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गुरुवार, 14 जनवरी 2016

laghukatha

लघुकथा -
रफ्तार 
*
प्रतियोगिता परीक्षा में प्रथम आते ही उसके सपनों को रफ्तार मिल गयी। समाचार पत्रों में सचित्र समाचार छपा, गाँव भी पहुँचा। ठाकुर ने देखा तो कलेजे पर साँप लोट गया। कर्जदार की बेटी हाकिम होकर गाँव में आ गयी तो नाक न कट जायेगी? जैसे भी हो रोकना होगा।

जश्न मनाने के बहाने हरिया को जमकर पिलाई और बिटिया के फेरे अपने निकम्मे शराबी बेटे से करने का वचन ले लिया। उसने नकारा तो पंचायत बुला ली गयी जिसमें ठाकुर के चमचे ही पञ्च थे जिन्होंने धार्मिक पाखंड की बेडी उसके पैर में बाँधने वरना जात बाहर करने का हुक्म दे दिया।
उसके अपनों और सपनों पर बिजली गिर पड़ी। उसने हार न मानी और रातों-रात दद्दा को भेज महापंचायत करा दी जिसने पंचायत का फैसला उलट दिया। ठाकुर के खिलाफ दबे मामले उठने लगे तो वह मन मसोस कर बैठ रहा।
उसने धार्मिक पाखंड, सामाजिक दबंगई और आर्थिक शोषण के त्रिकोण से जूझते हुए भी फिर दे दी अपने सपनों को रफ्तार।
***

laghukatha

लघुकथा:

अनजानी राह
*
कोशिश रंग ला पाती इसके पहले ही तूफ़ान ने कदमों को रोक दिया, धूल ने आँखों के लिये खुली रहना नामुमकिन कर दिया, पत्थरों ने पैरों से टकराकर उन्हें लहुलुहान कर दिया, वाह करनेवाला जमाना आह भरकर मौन हो रहा।

इसके पहले कि कोशिश हार मानती, कहीं से आवाज़ आयी 'चली आओ'। कौन हो सकता है इस बवंडर के बीच आवाज़ देनेवाला? कान अधिकाधिक सुनने के लिये सक्रिय हुए, पैर सम्हाले, हाथों ने सहारा तलाशा, सर उठा और चुनौती को स्वीकार कर सम्हल-सम्हल कर बढ़ चला उस ओर जहाँ बाँह पसारे पथ हेर रही थी अनजानी राह।

***

बुधवार, 13 जनवरी 2016

haiku

हाइकु
संजीव
*
झूठ को सच
करती सियासत
सच को झूठ
*
सुबहो-शाम
आराम है हराम
राम का नाम
*
प्राची लगाती
माथे पर बिंदिया
साँझ सुहाती
*
शंख निनाद
मग्न स्वर तरंग
मिटा विषाद
*
गया बरस
तनिक न दे सका
सुख हरष
*
अस न बस
मनाना ही होगा
नया बरस
*
बिच्छू का डंक
सहे संत स्वभाव
रहे नि:शंक 
**

मंगलवार, 12 जनवरी 2016

चन्द माहिया :क़िस्त 27



:1:
वो शान से चलते हैं
जैसा हो मौसम
ईमान बदलते हैं

:2:
एक आस अभी बाक़ी
तेरे आने की
इक साँस अभी  बाक़ी

:3:

इक रंग-ए-क़यामत है
इठला कर चलना
कुछ उनकी आदत है

:4:
गर्दिश में रहे जब हम
दूर खड़ी दुनिया
पर साथ खड़े थे ग़म

:5:
कब एक सा रहता है
सुख-दुख का मौसम
मौसम तो बदलता है

-आनन्द.पाठक-
09413395592

LAGHUKATHA

लघुकथा-
चेतना शून्य 
*
उच्च पदस्थ बेटी की उपलब्धि पर आयोजित अभिनन्दन भोज में आमंत्रित माँ पहुँची। बेटी ने शैशव में दिवंगत हो चुके पिता के निधनोपरांत माँ द्वारा लालन-पालन किये जाने पर आभार व्यक्त करते हुए अपनी श्रेष्ठ शिक्षा, आत्म विश्वास और उच्च पद पाने का श्रेय माँ को दिया तो पत्रकारों के प्रश्न और छायाकारों के कैमरे माँ पर केंद्रित हो गये। 
सामान्य घरेलू जीवन की अभ्यस्त माँ असहज अनुभव कर शीघ्र ही हट गयी। घर आते ही माँ ने बेटी से उसकी सफलता के इतने बड़े आयोजन में उसके जीवन साथी और संतान की अनुपस्थिति के बारे पूछा। बेटी ने झिझकते हुए अपने लिव इन रिलेशन, वैचारिक टकराव और जीवनसाथी तथा संतान से अलगाव की जानकारी दी। माँ को लगा वह हुई जा रही है चेतना शून्य । 

***

laghukatha

लघुकथा-
यह स्वप्न कैसा?
*
आप एक कार से उतर कर दूसरी में क्यों बैठ रहे है? जहाँ जाना है इसी से चले जाइये न.

नहीं भाई! अभी तक सरकारी दौरा कर रहा था इसलिए सरकारी वाहन का उपयोग किया, अब निजी काम से जाना है इसलिए सरकारी वाहन और चालक छोड़कर अपने निजी वाहन में बैठा हूँ और इसे खुद चलाकर जा रहा हूँ अगर मैं जन प्रतिनिधि होते हुए सरकारी सुविधा का दुरूपयोग करूँगा तो दूसरों को कैसे रोकूँगा?

