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शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2013

kriti charcha: o geet ke garud-virat -sanjiv


कृति चर्चा:
गीत का विराटी चरण : ओ गीत के गरुड़
चर्चाकार : संजीव वर्मा 'सलिल'
*
(कृति विवरण : ओ गीत के गरुण, गीत संग्रह, चंद्रसेन विराट, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, सजिल्द, पृष्ठ १६०, मूल्य २५० रु., समान्तर प्रकाशन, तराना, उज्जैन, मध्य प्रदेश, भारत )
*
''मूलतः छंद में ही लिखनेवाली उन सभी सृजनधर्मा सामवेदी सामगान के संस्कार ग्रहण कर चुकीं गीत लेखनियों को जो मात्रिक एवं वर्णिक छंदों में भाषा की परिनिष्ठता, शुद्ध लय  एवं संगीतिकता को साधते हुए, रसदशा में रमते हुए अधुनातन मनुष्य के मन के लालित्य एवं राग का रक्षण करते हुए आज भी रचनारत हैं.'' ये समर्पण पंक्तियाँ विश्व वाणी हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ रचनाकार गीत, गजल, मुक्तक, दोहा आदि विधाओं के निपुण-ख्यात कवि अभियंता चंद्रसेन विराट की ३२ वीं काव्यकृति / चौदहवें गीत संग्रह 'ओ गीत के गरुड़' से उद्धृत हैं. उक्त पंक्तियाँ और कृति-शीर्षक कृतिकार पर भी शत-प्रतिशत खरी उतरती हैं.




विराट जी सनातन सामवेदी सामगानी सम्प्रदाय के सशक्ततम सामयिक हस्ताक्षरों में सम्मिलित हैं. छंद की वर्निंक तथा मात्रिक दोनों पद्धतियों में समान सहजता, सरलता, सरसता। मौलिकता तथा दक्षता के प्रणयन कर्म में समर्थ होने पर भी उन्हें मात्रिक छंद अधिक भाते हैं. समर्पित उपासक की तरह एकाग्रचित्त होकर विराट जी छंद एवं गीत के प्रति अपनी निष्ठा एवं पक्षधरता, विश्व वाणी हिंदी के भाषिक-व्याकरणिक-पिन्गलीय संस्कारों व शुचिता के प्रति आग्रही ही नहीं ध्वजवाहक भी रहे हैं. निस्संदेह गीतकार, गीतों के राजकुमार, गीत सम्राट आदि सोपानों से होते हुए आज वे गीतर्षि कहलाने के हकदार हैं.
'ओ गीत के गरुड़' की गीति रचनाएँ नव-गीतकारों के लिए गीत-शास्त्र की संहिता की तरह पठनीय-माननीय-संग्रहनीय तथा स्मरणीय है. विषय-वैविध्य, छंद वैविध्य, बिम्बों का अछूतापन, प्रतीकों का टटकापन, अलंकारों की लावण्यता, भावों की सरसता, लय की सहजता, भाषा की प्रकृति, शब्द-चयन की सजगता, शब्द-शक्तियों का समीचीन प्रयोग पंक्ति-पंक्ति को सारगर्भित और पठनीय बनाता है. रस, भाव और अलंकार की त्रिवेणी में अवगाहन कर विराट की काव्य-पंक्तियाँ यत्र-तत्र ऋचाओं की तरह आम काव्य-प्रेमी के कंठों में रमने योग्य हैं. छंद का जयघोष विराट की हर कृति की तरह यहाँ भी है. गीत की मृत्यु की घ्शाना करने तथाकथित प्रगतिवादियों द्वारा महाप्राण निराला के नाम की दुहाई देने पर वे करार उत्तर देते हैं- 'मुक्त छंद दे गए निराला / छंद मुक्त तो नहीं किया था' :

विराट का पूरी तन्मयता से गीत की जय बोलते हैं :
हम इसी छंद की जय बोलेंगे / आज आनंद की जय बोलेंगे
गीत विराट की श्वासों का स्पंदन है:
गीत निषेधित जहाँ वहीं पर / स्थापित कर जाने का मन है
गीत-कंठ में नए आठवें / स्वर को भर जाने का मन है
विराट के गीतों में अलंकार वैविध्य दीपावली क दीपों की तरह रमणीय है. वे अलंकारों की प्रदर्शनी नहीं लगाते, उपवन में खिले जूही-मोगरा-चंपा-चमेली की तरह अलंकारों से गीत को सुवासित करते हैं. अनुप्रास, उपमा, विरोधाभास, श्लेष, यमक, रूपक, उल्लेख, स्मरण, दृष्टान्त, व्यंगोक्ति, लोकोक्ति आदि की मोहिनी छटा यत्र-तत्र दृष्टव्य हैं.

ओ कमरे के कैदी कवि मन', समय सधे तो सब सध जाता / यही समय की  सार्थकता है, कटे शीश के श्वेत कबूतर, मैं ही हूँ वह आम आदमी, जो उजियारे में था थोपा, प्रजाजनों के दुःख-दर्दों से, प्रेरक अनल प्रताप नहीं है, दैहिक-दैविक संतापों से,कैकेयी सी कोप भवन में, अनिर्वाच्य आनंद बरसता आदि में छेकानुप्रास-वृत्यानुप्रास गलबहियां डाले मिलते हैं. अन्त्यानुप्रास तो गीतों का अनिवार्य तत्व ही है. अनिप्रास विराट जी को सर्वाधिक प्रिय है. अनुप्रास के विविध रूप नर्मदा-तरंगों की तरह अठखेलियाँ करते हैं-  समय सधे तो सब सध जाता (वृत्यानुप्रास, लाटानुप्रास), प्रेम नहीं वह प्रेम की जिसको / प्राप्त प्रेम-प्रतिसाद नहीं हो (वृत्यानुप्रास, लाटानुप्रास), कैकेयी सी कोप में (छेकानुप्रास, उपमा), बारह मासों क्यों आँसू का सावन मास रहा करती है (अन्त्यानुप्रास, लाटानुप्रास), अब भी भूल सुधर सकती है / वापिस घर जाने का मन है (छेकानुप्रास, अन्त्यानुप्रास), न हीन मोल कर पता इसका / बिना मोल जिसको मिलता है (छेकानुप्रास, लाटानुप्रास, अन्त्यानुप्रास) इत्यादि.
भाव-लय-रस की त्रिवेणी बहते हुए विरोधाभास अलंकार का यह उदाहरण गीतकार की विराट सामर्थ्य की बानगी मात्र है- है कौन रसायन घुला ज़िन्दगी में / मीठी होकर अमचूरी लगती है. विरोधाभास की कुछ और भंगिमाएँ  देखिये- अल्प आयु का सार्थक जीवन / कम होकर भी वह ज्यादा है, अल्प अवधी का दिया मौत है / इतना भी अवकाश न कम है, रोते में अच्छी लगती हो, भरी-पूरी युवती हो भोली / छुई-मुई बच्ची लगती हो आदि.
विराट का चिंतक मन सिर्फ सौन्दर्य नहीं विसंगतियां और विडंबनाओं के प्रति भी संवेदनशील है. बकौल ग़ालिब आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना, विराट के अनुसार 'आदमी ज्यादा जगत में / खेद है इंसान कम है. ग़ालिब से विराट के मध्य  में भी इस अप्रिय सत्यानुभूति का न बदलना विचारणीय ही नहीं चिंतनीय  भी है.
विराट जी का गीतकार भद्रजन की शिष्ट-शालीन भाषा में आम आदमी के अंतर्मन की व्यथा-कथा कहता नहीं थकता- भीड़ में दुर्जन अधिक हैं / भद्रजन श्रीमान कम हैं, वज्र न निर्णय को मानेगा / जो करना है वही करेगा (श्लेष), पजतंत्र के दुःख-दर्दों से / कोई तानाशाह व्यथित है, चार पेग भीतर पहुँचे तो / हम शेरों के शेर हो गए, भर पाए आजाद हो गए / दूर सभी अवसाद हो गए (व्यंग्य), पीड़ा घनी हुई है / मुट्ठी तनी हुई है (आक्रोश), तुम देखना गरीबी / बाज़ार लूट लेगी (चेतावनी), आतंक में रहेंगे / कितने बरस सहेंगे (विवशता), चोर-चोर क्या / साहू-साहू अब मौसेरे भाई है (कटूक्ति), इअ देश का गरुड़ अब / ऊंची उड़ान पर है ( शेष,आशावादिता) आदि-आदि.
श्रृंगार जीवन का उत्स है जिसकी आराधना हर गीतकार करता है. विराट जी मांसल सौन्दर्य के उपासक नहीं हैं, वे आत्मिक सौदर्य के निर्मल सरोवर में शतदल की तरह खिलते श्रृंगार की शोभा को निरखते-परखते-सराहते आत्मानंद से परमात्मानंद तक की यात्रा कई-कई बार करते हुए सत-शिव-सुन्दर को सृजन-पथ का पाथेय बनाते हैं.
तू ही रदीफ़ इसकी / तू ही तो काफिया है
तुझसे गजल गजल है / वरना तो मर्सिया है
*
साहित्य का चरित है / सुन्दर स्वयं वरित है
*
लास्य-लगाव नहीं बदलेगा / मूल स्वभाव नहीं बदलेगा
*
मृदु वर्ण का समन्वय / आनंद आर्य अन्वय
है चित्त चारु चिन्मय / स्थिति है तुरीत तन्मय
*
इस संग्रह में विराट जी ने मुहावरों के साथ क्रीडा का सुख पाया-बाँटा है- भर पाए आजाद हो गए, तुम मिट्टी में मिले, पीढ़ी के हित खाद हो गए, घर की देहरी छू लेने को, तबियत हरी-हरी है आदि प्रयोग पाठक को अर्थ में अर्थ की प्रतीति कराते हैं.
राष्ट्रीय भावधारा के गीत मेरे देश सजा दे मुझको, हिमालय बुला रहा है, राष्ट्र की भाषा जिंदाबाद, बने राष्ट्र लिपि देवनागरी, वन्दे मातरम, हिंदी एक राष्ट्र भाषा, हिंदी की जय हो आदि पूर्व संग्रहों की अपेक्षा अधिक मुखरता-प्रखरता से इस संग्रह को समृद्ध कर रहे हैं.
अनंत विसंगतियों, विद्रूपताओं, विडम्बनाओं, अंतर्विरोधों तथा पाखंडों को देखने-सहने और मिटने की कामना करते विराट जी की जिजीविषा तनिक श्रांत-क्लांत, कुंठित नहीं होती। वह आशा के नए सूरज की उपासना कर विअज्य पथ को अभिषिक्त करती है- कल की चिंता का चलन बंद करो / आज आनंद है आनंद करो कहते हुए भी  चार्वाक  दर्शन सा पक्ष धर नहीं होतेैं.  चलना निरंतर जिन्दगी/ रुकना यहाँ मौत है/ चलते रहो -चलते रहो.कहकर वे 'चरवैती ' के वैदिक आदर्श की जय बोलते है. ' रे मनन कर परिवाद तू / जो कुछ मिला पर्याप्त है ' कहने के बाद भी हाथ पर हाथ धरकर बैठा उचित नहीं मानते. विराट का जीवन दर्शन निराशा पर आशा की ध्वजा फहराता है- 'मन ! यंत्रों का दास नहीं हो/ कुंठा का आवास नहीं हो/ रह स्वतंत्र संज्ञा तू सुख की/ दुःख का द्वन्द समास नहीं हो.' ' दुविधा न रही हो, निर्णय / बस एक मात्र रण है/ मैं शक्ति भर लडूंगा/ मेरा अखंड प्रण है / संघर्ष कर रहा हूँ/ संघर्ष ही करूँगा / विश्वाश सफलता को मैं एक दिन वरूँगा "-विराट  के इस संघर्ष में जीवन की धूप - छांव का हर रंग संतुलित है किन्तु निराशा  पर आशा का स्वर मुखेर हुआ है. वैदिक -पौराणिक -सामायिक मिथकों/ प्रतीकों  के माध्यम से विराट जीवट और जिजीविषा की जय बोल सकते है.


facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

गुरुवार, 24 अक्टूबर 2013

smaran lekh: amar ho gaye manna dey -kuldeep sing thakur

अमर हो गए मन्ना डे  

कुलदीप सिंह ठाकुर 
० 
 गुरुवार 24 अक्तूबर की सुबह भारतीय संगीत जगत के लिए एक दुखद खबर लेकर आयी। लंबी बीमारी झेलने के बाद इसी दिन भारत के महान संगीत शिल्पी जनप्रिय गायक मन्ना डे ने बेंगलूरु में अंतिम सांस ली। वे 94 वर्ष के थे। उन्हें पिछले जून महीने में फेफड़े के संक्रमण और किडनी की तकलीफ के लिए बेंगलूरु के नारायण हृदयालय में भरती किया गया था। वहीं हृदयाघात से उनकी मृत्यु हुई। मन्ना दे सशरीर हमारे बीच भले न हों लेकिन अपने गाये अमर गीतों में वे हमेशा जीवित रहेंगे और अपने चाहनेवालों के दिलों में घोलते रहेंगे संगीत के मधुर रंग।
1 मई 1919 को कलकत्ता अब कोलकाता में जन्में मन्ना दा भाग्यशाली थे कि उनको संगीत गुरु ढूंढ़ने दूर नहीं जाना पड़ा। घर में ही उन्हें गुरु चाचा कृष्णचंद्र डे के सी डे के नाम से मशहूर मिल गये। के.सी. डे के नेत्रों की ज्योति 13 वर्ष की उम्र में ही चली गयी थी। के.सी. डे शास्त्रीय संगीत के मर्मज्ञ थे और उनके हाथों ही मन्ना दा की संगीत की शिक्षा शुरू हुई। के.सी. डे के साथ ही मन्ना दा बंबई (अब मुंबई) चले आये। यहां के.सी. डे फिल्मों में संगीत देने और गायन करने के साथ-साथ अभिनय भी करने लगे। फिल्मों में गाने का पहला अवसर भी उन्हें चाचा के संगीत निर्देशन में फिल्म तमन्ना 1942 में मिला। उसके बाद फिर मन्ना दा ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अपने जीवन में उन्होंने 4000 से भी ज्यादा गीत गाये और अनेकों सम्मान पुरस्कार जीते। उन्हें भारत सरकार की ओर से पद्मश्री 1971 पद्मभूषण 2005 व दादा साहब फालके सम्मान (2007 में मिला।
      
मन्ना दे ने हिंदी फिल्मों में गाने के साथ ही बंगला फिल्मों भी गाना गाया। इसके अलावा अनेक भारतीय भाषाओं में उन्होंने बखूबी गाया। उन्होंने फिल्मी गीतों के अलावा गजल, भजन व अन्य गीत भी पूरी खूबी से गाये। जब मशहूर कवि डा. हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला को संगीतबद्ध कर गायन का प्रश्न आया तो उसके लिए भी एकमात्र मन्ना दा का ही नाम आया। मन्ना दा ने इस अमरकृति को बड़ी तन्मयता और पूरे मन से गाया। हिंदी फिल्मों में उन्होंने कई यादगार गीत गाये जो उन्हें रहती दुनिया तक अमर रखेंगे। 1953 से लेकर 1976 तक का समय हिंदी फिल्मों में पार्श्वगायन का सबसे सफल समय था। उनके गायन की सबसे बड़ी विशेषता थी उसमें शास्त्रीय संगीत का पुट होना।
      
मन्ना दा का नाम प्रबोधचंद्र दे था लेकिन जब वे गायन के क्षेत्र में आये तो मन्ना डे के नाम से इतने मशहूर हुए कि प्रबोधचंद्र को फिर किसी ने याद नहीं किया। उन्होंने स्काटिश चर्च कालेजिएट स्कूल और स्काटिश चर्च कालेज शिक्षा पायी। खेलकूद में उनकी काफी दिलचस्पी थी कुश्ती और बाक्सिंग में वे पारंगत थे। विद्यासागर कालेज से उन्होंने स्नातक परीक्षा पास की। बाल गायक के रूप में वे संगीत कार्यक्रम पेश करने लगे। स्काटिश चर्च में अध्ययन के दौरान वे अपने
सहपाठियों का मनोरंजन गायन से करते थे। उन्होंने इन्हीं दिनों चाचा के.सी. डे और उस्ताद दाबिर खान से संगीत की शिक्षा ली। कालेज की गायन प्रतियोगिताओं में लगातार तीन बार उन्होंने प्रथम पुरस्कार जीता।
      
