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बुधवार, 15 अप्रैल 2015

suggestions for improvements in coaches

https://www.localcircles.com/a/home?t=c&pid=tJWDnOuaxjEFbvkoxFAyqTTk7iNDexn5vIZ7PJJ78PM

१. डब्बों की सभी श्रेणियों तथा स्टेशनों पर शौचालयों के निर्माण में पुरुष / स्त्री, सामान्य /अशक्त-वृद्ध जनों / बच्चों का ध्यान रखकर संख्या तथा उपादान लगाये जाना चाहिए.

२. शौच की प्राकृतिक अनिवार्यता के मद्देनज़र यह सुविधा निशुल्क हो ताकि किसी की जेब में मुद्रा न होने पर भी उसे सार्वजनिक स्थल पर मल-मूत्र त्याग न करना पड़े.

३. रेलगाड़ी में वाश बेसिन बच्चों की कम ऊँचाई के अनुकूल नहीं हैं.

४. अस्थि रोग ग्रस्त यात्रियों को बढ़ती संख्या को देखते हुए हर डब्बे में दोनों छोर पर एक-एक कमोड (पश्चिमी शैली) युक्त शौचालय हो.

५. लंबी दूरी की रेलगाड़ियों में शावर हो तो स्नान की सुविधा हो सकती है.

६. वातानुकूलित डब्बों में आम यात्री के लिए परदे की कोई उपयोगिता नहीं है. यह अपव्यय रोका जा सकता है.

७. वातानुकूलित डब्बों में टॉवल / नेप्किन नहीं दिया जाता, टिकिट निरीक्षक यात्री से इसकी पुष्टि करें तो यात्री यह सुविधा पा सकेंगे.

८. ऊपरी शायिका पर सो रहे बच्चों के गिरने की दुर्घटना रोकने के लिए खुले छोर पर जाली की रेलिंग हो जिसे चाहने पर शायिका के नीचे मोड़ा जा सके.

९. बाजू की बीच की शायिका तत्काल हटाई जाए. इस पर बैठना या सामान रख पाना संभव नहीं होता.

१०.कम वज़न के तथा दुमंजिले डब्बे बनायें जा सकते हैं जो दोगुने यात्रियों को ले जा सकेंगे.

११. वृद्धों, महिलाओं, अशक्तों तथा बच्चों को ऊपरी शायिका आवंटित होने पर चढ़ने हेतु सुविधाजनक सीढ़ी हो. आड़े गोल पाइपों के स्थान पर चौड़े चौकोर पाइप हो तथा उनकी संख्या बढ़ा दी जाए.

१२. खतरे की ज़ंजीर खिड़की के ऊपर हो ताकि खतरे के समय कम ऊँचाई के यात्री भी खींच सकें.

१३. डब्बे अग्निरोधी हलके पदार्थ के हों.

१४. यात्रियों का अनुमति से अधिक सामान लगेज वान में रखकर तुरंत पावती देने तथा उअतारते समय पावती दिखानेपर सामान देने की व्यवस्था हो तो डब्बों में सामान की भरमार न होगी, यात्रा सुविधाजनक होगी.

१५.प्रतीक्षालय तथा विश्राम कक्षों में अधिकाधिक शायिकाएं हों. पुराने बड़े सभागारनुमा कक्षा में १-२ शायिका रखने का चलन बंद हो.

१६. रेलगाड़ियों के शौचालयों के नीचे ऐसी व्यवस्था हो की स्टेशन पर मल-मूत्र नीचे न गिरे तथा रेल रवाना होने के बाद बस्ती के बाहर निर्धारित स्थान पर चालक लीवर खींचकर मल-मूत्र नीचे गिरा सके.

१७. कचरा फेंकने का स्थान कम पड़ता है. वातानुकूलित डब्बों में वाश बेसिन के नीचे कचरे के डब्बे का आकार बढ़ाया जाए.

१८. खड़े होकर यात्रा कर रहे यात्रियों के लिए सामान्य तथा थ्री टायर डब्बों में मेट्रोट्रेन की तरह आड़े पाइप लगाकर पकड़ने के लिए लूप हों.

