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बुधवार, 31 जुलाई 2013

Hindi- A divine language : Dr. Mridul Kirti

हिंदीः अ से ह तक और हिंदी में समाहित अध्यात्म, दिव्यता, 

दर्शन, योग, ज्ञान और विज्ञान

डॉ.मृदुल कीर्ति

जन्म: 07 अक्तूबर 1951 | 
जन्म स्थान: पूरनपुर, जिला पीलीभीत, उत्तर प्रदेश, भारत |
 कुछ प्रमुख कृतियाँ: सामवेद का पद्यानुवाद (1988), 
ईशादि नौ उपनिषद (1996), अष्टवक्र गीता - काव्यानुवाद (2006),
 ईहातीत क्षण (1991), 
श्रीमद भगवद गीता का ब्रजभाषा में अनुवाद (2001) | 
विविध: "ईशादि नौ उपनिषद" में 
आपने नौ उपनिषदों का हरिगीतिका छंद में हिन्दी अनुवाद किया है।

डॉ. मृदुल कीर्ति
आध्यात्मिक और दिव्य पक्ष – संस्कृत देव भाषा है, हिंदी संस्कृत से ही निःसृत दिव्य भाषा है, देव वाणी है ।
‘ अक्षरानामकारोस्मि’ गीता १०/३३ 
वर्णमाला में सर्व प्रथम ‘अकार ‘ आता है। स्वर और व्यंजन के योग से वर्ण माला बनती हैं। इन दोनों में ही ‘अकार’ मुख्य है। ‘अकार’ के बिना अक्षरों का उच्चारण नहीं होता। ‘अक्षरों में अकार मैं ही हूँ’ वासुदेव का यह उदघोष दिव्यता को स्वयं ही उदघोषित और प्रतिष्ठापित करता है। बिना अकार के कोई अक्षर होता ही नहीं है। गीता में स्वयं श्री कृष्ण ने ‘अकार’को अपनी विभूति बताया है। अक्षरों में ‘अकार’ मैं ही हूँ, अकार वर्ण की ध्वनि संचेतन शक्ति है जो वर्णों में प्राण प्रतिष्ठा करती है और उस शक्ति अधिष्ठाता स्वयं ब्रह्म है अतः ‘अकार’ ब्रह्म की विभूति है। दिव्य लक्षणों से युक्त होने के कारण ही इसे ‘देव नागरी ‘ कहते हैं।
‘अकारो वासुदेवस्य’ 
‘अकार’ नाद तत्व का संवाहक है। ‘अकार’ के बिना शब्द सृष्टि आगे नहीं चलती और ध्वनि तरंगों से अकार ध्वनित होता है।
भागवत – भागवत में लिखा है कि ‘सर्व शक्तिमान ब्रह्मा जी ने ‘ॐ कार ‘ से ही अन्तःस्थ (य र ल व् ) ऊष्म (श ष स ह ) स्वर (अ से औ तक) स्पर्श (क से म ) तथा (ह्रस्व और दीर्घ) आदि लक्षणों से युक्त अक्षर साम्राज्य अर्थात वर्ण-माला की रचना की ।वर्ण माला के दो भाग हैं – स्वर तथा व्यंजन ।
ऋग्वेद के अनुसार – स्वर्यंत शब्दयंत अति स्वराः 
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। अन्य वर्ण की सहायता के बिना बोले जा सकने वाले वर्ण स्वर हैं। व्यंजन बिना स्वर की सहायता के नहीं बोले जा सकते हैं। व्यंजन में’ अकार ‘ मिलता है, तब ही आकार मिलता है। ‘अक्षर ‘ में प्राण प्रतिष्ठा नाद से होती है और नाद ब्रह्म है। अक्षरों में अकार स्वयं वासुदेव हैं। तब इसका नाश करने वाला भला कौन है। हिंदी में ‘अ’ का अर्थ नहीं और ‘क्षर’ का अर्थ नाश है। अक्षर अर्थात वह तत्व जिसका नाश नहीं होता। अक्षर अपने में ही पूर्ण शाश्वत इकाई है। अक्षरों का क्षरण नहीं होने के कारण ही अक्षर को सृष्टि कर्ता माना गया है। अक्षर को वर्ण भी कहा जाता है। स्वर और व्यंजन के मिलने से ही शब्द सृष्टि का निर्माण होता है।
‘अकारो वासुदेवस्य उकारस्त पितामहः’ 
वर्ण – व्–र–ण
व् -पूर्ण, र -प्रवाह, ण -ध्वनि =अर्थात वर्ण वह तत्व है जिसमें पूर्णता है, ध्वनि है और ध्वनि का प्रवाह है।
वर्ण विचार – orthography
शब्द विचार – etymology
वाक्य विचार – syntax
