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रविवार, 12 अक्टूबर 2014

chaupal charcha:

चौपाल चर्चा:

व्रत और कथाएँ :

व्रत लेना = किसी मनोकामना की पूर्ती हेतु संकल्पित होना, व्रत करना = आत्म प्रेरणा से लिये निर्णय का पालन करना। देश सेवा, समाज सेवा आदि का वृत्त भी लया जा सकता है 

उपवास करना या न करना व्रत का अंग हो सकता है, नहीं भी हो सकता।

समाज में दो तरह के रोगी आहार के कारण होते हैं १. अति आहार का कारण, २. अल्प आहार के कारण 

स्वाभाविक है उपवास करना अथवा  खाना-पीना काम करना या न करना अति आहारियों के लिए ही उपयुक्त हो सकता है। सन्तुलित आहारियों या अल्प आहारियों के लिए उपयुक्त आहार यथामय ग्रहण करना ही उपयुक्त व्रत है. अत: व्रत का अर्थ आहार-त्याग नहीं सम्यक आहार ग्रहण होना चाहिए। अत्यल्प या अत्यधिक का त्याग ही व्रत हो

वाद विशेष या दल विशेष से जुड़े मित्र विषय पर चर्चा कम करते हैं और आक्षेप-आरोप अधिक लगाते हैं जिससे मूल विषय ही छूट जाता है।  

पौराणिक मिथकों के समर्थक और विरोधी दोनों यह भूल जाते हैं कि वेद-पुराणकार भी मनुष्य ही थे। उन्होंने अपने समय की भाषा, शब्द भंडार, कहावतों, मुहावरों, बिम्बों, प्रतीकों का प्रयोगकर अपनी शिक्षा और रचना सामर्थ्य के अनुसार अभिव्यक्ति दी है। उसका विश्लेषण करते समय सामाजिक, व्यक्तिगत, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक मान्यताओं और बाध्यताओं का विचार कर निर्णय लिया जाना चाहिए। 

हमारे वैज्ञानिक ऋषियों ने गूढ़ वैज्ञानिक-सामाजिक-आर्थिक विश्लेषणों और निष्कर्षों को जान सामान्य विशेषकर अल्पशिक्षित अथवा बाल बुद्धि वाले लोगों तक पहुँचाने के लिए उन्हें कथा रूप में ढालकर धार्मिक अनुष्ठानों या पर्वों से जोड़ दिया था, इसका लाभ यह हुआ कि हर घर में गूढ़ विवरण जाने या बिना जाने यथोचित पालन किया जा सका विदेशी आक्रान्ताओं ने ऋषियों-विद्वानों की हत्या कर तथा पुस्तकालयों-शोधागारों को नष्ट कर दिया. कालांतर में शोधदृष्टि संपन्न ऋषि के न रहने पर उसके शिष्यों ने जाने-अनजाने काल्पनिक व्याख्याओं और चमत्कारिक वर्णन या व्याख्या कर कथाओं को जीविकोपार्जन का माध्यम बना लिया। चमत्कार को नमस्कार की मनोवृत्ति के कारण विश्व का सर्वाधिक वैज्ञानिक धर्म विज्ञानविहीन हो गया 

विडम्बना यह कि मैक्समूलर तथा अन्य पश्चिमी विद्वानों ने बचे ग्रंथों का अपनी भाषा में अनुवाद किया जिन्हें वहाँ के वैज्ञानिकों ने सही परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित कर वैज्ञानिक प्रगति की पराधीनता के अंधावरण में फंसे भारतीय विद्वान या तो अन्धविश्वास के कारण सत्य नहीं तलाश सके या अंधविरोध के कारण सत्य से दूर रहे। संस्कृत ग्रंथों में सदियों पूर्व वर्णित वैज्ञानिक सिद्धांतों, गणितीय गणनाओं, सृष्टि उतपत्ति व् विकास के सिद्धांतों को समझ-बताकर पश्चिमी विद्वान उनके आविष्कारक  बन बैठे। अब यह तस्वीर सामने आ रही है। पारम्परिक धार्मिक अनुष्ठानों तथा आचार संहिता को वैज्ञानिक सत्यों को अंगीकार कर परिवर्तित होते रहना चाहिए तभी वह सत्यसापेक्ष तथा समय सापेक्ष होकर कालजयी हो सकेगा

ऋतू परिवर्तन के समय वातावरण के अनुरूप खान-पान, रहन-सहन को पर्वों के माध्यम से जन सामान्य में प्रचलित करने की परंपरा गलत नहीं है किन्तु उसे जड़ बनाने की मनोवृत्ति गलत है। 

आइये हम खुले मन से सोचें-विचारें 

शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

navgeet:

नवगीत

बचपन का
अधिकार
उसे दो

याद करो
बीते दिन अपने
देखे सुंदर
मीठे सपने
तनिक न भाये
बेढब नपने

अब अपना
स्वीकार
उसे दो

पानी-लहरें
हवा-उड़ानें
इमली-अमिया
तितली-भँवरे
कुछ नटखटपन
कुछ शरारतें

देखो हँस
मनुहार
उसे दो

इसकी मुट्ठी में
तक़दीरें
यह पल भर में
हरता पीरें
गढ़ता पल-पल
नई नज़ीरें

आओ!
नवल निखार
इसे दो

*** 

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2014

aaj ki rachna

दोहा :

तुलसी जब तुल सी गयी, नागफनी के साथ
वह अंदर यह हो गयी, बाहर विवश उदास. 

शे'र :
लिए हाथों में अपना सर चले पर
नहीं मंज़िल को सर कर सके अब तक

मुकतक :

मेरा गीत शहीद हो गया, दिल-दरवाज़ा नहीं खुला
दुनियादारी हुई तराज़ू, प्यार न इसमें कभी तुला
राह देख पथराती अखियाँ, आस निराश-उदास हुई
किस्मत गुपचुप रही देखती, कभी न पाई विहँस बुला

हाइकु :

ईंट रेत का
मंदिर मनहर
देव लापता

जनक छंद :

नोबल आया हाथ जब
उठा गर्व से माथ तब
आँख खोलना शेष अब

सोरठा :

घटे रमा की चाह, चाह शारदा की बढ़े
गगन न देता छाँह, भले शीश पर जा चढ़े

क्षणिका :

पुज परनारी संग
श्री गणेश गोबर हुए
रूप - रूपए का खेल
पुजें परपुरुष साथ पर
लांछित हुईं न लक्ष्मी

***

tripadik janak chhand

त्रिपदिक जनक छंद: 