१९. अशक्त जनों के लिए विशेष डब्बे में शायिका संख्या बढ़ाई जाए तथा एक अशक्त के साथ एक सहायक के बैठने हेतु व्यवस्था हो.

२०. अशक्तजनों हेतु शौचालय का आकर बड़ा रखने के स्थान पर जगह-जगह पकड़ने तथा टिककर सहारा लेने के लिये  उपकरण हों.

२१. सूचना पटल पर तथा उद्घोषणाओं में हिंदी, स्थानीय भाषा हो. आवश्यक प्रतीत होने पर अंत में अंग्रेजी का प्रयोग हो.
Sanjiv verma 'Salil', 94251 83244
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

bharteeya railpath : suggestions


​​
भारतीय रेल द्वारा निम्न लिंक पर सुझाव आमंत्रित हैं, आप भी अपने सुझाव भेजें. 

https://www.localcircles.com/a/home?t=c&pid=Wkh0JPv7r7h8THiYuCc2ijERcawz8XRARzrl_9uaKY8

नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन को अधिक सुविधाजनक बनाने हेतु सुझाव: 

१. सभी सूचना फलक,प्रपत्र तथा घोषणाओं में सामान्यतः बोली जा रही हिंदी का प्रयोग अधिकतम और सर्वप्रथम हो. 

२. मुसाफिरखाने और विश्राम स्थलों में अद्यतन (अप टू डेट) तथा सही सूचनाएं देते विद्युत् सूचना पटल हों. पूछताछ  खिड़की पर बैठे कर्मी सहयोगी रवैया रखें, पूछनेवाले की अनदेखी न करें, टालें या दुत्कारें नहीं.

३. शौचालयों की संख्या तथा स्थान बढ़ाए जायें व् स्वच्छ रखे जाएँ. 

४. विश्राम कक्षों में शायिकाओ की संख्या वृद्धि हो.

५. किसी रेलगाड़ी में चढ़ाने के लिए उससे कुछ पूर्व निकट के अन्य स्टेशनों से अन्य ट्रेनों में बिना अतिरिक्त टिकिट लिये सामान्य डब्बे में सवार होकर आने की सुविधा हो.  

६. किसी स्टेशन पर ट्रेन समाप्त होने पर उसी शहर के अन्य स्टेशन तक जाने के लिए सामान्य डब्बे में उसी टिकिट पर पात्रता हो. 

७. रेलवे स्टेशन और समीप स्थित मेट्रो स्टेशन से आवागमन हेतु सार्वजनिक वाहन टेम्पो आदि की सुनिश्चितता पूर्व भुगतान [प्री पेड] बूथ की तरह हो. 

८. निर्धारित वज़न से अधिक सामान की तौलकर भाडा लेने और लगेजवान में लोड करने तथा गंतव्य स्थल पर पावती दिखाने पर तुरंत देने की व्यवस्था हो तो सवारी डब्बों में असुविधा कम होगी. 

९. बहुसंख्यक आम यात्रियों के आवागमन हेतु  स्टेशन के मुख्या द्वार से सीधा और सबसे छोटा मार्ग हो जबकि चाँद महत्वपूर्ण व्यक्तियों के लिये इंजिन के तुरंत बाद डब्बा हो, और अलग से प्रवेश हो जहाँ केवल यात्री जा सके उसके साथ की भीड़ नहीं जा सके. इस डब्बे में आधा महत्वपूर्ण व्यक्ति हेतु हो तथा आधा शारीरिक अक्षम यात्री हेतु हो. इसके तुरंत बाद में महिला डब्बा तथा सामान्य डब्बा हो. यह व्यवस्था हर रेलगाड़ी में हर स्टेशन पर हो तो प्लेटफोर्म पर भीड़ कम होगी. 

१०. महत्वपूर्ण व्यक्तियों के चढ़ने की व्यवस्था मुख्या स्टेशन से न होकर समीपस्थ उपस्टेशन से की जाना भी एक उपाय हो सकता है. 