सोच रहा हूँ जो कभी साकार न हो सके वह स्वप्न कैसा?

***

navgeet

एक रचना:
घोंसला 
*
घोंसले में 
परिंदे ही नहीं 
आशाएँ बसी हैं
*
आँधियाँ आयें न डरना
भीत हो,जीकर न मरना
काँपती हों डालियाँ तो
नीड तजकर नहीं उड़ना
मंज़िलें तो
फासलों को नापते
पग को मिली हैं
घोंसले में
परिंदे ही नहीं
आशाएँ बसी हैं
*
संकटों से जूझना है
हर पहेली बूझना है
कोशिशें करते रहे जो
उन्हें राहें सूझना है
ऊगती उषा
तभी जब साँझ
खुद हंसकर ढली है
घोंसले में
परिंदे ही नहीं
आशाएँ बसी हैं
*
१२-१-२०१६

सोमवार, 11 जनवरी 2016

navgeet

नवगीत-
बहती नदी
*
नवगीत तो
बहती नदी है
*
चेतना ने
कैद नियमों की
न मानी
वेदना ने
विभाजन रेखा
न जानी
स्नेह का
क्षण मात्र भी
जीवित सदी है
नवगीत तो
बहती नदी है
*
विषमता को
कौन-कैसे
साध्य माने?
विड़ंबनामय
नियति क्यों
आराध्य ठानें?
प्रीति भी तो
मनुज!
किस्मत में बदी है
नवगीत तो
बहती नदी है
*
हास का
अरविन्द खिलता
तो न रोको
आस का
मकरंद प्रसरित हो
 न टोको
बदलाव ही
हर विधा की
प्रकृति रही है
नवगीत तो
बहती नदी है
***

navgeet

नवगीत-
गुनो भी
*
जो पढ़ो
उसकी समझकर
गुनो भी 

*
सिर्फ रट लेना विषय
काफी नहीं है
जानकार ना जानना?
माफ़ी नहीं है
किताबों को
खोलकर, सर
धुनों भी
जो पढ़ो
उसकी समझकर
गुनो भी 

*
बात अपनी बोलना
बेहद जरूरी
जानकारी लें न दें
आधी-अधूरी
कोशिशों की
ऊन ले, चादर
बुनो भी
जो पढ़ो
उसकी समझकर
गुनो भी 

*
जीभ पायी एक
लेकिन कान दो हैं
गीत अपने नहीं
किसको कहो मोहें?
अन्य क्या कहते
कभी उसको
सुनो भी
जो पढ़ो
उसकी समझकर
गुनो भी 

***

navgeet

नवगीत:
समझदारी
*
साक्षरता ही
समझदारी नहीं है
*
बीज, पानी, खाद की
मात्रा प्रचुर है
भूमि है पर्याप्त
उर्वरता मुखर है
सुरक्षा कर नहीं पाता
निबल माली
उपकरण थामे
मगर क्यारी नहीं है
साक्षरता ही
समझदारी नहीं है
*
औपचारिकता
हुए कानून सारे
स्वार्थ-सुविधा ही
हुए हैं हमें प्यारे
नगद सौदे की
नहीं है चाह बाकी
उधारी की प्रथा
हितकारी नहीं है
साक्षरता ही
समझदारी नहीं है
*
त्याग का कर त्याग
भोगब भोग सारे
अस्पतालों में
पले हैं रोग न्यारे
संक्रमण से ग्रस्त
ऑपरेशन थियेटर
मरीजों से कहाँ
बटमारी नहीं है?
साक्षरता ही
समझदारी नहीं है
***

रविवार, 10 जनवरी 2016

navgeet

नवगीत:
क्यों?
*
इसे क्यों
हिर्स लगती है
जिठानी से?
उसे क्यों
होड़ लेना
देवरानी से?
*
अँगुलियाँ कब हुई हैं
एक सी बोलो?
किसी को बेहतर-कमतर
न तुम तोलो
बँधी रख अँगुलियाँ
बन जाओ रे! मुट्ठी
कभी मत
हारना, दुनिया
दीवानी से
*
लड़े यदि नींव तो
दीवार रोयेगी
दिखाकर आँख छत
निज नाश बोयेगी
न पूछो हाल कलशों का
कि क्या होगा?
मिटाओ
विषमता मिल
ज़िंदगानी से
*
न हीरे-मोतियों से
प्यास मिटती है
न ताकत से अधर पर
हँसी खलती है
नयन में आस ही
बन प्रीत पलती है
न छीने 
स्वप्न युग
नादां जवानी से
***   
१०-१-२०१६
   

laghukatha

लघुकथा
जीत का इशारा 
*
पिता को अचानक लकवा क्या लगा घर की गाड़ी के चके ही थम गये। कुछ दिन की चिकित्सा पर्याप्त न हुई. आय का साधन बंद और खर्च लगातार बढ़ता हुआ रोजमर्रा के खर्च, दवाई-इलाज और पढ़ाई। 

उसने माँ के चहरे की खोटी हुई चमक और पिता की बेबसी का अनुमान कर अगले सवेरे औटो उठाया और चल पड़ी स्टेशन की ओर। कुछ देर बाद माँ जागी, उसे घर पर न देख अनुमान किया मंदिर गयी होगी। पिता के उठते ही उनकी परिचर्या के बाद तक वह न लौटी तो माँ को चिंता हुई, बाहर निकली तो देखा औटो भी नहीं है। 