चेतनता ही काव्य है 
अक्षर-अक्षर ब्रम्ह है 
परिवर्तन सम्भाव्य है 

आदि-अंत 'सत' का नहीं 
'शिव' न मिले बाहर 'सलिल'
'सुंदर' सब कुछ है यहीं 

शब्दाक्षर में गुप्त जो 
भाव-बिम्ब-रस चित्र है 
चित्रगुप्त है सत्य वो 

कंकर में शंकर दिखे 
देख सके तो देख तू 
बिन देखे नाटक लिखे 

देव कलम के! पूजते 
शब्द सिपाही सब तुम्हें 
तभी सृजन-पथ सूझते 

श्वास समझिए भाव को 
रचना यदि बोझिल लगे 
सहन न भावाभाव को 

सृजन कर्म ही धर्म है 
दिल को दिल से जोड़ता 
यही धर्म का मर्म है 

शब्द-सेतु की सर्जना
मानवता की वेदना 
परम पिता की अर्चना 

शब्द दूत है समय का 
गुम हो गर संवेदना 
समझ समय है प्रलय का 

पंछी जब कलरव करें 
अलस सुबह ऐसा लगे 
मंत्र-ऋचा ऋषिवर पढ़ें 

_________________

DIWALI 2014

laghukatha:

लघुकथा:

बुद्धिजीवी और बहस

संजीव
*

'आप बताते हैं कि बचपन में चौपाल पर रोज जाते थे और वहाँ बहुत कुछ सीखने को मिलता थ. क्या वहाँ पर ट्यूटर आते थे?'

'नहीं बेटा! वहाँ कुछ सयाने लोग आते थे जिनकी बातें बाकि सभी लोग सुनते-समझते और उनसे पूछते भी थे.'

'अच्छा, तो वहाँ टी. वी. की तरह बहस और आरोप भी लगते होंगे?'

'नहीं, ऐसा तो कभी नहीं होता था'

'यह कैसे हो सकता है? लोग हों, वह भी बुद्धिजीवी और बहस न हो...  आप गप्प तो नहीं मार रहे?'

दादा समझाते रहे पर पोता संतुष्ट न हो सका.

*

बुधवार, 8 अक्टूबर 2014

navgeet:

नवगीत:  

पधारो,
रमा! पधारो 

ऊषा से 
ले ताजगी 
सरसिज से 
ले गंध 
महाकाल से  
अभय हो  
सत-शुभ से 
अनुबंध  

निहारो,
सदय निहारो 
*
मातु! गुँजा दो 
सृष्टि में शाश्वत 
अनहद नाद 
विधि-हरि-हर 
रिधि-सिद्धि संग 
सुन मेरी फरियाद

विराजो!
विहँस विराजो 
*
शक्ति-शारदा 
अमावस 
पूनम जैसे साथ 
सत-चित-आनंद 
वर सके
सत-शिव-सुंदर पाथ 

सँवारो 
जन्म सँवारो 
*

मंगलवार, 7 अक्टूबर 2014

navgeet:


नवगीत:

कहें दिवाली
करें दिवाला

पथरा गए रे नैन
मेघ की बाट जोहते
बरसो नई या
मूसलधार बरस गौ बैरी
नैहर डूबो
हियाँ सासरे में सूखो रे

आँखमिचौली
खेले बिजुरी 
नेताओं खों
मिला मसाला

छुई सें पोत लई
गोबर सें लीपी बाखर
मुन्नू भरी बस्ता
ले गओ सीखें आखर
लाई-बतेसा लाई 
दिया, गनेस-लच्छमी

तनक उजेरा
भोत अँधेरा
बहा पसीना
मिले निवाला

***

navgeet:

नवगीत:

दीवाली के
दिए जले
नीचे फैला अँधियारा

जग ने
ऊपर-ऊपर देखा
रखा
रौशनी का ही लेखा
तेल डालकर
दीप-दीप में
भूला
खिंची धुएं की रेखा

अति विलंब कर आया
पल में
चला गया उजियारा

ऋद्धि-सिद्धि, हरि
मुँह लटकाये
गणपति-लछमी
पाँव पुजाये
नीति-अनीति
न देखे दुनिया
नयन मूँदकर 
शीश झुकाये

बेटी-बहू
गैर संग सुन
बिन देखे फटकारा

*

  

Reasearch Article:

Poetic Currency : An Instrument of Social Change 
Dr. Sadhna Verma - Er. Sanjiv Verma  
*
                        In English literature free verse is most preferred form in poetry. Formlessness in poetry facilitates the poet to express himself without worrying for prosodic particulars (meter, rhythm, and rhyme etc.). The global poetics is placing increasing imphasis on the mind poem in place of the page poem.  The spark of a poem ignites in the mind of poet / reader as oppose to the shape it takes on the page. 

                       English being a global language has many different lingual forms, vocabulary and pronunciation in different parts of the world. Hence, English poetry in different nations have different influences of local dialectics end poetry forms. Main forms of page poems are Acristic Poem, ABC Poem, Cinquain Poem, Circle Poem, Concrete Poem, Couplet Poe, Diamante, Haiku, Limerick, Name Poem, Ode, Parody Poem, Quatrain Poem, Sonnets, Who-What-When-Whwre-Why Poem etc. Poets try to follow local poetry forms in English as for as possible though can't follow completely in all aspects. 

                       Historicity in poetry is not same in different parts of the globe, is differs and effects the English poetry in different ways. For example while writing English Doha the Gan-niyam of Hindi pingal can not be followed, though in couplets padant-tukant (similar pronunciation in the end of lines) can be followed up to some extent. Similarly in English Gazal radeef (padant) can be maintained up to some extent but  to maintain kafiyaa (tukant) is not always possible. Free verse facilitates the poet to concentrate over the thoughts and style.

Modern English Poetry represents the disordering and mixing of styles. One may call it fusion as in the field of music & dance as oppose to pure forms different mixed forms are more popular. In Chinese poetry Hu Bashi the first proponent of Chinese Poetry drawn following guidelines in 1917.

                       1. Substance
                       2. Do not imitate ancients
                       3. Observe grammer
                       4. Do not groan when not sick
                       5. Get rid of cliches & formulaic expressions
                       6. Do not use illusion
                       7. Do not observe parellelism
                       8. Do not avoid colloquial words & expressions. 
                     
                       In present times grammer bent beyond it's traditional constraints, substance depends on poet's sensibilities.

                       In America L=A=N=G=U=A=G=E school  redefined the semantic presentations of poetry and said Poetry is a materialization of language. According to Jean-Paul Satre 'Language is meant not for poetry in which words are treated as things but is meant for grasping the world, bringing it under control and redeeming it. 

                       French poet Mallarme claimed that a poem is nothing but the words. Burns is in between the two opposite camps - fir him poetry is a means of resisting the cognitive appropriation of language. 

