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शनिवार, 22 अगस्त 2015

muktika

मुक्तिका:
*
तन माटी सा, मन सोना हो
नभ चादर, धरा बिछौना हो

साँसों की बहू नवेली का
आसों के वर सँग गौना हो

पछुआ लय, रस पुरवैया हो
मलयानिल छंद सलोना हो

खुशियाँ सरसों फूलें बरसों
मृग गीत, मुक्तिका छौना हो

मधुबन में कवि मन झूम उठे
करतल ध्वनि जादू-टोना हो
*

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

navgeet

एक रचना:
संजीव
*
सब्जी-चाँवल,
आटा-दाल
देख रसोई
हुई निहाल
*
चूहा झाँके आँखें फाड़
बना कनस्तर खाली आड़  
चूल्हा काँखा, विवश जला
ज्यों-त्यों ऊगा सूर्य, बला
धुँआ करें सीती लकड़ी
खों-खों सुन भागी मकड़ी
फूँक मार बेहाल हुई
घर-लछमी चुप लाल हुई
गौरैया झींके
बदहाल
मुनिया जाएगी
हुआ बबाल
*
माचिस-तीली आग लगा
झुलसी देता समय दगा
दाना ले झटपट भागी
चीटी सह न सकी आगी
कैथ, चटनी, नोंन, मिरच
प्याज़ याद आये, सच बच
आसमान को छूटे भाव
जैसे-तैसे करें निभाव
तिलचट्टा है
सुस्त निढाल
छिपी छिपकली
बन कर काल 
*
पुंगी रोटी खा लल्ला
हँस थामे धोती पल्ला
सदा सुहागन लाई चाय
मगन मोगरा करता हाय
खनकी चूड़ी दैया रे!
पायल बाजी मैया रे!
नैन उठे मिल झुक हैं बंद
कहे-अनकहे मादक छंद
दो दिल धड़के,
कर करताल
बजा मँजीरा
लख भूचाल
*
'दाल जल रही' कह निकरी
डुकरो कहे 'बहू बिगरी,
मत बौरा, जा टैम भया
रासन लइयो साँझ नया'
दमा खाँसता, झुकी कमर
उमर घटे पर रोग अमर
चूं-चूं खोल किवार निकल
जाते हेरे नज़र पिघल
'गबरू कभऊँ 
न होय निढाल
करियो किरपा
राम दयाल'


 

  