११. कैंटीन भूतल पर न होकर प्रथम तल पर हो. भूतल पर रेल में बैठे यात्री हेतु सामग्री विक्रेता मात्र हों. विक्रय हेतु उपलब्ध सामग्री के दाम मोटे अक्षरों में अंकित हों, सामग्री का वज़न, निर्माण तिथि तथा उपयोग की अंतिम तिथि भी अंकित हो. 

१२. किनारे के प्लेटफोर्म से बीच के प्लेटफ़ॉर्मों तक जाने के लिए एस्केलेटर या ट्रोली हो.
 
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 
 

गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

kundaliya: baans -sanjiv

कुण्डलिया
बाँस
संजीव
.
बाँस सदृश दुबले रहें, 'सलिल' न व्यापे रोग
संयम पथ अपनाइए, अधिक न करिए भोग
अधिक न करिए भोग, योग जन सेवा का है
सत्ता पा पथ वरा, वही जो मेवा का है
जनगण सभी निराश, मन ही मन कुढ़ते रहें
नहीं मुटायें आप, बाँस सदृश दुबले रहें
.
राग-द्वेष करता नहीं, चाहे सबकी खैर
काम सभी के आ रहा, बाँस न पाले बैर
बाँस न पाले बैर, न अंतर बढ़ने देना
दे-पाना सम्मान, बाँट-खा चना-चबेना
लाठी होता बाँस, गर्व कभी करता नहीं
'सलिल' निभाता साथ, राग द्वेष करता नहीं
.

harigitika: baans -sanjiv

हरिगीतिका
बाँस
संजीव
.
रहते सदा झुककर जगत में सबल जन श्री राम से
भयभीत रहते दनुज सारे त्रस्त प्रभु के नाम से
कोदंड बनता बाँस प्रभु का तीर भी पैना बने
पतवार बन नौका लगाता पार जब अवसर पड़े
.
बँधना सदा हँस प्रीत में, हँसना सदा तकलीफ में
रखना सदा पग सीध में, चलना सदा पग लीक में
प्रभु! बाँस सा मन हो हरा, हो तीर तो अरि हो डरा
नित रीत कर भी हो भरा, कस लें कसौटी हो खरा  
.

haiku: baans -sanjiv

हाइकु
बाँस
संजीव
.
वंशलोचन
रहे-रखे निरोग
ज़रा मोचन

rola: baans -sanjiv

रोला
बाँस
संजीव
.
हरे-भरे थे बाँस, वनों में अब दुर्लभ हैं
नहीं चैन की साँस, घरों में रही सुलभ है
बाँस हमारे काम, हमेशा ही आते हैं
हम उनको दें काट, आप भी दुःख पाते हैं

soratha: baans -sanjiv

सोरठा
बाँस
संजीव
.
लक्ष्य चूम ले पैर, एक सीध में जो बढ़े
कोई न करता बैर, बाँस अगर हो हाथ में
.
बाँस बने पतवार, फँसे धार में नाव जब
देता है आराम, बखरी में जब खाट हो

doha: baans -sanjiv

बाँस
संजीव
.
दोहा:
महल-भवन पल में गिरा, हँसता है भूचाल
बाँस गिरा पाता नहीं, करती लचक कमाल
.
तीसमारखाँ परेशां, गर चुभ जाए फाँस
हर भव-बाधा पार हो, बने सहारा बाँस
.
.

navgeet : sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
.
अब तक किसने-कितने काटे
ढो ले गये,
नहीं कुछ बाँटें.
चोर-चोर मौसेरे भाई
करें दिखावा
मुस्का डांटें.
बँसवारी में फैला स्यापा
कौन नहीं
जिसका मन काँपा?
कब आएगी
किसकी बारी?
आहुति बने,
लगे अग्यारी.
उषा-सूर्य की
आँखें लाल.
रो-रो
क्षितिज-दिशा बेहाल.
समय न बदले
बेढब चाल.
ठोंक रहा है
स्वारथ ताल.
ताल-तलैये
सूखे हाय
भूखी-प्यासी
मरती गाय.
आँख न होती
फिर भी नम
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
.  
करे महकमा नित नीलामी
बँसवट
लावारिस-बेनामी.
अंधा पीसे कुत्ते खायें
मोहन भोग
नहीं गह पायें.
वनवासी के रहे नहीं वन
श्रम कर भी  
किसान क्यों निर्धन?
किसकी कब
जमीन छिन जाए?
विधना भी यह
बता न पाए.
बाँस फूलता
बिना अकाल.
लूटें
अफसर-सेठ कमाल.
राज प्रजा का
लुटते लोग.
कोंपल-कली
मानती सोग.
मौन न रह
अब तो सच बोल
उठा नगाड़ा
पीटो ढोल.
जब तक दम
मत हो बेदम
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
*


