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शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

goshthi

मुख पुस्तक गोष्ठी 
कवि गोष्ठियों और मुशायरों में कविता के माध्यम से तथा खेतों में लोकगीतों के माध्यम से काव्यात्मक प्रश्न उत्तर अब कम ही सुनने मिलते हैं. आज फेस बुक पर ऐसा एक प्रसंग अनायास ही बन गया. आभार लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला तथा पंडिताईन आशा हिंदुस्तानी का. इस रोचक प्रसंग का आनंद आप भी लें. यह प्रसंग मेरे पूर्व प्रस्तुत दोहों पर प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी के रूप में सामने आया.   
लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला वाह ! बहुत सुंदर आदरणीय -
पगले पग ले बढ़ जरा, ले मन्जिल को जीत,

कहे न पगला फिर तुम्हें, यही जगत की रीत ।
Sanjiv Verma 'salil' 'पा लागू' कर ले 'सलिल', मिलता तभी प्रसाद 
पंडितैन जिस पर सदय, वही रहे आबाद
पंडिताईन आशा हिंदुस्तानी गंगा उल्टी कब बही, कब दिन में हो रात।
बड़े जहाँ 
आशीष दें, बने वहीं पर बात।।
लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला वाह ! 
'पा लागू' कहती बहूँ, करे सलिल का मान,
शुभाशीष उसको मिले, जीना हो आसान ।
Sanjiv Verma 'salil' इन्द्रप्रस्थ पर कर रहे, देखें राज्य नरेंद्र 
यह उलटी गंगा बही, बेघर हुए सुरेन्द्र
Sanjiv Verma 'salil' आशा के पग छुए तो, बनते बिगड़े काम 
नमन लक्ष्मण को करो, तुरत सदय हों राम
पंडिताईन आशा हिंदुस्तानी- लाख नेह बहु से मिले, नहीं सुता सा मान
बात बने संजीव सर, बेटी लो अब जान
Sanjiv Verma 'salil' माँ भगिनी भाभी सखी, सुता सभी तव रूप 
जिसके सर पर हाथ हो, वह हो जाता भूप
पंडिताईन आशा हिंदुस्तानी दोहों में बतियाय है, दोहों में ही खाय।
दोहा दोहा डग भरे, दोहों में मुस्काय
लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला नमन हमेशा राम को, लक्ष्मण तो लघु भ्रात
लक्ष्मण तो सेवक सदा, कहे सभी सम्भ्रान्त ।
Sanjiv Verma 'salil' बड़ा राम से भी अधिक, रहा राम का दास 
कहा आप श्री राम ने, लछमन सबसे ख़ास 
Sanjiv Verma 'salil' दोहा नैना-दृष्टि हैं, दोहा घूंघट आड़ 
दोहा बगिया भाव की, दोहा काँटा-बाड़ 
पंडिताईन आशा हिंदुस्तानी दुर्लभ दर्शन संग हैं,राम लखन का जोड़,
लगता है अब आ रहा छंदों में नव मोड़।
पंडिताईन आशा हिंदुस्तानी दोहा धड़कन है हिया दोहा ही है देह।
दोहा सर की छाँव है, दोहा ही है गेह।
Sanjiv Verma 'salil' दोहा आशा-रूप है, दोहा भाषा-भाव 
दोहा बिम्ब प्रतीक है, मेटे सकल अभाव 
Sanjiv Verma 'salil' बेंदा नथ करधन नवल, बिछिया पायल हार 
दोहा चूड़ी मुद्रिका, काव्य कामिनी धार
पंडिताईन आशा हिंदुस्तानी मरते छंदों के लिये, दोहा है संजीव।
जहाँ अँधेरा ज्ञान का, बालो दोहा दीव
पंडिताईन आशा हिंदुस्तानी दोहा बरखा, या हवा, दोहा जल या रेत।
दोहा फसलें प्रीत की, दोहा हरिया खेत।
Sanjiv Verma 'salil' जीते हिंदी के लिए, मरें छंद पर नित्य 
सुषमा सौरभ छटाएँ, अगणित अमर अनित्य 
लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला सलिल रचे दोहा यहाँ, जिनसे ज्ञान प्रसार
दोहा मारक छ्न्द है, करते शब्द प्रहार ।
Sanjiv Verma 'salil' जीते हिंदी के लिए, मरें छंद पर नित्य 
सुषमा सौरभ छटाएँ, अगणित अमर अनित्य 