गुरुवार, 13 अगस्त 2015

पुरस्कार समाचार

अभिव्यक्ति: 
ओमप्रकाश तिवारी तथा आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' पुरस्कृत 
सभी पाठकों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएँ। स्वतंत्रता दिवस का यह दिन अभिव्यक्ति के लिये भी विशेष है क्यों कि १५ अगस्त २०१५ को अभिव्यक्ति अपने जीवन के १५ साल पूरे कर के १६वें में प्रवेश कर रही है। वर्ष २००० में १५ अगस्त को इसका पहला अंक प्रकाशित हुआ था। यों तो इसका जन्म दिसंबर १९९६ में जियोसिटीज पर हो चुका था लेकिन हिंदी फांट के अभाव और इंटरनेट पर हिंदी सपोर्ट न होने के कारण इसे यह रूप लेते लेते वर्ष २००० का समय आ गया, और तब से आज तक यह नियमित रूप से प्रकाशित हो रही है कभी भी कोई अंक स्थगित या संयुक्त नहीं बना। इसकी इस निरंतर गति में हमारी टीम, हमारे पाठकों और लेखकों का महत्वपूर्ण योगदान है जिसके लिये हम सभी के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं। आशा है आपका यह स्नेह और सौहार्द आगे भी बना रहेगा।
नवांकुर पुरस्कार
स्वतंत्रता दिवस का दिन अभिव्यक्ति विश्वम से जुड़े नवगीत रचनाकारों के योगदान को रेखांकित करने के लिये नवांकुर पुरस्कारों की घोषणा का भी है। यह पुरस्कार प्रतिवर्ष उस रचनाकार के पहले नवगीत-संग्रह की पांडुलिपि को दिया जाता है, जिसने अनुभूति और नवगीत की पाठशाला से जुड़कर नवगीत के अंतरराष्ट्रीय विकास की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो। पुरस्कार में ११,००० भारतीय रुपये, एक स्मृति चिह्न और प्रमाणपत्र प्रदान किये जाते हैं। यह पुरस्कार लखनऊ में नवगीत महोत्सव के वार्षिक आयोजन में वरिष्ठ नवगीतकारों की उपस्थिति में प्रदान किया जाता है।
इस बार दो नवगीतकारों को पुरस्कृत किये जाने का निर्णय लिया गया है-
*
२०१४ के लिये ओमप्रकाश तिवारी को उनके प्रकाशित नवगीत संग्रह ''खिड़कियाँ खोलो'' के लिये, तथा
*
२०१५ के लिये आचार्य संजीव वर्मा सलिल को उनके शीघ्र प्रकाश्य नवगीत संग्रह ''सड़क पर'' के लिये।
*
यह पुरस्कार वर्ष २०११ से प्रारंभ किया गया था। पिछले तीन वर्षों में इससे क्रमशः कल्पना रामानी, अवनीश सिंह चौहान तथा रोहित रूसिया को सम्मानित किया जा चुका है।
हम अभिव्यक्ति परिवार की ओर से इन रचनाकारों का अभिनंदन करते हैं और इनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं।
पूर्णिमा वर्मन
(टीम अभिव्यक्ति की ओर से)
१० अगस्त २०१५
purnima.varman@gmail.com

navgeet :

नवगीत:
संजीव
*
हल्ला-गुल्ला
शोर-शराबा
*
जंगल में
जनतंत्र आ गया
पशु खुश हैं
मन-मंत्र भा गया
गुराएँ-चीखें-रम्भाएँ
काँव-काँव का
यंत्र भा गया
कपटी गीदड़
पूजता बाबा
हल्ला-गुल्ला
शोर-शराबा
*
शतुरमुर्ग-गर्दभ
हैं प्रतिनिधि
स्वार्थ साधते
गेंडे हर विधि
शूकर संविधान
परिषद में
गिद्ध रखें
परदेश में निधि
पापी जाते
काशी-काबा
हल्ला-गुल्ला
शोर-शराबा
*
मानुष कैट-वाक्
करते हैं 
भौंक-झपट
लड़ते-भिड़ते हैं
खुद कानून
बनाकर-तोड़ें
कुचल निबल
मातम करते हैं
मिटी रसोई
बसते ढाबा
हल्ला-गुल्ला
शोर-शराबा
*
 

मंगलवार, 11 अगस्त 2015

muktika

मुक्तिका:
मापनी: 212 212 212 212
छंद: महादैशिक जातीय, तगंत प्लवंगम
तुकांत (काफ़िआ): आ
पदांत (रदीफ़): चाहिये
बह्र: फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
*
बात को जानते मानते हैं सदा
बात हो मानने योग्य तो ही कहें

वायदों को कभी तोडियेगा नहीं
कायदों का तकाज़ा नहीं भूलिए

बाँह में जो रही चाह में वो नहीं
चाह में जो रहे बाँह में थामिए

जा सकेंगे दिलों से कभी भी नहीं
जो दिलों में बसे हैं, नहीं जाएँगे

रौशनी की कसम हम पतंगे 'सलिल'
जां शमा पर लुटा के भी मुस्काएँगे 
 
***

muktika

मुक्तिका:
मापनी: 212 212 212 212
छंद: महादैशिक जातीय, तगंत प्लवंगम
तुकांत (काफ़िआ): आ
पदांत (रदीफ़): चाहिये
बह्र: फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
*
बोलना छोड़िए मौन हो सोचिए
बागबां कौन हो मौन हो सोचिए

