कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 13 जनवरी 2015

navgeet: -sanjiv

नवगीत: 

संजीव 
खों-खों करते 
बादल बब्बा 
तापें सूरज सिगड़ी 
आसमान का आँगन चौड़ा 
चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा 
ऊधम करते नटखट तारे 
बदरी दादी 'रोको' पुकारें 
पछुआ अम्मा 
बड़बड़ करती 
डाँट लगातीं तगड़ी 
धरती बहिना राह हेरती
दिशा सहेली चाह घेरती  
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम 
रात और दिन बेटे अनुपम 
पाला-शीत न 
आये घर में 
खोल न खिड़की अगड़ी
सूर बनाता सबको कोहरा 
ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक ही 
फसल लाएगी राहत को ही 
हँसकर खेलें 
चुन्ना-मुन्ना 
मिल चीटी-धप, लँगड़ी  
.... 
 

सोमवार, 12 जनवरी 2015

navgeet: -sanjiv

नवगीत: 
संजीव 
दर्पण का दिल देखता 
कहिए, जग में कौन?
आप न कहता हाल 
भले रहे दिल सिसकता 
करता नहीं खयाल  
नयन कौन सा फड़कता? 
सबकी नज़र उतारता
लेकर राई-नौन 
पूछे नहीं सवाल 
नहीं किसी से हिचकता 
कभी न देता टाल 
और न किंचित ललकता 
रूप-अरूप निहारता 
लेकिन रहता मौन 

रहता है निष्पक्ष 
विश्व हँसे या सिसकता 
सब इसके समकक्ष 
जड़ चलता या फिसलता 
माने सबको एक सा 
हो आधा या पौन  
… 
(मुखड़ा दोहा, अन्तरा सोरठा)  

aaiye kavita karen: 3 - sanjiv

आइये कविता करें: ३,
संजीव
मुक्तक

हिंदी काव्य को मुक्तक संस्कृत से विरासत में प्राप्त हुआ है. संस्कृत में अनेक प्रकार के मुक्तक काव्य मिलते हैं. मुक्तक एक पद्य या छंद में परिपूर्ण रचना है, जिसमें किसी प्रकार का चमत्कार पाया जाता हो. सामान्यतः मुक्तक अनिबद्ध काव्य है. इसमें किसी कथा या विचार सूत्र की अपेक्षा उस छंद या पद्य को समझने के लिए नहीं रहती क्यों कि वह अपने आप में ही परिपूर्ण होता है. संस्कृत साहित्य के अनुसार मुक्तक अनिबद्ध साहित्य का भेद है किन्तु आधुनिक काल में मुक्तक विधा का उपयोग कर प्रबंध काव्य और खंड काव्य रचे गए हैं.
अग्नि पुराण के अनुसार: ' मुक्तकश्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमःसतां' अर्थात एक छंद में पूर्ण अर्थ एवं चमत्कार को प्रगट करनेवाला काव्य मुक्तक कहलाता है.
संस्कृत में अनिबद्ध काव्य के भेद भी मिलते हैं. डंडीकृत काव्यादर्श की तर्कवागीश कृत टीका के अनुसार क्रमशः तीन, चार, पांच और छह छंदों वाले अनिबद्ध काव्य को गुणवती, प्रभद्रक, वाणावली और करहाटक कहा गया है.
जगन्नाथ प्रसाद भानु द्वारा सन १८९४ में लिखित छंद शास्त्र के मानक ग्रन्थ छन्द प्रभाकर पृष्ठ २१३ के अनुसार ''मुक्तक उसे कहते हैं जिसके प्रत्येक पाद में केवल अक्षरों की संख्या का ही प्रमाण रहता है अथवा कहीं-कहीं गुरु-लघु का नियम होता है. इसे मुक्तक इसलिये कहते हैं कि यह गानों के बंधन से मुक्त है अथवा कविजनों को मात्रा और गणों के बंधन से मुक्त करनेवाला है. इसके ९ भेद पाये जाते हैं:
१ मनहरण
२ जनहरण
४ रूप घनाक्षरी
५. जलहरण
६. डमरू
७ कृपाण
८ विजया
९ देवघनाक्षरी
इनके उपप्रकार भी हैं.
डॉ. भगीरथ मिश्र कृत काव्य मनीषा के अनुसार 'मुक्तक वह पद्य रचना है जिसके छंद स्वतः पूर्ण रहते हैं और वे किसी भी सूत्र में बंधे न रहकर स्वतंत्र रहते हैं. प्रत्येक छंद अपने में स्वतंत्र और निजी वैशिष्ट्य और चमत्कार से मुक्त रहता है.' १८९४ के बाद हिंदी साहित्य का बहुत विकास हुआ है. अब हिंदी तथा हिंदीतर भाषाओँ के अनेक छंदों को आधार बनाकर मुक्तक रचे जा रहे हैं. उक्त के अलावा दोहा, उल्लाला, सोरठा, रोला, चौपाई, आल्हा, हरिगीतिका, छप्पय, घनाक्षरी, हाइकू, माहिया आदि पर मैंने भी मुक्तक रचे हैं.
आप सभी के प्रति आभार,
फूल-शूल दोनों स्वीकार।
'सलिल' पंक में पंकज सम
जो खिलते बनते गलहार
*
नीरज जी को शत वंदन
अर्पित है अक्षत-चन्दन
रचे गीत-मुक्तक अनगिन-
महका हिंदी-नंदन वन
*