पंडिताईन आशा हिंदुस्तानी दोहा है हथियार ज्यों, दोहा ज्यों तलवार
छोटा है दोहा मगर, तेज बहुत है धार।
Sanjiv Verma 'salil' धारक-तारक छंद है, दोहा अमृत धार 
है अनंत इसकी छटा, 'सलिल' न पारावार 
Sanjiv Verma 'salil' दोहा कोमल कली है, शुभ्र ज्योत्सना पांति 
छंद पखेरू अन्य यह, राजहंस की भांति 
Sanjiv Verma 'salil' जूही चमेली मोगरा, चम्पा हरसिंगार 
तेइस दोहा-बाग़ है, गंधों का संसार 
लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला दोहा नावक तीर सा, काट सके जो नीर
गागर में सागर भरे, चले शब्द के तीर ।
Sanjiv Verma 'salil' हिन्दुस्तानी सुरभि है, भारतीय परिधान 
दोहा नव आशा 'सलिल', आन-बान सह शान
पंडिताईन आशा हिंदुस्तानी कविता के श्रृंगार का शीश फूल है छंद।
इसके फूलों की महक, भरती मन आनंद
Sanjiv Verma 'salil' दोहा दुनियादार है, दोहा है दिलदार 
घाट नाव पतवार है, दोहा ही मझधार 
लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला दोहे से सजते यहाँ, आज बहुत से छ्न्द,
दोहा सरसी छ्न्द में, श्रृंगारी मकरन्द ।
Sanjiv Verma 'salil' ज्यों भोजन में जल रहे, दोहा छंदों बीच 
भेद-भाव करता नहीं, स्नेह-सलिल दे सींच 
लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला आभार हम आपके, लगते 'सलिल' सुजान
छन्दों के ज्ञाता मिले, उनका है सम्मान ।
Sanjiv Verma 'salil' छंदों की महिमा अमित, मनुज न सकता जान, 
'सलिल' अँजुरी-घूँट ले, नित्य करे रस-पान 
लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला छ्न्द प्रभावी सन्त के, देते आँखे खोल,
दिखा सके जो आइना, सुने उन्ही के बोल ।
लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला लाजवाब दोहे रचे,जिनका नहीं जवाब
ज्ञान मिले पढ़कर जिन्हें, खिलता हृदय गुलाब ।
Sanjiv Verma 'salil' रामानुज सम लक्ष को, जो लेता है साध
रामा-राम भजे वही, लक्ष्मण सम निर्बाध 
Usha Saxena बात बात में बात बढ़ गई बातन होगई रार
Sanjiv Verma 'salil' पौ फट ऊषा आ गई, हरने तम अंधियार 
जहाँ स्नेह सलिला बहे, कैसे हो तकरार?
Sanjiv Verma 'salil' शक-सेना संहार कर, दे अनंत विश्वास 
श्री वास्तव में लिए है, खरे मूल्य सह हास 
दिनेश चन्द्र गुप्ता रविकर कांटे छिपाए/ कलरव करेंगे / उगेगा के प्रयोग पर असमंजस है आदरणीय
अवनीश तिवारी सुंदर । एक शंका है  पहला दोहा कुछ खटका अंत मे गुरु लघु नही है ?
Sanjiv Verma 'salil' पहले दोहे के सम चरणों के अंत में गुरु लघु ही है. मात्रा गणना के नियम ठीक से समझें।
Ghanshyam Maithil Amrit मात्रा "भार" से मुक्त एक विचार
ग्राम "ग्राम" अब न रहे,हुए शहर सब सेर,
जंगल में जंगल नहीं, कहां जाएँ अब शेर
Sanjiv Verma 'salil' ग्राम नहीं अब आम हैं, शहर नहीं हैं ख़ास 
सवा सेर हैं स्यार अब, शेर खा रहे घास 
लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला आदरणीय -
बात बात से निकलती/ बात निकलती बात से
Sanjiv Verma 'salil' लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला 
बात बात से निकलती, बात न करती बात 
sanjiv 
प्रात रात से निकलता, रात न बनती प्रात
दोहा प्रश्नोत्तर 
घनश्याम मैथिल 'अमृत' 
ग्राम नहीं अब "ग्राम" हैं, हुए शहर सब सेर,
जंगल में जंगल नहीं, कहां जाएँ अब शेर??
*
संजीव  
ग्राम नहीं अब आम हैं, शहर नहीं हैं ख़ास 
सवा सेर हैं स्यार अब, शेर खा रहे घास 
***