   

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
दिल में पड़ी जो गिरह उसे खोल डालिए
हो बाँस की गिरह सी गिरह तो सम्हालिए

रखिये न वज्न दिल पे ज़रा बात मानिए
जो बात सच है हँस के उसे बोल डालिए

है प्यार कठिन, दुश्मनी करना बहुत सरल
जो भाये न उस बात को मन से बिसारिये

संदेह-शुबह-शक न कभी पालिए मन में
क्या-कैसा-कौन है विचार, तौल डालिए

जिसकों भुलाना आपको मुश्किल लगे 'सलिल'
उसको न जाने दीजिए दिल से पुकारिए

दूरी को पाट सकना हमेशा हुआ कठिन
दूरी न आ सके तनिक तो झोल डालिए

कर्जा किसी तरह का हो, आये न रास तो
दुश्वारियाँ कितनी भी हों कर्जा उतारिये
***

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
भोर भई दूँ बुहार देहरी अँगना
बाँस बहरी टेर रही रुक जा सजना

बाँसगुला केश सजा हेरूँ  ऐना  
बाँसपिया देख-देख फैले नैना
बाँसपूर लुगरी ना पहिरब बाबा
लज्जा से मर जाउब, कर मत सैना

बाँस पुटु खूब रुचे, जीमे ललना

बाँस बजें तैं न जा मोरी सौगंध
बाँस बराबर लबार बरठा बरबंड
बाँस चढ़े मूँड़ झुके बाँसा कट जाए
बाँसी ले, बाँसलिया बजा देख चंद

बाँस-गीत गुनगुना, भोले भजना

बगदई मैया पूजूँ,  बगियाना  भूल    
बतिया बड़का लइका, चल बखरी झूल
झिन बद्दी दे मोको, बटर-बटर हेर
कर ले बमरी-दतौन, डलने दे धूल  
     
बेंस खोल, बासी खा, झल दे बिजना
***
शब्दार्थ : बाँस बहरी = बाँस की झाड़ू, बाँस पुटु = बाँस का मशरूम, जीमना = खाना,  बाँसपान = धान के बाल का सिरा जिसके पकने से धान के पकाने का अनुमान किया जाता है, बाँसगुला = गहरे गुलाबी रंग का फूल,  ऐना = आईना, बाँसपिया = सुनहरे कँसरइया पुष्प की काँटेदार झाड़ी, बाँसपूर = बारीक कपड़ा, लुगरी = छोटी धोती,  सैना = संकेत,  बाँस बजें = मारपीट होना, लट्ठ चलना,  बाँस बराबर = बहुत लंबा, लबार = झूठा, बरठा = दुश्मन, बरबंड - उपद्रवी, बाँस चढ़े = बदनाम हुए, बाँसा = नाक की उभरी हुई अस्थि, बाँसी = बारीक-सुगन्धित चावल, बाँसलिया = बाँसुरी, बाँस-गीत = बाँस निर्मित वाद्य के साथ अहीरों द्वारा गाये जानेवाले लोकगीत, बगदई = एक लोक देवी, बगियाना = आग बबूला होना, बतिया = बात कर, बड़का लइका = बड़ा लड़का, बखरी = चौकोर परछी युक्त आवास, झिन = मत, बद्दी = दोष, मोको = मुझे, बटर-बटर हेर = एकटक देख, बमरी-दतौन = बबूल की डंडी जिससे दन्त साफ़ किये जाते हैं, धूल डालना = दबाना, भुलाना,  बेंस = दरवाजे का पल्ला, कपाट, बासी = रात को पकाकर पानी डालकर रखा गया भात,  बिजना = बाँस का पंखा.   