मुक्तक पर चर्चा हेतु आभा सक्सेना जी के २ मुक्तक प्राप्त हुए हैं। इनको मात्रिक मानते हुए इनका पदभार (पंक्तियों में मात्रा संख्या) तथा वर्णिक मुक्तक मानते हुए पदभार (वर्ण संख्या) कोष्ठक में दिया है.  

दो मुक्तक मकर संक्रांति पर
1.
सूरज ने मौसम को फिर से जतलाया।      = २२ (१५)
उत्तर से दक्षिण को मैं तो दौड़ आया।।      = २३ (१४) 
ताप तेज़ करने को धूपको कह आया।      = २३  (१५)
ठंड तेरे आँगन की कुछ कम कर आया।।  = २३  (१६)
प्रथम पंक्ति और शेष तीन पंक्तियों में मात्र के अंतर के कारण लय में आ रही भिन्नता पढ़ने पर अनुभव होगी। यदि इसे दूर किया जा सके तो मुक्तक की सरसता बढ़ेगी।
2.
रंगीन पतंगें सब संग में ले लाया हूं।        = २५ (१५)
उनकी डोर भी बच्चों को दे आया हूं।।     = २३  (१३)
गगन भी बुहार दिया पतंगें उड़ाने को।    = २४  (१६)
गज़क रेबड़ी साथ है संक्रंति मनाने को।। =२५   (१६)
इस मुक्तक की पंक्तियों में भी लय भिन्नता अनुभव की जा सकती है. 
आभा जी इन्हें सुधारकर फिर भेज रहे हैं। अन्य पाठक भी इन्हें संतुलित करने का प्रयास करें तो अधिक आनंद आएगा। 



Abha Saxena दो मुक्तक मकर संक्रांति पर सुधार के बाद

1.

सूरज ने मौसम को फिर ऐसे जताया।23
उत्तर से दक्षिण को मैं तो दौड़ आया।।23
ताप तेज़ करने को धूप को कह आया।23
ठंड तेरे आँगन की कुछ कम कर आया।।23
2.
रंगीन पतंगें सब संग ले लाया हूं।23
उनकी डोर भी बच्चों को दे आया हूं।।23
गगन सँवारा है पतंगें उड़ाने को।23
गज़क रेबड़ी रखी संक्रंाति मनाने को।।23
....आभा

[फिर ऐसे, मैं तो, करने को आदि कोई विशेष अर्थ व्यक्त नहीं करते, उत्तर से दक्षिण को संक्रन्ति में सूर्य दक्षिणायन से उत्त्तरायण होता है, तथ्य दोष ] 
अब देखें - 
१. 

सूरज ने मौसम को उगकर बतलाया २२ 
दक्षिण से उत्तर तक उजियारा लाया २२ 
पाले की गलन मिटे खुद को दहकाया २२ 
आँगन में धूप बिछा घर को गरमाया २२
२. 
बच्चों मैं रंगीन पतंगें लाया हूँ २२ 
चकरी-डोरी तुम्हें सौंपने आया हूँ २२
गगन सँवारा खूब पतंग उड़ाओ रे! २२ 