doha

दोहा दुनिया 
बात से बात 
*
बात बात से निकलती, करती अर्थ-अनर्थ 
अपनी-अपनी दृष्टि है, क्या सार्थक क्या व्यर्थ? 
*
'सर! हद सरहद की कहाँ?, कैसे सकते जान? 
सर! गम है किस बात का, सरगम से अनजान 
 *
'रमा रहा मन रमा में, बिसरे राम-रमेश.
सब चाहें गौरी मिले, हों सँग नहीं महेश.

राम नाम की चाह में, चाह राम की नांय.
काम राम की आड़ में, संतों को भटकाय..
*
'है सराह में, वाह में, आह छिपी- यह देख.
चाह कहाँ कितनी रही?, करले इसका लेख..
*
'गुरु कहना तो ठीक है, कहें न गुरु घंटाल.
वरना भास्कर 'सलिल' में, डूब दिखेगा लाल..' 
 *
'लाजवाब में भी मिला, मुझको छिपा जवाब.
जैसे काँटे छिपाए, सुन्दर लगे गुलाब'.
*
'डूबेगा तो उगेगा, भास्कर ले नव भोर.
पंछी कलरव करेंगे, मनुज मचाए शोर..'
*
'एक-एक कर बढ़ चलें, पग लें मंजिल जीत.
बाधा माने हार जग, गाये जय के गीत.'.
*
'कौन कहाँ प्रस्तुत हुआ?, और अप्रस्तुत कौन?
जब भी पूछे प्रश्न मन, उत्तर पाया मौन.'.
*
तनखा ही तन खा रही, मन को बना गुलाम. 
श्रम करता गम कम 'सलिल', करो काम निष्काम.
*
'पा लागू' कर ले 'सलिल', मिलता तभी प्रसाद
पंडितैन जिस पर सदय, वही रहे आबाद
*
रामानुज सम लक्ष को, जो लेता है साध
रामा-राम भजे वही, लक्ष्मण सम निर्बाध  
*
इन्द्रप्रस्थ पर कर रहे, देखें राज्य नरेंद्र
यह उलटी गंगा बही, बेघर हुए सुरेन्द्र
*
आशा के पग छुए तो, बनते बिगड़े काम
नमन लक्ष्मण को करो, तुरत सदय हों राम
*
माँ भगिनी भाभी सखी, सुता सभी तव रूप
जिसके सर पर हाथ हो, वह हो जाता भूप
*
बड़ा राम से भी अधिक, रहा राम का दास
कहा आप श्री राम ने, लछमन सबसे ख़ास
*
दोहा नैना-दृष्टि हैं, दोहा घूंघट आड़
दोहा बगिया भाव की, दोहा काँटा-बाड़
*
दोहा आशा-रूप है, दोहा भाषा-भाव
दोहा बिम्ब प्रतीक है, मेटे सकल अभाव
*
बेंदा नथ करधन नवल, बिछिया पायल हार
दोहा चूड़ी मुद्रिका, काव्य कामिनी धार
*
पौ फट ऊषा आ गई, हरने तम अंधियार
जहाँ स्नेह सलिला बहे, कैसे हो तकरार?
*
जीते हिंदी के लिए, मरें छंद पर नित्य
सुषमा सौरभ छटाएँ, अगणित अमर अनित्य
*
भोर दुपहरी साँझ भी, रात चाँदनी चंद
नभ सूरज दोहा हुआ, अक्षय ज्योति अमंद
*
धारक-तारक छंद है, दोहा अमृत धार
है अनंत इसकी छटा, 'सलिल' न पारावार
*
दोहा कोमल कली है, शुभ्र ज्योत्सना पांति
छंद पखेरू अन्य यह, राजहंस की भांति
*
जुही चमेली मोगरा, चम्पा हरसिंगार
तेइस दोहा-बाग़ है, गंधों का संसार
*
हिन्दुस्तानी सुरभि है, भारतीय परिधान
दोहा नव आशा 'सलिल', आन-बान सह शान
*
दोहा दुनियादार है, दोहा है दिलदार
घाट नाव पतवार है, दोहा ही मझधार
*
शक-सेना संहार कर, दे अनंत विश्वास
श्री वास्तव में लिए है, खरे मूल्य सह हास
*
ज्यों भोजन में जल रहे, दोहा छंदों बीच
भेद-भाव करता नहीं, स्नेह-सलिल दे सींच
*
छंदों की महिमा अमित, मनुज न सकता जान,
'सलिल' अँजुरी-घूँट ले, नित्य करे रस-पान
*
पग प्रक्षालन कर 'सलिल', छंदों का सौभाग्य
जन्म-जन्म कर साधना, माँग नहीं वैराग्य
*

गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

samachar

अखिल भारतीय साहित्यकार एवं पत्रकार तृतीय सम्मेलन वर्ष २०१७
(स्व. गोपालराम गहमरी प्रसिद्ध जासूसी उपन्यासकार-स्व. श्रीमती सरोज सिंह संरक्षिका साहित्य सरोज पत्रिका
की पुण्य स्मृति में अखंड गहमरी द्वारा आयोजित)
दिनाँक २४-२५-२६ सितम्बर २०१७
दिन-: रविवार, सोमवार, मंगलवार
(मंगलवार उनके लिए जिनकी वापसी ट्रेन दोपहर एक बजे या उसके बाद हो)
🏚स्थान: आशीर्वाद पैलेस, निकट रेलवे स्टेशन, गहमर, जिला गाजीपुर, उ. प्र.
कार्यक्रम विवरण:
✏ २४ सितम्बर प्रात: १० बजे कार्यक्रम शुभारंभ.. अतिथि परिचय।
✏ ११ बजे परिचर्चा: हिन्दी साहित्य और मीडिया में दूरी क्यों?
✏ शाम ३ बजे परिचर्चा: ग्रामीण क्षेत्रो की प्रतिभाओं का कैसे करे विकास?
✏ संध्या ५ बजे से रात्रि ९ बजे तक गायन एवं नृत्य ।
✏ रात्रि ९ बजे से कवि सम्मेलन।
२५ सितम्बर २०१७ ✏ प्रातः ५ बजे से १० बजे गंगा स्नान, कामाख्या दर्शन, पूजन, गहमर भ्रमण।
✏ १० बजे से १२ बजे सम्मान समारोह।
✏ ०१ बजे से ०३ बजे परिचर्चा भारत की क्षेत्रीय भाषाएँ एवं हिन्दी में तालमेल।
✏ ०३ बजे से ०६ बजे परिचर्चा आखिर क्यों कटघरे में मीडिया?
✏ ०७ बजे से ०९ बजे नृत्य एवं गायन।
✏ ०९ बजे से कवि सम्मेलन।
२६ सितम्बर २०१७ प्रात: ९ बजे से १२ बजे ✏ गरीब बच्चों के बीच साहित्यकार व पत्रकार।(चुने हुए स्कूल में कार्यक्रम )
साझा काव्य संकलन और स्मारिका..
१. साझा काव्य संंकलन का रूप पूर्णत: परिवर्तित होगा। इस साझा संकलन में छपी रचना आपकी अपनी हस्तलिपि में होगी।
२. आपको अपनी रचना सादे सफेद कागज़ पर अपनी हस्तलिपि में बड़े
अक्षरो में साफ-साफ, शुद्ध लिख कर डाक द्वारा भेजनी है।
३. प्रति रचनाकार संक्षिप्त परिचय सहित ४ रचनाये भेज सकते हैं।
४. इस बार साझा संकलन की सहयोग राशि १५०० रूपये है।
५. . पूर्व समारोहों में आ चुके साहित्यकार व अतिथि अपने अनुभव लिख भेजें।
६ . निवास के दौरान मेरी माता जी से भेंट हुई हो तो एक संस्मरण पृथक भेजें।
७. स्मारिका में स्वैच्छिक आर्थिक सहयोग का स्वागत है।
आप बन सकते/सकती हैं कार्यक्रम के विज्ञापन का हिस्सा
१. यदि आप कार्यक्रम के विज्ञापनो में अपनी तस्वीर और चलचित्र देना चाहे तो आप अपने छायाचित्र भेज सकते हैं।
२. पूर्व में हुए कार्यक्रमो के आधार पर प्रचार-प्रसार हेतु ३ गीतो का फिल्माकंन किया जायेगा। इसके लिए कार्यक्रम से संबंधित गीत लिख कर भेज सकते हैं।
नृत्य एवं गायन...
१. आप/आपके बच्चे/आपके परिवार के सदस्य /आपके रिश्तेदार/ आपके दोस्त- मित्र/ जानपहचान वाले जो कत्थक, कुचिपुड़ी या अन्य भारतीय शैली के नृत्य प्रस्तुत करना चाहें, वह अपने नृत्य का २ मिनट का वीडियो भेज दें।
२. आप/आपके बच्चे/आपके परिवार के सदस्य /आपके रिश्तेदार/ आपके दोस्त- मित्र/ जानपहचान वाले जो भी शास्त्रीय संगीत/ क्षेत्रीय भाषाओ एवं विधाओं में या किसी साहित्यकार द्वारा लिखे गीत प्रस्तुत करना चाहे वो अपनी आवाज में रेकार्ड किया कोई गीत गाकर भेज दें।
कान्ति शुक्ला.
संरक्षिका एवं अध्यक्षा सम्मान चयन समिति

मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

bundeli kahani

बुंदेली कथा ४
मतलब के यार
*
एक जागीर खों जागीरदार भौतई परतापी, बहादुर, धर्मात्मा और दयालु हतो।
बा धन-दौलत-जायदाद की देख-रेख जा समज कें करता हतो के जे सब जनता के काजे है।
रोज सकारे उठ खें नहाबे-धोबे, पूजा-पाठ करबे और खेतें में जा खें काम-काज करबे में लगो रैत तो।
बा की घरवाली सोई सती-सावित्री हती।
दोउ जनें सुद्ध सात्विक भोजन कर खें, एक-दूसरे के सुख-सुबिधा को ध्यान धरत ते।
बिनकी परजा सोई उनैं माई-बाप घाई समजत ती।
सगरी परजा बिनके एक इसारे पे जान देबे खों तैयार हो जात ती ।
बे दोउ सोई परजा के हर सुख-दुख में बराबरी से सामिल होत ते।
धीरे-धीरे समै निकरत जा रओ हतो।
बे दोउ जनें चात हते के घर में किलकारी गूँजे।
मनो अपने मन कछु और है, करता के कछु और।
दोउ प्रानी बिधना खें बिधान खों स्वीकार खें अपनी परजा पर संतान घाई लाड़ बरसात ते।
कैत हैं सब दिन जात नें एक समान।
समै पे घूरे के दिन सोई बदलत है, फिर बे दोऊ तो भले मानुस हते।
भगवान् के घरे देर भले हैं अंधेर नईया।
एक दिना ठकुरानी के पैर भारी भए।
ठाकुर जा खबर सुन खें खूबई खुस भए।
नौकर-चाकरन खों मूं माँगा ईनाम दौ।
सबई जनें भगबान सें मनात रए के ठकुराइन मोंड़ा खें जनम दे।
खानदान को चराग जरत रए, जा जरूरी हतो।
ओई समै ठाकुर साब के गुरु महाराज पधारे।
उनई खों खुसखबरी मिली तो बे पोथा-पत्रा लै खें बैठ गए।
दिन भरे कागज कारे कर खें संझा खें उठे तो माथे पे चिंता की लकीरें हतीं।
ठाकुर सांब  नें खूब पूछी मनो बे इत्त्तई बोले प्रभु सब भलो करहे।
ठकुराइन नें समै पर एक फूल जैसे कुँवर खों जनम दओ।
ठाकुर साब और परजा जनों नें खूबई स्वागत करो।
मनो गुरुदेव आशीर्बाद देबे नई पधारे।
ठकुराइन नें पतासाजी की तो बताओ गओ के बे तो आश्रम चले गै हैं।
दोऊ जनें दुखी भए कि कुँवर खों गुरुदेव खों आसिरबाद नै मिलो।
धीरे-धीरे बच्चा बड़ो होत गओ।
संगे-सँग ठाकुर खों बदन सिथिल पडत गओ।
ठकुराइन नें मन-प्राण सें खूब सबा करी, मनो अकारथ।
एक दिना ठाकुर साब की हालत अब जांय के तब जांय की सी भई।
ठकुअराइन नें कारिन्दा गुरुदेव लिंगे दौड़ा दओ।
कारिन्दा के संगे गुरु महाराज पधारे मनो ठैरे नईं।
ठकुराइन खों समझाइस दई के घबरइयो नै।
जा तुमरी कठिन परिच्छा की घरी है।
जो कछू होनी है, बाहे कौउ नई रोक सकहे।
कैत आंय धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपातकाल परखहहिं चारी।
हम जानत हैं, तुम अगनी परिच्छा सें खरो कुंदन घाईं तप खें निकरहो।
ठाकुर साब की तबियत बिगरत गई।
एक दिना ठकुराइन खों रोता-बिलखता छोर के वे चल दए ऊ राह पे, जितै सें कोऊ लौटत नईया।
ठाकुर के जाबे के बाद ठकुराइन बेसुध से हतीं।
कुँवर के सर पे से ठाकुर की छाया हट गई।
ठकुराइन को अपनोंई होस नई हतो।
दो दोस्त चार दुसमन तो सबई कोइ के होत आंय।
ठाकुर के दुसमनन नें औसर पाओ।