बंबई (अब मुंबई) आने के बाद मन्ना दा पहले अपने चाचा के साथ उनके संगीत निर्देशन में सहायक के रूप में काम करने लगे। उसके बाद वे सचिन दा जो उनके चाचा के शिष्य थे) के साथ संगीत निर्देशन में सहायक के रूप में काम करने लगे।
इस बीच संगीत की उनकी शिक्षा भी जारी रही। उन्होंने उस्ताद अमान अली खान और उस्ताद अब्दुल रहमान खान से संगीत की शिक्षा ली। पार्श्वगायन की शुरुआत उन्होंने तमन्ना (1942) में की । इसमेंउन्होंने अपने चाचा के. सी. डे के निर्देशन में सुरैया के साथ ही एक युगल गीत 'जागो आयी ऊषा पंक्षी' गाया। इसक बाद तो फिर सिलसिला चल पड़ा और मन्ना दा ने एक के बाद एक शानदार गीत गाये। सचिन देव बर्मन से लेकर अपने समय के तमान संगीत निर्देशकों के साध
उन्होंने गीत गाये। उनको सबसे बड़ा मलाल यह रहा कि उनके गीत ज्यादातर चरित्र अभिनेताओं या हास्य कलाकारों पर फिल्माये जाते थे। नायकों पर बहुत कम ही फिल्माये गये। 1948 से लेकर 1954 तक उनके गायन का चरम समय था। उन्होंने न सिर्फ शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत गाये अपितु पश्चिमी संगीत पर आधारित गीत भी बखूबी गाये।
राज कपूर के लिए उन्होंने शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में फिल्म आवारा, बूट पालिश, श्री 420, चोरी चोरी, मेरा नाम जोकर फिल्मों के गीत गाये जो काफी लोकप्रिय हुए। उन्होंने वसंत देसाई, नौशाद, रवि, ओ.पी. नैयर, रोशन, कल्याण जी आनंद जी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर. डी. बर्मन, अनिल विश्वास, सलिल चौधरी आदि के साथ काम किया।
जो गीत उनको अमर रखेंगे उनमें से कुछ हैं-तू प्यार का सागर है (सीमा), ये कहानी है दिये की और तूफान की (दिया और तूफान), ऐ मेरे प्यारे वतन काबुलीवाला), लागा चुनरी में दाग( दिल ही तो है), सुर ना सजे क्या गाऊं मैं सुर के बिना (बसंत बहार), कौन आया मेरे मन के द्वारे पायल की झनकार लिये( देख कबीरा रोया), पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी (मेरी सूरत तेरी आंखें), झनक-झनक तोरी बाजे पायलिया (मेरे हुजूर), चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया तीसरी कसम), ओ मेरी जोहरा जबीं (वक्त), तुम गगन के चंद्रमा हो (सती सावित्री), कसमे वादे प्यार वफा लब (उपकार), यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी (जंजीर),जिदगी कैसी है पहेली (आनंद), ये रात भीगी-भीगी ये मस्त हवाएं (चोरी चोरी), ये भाई जरा देख के चलो मेरा नाम जोकर), प्यार हुआ इकरार हुआ (श्री 420)।
      
कुछ कलाकारों पर उनकी आवाज इतनी फिट बैठती थी कि लगता है परदे पर कलाकार खुद अपनी आवाज में गा रहा है। फिल्म 'उपकार' में मनोज कुमार ने मलंग के रूप में जब तब के मशहूर खलनायक को चरित्र अभिनेता के रूप में मलंग चाचा बना कर एक नया रूप दिया तो मन्ना दे की आवाज प्राण पर बहुत सटीक बैठी। लोगों को परदे पर लगा कि जैसे प्राण खुद अपनी आवाज में 'कसमे वादे प्यार वफा'  गीत  गा रहे हैं। यही बात फिल्म 'जंजीर' के लोकप्रिय गीत 'यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी' के लिए भी कही जा सकती है।
      
अपनी निजी जिंदगी में बहुत ही अंतर्मुखी रहनेवाले, बहुत कम बोलनेवाले मन्ना दा लोगों से बहुत कम ही मिलते-जुलते थे। उन्हें पार्टियों में जाना पसंद नहीं था। किसी से मिलते तो बस मुस्करा देते। संगीत उनके लिए पुजा और तपस्या की तरह था। वे अकसर ऐसा कहते भी थे। जब किसी ने एक बार उनसे पूछा कि दादा सभी गायक तो गाते वक्त आंखें खोले रहते हैं आप आंख बंद क्यों कर लेते हैं। उनका जवाब था-संगीत मेरे लिए पूजा है, तपस्या है। तपस्या करते वक्त या पूजा में लीन रहते वक्त नेत्र स्वतः बंद हो जाते हैं। संगीत मेरे लिए भी पूजा है इसीलिए गाते वक्त नेत्र स्वतः बंद हो जाते हैं। 19 दिसंबर 1953 में उन्होंने केरल की सुलोचना कुमारन से शादी की। पत्नी सुलोचना कुमारन की मृत्यु कैंसर से 18 जनवरी 2012 को हो गयी। 
उन्होंने जब यह देखा कि हिंदी फिल्मों से उनके तरह के गीतों का जमाना अब नहीं रहा तो वे पत्नी के साथ बेंगलूरू में ही बस गये थे। उनकी दो बेटियां हैं शुरोमा और सुनीता। जिनमें से एक अमरीका में बस गयी है और दूसरी बेंगलूरू में है। मन्ना दा बेटी के पास बेंगलूरू में ही रहते थे। मुंबई में उन्होंने पचास साल से भी अधिक समय गुजारा। आज मन्ना दा नहीं है तो उनका गाया फिल्म 'आनद' का गीत 'जिंदगी कैसी है पहेली हाय, कभी ये रुलाये, कभी ये हसाये'। वाकई संगीत के उन प्रेमियों को जो शास्त्रीय संगीत को मन-प्राण से पसंद करते हैं मन्ना दा रुला गये। मन्ना  दा जैसे कलाकार कभी मरते नहीं वे अपने गीतों में हमेशा अमर रहते हैं। मन्ना दा के भी भावभरे या चुलबुले गीत बजेंगे तो कभी वे दिल को लुभायें के तो कभी गमगीन कर देंगे। मन्ना दा नहीं होंगे लेकिन उनकी आवाद ताकयामत संगीत प्रेमियों के दिलों में राज करती रहेगी और उनको अमर रखेगी।


~~ Kuldeep singh thakur~~

http://www.kuldeepkikavita.blogspot.com

muktika: zindagi ki imarat -sanjiv

मुक्तिका :
जिंदगी की इमारत
संजीव
*
जिंदगी की इमारत में, नीव हो विश्वास की
दीवालें आचार की हों, छतें हों नव आस की
बीम संयम की सुदृढ़, मजबूत कॉलम नियम के
करें प्रबलीकरण रिश्ते, खिड़कियाँ हों हास की
कर तराई प्रेम से नित, छपाई के नीति से
ध्यान धरना दरारें बिलकुल न हों संत्रास की
रेट आदत, गिट्टियाँ शिक्षा, कला सीमेंट हो
​फर्श श्रम का, मोगरे सी गंध हो वातास की
उजाला शुभकामना का, द्वार हो सद्भाव का
हौसला विद्युतीकरण हो, रौशनी सुमिठास की
वरांडे ताज़ी हवा, दालान स्वर्णिम धूप से
पाकशाला तृप्ति, पूजास्थली हो सन्यास की

फेंसिंग व्यायाम, लिंटल मित्रता के हों 'सलिल'
बालकनियाँ पड़ोसी, अपनत्व के अहसास की
* ​ facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

ek kavita: beti ke ghar se lautna - chandrkant devtale

एक कविता

बेटी के घर से लौटना

चंद्रकांत देवताले

बहुत जरूरी है पहुँचना
सामान बाँधते बमुश्किल कहते पिता
बेटी जिद करती-
एक दिन और रुक जाओ न पापा
एक दिन

पिता के वजूद को
जैसे आसमान में चाटती
कोई सूखी खुरदरी जुबान
बाहर हँसते हुए कहते कितने दिन तो हुए
सोचते कब तक चलेगा यह सब कुछ
सदियों से बेटियाँ रोकती होंगी पिता को
एक दिन और
और एक दिन डूब जाता होगा पिता का जहाज

वापस लौटते में
बादल बेटी के कहे के घुमड़ते
होती बारीश आँखो से टकराती नमी
भीतर कंठ रूँध जाता थके कबूतर का

सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते
दुनिया में सबसे कठिन है शायद
बेटी के घर लौटना।                       
      

kavita: utkendrit -kunwar narayan

एक कविता

उत्केंद्रित

कुँवर नारायण

मैं ज़िंदगी से भागना नहीं
उससे जुड़ना चाहता हूँ। -
उसे झकझोरना चाहता हूँ
उसके काल्पनिक अक्ष पर
ठीक उस जगह जहाँ वह
सबसे अधिक बेध्य हो कविता द्वारा।

उस आच्छादित शक्ति-स्त्रोत को
सधे हुए प्रहारों द्वारा
पहले तो विचलित कर
फिर उसे कीलित कर जाना चाहता हूँ
नियतिबद्ध परिक्रमा से मोड़ कर
पराक्रम की धुरी पर
एक प्रगति-बिन्दु
यांत्रिकता की अपेक्षा
मनुष्यता की ओर ज़्यादा सरका हुआ
० 

शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2013

veer chhand: deewali par -sanjiv


वीर छंद
दीवाली पर:
संजीव
*
दीवाली पर दीप जले शत, कोने में दुबका अँधकार
स्नेह-दीप सब 'सलिल' जलायें, 'मावस पूनम सम उजियार
मिटे मलिनता बढ़े स्वच्छता, रंग-बिरंगा हो संसार
खील-बताशे, खेल-खिलौने, खूब बढ़े हर कारोबार
*
धूम्र-धुआँ-ध्वनि दूषण कम हो, खुशियाँ खूब बढ़ें चहुँ ओर
जो साधन संपन्न देख लें, दुखी न हों निर्धन-कमजोर
दीवाली हो हर कुटिया में, उजली हो हर घर में भोर
विद्युत् अपव्यय न्यून करें हम, कहीं न हो कोई कमजोर
*
श्रम कर अर्जित करें लक्ष्मी, श्री गणेश हों तभी प्रसन्न
संस्कार बिन केवल धन हो, जिस घर में वह रहे विपन्न
राष्ट्रलक्ष्मी रोजगार-कृषि-उद्यम, उत्पादन, खाद्यान्न
'सलिल' मने दीवाली अनुपम, संकट कोई न हो आसन्न
*
देश-हितों का ध्यान रखें सब, तभी मने सच्चा त्यौहार
शांति-व्यवस्था, न्याय-सुशासन, जनहितकारी हो सरकार
घर-घर दीपक करे उजाला, दस दिश में मेटे अंधियार
मति-गणेश हर विघ्न हर सके, गृहलक्ष्मी जीवन उजियार
============
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

doha/kundali: rajesh prabhakar-sanjiv

नया प्रयोग
दोहे पर कुंडली 
 
दोह राजेश प्रभाकर रोला संजीव
स्याही से अभिमान का, कतरा -कतरा छान !
मिथक तोड़ दिल जोडती, कलम बनें पहचान।
कलम बने पहचान रचे इतिहास नया ही
बिना योग्यता आरक्षण की रहे मनाही
सलिल क्लान्ति हर सके तीर जब आये राही
सूरज नया उगाये बने अक्षर जब स्याही

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2013

vigyan salila: adhunik bhautiki suny

विज्ञान सलिला 

आधुनिक भौतिकी तथा भौतिकवाद का विकास


सनी
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coslog-hawkingहिग्स बुसॉन न मिलने की शर्त स्टीफेन हॅाकिंग हार गए हैं परन्तु उनकी इस हार के बावजूद विज्ञान ने तरक्की की है। पीटर हिग्स के अनुसार पदार्थ में द्रव्यमान का गुण हिग्स बुसोन के कारण आता है। सर्न प्रयोगशाला के महाप्रयोग से मिले आँकड़ों के आधार पर वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि हिग्स बुसोन ही वह बुनियादी कण है जो पदार्थ को द्रव्यमान देता है तथा बिग बैंग या महाविस्फोट के कुछ पल बाद हिग्स फ़ील्ड व निर्वात मिलकर तमाम बुनियादी कणों को भार देते हैं। आज हम ब्रह्माण्ड को भी परखनली में परखे जाने वाले रसायन की तरह प्रयोगों से परख रहे हैं। हमारी प्रयोगशालाओं में ब्रह्माण्ड के रूप और उसके‘उद्भव या‘विकास को जाँचा जा रहा है। कोपरनिकस और ब्रूनो की कुर्बानी ज़ाया नहीं गयी। विज्ञान ने चर्च की धारणाओं के परखच्चे उड़ा दिये और सारे मिथकों के साथ धर्मशास्त्रों को विज्ञान ने गिलोटिन दे दिया। ख़ैर हिग्स बुसोन मिलने से स्टैण्डर्ड मॉडल थ्योरी सत्यापित हो गयी है। तो क्या हमारा विज्ञान पूरा हो गया है नहीं क़त्तई नहीं। यह सवाल ही ग़लत है। विज्ञान कभी भी सब कुछ जानने का दावा नहीं करता है और अगर कुछ वैज्ञानिक अपने निश्चित दार्शनिक बेंट ऑफ माइंड से जब इस अवधारणा को मानते हैं तब वे संकट के‘ब्लैक होल में फँस जाते हैं। हमारा विज्ञान विकासशील है ज्ञात और अज्ञात( ग़ौर करें अज्ञेय नहीं! के द्वन्द्व में हम नए आयामों को जानते हैं और इससे नए अज्ञात की चुनौती पाते हैं। ज्ञात और अज्ञात के द्वन्द्व को न समझना ही संकट का आवाहन करता है धर्मशास्त्रों की प्रेतात्मा फिर से विज्ञान में जीवित होने लगती है।

इस संकट का सटीक रूप क्या है\ संकट इसका है कि क्वाण्टम फ़ील्ड थ्योरी द्वारा सत्यापित हुए हिग्स बुसॉन के वृहत् गुण गुरुत्व को समाहित नहीं करते हैं। बिग बैंग थ्योरी की अवधारणा के अनुसार बिग बैंग के समय पदार्थ का जन्म हुआ गुरुत्व का जन्म हुआ तथा दिक्-काल का जन्म हुआ। इस अवधारणा के पीछे  का पहला तर्क- आकाशगंगाओं का हमसे दूर जाना जो कि ब्रह्माण्ड के विस्तार को समझाता है- दूसरा तर्क समूचे ब्रह्माण्ड में मौजूद पार्श्व विकीरण( बैकग्राउण्ड रेडिएशन जिससे सिग्नल के न होने से टीवी में झिलमिलाहट होती है यह दर्शाते हैं कि ब्रह्माण्ड की शुरुआत में या बहुत पहले एक भीषण विस्फोट हुआ था। बिग बैंग की इस अवधारणा के साथ भौतिकी को वृहत् गुरुत्व और सूक्ष्म क्वाण्टाइजे़शन को व्याख्यायित करना है। गुरुत्व और क्वाण्टाइज़ेशन के एकीकरण की समस्या को आइन्सटीन ने पहली बार 1905 में अपने ‘करिश्माई पेपर में पेश किया था। स्ट्रिंग थ्योरी और क्वाण्टम लूप थ्योरी इन मुख्य अवरोधकों को हल करने वाली प्रमुख दावेदार हैं। फिलहाल हमें 2015 तक इन्तज़ार करना होगा जब तक कि सर्न प्रयोग के आँकडों को सू़त्रबद्ध नहीं कर लिया जाता। इस प्रयोग से गुरुत्व और क्वाण्टम परिघटना को समाहित करने वाले सिद्धान्त स्ट्रिंग थ्योरी या क्वाण्टम लूप थ्योरी का सत्यापन होता है या ये आंशिक रूप में स्वीकारी जाती हैं या कोई नयी थ्योरी इसे समझाती है] यह समय बताएगा परन्तु यह विज्ञान के लिए बेहद महत्वपूर्ण होगा। हिग्स बुसोन के ढूँढे़ जाने से भौतिकवाद को कोई ख़तरा नहीं है। यह भौतिक यथार्थ का एक गुण है जो अब उजागर हुआ है। इस प्रयोग से निकलने वाले अन्य निष्कर्ष भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को और गहन करेंगे।