                       American critic Elder Olson rightly observed: 'The chair is not wood but wooden, poetry is not words but verbal.' If so then it is possible to translate or reincarnate a poem in another language and it becomes possible for a poem to to be adopted to newer forms. This is present functionalist and not formalist view of poetry. Here poetry becomes a tool in bringing social, economic and political changes to masses inspite being study material for few. 

                       Poetry in modern age is not only a literal activity but also a means of social, political and economic reforms. In a country like India Poetry reaches from the richest class of society to the poorest one at a time and leave different effects on different classes of the people. In this age of economic and social revolution poetic currency i.e. currency of thoughts works efficiently in ways more than one. It is most powerful instrument of intellectual trade and sociopolitical change. In the same time it is an art that must be current with times. In present era of social-political-economic reforms and changes the poetic currency must be at par with time. In this era of multidimensional activities and developments across the sphere as well as across the nation the role of poetic currency becomes most powerful. Hence, the poetry must reflect multiplicity of the social, economic, religious, cultural and political heritage and requirements at the same time. 
​​
                       The effect of poetic currency can very easily be seen and valued in the mass meetings of different leaders and public representatives. As compare to individualism in prose fiction, the poetic current cuts the bindings and make the public feel togetherness. This is what make difference in the addresses of a party leader without public base and a mass leader with public base. Time witnessed this poetic essence at the most in Netaji, Nehruji and Atalji whereas minimum with Devegaudaji and Soniaji. Present dynamic prime minister Modiji added a new dimension to it. In place of poetic slogans (Indepence is our birth right -Lokmanya Tilak,  Jay Hind -Netaji, Satyamev jayate- Nehru, Jay Jawan Jay Kisan -Shastri ji, Garibi Hatao -Indira ji). Modiji added poetic equations to it as and when required. For example 3Ss = Speed, Space & Scope, 3Ps = Population, Power & Project, 3 Ds = Democracy, Demography & Demand.                    

                       In present socio-political scenerio the poetic currency bridges the gap in between the policy maker Government and the ultimate objects common people.  

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Writers:
1. Dr. Sadhna Verma, MA, PhD, Asstt. Professor, Deptt. of Economics, Govt. Mahakaushal Autonomous College for Arts & Commerce, Jabalpur, m. 8085387320. 

2. Er. Sanjiv Verma 'Salil', DCE, BE, MIE, MA (Economigs & Philosophy), LL.B., Dip. Journalism, Ex. Divisional Project Engineer MPPWD. -samanvayam, 204 Vijay Apartment, Napier town Jabalpur 482001, m. 94251 83244 Email: salil.sanjiv@gmail.com

To:
Dr. Jitendra Arolia
Editor-In-Chief 
Research Scholar- An International Refereed e-Journal 
of Literary Explorations, +91-9926223649  
(ISSN - 2320-6101) ( Online Journal)
www.researchscholar.co.in