बीमार पति से क्या कहती?, नन्हें बेटे को जगाकर पडोसी को बुलाने का विचार किया। तभी एकदम निकट हॉर्न की आवाज़ सुनकर चौंकी। पलट कर देख तो उन्हीं का ऑटो था। ऑटो लेकर भागने वाले को पकड़ने के लिए लपकीं तो ठिठक कर रह गयीं, चालक के स्थान पर बैठी बेटी कर रही थी जीत का इशारा। 

***

laghukatha

लघुकथा :
सहारे की आदत
*
'तो तुम नहीं चलोगे? मैं अकेली ही जाऊँ?' पूछती हुई वह रुँआसी हो आयी किंतु उसे न उठता देख विवश होकर अकेली ही घर से बाहर आयी और चल पड़ी अनजानी राह पर। 
रिक्शा, रेलगाड़ी, विमान और टैक्सी, होटल, कार्यालय, साक्षात्कार, चयन, दायित्व को समझना-निभाना, मकान की तलाश, सामान खरीदना-जमाना एक के बाद एक कदम-दर-कदम बढ़ती वह आज विश्राम के कुछ पल पा सकी थी। उसकी याद सम्बल की तरह साथ होते हुए भी उसके संग न होने का अभाव खल रहा था। 
साथ न आया तो खोज-खबर ही ले लेता, मन हुआ बात करे पर स्वाभिमान आड़े आ गया, उसे जरूरत नहीं तो मैं क्यों पहल करूँ? दिन निकलते गये और बेचैनी बढ़ती गयी। अंतत: मन ने मजबूर किया तो चलभाष पर संपर्क साधा, दूसरी और से उसकी नहीं माँ की आवाज़ सुन अपनी सफलता की जानकारी देते हुए उसके असहयोग का उलाहना दिया तो रो पड़ी माँ और बोली बिटिया वह तो मौत से जूझ रहा है, कैंसर का ऑपरेशन हुआ है, तुझे नहीं बताया कि फिर तू जा नहीं पाती। तुझे इतनी रुखाई से भेजा ताकि तू छोड़ सके उसके सहारे की आदत।
स्तब्ध रह गयी वह, माँ से क्या कहती?
तुरंत बाद माँ के बताये चिकित्सालय से संपर्क कर देयक का भुगतान किया, अपने नियोक्ता से अवकाश लिया, आने-जाने का आरक्षण कराया और माँ को लेकर पहुँची चिकित्सालय, वह इसे देख चौंका तो बोली मत परेशान हो, मैं तम्हें साथ ले जा रही हूँ। अब मुझे नहीं तुम्हें डालनी है सहारे की आदत।

***

laghukatha

लघुकथा- 
बेदाग़

*
उच्च शिक्षा में प्रवेश के लिए उससे पूर्व की परीक्षा में उतीर्ण होना पर्याप्त होते हुए भी शासन-प्रशासन ने मिलकर प्रवेश परीक्षा का प्रावधान कर दिया। जनतंत्र में जनमत की अभिव्यक्ति करते जनविरोध की अनदेखी कर परीक्षा थोप दी गयी और मरता क्या न करता की लोकोक्ति को क्रियान्वित करते किशोर परीक्षा देने लगे। क्रमश: परीक्षा में गडबडी की खबरें फैलने लगीं। हाथ कंगन को आरसी क्या? परीक्षा में न बैठनेवाले भी उत्तीर्ण होकर चिकित्सक बनने लगे तो जाँच आयोग का गठन करने के लिए सरकार बाध्य हो गयी।



जाँच प्रक्रिया आगे बढ़ने के साथ ही गवाहों के मरने की गति बढ़ती गयी। अंतत:, गवाहों की मौतों की जाँच आरम्भ कर दी गयी जिसने सभी मौतों को स्वाभाविक बताने में देर नहीं की गयी। जितने नेता और अफसर कारावास भेजे गए थे उन्हें शिकायत का स्पर्श हुए बिना बेदाग़ घोषित कर दिया गया.



***

laghukatha

लघुकथा: 
विधान 
*
नवोढ़ा पुत्रवधू के हर काम में दोष निकलकर उन्हें संतोष होता, सोचतीं यह किसी तरह मायके चली जाए तो पुत्र पर फिर एकाधिकार हो जाए. बेटी भी उनका साथ देती। न जाने किस मिट्टी की बनी थी पुत्रवधु कि हर बात मुस्कुरा कर टाल देती।


कुछ दिनों बाद बेटी का विवाह बहुत अरमानों से किया उन्होंने। अचानक बेटी को अकेला देहरी पर खड़ा देखकर उनका माथा ठनका, पूछा तो पता चला कि वह अपनी सास से परेशान होकर लौट आयी फिर कभी न जाने के लिये। इससे पहले कि वे बेटी से कुछ कहें बहू अपनी ननद को अन्दर ले गयी और वे सोचती रह गयीं कि यह विधि का विधान है या शिक्षा-विधान?