रौंदते जो रहे तितलियों को सदा
रोकना है उन्हें मौन हो सोचिए

बोलते-बोलते भौंकने वे लगे
सांसदी क्यों चुने हो मौन हो सोचिए

आस का, प्यास का है हमें डर नहीं
त्रास का नाश हो मौन हो सोचिए

देह को चाहते, पूजते, भोगते
खुद खुदी चुक गये मौन हो सोचिए

मंदिरों में तलाशा जिसे ना मिला
वो मिला आत्म में ही छिपा सोचिए

छोड़ संजीवनी खा रहे संखिया
मौत अंजाम हो मौन हो सोचिए
***

सोमवार, 10 अगस्त 2015

navgeet

नवगीत :
संजीव
*
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
मैं ना दैहौं तन्नक काऊ
*
बम भोले है अपनी जनता
देती छप्पर फाड़ के.
जो पाता वो खींच चीथड़े
मोल लगाता हाड़ के.
नेता, अफसर, सेठ त्रयी मिल
तीन तिलंगे कूटते.
पत्रकार चंडाल चौकड़ी
बना प्रजा को लूटते.
किससे गिला शिकायत शिकवा
करें न्याय भी बंदी है.
पुलिस नहीं रक्षक, भक्षक है
थाना दंदी-फंदी है.
काले कोट लगाये पहरा
मनमर्जी करते भाऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
मैं ना दैहौं तन्नक काऊ
*
पण्डे डंडे हो मुस्टंडे
घात करें विश्वास में.
व्यापम झेल रहे बरसों से
बच्चे कठिन प्रयास में.
मार रहे मरते मरीज को
डॉक्टर भूले लाज-शरम.
संसद में गुंडागर्दी है
टूट रहे हैं सभी भरम.
सीमा से आतंक घुस रहा
कहिए किसको फ़िक्र है?
जो शहीद होते क्या उनका
इतिहासों में ज़िक्र है?
पैसे वाले पद्म पा रहे
ता लीपीट रहे दाऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
मैं ना दैहौं तन्नक काऊ
*
सेवा से मेवा पाने की
रीति-नीति बिसरायी है.
मेवा पाने ढोंग बनी सेवा
खुद से शरमायी है.
दूरदर्शनी दुनिया नकली
निकट आ घुसी है घर में.
अंग्रेजी ने सेंध लगा ली
हिंदी भाषा के स्वर में.
मस्त रो मस्ती में, चाहे
आग लगी हो बस्ती में.
नंगे नाच पढ़ाते ऐसे
पाठ जान गयी सस्ते में.
आम आदमी समझ न पाये
छुरा भौंकते हैं ताऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
मैं ना दैहौं तन्नक काऊ
*

रविवार, 9 अगस्त 2015

आओ फिर से दीया जलाएं






आओ फिर से दीया जलाएं

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर
मो ९४२५८०६२५२

भरी दोपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोडें-
बुझी हुई बाती सुलगाएं,
आओ फिर से दीया जलाएं