घर गरमाने धूप बिछा हर्षाया हूँ २२ 

आभा जी! मुक्तकों को अब देखें। कुछ बात बनी क्या? हम स्नान पश्चात जैसे प्रसाधनों से खुद को सँवारते हैं वैसे ही रचना की, भाषा, कथ्य और शिल्प को सँवारना होता है। अभ्यास हो जाने पर अपने आप ही विचार और भाषा की प्रांजल अभिव्यक्ति होने लगाती है   

navgeet: -sanjiv

बाल नवगीत:
संजीव
*
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी
बहिन उषा को गिरा दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ी
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लाई
बस्ता-फूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
जय गणेश कह पाटी पूजन
पकड़ कलम लिख ओम
पैर पटक रो मत, मुस्काकर 
देख रहे भू-व्योम
कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम
मैडम पूर्णिमा के सँग-सँग
हँसकर
झूला झूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
चिड़िया साथ फुदकती जाती
कोयल से शिशु गीत सुनो
'इकनी एक' सिखाता तोता
'अ' अनार का याद रखो
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लड़ुआ 
खा पर सबक 
न भूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
  



रविवार, 11 जनवरी 2015

navgeet: -sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
ग्रंथि श्रेष्ठता की
पाले हैं
.
कुटें-पिटें पर बुद्धिमान हैं
लुटे सदा फिर भी महान हैं
खाली हाथ नहीं संसाधन
मतभेदों का सर वितान है
दो-दो हाथ करें आपस में
जाने क्या गड़बड़
झाले हैं?
.
बातें बड़ी-बड़ी करते हैं
मनमानी का पथ वरते हैं
बना तोड़ते संविधान खुद
दोष दूसरों पर धरते हैं
बंद विचारों की खिड़की
मजबूत दिशाओं पर
ताले हैं 
.
सच कह असच नित्य सब लेखें
शीर्षासन कर उल्टा देखें
आँख मूँद 'तूफ़ान नहीं' कह
शतुरमुर्ग निज पर अवरेखें
परिवर्तित हो सके न तिल भर
कर्म सकल देखे
भाले हैं.



navgeet: -sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
दिशा न दर्शन
दीन प्रदर्शन
.
क्यों आये हैं?
क्या करना है??
ज्ञात न पर
चर्चा करना है
गिले-शिकायत
शिकवे हावी
यह अतीत था
यह ही भावी
मर्यादाओं का
उल्लंघन
.
अहंकार के
मारे सारे
हुए इकट्ठे
बिना बिचारे
कम हैं लोग
अधिक हैं बातें
कम विश्वास
अधिक हैं घातें
क्षुद्र स्वार्थों
हेतु निबंधन
.
चित्र गुप्त
सू रत गढ़ डाली
मनमानी
मूरत बनवा ली
आत्महीनता
आत्ममोह की
खुश होकर
पीते विष-प्याली
पल में गाली
पल में ताली
मंथनहीन
हुआ मन-मंथन

१३.३०,  २९.१२. २०१४ 
पंचायती धर्मशाला जयपुर

laghukatha: anand pathak

लघुकथा:
गोली
आनंद पाठक
.
" तुम ’राम’ को मानते हो ?-एक सिरफिरे ने पूछा
-"नहीं"- मैने कहा
उसने मुझे गोली मार दी क्योकि मै उसकी सोच का हमसफ़ीर नहीं था और उसे स्वर्ग चाहिए था
"तुम ’रहीम’  को मानते हो ?"-दूसरे सिरफिरे ने पूछा
-"नही"- मैने कहा
उसने मुझे गोली मार दी क्योंकि मैं काफ़िर था और उसे जन्नत चाहिए थी।
" तुम ’इन्सान’ को मानते हो"- दोनो सिरफिरों ने पूछा
-हाँ- मैने कहा
फिर दोनों ने बारी बारी से मुझे गोली मार दी क्योंकि उन्हें ख़तरा था कि यह इन्सानियत का बन्दा कहीं  जन्नत या स्वर्ग न हासिल कर ले
 xx                       xxx                           xxx                      xxx

बाहर गोलियाँ चल रही हैं। मैं घर में दुबका बैठा हूँ ।घर से बाहर नहीं निकलता ।
 अब मेरी ’अन्तरात्मा’ ने मुझे गोली मार दी
मैं घर में ही मर गया ।