***

शनिवार, 9 जनवरी 2016

samiksha

पुस्तक सलिला-
'झील अनबुझी प्यास की' 
गाथा नवगीती रास की 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
[पुस्तक विवरण - झील अनबुझी प्यास की, नवगीत संग्रह, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर', वर्ष २०१६, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द जैकेट सहित, बहुरंगी, पृष्ठ १२८, मूल्य ३०० रु., उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२, नवगीतकार संपर्क ८६ तिलक नगर, बाई पास रोड, फीरोजाबाद २८३२०३, चलभाष ९४१२३ १६७७९, dr.yayavar@yahoo.co.in ]  

सरसता, सरलता, सहजता, सारगर्भितता तथा सामयिकता साहित्य को समय साक्षी बनाकर सर्वजनीन स्वीकृति दिलाती हैं। डॉ. रामसनेही लाल शर्मा यायावर और गीत का नाता इस निकष पर सौ टका खरा है। गीत, मुक्तक, दोहा, हाइकु, ग़ज़ल, कुण्डलिनी, निबंध, समीक्षा तथा शोध के बहुआयामी सृजन में निरंतर संलग्न यायावर जी की सत्रह प्रकाशित कृतियाँ उनके सर्जन संसार की बानगी देती हैं। विवेच्य कृति 'झील अनबुझी प्यास की' का शीर्षक ही कृति में अन्तर्निहित रचना सूत्र का संकेत कर देता है। प्यास और झील का नाता आवश्यकता और तृप्ति का है किन्तु इस संकलन के नवगीतों में केवल यत्र-तत्र ही नहीं, सर्वत्र व्याप्त है प्यास वह भी अनबुझी जिसने झील की शक्ल अख्तियार कर ली है। झील ही क्यों नदी, झरना या सागर क्यों नहीं? यहाँ नवगीतकार शीर्षक में ही अंतर्वस्तु का संकेत करता है। कृति के नवगीतों में आदिम प्यास है, यह प्यास सतत प्रयासों के बावजूद बुझ नहीं सकी है, प्यास बुझाने के प्रयास जारी हैं तथा ये प्रयास न तो समुद्र की अथाह हैं कि प्यास को डूबा दें, न नदी के प्रवाह की तरह निरंतर हैं, न झरने की तरह आकस्मिक है बल्कि झील की तरह ठहराव लिये हैं। झील की ही तरह प्यास बुझाने के प्रयासों की भी सीमा है जिसने नवगीतों का रूप ग्रहण कर लिया है।
डॉ. यायावर समाज में व्याप्त विसंगतियों और पारिस्थितिक वैषम्य को असहनीय होता देखकर चिंतित होते हैं, उनकी शिक्षकीय दृष्टि सर्व मंगल की कामना करती है। 'मातु वागीश्वरी / दूर कर शर्वरी / सृष्टि को / प्राण को / ज्योति दे निर्झरी / मन रहे इस मनुज का / सदा छलरहित / उज्ज्वलम्, उज्ज्वलम्'। डॉ. यायावर के लिये नवगीत ही नहीं सकल साहित्य साधना 'उज्ज्वलम्' की प्राप्ति का माध्यम है, वे क्रांति की भ्रान्ति से दूर सर्व मंगल की कामना करते हैं। सभ्यता, संस्कृति, संस्कार के सोपानों से मानवीय उत्थान-पतन को देख यायावर जी का नवगीतकार मन चिंतित होता है 'खिड़कियाँ खुलती नहीं / वातायनों में / राम गायब / आधुनिक रामायणों में / तख्त पर बैठे मिले / अंधे अँधेरे / जुगनुओं से हारते / उजले सवेरे / जान्हवी अब पंक से / धोई हुई है / क्या करें? / कैसे बचायें?' विसंगतियों से निराश न होकर कवि उपाय खोजने के लिये प्रवृत्त होता है। 

नवगीत को खौलाती संवेदन की वर्ण-व्यंजना अथवा मोम के अश्व पर सवार होकर दहकते मैदान पर चक्कर लगाने के समान माननेवाले यायावर जी के नवगीतों में संवेदना, यथार्थ, सामाजिक सरोकार तथा संप्रेषणीयता के निकष पर खरे उतरने वाले नवगीतों में गीत से भिन्न कथ्य और शिल्प होना स्वाभाविक है। 'अटकी आँधियाँ / कलेजों में / चेहरों पर लटकी मायूसी / जन-मन विश्वास / ठगा सा है / कर गया तंत्र फिर जासूसी / 'मौरूसी हक़' पा जाने में / राजा फिर समर्थ हुआ'।  

यायावर जी का प्रकृतिप्रेमी मन जीवन को यांत्रिकता के मोह-पाश में दम तोड़ते देख व्याकुल है- ' 'रोबोटों की इस दुनिया में / प्रेम कथायें / पागल हो क्या? / मल्टीप्लेक्स, मॉल, कॉलोनी / सेंसेक्स या सेक्स सनसनी / क्रिकेट, कमेंट्री, काल, कैरियर / टेररिज़्म या पुलिस छावनी / खोज रहे हो यहाँ समर्पण / की निष्ठाएँ / पागल हो क्या? / लज्जा-घूँघट, हँसता पनघट / हँसी-ठिठौली, कान्हा नटखट / भरे भवन संवाद आँख के / मान-मनौवल नकली खटपट / खोज रहे हो वही प्यार / विश्वास-व्यथाएँ / पागल हो क्या?' जीवन के दो चेहरों के बीच आदमी ही खो गया है और यही आदमी यायावर के नवगीतों का नायक अथवा वर्ण्य विषय है- 'ढूँढ़ते हो आदमी / क्या बावले हो? / इस शहर में? / माल हैं, बाजार हैं / कालोनिया हैं - ऊबते दिन रात की / रंगीनियाँ हैं / भीड़ में कुचली / मरीं संवेदनाएँ / ढूँढ़ते स्वर मातमी / क्या बावले हो? / इस शहर में? 