             जैसा हम चिन्तन करते हैं, भविष्य में वही हमारा भाग्य बन जाता है। इसलिये विचार हमारे भविष्य के निर्माता हैं। हमारे व्यक्तित्व का विकास भूतकाल के विचारों से ही हुआ है .  अतः विचारों के आते ही मन में यह चिन्तन करना नितान्त अपरिहार्य हो जाता है कि ये किस प्रकार के हैं- ये सकारात्मक हैं अथवा नकारात्मक। यदि हम चाहते हैं कि भविष्य हमें स्वीकार करे,  तो हमें सकारात्मक विचारों को ही अपने मन में स्थान देना चाहिये . प्रश्न उठता है कि सकारात्मक और नकारात्मक विचारों को कैसे  पहिचाना जाये ? विचार समसामयिक घटनाओ तथा परिवेश से ही उपजते हैं , आज हमारे समाज में कतिपय राजनेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों, सत्ता के दलालों के जमावडे के गठजोड ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थो के लिये देश और समाज को निगल जाने के हर सम्भव यत्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ी  है। इससे हमारे मन में नैराश्य तथा ॠणात्मक विचार आना स्वाभावविक है , ऐसे लोगो की तात्कालिक भौतिक सफलतायें देककर विभ्रम होता है , और उनके अपनाये गलत तरीको का ही अनुसरण करने का मन होता है .
      राग-द्वेष से ऊपर उठकर मन्थन करने पर सरलता से शुभ और अशुभ , सही और गलत का निर्णय किया जा  सकता है। हमारे वेद पुराण तथा सभी धर्मो के विभिन्न ग्रंथ  हमें शुभ संकल्प करने के लिये प्रेरित और अशुभ संकल्प के लिये हतोत्साहित करते हैं । यजुर्वेद में कहा गया है कि जिस प्रकार कुशल सारथि रथ के अश्वों को जहाँ चाहता है, वहाँ ले जाता है, उसी प्रकार यह मन भी मनुष्य को पता नहीं कहाँ-कहाँ ले जाता है। इसका समाधान प्रस्तुत करता हुआ  मन्त्र कहता है कि जिस प्रकार रश्मि की सहायता से सारथी अश्वों पर नियन्त्रण करता है, उसी प्रकार आत्मा रूपी सारथी यदि सावधान हो तो मन पर नियन्त्रण किया जा सकता है।
      विज्ञान सम्मत  तथ्य है कि एक दिन में मनुष्य के मन में लगभग 60 हजार विचार आते हैं  पुनः पुनः आवृत्ति करने वाले विचारों में उन विचारों की प्रमुखता होती है जो चिन्ता का कारण हेते हैं। हमारे मन का स्वभाव है कि यह राम तत्व की अपेक्षा रावण तत्व का अधिक विचार करता है। इसका कारण यह है कि प्राप्त की अपेक्षा अप्राप्त की चिन्ता मनुष्य को अधिक सताती है। जो हमें मिला हुआ है, उसके सुख का अनुभव करने के मुकाबले हम जो नहीं मिला हुआ है, उसके प्रति  अधिक सजग रहते हैं । इसलिये चिन्तन की दिशा फल पर न होकर कर्म पर रहे तो फल की अप्राप्ति में आने वाली दुश्चिन्ताओं से मुक्ति पाई जा सकती है।
गीता में इसी लिये कहा गया है ..
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
      इस प्रकार मन में आत्म उत्थान तथा समाज उत्थान की कामना हो, विचार तदनुकूल हों तो फिर सफलता को प्राप्त करने से कोई कैसे रोक सकता है? ऐसे विचार सफलता का निष्कण्टक मार्ग हैं। हमारे विचारो में बृहत् सत्य होना चाहिये अर्थात् ऐसा सत्य हो जो स्व और पर के भेद से ऊपर हो, केवल अपने या कुछ लोगों के स्वार्थ को ध्यान में रखकर जो लक्ष्य निर्धारित किया जाता है, वह संकुचित हो सकता है, अतः वेद के अनुसार जीवन के लिये निर्धारित किया गया लक्ष्य महान् सत्य होना चाहिये , जो सबके लिये हितकर हो . उस लक्ष्य की ओर कठोरता के साथ, तेजस्विता के साथ, प्राणों की पूरी शक्ति के साथ , प्रयास किया जाना चाहिये। वैचारिक संकल्प यदि व्रत का रूप ले लेता है, तो फिर उसके सफल होने की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है। अन्यथा कितना भी महान् उद्देश्य हो, संकल्पशक्ति के अभाव में वह चूर-चूर होकर धराशायी हो जाता है। अच्छे संकल्प करने वाले लोग बहुत होते हैं, लेकिन उनमें से कुछ ही अपने लक्ष्य को प्राप्त  कर पाते हैं,सफलता का मात्र कारण यही है कि उनकी संकल्पशक्ति कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होती।  तो आइये सकारात्मक विचारो का दीप प्रज्जवलित करें . पूर्व प्रधानमंत्री  अटल बिहारी वाजपेयी की पंक्तियो को साकार करें ...
'आओ फिर से दीया जलाएं"