-आनन्द.पाठक-
09413395592

aaiye! kavita karen: 2 -sanjiv

आइये कविता करें:२ .
संजीव  
*
अब इस रचना का तुकांत-पदांत की दृष्टि से परीक्षण करें. हर पंक्ति के अंत में उपस्थित दीर्घ वर्ण (है, के, ठी, की, ठे, या, ले, तीं, का आदि वर्ण) पदांत है पंक्ति के अंत में प्रयुक्त समान उच्चारणवाले एक या अनेक शब्द पदांत कहे जाते हैं पदांत के ठीक पहले प्रयुक्त समान वर्ण तुकांत कहा जाता है तुकांत एक मात्रा भी हो सकती है तुकांत को ही पदांत मानकर भी काव्य रचना हो सकती है

बागों में बसन्त आया है

​​
पर्वत
​​
 पर पलाश छाया है 

यहाँ 'आया' तुकांत और 'है' पदांत है. 

पहली दो पंक्तियों में समान तुकांत और फिर एक-एक पंक्ति को छोड़कर तुकांत हो तो ऐसी रचना को मुक्तिका कहा जाता है. सामान्यतः मुक्तिका की दो पंक्तियाँ अपने आप में पूर्ण तथा पूर्व या पश्चात की पंक्त्तियों से मुक्त होती हैं. कुछ रचनाकार मुक्तिका रचनाओं को 'गीतिका' शीर्षक देते हैं किन्तु गीतिका हिंदी का  प्रतिष्ठित छंद है जिसका रचना विधान बिलकुल भिन्न है. विवेच्य रचना को मुक्तिका का रूप कई तरह से दिया जा सकता है. पूरी रचना 'आया' तुकांत तथा 'है' पदांत लेकर लिखी जा सकती है, 

​​
बागों में बसन्त आया है

​​
पर्वत
​​
 पर पलाश छाया है 

ऋतु ने ली अँगड़ाई जमके
चुप बैठी मन अलसाया है   ​ 

​​
घर जाऊँ मैं किसके-किसके
मौसम कुछ तो गरमाया है  

कहो दुबककर क्यों बैठे तुम
बिस्तर क्यों तुमको भाया है? 

तन्नक हँस के चैया पीलो 
सरसों भी तो पिलियाया है 

देख अटारी बहुएँ चढ़तीं 
लुक-छिप सबने बतियाया है 

है बसंत ऋतुराज यहाँ का 
उड़ पतंग ने बतलाया है 

अब होली की तैयारी है
रंग-अबीर घर में आया है 

मुक्तिका में द्विपदी की कहन सहज, सरल और प्रवाहपूर्ण होना चाहिए। किसी बात को कहने का तरीका ही उसे सहज ग्राह्य और दूसरों से अलग बनाता है।  
'आया' तुकांत के साथ 'रे' पदांत भी लिया जा सकता है

​ ऐसा करने से रचना में कुछ बदलाव आएंगे और प्रभाव में भिन्नता अनुभव होगी

​ अभ्यास के तौर पर ऐसा करें
​ इनके अलावा अन्य पदांत-तुकांत लेकर भी अभ्यास किया जा सकता है

navgeet: -sanjiv

नवगीत: 
संजीव  
छोडो हाहाकार मियाँ!
दुनिया अपनी राह चलेगी 
खुदको खुद ही रोज छ्लेगी 
साया बनकर साथ चलेगी 
छुरा पीठ में मार हँसेगी   
आँख करो दो-चार मियाँ!
आगे आकर प्यार करेगी 
फिर पीछे तकरार करेगी 
कहे मिलन बिन झुलस मरेगी 
जीत भरोसा हँसे-ठगेगी
करो न फिर भी रार मियाँ!
मंदिर में मस्जिद रच देगी 
गिरजे को पल में तज देगी 
लज्जा हया शरम बेचेगी  
इंसां को बेघर कर देगी 
पोंछो आँसू-धार मियाँ!

शनिवार, 10 जनवरी 2015

navgeet:

नवगीत:
संजीव
.
रब की मर्ज़ी
डुबा नाखुदा
गीत गा रहा
.
किया करिश्मा कोशिश ने कब?
काम न आयी किस्मत, ना रब
दुनिया रिश्ते भूल गयी सब
है खुदगर्ज़ी
बुला, ना बुला
मीत भा रहा
.
तदबीरों ने पाया धोखा
तकरीरों में मिला न चोखा
तस्वीरों का खाली खोखा
नाता फ़र्ज़ी
रहा, ना रहा
जीत जा रहा
.
बादल गरजा दिया न पानी
बिगड़ी लड़की राह भुलानी
बिजली तड़की गिरी हिरानी
अर्श फर्श को
मिला, ना मिला
रीत आ रहा
…  

navgeet: -sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
उम्मीदों की फसल
उगना बाकी है
.
अच्छे दिन नारों-वादों से कब आते हैं?
कहें बुरे दिन मुनादियों से कब जाते हैं?
मत मुगालता रखें जरूरी खाकी है
सत्ता साध्य नहीं है
केवल साकी है
.
जिसको नेता चुना उसीसे आशा है
लेकिन उसकी संगत तोला-माशा है
जनप्रतिनिधि की मर्यादा नापाकी है
किससे आशा करें
मलिन हर झाँकी है?
.
केंद्रीकरण न करें विकेन्द्रित हो सत्ता
सके फूल-फल धरती पर लत्ता-पत्ता
नदी-गाय-भू-भाषा माँ, आशा काकी है
आँख मिलाकर
तजना ताका-ताकी है



    

karya shala: aaiye kavita karen: 1 -sanjiv

कार्यशाला:

आइये कविता करें:१.


काव्य रचना के आरम्भिक तत्व १. भाषा, २. कथ्य या विषय, ३. शब्द भण्डार आभा जी के पास हैं. शब्दों को विषय के भावों के अनुसार चुनना और उन्हें इस तरह जमाना की उन्हें पढ़ते-सुनते समय लय की अनुभूति हो, यही कविताई या कविता करने की क्रिया है. आप नदी के किनारे खड़े होकर देखें बहते पानी की लहरें उठती-गिरती हैं तो उनमें समय की एकरूपता होती है, एक निश्चित अवधि के पश्चात दूसरी लहर उठती या गिरती है. संगीत की राग-रागिनियों में आरोह-अवरोह (ध्वनि का उतार-चढ़ाव) भी समय बढ़ होता है. यहाँ तक की कोयल के कूकने, मेंढक के टर्राने आदि में भी समय और ध्वनि का तालमेल होता है. मनुष्य अपनी अनुभूति को जब शब्दों में व्यक्त करता है तो समय और शब्द पढ़तै समय ध्वनि का ताल मेल निश्चित हो तो एक प्रवाह की प्रतीति होती है, इसे ले कहते हैं. लय कविता का अनिवार्य गुण है. 
लय को साधने के लिये शब्दों का किसी क्रम विशेष में होना आवश्यक है ताकि उन्हें पढ़ते समय समान अंतराल पर उतार-चढ़ाव हो, ये वांछित शब्द उच्चारण अवधि के साथ सार्थक तथा कविता के विषय के अनुरूप और कवि जो कहना चाहता है उसके अनुकूल होना चाहिए। यहाँ कवि कौशल, शब्द-भण्डार और बात को आवश्यकता के अनुसार सीधे-सीधे, घुमा-फिराकर या लक्षणों के आधार पर या किसी बताते हुए इस तरह लय भंग न हो और जो वह कह दिया जाए। छान्दस कविता करना इसीलिये कठिन प्रतीत होता है, जबकि छन्दहीन कविता में लय नहीं कथ्य (विचार) प्रधान होता है, तरह कह दी जाती है, विराम स्थलों पर पंक्ति परिवर्तन कर दिया जाता है.

कविता में पंक्ति (पद) उच्चारण का समय समान रखने के लिए ध्वनि को २ वर्ग में रखा गया है १. लघु २. दीर्घ। लघु ध्वनि की १ मात्रा तथा दीर्घ मात्राएँ गिनी जाती हैं. छोटे-बड़े शब्दों को मिलकर कविता की हर पंक्ति समान समय में कही जा सके तो जा सके तो लय आती है. पंक्ति को पढ़ते समय जहाँ श्वास लिए शब्द पूर्ण होने पर रुकते हैं उसे यति कहते हैं. यति का स्थान पूर्व निश्चित तथा आवश्यक हो तो उससे पहले तथा बाद के भाग को चरण कहा जाता है. अ,इ, उ तथा ऋ को लघु हैं जिनकी मात्रा १ है, आ, ई, ऊ, ओ, औ, तथा अं की २ मात्राएँ हैं.