ये विसंगतियाँ सिर्फ शहरों में नहीं अपितु गाँवों में भी बरक़रार हैं। 'खर-पतवारों के / जंगल ने / घेर लिया उपवन / आदमखोर लताएँ लिपटीं / बरगद-पीपल से / आती ही / भीषण बदबू / जूही के अंचल से / नीम उदासी में / डूबा है / आम हुआ उन्मन।' गाँव की बात हो और पर्यावरण की फ़िक्र न हो यह कैसे संभव है? आम हुआ उन्मन, पुरवा ने सांकल खटकाई, कान उमेठे हैं, मौसम हुआ मिहिरकुल, कहाँ बची, भीतर एक नदी शीर्षक नवगीतों में प्रकृति और पर्यावरण की चिंता मुखर हुई है। 

कुमार रवीन्द्र के अनुसार 'नवगीत दो शब्दों 'नव' तथा 'गीत' के योग से बना है। अत:, जब गीत से नवता का संयोग होता है तो नवगीत कहा जाता है। गीत से छांदसिकता और गेयता तथा नव का अर्थ ऐसी नव्यता से है जिसमें युगबोध, यथर्थ-चिंतन, सामाजिक सरोकार और परिवेशगत संवेदना हो।'  डॉ. यायावर के नवगीत आम आदमी की पक्षधरता को अपना कथ्य बनाते हैं। यह आम आदमी, शहर में हो या गाँव में, सुसंस्कृत हो या भदेस, सभ्य हो या अशिष्ट, शुभ करे या अशुभ, ऐश करे या पीड़ित हो नवगीत में केवल उपस्थित अवश्य नहीं रहता अपितु अपनी व्यथा-कथा पूरी दमदारी से कहता है। आस्था और सनातनता के पक्षधर यायावर जी धार्मिक पाखंडों और अंधविश्वासों के विरोध में नवगीत को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं। 'गौरी माता, भोले शंकर / संतोषी मैया / सबका देंगे दाम / बताते हैं दलाल भैया / अंधी इस सुरंग के / भीतर है / लकदक दुनिया / बड़े चतुर हैं / बता रहे थे / पश्चिम के बनिया / तुमको तरह-तीन करेंगे / बड़े घाघ बनजारे हैं / गोधन-गोरस / गाय गोरसी / सबकी है कीमत / भाभी के घूँघट के बदले / देंगे पक्की छत / मंदिर की जमीन पर / उठ जायेगा / माल नया / अच्छे दिन आ गए / समझ लो / खोटा वक़्त गया / देखो / ये बाजार-मंडियां / सब इनके हरकारे हैं।'  

वैश्वीकरण और बाज़ारीकरण से अस्त-व्यस्त-संत्रस्त होते जन-जीवन का दर्द-दुःख इन नवगीतों में प्रायः मुखरित हुआ है। बिक जा रामखेलावन, वैश्वीकरण पधारे हैं, इस शहर में, पागल हो क्या?, बाज़ार, क्षरण ही क्षरण बंधु आदि में यह चिंता दृष्टव्य है। मानवीय मनोवृत्तियों में परिवर्तन से उपजी विडंबनाओं को उकेरने के यायावर जी को महारथ हासिल है। धर्म और राजनीति दोनों ने आम जन की मनोवृत्ति कलुषित करने में अहं भूमिका निभायी है।यायावर जी की सूक्ष्म दृष्टि ने यह युग सत्य रजनीचर सावधान, खुश हुए जिल्लेसुभानी, आदमी ने बघनखा पहना, शल्य हुआ, मंगल भवन अमंगलहारी, सबको साधे, शेष कुशल है शीर्षक नवगीतों में व्यक्त किया है।सामाजिक मर्यादा भंग के स्वर की अभिव्यक्ति देखिए- ' घर में जंगल / जंगल में घर / केवल यही कथा / तोताराम असल में / तेरी-मेरी एक व्यथा / धृष्ट अँधेरे ने कल / सूरज बुरी तरह डाँटा / झरबेरी ने बूढ़े बरगद / को मारा चाँटा / मौसम आवारा था / लेकिन / ऐसा कभी न था।'

डॉ. यायावार हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ प्राध्यापक, शोध लेखक, शोध निर्देशक, समीक्षक हैं इसलिए उनका शब्द भण्डार अन्य नवगीतकारों से अधिक संपन्न-समृद्ध होना स्वाभाविक है। बतियाती, खौंखियाती, कड़खे, जिकड़ी, पुरवा, गुइयाँ, चटसार, नहान, विध्न, मैका, बाबुल, चकरघिन्नी, चीकट, सँझवाती, पाहुन, आवन, गलकटियों, ग्यावन, बरमथान, पिछौरी जैसे देशज शब्द, निर्झरी, उन्मन, दृग, रजनीचर, वैश्वीकरण, तमचर, रसवंती, अर्चनाएं, देवार्पित , निर्माल्य, वैकल्य, शुभ्राचार, साफल्य, दौर्बल्य, दर्पण, चीनांशुक, त्राहिमाम, मृगमरीचिका, दिग्भ्रमित, उद्ग्रीव, कार्पण्य, सहस्त्रार, आश्वस्ति, लाक्षाग्रह, सार्थवाह, हुताशन जैसे शुद्ध संस्कृतनिष्ठ शब्द, आदमखोर, बदबू, किस्से, जुनून, जिल्लेसुभानी, मुहब्बत, मसनद, जाम, ख्वाबघर, आलमपनाही, मनसबदार, नफासत, तेज़ाब, फरेब, तुनकमिजाजी, नाज़ुकखयाली, परचम, मंज़िल, इबारत, हादसा आदि उर्दू शब्द, माल, कार, कंप्यूटर, कमेंट्री, मल्टीप्लेक्स, कॉलोनी, सेंसेक्स, क्रिकेट, कमेंट्री, काल, कैरियर, टेरिरज़्म, फ्रिज, ओज़ोन, कैलेंडर, ब्यूटीपार्लर, पेंटिंग, ड्राइडन, ड्रेगन, कांक्रीट, ओवरब्रिज आदि अंग्रेजी शब्द अपनी पूर्ण अर्थवत्ता सहित गलबहियाँ डाले हैं. परिनिष्ठित हिंदी के आग्रहियों को ऐसे अहिन्दी शब्दों के प्रयोग पर आपत्ति हो सकती है जिनके प्रचलित हिंदी समानार्थी उपलब्ध हैं। अहिन्दी शब्दों का उपयोग करते समय उनके वचन या लिंग हिंदी व्याकरण के अनुकूल रखे गये हैं जैसे कॉलोनियों, रोबोटों आदि। 