'मत चूके चौहान' की मिसल याद कर खें बे औरें कुँवर साब के कानें झूठी दिलासा देबे के बहाने जुट गए।
कुँवर सही-गलत का समझें? जैसी कई ऊँसई करत गए।
हबेली के वफादारों ने रोकबे-टोकबे की कोसिस की।
मनो कुँवर नें कछू ध्यान नें दऔ।
ठकुराइन दुःख में इत्ती डूब गई के खुदई के खाबे-पीबे को होस नई रओ।
मूं लगी दाई मन-पुटिया के कछू खबा दे ती।
ऊ नें पानी नाक सें ऊपर जात देखो तो हिम्मत जुटाई।
एक दिना ठकुराइन सें कई की कुँवर साब के पाँव गलत दिसा में मुड़ रए हैं।
ठकुराइन नें भरोसा नई करो, डपट दओ।
हवन करत हाथ जरन लगे तो बा सोई चुप्पी लगा गई।
कुँवर की सोहबत बिगरत गई।
बे जान, सराब और कोठन को सौक फरमान लगे।
दाई सें चुप रैत नई बनो।
बाने एक रात ठकुराइन खों अपने मूड की सौगंध दै दी।
ठकुराइन नें देर रात लौ जागकर नसे की हालत में लौटते कुंवर जू खें देखो।
बिन्खों काटो तो खून नई की सी हालत भई।
बे तो तुरतई कुँवर जू की खबर लओ चाहत तीं मनो दाई ने बरज दऔ।
जवान-जहान लरका आय, सबखें सामनू  कछू कहबो ठीक नईया।
दाई नें जा बी कई सीधूं-सीधूं नें टोकियो।
जो कैनें होय, इशारों-इशारों में कै दइयो ।
मनो सांप सोई मर जाए औ लाठी सोई नै टूटे।
उन्हें सयानी दाई की बात ठीकई लगी।
सो कुँवर के सो जाबै खें बाद चुप्पै-चाप कमरे माँ जा खें पर रईं।
नींद मनो रात भरे नै आई।
पौ फटे पे तनक झपकी लगी तो ठाकुर साब ठांड़े दिखाई दए।
बिन्सें कैत ते, "ठकुराइन! हम सब जानत आंय।
तुमई सम्हार सकत हो, हार नें मानियो।"
कछू देर माँ आँख खुल गई तो बे बिस्तर छोड़ खें चल पडीं।
सपरबे खें बाद पूजा-पाठ करो और दाई खों भेज खें कुँवर साब को कलेवा करबे खों बुला लओ।
कुँवर जू जैसे-तैसे उठे, दाई ने ठकुराइन को संदेस कह दौ।
बे समझत ते ठकुराइन खों कच्छू नें मालुम ।
चाहत हते कच्छू मालून ने परे सो दाई सें कई अब्बई रा रए।
और झटपट तैयार को खें नीचे पोंच गई, मनो रात की खुमारी बाकी हती।
बे समझत हते सच छिपा लओ, ठकुराइन जान-बूझ खें अनजान बनीं हतीं।
कलेवा के बाद ठकुराइन नें रियासत की समस्याओं की चर्चा कर कुँवर जू की राय मंगी।
बे कछू जानत ना हते तो का कैते? मनो कई आप जैसो कैहो ऊँसई हो जैहे।
ठकुराइन नें कई तीन-चार काम तुरतई करन परहें।
नई तें भौतई ज्यादा नुक्सान हो जैहे।
कौनौ एक आदमी तो सब कुछ कर नई सकें।
तुमाए दोस्त तो भौत काबिल आंय, का बे दोस्ती नई निबाहें?
कुँवर जू टेस में आ खें बोले काय न निबाहें, जो कछु काम दैहें जी-जान सें करहें।
ठकुराइन नें झट से २-३ काम बता दए।
कुँवर जू नें दस दिन खों समै चाओ, सो बाकी हामी भर दई।
ठाकुर साब के भरोसे के आदमियां खों बाकी के २-३ काम की जिम्मेवारी सौंप दई गई।
ठकुराइन ने एक काम और करो ।
कुँवर जू सें कई ठाकुर साब की आत्मा की सांति खें काजे अनुष्ठान करबो जरूरी है।
सो बे कुँवर जू खों के खें गुरु जी के लिंगे चल परीं और दस दिन बाद वापिस भईं।