एंगेल्स के दृष्टिकोण के अनुसार भौतिकवाद की एक मात्र अपरिहार्यता मानव मस्तिष्क द्वारा (जब मानव मस्तिष्क मौजूद हो] बाहरी जगत का प्रतिबिम्बन है जो कि हमारे मस्तिष्क से स्वतन्त्र रूप से अस्तित्वमान तथा प्रगतिशील है। एंगेल्स] लुडविग] फ़ायरबाख भाववाद और भौतिकवाद के बीच अन्तर मस्तिष्क तथा बाहरी जगत के रिश्ते से होता है। वास्तविक यथार्थ का रूप कैसा है यह जानना प्राकृतिक विज्ञान का क्षेत्र है] दर्शन सिर्फ उसे रास्ता दिखा सकता है। जब जब यह रास्ता गलत दार्शनिक रोशनी में देखा जाता है तब तब वैज्ञानिक दीवारों पर सिर पटकते हैं और सभी संकट संकट” का शोर मचाते हैं या वे नए प्रयोगों की रोशनी में( विज्ञान प्रगतिशील होता है] संयोग और अनिवार्यता के द्वन्द्व के ज़रिये धीरे और लम्बे रास्ते से वह आगे बढ़ता ही है और तब‘खुले दरवाजे को वह फिर खोलता है। प्रकृति का सही प्रतिबिम्बन द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद ही कर सकता है। इसे नकार कर वैज्ञानिक पेटेण्ट की लड़ाई का लूडो ख़ेलते रहते हैं और प्रयोगों के डाइस से समस्याएँ और उनके हल बिना कारण जाने ही नयी तकनीकों, दवाइयों और मशीनों तथा आधुनिक विकास में लगते हैं।

लोरेंट्ज
लोरेंट्जलोरेंट्ज लैंज़विन से लेकर ब्लोख्निस्तेव हैसेन व्लादिमीर फॉक सकाता युकावा ताकेतानी के द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी नज़रिए को बिलकुल भुला दिया गया है। फॉक ने सापेक्षिकता सिद्धांत] ब्लोख्निस्तेव ने क्वाण्टम मैकेनिक्स ताकेतानी सकाता युकावा ने कण भौतिकी क्वाण्टम मेकेनिक्स को देखने का एक ऐतिहासिक नज़रिया दिया। निश्चित तौर पर विज्ञान या अन्य मानवीय ज्ञान शाखाएँ द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी व ऐतिहासिक भौतिकवादी तरीके से विकसित होती हैं और विज्ञान की प्रगति द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दर्शन प्रणाली के अनुसार ही विकसित होती है तथा  विज्ञान के विकास के साथ द्वन्द्वात्मक प्रणाली को भी विकसित होना पड़ता है। भौतिकवाद की कुछ अवधारणाएँ अपूर्ण होती हैं तो यह द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार ही है बल्कि यह द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार ही है जो वस्तुगत यथार्थ को ही निरपेक्ष सत्य का आधार मानता है जिस तक हम अपनी सापेक्षिक समझ के अनुसार पहुँचते हैं। लेनिन के शब्दों में कहें तो हर विचारधारा ऐतिहासिक रूप में सापेक्षिक होती है पर यह बिना शर्त सत्य है कि हर वैज्ञानिक विचारधारा किसी न किसी वस्तुगत सत्य से सम्बन्ध रखती है] निरपेक्ष प्रकृति के अनुसार होती है।” लेनिन% अनुभवसिद्ध आलोचना और भौतिकवाद] एंगेल्स लिखते हैं% हर पथ प्रदर्शक खोज के साथ( मानवीय इतिहास में इसे नियम मानते हुए] चाहे वह विज्ञान में हो] भौतिकवाद को अपना रूप बदलना पड़ता है। तो क्या हिग्स बुसॉन के खोजे जाने से भौतिकवाद को अपना रूप बदलना पड़ेगा

भौतिकवाद% अन्य दर्शन और वैज्ञानिक खोजें
इससे पहले हम यह देख लेते हैं कि प्रकृति को अलग-अलग दार्शनिक अवस्थितियाँ किस प्रकार समझाती हैं, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद इनकी किस प्रकार आलोचना रखता है। अन्त में हम यह देखेंगे कि खुद द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में भी कई प्रकार की बहसें हैं और यह किस प्रकार प्राकृतिक विज्ञान के विकास के साथ विकसित होती है।

युकावा


युकावाब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का प्रश्न दार्शनिक बहस का प्रमुख विषय रहा है। भाववादी और भौतिकवादी ख़ेमे ने इस सवाल के अलग  अलग जवाब दिये हैं। भाववाद के अनुसार ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति ब्रह्मा की रचना ईश्वर का करिश्मा है जिसे हेगेल ने दार्शनिक रूप से सबसे उत्कृष्ट रूप में पेश किया। हेगेल ने कहा कि‘परम विचार( देमी उर्गोस अपने एक अंश को परकीकृत करके दुनिया को गढ़ता है। भौतिक विश्व उसी परम विचार का एक एलियनेटेड अंश है। काण्ट ने माना कि वस्तु निजरूप थिंग-इन-इटसेल्फ होता है] इस प्रकार उन्होंने यह माना कि भौतिक यथार्थ होता है लेकिन साथ ही काण्ट के लिए यह भौतिक यथार्थ अज्ञेय है इसे जाना नहीं जा सकता। नतीजतन काण्ट के अज्ञेयवाद ने भी भाववादी दर्शन के साँस लेने के लिए पर्याप्त जगह छोड़ दी। भाववाद और अज्ञेयवाद से अलग कई वैज्ञानिको ने उत्पत्ति के प्रश्न को भौतिकी के सिद्धान्तों से समझाने की कोशिश की और भौतिकी से खोजे जा रहे पदार्थ जगत के नए गुणों को इसी की अभिव्यक्ति माना। यह पूरी प्रक्रिया काफ़ी लम्बी और जटिल रही। ख़ासकर क्वाण्टम जगत के उजागर होने के साथ यह सवाल उलझता चला गया। माख पोइंकेयर ओस्टवॉल्ड एडिंग्टन के नव काण्टवादी अनुभवसिद्ध दर्शनों से प्रभावित रूसी माख़वादी बोग्दानोव ने मार्क्सवाद के कम्बल के भीतर रहते हुए मार्क्सवाद पर हमले किये जिन्हें नग्न करने का काम लेनिन ने  अपनी प्रसिद्ध रचना अनुभवसिद्ध आलोचना और भौतिकवाद में किया। साथ ही लेनिन ने विज्ञान के सवाल पर भी अपनी सकारात्मक बात रखी तथा भौतिकविदों के बीच प्रचलित दार्शनिक बीमारी भौतिक भाववाद को उजागर किया परन्तु हर साल क्वाण्टम जगत की नयी खोजों के साथ संकट का उन्माद बढ़ता गया] हाइज़ेनबर्ग का यह कथन कि‘प्रेक्षक ही यथार्थ का निर्माण करता है] इसी दार्शनिक दरिद्रता का बड़ा उदाहरण है। लेकिन यह एक त्रासदी रही है कि लेनिन द्वारा इस आम समस्या का समाधान ढूँढे़ जाने के बावजूद यह अब भी मौजूद है और अपने ज़ोर के साथ मौजूद है। आज के दौर के विभिन्न वैज्ञानिकों ग्रीन पेनरोज़ सस्किंड आदि इसी प्रवृत्ति के शिकार हैं। भाववाद की यह हेगेलीय पूँछ वैज्ञानिकों के अन्वेषण के पथ में रुकावट बनी हुई है। इस हेगेलीय पूँछ के दो कारण लेनिन ने अपनी पुस्तक में पेश किये थे हालाँकि उन्होंने इस शब्दावली का इस्तेमाल नहीं किया था। पहला है मस्तिष्क का ढुलमुलपन और दूसरा ज्ञान का सापेक्षिकतावाद। मस्तिष्क का ढुलमुलपन के बारे में लिखते हुए लेनिन वैज्ञानिक रेय का उद्धरण रखते हैं] गणित की अमूर्त कपोल-कल्पनाओं ने भौतिक यथार्थ तथा उस ढंग के बीच, जिस ढंग से गणितज्ञ इस यथार्थ को समझते हैं] मानो एक पर्दा खड़ा कर दिया गया हो। ठोस मूर्त यथार्थ की जगह सिर्फ गणितीय सूत्रों को हक़ीक़त माना जाता है छुपे हुए आयाम( डायमेंशन और उच्च गणित से दुनिया को देखा जाता है। वहीं दूसरा कारण ज्ञान की सापेक्षिकता भी प्रकृति के नये नये यथार्थ के सामने आने पर पहले से मौजूद सिद्धान्तों को नकार देती है और उनके बीच किसी भी समानता से इंकार कर निरपेक्ष सत्य को भी नकार देती है। दूसरी खास प्रवृति जो इस हेगेलीय पूँछ के साथ वैज्ञानिकों के ग़लत उद्विकास में पैदा हुई वह है ड्यूहरिंग की मूँछ और ये दोनों आपस में जुड़ी हुई हैं। यानी कि ऐसे वैज्ञानिकों की पीढ़ी भी पैदा हुई जो इन्हीं गणितीय सूत्रों के आधार पर एक दुनिया को रचते हैं और ऐसे यथार्थ में ढालते हैं और ऐसे नये सिद्धान्‍तों की रचना करते है कि राज कॉमिक्स के निर्माताओं को भी शर्म आ जाय! आज आधुनिक भौतिकी के साथ यही हो रहा है। ब्रह्माण्डों और दुनिया को रचने के मामले में हमारे वैज्ञानिक नागराज की कॉमिक्स की दुनिया के नियमों से भी अनोखे नियम खोज रहे हैं। नयी दुनियाओं की रचना कर रहे हैं। लेकिन फन्तासी की इस दुनिया के रचयिताओं के परम गुरू ड्यूहरिंग आज भी दुनिया भर में अपनी रचनाओं से अधिक एंगेल्स द्वारा आलोचना के लिए मशहूर हैं। यही ड्यूहरिंग की मूँछ आज आधुनिक वैज्ञानिकों के बड़े हिस्से को प्रताड़ित कर रही है। गॉड पार्टिकल जैसे जुमलों के लिए सिर्फ बुर्जुआ मीडिया नहीं बल्कि तमाम वैज्ञानिक भी ज़िम्मेदार हैं जो पैसे के लिये प्रकाशकों के कहने पर सस्ती फन्तासी का निर्माण करते हैं। ड्यूहरिंग की यह मूँछ आज वैज्ञानिकों के चेहरे पर इतनी बढ़ चुकी है कि इनकी दृष्टि ओझल हो जा रही है। इसके कारण ही ये “भौतिकवाद द्वारा खोले दरवाजों को नहीं देख पाते” और दीवारों में सिर मारते रहते हैं, वहीं हेगेलीय पूँछ का वज़न इनके शरीर को इतना धीरे कर देता है और तमाम जगह उलझाकर गिराता रहता है कि ये दरवाजे़ के करीब होकर भी वहाँ पहुँचने में देर लगाते हैं। लेख के अन्तिम हिस्से में आधुनिक भौतिकी की तमाम परिकल्पनाओं पर बात करते हुए हम इस हेगेलीय पूँछ और ड्यूहरिंग की मूँछ पर वापस लौटेंगे।

यह सच है कि खुद द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद भी कई अन्दरूनी संघर्षों से होता हुआ ही वस्तुगत यथार्थ का प्रतिबिम्बन कर पाता है। जब नयी परिघटना पैदा होती है तो कई मार्क्सवादी भी अलग -अलग व्याख्या पेश करते हैं] परन्तु इनमें से एक ही दृष्टिकोण ठीक हो सकता है (अगर कोई हुआ तो! जो सापेक्षतः  वस्तुगत यथार्थ को ज़्यादा सही तरीके से प्रतिबिम्बित करता है। कई मार्क्सवादियों ने एंगेल्स द्वारा प्रकृति में मौजूद द्वन्द्ववाद की व्याख्या को गलत माना है। लूकाच तथा कई अन्य मार्क्सवादियों ने एंगेल्स की पुस्तक‘प्रकृति का द्वन्द्ववाद व ड्यूहरिंग मत खण्डन की आलोचना की है तथा उन्हें मार्क्स के सिद्धान्त में संशोधन करने का दोषी ठहराया है। हम इसे नकारते हैं। एंगेल्स की ये आलोचनाएँ ग़लत हैं। हम इन विचारधारात्मक संघर्षों पर अपनी बात आगे एक अलग लेख में रख़ेंगे परन्तु यह समझ लेने की ज़रूरत है कि भौतिकवाद विकास करता है] स्पिनोज़ा से लेकर मार्क्स तक की यात्रा के बाद भी यह नहीं रुकेगा। तो क्या आज ख़ासकर आधुनिक भौतिकी के प्रयोगों से मिले आँकड़ो के विश्लेषण के आधार पर हमें भौतिकवाद की गहनता और पदार्थ की परिभाषा को व्याख्यायित करने की ज़रूरत है? एंगेल्स ने ही कहा है कि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद “प्राकृतिक विज्ञान और इतिहास के लम्बे और उकता देने वाले विकास से भौतिकता सत्यापित होती है परन्तु इस सवाल से पहले हम एंगेल्स और लेनिन के समय के विज्ञान और उसके आधार पर उनके द्वारा भौतिकवाद तथा पदार्थ की परिभाषा पर नज़र डालेंगे जिससे कि हम सही रास्ते पर आगे बढ़ सकें क्योंकि उन्होंने खुद इस सिद्धान्त को इस तरह से व्याख्यायित किया है कि हम अगर उन कृतियों को पढ़ लें तो कई भ्रम साफ़ हो जायेंगे जो आज हिग्स बुसॉन और ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के प्रश्न पर फैले हुए हैं।