smaran: durga bhabhi

क्रांतिकारी दुर्गा भाभी के 107 वे जन्मदिन पर शत् शत् नमन्
क्रांतिकारी दुर्गा भाभी के 107 वे जन्मदिन पर शत् शत् नमन्
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आजादी की क्रांतिकारी धारा में उनको दुर्गा भाभी के नाम से जाना जाता है। वे थीं हिन्द़ुस्तान सोशलिस्ट रिपिब्लक पार्टी का घोषणापत्र लिखने वाले भगवतीचरण वोहरा की पत्नी। दुर्गा भाभी का पूरा जीवन संघर्ष का जीता जागता प्रमाण है। जन्म से ही इनका संघर्ष शुरु हो गया। इनका जन्म इलाहाबाद में ७ अक्टूबर १९०७ को हुआ था। जन्म के दस माह बाद ही उनकी माताजी का निधन हो गया। इसके कुछ समय बाद पिता ने संन्यास ग्रहण कर लिया। अब वे पूरी तरह से माता-पिता के आश्रय से वंचित हो चुकी थी। इसी दौरान रिश्तेदार उनको आगरा ले आए। यहीं उनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई। यह शिक्षा किस स्कूल में हुई यह निश्चत नहीं कहा जा सकता। संभवतः यह सेंट जोंस या आगरा कालेज रहा होगा। यहीं भगवती चरण वोहरा भी अपनी पढ़ाई किया करते थे। भगवती चरण वोहरा के पूर्वज तीन पीढ़ी पहले आगरा आकर बस गए थे। बाद में भगवती चरण वोहरा लाहौर चले गए। दुर्गा देवी भी कुछ समय बाद लाहौर चलीं गईं। यहां वह भारतीय नौजवान सभा कह सक्रिय सदस्य हो गईं। तब तक भगत सिंह का ग्रुप भी पंजाब में सक्रिय हो चुका था। भारतीय नौजवान सभा का पहला काम १९२६ में सामने आया। सभा ने करतार सिंह के शहीदी दिवस पर एक बड़ा चित्र बनाया था। इसे दुर्गा भाभी और सुशाला देवी ने अपने खून से बनाया था। सुशीला देवी भगवती चरण वोहरा की दीदी थीं। करतार सिंह ने ११ को साल पहले फांसी दी गई थी तब उसकी उमर १९ साल थी। वह फांसी पर झूलने वाला सबसे कम उमर का क्रांतिकारी था। दुर्गावती की शादी भगवती चरण वोहरा से होने के बाद वे पार्टी के अंदर दुर्गा भाभी हो गईं। पंजाब में उनके सहयोगी भगत सिंह सुखदेव आदि थे। साइमन कमीशन का विरोध करते हुए लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए दस दिसम्बर को जो पार्टी की बैठक हुई थी उसकी अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने ही की थी। इसी बैठक में पुलिस अधीक्षक जेए स्काट को मारने का फैसला लिया गया। दुर्गा भाभी ने खुद यह काम करना चाहती थीं लेकिन पार्टी ने यह काम भगत सिंह और सुखदेव को सौंपा। इस दौरान भगवती चरण के खिलाफ मेरठ षड्यंत्र में वारंट जारी हो चुका था। दुर्गा भाभी लाहौर में अपने तीन वर्ष के बच्चे के साथ रहती थीं लेकिन पार्टी में सक्रिय थीं। १७ दिसम्बर को स्काट की गफलत में सांडर्स मारा गया। इस घटना के बाद सुखदेव और भगत सिंह दुर्गा भाभी के घर पहुंचे तक तक भगत सिंह अपने बाल कटवा चुके थे। पार्टी ने इन दोनों को सुरक्षित लाहौर से निकालने की जिम्मेदारी दुर्गा भाभी को दे दी। उन्होंने अपने घर में रखे एक हजार रुपये पार्टी को दे दिए। १८ दिसम्बर १९२८ को भगत सिंह ने इन्ही दुर्गा भाभी के साथ वेश बदल कर कलकत्ता-मेल से यात्रा की थी l यह घटना भगत सिंह के साथ जुड़ी होने के कारण सबको पता है। दुर्गा भाभी ने ही कलकत्ता में भगत सिंह के रहने की व्यवस्था की थी। भगत सिंह के एसेम्बली बम कांड के बाद उन्होंने संघर्ष जारी रखा। भगत सिंह को छुडाने के प्रयास में उनके पति की मौत हो गई। भगत सिंह की फांसी और चंद्र शेखर की शहादत के बाद पार्टी संगठन कमजोर हो गया लेकिन दुर्गा भाभी का संघर्ष जारी रहा। १९३६ में बंबई गोलीकांड में उनको फरार होना पड़ा। बाद में इस मामले में उन्हें तीन वर्ष की सजा भी हुई। आजादी के बाद उन्होंने एकाकी जीवन जिया। उन्होंने गाजियाबाद में एक स्कूल मे शिक्षा देने में ही समय लगा दिया। १९९८ में उनकी मृत्यु हो गई। आजादी का इतिहास लिखने वालों ने दुर्गा भाभी के साथ पूरा इंसाफ नहीं किया। उन्हें भी थोड़ी जगह मिलनी चाहिए। आखिर चह भी मादरे हिन्द की बेटी थीं। 4 अक्टूबर 1999 को गाजियाबाद में उन्होंने सबसे नाता तोड़ते हुए इस दुनिया से अलविदा कर लिया।  "इंकलाब ज़िंदाबाद "
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गोपाल राठी 
आजादी की क्रांतिकारी धारा में उनको दुर्गा भाभी के नाम से जाना जाता है। वे थीं हिन्द़ुस्तान सोशलिस्ट रिपिब्लक पार्टी का घोषणापत्र लिखने वाले भगवतीचरण वोहरा की पत्नी। दुर्गा भाभी का पूरा जीवन संघर्ष का जीता जागता प्रमाण है। जन्म से ही इनका संघर्ष शुरु हो गया। इनका जन्म इलाहाबाद में ७ अक्टूबर १९०७ को हुआ था। जन्म के दस माह बाद ही उनकी माताजी का निधन हो गया। इसके कुछ समय बाद पिता ने संन्यास ग्रहण कर लिया। अब वे पूरी तरह से माता-पिता के आश्रय से वंचित हो चुकी थी। इसी दौरान रिश्तेदार उनको आगरा ले आए। यहीं उनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई। यह शिक्षा किस स्कूल में हुई यह निश्चत नहीं कहा जा सकता। संभवतः यह सेंट जोंस या आगरा कालेज रहा होगा। यहीं भगवती चरण वोहरा भी अपनी पढ़ाई किया करते थे। भगवती चरण वोहरा के पूर्वज तीन पीढ़ी पहले आगरा आकर बस गए थे। बाद में भगवती चरण वोहरा लाहौर चले गए। दुर्गा देवी भी कुछ समय बाद लाहौर चलीं गईं। यहां वह भारतीय नौजवान सभा कह सक्रिय सदस्य हो गईं। तब तक भगत सिंह का ग्रुप भी पंजाब में सक्रिय हो चुका था। भारतीय नौजवान सभा का पहला काम १९२६ में सामने आया। सभा ने करतार सिंह के शहीदी दिवस पर एक बड़ा चित्र बनाया था। इसे दुर्गा भाभी और सुशाला देवी ने अपने खून से बनाया था। सुशीला देवी भगवती चरण वोहरा की दीदी थीं। करतार सिंह ने ११ को साल पहले फांसी दी गई थी तब उसकी उमर १९ साल थी। वह फांसी पर झूलने वाला सबसे कम उमर का क्रांतिकारी था। दुर्गावती की शादी भगवती चरण वोहरा से होने के बाद वे पार्टी के अंदर दुर्गा भाभी हो गईं। पंजाब में उनके सहयोगी भगत सिंह सुखदेव आदि थे। साइमन कमीशन का विरोध करते हुए लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए दस दिसम्बर को जो पार्टी की बैठक हुई थी उसकी अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने ही की थी। इसी बैठक में पुलिस अधीक्षक जेए स्काट को मारने का फैसला लिया गया। दुर्गा भाभी ने खुद यह काम करना चाहती थीं लेकिन पार्टी ने यह काम भगत सिंह और सुखदेव को सौंपा। इस दौरान भगवती चरण के खिलाफ मेरठ षड्यंत्र में वारंट जारी हो चुका था। दुर्गा भाभी लाहौर में अपने तीन वर्ष के बच्चे के साथ रहती थीं लेकिन पार्टी में सक्रिय थीं। १७ दिसम्बर को स्काट की गफलत में सांडर्स मारा गया। इस घटना के बाद सुखदेव और भगत सिंह दुर्गा भाभी के घर पहुंचे तक तक भगत सिंह अपने बाल कटवा चुके थे। पार्टी ने इन दोनों को सुरक्षित लाहौर से निकालने की जिम्मेदारी दुर्गा भाभी को दे दी। उन्होंने अपने घर में रखे एक हजार रुपये पार्टी को दे दिए। १८ दिसम्बर १९२८ को भगत सिंह ने इन्ही दुर्गा भाभी के साथ वेश बदल कर कलकत्ता-मेल से यात्रा की थी l यह घटना भगत सिंह के साथ जुड़ी होने के कारण सबको पता है। दुर्गा भाभी ने ही कलकत्ता में भगत सिंह के रहने की व्यवस्था की थी। भगत सिंह के एसेम्बली बम कांड के बाद उन्होंने संघर्ष जारी रखा। भगत सिंह को छुडाने के प्रयास में उनके पति की मौत हो गई। भगत सिंह की फांसी और चंद्र शेखर की शहादत के बाद पार्टी संगठन कमजोर हो गया लेकिन दुर्गा भाभी का संघर्ष जारी रहा। १९३६ में बंबई गोलीकांड में उनको फरार होना पड़ा। बाद में इस मामले में उन्हें तीन वर्ष की सजा भी हुई। आजादी के बाद उन्होंने एकाकी जीवन जिया। उन्होंने गाजियाबाद में एक स्कूल मे शिक्षा देने में ही समय लगा दिया। १९९८ में उनकी मृत्यु हो गई। आजादी का इतिहास लिखने वालों ने दुर्गा भाभी के साथ पूरा इंसाफ नहीं किया। उन्हें भी थोड़ी जगह मिलनी चाहिए। आखिर चह भी मादरे हिन्द की बेटी थीं। 4 अक्टूबर 1999 को गाजियाबाद में उन्होंने सबसे नाता तोड़ते हुए इस दुनिया से अलविदा कर लिया। "इंकलाब ज़िंदाबाद "

Poem:

POEM
O MY FRIEND
SANJIV VERMA "SALIL"
*
Dearest!
come along
live with me
share the joys and 
sorrows of life. 