जा बे खें पैले जा सुनिस्चित कर लाओ हतो के ठाकुर साब के आदमियों को दए काम पूरे हो जाएँ।
जा ब्यबस्था सोई कर दई हती के कुँवर जु के दोस्त मौज-मस्ती में रए आयें और काम ने कर पाएँ।
बापिस आबे के एक दिन बाद ठकुराइन नें कुँवर जू सें कई बेटा! टमें जो का दए थे उनखों का भओ?
जा बीच कुँवर जू नसा-पत्ती सें दूर रए हते।
गुरु जी नें उनैं कथा-कहानियां और बार्ताओं में लगा खें भौत-कछू समझा दौ हतो।
अब उनके यार चाहत थे के कुंअर जू फिर से रा-रंग में लग जाएं।
कुँवर जू कें संगे उनके सोई मजे हो जात ते।
हर्रा लगे ने फिटकरी रंग सोई चोखो आय।
ठकुराइन जानत हतीं के का होने है?
सो उन्ने बात सीधू सीधू नें कै।
कुँवर कू सें कई तुमाए साथ ओरें ने तो काम कर लए हूहें।
ठाकुर साब के कारिंदे निकम्मे हैं, बे काम नें कर पायें हुइहें।
पैले उनसें सब काम करा लइयो, तब इते-उते जइओ।
कुंवर मना नें कर सकत ते काये कि सब कारिंदे सुन रए ते।
सो बे तुरतई कारिंदों संगे चले गए।
कारिंदे उनें कछू नें कछू बहनों बनाखें देर करा देत ते।
कुँवर जू के यार-दोस्तों खें लौतबे खें बाद कारिंदे उनें सब कागजात दिखात ते।
कुँवर जू यारों के संगे जाबे खों मन होत भए भी जा नें पात ते।
काम पूरो हो जाबे के कारन कारिंदों से कछू कै सोई नें सकत ते।
दबी आवाज़ में थकुराइअन सें सिकायत जरूर की।
ठकुराइन नें समझाइस दे दई, अब ठाकुर साब हैं नईंया।
हम मेहरारू जा सब काम जानत नई।
तुमै सोई धीरे-धीरे समझने-सीखने में समै चाने।
देर-अबेर होत बी है तो का भई?, काम तो भओ जा रओ है।
तुमें और कौन सो काम करने है?
कुंअर जू मन मसोस खें रए जात हते।
अब ठकुराइन सें तो नई कए सकत ते की दोस्तन के सात का-का करने है?
दो-तीन दिना ऐंसई निकर गए।
एक दिना ठकुराइन नें कई तुमाए दोस्तन ने काम करई लए हूहें।
मनो कागजात लें खें बस्ता में धार दइयो।
कुँवर नें सोची साँझा खों दोस्त आहें तो कागज़ ले लैहें और फिर मौज करहें।
सो कुँवर जू नें झट सें हामी भर दई।
संझा को दोस्त हवेली में आये तो कुँवर जू नें काम के बारे में पूछो।
कौनऊ नें कछू करो होय ते बताए?
बे एक-दूसरे को मूं ताकत भए, बगलें झांकन लगे।
एक नें झूठोबहानों बनाओ के अफसर नई आओ हतो।
मनो एक कारिंदे ने तुरतई बता दओ के ओ दिना तो बा अफसर बैठो हतो।
कुँवर जू सारी बात कोऊ के बताए बिना समझ गै।
करिन्दन के सामने दोस्तन सें तो कछू नें कई।
मनो बदमजगी के मारे उन औरों के संगे बी नई गै।
ठकुरानी नें दोस्तों के लानें एकऊ बात नें बोली।
जाईकई कौनौ बात नईयाँ बचो काम तुम खुदई कर सकत हो।
कौनऊ मुस्किल होय तो कारिंदे मदद करहें।
कुँवर समझ गए हते के दोस्त मतलब के यार हते।
धीरे-धीरे बिन नें दोस्तन की तरफ ध्यान दैबो बंद कर दौ।
बे समझ गए हते जे दोस्त काम के नें काज के, दुसमन अनाज के हते।
आगे के लाने कुँवर जू सजग हो गए, फिर नजीक नें आ पाए मतलब के यार।
ठकुराइन नें चैन की सांस लई।