यायावर जी ने शब्द-युगलों का भी व्यापक प्रयोग किया है। मान-मनौअल, जन-मन, हँसी-ठिठोली, खट-मिट्ठी, जाना-पहचाना, राग-रंग, सुलह-संधि, छुई-मुई, व्यथा-वेदना, ईमान-धरम, सत्ता-भरम, लाज-शर्म, खेत-मड़ैया, प्यार-बलैया, अच्छी-खासी, चन-चबेना, आकुल-व्याकुल आदि शब्द युग्मों में दोनों शब्द सार्थक हैं जबकि लदा-फदा, आटर-वाटर, आत्मा-वात्मा, आँसू-वाँसू, ईंगुर-वींगुर, इज्जत-विज्जत आदि में एक शब्द निरर्थक है। लक-दक , हबड-तबड़ आदि ऐसे शब्द युग्म हैं जिनका अर्थ एक साथ रहने पर ही व्यक्त होता है अलग करने पर दोनों अंश अपना अर्थ खो देते हैं। बाँछें खिलना, राम राखे, तीन तेरह करना, वारे-न्यारे होना आदि मुहावरों का प्रयोग सहजता से किया गया है। 

गुडाकेश ध्वनियाँ, पैशाचिक हुंकारें, मादक छुअन, अवतारी छवियाँ, फागुन की बातून हवाएँ, संवाद आँख के, समर्पण की निष्ठाएँ, सपनों की मरमरी कथाएं, लौह की प्राचीर, आँखों की कुटिल अँगड़ाइयाँ, कुरुक्षेत्र समर के शल्य, मागधी मंत्र जैसे मौलिक और अर्थवत्ता पूर्ण प्रयोग डॉ. यायावर की भाषिक सामर्थ्य के परिचायक हैं।केसरी खीर में कंकर की तरह कुछ मुद्रण त्रुटियाँ खटकती हैं। जैसे- खीज, छबि, वेबश, उद्वत आदि। 'सूरज बुरी तरह डाँटा' में कारक की कमी खलती है।

'समकालीन गीतिकाव्य: संवेदना और शिल्प' विषय पर डी. लिट. उपाधि प्राप्त यायावर जी का छंद पर असाधारण अधिकार होना स्वाभाविक है। विवेच्य कृति के नवगीतों में अभिनव छांदस प्रयोग इस मत की पुष्टि करते हैं। 'मंगलम्-मंगलम्' में महादैशिक, आम हुआ उन्मन में 'महाभागवत', रजनीचर सावधान में 'महातैथिक' तथा 'यौगिक', पागल हो क्या में 'लाक्षणिक' जातीय छंदों के विविध प्रकारों का प्रयोग विविध पंक्तियों में कुशलतापूर्वक किया गया है। मुखड़े और अंतरे में एक जाति के भिन्न छंद प्रयोग करने के साथ यायावर जी अँतरे की भिन्न पंक्तियों में भी भिन्न छंद का प्रयोग लय को क्षति पहुंचाए बिना कर लेते है जो अत्यंत दुष्कर है। 'इस शहर में' शीर्षक नवगीत में मुखड़ा यौगिक छंद में है जबकि तीन अंतरों में क्रमश: १२, ९, १२, ९, ९, १२ / १४, ७, १४, ७, १०, १८ तथा ७, ७, ७, ९, १२, २१ मात्रिक पंक्तियाँ है। कमाल यह कि इतने वैविध्य के बावजूद लय-भंग नहीं होती।  

नवगीतों से रास रचाते यायावर जी विसंगति और विषमत तक सीमित नहीं रहते। वे नवशा एयर युग परिवर्तन का आवाहन भी करते हैं। जागेंगे कुछ / जागरण गीत / सोयेंगे हिंसा, घृणा, द्वेष / हो अभय, हँसेंगे मंगलघट / स्वस्तिक को / भय का नहीं लेश / देखेगा संवत नया कि / जन-मन / फिर से सबल-समर्थ हुआ, चलो! रक्त की इन बूंदों से / थोड़े रक्तकमल बोते हैं / महका हुए चमन होते हैं, तोड़नी होंगी / दमन की श्रंखलायें / बस तभी, आश्वस्ति के / निर्झर झरेंगे आदि अभिव्यक्तियाँ नवगीत की जनगीति भावमुद्रा के निकट हैं। चंदनगंधी चुंबन गीले / सुधाकुम्भ रसवंत रसीले / वंशी का अनहद सम्मोहन, गंध नाचती महुआ वैन में / थिरकन-सिहरन जागी मन में, नीम की कोंपल हिलातीं / मृदु हवाएँ / तितलियाँ भौरों से मिलकर / गुनगुनायें / रातरानी ने सुरभि का / पत्र भेजा, एक मुरली ध्वनि / मधुर आनंद से भरती रही / रास में डूबी निशा में / चाँदनी झरती रही / 'गीत' कुछ 'गोविन्द' के / कुछ भ्रमर के, आलिंगनों की / गन्धमय सौगात में / रात की यह उर्वशी / बाँहें पसारे आ गयी / चंद्रवंशी पुरुरवा की / देह को सिहरा गयी / नृत्यरत केकी युगल / होने लगे / सर्वस्व खोये जैसी श्रंगारिक अभिव्यक्तियों को नवगीतों में गूंथ पाना यायावर जी के ही बस की बात है। 