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
मंझधार में हो नाव तो हिम्मत न हारिए
ले बाँस की पतवार घाट पर उतारिए

मन में किसी के फाँस चुभे तो निकाल दें
लें साँस चैन की, न खाँसिए-खखारिए

जो वंशलोचनी है वही नेह नर्मदा
बन कांस सुरभि-रज्जु से जीवन संवारिए

बस हाड-माँस-चाम नहीं, नारि शक्ति है
कर भक्ति प्रेम से 'सलिल' जीवन गुजारिए

तम सघन हो तो निकट मान लीजिए प्रकाश
उठ-जाग कोशिशों से भोर को पुकारिए

***

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
जो न अपना, न ही पराया है
आप कहते हैं अपना साया है

जो सजा दें, वही क़ुबूल हमें
हमने दिल आपका चुराया है

दिल का लेना हसीं गुनाह तो है
दिल मगर आपने लुटाया है

ज़ुल्म ये है कि आँख फिरते ही
आपने यूँ हमें भुलाया है

हौसला है या जवांमर्दी है
दिल में दिलवर के घर बनाया है

***  

muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव
.
मान किया, अभिमान किया, अपमान किया- हरि थे मुस्काते
सौंवी न हो गलती यह भी प्रभु आप ही आप रहे चेताते
काल चढ़ा सिर पर न रुका, तब चक्र सुदर्शन कृष्ण चलाते
शीश कटा भू लोट रहा था, प्राण गए हरि में ही समाते
***

kavita: baans sanjiv

कविता 
बाँस
संजीव
.
ज़िन्दगी भर 
नेह-नाते 
रहे जिनसे.
रह गए हैं
छूट पीछे
आज घर में.
साथ आया वह
न जिसकी
कभी भायी फाँस.
उठाया
हाँफा न रोया
वीतरागी बाँस
*

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
गैर से हमको क्यों गिला होगा?
आइना सामने मिला होगा

झील सी आँख जब भरी होगी
कोई उसमें कमल खिला होगा

गर हकीकत न बोल पायी तो
होंठ उसने दबा-सिला होगा

कब तलक चैट से मिलेगा वह
क्या कभी खत्म सिलसिला होगा

हाय! ऐसे न मुस्कुराओ तुम
ढह गया दिल का हर किला होगा

झोपड़ी खाट धनुष या लाठी
जब बनी बाँस ही छिला होगा

काँप जाते हैं कलश महलों के
नीव पत्थर कोई हिला होगा
***

laghukatha: sanjiv


लघु कथा: 
बाँस 
संजीव
. 
गेंड़ी पर नाचते नर्तक की गति और कौशल से मुग्ध जनसमूह ने करतल ध्वनि की. नर्तक ने मस्तक झुकाया और तेजी से एक गली में खो गया. 

आश्चर्य हुआ प्रशंसा पाने के लिये लोग क्या-क्या नहीं करते? चंद करतल ध्वनियों के लिये रैली, भाषण, सभा, समारोह, यहाँ ताक की खुद प्रायोजित भी कराते हैं. यह अनाम नर्तक इसकी उपेक्षा कर चला गया जबकि विरागी-संत भी तालियों के मोह से मुक्त नहीं हो पाते. मंदिर से संसद तक और कोठों से अमरोहों तक तालियों और गालियों का ही राज्य है. 



संयोगवश अगले ही दिन वह नर्तक फिर मिला गया. आज वह पीठ पर एक शिशु को बाँधे हाथ में लंबा बाँस लिये रस्से पर चल रहा था और बज रही थीं तालियाँ लेकिन वह फिर गायब हो गया.



कुछ दिन बाद नुक्कड़ पर फिर दिख गया वह... इस बार कंधे पर रखे बाँस के दोनों ओर जलावन के गट्ठर टँगे थे जिन्हें वह बेचने जा रहा था..

मैंने पुकारा तो वह रुक गया. मैंने उसके नृत्य और रस्से पर चलने की कला की प्रशंसा कर पूछा कि इतना अच्छा कलाकार होने के बाद भी वह अपनी प्रशंसा से दूर क्यों चला जाता है? कला साधना के स्थान पर अन्य कार्यों को समय क्यों देता है? 