एंगेल्स के समय का विज्ञान व पदार्थ की परिभाषा

dialectics of natureमार्क्स और एंगेल्स ने इतिहास संस्कृति राजनीतिक अर्थशास्त्र से लेकर प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टि को लागू किया और वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्त को विकसित किया जो पूँजीवाद के अन्तरविरोध के रूप में इसी व्यवस्था के गर्भ में पल रहा था। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को विकसित करते हुए एंगेल्स ने सिद्ध किया कि फायरबाख़ की सीमाओं में एक मुख्य कारण विज्ञान का विकास था, फायरबाख़ का भौतिकवाद से विमुख होने का कारण विज्ञान में अन्तर्निहित द्वन्द्ववाद से अपरिचित रहना था। एंगेल्स ने 1890 में लिखी पुस्तक लुडविग फायरबाख़ और क्लासिकीय जर्मन दर्शन का अन्त में लिखा कि तीन वैज्ञानिक खोजों ने भौतिकवाद में द्वन्द्ववाद को विशेष रूप से स्थापित किया- कोशिका की खोज- ऊर्जा के रूपान्तरण के नियम तथा उद्विकास के सिद्धांत की खोज। 1838 और 1839 में एम. श्लेडीन और टी- श्वान द्वारा वनस्पति और जानवरों की कोशिका की समानता तथा कोशिका को जीवन की बुनियादी संरचनात्मक इकाई के रूप में स्थापित किया गया, 1850 तक मेयर जुल हेल्म्होल्ट्ज ने ऊर्जा के संरक्षण और रूपान्तरण का नियम खोज निकाला। डार्विन ने 1853 में ‘प्रजातियों के उद्भव और प्राकृतिक चयन के बारे में पुस्तक द्वारा उद्विकास का सिद्धान्त रखा और यहीं से पदार्थ के एक रूप से दूसरे में बदलना और अविरल इस प्रक्रिया के चलने की दार्शनिक अवस्थितियों को वैज्ञानिक समर्थन हासिल हुआ। मार्क्स ने गणित में द्वन्द्वात्मक पद्धति को लागू किया और अवकलन का ऐतिहासिक परिचय देते हुए दालम्बेर, लीब्नित्ज़ और न्यूटन के अवकलन के तरीकों के अलग-अलग पहलुओं से लेकर टेलर की अवकलन की श्रृंखला और मेक्लारेन की अवकलन की श्रृंखला के बारे में लिखा जो कि आज भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मार्क्स बताते हैं कि अवकलन सही मायने में महज़ एक गणितीय चिह्न नहीं बल्कि प्रकृति में बदलाव का प्रतिबिम्बन करता है और चिह्नों के अर्न्तसम्बन्ध द्वारा गतिकी के भिन्न रूपों का हम मात्रात्मक आकलन कर सकते हैं। मार्क्स की गणित की पाण्डुलिपियाँ द्वन्द्ववाद का एक अत्यन्त गहन अध्ययन है जिसका कि मार्क्स ने‘पूँजी लिखते हुए पूँजी के परिचलन को समझने में भी प्रयोग किया। एंगेल्स की विषय-वस्तु अत्यधिक व्यापक थी। एंगेल्स ने उस समय भौतिक विज्ञान जीव विज्ञान, रसायन शास्त्र, शरीर रचना विज्ञान, खगोल विज्ञान से लेकर गणित का गहन अध्ययन किया था। एंगेल्स ने इसे एक व्यवस्थित रूप देते हुए ‘प्रकृति का द्वन्द्ववाद’ किताब के रूप में लिखने की योजना बनायी थी, जिसके लिए उन्होंने सैकड़ों वैज्ञानिकों के काम का अध्ययन किया। मोटे तौर पर यह वह कार्य था जो मार्क्स और एंगेल्स ने प्राकृतिक विज्ञान में किया। इस समय का विज्ञान एंगेल्स की और उनके द्वन्द्ववाद की सीमाएँ व्याख्यायित करता है। यह वह समय था जब हमारे विज्ञान की सूक्ष्म और वृहत् जगत दोनों में सीमाएँ थीं। अणु और सौरमण्डलीय तारों के निश्चित साँचे ही हमारे ज्ञान की सीमाएँ थीं। बैकग्राउण्ड रेडियेशन, डार्क मैटर, अनगिनत आकाशगंगाएँ, ब्लैक होल, ब्लैक बॉडी रेडिएशन सरीखी परिघटनाएँ अभी मानवीय प्रेक्षण के दायरे में नहीं आयीं थीं। विज्ञान के सवाल सीमित थे। इस कारण पदार्थ और गति को व्याख्यायित करते हुए एंगेल्स का दृष्टिकोण भी सीमित था। यही ज्ञान की निरपेक्षता और सापेक्षता का द्वन्द्व है जो लगातार हल होता रहता है और साथ ही जटिल से जटिल रूप भी धारण करता रहता है। हमारा सापेक्ष ज्ञान जुड़ता है और ऐतिहासिक तौर पर निरपेक्ष सत्य का निर्माण करता है। असल सवाल एंगेल्स के द्वारा द्वन्द्ववाद की पहुँच और पद्धति का है। निश्चित तौर पर खुद पद्धति भी और पहुँच भी विकसित होते हैं, परन्तु ये द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अन्तर्गत होते हैं, यही इनको एक करता है।

आइये एंगेल्स की उन सूक्तियों को देखते हैं जिनमें वे पदार्थ की अवधारणा रखते हैं। “सौर मण्डल का उद्वीप्त कच्चा माल एक प्राकृतिक क्रिया द्वारा निर्मित हुआ था जो कि पदार्थ के गुणों में अन्तर्निहित है और इसी कारण ये परिस्थितियाँ पदार्थ द्वारा पुनःनिर्मित की जानी हैं, और चाहे इसके लिए करोड़ों-करोड़ साल लगें या कम या ज़्यादा जो कि संयोग पर निर्भर करता है, परन्तु जो अवश्यम्भावी है और संयोग में ही अन्तर्निहित है।” पदार्थ की वह अवधारणा जिसे बार-बार दुहराया जाता है कि पदार्थ पैदा नहीं हुआ और सदा-सदा से मौजूद है, “यह एक अनन्त चक्र है जिसमें पदार्थ गतिमान है, यह चक्र जो निश्चित ही अपने ऑर्बिट (कक्ष) जिस समय में पूरा करता है उसके लिए दुनिया के पास कोई पर्याप्त मानक नहीं है।” आगे ड्यूहरिंग ने विधि निर्माण करते हुए (असल में काण्ट की भद्दी नकल करते हुए) जब बताया कि ब्रह्माण्ड के उद्भव से पहले वह एक स्वतः समान अवस्था में था तो एंगेल्स ने जवाब देते हुए कहा कि-“तो समय की शुरुआत हुई थी? इस शुरुआत से पहले क्या था? ब्रह्माण्ड, जो कि स्वतः समान, अपरिवर्तनीय अवस्था में था, और क्योंकि इस अवस्था में कोई भी बदलाव एक दूसरे से पहले नहीं आते हैं, समय की विशिष्ट अवधारणा सामान्य अस्तित्व में तब्दील हो जाती है। सबसे पहले, हम यहाँ यह नहीं जानना चाहते कि डड्ढूहरिंग के दिमाग में विचारों का किस तरह बदलाव होता है। सवाल समय का विचार नहीं बल्कि वास्तविक समय है, जिससे ड्यूहरिंग इतनी आसानी से पीछा नहीं छुड़ा सकते हैं।”
यह वह उद्धरण है जिसे कि अक्सर हॉकिंग द्वारा तथा वैज्ञानिकों द्वारा काल्पनिक अवधारणा मानकर ठुकरा दिया जाता है। हॅाकिंग के पर्चे “वेव फंक्शन ऑफ यूनिवर्स” में जो अवधारणा पेश की गयी है तथा जिसे उन्होंने 2012 में दिए एक व्याख्यान में दोहराया है, हालाँकि कई दार्शनिक उलझनों के साथ, वह यह है कि विज्ञान की सीमा के कारण हम यह नहीं जान सकते कि बिग बैंग के पहले क्या था। हमारी मौजूदा वैज्ञानिक अवधारणाओं के अनुसार दिक्-काल का उद्भव ही उस समय होता है। हाँ, निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि हमारी अवधारणाएँ अधूरी हैं और हो सकता है कि नए प्रयोगों के बाद ये अवधारणाएँ ग़लत साबित हो और हम जान पायें कि बिग बैंग समय की शुरुआत थी या नहीं? क्योंकि हाकिंग-हार्टल की अवधारणा फाइनमैन के पाथ इण्टीग्रल (पथ अवकलित) पद्धति में, जो एक निगमनात्मक पद्धति है, एक कल्पित उद्भव की अवस्था (यह एकलता या सिंग्युलैरिटी नहीं है!) जोड़कर मौजूदा ब्रह्माण्ड को व्याख्यायित करने का प्रयास करती है।

वहीं पेनरोज़ के साथ मिलकर उन्होंने एक अन्य मॉडल दिया है जिसमें उन्होंने कहा है कि ब्रह्माण्ड की शुरुआत एकलता से होती है। हॅाकिंग भी वास्तविक समय से छुटकारा नहीं पाना चाहते हैं बल्कि खोजना चाहते हैं। एंगेल्स कहीं भी अपने समय के विज्ञान की सीमाओं को पार कर कल्पना लोक में नहीं गए। बस उन्होंने कुछ आम प्रस्थापनाएँ दीं जो कि उस समय के विज्ञान के कल्पित ब्रह्माण्ड और उसके उद्विकास के अनुसार थीं और उन अवधारणाओं को ख़ारिज किया जो बेबुनियाद थीं। आगे वे नेब्युलर थ्योरी पर ड्यूहरिंग की आलोचना करते हुए कहते हैं, “समकालीन विज्ञान, दुर्भाग्य से इस प्रणाली से ड्यूहरिंग की इच्छा पूर्ति नहीं हो सकती। अन्य प्रश्नों की तरह इस प्रश्न का भी यह जवाब नहीं दे पाती कि मेंढक की पूँछ क्यों नहीं होती? इसका यही जवाब दिया जा सकता है कि वे अपनी पूँछ खो चुके हैं परन्तु इसपर कोई चहक उठे कि यह तो सवाल को धुँधले, अधूरे विचार पर छोड़ना है और कि यह हवाई बात है, तो यह दोनों ही रुख़ ग़लत होंगे क्योंकि विज्ञान को नैतिकता की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता है। नापसन्दगी और बुरे मिजाज़ का प्रयोग हर जगह किया जा सकता है और इसीलिए कभी भी कहीं भी इसका प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।” यानी एंगेल्स के अनुसार विज्ञान के सवाल ऐतिहासिक तौर पर सापेक्षिक होते हैं। पदार्थ की सटीक परिभाषा एंगेल्स यह रखते हैं- “पदार्थ जैसा है वह विचार की शुद्ध रचना है और एक अमूर्तीकरण है। हम वस्तुओं के अलग-अलग गुणों को हटाकर भौतिक रूप से मौजूद वस्तुओं को पदार्थ की अवधारणा के अन्तर्गत रखते हैं। इसलिए पदार्थ अपने आप में पदार्थ के मौजूद अंशों से अलग इन्द्रीय बोध के लिए अस्तित्वमान नहीं है। जब प्राकृतिक विज्ञान ऐसे एकरूप पदार्थ ‘अपने आप में’ को खोजने लिए क़दम उठाता है, जिसमें गुणात्मक भेदों को महज मात्रत्मक भेद तक अपचयित किया जाता है; वैसा ही है जैसे चेरी, नाशपाती व सेब की जगह फल खोजना, या फिर बिल्लियों, कुत्तों, भेड़ों आदि की जगह जानवर ‘अपने आप में’ को खोजना…” तथा “पदार्थ भौतिक वस्तुओं के कुल समुच्चय के सिवा कुछ नहीं है जिससे यह सिद्धान्त जन्मा है तथा गति और कुछ नहीं बस संक्षिप्तीकरण हैं जिनमें हम तरह-तरह की इन्द्रियों द्वारा बोधगम्य वस्तुओं को उनके समान गुणों के कारण समझ पाते हैं…इसलिए पदार्थ तथा गति अलग-अलग भौतिक वस्तुओं और गति के रूपों की पड़ताल द्वारा ही जाना जा सकता है तथा इन्हें जानकर ही हम पदार्थ व गति को एक हद तक अपने आप में जान सकते हैं।” हम भी आगे इसी परिभाषा का प्रयोग करेंगे।

लेनिन की पदार्थ की परिभाषा व उनके समय का विज्ञान

लेनिन ने माख़वाद और नव-काण्टवादियों के द्वारा मार्क्सवाद पर हमले का जवाब देते हुए ‘अनुभवसिद्ध आलोचना और भौतिकवाद’ पुस्तक लिखी थी। यह वह समय था जब रेडियोएक्टिविटी खोजी जा चुकी थी, अणु की संरचना भेद कर इलेक्ट्रॉन का संज्ञान हुआ, भौतिकी की सांख्यिकी व सूक्ष्म गतिकी अलग विषय के रूप में अध्ययन किये जा रहे थे। यहीं ओस्त्वाल्ड, माख़ और पोइंकेयर ने भौतिकवाद पर हमला बोला। प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में मचे संकट के शोर और पदार्थ ग़ायब होने के शोर का जवाब देते हुए लेनिन लिखते हैं,  “जब भौतिकशास्त्री कहते हैं कि “पदार्थ गायब हो गया” उनका मतलब है कि अब तक विज्ञान अपनी पड़ताल की तीन सारभूत अवधारणाओं- पदार्थ, विद्युत् और ईथर को मानता था; जो कि अब पहले बतायी गयी दो अवधारणाओं में सिमट गया है। क्योंकि अब पदार्थ को विद्युत् में अपचयित किया जा सकता है, एक अणु को अत्यन्त छोटे सौर मण्डल सरीखा मानकर समझा जा सकता है जिसमें नेगेटिव इलेक्ट्रॉन पॉजिटिव नाभिकीय केंद्र के चारों ओर एक निश्चित गति से घूमता है…” यानी कि उस समय भी नयी वैज्ञानिक खोजों के बाद भौतिकवाद पर हमला बोला गया जिसका जवाब लेनिन उस समय की भौतिकी द्वारा खींचे यथार्थ द्वारा पेश कर रहे थे। सूक्ष्म जगत के द्वैध चरित्र और गुरुत्व के आम सिद्धान्त से वे परिचित नहीं थे। परन्तु इसके बावजूद लेनिन लिखते हैं, “पदार्थ ग़ायब हो गया मतलब कि वह सीमा जिसे अब तक हम जानते थे उसमें पदार्थ ग़ायब हो रहा है तथा खुद वे गुण जो कि निरपेक्ष लगते थे, वे सापेक्ष तथा पदार्थ के गुणों के रूप में पहचाने जा रहे हैं। (अचलता, जड़ता, भार आदि) और जो अब सापेक्ष हैं बस पदार्थ के एक स्तर के गुणों के रूप में पहचाने जा रहे हैं।”

इस कथन के मद्देनज़र क्या यह प्रश्न नहीं पूछा जा सकता है कि लेनिन के इस कथन का सामान्यीकरण मौजूदा भौतिकी के प्रश्नों (ब्रह्माण्ड का उद्भव या उद्विकास को हल करने में नहीं किया जा सकता है? हमें लगता है कि लेनिन के पदार्थ” की विषय-वस्तु मौजूदा समय से भिन्न है। अपने समय के विज्ञान के बारे में लेनिन लिखते हैं यांत्रिकी मध्यम वेग की वास्तविक गति का प्रतिबिम्ब थी तो नयी भौतिकी दैत्याकार वेग के वास्तविक गति का प्रतिबिम्बन है इलेक्ट्रॉन के लिए एक अणु ऐसा है जैसे इस किताब के पूर्ण विराम (अंग्रेजी का पूर्ण विराम का चिह्न एक बिन्दु) के लिए एक दो सौ फुट लम्बी सौ फुट चौड़ी और पचास फुट ऊँची (लॉज मीनार। यह दो लाख सत्तर हज़ार किमी प्रति सेकेण्ड की रफ़्तार से घूमता है उसका भार भी उसके वेग का फलन (फंक्शन होता है यह एक सेकेण्ड में पाँच सौ लाख करोड़ चक्कर काटता है यह सब पुरानी यांत्रिकी से बिलकुल अलग है परन्तु फिर भी यह पदार्थ की दिक् और काल में गति है।” आज हम जानते हैं कि वास्तविक तस्वीर पर आज हमारा विज्ञान आगे बढ़ चुका है, क्वाण्टम जगत ने पदार्थ में असतत् और सतत् के द्वन्द्व, तरंग और कण के द्वन्द्व के रूप में अणु की तस्वीर को समझा है। साथ ही सवाल का दायरा इसकी संरचना का ही नहीं बल्कि खुद पूरे जगत के विकास या उद्भव का बन गया है, क्वाण्टम जगत के नियमों के उद्भव का बन गया है। एंगेल्स के समय में विज्ञान का मुख्य प्रश्न पदार्थ के विभिन्न रूपों के बीच बदलाव का था और मौजूदा विश्व की तस्वीर को समझने तक जाता था, वहीं लेनिन के समय में यह उन्हीं रूपों के भीतर नए स्तरों और उनके नए गुणों के उजागर होने तथा नयी संरचना की तस्वीर तक पहुँचा था। भौतिकवाद पर भी हमला पदार्थ के नए गुणों को पदार्थ से परे बताने से, विचारों द्वारा पदार्थ के निर्माण होने की प्रस्थापनाओं से किया गया। पदार्थ के नए गुणों का पहले हमारी चेतना द्वारा बोध न होना ही, यानी मानव ज्ञान के सापेक्ष होने के गुण को ही इस्तेमाल कर सापेक्षतावाद को स्थापित कर दिया गया। इसलिए लेनिन ने रूसी माखवादियो को जवाब दिया और विज्ञान के अन्दर पनप रहे “भौतिक” भाववाद के कारणों की पड़ताल की और इसे बुर्जुआ विचारधारा के विज्ञान के अन्दर घुसने के रूप में व्याख्यायित किया। लेनिन के लिए पदार्थ की परिभाषा एंगेल्स की परिभाषा से भिन्न है। इस परिभाषा में पदार्थ की असृजनीयता और अनन्तता पर ज़ोर नहीं है; उसके महज वस्तुगत यथार्थ के होने की दार्शनिकता पर अधिक हो जाता है। भौतिक यथार्थ के स्वतन्त्र अस्तित्व और उसके विकास के अलावा एंगेल्स के लिए कोई अपरिवर्तनीयता मान्य नहीं थी। कोई भी अपरिवर्तनीयता, कोई और सारभूततः निरपेक्ष तत्व जैसा कि खोखले दर्शनों ने पेश किया, मार्क्स-एंगेल्स के लिए नहीं मौजूद था। वस्तुओं की सारभूतता या तत्व भी सापेक्ष हैं। यह महज मानवीय ज्ञान की वस्तुओं की गहन समझ दिखाते हैं।