Hand in hand and
the head held high
let's walk together
to win the ultimate goal.

I admit 
I'm quite alone and 
weak without you. 
You are no better 
without me.
But remember
to get Shiva
Shav becomes Shiv
and sings the song of creation
HE adorns this universe
Himself. 
Bulid a new future 
as soon as 
reaches the Goal
select a new one. 

You created a universe
out of nothing
and tended your breath 
with untiring love.
Even when it was
Amavasya- the darkest night
you worshipped full moon.

Always wished more 
and more achievements
to set new goals.
Collect all your sources 
and sing the songs
of new creation.
Keep on hoping
again and again.
Develop a thirst
and finally be contended.
Let your arms be 
as vast as sky,
you only need to advance
and the formless
will assume form
to create a new universe.

O Dearest!
Come along. 

***
Acharya Sanjiv Verma 'Salil'
Samanvayam 
204 Vijay Apartment, Napier Town
Jabalpur 482001
salil.sanjiv@gmail.com
94251 83244

सोमवार, 6 अक्टूबर 2014

vichar:

geet:

गीत:
आओ! चिठिया लिखें
*
आओ! चिठिया लिखें प्यार की, वर्जन की, मनुहार की
मीता! गीता कहें दिलों से, दिल की मधुर पुकार की

कहलें-सुनलें मन की बातें, सुबह सुनहरी मीठी रातें
भावनाओं के श्वेत कबूतर, अभिलाषा तोतों की पाँतें
अरमां कोयल कूके, नाचे मोर हर्ष-उल्लास का
मन को मन अपना सा लागे, हो मौसम मधुमास का 
शिया चंपा, सेज जूही की, निंदिया हरसिंगार की

भौजी छेड़ें सिन्दूरी संध्या से लाल कपोल भये
फूले तासु, बिखरे गेसू, अनबोले ही बोल गये
नज़र बचाकर, आँख चुराकर, चूनर खुद से लजा रही
दिन में सपन सलोने देखे, अँखियाँ मूंदे मजा यही
मन बासन्ती, रंग गुलाल में छेड़े राग मल्हार की

बूढ़े बरगद की छैंया में, कमसिन सपने गये बुने
नीम तले की अल्हड बतियाँ खुद से खुद ही कहे-सुने
पनघट पर चूड़ी की खनखन, छमछम पायल गाये गीत
कंडे पाठ खींचकर घूँघट, मिल जाए ना मन का मीत
गुपचुप लेंय बलैंया चितवन चित्त चुरावनहार की

निराकार साकार होंय सपने अपने वरदान दो
स्वस्तिक बंदनवार अल्पना रांगोली हर द्वार हो
गूँज उठे शहनाई ले अँगड़ाई, सोयी प्यास जगे
अविनाशी हो आस प्राण की, नित्य श्वास की रास रचे
'सलिल' कूल की करे कामना ज्वार-धार-पतवार की

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muktika:

मुक्तिका :

ज़िंदगी हो सरल नर्मदा - नर्मदा
बंदगी हो विमल नर्मदा - नर्मदा

पीर को धीर धरकर गले लो लगा
हो धरा-नभ अचल नर्मदा - नर्मदा

मातु महिमा अगम मैं लिखूँ उम्रभर
गीत मुक्तक ग़ज़ल नर्मदा - नर्मदा

सर समर में कभी हम झुकाते नहीं
हौसला है अटल नर्मदा - नर्मदा

मोहिनी है तुम्हारी हँसी दिलरुबा
नैन - चितवन नवल नर्मदा - नर्मदा

सतपुड़ा विंध्य मेकल अमरकण्टकी
पंथ पर चल मचल नर्मदा - नर्मदा

है ह्रदय संगमरमर तुम्हारा धवल 
प्रीत अपनी 'सलिल' नर्मदा - नर्मदा

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रविवार, 5 अक्टूबर 2014

neh deep

नेह दीप


नेह दीप, नेह शिखा, नेह है उजाला
नेह आस, नेह प्यास,साधना-शिवाला 

नेह  गेह, गाँव, राष्ट्र, विश्व, सृष्टि-समाज 
नेह कल था, नेह कल है, नेह ही है आज 

नेह अजर, नेह अमर, नेह है अनश्वर
नेह धरा, नेह गगन, नेह ही है ईश्वर 

नेह राग सँग विराग, योग-भोग, कर्म
नेह कलम, शब्द-अक्षर, नेह ही है धर्म

नेह बिंदु, नेह सिंधु, नेह आदि-अंत
नेह शून्य, नेह सत्य, अनादि-अनंत 

नेह आशा-निराशा है, नेह है पुरुषार्थ 
नेह चाह, नेह राह, स्वार्थ संग परमार्थ 

नेह लेन, नेह देन, नेह गीत मीत 
नेह प्रीत, नेह दीप, दिवाली पुनीत 

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bak kavita: nagpanchami

धरोहर :

नागपंचमी

सुधीर त्यागी 
*
सूरज के आते भोर हुआ

लाठी लेझिम का शोर हुआ

यह नागपंचमी झम्मक-झम

यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम

मल्लों की जब टोली निकली

यह चर्चा फैली गली-गली

दंगल हो रहा अखाड़े में

चंदन चाचा के बाड़े में।।



सुन समाचार दुनिया धाई,

थी रेलपेल आवाजाई।

यह पहलवान अम्बाले का,

यह पहलवान पटियाले का।

ये दोनों दूर विदेशों में,

लड़ आए हैं परदेशों में।

देखो ये ठठ के ठठ धाए

अटपट चलते उद्भट आए

थी भारी भीड़ अखाड़े में

चंदन चाचा के बाड़े में



वे गौर सलोने रंग लिये,

अरमान विजय का संग लिये।

कुछ हंसते से मुसकाते से,

मूछों पर ताव जमाते से।

जब मांसपेशियां बल खातीं,

तन पर मछलियां उछल आतीं।

थी भारी भीड़ अखाड़े में,

चंदन चाचा के बाड़े में॥


यह कुश्ती एक अजब रंग की,

यह कुश्ती एक गजब ढंग की।

देखो देखो ये मचा शोर,

ये उठा पटक ये लगा जोर।

यह दांव लगाया जब डट कर,

वह साफ बचा तिरछा कट कर।

जब यहां लगी टंगड़ी अंटी,

बज गई वहां घन-घन घंटी।

भगदड़ सी मची अखाड़े में,

चंदन चाचा के बाड़े में॥



वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष

वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष

जब मांसपेशियां बल खातीं

तन पर मछलियां उछल जातीं

कुछ हंसते-से मुसकाते-से

मस्ती का मान घटाते-से

मूंछों पर ताव जमाते-से

अलबेले भाव जगाते-से

वे गौर, सलोने रंग लिये

अरमान विजय का संग लिये

दो उतरे मल्ल अखाड़े में

चंदन चाचा के बाड़े में



तालें ठोकीं, हुंकार उठी

अजगर जैसी फुंकार उठी

लिपटे भुज से भुज अचल-अटल

दो बबर शेर जुट गए सबल

बजता ज्यों ढोल-ढमाका था

भिड़ता बांके से बांका था

यों बल से बल था टकराता

था लगता दांव, उखड़ जाता

जब मारा कलाजंघ कस कर

सब दंग कि वह निकला बच कर

बगली उसने मारी डट कर

वह साफ बचा तिरछा कट कर

दंगल हो रहा अखाड़े में

चंदन चाचा के बाड़े में.....
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kadamb ka ped: subhadra kumari chauhan