नवगीत के संकीर्ण मानकों के पक्षधर ऐसे प्रयोगों पर भले ही नाक-भौंह सिकोड़ें नवगीत का भविष्य ऐसी उदात्त अभिव्यक्तियों से ही समृद्ध होगा। सामाजिक मर्यादाओं के विखंडन के इस संक्रमण काल में नवता की संयमित अबिव्यक्ति अपरिहार्य है। 'धनुर्धर गुजर प्रिया को / अनुज को ले साथ में / मूल्य, मर्यादा, समर्पण / शील को ले हाथ में' जैसी प्रेरक पंक्तियाँ पथ-प्रदर्शन करने में समर्थ हैं। नवगीत के नव मानकों के निर्धारण में 'झील अनबुझी प्यास की' के नवगीत महती भूमिका निभायेंगे।

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शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

tatank / lavani chhand

रसानंद दे छंद नर्मदा : १२
ताटंक छंद   
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सोलह-चौदह यतिमय दो पद, 'मगण' अंत में आया हो
रचें छंद ताटंक कर्ण का, आभूषण लहराया हो 
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ताटंक चार चरणों का अर्ध सम मात्रिक छंद है जिसके हर पद में ३० मात्राएँ १६-१४ की यति सहित होती हैं। पंक्त्यांत में 'मगण' आवश्यक है। प्राकृत पैंगलम् तथा छंदार्णव में इसे 'चउबोला' कहा गया है

सोलह मत्तः बेवि पमाणहु, बीअ चउत्थिह चारि दहा
   मत्तः सट्ठि समग्गल जाणहु. चारि पआ चउबोल कहा    

मात्रा बाँट: सरस सहज गति-यति के लिये विषम चरण में ४ मात्राओं के चार चौकल तथा सम पद में चार मात्राओं के ३ चौकल + एक गुरु उपयुक्त है

छंद विधान: यति १६ - १४, पदांत मगण (मातारा = गुरु गुरु गुरु), सम पदान्ती द्विपदिक मात्रिक छंद 
मराठी का लावणी छंद भी १६ - १४ मात्राओं का छन्द है किन्तु उसमें पदांत में मात्रा सम्बन्धी कोई नियम नहीं होता।)
  
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उदाहरण -
०१. आये हैं लड़ने चुनाव जो, सब्ज़ बाग़ दिखलायें क्यों?
     झूठे वादे करते नेता, किंचित नहीं निभायें क्यों?
     सत्ता पा घपले-घोटाले, करें नहीं शर्मायें क्यों?
     न्यायालय से दंडित हों, खुद को निर्दोष बतायें क्यों?

     जनगण को भारत माता को, करनी से भरमायें क्यों?
     ईश्वर! आँखें मूंदें बैठे, 'सलिल' न पिंड छुड़ायें क्यों?

०२. सोरह रत्न कला प्रतिपादहिं, व्है ताटंकै मो अंतै।
     तिहि को होत भलो जग संतत, सेवत हित सों जो संतै
     कृपा करैं ताही पर केशव, दीं दयाला कंसारी
     देहीं परम धाम निज पावन सकल पाप पुंजै जारी।  -जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' 

०३. कहो कौन हो दमयंती सी, तुम तरु के नीचे सोई
     हाय तुम्हें भी त्याग गया क्या, अलि! नल सा निष्ठुर कोई

०४. नृपति भगीरथ के पुरखे जब, तेरे जल को पायेंगे
     मोक्ष-मार्ग पर उछल-उछल वे तेरी महिमा गायेंगे
     मधुर कंठ से गंगे तेरा, सकल भुवन यश गायेगा
     जब तक सूरज-चाँद रहेगा, तेरा जल लहरायेगा।  - रामदेव लाल 'विभोर'

लावणी (शैलसुता) १६-१४, पदांत बंधन नहीं 
०५. शंभु जटा हिमवान से बनी, गंगा लट-लट में बहती
     अपनी अमर अलौकिक गाथा, लिप्त-लपट लट से कहती
     हर ने कहा अलौकिक गंगे, लट से अब ऊपर आजा
     नृपति भगीरथ के विधान हिट, गिरी कानन में लहरा जा।  - रामदेव लाल 'विभोर'
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laghu katha

लघुकथा:
हवा का रुख
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''कलमुँही पैले तो मांय मोंड़ा खों मोहजाल माँ फँसा खें छीन लै गयी, ऐसो जाड़े करो की मोंड़ा नें जीते जी मुड़ के भी नई देखो। मोंड़ा कहें खा के भी चैन नई परो, अब डुकरा-डुकरिया की छाती पे होरा भूंजबे आ गई नासपीटी।''

रोज सवेरे पड़ोस से धाराप्रवाह गालियों और बद्दुआओं को सुनकर हमें कभी शर्म, कभी क्रोध हो आता पर वह सफे डीडी सड़ी पहने चुप-चाप काम करते रहती मानो बहरी हो।