कुछ पल वह मुझे देखता रहा फिर लम्बी साँस भरकर बोला : 'क्या कहूँ? कला साधना और प्रशंसा तो मुझे भी मन भाती है पर पेट की आग न तो कला से, न प्रशंसा से बुझती है. तालियों की आवाज़ में रमा रहूँ तो बच्चे भूखे रह जायेंगे.' मैंने जरूरत न होते हुए भी जलावन ले ली... उसे परछी में बैठाकर पानी पिलाया और रुपये दिए तो वह बोल पड़ा: 'सब किस्मत का खेल है. अच्छा-खासा व्यापार करता था. पिता को किसी से टक्कर मार दी. उनके इलाज में हुए खर्च में लिये कर्ज को चुकाने में पूँजी ख़त्म हो गयी. बचपन का साथी बाँस और उस पर सीखे खेल ही पेट पालने का जरिया बन गये.' इससे पहले कि मैं उसे हिम्मत देता वह फिर बोला:'फ़िक्र न करें, वे दिन न रहे तो ये भी न रहेंगे. अभी तो मुझे कहीं झुककर, कहीं तनकर बाँस की तरह परिस्थितियों से जूझना ही नहीं उन्हें जीतना भी है.' और वह तेजी से आगे बढ़ गया. मैं देखता रह गया उसके हाथ में झूलता बाँस
*

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
पल में  न दिल में दिल को बसाने की बात कर  
जो निभ सके वो नाता निभाने की बात कर 

मुझको तो आजमा लिया, लूँ मैं भी आजमा
तू अब न मुझसे पीछा छुड़ाने की बात कर 

आना है मुश्किलात को आने भी दे ज़रा 
आ जाए तो महफिल से न जाने की बात कर 

बचना 'सलिल' वो  चाहता मिलना तुझे गले 
पड़ जाए जो गले तो भुलाने की बात कर 

बेचारगी  और तीरगी से हारना न तुम 
यायावरी को अपनी जिताने की बात कर  
...
     

navgeet: sanjiv

नवगीत
संजीव 
.
पूज रहे हैं 
मूरत 
कहते चित्र गुप्त है
.
है आराध्य हमारा जो
वह है अविनाशी
कहते फिर बतलाते कैसा
मनुज विनाशी
पैदा हुआ-मरा कैसे-कब
कहाँ? कह रहे
झगड़े-झंझट खड़े कर रहे
काबा-काशी
शिव वैरागी को अर्पित
करते हैं राशी
कहते कंकर-कंकर में वह
छिपा-सुप्त है.
.
तुमने उसे बनाया या
वह तुम्हें बनाता?
तुम आते-जाते हो या
वह आता-जाता?
गढ़ते-मढ़ते, तोड़-फाड़ते
बिना विचारे
देख हमारी करनी वह
छिप-छिप मुस्काता
कैसा है यह बुद्धिमान
जो आप ठगाता?
मैंने दिया विवेक, कहाँ वह
हुआ लुप्त है?
.
५.४.२०१४

navgeet: baans sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
नवगीत:
संजीव
.
बाँस हैं हम
.
पत्थरों में उग आते हैं
सीधी राहों पर जाते हैं
जोड़-तोड़ की इस दुनिया में
काम सभी के हम आते हैं
नहीं सफल के पीछे जाते
अपने ही स्वर में गाते हैं
यह न समझो
नहीं कूबत
फाँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
चाली बनकर चढ़ जाते हैं
तम्बू बनकर तन जाते हैं
नश्वर माया हमें न मोहे
अरथी सँग मरघट जाते हैं
वैरागी के मन भाते हैं
लाठी बनकर मुस्काते हैं
निबल के साथी
उसीकी
आँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
बन गेंड़ी पग बढ़वाते हैं
अगर उठें अरि भग जाते हैं
मिले ढाबा बनें खटिया
सबको भोजन करवाते हैं
थके हुए तन सो जाते हैं
सुख सपनों में खो जाते हैं
ध्वज लगा
मस्तक नवाओ
नि-धन का धन
काँस हैं हम
बाँस हैं हम
*