धरोहर

कदम्ब का पेड़



सुभद्रा कुमारी चौहान



यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदम्ब की डाली

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता

वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता

सुन मेरी बंसी को माँ तुम इतनी खुश हो जातीं
मुझे देखने को तुम बाहर काम छोड़ कर आतीं

तुमको आता देख बांसुरी रख मैं चुप हो जाता
पत्तों में छिप कर फिर धीरे से बांसुरी बजाता

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता

तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे

तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता

तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं

इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे

-सुभद्राकुमारी चौहान

शनिवार, 4 अक्टूबर 2014

kruti charcha: shamiyana

कृति चर्चा:

शामियाना: पठनीय सामूहिक काव्य संग्रह

[कृति विवरण: शामियाना सामूहिक काव्य संग्रह, संपादक अशोक खुराना, पृष्ठ २४०, सजिल्द बहुरंगी आवरण, संपर्क: विजय नगर कॉलोनी, गेटवाली गली क्र. २ बदायूँ २४३६०१, चलभाष: ०९८३७०३०३६९, दूरभाष ०५८३२ २२४४४९] 

हिंदी में सामूहिक काव्य संकलनों की सुदीर्घ परंपरा है। इनकी उपादेयता और प्रासंगिकता ने इन्हें चिरजीवी बनाया है। वैयक्तिक संकलन किसी एक रचनाकार के विचारों को विषय या विधा पर केंद्रित-प्रकाशित करते हैं जबकि सामूहिक संकलन अनेक रचनाकारों के चिंतन-मनन के इन्द्रधनुष को रूपायित करते हैं। एकल संकलन में विषय और भाषा रचनाकार की सामर्थ्य के अनुसार सामने आता है जबकि सामूहिक संकलन में अनेक मनीषियों का चिन्तन, भाषा की विविध शैलियाँ, शब्द भंडार, बिम्ब, प्रतीक, रस, शब्द शक्ति, लय आदि काव्यांगों का बहुरूपीय शब्दांकन पाठक को आनंदित करता है। किसी एक व्यंजन से भरी थाली और अनेक व्यंजनों से सजी थाली सामने हो तो ग्रहणकर्ता अनेक व्यंजनों का ही चयन करेगा। 

सामूहिक संकलनों के सारस्वत अनुष्ठानों की निरंतर पुष्ट होती पयस्विनी सृजन सलिला प्रामाणिकता, उत्कृष्टता, उपादेयता, सम्प्रेषणीयता, सुलभता, मितव्ययिता, विविधता, रोचकता व प्रासंगिकता के ९ निकषों पर खुद को खरा सिद्ध कर सकी है।  इसी कारण विविध कक्षाओं में विविध विधाओं तथा भाषा की शिक्षा सामूहिक संकलनों के माध्यम से दी जाती रही है. साहित्यिक रचनाधर्मिता, सामाजिक सजगता, राजनैतिक सक्रियता, वैयक्तिक गुणग्राह्यता तथा राष्ट्रीय-वैश्विक चेतना के पञ्च कलशों के काव्यानन्द से परिपूर्ण करते सामूहिक संकलन नव रचनाकारों को प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों के साथ जुड़ने का सृजन सेतु उपलब्ध कराते हैं।