आभा सक्सेना: संजीव जी मेरा आपके दिये मार्गदर्शन के बाद प्रथम प्रयास प्रतिक्रिया अवश्य दें.....
बसन्त
बागों में बसन्त छाया जब से २२ २ १२१ २२ ११ २ = १८
खिल उठे हैं पलाश तब से ११ १२ २ १२१ ११ २ = १५
रितु ने ली अंगडाई जम के ११ २ २ ११२२ ११ २ = १६
सोच रही कुछ बैठी बैठी २१ १२ ११ २२ २२ = १६
घर जाऊँ मैं किसके किसके ११ २२ २ ११२ ११२ = १६
टूट रही है ठंड की झालर २१ १२ २ २१ २ २११ = १७
ठंडी ठंडी छांव भी खिसके २२ २२ २१ २ ११२ = १७
अब तो मौसम भी अच्छा है ११ २ २११ २ २२ २ = १६
दुबक रजाई में क्यों तुम बैठे १११ १२२ २ २ ११ २२ = १८
क्यों बिस्तर में बैठे ठसके २२ २११ २ २२ ११२ = १६
अब तो बाहर निकलो भैया ११ २ २११ ११२ २२ = १६
लिये जा रहे चाय के चस्के १२ २ १२ २१ २ २२ = १७
फूल खिल उठे पीले पीले २१ ११ १२ २२ २२ = १६
सरसों भी तो पिलियायी है ११२ २ २ ११२२ २ = १६
देख अटारी बहुयें चढ़तीं २१ १२२ ११२ ११२ = १६
बतियातीं वह मुझसे हंसके ११२२ ११ ११२ ११२ = १६
बसन्त है रितुराज यहाँ का १२१ २ ११२१ १२ २ = १६
पतंग खेलतीं गांव गगन के १२१ २१२ २१ १११ २ = १७
होली की अब तैयारी है २२ २ ११ २२२ २ = १६
रंग अबीर उड़ेगे खिल के.. २१ १२१ १२२ ११ २ = १६
 
इस रचना की अधिकांश पंक्तियाँ १६ मात्रीय हैं. अतः, इसकी शेष पंक्तियों को जो कम या अधिक मात्राओं की हैं, को १६ मात्रा में ढालकर रचना को मात्रिक दृष्टि से निर्दोष किया जाना चाहिए। अलग-अलग रचनाकार यह प्रयास अपने-अपने ढंग से कर सकते हैं. एक प्रयास देखें:

बागों में बसन्त आया है २२ २ १२१ २२ २ = १६
पेड़ों पर पलाश छाया है २२ ११ १२१ २२ २ = १६
रितु ने ली अँगड़ाई जम के ११ २ २ ११२२ ११ २ = १६
सोच रही है बैठी-बैठी २१ १२ २ २२ २२ = १६
घर जाऊँ मैं किसके-किसके ११ २२ २ ११२ ११२ = १६
टूट रही झालर जाड़े की २१ १२ २११ २२ २ = १६
ठंडी-ठंडी छैंया खिसके २२ २२ २२ ११२ = १६
अब तो मौसम भी अच्छा है ११ २ २११ २ २२ २ = १६
कहो दुबककर क्यों तुम बैठे १२ १११११ २ ११ २२ = १६
क्यों बिस्तर में बैठे ठसके २२ २११ २ २२ ११२ = १६
अब तो बाहर निकलो भैया ११ २ २११ ११२ २२ = १६
चैया पी लो तन्नक हँसके २२ २ २ २११ ११२ = १६
फूल खिल उठे पीले-पीले २१ ११ १२ २२ २२ = १६
सरसों भी तो पिलियायी है ११२ २ २ ११२२ २ = १६
देख अटारी बहुयें चढ़तीं २१ १२२ ११२ ११२ = १६
बतियातीं आपस में छिपके ११२२ २११ २ ११२ = १६
है बसन्त रितुराज यहाँ का २ १२१ ११२१ १२ २ = १६
उड़ा पतंग गाँव में हँसके १२ १२१ २१ २ ११२ = १६
होली की अब तैयारी है २२ २ ११ २२२ २ = १६
रंग अबीर उड़ेगे खिल के.. २१ १२१ १२२ ११ २ = १६

मात्रिक संतुलन की दृष्टि से यह रचना अब निर्दोष है. हर पंक्ति में १६ मात्राएँ हैं. एक बार और देखें: यहाँ हर पंक्ति का अंतिम वर्ण दीर्घ है. 