आज अखबार खोलते ही चौंका उसकी चित्र और पी.एस.सी.में चयन का समाचार था। बधाई देने जाऊँ तो मूंड़ मुंडाते ओले न पड़ जाएँ। सोच ही रहा था कि कुछ पत्रकार उसे खोजते हुए पहुँच गए। पहले तो डुकरो सबको भगाती रही पर जब पूरी बात समझ में आई तो अपनी बहू को दुर्गा ,लक्ष्मी, सरस्वती और म जाने काया-क्या कहकर उसका गुण बखानने लगी। सयानी थी, देर न लगाई पहचानने में हवा का रुख।
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गुरुवार, 7 जनवरी 2016

navgeet

एक रचना:
रार ठानते
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कल जो कहा
न आज मानते 
याद दिलाओ
रार ठानते
*
दायें बैठे तो कुछ कहते
बायें पैठे तो झुठलाते
सत्ता बिन कहते जनहित यह
सत्ता पा कुछ और बताते
तर्कों का शीर्षासन करते
बिना बात ही
भृकुटि तानते
कल जो कहा
न आज मानते
*
मत पाने के पहले थे कुछ
मत पाने के बाद हुए कुछ
पहले कभी न तनते देखा
नहीं चाहते अब मिलना झुक
इस की टोपी उस पर धरकर
रेती में से
तेल छानते
कल जो कहा
न आज मानते
*
जनसेवक मालिक बन बैठे
बाँह चढ़ाये, मूँछें ऐंठे
जितनी रोक बढ़ी सीमा पर
उतने ही ज्यादा घुसपैठे
बम भोले को भुला पटल बम
भोले बन त्रुटि
नहीं मानते
कल जो कहा
न आज मानते

saar chhand

रसानंद दे छंद नर्मदा : ११  [लेखमाला]- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

असार तज संसार सार गह    *
 
सार नाम के २ छंद हैं. १. मात्रिक २ वार्णिक 

१. यौगिक जातीय २८ मात्रिक सार छंद - प्रति पंक्ति २८ मात्रा, १६-१२ पर यति, पंक्त्यांत में २ गुरु। कभी-कभी सरसता के लिए गुरु लघु लघु या लघु लघु गुरु भी कर लिया जाता है।  
उदाहरण- 
१. धन्य नर्मदा तीर अलौकिक, करें तपस्या गौरा। 
२. मातृभूमि हित शीश कटाते, हँस सैनिक सीमा पर। 
३. नैन नशीले बिंधे ह्रदय में, मिलन हेतु मन तरसा। 

२. वार्णिक सार छंद - ७-७ पर यति 
उदाहरण -
१. गाओ गीत, होगी प्रीत जीतो हार, हो उद्धार। 
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मात्रिक सार छंद 
दोहा की तरह रचने में सरल तथा पढ़ने, गाने, सुनने में सरस सार छंद यौगिक जाति का द्विपदिक,द्विचरणीय मात्रिक छंद है जिसकी हर पंक्ति में १६-१२ मात्राओं पर यति सहित कुल २८ मात्राएँ होती हैं पंक्ति के अंत में गुरु गुरु, गुरु लघु लघु अथवा लघु लघु गुरु का विधान है माधुर्य की दृष्टि से पंक्त्यांत में दो गुरु होना श्रेष्ठ है
उदाहरण: 

०१. सुनिए, पढ़िये, कहिए जी भर,  सार छंद सुख देगा 

०२. नहीं सफलता दूर रहेगी, करिए कर्म निरंतर 

०३. भूत लात के बात न मानें, दूर करो सरहद से    

०४. राधा जपती श्याम नाम नित, राधा जपते गिरिधर 

०५. कोयल दीदी ! कोयल दीदी ! मन बसंत बौराया ।
       सुरभित अलसित मधुमय मौसम, रसिक हृदय को भाया ॥

       कोयल दीदी ! कोयल दीदी ! वन बसंत ले आयी ।
       कूं कूं उसकी प्यारी बोली, हर जन-मन को भायी ॥     -विंध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी ’विनय’ 

मराठी भाषा का साकी छंद 'सार' पर ही आधारित है 

श्री रघुवंशी ब्रम्ह-प्रार्थित लक्ष्मीपति अवतरला। 
विश्व सहित ज्याच्या जनकत्वें, कौशल्या धवतरला।।  

सार छंद को लेकर गरमी जनों ने एक रोचक प्रयोग किया है. प्रथम चरण में छन्न पकैया की २ आवृत्ति कर शेष ३ चरण समन्यानुसार कहे जाते हैं

उदाहरण- 
छन्न पकैया छन्न पकैया, बजे ऐश का बाजा,
भूखी मरती जाये परजा, मौज उडाये राजा |

छन्न पकैया छन्न पकैया, सब वोटों की गोटी,
भूखे नंगे दल्ले भी अब ,खायें दारु बोटी | 

छन्न पकैया छन्न पकैया, देख रहे हो कक्का,
जितने कि बाहुबली यहाँ पर, टिकट सभी का पक्का |

छन्न पकैया छन्न पकैया, हर जुबान ये बातें
मस्ती मस्ती दिन हैं सारे, नशा नशा सी रातें |

छन्न पकैया छन्न पकैया, डर के पतझड़ भागे 
सारी धरती ही मुझको तो, दुल्हन जैसी लागे |

छन्न पकैया छन्न पकैया, बात बनी है तगड़ी 
बूढे अमलतास के सर पर, पीली पीली पगड़ी |   -योगराज प्रभाकर 

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