रात काले बादलो की

रात काले बादलो की

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव
                                 ओ.बी. 11, एमपीईबी कालोनी
                                      रामपुर, जबलपुर
                                      मो.9425806252

आ  गई सजधज संवर बारात काले बादलो की
छा गई नभ मे उमडकर पांत काले बादलो की

जल रहे थे सब धरा पर तेज झुलसाती तपन थी
सुधि भुलाये से पडे थे लोग व्याकुल तब बदन की
तभी दर्षन दे सुहावन दो अमृत बूंदे गिराकर
दे गई थी सूचना बदली पवन संग आगमन की
कान मे कुछ कह सलोनी बात काले बादलो की

धरा पुलकित लोग प्रमुदित प्रकृति पै नव रंग छाया
मधुरता वातावरण मंे भर मलय वातास आया
मिली शीतलता बदन को सांस को आभास मीठा
लहरती ठंडी फुहारो ने सुखद उत्सव रचाया
आई फिर बरसात ले सौगात काले बादलो की

समाया उल्लास धरती गगन के हर एक कण मे
सिंधु लहरे ले चला हर नयन मे हर एक मन मे
सभी जड चेतन मगन से प्राण जैसे हो गये सब
मौन उत्कंठा अपरिमित भर रही सपने नयन मे
रात भर सोने न देगी रात काले बादलो की

Raghuvansham : kalidash Mahakavya by Prof C B Shrivastava

श्रीमद् भगवत गीता : प्रो सी बी श्रीवास्तव 'विदग्ध': हिन्दी पद्यानुवादक प्रो सी बी श्रीवास्तव 'विदग्ध'

शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

muktika / hindi gazal

विशेष आलेख: 

मुक्तिका / ग़ज़ल

संजीव
*

मुक्तिका: संस्कृत साहित्य से हिंदी में और अरबी-फ़ारसी साहित्य से उर्दू में एक विशिष्ट शिल्प की काव्य रचनाओं की परंपरा विकसित हुई जिसे ग़ज़ल या मुक्तिका कहा जाता है. इसमें सभी काव्य पंक्तियाँ समान पदभार (वज़्न) की होती हैं. इसके साथ सभी पंक्तियों की लय अर्थात गति-यति समान होती है. पहली दो पंक्तियों में तथा इसके बाद एक पंक्ति को छोड़कर हर दूसरी पंक्ति में तुकांत-पदांत (काफ़िया-रदीफ़) समान होता है. रचना की अंतिम द्विपदी (शे'र) में रचनाकार अपना नाम/उपनाम दे सकता है.

गीतिका: गीतिका हिंदी छंद शास्त्र में एक स्वतंत्र मात्रिक छंद है जिसमें १४-१२ = २६ मात्राएँ हर पंक्ति में होती हैं तथा पंक्त्यांत में लघु-गुरु होता है. इस छंद का मुक्तिका या ग़ज़ल से कुछ लेना-है.
उदहारण : 
रत्न रवि कल धारि कै लग, अंत रचिए गीतिका 
क्यों बि सारे श्याम सुंदर, यह धरी अनरीति का 
पायके नर जन्म प्यारे, कृष्ण के गुण गाइये 
पाद पंकज हीय में धरि, जन्म को फल पाइए
इस छंद में तीसरी, दसवीं, स्रहवींऔर चौबीसवीं मात्राएँ लघु होती हैं.


हिंदी ग़ज़ल को भ्रमवश 'मुक्तिका' नाम दे दिया गया है जो उक्त तथ्य के प्रकाश में सही नहीं है. मुक्तिका सार्थक है क्योंकि इस शिल्प की रचनाओं में हर दो पंक्तियों में भाव, बिम्ब या बात पूर्ण हो जाती है तथा किसी द्विपदी का अन्य द्विपदियों से कोई सरोकार नहीं होता।

कवि (शायर) = कहने / लिखनेवाला.