एंगेल्स ने पदार्थ जगत में वस्तु-निज-रूप और वस्तु-हमारे-लिए  में फर्क करते हुए पदार्थ की अवधारणा में इसे‘पॉण्डरेबल( जिसका बोध किया जा सके व‘इम्पॉण्डरेबल (जिसका बोध न किया जा सके के बीच में बाँटा था। ईथर और विद्युत की गति व पदार्थ के रूप में एंगेल्स ने ‘प्रकृति का द्वन्द्ववाद पुस्तक में तथा लेनिन ने भी ‘अनुभवसिद्ध आलोचना’ (ज्ञात हो कि ‘प्रकृति का द्वन्द्ववाद’ लेनिन के जीवनकाल में नहीं छप सकी थी) में भी इसी शब्दावली का इस्तेमाल किया है। पदार्थ और गति की अवधारणा रखते हुए एंगेल्स और लेनिन दोनों ने ही पदार्थ को भी बोध किये जा सकने वाले व बोध न किये जा सकने वाले पदार्थ में बाँटा था। यह किसी दार्शनिक पूर्वाग्रह की वजह से नहीं बल्कि प्राकृतिक परिघटनाओं के कारण इस्तेमाल किया गया था। यह प्राकृतिक विज्ञान द्वारा दर्शन का सूत्रीकरण था। लेकिन एंगेल्स और लेनिन दोनों के समय प्राकृतिक विज्ञान ने ब्रह्माण्ड के विकास के सवाल को पेश किया था, उद्भव का सवाल एंगेल्स के सामने मौजूद था लेकिन वह भी सिर्फ़ इस रूप में कि पदार्थ किस तरह ऊष्मा को फिर से हासिल करेगा और ‘प्रकृति का द्वन्द्ववाद’ में एंगेल्स ने एक जगह ब्रह्माण्ड के फिर से नेबुला जैसी अवस्था में जाने का अन्दाज़ा लगाया है। लेकिन यह महज एक आकलन था, वह भी उस समय के विज्ञान के अनुसार, परन्तु आज हमारे सामने प्रश्न समस्त ब्रह्माण्ड के उद्भव या उद्विकास का है। आज आधुनिक भौतिकी के सामने सवाल पदार्थ की बोध की जा सकने वाली और न बोध की जा सकने वाली संरचनाओं और गति का नहीं है बल्कि सवाल तो यह है कि क्या यह एक निश्चित समय पर अस्तित्व में आया था? आधुनिक भौतिकी इस सवाल को खुला सवाल मानती है कि यह उद्भव था या पहले से मौजूद पदार्थ जगत की निश्चित संरचना से ही ‘बिग बैंग’ सरीखी परिघटना हुई। लेनिन अपनी पुस्तक में डिएट्ज़ेन को उद्धत करते हैं, “वस्तुगत वैज्ञानिक ज्ञान के कारणों की पड़ताल अनुभव से व आगमनात्मक होकर करता है न कि विश्वास व आकलन से, ए पोस्टरियोरी होकर, न की ए प्रायोरी होकर” (मानव मस्तिष्क के काम करने का तरीका)। डिएट्ज़ेन का सन्दर्भ भाववाद के ए प्रायोरी से है, क्योंकि हर द्वन्दवादी भी ए प्रायोरी द्वन्द्वात्मक होता है। परन्तु वस्तुगत तथ्यों के सन्दर्भ में उसे ए पोस्टरियोरी होना पड़ता है। यहाँ दर्शन हमारी मदद करता है, पर यह पूछने के लिए नहीं कि मेंढक की पूँछ क्यों नहीं होती या “स्‍वतः-समान अवस्था” को घोषित कर देने में। हम परिघटनाओं की श्रृंखलाओं को जोड़कर उनके तत्वों या भौतिक अवयवों को ढूँढ़ते हैं और फिर उसकी अर्न्तवस्तु तक पहुँचते हैं, मार्क्सवाद का ज्ञान का सिद्धान्त यही है। हमें भी मौजूदा समस्या को इसी दृष्टिकोण से देखना होगा। ताकेतानी के “त्रिस्तरीय सिद्धान्त” से। इसी के द्वारा द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद प्राकृतिक विज्ञान को रास्ता दिखा सकता है। हम अब इन्हीं तीन संस्तरों पर पदार्थ की अवधारणा को समझने का प्रयास करेंगे- परिघटना स्तर पर, भौतिक अवयवों के स्तर पर व अर्न्तवस्तु के स्तर पर।

पदार्थ की मौजूदा अवधारणा और परिघटना स्तर

मौजूदा ब्रह्माण्ड के अन्दर घट रही कुछ घटनाओं ने यह प्रश्न पैदा किया कि ब्रह्माण्ड की संरचना पहले कैसी थी? हबल टेलिस्कोप से ली गयी तस्वीरों के आधार पर, ब्रह्माण्ड की तमाम आकाशगंगाओं व तारों का पृथ्वी और एक दूसरे से दूर जाना (हबल नियम), ब्रह्माण्ड की वृहत् संरचना (लार्ज स्केल स्ट्रक्चर) व हल्‍के तत्वों (हाइड्रोजन, हीलियम आदि) की मौजूदगी जैसी परिघटनाओं को समझाने का प्रयास करते हुए ही विज्ञान बिग बैंग सिद्धान्त तक पहुँचा है। कई नए तथ्य भी मिले हैं जैसे, गुरुत्व लेंसिंग जिसने डार्क मैटर की अवधारणा को जन्म दिया तथा ऐसी कई समस्याएँ हैं जिनका हमारे पास जवाब नहीं है। ये वे परिघटनाएँ हैं जो क्वाण्टम जगत और वृहत् जगत के नियमों, क्वाण्टम भौतिकी और सापेक्षिकता के सिद्धान्त के कारण सेकेण्ड के बहुत छोटे हिस्से से समझायी गयीं। बिग बैंग सिद्धान्त ने ब्रह्माण्ड को एक महाविस्फोट से उद्भव होते हुए माना है, स्टैंडर्ड मॉडल भी इसी महाविस्फोट के बाद सेकेण्ड के बहुत छोटे से हिस्से के बाद निर्वात और हिग्स फ़ील्ड, हिग्स बुसॉन को निर्मित होते हुए देखता है जो अन्य बुनियादी कणों को भार देता है। तमाम आकाशगंगाओं का त्वरित गति से एक दूसरे से दूर जाना, बैकग्राउण्ड रेडिएशन का एकसमान वितरण व ऊपर बतायी परिघटनाएँ ऐसी हैं जिनका आंशिक हल ही मौजूद है। यही सब मिलकर परिघटना का ऐसा बुना हुआ जाल बनाते हैं जो पूरी तरह बुद्धि को उलझा देते हैं। प्लांक नामक टेलिस्कोप ब्रह्माण्ड की उम्र 1303 करोड़ 70 लाख साल बताता है। आइये अब हम इस परिघटना के जाल को भेदकर इस सिद्धान्त के भौतिक अवयवों तक पहुँचने की कोशिश करते हैं।

परिघटना से भौतिक अवयवों व तत्वों की पड़ताल करती भौतिकी 

बिग बैंग मॉडल इन्फ्ऱलेश्नरी थ्योरी स्टैण्डर्ड मॉडल  ब्रह्माण्ड की एक तस्वीर बनाते हैं। बिग बैंग जिसे शुरुआत माना जाता है उसे एक एकलता (सिंग्युलैरिटी से शुरू होता हुआ बताया गया है जहाँ पदार्थ अनन्त घनत्व लिए एकलता के बिन्दु तक सीमित होता है तथा जहाँ पर विज्ञान के मौजूदा नियम काम नहीं करते हैं। इस बिन्दु से आगे महाविस्फोट के बाद निर्वातित और भारहीन बुनियादी कण बने और फिर एक-एक करके तमाम अलग बुनियादी अर्न्तक्रियाएँ (इण्टरैक्शन) अस्तित्व में आये और उनसे सम्बन्धित बुसॉन भी अस्तित्व में आये। यहीं से विस्तारित होते हुए गुरुत्व ने दिक्-काल का मौजूदा रूप दिया। अभी भी यह तय नहीं है कि शुरुआत एकलता से हुई या पदार्थ के ही किसी अन्य रूप से हुई थी। खुद हॉकिंग इस पर दो अवस्थितियाँ रखते हैं (हाकिंग-हार्टल मॉडल व हाकिंग-पेनरोज़ मॉडल और खुद इस अवस्थिति को खुले प्रश्न के रूप में रखते हैं कि बिग बैंग की जगह अन्य सिद्धान्त भी मौजूदा ब्रह्माण्ड को व्याख्यायित कर सकते हैं, हालाँकि वे खुद किसी भी ‘थ्योरी फॉर एवरीथिंग’ के मिलने से इनकार करते हैं। परन्तु इस ‘थ्योरी फॉर एवरीथिंग’ की दावेदार स्ट्रिंग थ्योरी व क्वाण्टम लूप थ्योरी भी मौजूदा ब्रह्माण्ड के भौतिक अवयवों को व्याख्यायित करती हैं और गुरुत्व तथा क्वाण्टम जगत को एकीकृत करती हैं। इन सिद्धान्तों के मूल प्रस्थापनाओं में न जाकर हम इनके द्वारा ब्रह्माण्ड की तस्वीर बनायेंगे। स्ट्रिंग थ्योरी के अनुसार पदार्थ का सबसे बुनियादी (! अवयव स्ट्रिंग होता है और ब्रह्माण्ड के विस्तारित होने व शुरुआत में विस्फोट को दरअसल दो बड़े ब्रह्माण्डों के टकराने से समझा जा सकता है यह कोई उद्भव नहीं है बस ब्रह्माण्डों का आपसी टकराव था व इस तरह की परिघटनाएँ आम हैं अनगिनत ब्रह्माण्डों के बीच हमारा ब्रह्माण्ड अकेला नहीं है। यह सिद्धान्त एंगेल्स की पदार्थ की अनन्तता की अवधारणा के अनुकूल है। क्वाण्टम लूप थ्योरी के अनुसार बिग बैंग बिग बाउन्स है यानी हमारा ब्रह्माण्ड कईं बिग बैंग जैसे विस्फोटों से होकर गुज़रा है और हर बिग बैंग के बाद एक बिग क्रंच (सिकुड़ना होता है। यह भी एंगेल्स के उसी कथन के अनुसार है जिसमें पदार्थ अनवरत बदलाव के चक्र में चलता है। परन्तु ये दोनो ही सिद्धान्त अभी साबित होने हैं।

पदार्थ की अर्न्तवस्तु-मौजूदा समय का विज्ञान 

एंगेल्स और लेनिन के समय पदार्थ व गति की अवधारणा प्राकृतिक विज्ञान की सीमाओं के अनुसार थी। एंगेल्स का यह सामान्यीकरण कि “पदार्थ भौतिक वस्तुओं के कुल समुच्चय के सिवा कुछ नहीं है, जिससे यह सिद्धान्त जन्मा है तथा गति और कुछ नहीं बस संक्षिप्तीकरण है जिनमें हम तरह-तरह की इन्द्रियों द्वारा बोधगम्य वस्तुओं को उनके समान गुणों के कारण समझ पाते हैं”, परिभाषा के तौर पर बिलकुल सटीक है और इसी परिभाषा से देखें तो आज भौतिक वस्तुओं को समझने के लिए क्वाण्टम जगत के स्तर व ज्यामितीय स्तर पर समझने के लिए क्वाण्टम भौतिकी और सापेक्षिकता के सिद्धान्त से अलग व्याख्यायित किये जाते हैं। दोनों सिद्धान्त द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के अर्न्तगत पदार्थ के अलग-अलग संस्तरों के नियमों का सामान्यीकरण हैं परन्तु पदार्थ के किसी एक रूप जैसे एक तारे के अन्दर दोनों नियम एक साथ काम करते हैं फिर भी दोनों में अभी तक कोई एकरूपता नहीं है। बिग बैंग के समय, एकलता, सापेक्षिकता सिद्धान्त की ही भविष्यवाणी है जिसमें खुद यह सिद्धान्त कार्य नहीं करता है। एकलता पर क्वाण्टम भौतिकी भी काम नहीं करती है। यही वह अन्तर्विरोध है जिसने भौतिकी के आधुनिक संकट को जन्म दिया है और जो पिछले 50-60 सालों से एक विकराल रूप ले चुका है। हमारे विज्ञान की सीमा यह है कि यह अभी नहीं कहा जा सकता है कि बिग बैंग के समय के गति के नियम कैसे थे और इससे पहले क्या था? सवाल पदार्थ के मौजूदा हर बोधगम्य और अबोधगम्य रूप के ही उद्भव का है! हर बोधगम्य गुण के अस्तित्व में आने का सवाल है, निश्चित तौर पर इससे पहले ‘कुछ नहीं’, भाव, शैतान या भगवान नहीं था। इस अज्ञात, ‘अबोधगम्य’ को क्या कहा जाए? अबोधगम्य पदार्थ? चलिए अब पदार्थ की अवधारणा पर भी बात कर लेते हैं। सापेक्षिकता सिद्धान्त पदार्थ को ज्यामिति (दिक्-काल और गुरुत्व) और भार (गुरुत्व) के अर्न्तद्वन्द्व में बाँटकर समझाता है। गति तथा पदार्थ के रूपान्तरण और उसके द्वन्द को समझाता है। क्वाण्टम फ़ील्ड थ्योरी भी सूक्ष्म स्तर पर गति व दिक्-काल के अन्तर्गुंथन से पदार्थ के असतत् व्यवहार को समझाती है जिनके विशिष्ट अर्न्तविरोधों से ही बुनियादी कण बनते हैं। निर्वात, दिक्-काल, भार, गति अब पदार्थ की संरचना को व्याख्यायित करते हैं। पदार्थ को समझने के लिए इन अवयवों के बीच आपसी व्यवहार को समझना होता है। परन्तु बिग बैंग के समय हमारा मौजूदा विज्ञान इन्हें भी व्याख्यायित करने में नाकामयाब है, इसलिए उस परिस्थिति को हम पदार्थ की विशिष्ट अवधारणा के अन्दर न डालकर भौतिक यथार्थ की अवधारणा में डालकर समझ सकते हैं। गति, दिक्-काल, पदार्थ की अवधारणाएँ भौतिक यथार्थ की विशिष्ट अवधारणाएँ हैं। जब तक विज्ञान भौतिक यथार्थ के अर्न्तगत पदार्थ और गति के स्वरूप को हल नहीं कर लेता यानी इस परिघटना के जाल को भेद कर उसके भौतिक अवयव नहीं पता लगा लेता हम उसकी अर्न्तवस्तु को द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी होते हुए भौतिक यथार्थ की अवधारणा के अर्न्तगत ही डाल सकते हैं। अगर मौजूदा भौतिकी बिग बैंग को पदार्थ के उद्भव के रूप में बताती है तो यह विज्ञान की ग़लती नहीं है। वे मौजूदा बोधगम्य पदार्थ के उद्भव को पदार्थ का उद्भव मानते हैं। यहाँ हम जब कह रहे हैं कि पदार्थ की अवधारणा तमाम परिघटनाओं को नहीं समझाती है तो हम पॉल मात्तिक द्वारा पदार्थ की अवधारणा की अपूर्णता से सहमत नहीं हैं। पॉल मात्तिक विज्ञान में काण्टवादी भटकाव पैदा करते हैं, सूक्ष्म जगत में वस्तुगतता से इनकार कर वे मार्क्सवाद पर बोल्शेविज़्म पर हमला बोलते हैं। सूक्ष्म जगत के अन्दर मौजूद अनिश्चितता को वे वस्तुगत सत्य के इनकार का सबूत मानते हैं। यह कोरी बकवास है। वही पुराना राग है जिसका जवाब एंगेल्स और लेनिन दे चुके हैं। वे परिघटना को काण्टवादी अबूझ वस्तु-निज-रूप में बदल देते हैं। चेर्नाव की आलोचना करते हुए लेनिन ने लिखा है वस्तु-निज-रूप और परिघटना के बीच निश्चित ही कोई अन्तर नहीं होता है और न ही हो सकता है। एक मात्र अन्तर ज्ञात और अज्ञात के बीच होता है। दोनों के बीच सीमाओं को खड़ा करने वाली दार्शनिक खोजें, ऐसी खोजें जो वस्तु-निज-रूप को परिघटना से परे मानती हैं( काण्ट यह सब कोरी बकवास है।” पॉल मात्तिक की यह आलोचना भी कोरी बकवास है।