सामूहिक काव्य संकलनों का संयोजन विविध आधारों पर किया जा रहा है जिनमें प्रमुख हैं: १. विशिष्ट रचनाकारों (त्रिधारा', १९३५, सं. ठाकुर लक्ष्मणसिंह चौहान 'सहभागी माखनलाल चतुर्वेदी १३ रचनाएँ ४४ पृष्ठ, केशवप्रसाद पाठक १३ रचनाएँ ४८ पृष्ठ, सुभद्राकुमारी चौहान ५ रचनाएँ २० पृष्ठ, पेपरबैक, आकार क्राउन, मूल्य १/-), २. क्षेत्र विशेष ('जबलपुर की काव्यधारा', १९९९, सं हरिकृष्ण त्रिपाठी, सहभागी ७५, पृष्ठ ५६५, सजिल्द, डिमाई), ३. समयावधि विशेष ('नयी सदी के प्रतिनिधि दोहाकार' २००४, सं अशोक अंजुम, सहभागी ८१, पृष्ठ १७६, सजिल्द, डिमाई), ४. विचारधारा विशेष ('आठवें दशक के सशक्त जनवादी कवि और प्रतिबद्ध कवितायेँ', १९८२, सं. स्वामीशरण 'स्वामी', सहभागी १५५, पृष्ठ ३०४, पेपरबैक, डिमाई),  ५. वर्ग विशेष (निर्माण के नूपुर', १९८३, सं. संजीव वर्मा 'सलिल', सहभागी १६ अभियंता-कवि,  डिमाई, पेपरबैक) ६. धार्मिक ('क्या कहकर पुकारूँ?', २००३, सं. डॉ. महेश दिवाकर, मोहनराम मोहन, जसपाल सिंह 'संप्राण', सहभागी १९६, डिमाई, सजिल्द, पृष्ठ ६७८), ७. राष्ट्रीय   ('राष्ट्रीय काव्यान्जलि', २०००, सं. डॉ. किशोरीरमण शर्मा   सहभागी ९१, पृष्ठ २७२, सजिल्द, डिमाई), ८. राजनैतिक ('रास्ता इधर है', १९७८, सं. भीष्म साहनी सहभागी ५३, डिमाई, पेपरबैक, पृष्ठ १२६), ९. युद्ध विजय ('माँ तेरे चरणों में', कारगिल विजय पर, २०००, सं. पंकज भारद्वाज, सजिल्द, डिमाई, पृष्ठ १६०), १०. पर्व ('काव्य अबीर, होली पर, २००४, सं. नज़ीर मोहम्मद खान 'नाज़', सहभागी ६०, डिमाई, पेपरबैक, पृष्ठ १४८), ११. परिवार वृद्धि (अनंत, २००४, पौत्र प्राप्ति पर काव्याशीष , सं. डॉ. गजेन्द्र बटोही, सहभागी ३६, डिमाई, पेपरबैक, पृष्ठ ४८), १२. श्रृंगार गीत ('हिंदी के श्रृंगार गीत, १९७०, सं. नीरज, पेपरबैक, पॉकेट बुक), १३. ग़ज़ल ('नव ग़ज़लपुर', २००२, सं. सागर मीरजापुरी, सहभागी ८९, सजिल्द, डिमाई, पृष्ठ, १९२) १४. रुबाई (५०० रुबाइयाँ, सं. नूर नबी अब्बासी, संभागी २१, पेपरबैक, पॉकेटबुक, पृष्ठ ११२), १५ विषय (दामने-ज़िंदगी, २००१, विषय समसामयिक ग़ज़ल में जीवन दर्शन, सं. रसूल अहमद 'सागर बकाई', पेपरबैक, डिमाई, पृष्ठ ९२) १६. प्रणय गीत (बहारों से पूछो, २००, स्व. गोपीचंद चौबे 'अशेष', सहभागी ११४, डिमाई, सजिल्द, पृष्ठ २८०), १७, देश निर्माण ('निर्माण के गीत', १९९६, सं. गोविन्द प्रसाद शर्म्मा, सहभागी २१, क्राउन, सजिल्द, पृष्ठ १०२), १८. शोधपरक (गीतिकायनम्, २००५, सं. सागर मीरजापुरी, डिमाई, सजिल्द, पृष्ठ १६०), १९. हाइकु/क्षणिका (कोंपलें, १९९९, सं. अनिरुद्ध सिंह सेंगर 'आकाश', पेपरबैक, पृष्ठ ८४), २०. अकविता (क्षितिज, १९९८, सं. अनिरुद्ध सिंह सेंगर 'आकाश', पेपरबैक, पृष्ठ ९६), २१. परिचय एवं रचनाएँ (शब्द प्रभात, २००५, सं. सी. एल. सांखला, सहभागी ३६+५५, पृष्ठ १६४), २२. व्यक्तित्व-कृतित्व (समयजयी साहित्यशिल्पी भागवतप्रसाद मिश्रा नियाज़', २००५, सं. संजीव वर्मा 'सलिल', सहभागी १०६, डिमाई, सजिल्द, पृष्ठ ४५५), २३. कहानी: (कहानी मंच की कहानियाँ, २००२, सं. रमाकांत ताम्रकार, सहभागी ९, डिमाई, सजिल्द, पृष्ठ ५४), २४. जनक छंद (गंगा की धारा बहे, २००६, सं. ओमप्रकाश भाटिया 'अराज', सहभागी २४, डिमाई, पेपरबैक, पृष्ठ ५६), २५. सरस्वती वंदना (वाणी वंदना, सहभागी २८, सं. ज्ञानेन्द्र साज़, डिमाई, पेपरबैक, पृष्ठ ३६), २६. रचनाकार परिचय (द्वार खड़े इतिहास के, २००६, सं. डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र, संजीव वर्मा 'सलिल', सहभागी १०१, डिमाई, पेपरबैक, पृष्ठ ८०,) २७. गीतिकाव्य का विकास, २०१२, सं. डॉ. महेश दिवाकर, डॉ. अभय कुमार, डॉ. मीना कौल,  डिमाई, सजिल्द, २८. सामान्य (तिनका-तिनका नीड़, सं. संजीव वर्मा 'सलिल', सहभागी ५४, डिमाई, सजिल्द, पृष्ठ ३३२), २९. बहुभाषिक/बहुदेशिक (विश्व कविता: कल और आज, २००४, सं, भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़', सहभागी ७७, डिमाई, सजिल्द, पृष्ठ २०६) ३०. हिंदी कविता का अंग्रजी काव्यानुवाद (कंटेंपरेरी हिंदी पोएट्री,  २००९, सं. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़', सहभागी २०, डिमाई, सजिल्द, पृष्ठ अ) ३१. आजीविका/व्यवसाय (शामियाना २०१४, सं. अशोक खुराना, सहभागी १८०, डिमाई, सजिल्द, पृष्ठ २४०)।

शामियाना-३ वार्षिक सामूहिक संकलन श्रृंखला की तीसरी कड़ी है. संपादक-प्रकाशक श्री अशोक खुराना इस सारस्वत अनुष्ठान का आयोजन स्ववित्त से करते हैं। शामियाना व्यवसाय से जीविकोपार्जन करने के साथ उसे समाज में सकारात्मक ऊर्जा प्रवाह का साधन बनाकर सनातन सृजन धारा को प्रोत्साहित करना सराहनीय है। इस सुरुचिपूर्ण संकलन में गीत, ग़ज़ल, दोहा, छंद मुक्त कविता, शे'र, हाइकु  आदि विधाओं का प्रतिनिधित्व है। रचनाकारों में श्रेष्ठ-ज्येष्ठ से लेकर नवोदितों तक की उपस्थिति इसे ३ पीढ़ियों से जोड़ती है। अभिव्यक्ति सामर्थ्य, शब्द सम्पदा, आनुभूतिक सघनता, अभिव्यक्तिकरण की भिन्नता, विधागत विधान सम्मत बंधन तथा विषय विशेष रचनाकारों के समक्ष अक्षम और सुष्ठु सृजन की चुनौती बनकर उपस्थित होते हैं। प्रसन्नता है की लगभग सभी रचनाएँ सरसता, सरलता, सार्थकता के निकष पर खरी हैं. 

संपादक अशोक जी साधुवाद के पात्र हैं की वे ईरानी बड़ी संख्या में सृजनधर्मियों को प्रेरित कर उनसे विषय पर रचना करवा सके। संकलन के प्रारम्भ में वरिष्ठ महाकवि आचार्य भगवत दुबे रचित गणेश-सरस्वती वन्दनायें उदात्त परंपरा के निर्वाह के साथ-साथ संकलन की गरिमावृद्धि करती हैं। निरंकारी बाबा हरदेव सिंह के आशीर्वचन, हिंदी-मालवी कविता के समर्थ हस्ताक्षर बालकवि बैरागी, तथा हिंदी गीत-ग़ज़ल के प्रतिनिधि हस्ताक्षर कुंवर बेचैन के आशीर्वचनों से संग्रह और सहभागियों का महत्त्व बढ़ा है।    

आरम्भ में डॉ. श्यामानन्द सरस्वती 'रौशन' का शे'र अपनी मिसाल आप है: 

डरें भी बारिशे-गम से तो क्यों हम? 
दुआओं का है सर पर आशियाना

रामचरित मानस में तुलसी ने समुद्र के ९ समानार्थी शब्दों से युक्त एक दोहा कहा है: 