संदेश में फोटो देखें
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

navgeet: - sanjiv ,

नवगीत:
संजीव
.
लोकतंत्र का
पंछी बेबस
.
नेता पहले डालें दाना
फिर लेते पर नोच
अफसर रिश्वत गोली मारें
करें न किंचित सोच
व्यापारी दे
नशा रहा डँस
.
आम आदमी खुद में उलझा
दे-लेता उत्कोच
न्यायपालिका अंधी-लूली
पैरों में है मोच
ठेकेदार-
दलालों को जस
.
राजनीति नफरत की मारी
लिए नींव में पोच
जनमत बहरा-गूँगा खो दी
निज निर्णय की लोच
एकलव्य का
कहीं न वारिस
…  

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

2 kshanikayen: sindhi anuwad sahit

9-1-2015 क्षणिका, संजीव, देवी नागरानी, सिंधी, काव्यानुवाद,

poorvanchal morcha patrika men prakashit navgeet:

गीत : जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !



फिसल गए तो हर हर गंगे,
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !


वो विकास की बातें करते करते जा कर बैठे दिल्ली

कब टूटेगा "छीका" भगवन ! नीचे बैठी सोचे बिल्ली
शहर अभी बसने से पहले ,इधर लगे बसने भिखमंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे ! ........


नई हवाऒं में भी उनको जाने क्यों साजिश दिखती है

सोच सोच बारूद भरा हो मुठ्ठी में माचिस  दिखती है
सीधी सादी राहों पर भी चाल चला करते बेढंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे ! .....


घड़याली आँसू झरते हैं, कुर्सी का सब खेलम-खेला

कौन ’वाद’? धत ! कैसी ’धारा’, आपस में बस ठेलम-ठेला
ऊपर से सन्तों का चोला ,पर हमाम में सब हैं नंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !


रामराज की बातें करते आ पहुँचे हैं नरक द्वार तक

क्षमा-शील-करुणा वाले भी उतर गए है पद-प्रहार तक
बाँच रहे हैं ’रामायण’ अब ,गली गली हर मोड़ लफ़ंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !


अच्छे दिन है आने वाले साठ साल से बैठा ’बुधना"

सोच रहा है उस से पहले उड़ जाए ना तन से ’सुगना’
खींच रहे हैं "वोट" सभी दल शहर शहर करवा कर दंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !



-आनन्द-पाठक-

09413395592

मंगलवार, 6 जनवरी 2015

navgeet:

नवगीत:
संजीव 
.
उठो पाखी!
पढ़ो साखी
.
हवाओं में शराफत है
फ़िज़ाओं में बगावत है
दिशाओं की इनायत है
अदाओं में शराफत है
अशुभ रोको
आओ खाखी
.
अलावों में लगावट है
गलावों में थकावट है
भुलावों में बनावट है
छलावों में कसावट है
वरो शुभ नित
बाँध राखी
.
खत्म करना अदावत है
बदल देना रवायत है
ज़िंदगी गर नफासत है
दीन-दुनिया सलामत है
शहद चाहे?
पाल माखी
***

navgeet:

नवगीत:
संजीव
.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
.
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
***  

muktika:

मुक्तिका:
संजीव
.
गीतों से अनुराग न होता
जीवन कजरी-फाग न होता

रास आस से कौन रचाता?
मौसम पहने पाग न होता

निशा उषा संध्या से मिलता
कैसे सूरज आग न होता?

बाट जोहता प्रिय प्रवास की
मन-मुँडेर पर काग न होता

चंदा कहलाती कैसे तुम
गर निष्ठुरता-दाग न होता?

नागिन क्वांरी रह जाती गर
बीन सपेरा नाग न होता

'सलिल' न होता तो सच मानो  
बाट घाट घर बाग़ न होता
***

kavyottar:

काव्योत्तर:
स्वीट कॉर्न सूप यानि की मक्का के दाने का सूप लेकिन कोई ये बताये की ये स्वीट कैसे हुआ? मक्का के खेत में चीनी कौन डाल के आया था?(बेटे से हुई बातचीत)

 संजीव 
कॉर्न स्वीट होता नहीं, लेकिन मीठा सूप 
कैसे होता बतायें?, पूछे बेटा भूप   
पूछे बेटा भूप, निरुत्तर माँ क्या बोले?
ठिठके सुन संजीव, दिया उत्तर: 'सुन भोले!
माँ की ममता से हुआ मीठा, पढ़ ले ट्वीट'
हो प्रसन्न बेटा पिए सूप कॉर्न का स्वीट