दार्शनिक पक्ष : पञ्च तत्वों में आकाश सर्वाधिक विराट, विस्तृत और बृहत है. व्योम की तन्मात्रा ‘नाद’ है और ‘नाद ब्रह्म है’। सारे ही वर्ण ध्वनि जगत का विषय है और ध्वनि पर ही आधारित हैं। यही नाद अथवा ध्वनि शब्द सृष्टि का आदि कारण है। नाद ब्रह्म के साधक आचार्य पाटल हैं। पञ्च तत्वों की तन्मात्राओं में आकाश का नाद तत्व सबसे अधिक सूक्ष्म और अनुभव गम्यता की परिधि में आता है। यह सूक्ष्म रूप में सकल आकाश में व्याप्त नाद उर्जा है। नाद ऊर्जा की शक्ति से ही बादलों की गर्गढ़ाहट और बिजली की चमक की ध्वनि हम तक आती है क्योंकि ध्वनि तरंगों में ही प्रकाश उर्जा का भी वास है। ब्रह्माण्ड और तरंगों से संचालित यह अनूठा जगत है , इसमें तरंग वाद है। नाद कर्ण इन्द्रिय का विषय है। किन्तु जिसका प्रभाव पूरे ही मन , देह और चेतना पर होता है। वचन का प्रभाव जन्मों-जन्मों तक पीछा करता है। तभी कहा है कि वाणी की पवित्रता का नाम सत्य है। अक्षरों की दार्शनिकता को थोड़ा और गहराई से देखते हैं। अब हमें इनके उच्चारण में यौगिक पक्ष भी मिलता हैं।
यौगिक पक्ष - प्राण वायु के संतुलन और प्रश्वास-निःश्वास के नियमन को योग कहते हैं। हिंदी का इससे क्या सम्बन्ध है, आईये देखते हैं।
नाभी से लेकर कंठ तक वाणी के मूल केंद्र है। नाभी से ही बालक को गर्भ में पोषण मिलता है। मेरुदंड के अष्ट चक्रों की संरचना में नाभी के क्षेत्र को मणिपुर क्षेत्र कहा गया है। इस बिंदु पर अनेकों शक्ति रूपी मणियों के केंद्र है , कुण्डलिनी आदि। उन्हीं में एक वाणी तंत्र है। लगता है कि वाणी कंठ से निकल रही है किन्तु मूल नाभी में है। आईये इसे स्वयं करके ही पुष्ट करते हैं :
आप ‘अ ‘ बोलिए – अब अनुभव करिए कि आपकी नाभी अवश्य हिलती है। यही ‘अकार’ का उद्भव केंद्र है। जैसा कि पहले कहा है कि बिना ‘अकार’ के वर्ण आकार नहीं ले सकते। आपके बोलने की चाह करते ही नाभी केंद्र उतेजित होता है और यहीं प्राण वायु के सहारे से क्रमशः कंठ और होठों तक ऊपर जाते हुए स्वरों का स्वरुप ही भाषा और वार्तालाप बनता है।
एक और महत्वपूर्ण अनुभव करिए – अ से अः तक बोलिए तो नाभी से उतेजित वाणी तंत्र क्रमशः कंठ तक जाता है।
जो सबसे पहले नाभी पर दबाब पड़ता है। वह ‘कपाल भाती’ का ही रूप है । अं भ्रामरी का रूप है। अः श्वास को बाहर निकलने का रूप है। हिन्दी और संस्कृत बोलने में प्राण वायु का सामान्य से कहीं अधिक प्रश्वास और निःश्वास होता है यह प्राणायाम का स्वरुप है। मस्तिष्क को नासाछिद्र के श्वसन प्रक्रिया प्रभावित करते हैं । जब चन्द्र बिंदु का उच्चारण होता है तो इसकी झंकार की तरंगें मस्तिष्क के स्नायु तंत्र तक जाती हैं। विसर्ग का उच्चारण नाभि क्षेत्र से ही है बिना नाभी का क्षेत्र हिले स्वः नहीं बोला जा सकता है।
हिंदी के वर्णों का समायोजन अद्भुत है। वर्गों में विभाजित वर्गीकरण कितना वैज्ञानिक है। यह देखने योग्य है।
कंठ क वर्ग क ख ग घ इस वर्ग का उच्चारण कंठ मूल से है।
तालु च वर्ग च छ ज झ इस वर्ग का उच्चारण तालु से है।
मूर्धा ट वर्ग ट ठ ड ढ ण इस वर्ग का उच्चारण मूर्धा (जीभ के अग्र भाग ) से है।
दन्त त वर्ग त थ द ध न इस वर्ग का उच्चारण दोनों दांतों को मिलाने से होता है।
होंठ प वर्ग प फ ब भ म इस वर्ग का उच्चारण दोनों होठों को मिलाने से ही होता है।