स्पष्ट है कि भौतिक यथार्थ के तमाम भौतिक अवयव अज्ञात हैं पर यही आगे ज्ञात और नए अज्ञात में टूटेंगे। मौजूदा भौतिकी के स्तर के अनुसार यही कहा जा सकता है कि बिग बैंग (या बिग बाउन्स या ब्रह्माण्डों का टकराव या कुछ और जैसी परिघटना भी भौतिक यथार्थ का हिस्सा है। हिग्स बुसॉन का मिलना इस गुत्थी को सुलझाने की तरफ विज्ञान का एक बढ़ा हुआ कदम है। अब तक हमने यह देखा कि कैसे विज्ञान ए पोस्टरियोरी द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को विकसित करता है।

बुधवार, 16 अक्टूबर 2013

haiku salila: sanjiv

हाइकु सलिला :
संजीव
*
ईंट-रेट का
मंदिर मनहर
देव लापता
*
श्रम-सीकर
चरणामृत से है
ज्यादा पावन
*
मर मदिरा
मत मुझे पिलाना
दे विनम्रता
*
पर पीड़ा से
तनिक न पिघले
मानव कैसे?
*
मैले मन को
उजला तन प्रभु!
देते क्यों कर?
*

lekh: itihaas ke mithak todati takneek - pramod bhargav

सामायिक शोधलेख :
इतिहास के मिथक तोड़ती तकनीक
प्रमोद भार्गव 


विज्ञान सम्‍मत कोई भी नई मान्‍यता वर्तमान मान्‍यता के खण्‍डन के दृष्‍टिगत अस्‍तित्‍व में लाई जाती है। नई मान्‍यता का उत्‍सर्जन पहली मान्‍यता से दूसरी मान्‍यता के बीच सामने आए नए तथ्‍यों, साक्ष्‍यों, जैविक कारणों और नई तकनीकी विधियों से संभव होता है। इस दृष्‍टि से भारत की भारतीयता, अखण्‍डता व संप्रभुता को मजबूती प्रदान करने वाले तकनीकी माध्‍यम से किए गए तीन शोधपरक अध्‍ययन सामने आए हैं। पहला जो एकदम नया अध्‍ययन है का निर्ष्‍कष है कि आर्यों के बहार से भारत आने की कहानियां गढ़ी हुई हैं। यह शोध हैदराबाद के सेंटर फॉर सेल्‍युलर एण्‍ड मॉलिक्‍यूलर बायोलॉजी ने किया है। इस शोध का आधार अनुवांशिकी (जेनेटिक्‍स) है। एक दूसरे अध्‍ययन में दो साल पहले डीएनए की विस्‍तृत जांच से खुलासा किया गया था कि देश के बहुसंख्‍यक लोगों के पूर्वज दक्षिण भारतीय दो आदिवासी समुदाय हैं। मानव इतिहास विकास के क्रम में यह स्‍थिति जैविक क्रिया के रुप में सामने आई हैं। वैसे भी इतिहास अब केवल घटनाओं और तिथियों की सूचना भर नहीं रह गया है। तीसरे अध्‍ययन ने निश्‍चित किया है कि भगवान श्रीकृष्‍ण हिन्‍दू मिथक और पौराणिक कथाओं के काल्‍पनिक पात्र न होकर एक वास्‍तविक पात्र थे और कुरुक्षेत्र के मैदान में वास्‍तव में महाभारत युद्ध लड़ा गया था। भारतीय परिदृश्‍य या परिप्रेक्ष्‍य में उपरोक्‍त मान्‍यताएं स्‍वीकार ली जाती हैं तो शायद मिथक बना दिए गए राम और कृष्‍ण जैसे संघर्षशील नायकत्‍व-चरित्रों से ईश्‍वरीय अवधारणा की मिथकीय केंचुल उतरे। हमारे संज्ञान में अब यह वैज्ञानिक सच आ ही गया है कि हम भारतीय उपमहाद्वीप के ही आदिवासी समूहों के वंशज हैं, फिर यह धर्म, जाति, संप्रदाय व भाषाई विभाजक लकीर क्‍यों ? लेकिन क्‍या ये जड़ों की ओर लौटने का संकेत देने वाले अनुसंधानपरक वैज्ञानिक चिंतन ईश्‍वरीय, सृष्‍टि की काल्‍पनिक अवधारणा को चुनौती देते हुए भारतीय समाज को बदल पाएंगे ?
प्रसिद्ध जीव विज्ञानी चार्ल्‍स डारविन ने उन्‍नीसवीं सदी के मध्‍य में विकासवाद के सिद्धांत को स्‍थापित करते हुए बताया था कि पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और यहां तक की मनुष्‍य भी हमेशा से आज जैसे नहीं रहे हैं, बल्‍कि वे बेतरतीब बदलाव (रैन्‍डम म्‍यूटेशन) और प्राकृतिक चयन (नेचुरल सिलेक्‍शन) द्वारा निम्‍नतर से उच्‍चतर जीवन की ओर विकसित होते रहे हैं। उन्‍होंने इस बात पर भी जोर दिया की जिस खास प्रजाति से मानव का विकास हुआ, उसके संबंधी आज भी अफ्रीका में जीवित हैं। इसलिए इस सिद्धांत को मानने में किसी सवर्ण में यह हीनता-बोध पैदा नहीं होना चाहिए कि हमारे पुरखे आदिवासी थे।
चार्ल्‍स डारविन ने एच.एम.एस बीगल जहाज पर सवारी करते हुए दुनियाभर की सैर की और कई जीव-जंतुओं का इस दृष्‍टि से अध्‍ययन किया, जिससे सजीवों में परिवर्तन की खोज की जा सके। लिहाजा बीगल यात्रा के दौरान वे इक्‍वेडॉर तट के नजदीक गैलापैगोस द्वीप समूह के कई द्वीपों पर गए। यहां उन्‍हें फिंच नाम की चिड़िया के प्रसंग में विशेष बात यह नजर आई कि यह चिड़िया पाई तो हरेक द्वीप में जाती है, लेकिन इनमें शारीरिक स्‍तर पर तमाम भिन्‍नताएं हैं। विशेष तौर से इनकी चोचों की आकृति में बदलाव प्राकृतिक चयन और आहारजन्‍य उपलब्‍धता के आधार पर डारविन ने रेखांकित किया। बाद मे यें पक्षी अलग-अलग स्‍थानों पर इतने भिन्‍न रुपों में विकसित हो गए कि इन्‍हें मनुष्‍यों ने नई-नई प्रजातियों के रुप में ही जाना।
समस्‍त भारतीय दो आदिवासी समूहों की संतानें हैं, यह भारत में किया गया ऐसा अंनूठा अध्‍ययन है जिसमें शोधकर्ताओं ने भारतीय सभ्‍यता की पहचान मानी जाने वाली जाति व्‍यवस्‍था पर आर्य आक्रमणकारियों के सिद्धांत को सर्वथा नजरअंदाज किया है। अध्‍ययन दल के निदेशक लालजी सिंह ने इस प्रसंग का खुलासा करते हुए स्‍पष्‍ट भी किया कि आर्य व द्रविड़ (अनार्य) के बारे में अलग-अलग बात करने की जरुरत नहीं है। उन्‍होंने कहा भी जाति सूचक रुप में पहली बार ‘आर्य' शब्‍द का प्रयोग जर्मन विद्वान मेक्‍समुलर ने किया था। वरना हमारी जातियों का प्रादुर्भाव तो देश के कबिलाई समूहों से हुआ है।
‘सेंटर फॉर सेल्‍युलर एंड मॉलीक्‍युलर बायोलॉजी' (सीसीएमबी) हैदराबाद के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए इस अध्‍ययन में बताया गया है कि दक्षिण भारतीय पूर्वज 65 हजार वर्ष पूर्व और उत्तर भारतीय पूर्वज 45 हजार वर्ष पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप में आए थे। देश की 1.21 अरब जनसंख्‍या, 4600 अलग-अलग जातियों, धर्मों व बोलियों के आधार पर विभाजित हैं, बावजूद उनमें गहरी अनुवांशिक समानताएं हैं। लिहाजा निम्‍नतम और उच्‍चतम जातियों के पुरखे और उनके रक्‍त समूह एक ही हैं। गोया, यह खोज इस पारंपरिक अवधारणा को अस्‍वीकारती है कि सभी जीव प्रजातियां अपरिवर्तन हैं और ये ईश्‍वरीय रचनाएं हैं।
हालांकि इतिहास की गतिशीलता को मानव समाज की जैविक प्रवृत्तियों से तलाशने की कोशिश मनुष्‍य के आदि पूर्वज ‘‘आस्‍टेलोपिथिक्‍स रामिदस'' की खोज के रुप में ड़ेढ़ दशक पूर्व सामने आ चुकी है। धरती के इस पहले मनुष्‍य की खोज इथियोपिया क्षेत्र के आरामिस के शुरुआती प्‍लायोसिन चट्‌टानों में मिले रामिदस प्रजाति के सत्तरह सदस्‍यों के दांतो, खोपड़ी के टुकड़ों और अन्‍य अवशेषों की उम्र 45 लाख वर्ष से अधिक आंकी गई है। इथियोपिया के अफारी लोगों की भाषा में ‘‘रामिद'' का अर्थ होता है मूल या जड़। रामिदस के अवशेषों के खोज कर्ता वैज्ञानिक जिसे मनुष्‍य और चिपांजी जैसे नर वानरों के समान पूर्वज तथा अब तक ज्ञात सबसे प्राचीन मानव पूर्वज के जीवाश्‍म मानते हैं। वैज्ञानिको का दावा है कि यदि यह सही है तो इसे इंसान की मूल प्रजाति मानना होगा।
इस शोध की बड़ी उपलब्‍धि अंग्रेजों द्वारा प्रचलन में लाई गई आर्य-द्रविड़ अवधारणा भी है। जिसके तहत बड़ी चतुराई से अंग्रेजों ने कल्‍पना गढ़कर तय किया कि आर्य भारत में बाहर से आए। मसलन आर्य विदेशी थे। पाश्‍चात्‍य इतिहास लेखकों ने पौने दो सौ साल पहले जब प्राच्‍य विषयों और प्राच्‍य विद्याओं का अध्‍ययन शुरु किया तो उन्‍होंने कुटिलतापूर्वक ‘आर्य' शब्‍द को जातिसूचक शब्‍द के दायरे में बांध दिया। ऐसा इसलिए किया गया जिससे आर्यों को अभारतीय घोषित किया जा सके। जबकि वैदिक युग में ‘आर्य' और ‘दस्‍यु' शब्‍द पूरे मानवीय चरित्र को दो भागों में बांटते थे। प्राचीन संस्‍कृत साहित्‍य में भारतीय नारी अपने पति को ‘आर्य-पुत्र' अथवा ‘‘आर्य-पुरुष'' नाम से संबोधित करती थी। इससे यह साबित होता है कि आर्य श्रेष्‍ठ पुरुषों का संकेतसूचक शब्‍द था। ऋग्‍वेद, रामायण, महाभारत, पुराण व अन्‍य प्राचीन ग्रंथों में कहीं भी आर्य शब्‍द का प्रयोग जातिवाचक शब्‍द के रुप में नहीं हुआ है। आर्य का अर्थ ‘श्रेष्‍ठि' अथवा ‘श्रेष्‍ठ' भी है। वैसे भी वैदिक युग में जाति नहीं वर्ण व्‍यवस्‍था थी।
इस सिलसिले में डॉ. रामविलास शर्मा का कथन बहुत महत्‍वपूर्ण है, जर्मनी मेंं जब राष्‍ट्रवाद का अभ्‍युदय हुआ तो उनका मानना था कि हम लोग आर्य हैं। इसलिए उन्‍होने जो भाषा परिवार गढ़ा था उसका नाम ‘इंडो-जर्मेनिक' रखा। बाद में फ्रांस और ब्रिटेन वाले आए तो उन्‍होंने कहा कि ये जर्मन सब लिए जा रहे हैं, सो उन्‍होंने उसका नाम ‘इंडो-यूरोपियन' रखा। मार्क्‍स 1853 में जब भारत संबंधी लेख लिख रहे थ,े उस समय उन्‍होंने भारत के लिए लिखा है कि यह देश हमारी भाषाओं और धर्मों का आदि स्‍त्रोत है। इसलिए 1853 में यह धारणा नहीं बनी थी कि आर्य भारत में बाहर से आए। 1850 के बाद जैसे-जैसे ब्रिटिश साम्राज्‍य सुदृढ़ हुआ और फ्रांसीसी व जर्मन भी यूरोप एवं अफ्रीका में अपना साम्राज्‍य विस्‍तार कर रहे थे तब उन्‍हें लगा कि ये लोग हमसे प्राचीन सभ्‍यता वाले कैसे हो सकते हैं, तब उन्‍होंने यह सिद्धांत गढ़ा कि एक आदि इंडो-यूरोपियन भाषा थी, उसकी कई शाखाएं थीं। एक शाखा ईरान होते हुए यहां पर पहुंची और फिर इंडो-एरियन जो थी, वह इंडो-ईरानियन से अलग हुई और फिर संस्‍कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी यह सिलसिला चला। इस कारण आर्य भारत के मूल निवासी थे, यह गलत है। भाषाओं के इतिहास से भी इसकी पुष्‍टि नहीं होती। अंततः रामविलास शर्मा ने अपने शोधों के निचोड़ में पाया कि आर्य उत्तर भारत के ही आदिवासी थे। अर्थात ज्‍यादातर भारतीयों के जन्‍मदाता आदिवासी समूह थे।
बंगाली इतिहासकार ए.सी.दास का मानना है कि आर्यों का मूल निवास स्‍थान ‘सप्‍त-सिंधु' या पंजाब में था। सप्‍त-सिंधु में सात नदियां बहती थीं सिंधु, झेलम, चिनाब, रावी, व्‍यास, सतलुज और सरस्‍वती। आर्य सप्‍त सिंधु से ही पश्‍चिम की ओर गए और पूरी दुनिया में फैले। सप्‍त-सिंधु के उत्तर में कश्‍मीर की सुंदर घाटी, पश्‍चिम में गांधार प्रदेश, दक्षिण में राजपूताना, जो उस समय रेगिस्‍तान नहीं था और पूर्व में गंगा का मैदान था। सप्‍त-सिंधु से गांधार और काबुल के मार्ग से आर्यों के समूह पश्‍चिम में यूरोप और रुस गए।
पाश्‍चात्‍य और भारतीय विद्वान भाषा वैज्ञानिक समरुपता के कारण ऐसी अटकलें लगाए हुए हैं कि आर्य विदेशों से भारत आए। गंगाघाटी से आर्यावर्त तक की भाषाएं एक ही आर्य परिवार की आर्य भाषाएं हैं। इसी कारण इन भाषाओं में लिपि एवं उच्‍चारण की भिन्‍नता होने के बावजूद अपभ्रंशी समरुपता है। इससे यह लगता है कि आदिकाल में एक ही परिवार की भाषाएं बोलने वाले पूर्वज कहीं एक ही स्‍थान पर रहते होंगे जो सप्‍त-सिंधु ही रहा होगा। भाषा वैज्ञानिक समरुपता किसी हद तक परिकल्‍पना और अनुमान की बुनियाद पर भी आधारित होती है और अब भाषा वैज्ञानिकों की यह अवधारणा भी बन गई है कि भाषाई एकरुपता किसी जाति की एकरुपता साबित नहीं हो सकती। इसलिए यूरोपीय जातियों के साथ भारतीय आर्यों को जोड़ना कोरी कल्‍पना है। वैसे भी आर्य शब्‍द का प्रयोग संस्‍कृत साहित्‍य में सबसे ज्‍यादा हुआ है और संस्‍कृत का परिमार्जित विकास भी क्रमशः भारत में ही हुआ है। इसलिए आयोंर् का उत्‍थान, आर्यों का दैत्‍यों में विभाजन और उनकी सभ्‍यता, संस्‍कृति और उनका पारंपरिक विस्‍तार के सूत्रपात के मूल में भारत ही है। इसीलिए भारत आर्यावर्त कहलाया आर्य भारत के ही मूल निवासी थे इस तारतम्‍य में 1994 में भी एक अध्‍ययन हुआ था। जिसके जनक भारतीय अमेरिकी विद्वान थे। इस अध्‍ययन ने दावा किया था कि भारत से ही आर्य पश्‍चिम-एशिया होते हुए यूरोप तक पहुंचे। इस अध्‍ययन का आधार पुरातात्‍विक अनुसंधानों, भू-जल सर्वेक्षण, उपग्रह से मिले चित्र, प्राचीन शिल्‍पों की तारीखें तथा ज्‍यामिति एवं वैदिक गणित रहे थे।