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१४२

सोमवार, 24 अप्रैल 2017

navgeet

एक रचना
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
दरक रे मैदान-खेत सब
मुरझा रए खलिहान।
माँगे सीतल पेय भिखारी
ले न रुपया दान।
संझा ने अधरों पे बहिना
लगा रखो है खून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
धोंय, निचोरें सूखें कपरा
पहने गीले होंय।
चलत-चलत कूलर हीटर भओ
पंखें चल-थक रोंय।
आँख मिचौरी खेरे बिजुरी
मलमल लग रओ ऊन।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
गरमा गरम नें कोऊ चाहे
रोएँ चूल्हा-भट्टी।
सब खों लगे तरावट नीकी
पनहा, अमिया खट्टी।
धारें झरें नई नैनन सें
बहें बदन सें दून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
लिखो तजुरबा, पढ़ तरबूजा
चक्कर खांय दिमाग।
मृगनैनी खों लू खें झोंकें
लगे लगा रए आग।
अब नें सरक पे घूमें रसिया
चौक परे रे! सून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
अंधड़ रेत-बगूले घेरे
लगी सहर में आग।
कितै गए पनघट अमराई
कोयल गाए नें राग।
आँखों मिर्ची झौंके मौसम
लगा र ओ रे चून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*

रविवार, 23 अप्रैल 2017

shatpadi

एक षट्पदी
*
'बुक डे'
राह रोक कर हैं खड़े, 'बुक' ले पुलिस जवान
वाहन रोकें 'बुक' करें, छोड़ें ले चालान
छोड़ें ले चालान, कहें 'बुक' पूरी भरना
छूट न पाए एक, न नरमी तनिक बरतना
कारण पूछा- कहें, आज 'बुक डे' है भैया  
अगर हो सके रोज, नचें कर ता-ता थैया
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