभय,अविजित अविनाशी
निराकार-साकार तुम्हीं हो
निर्गुण-सगुण देव आकाशी।
पथ-पग, लक्ष्य, विजय-यश तुम हो
तुम मत-मतदाता प्रत्याशी।
तिमिर हटाने
अरुणागत हम
द्वार तिहांरे आये।
*
वर्ण, जात, भू, भाषा, सागर
अनिल, अनल,दिश, नभ, नद,गागर
तांडवरत नटराज ब्रम्ह तुम,
तुम ही बृज-रज के नटनागर।
पैग़ंबर, ईसा,गुरु बनकर
तारों अंश सृष्टि हे भास्वर!
आत्म जगा दो
चरणागत हम
झलक निहारें आये।
*
आदि-अंत, क्षय-क्षर विहीन हे!
असि-मसि,कलम-तूलिका हो तुम
गैर न कोई सब अपने हैं-
काया में हैं आत्म सभी हम।
जन्म-मरण,यश-अपयश चक्रित
छाया-माया,सुख-दुःख हो सम।
द्वेष भुला दो
करुणाकर हे!
सुनों पुकारें, आये।
*****
गुजरती अनुवाद
વન્દના
શરણાગત અમે
શરણાગત અમે
ચિત્રગુપ્ત પ્રભુ
હાથ પસારી આવ્યા .
અમાપ ,અખુંટા ,અજર ,અમર છે
અમિત ,અભય, અવિજયી, અવિનાશી,
નિરાકાર, સાકાર તમે છો
નિર્ગુણ ,સગુણ દેવ આકાશી
પથ -પગ લક્ષ્ય વિજય,યશ તમે છો
તમેજ મત -મતદાતા ,પ્રત્યાશી
અંધકાર મટાવા
સૂર્ય સમક્ષ અમે
દ્વાર તમારે આવ્યા .
વર્ણ ,જાત , ભૂ, ભાષા ,સાગર
અનિલ, અગ્નિ ,ખૂણો ,નભ, નદી ,ગાગર
તાંડવકરનાર નટરાજ બ્રહ્મ તમે
તમેજ બૃજ -રજ ના નટનાગર
પૈગમ્બર,ઈસા, ગુરુ બનીને
તારાજ અંશ શ્રુષ્ટિ છે ભાસ્વર
આત્મા જગાડવાને
ચરણાગત અમે
ઝલક નિહારવાને આવ્યા.
આદિ -અંત ,ક્ષય -ક્ષર વિહીન છે
કટાર-અંજન , કલમ તૂલિકા તમે છો
પારકા નથી કોઈ બધાંજ તમે છો
કાયા માં છે પોતાના બધા અમે
જન્મ -મરણ , યશ-અપયશ ચક્રીત
છાયા-માયા ,સુખ -દુઃખ સર્વ સરખા
દ્વેષ ભુલાવો
કરુણાકર છો
સાંભળો પોકારવાને આવ્યા .
મૂળ રચના :આચાર્ય સંજીવ વર્મા "સલિલ"
ભાવાનુવાદ :કલ્પના ભટ્ટ
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सोमवार, 9 अक्टूबर 2017

navgeet

नव गीत:
कैसी नादानी??...
संजीव 'सलिल'
*
मानव तो रोके न अपनी मनमानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
जंगल सब काट दिये
दरके पहाड़.
नदियाँ भी दूषित कीं-
किया नहीं लाड़..
गलती को ले सुधार, कर मत शैतानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पाट दिये ताल सभी
बना दीं इमारत.
धूल-धुंआ-शोर करे
प्रकृति को हताहत..
घायल ऋतु-चक्र हुआ, जो है लासानी...
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पावस ही लाता है
हर्ष सुख हुलास.
तूने खुद नष्ट किया
अपना मधु-मास..
मेघ बजें, कहें सुधर, बचा 'सलिल' पानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
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