इस अध्‍ययन दल में अमेरिका की अंतरिक्ष संस्‍था नासा के तात्‍कालिक सलाहकार डॉ. एन.एस.राजाराम, डेविड फ्रांवले, जार्ज फयूरिस्‍टीन, हैरी हिक्‍स, जैम्‍स शेफर और मार्क केनोयर शामिल थे। भारतीय अमेरिकी इतिहासविदों ने सच की तह तक पहुचने के लिए खोजबीन की चौतरफा रणनीति अपनाई। प्रमाणों के लिए बीसवीं शताब्‍दी के उपलब्‍ध अत्‍याधुनिक संसाधनों का सहारा लिया। डॉ. राजाराम ने अपना अभिमत प्रकट करते हुए कहा है कि 19 वीं शताब्‍दी के भाषाशास्‍त्र के सिद्धांत, ऐसा ऐतिहासिक परिदृश्‍य खींचते हैं, जो पिछले दो हजार साल की भारतीय परंपरा को खारिज करने की सलाह देता है। दूसरी ओर भारतीय अमेरिकी इतिहासज्ञों का मत है कि परंपराओं को स्‍वीकार किया जाना चाहिए और इतिहास के मॉडलों को सुधारा जाना चाहिए। यदि नए सबूत उनके विपरीत हों तो उन मॉडलों को नामंजूर भी किया जा सकता है। इस आधार को सामने रखकर उन्‍होंने भारतीय इतिहास की जड़ों की ओर लौटना शुरु किया तो पाया कि महाभारत का समय ईसा से 3102 साल पहले के आसपास का था। इस काल का निर्धारण कई तरह से किया गया। महाभारत के इस काल को मिथक नहीं माना जा सकता क्‍योंकि उपग्रह से मिले चित्रों से पता चलता है कि सरस्‍वती नदी 1900 ईसा पूर्व सूख गई थी। महाभारत के वर्णनों में सरस्‍वती का जिक्र मिलता है। लिहाजा यह भी नहीं माना जा सकता कि भारतीयों ने ज्‍यामिति, यूनानियों से उधार ली थी। हड़प्‍पा के नगरों का नियोजन और वास्‍तुशिल्‍प उच्‍चकोटि के ज्‍यामितिशास्‍त्र का प्रतिफल हैं। इस प्रमेय को पाइथागोरस से दो हजार साल पहले बैधायन ने अपने सुलभ सूत्र में कर दिया था।
सुलभ सूत्र में हवन-कुंड की जो ज्‍यामिति दी गई है, वह तीन हजार ईसा पूर्व के हड़प्‍पा सभ्‍यता के अवशेषों में पाई जाती है। सूत्रों के रचयिता अश्‍वालयन ने महाभारत के प्राचीन ऋषियों का उल्‍लेख किया है और इन्‍हीं सूत्रों को हड़प्‍पा सभ्‍यता के समय साकार रुप में पाया गया। हड़प्‍पा के शहर 2700 ईसा पूर्व में जिस समय अपने गौरव के चरम पर थे, उससे कहीं पहले महाभारत का युद्ध हुआ था।
इन सब ठोस प्रमाणों के आधार पर इन इतिहासकारों ने प्राचीन भारतीय इतिहास के सूत्र 3102 ईसा पूर्व में हुए महाभारत से पकड़ना शुरु किए। इससे यह तर्क अपने आप खारिज हो जाता है कि सभ्‍यता का अंकुरण तीन हजार ईसा पूर्व में मेसोपोटामिया से हुआ। इससे करीब एक हजार साल पहले तो ऋग्‍वेद पूर्ण हो गया था। ऋग्‍वेद काल की शुरुआत इससे कहीं पहले हो गई थी। लोकमान्‍य तिलक और डेविड फ्रांवले जैसे वैदिक विद्वानों ने ऋग्‍वेद में छह हजार ईसा पूर्व की तारीखों के संकेत भी खोजे हैं।
डॉ. राजाराम ऋग्‍वेद काल को 4600 ईसा पूर्व मानने में कोई कठिनाई महसूस नहीं करते। यह वह समय था जब मान्‍धात्र नाम के भारतीय सम्राट ने ध्रुयू कहलाने वाले लोगों पर उत्तर-पश्‍चिम में कई आक्रमण किए। इन आक्रमणों के कारण उत्तर-पश्‍चिम से भारी संख्‍या में पलायन हुआ और ये लोग मध्‍य-एशिया और यूरोप तक गए। मध्‍य-एशिया, यूरोप और भारत के बीच भाषाई और मिथकीय समानताओं के लिए इसे प्रमुख कारण माना जा सकता है। भारत का उत्तर-पश्‍चिम का इलाका प्राचीन काल में उथल-पुथल का केन्‍द्र था।
मान्‍धात्र के बाद राजा सूद को धु्रयू और दूसरे लोगों से जूझना पड़ा। फिर तेन राजाओं की लड़ाइयां भी हुईं, जिनका ऋग्‍वेद के सांतवें खण्‍ड में वशिष्‍ठ ने भी वर्णन किया है। प्राचीन इतिहास का यह महत्‍वपूर्ण दौर था। सूद राजा की लड़ाई ने पृथुपठवा, परसू और एलिना लोगों को खदेड़ दिया। बाद में परसू लोग फारसी कहलाए और एलिना लोग यूनानी कहलाए। सूद के दूसरे प्रतिद्वंद्वियों में पक्‍था और बलहन भी शामिल थे। बाद में उनकी पीढ़ियाँ पठान या पख्‍तूनी और बलूची कहलाईं। भाषाई और संस्‍कृति विश्‍लेषक श्रीकांत तलगरी ने भी इसका वर्णन किया है। इन तथ्‍यों के उजागर होने से साबित हुआ कि यह सिद्धांत एकदम खोखला है कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया था। ये प्रमाण और धटनाएं सिद्धांत के एकदम विपरित यह गवाही देती हैं कि आर्य जाति का मूल स्‍थान भारत था और फिर उनकी जड़ें यूरोप तक फैले वैदिक भूभाग में राजनैतिक उथल-पुथल के कारण आर्यों का यहां से पलायन हुआ था न कि वे बाहर से आक्रांता के रूप में यहां आए थे।
अमेरिकी मानव वैज्ञानिक और पुरातत्‍ववेत्ता डॉ. जे. मार्क केनोयर भी हड़प्‍पा में खुदाई के दौरान मिले अवशेषों के बाद लगभग यही दृष्‍टिकोण प्रकट करते हैं। डॉ. केनोयर का मत है कि ‘भारोपीय';इंडो-यूरोपियनद्ध तथा ‘भारतीय आर्य' ;इंडा- आर्यनद्ध की परिकल्‍पनाओं के पीछे यूरोपीय विद्वानों का उद्‌देश्‍य अपनी श्रेष्‍ठता प्रतिपादित करना था और इसके लिए उन्‍हें स्‍थितियां भी अनुकूल मिलीं। क्‍योंकि तत्‍कालीन भारतीय मानस हीन भावना से इतना अधिक ग्रस्‍त था कि वह स्‍वयं को पश्‍चिम से किसी न किसी रुप में जोड़कर ही आत्‍मगौरव महसूस करने लगा था।
दरअसल पिछली शताब्‍दी के तीसरे दशक में भारतीय अन्‍वेषणकर्ता डी.आर.साहनी और आर.डी. बनर्जी द्वारा क्रमशः हड़प्‍पा और मोहनजोदड़ों की खोज से पहले तक पश्‍चिमी विद्वान यही कहते आए थे कि बाहर से आए आर्यों ने भारत को सभ्‍यता से परिचित कराया। हालांकि इन खोजों से पश्‍चिमी विद्वानों का यह दावा ध्‍वस्‍त हो गया, फिर भी यही मान्‍यता बनी रही कि आर्य बाहर से आए और उन्‍होंने सिंधु घाटी के मूल निवासियों को दक्षिण एवं पूर्व की ओर खदेड़ दिया। साथ ही यह अवधारणा भी गढ़ी कि आर्य बर्बर थे। नतीजतन हड़प्‍पावासी द्रविड़ उनके सामने टिक नहीं पाए। क्‍योंकि आर्यों के पास अश्‍वों की गति और लोहे की शक्‍ति थी। जबकि हड़प्‍पा के लोग इनसे अपरिचित थे।
डॉ केनोयर इस अवधारणा को निरस्‍त करते हुए कहते हैं कि हड़प्‍पा सभ्‍यता से जुड़े विभिन्‍न स्‍थलों पर 3100 वर्ष से भी अधिक पुराने लोहे मिले हैं। जबकि बलूचिस्‍तान में सबसे पुराना लोहा लगभग पौने तीन हजार साल से भी पहले का पाया गया है। इसी तरह सिंधु घाटी में घोड़ों के अवशेष प्राप्‍त हुए हैं, जो इस तथ्‍य को झुठलाते हैं कि हड़प्‍पावासी अश्‍वों से परिचित नहीं थे। डॉ. केनोयर ने माना है कि अनेक धर्मों और जातियों के लोग हड़प्‍पा में एक साथ रहते थे। ‘आर्य' शब्‍द की अर्थ-व्‍यंजना ‘सुसभ्‍य' और ‘सुसंस्‍कृत' से जुड़ी थी। फलस्‍वरुप जिनका उच्‍च रहन-सहन व शासन व्‍यवस्‍था में हस्‍तक्षेप था वे ‘आर्य' और जो दबे-कुचले व सत्ता से दूर थे, ‘‘अनार्य‘‘ हुए।
अब जो आर्यों के ऊपर अनुवांशिकी के आधार पर नया शोध सामने आया है, उससे तय हुआ है कि भारतीयों की कोशिकाओं का जो अनुवांशिकी ढांचा है, वह बहुत पुराना है। पांच हजार साल से भी ज्‍यादा पुराना है। तब यह कहानी अपने आप बे-बुनियाद साबित हो जाती है कि भारत के लोग 3.5 हजार साल पहले किसी दूसरे देश से यहां आए थे। यदि आए होते तो हमारा अनुवांशिकी ढांचा भी 3.5 हजार साल से ज्‍यादा पुराना नहीं होता, क्‍योंकि जब वातावरण बदलता है तो अनुवांशिकी ढांचा भी बदल जाता है। इस तथ्‍य को इस उदाहरण से समझा जा सकता है। जैसे हमारे बीच कोई व्‍यक्‍ति आज अमेरिका या ब्रिटेन जाकर रहने लग जाए तो उसकी जो चौथी-पांचवीं पीढ़ी होगी, उसका सवा-डेढ़ सौ साल बाद अनुवांशिकी सरंचना अमेरिकी या ब्रिटेन निवासी जैसी होने लग जाऐगी। क्‍योंकि इन देशों के वातावरण का असर उसकी अनुवांशिकी सरंचना पर पड़ेगा। इस शोध के बाद देखना यह है कि दुनियाभर के जिज्ञासुओं को आर्यों के मूल निवास स्‍थान का जो सवाल मथ रहा है उसका कोई परिणाम निकलता है अथवा नहीं ?
सिंधु घाटी की सभ्‍यता प्राचीन नगर सभ्‍यताओं में एकमात्र ऐसी सभ्‍यता थी जो भगवान महावीर और महात्‍मा गांधी के अंहिसावादी दर्शन की विलक्षणता व महत्ता को रेखांकित करती है। मिश्र से लेकर सुमेरू तक की प्राचीन सभ्‍यताओं से ऐसे अनेक अवशेष मिले हैं, जिनमें राजा अथवा उसके दूत लोगों को मारते-पीटते दिखाए गए हैं। जबकि इसके विपरीत सिंधु घाटी की सभ्‍यता में ऐसा एक भी अवशेष नहीं मिला, इससे जाहिर होता है कि दुनिया की यह एकमात्र ऐसी अद्वितीय सभ्‍यता थी, जहां आमजन पर अनुशासन तथा अपराध व अपराधियों पर नियंत्रण के लिए सैन्‍य-शक्‍ति का सहारा नहीं लिया जाता था। शासन-व्‍यवस्‍था की इस अनूठी पद्वति के विस्‍तृत अध्‍ययन की दरकार है।
डॉ. केनोयर का मानना था कि प्राचीन भारतीय सभ्‍यता केवल सिंधु घाटी में ही नहीं पनपी, बल्‍कि सिंधु घाटी की सभ्‍यता के समांनातर एक अन्‍य सभ्‍यता घाघरा-हाकड़ा में भी पनपी। ज्ञातव्‍य है कि सरस्‍वती इसी घाघरा की शाखा थी। उन्‍होंने दावा किया था कि हरियाणा स्‍थित राखीगढ़ी तथा पाकिस्‍तान के गनवेरीवाला आदि क्षेत्रों में हुए अन्‍वेषण कार्यों में इस तथ्‍य की पुष्‍टि हुई है।
प्रागैतिहासिक भारत में राजनीति और धर्म, भिन्‍न नहीं थे। हड़प्‍पा-मोहन जोदड़ो आदि राज्‍यों के शासक अपने रक्‍त संबंधियों अथवा रिश्‍तेदारों के साथ राज-काज चलाते थे। यह व्‍यवस्‍था धर्म से संचालित व नियंत्रित थी। शासक कुटुम्‍ब में जब सदस्‍यों की जनसंख्‍या बढ़ जाती थी तो उनमें से एक समूह आमजनों की टोली के साथ कहीं और जा बसता था। इन कारणों से भी एक ही भाषा-समूहों का विस्‍तार हुआ। इतिहास हमारे मस्‍तिष्‍क की आंख खोल देने वाला सत्‍य होता है। इसलिए इनकी रचना में ज्ञान की समस्‍त देन का उपयोग होना चाहिए। इस नाते भारतवंशी ब्रितानी शोधकर्ता डॉ. नरहरि अचर ने खगोलीय घटनाओं और पुरातात्‍विक व भाषाई साक्ष्‍यों के आधार पर दावा किया है कि भगवान कृष्‍ण हिन्‍दू मिथक व पौराणिक कथाओं के दिव्‍य व काल्‍पनिक पात्र न होकर एक वास्‍तविक पात्र थे। डॉ. अचर ब्रिटेन में टेनेसी के मेम्‍फिस विश्‍वविद्यालय में भौतिकशास्‍त्र के प्राध्‍यापक हैं। डॉ. अचर की इस उद्‌घोषणा से जुड़े शोध-पत्र में खगोल विज्ञान की मदद से महाभारत युद्ध की घटनाओं की कालगणना की है। इस शोध-पत्र का अध्‍ययन जब ब्रिटेन में न्‍यूक्‍लियर मेडीसिन के फिजीशियन डॉ. मनीष पंडित ने किया तो उनकी जिज्ञासा हुई कि क्‍यों न तारामंडल संबंधी सॉफ्‍टवेयर की मदद से डॉ. अचर के निष्‍कर्षों की पड़ताल व सत्‍यापन किया जाए। घटनाओं की कालगणना करने के दौरान वे उस समय आश्‍चर्यचकित रह गए जब उन्‍होंने डॉ. अचर के शोध-पत्र और तारामंडलीय सॉफ्‍टवेयर से सामने आए निष्‍कर्ष में अद्‌भुत समानता पाई।
इस अध्‍ययन के अनुसार कृष्‍ण का जन्‍म ईसा पूर्व 3112 में हुआ। विश्‍व प्रसिद्ध कौरव व पाण्‍डवों के बीच लड़ा गया महाभारत युद्ध ईसा पूर्व 3067 में हुआ। इन काल-गणनाओं के आधार पर महाभारत युद्ध के समय कृष्‍ण की उम्र 54-55 साल की थी। महाभारत में 140 से अधिक खगोलीय घटनाओं का विवरण है। इसी आधार पर डॉ. नरहरि अचर ने पता लगाया कि महाभारत युद्ध के समय आकाश कैसा था और उस दौरान कौन-कौन सी खगोलीय घटनाएं घटी थीं। जब इन दोनों अध्‍ययनों के तुलनात्‍मक निष्‍कर्ष निकाले गए तो पता चला कि महाभारत युद्ध ईसा पूर्व 22 नवंबर 3167 को शुरु होकर 17 दिन चला था। इन अध्‍ययनों से निर्धारित होता है कि कृष्‍ण कोई अलौकिक या दैवीय शक्‍ति न होकर एक मानवीय पौरुषीय शक्‍ति थे। डॉ. मनीष पंडित इस अध्‍ययन से इतने प्रभावित हुए कि उन्‍होंने ‘कृष्‍ण इतिहास और मिथक' नाम से एक दस्‍तावेजी फिल्‍म भी बना डाली।
इन तथ्‍यपरक अध्‍ययनों के सामने आने के बाद अब जरुरी हो जाता है कि हम अपनी उस मानसिकता को बदलें, जिसके चलते हमने प्राचीन भारतीय इतिहास, पुरातत्‍व और साहित्‍य के प्रति तो सख्‍त रवैया अपनाया हुआ है और औपनिवेशिक पाश्‍चात्‍य संप्रभुता के प्रति दास वृत्ति के अंदाज में कमोवेश लचीला रुख अपनाया हुआ है। अंग्रेज व उनके निष्‍ठावान अनुयायी भारतीय बौद्धिकों ने आर्य-अनार्य, आर्य-दस्‍यु और आर्य द्रविड़ समस्‍याएं खड़ी करके यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि भारत आदिकाल से ही विदेशी जातियों का उपनिवेश रहा है। इस बात से वे यह भी सिद्ध करना चाहते थे कि भारत पर ब्रितानी साम्राज्‍य का आधिपत्‍य सर्वथा वैद्य होते हुए न्‍यायसंगत था। लेकिन अब समय आ गया है कि इस मानसिक जड़ता को बदला जाए। यदि धर्म, भाषा, जाति और सांप्रदायिक सोच से ऊपर उठकर हम अपनी दृष्‍टि में साक्ष्‍य आधारित परिवर्तन कालांतर में लाते हैं तो देश असभ्‍यता व अज्ञानता के हीनता-बोध से तो उबरेगा ही हमारे ऐतिहासिक, सांस्‍कृतिक व सामाजिक मूल्‍यों में भी क्रांतिकारी बदलाव आएगा।
प्रमोद भार्गव
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साभार रचनाकार