द्विपदी (शे'र बहुवचन अशआर) = दो पंक्तियाँ जिनका पदभार (वज़्न) तथा छंद समान हो.

शे'र = जानना, अथवा जानी हुई बात.  
 
पंक्ति (मिसरा) = शे'र का आधा हिस्सा , दो मिसरे मिलकर शे'र बनता है. शे'र के दोनों मिसरों का एक ही छंद में तथा किसी बह्र के वज़्न पर होना जरूरी है. द्विपदी में ऐसा बंधन है तो पर कड़ाई से पालन नहीं किया जाता है.
पदांत / पंक्त्यान्त (रदीफ़, बहुवचन रदाइफ) = पंक्ति दुहराया जानेवाला अक्षर, शब्द या शब्द समूह.

तुकांत (काफ़िया, बहुवचन कवाफ़ी) = रदीफ़ के पहले प्रयुक्त ऐसे शब्द जिनका अंतिम भाग समान हो.

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कमल के फूल कुम्हलाने लगे हैं

दुष्यंत कुमार की इस ग़ज़ल में पहली दो पक्तियाँ मुखड़ा (मतला) हैं. 'लगे हैं' पदांत (रदीफ़) है जबकि 'आ' की मात्रा तथा 'ने' तुकांत (काफ़िया) है. काफ़िया केवल मात्रा भी हो सकती है.

पदांत (रदीफ़) छोटा हो तो ग़ज़ल कहना आसान होता है किन्तु उस्ताद शायरों ने बड़े रदीफ़ की गज़लें भी कही हैं. मोमिन की प्रसिद्ध ग़ज़ल के दो अशआर:
कभी हममें तुममें भी चाह थी, कभी हममें तुममें भी राह थी 
कभी हम भी तुम भी थे आशना, तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे पेशतर, वो करम कि था मिरे हाल पर
मुझे याद सब है ज़रा-ज़रा, तुम्हें याद हो कि न याद हो

यहाँ 'आशना' तथा 'ज़रा' कवाफी हैं जिनमें सिर्फ बड़े आ की मात्रा समान है जबकि सात शब्दों का रदीफ़ ' तुम्हें याद हो कि न याद हो' है.

द्विपदी / मुक्तक / बैत = स्फुट (फुटकर) कही गयी द्विपदी या अवसर विशेष पर कही गयी द्विपदी। इनकी प्रतियोगिता (मुकाबला) को अंत्याक्षरी (बैतबाजी) कहा जाता है.

आरंभिका / उदयिका (मतला): मुक्तिका दो पंक्तियाँ जिनमें समान पदांत-तुकांत हो मुखड़ा (मतला) कही जाती हैं. सामन्यतः एक मतले का चलन (रिवाज़) है किन्तु कवि (शायर) एक से अधिक मतले कह सकता है. दूसरे मतले को मतला सनी, तीसरे मतले को मतला सोम, चौथे मतले को मतला चहारम आदि कहा जाता है. उस्ताद शायर शौक ने १० मतलों की ग़ज़ल भी कही है, जिसमें रदीफ़ भी है. गीत में मुखड़ा, स्थाई अथवा संगीत में टेक पंक्तियाँ जो भूमिका निभाती हैं लगभग वैसी ही भूमिका मुक्तिका में आरंभिका या मतला की होती है.

अंतिका / मक़्ता: मुक्तिका की अंतिम द्विपदी मक़्ता कहलाती है. रचनाकार चाहे तो इन पन्क्तियों में अपना नाम या उपनाम (तखल्लुस) या दोनों रख सकता है.  