बांध्यो जलनिधि नीरनिधि जलधि सिंधु वारीश 
सत्य तोयनिधि कंपति, उदधि पयोधि नदीश 

इस विरासत को आगे बढ़ते हुए नासिर अली 'नदीम' ने शामियाना के ९ समानार्थी शब्दों को लेकर अपनी बात कही है. आनंद लें:

अब आज टेंट भी मंडप भी नाम है इसका 
कहा गया इसे पंडाल तंबू ओ खेमा 
चँदोवा छोटे को कहते थे, छोलदारी भी 
घुमन्तुओं ने रखा नाम राउटी डेरा 

अशोक खुराना के लिए शामियाना एकता का वाहक है:

वो हिन्दू हो की मुस्लिम हो, वो सिख हो या कि ईसाई 
हर एक इंसां को मिलती है मुहब्बत शामियाने को 

अनिल रस्तोगी शामियाने की अस्मिता  इमारत से कम नहीं आंकते:

तने हैं हम कनातों से, खड़े हैं शामियानों से 
हमारी काम नहीं अस्मत, हवेली से, मकानों से 

आचार्य भगवत दुबे सवाल उठाते हैं:

शामियाने ने सिखाया भाईचारा आपको 
मज़हबी चिंगारियों को क्यों हवा देने लगे?

भगवान दास जैन ने शामियाने को दर्दमन्दों का ठिकाना कहा है:

हमारे गाँव में जब तक सलामत शामियाना है
दुखी और दर्दमन्दों का यकीनन वह ठिकाना है 

डॉ. फरीद खुशनसीब हैं कि उनके सर पर माँ की दुआओं का शामियाना है:

हुई मुश्किल को हबी मुश्किल जो घर आकर मेरे देखा 
मेरे सर पर मेरी माँ की दुआ का शामियाना है 

डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल' को पलकों का शामियाना मन भाता है:

खुशियाँ बिखेरते हैं गाते हैं जब वो गाना 
आँखों के अतिथिगृह में पलकों का शामियाना 

केवल खुराना शामियाने को मुहब्बत बढ़ाने का जरिया मानते हैं:

शर-ओ-नफरत मिटाये शामियाना 
मुहब्बत को बढ़ाये शामियाना 

कुंवर 'कुसुमेश' यादों के दिलफरेब शामियानों में हैं:

तुझे भूल पाना मुमकिन नहीं 
तेरी याद के शामियानों में हूँ 

महाकवि डॉ. किशोर काबरा शामियाना को ज़िन्दगी से जोड़ते हैं:

रात में सबकी बिदाई तय हुई 
शाम तक का शामियाना है यहाँ 

ममता जबलपुरी शमियाने के दर्द में शरीक हैं:

यूं तो दर्द शामियाने का बयान हो रहा था 
मगर किसी ने न देखा शामियाना भी रो रहा था 

डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी शामियाना को ईश्वरी वर का वाहक मानती हैं: 

चिरंतन स्वयं भव्य है शामियाना 
कृपा से मिलेगा वरद आशियाना

नमिता रस्तोगी शामियाने में माँ का दरबार सजाये हैं:

माँ का सजा / भव्य ये दरबार / शामियाने में 

डॉ. नलिनी विभा 'नाजली' दुआ और फन के ताने-बाने से शामियाना बनाती हैं:

बनी जाती हैं गज़लें 'नाज़ली' अहसास-ए-दौरां से 
दुआ, अहसास-ओ-फन का ताना-बाना शामियाना है

इंजी. ओमप्रकाश 'यति' फिज़ूकखर्ची का अंदाज़ा शामियाने से लगाते हैं:

जश्न में बहा पैसा है किस कदर 
लग रहा है शामियाना देखकर 

प्रभा पाण्डे 'पुरनम' का शामियाना आदर्शों और तजुर्बों से सुसज्जित है:

हर घर के बुजुर्ग होते हैं आशियाने की तरह 
आदर्शों, तजुर्बों टँके शामियाने की तरह 

डॉ. रसूल अहमद सागर रहमत के शामियाने में बलाओं से बेफिक्र हैं:

खौफ मुझको नहीं बलाओं का    
सर पे रहमत का शामियाना है

संजीव वर्मा 'सलिल' नील गगन के शामियाने के नीचे धरा की शैया पर सुख पा रहे हैं:

धरा की शैया सुखद है / अमित नभ का शामियाना 
संग लेकिन तेरे तेरे / कभी भी कुछ भी न जाना   

सुषमा भंडारी शामियाने में सुरक्षा कवच देखती हैं:

ये शामियाना / क्या है? 
शामियाना / एक सुरक्षा कवच है 

डॉ. सदिका सहर ने शामियाना को खून-ए-जिगर से सींचा है:

खून-जिगर से सींचा सपनों का शामियाना 
दुनिया बिछाए है अब पलकों का शामियाना 

सुनीता मिश्रा वृक्ष के झुरमुट रुपी शामियाने में पंछी की फ़िक्र है:

ये झुरमुट वृक्ष का लगता है जैसे शामियाना है 
न  टेढ़ी नज़र प्यारे ये पंछी का ठिकाना है   

डॉ. उदयभानु तिवारी 'मधुकर' पंचतत्व के शामियाने में त्रिगुण तलाशते हैं:

पंचतत्व से मिल बने शामियाना / सत-रज-तम त्रिगुण का है ये ठिकाना 

उर्मिला गौतम साजों के रुंधे गले की फ़िक्र से बाबस्ता हैं:

रुंध गए साज़ शादियाने के / बांस उखड़े जो शामियाने के 

शामियाने पर केंद्रित इस काव्य संकलन में कवियों ने शामियाने को जीवन चक्र और कालचक्र के प्रतीक के रूप में देखा है।एक ही विषय पर रचना केंद्रित होने के कारण बिम्ब या प्रतीक का दुहराव स्वाभाविक है।  संभागियों ने ग़ज़ल का काव्य रूप अपनाया है. छंद वैविध्य हो तो एकरसता टूटेगी। इस सारस्वत अनुष्ठान क बहुरंगी बनाने के लिए विविध विधाओं यथा  लघुकथा, कहानी, व्यंग्य लेख  शामियाना केंद्रित संकलन किये जा सकते हैं। रचनाकारों के चित्र तथा ईमेल दिए जा सकें तो संकलन की उपयोगिता बढ़ेगी।

श्री अशोक खुराना का समर्पण और लगन सराहनीय है। माँ शारदा उन पर सदा कृपालु हों।

शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014

अलंकार आभूषण गहने

अलंकार आभूषण गहने सज्जित रूप न किसको मोहे
आप जोड़ दें इनमें जो भी छूटे और आपको सोहे

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