Book review : mangal bula raha hai

पुस्तक समीक्षा :

मंगल पर जीवन की तलाश % अनुराग

mangal bula raha hai.srinivas laxman
इस माह भारत मंगल अभियान के तहत पहली बार अपना अंतरिक्ष यान मंगल ग्रह की यात्रा पर रवाना कर रहा है। ऐसे में बहुत से सवाल मन में उठते है- भारत यह अभि‍यान क्‍यों शुरू कर रहा है, इस पर कितना खर्च होगा, क्‍या यह धन की बर्बादी है, अभियान के लिए यह समय क्‍यों चुना गया, इसमें कौन-कौन से वैज्ञानिक जुटे हुए हैं, कैसी होगी उन वैज्ञानिकों की जीवन-शैली और कार्य-पद्धति, क्‍या विश्‍व के अन्‍य देश भी इस तरह के अभियान से जुड़े हैं, अब तक के मंगल अभियानों को कितनी सफलता मिली, इनका क्‍या भवि‍ष्‍य है, आदि। इन और ऐसे ही अनेक सवालों के जवाब श्रीनिवास लक्ष्‍मण की पुस्‍तक ‘मंगल बुला रहा है’ में दिए गए हैं। पेशे से पत्रकार श्रीनिवास लक्ष्‍मण ने पत्रकारिता की शुरुआत वैमानिकी केंद्रित विषयों से की और फिर उन्‍होंने अंतरिक्ष अन्‍वेषण का क्षेत्र चुना, जिसमें उनकी सर्वाधिक रुचि है। उन्‍होंने भारत के प्रथम चंद्र अभियान ‘चंद्रयान-1’ के साथ ही श्रीहरिकोटा से अनेक राकेटों के प्रक्षेपण की रिपोर्टिंग की है। उनका एक परिचय यह भी है कि वह सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्‍ट आर.के. लक्ष्‍मण के बेटे हैं। मूलत: अंग्रेजी में लिखी इस पुस्‍तक का हिंदी अनुवाद सुप्रसिद्ध विज्ञान लेखक देवेंद्र मेवाड़ी ने किया है। श्रीनिवास लक्ष्‍मण ने मंगल अभियान के सभी पहलुओं और महत्‍व को समझने व समझाने के लिए इस महा-परियोजना से जुड़े कुछ महत्‍वपूर्ण व्‍यक्तियों से बातचीत की और विभिन्‍न अंतरिक्ष केंद्रों में जाकर वहाँ की कार्यपद्धति व तैयारियों को निकट से देखा।
वैज्ञानिक संभावनाएँ व्‍यक्‍त कर रहे हैं कि मंगल ग्रह पर कभी जीवन रहा होगा और आज भी पृथ्‍वी के अनुकूल मानव के रहने की सबसे अधिक संभावनाएँ मंगल पर ही व्‍यक्‍त की जा रही हैं। इसी का परिणाम है कि 1960 से रूस के  पहले मंगल अभियान से लेकर अब तक 40 से भी अधिक अभियानों के तहत मंगल ग्रह के अध्ययन के लिए अंतरिक्ष यान भेजे जा चुके हैं। दुर्भाग्‍यपूर्ण बात है कि इनमें से 25 अभियान असफल रहे। भारत के मंगल अभियान की तैयारी इसरो के उपग्रह केंद्र, बंगलुरु में चल रही है। अब परियोजना अंतिम चरण में है। वैज्ञानिक दिन-रात काम में जुटे हैं।
यह किताब भारत के अं‍तरिक्ष अभियान के इतिहास पर भी प्रकाश डालती है। यह अभियान भारत में अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक विक्रम साराभाई और भारतीय नाभिकीय कार्यक्रम के जनक होमी भाभा के सपनों को साकार करने का ही एक प्रयास है। कोई ढाँचागत व्‍यवस्‍था न होने के कारण अंतरिक्ष विभाग के इंजीनियरों और वैज्ञानिकों ने थुंबा गाँव के छोटे से चर्च और उसके बिशप के मकान में अंतरिक्ष अनुसंधान का काम शुरू कि‍या था और वहाँ राकेट के हिस्‍सों का निर्माण किया। साउंडिंग राकेट के कल-पुर्जे साइकिलों और कभी-कभी तो बैलगाड़ी में भी लाए गए थे। इस तरह शुरू हुआ भारत का अंतरिक्ष अभियान आज अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर अपनी खास पहचान बना चुका है।
थुंबा से जो प्रथम साउंडिंग राकेट छोड़ा गया था, वह नासा ने दि‍या था और उसका नाम था- नाइकी अपाचे। राकेट छोड़ने की यह घटना 21 नवंबर 1963 को हुई थी। 2013 में जब मंगल अभि‍यान शुरू होगा, तो वह भारतीय अंतरि‍क्ष कार्यक्रम के प्रथम राकेट के प्रक्षेपण की 50वीं वर्षगाँठ का समय होगा।
अभियान से जुड़े कई वैज्ञानिकों के बारे में भी अब तक अनजानी जानकारियाँ किताब में दी गई हैं। इसरो अध्‍यक्ष डॉ. के. राधाकृष्‍णन कर्नाटक शैली के जाने-माने गायक हैं। वह कथकली कलाकार भी हैं और उन्‍होंने इसकी मंच पर प्रस्‍तुतियां भी दी हैं।
इसरो के तिरुअनंतपुरम स्थित भारतीय अंतरिक्ष एवं प्रौद्योगिकी संस्‍थान में डीन अनुसंधान डॉक्‍टर आदिमूर्ति बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उनके बारे में एक रोचक बात यह है कि उन्‍होंने कार्यालय जाने के लिए कभी गाड़ी का इस्‍तेमाल नहीं किया। वह अपने काम पर साइकिल से जाते रहे। उन्हें साइकिल चलाना पसंद है,  इसलिए कार नहीं रखी।
मंगल तक के इस महत्‍वाकांक्षी अभि‍यान का प्राथमि‍क उद्देश्‍य मंगल ग्रह के वातावरण का और उसके भूगर्भीय अध्‍ययन करना है। यह मंगल पर मीथेन की पहेली को भी हल करने की कोशि‍श करेगा। मीथेन की उपस्‍थि‍त की पहेली के हल से ही पता चल पाएगा कि ‍मंगल पर जीवन मौजूद है या नहीं।
यह जानकर कि‍सी भी भारतीय नागरिक को बड़ा गर्व होगा कि अगर हमारे देश ‍का यह मंगल अभि‍यान सफल रहता है, तो भारत वि‍श्‍व में ऐसा पहला देश होगा, जो सरकार से स्‍वीकृति‍ ‍मि‍लने के मात्र एक वर्ष के भीतर मंगल अभि‍यान को अंजाम दे देगा। अन्‍य देशों को इन तैयारि‍यों के लि‍ए तीन या चार वर्ष का समय लगा है।
हमारी पृथ्वी से चंद्रमा केवल चार लाख कि‍लोमीटर दूर है। पृथ्‍वी से कोई भी सि‍गनल चंद्रमा तक मात्र 1.3 सेकेंड में भेजा जा सकता है, जबकि पृथ्‍वी से मंगल तक 40 करोड़ किलोमीटर दूर सि‍गनल के पहुँचने में 20 मि‍नट का समय लगेगा। इसके अलावा चंद्रयान-1 से संबंधि‍त तैयारि‍याँ करने में चार वर्ष का समय लगा था, जबकि मंगल अभि‍यान का काम वैज्ञानिक मात्र एक साल में पूरा कर रहे हैं।
पृथ्‍वी से मंगल तक पहुँचने में करीब 300 दि‍न लगते हैं। मंगल ग्रह की कक्षा में अंतरिक्ष यान को प्रवेश कराना अभि‍यान की एक पेचीदा, खतरनाक और संशय से भरी महत्‍वपूर्ण अवस्‍था होती है। इस स्‍थि‍ति ‍में पहुँच कर अन्‍य देशों के कई अभि‍यान असफल हो चुके हैं। इसलि‍ए इस अभि‍यान की तैयारि‍यों में जुटे वैज्ञानि‍क बारीक-से-बारीक चीज पर गहरी नजर रखे हुए हैं। वैज्ञानि‍कों का समर्पण इस बात से पता चलता है कि ‍वे चौबीस घंटे तो काम कर ही रहे हैं, साथ ही अपनी साप्‍ताहि‍क छुट्टि‍यों का भी बलि‍दान कर रहे हैं। अभि‍यान संपन्‍न होने पर भारत की प्रौद्योगि‍की व वैज्ञानि‍क दोनों ही क्षेत्रों में साख बढ़ेगी।
जहाँ तक मंगल अभि‍यानों की संभावना का प्रश्‍न है, तो अंतरि‍क्ष अन्‍वेषण क्षमता वाले अनेक राष्‍ट्र 2035 के आसपास मंगल तक समानव उड़ान भेजने का सपना देख रहे हैं। इन प्रयोगों से भवि‍ष्‍य में मंगल ग्रह पर स्‍थायी रूप से मानव बस्‍ति‍याँ बसाई जा सकेंगी।
दस अध्‍यायों में बंटी यह कि‍ताब भारत के साथ ही वि‍श्‍व के अब तक के मंगल अभि‍यानों के बारे में अच्छी जानकारी देती है। साथ ही मंगल के इति‍हास व उससे संबंधि‍त किंवदंति‍यों और मंगल के प्रति दुनि‍या-भर के आकर्षण पर भी प्रकाश डालती है। भरपूर रंगीन चि‍त्रों से सुसज्‍जि‍त और आम बोलचाल की भाषा में लि‍खी यह कि‍ताब वैज्ञानि‍क और रोचक जानकारि‍यों से भरपूर है।
पुस्तकः मंगल बुला रहा है
लेखकः श्रीनिवास लक्ष्मण
अनुवाद : देवेंद्र मेवाड़ी
मूल्यः 175 रुपये
प्रकाशक : वि‍ज्ञान प्रसार
ए-50, इंस्टी्ट्यूशनल एरि‍या, सेक्टर-62 नोएडा-201309, उत्तर प्रदेश

kavita: saras chhata anupras ki -shyamal suman

सरस छटा अनुप्रास की
श्यामल सुमन
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सच्चे सच का सच स्वरूप ही सहज भाव से है स्वीकार।
सतसंकल्प साधना के संग सृजन सजाता है संसार।।

सघन समस्या है सागर सम संशय समुचित समाधान में।
सकल सोच का सार है साथी संशोधन हो संविधान में।।

सोना से क्या सोना सम्भव सापेक्षी संबंध सनातन।
सही सहायक सोच स्वयं का साध्य सुलभ स्वाधीन सुसाधन।।

सत्कर्मों में सभी समाहित समृद्धि संस्कृति सदाचार।
सज्जनता सौन्दर्य सरलता सरसिज सुरभित संस्कार।।

सामूहिक समता में संचित सबसे सबका सुसंबंध।
सामाजिक सद्भाव सुसज्जित सरसे समरस सदा सुगंध।।

सहमत सुमन सलोने सपने सार्थक सेवा से साकार।
संवेदन सहयोग समर्पण सजल सबल हो सूत्रधार।।
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