उपनाम (तखल्लुस): बहुधा प्रसिद्ध शायरों के असली नाम लोग भूल जाते हैं, सिर्फ उपनाम याद रह जाते हैं, जैसे नीरज, बच्चन, साहिर आदि. कुछ शायर नाम को ही तखल्लुस बना लेते हैं. यथा- फैज़ अहमद फैज़, अपने स्थान का नाम भी तखल्लुस का आधार हो सकता है. जैसे: बिलग्रामी, गोरखपुरी आदि. शायर एक से अधिक तखल्लुस भी रख सकते हैं. यथा मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ ने 'असद' तथा 'ग़ालिब' तखल्लुस रखे थे. शायर मतले और मक़ते दोनों में तखल्लुस का प्रयोग कर सकते हैं.

हर जिस्म दाग़-दाग़ था लेकिन 'फ़राज़' हम
बदनाम यूँ हुए कि बदन पर क़बा न थी
.
जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा
तो हमसाया काहे को सोता रहेगा

बस ऐ 'मीर' मिज़गां से पोंछ आंसुओं को
तू कब तक ये मोती पिरोता रहेगा?

परामर्श (इस्लाह): इसे आम बोलचाल में 'सलाह' कहा जाता है. इसका उद्देश्य सुधार होता है. साहित्य के क्षेत्र में रचनाकार किसी विद्वान गुरु (उस्ताद) को अपनी रचना दिखाकर उसके दोष दूर करवाता है तथा रचना की गुणवत्ता वृद्धि के लिये परिवर्तन (बदलाव) करता है. यही इस्लाह लेना है. रचना-विधान की जानकारी तथा रचना सामर्थ्य हो जाने पर गुरु (उस्ताद) शिष्य (शागिर्द) को परामर्श मुक्त (फारिगुल इस्लाह) घोषित करता है, तब वह स्वतंत्र रूप से काव्य .रचना कर सकता है.हिंदी में अब यह परंपरा बहुत कम है. रचनाकार प्राय: किसी से नहीं सीखते या आधा-अधूरा सीखकर ही लिखने लगते हैं.

भार (वज़्न): काव्य पंक्तिओं को जाँचने के लिये मापदंड या पैमाने यह हैं, इन्हें छंद (बह्र) कहते हैं. बह्र का शब्दार्थ 'समुद्र' है. छंद में अभिव्यक्ति के सम्भावना समुद्र की तरह असीम-अथाह होती है इस भावार्थ में 'बह्र' छंद का पर्याय है. हिंदी में काव्य पंक्तिओं के छंद की गणना मात्रा तथा वारं आधारों पर की जाती है तथा उन्हें मात्रिक तथा वर्णिक छंद में वर्गीकृत किया गया है. उर्दू में लय खण्डों का प्रयोग किया गया है.

तक़तीअ: तक़तीअ का शब्दकोषीय अर्थ 'टुकड़े करना' है. हिंदी का छंद-विन्यास उर्दू का तक़तीअ है. शब्द-विभाजन गण या गण समूह (रुक्न बहुवचन अरकान) के भार पर आधारित होता है.

गण (रुक्न): रुक्न का शाब्दिक अर्थ स्तम्भ है. छंद रचना में गण (शब्द समूह) स्तम्भ के तरह होते हैं जिन पर छंद-भवन का भार होता है. गण ठीक न हो तो छंद ठीक हो ही नहीं सकता।

छंद (बह्र): संस्कृत-हिंदी पिंगल के धारा, प्रामणिका, रसमंजरी आदि छंदों की तरह उर्दू में भी कई छंद ( बह्रें) हैं. जैसे  बह्रे-रमल, बह्रे-हज़ज आदि. कुछ नयमों का पालन कर नये अरकान तथा छंद बनाये जा सकते हैं. अरबी फ़ारसी में प्रचलित मूल बह्रें १९ हैं जिनमें से ७ में एक ही रुक्न की आवृत्ति (दुहराव) होता है. इन्हें मुदर्रफ़ बह्र (एकल छंद) कहा जाता है. शेष १२ बह्रों में एक से अधिक अरकान का प्रयोग किया जाता है. ये मुरक्कब बह्रें (यौगिक छंद) कहलाती हैं.