हमारे शरीर में दो प्रकार की प्राण और अपान नाम की वायु (वातः ) चल रही है। इन सबका संयमन और नियमन का समीकरण इस पद्धति में है। यह हिंदी के ‘यौगिक पक्ष’ की पुष्टि है। हिंदी भाषा के मनोवैज्ञानिक, निर्दोष और व्याकरण के शाश्वत आधारों की पुष्टि है। पुरातन भाषाविद के मनीषियों की अद्भुत ज्ञान की ज्ञान प्रवणता को नमन है।
ज्ञान पक्ष – जैसे बीज में चैतन्य समाहित वैसे हिंदी के प्रत्येक शब्द में उसके भाव के गहरे अर्थ समाहित है। जहाँ तक नाद है वहाँ तक जगत है। हिंदी के शब्दों के मूल उदगम स्रोत में जाओ, चकित कर देने वाले तथ्य मिलेंगें। सारे जीवन जिन शब्दों का प्रयोग तो किया पर वह किन पदार्थों से बने और क्या भावार्थ हैं इनसे अनजान रहे । निहित अर्थों को जान कर अधिक आनंद पा सकते हैं।
हिंदी का प्रत्येक शब्द गूढ़ अर्थ गर्भा है। बीज की तरह है जिसमें कथित आशय के बीज समाहित हैं। सार्थक शब्दों और समाहित भावों के अगणित शब्द हैं। कुछ को देखिये :
प्रकृतिः कृति अर्थात रचना, प्र – कृति से प्रथम भी कोई है । अर्थात प्रभु ।
भगवान्: भ – भूमि, ग – गगन, व – वायु, अ – अग्नि , न – नीर = भगवान् = अर्थात जो पञ्च तत्वों का अधिष्ठाता है उसे भगवान् कहते हैं।
विष्णु : वि – विशुद्ध , ष्णु – अणु = विष्णु , अर्थात जिसका अणु-अणु विशुद्ध है।
खग : ख – आकाश, ग – गमन = अर्थात जो आकाश में गमन करता है।
पादप : पाद – पग, अपः – जल = जो पग से जल पीता है अर्थात पादप, उदाहरण के लिए वृक्ष ।
अग्रज : अग्र – पहले , ज – जन्म = पहले जिसका जन्म हुआ हो अर्थात बड़ा भाई।
अनुज : अनु – अनुसरण, ज – जन्म = अर्थात छोटा भाई।
वारिज : वारि -जल, ज – जन्म = जल में जो जन्मा हो अर्थात कमल, नीरज , जलज , अम्बुज भी इन्ही अर्थों के अनुमोदन हैं।
वारिद : वारि – जल, द – ददातु अर्थात देने वाला = जो जल देता है अर्थात बादल, जलद, नीरद, अम्बुद भी यही अर्थ देते हैं।
जगत : ज – जन्मते, ग – गम्यते इति जगस्तः – अर्थात वह स्थान जहाँ जन्म होता है और जहाँ से गमन होता है = वह जगत कहलाता है।
अर्थ गर्भा शब्दों के विस्तार में जाओ तो स्वयं में ही एक ग्रन्थ बन जाए, इस लेख में इनका विस्तार कदापि संभव नहीं। मात्र कुछ शब्द पुष्टि के लिए है कि हिंदी कितनी रत्न गर्भा है, कितनी गूढ़ गर्भा है। सभी ज्ञान शब्दों में ही तो समाहित हैं। प्रत्येक अक्षर का एक अधिष्ठित देवता भी है अतः कोई अकेला अक्षर भी पूरा दर्शन और अर्थ का पर्याय है।जैसे :
अ का अर्थ ना है – अजर , अमर, अपूर्ण अर्थात जो जर्जर ना हो, मरे नहीं, पूरा ना हो आदि। पांच बाल सनकादिक मुनियों ने ब्रम्हा से जब ज्ञान लिया तो ब्रह्मा जी ने तीन बार केवल ‘द’ ; द; ‘द’ ही कहा जो दान, दया और दमन का सन्देश है।
वैज्ञानिक पक्ष : वर्ण माला का यह वैज्ञानिक पक्ष तो महा अद्भुत है, सच कहें तो विस्मयकारी है।
अ से ह का संतुलन, जिसमें एक बार अकार है तो एक बार वर्ण का अंतिम अक्षर हकार आता है।
अकार और हकार का संतुलन और संयोजन – अकार में कोमल और हकार में कठोर का निरूपण है। एक बार कोमल और एक बार कठोर है। प्रत्येक वर्ग में पहला वर्ण वाद दूसरा प्रतिवाद तीसरा संवाद और चौथा अगति वाद है।
क ख ग घ
ka kha ga gha
च छ ज झ
cha chha ja jha
ट ठ ड ढ
ta thha da dhha
त थ द ध
ta tha da dha
प फ ब भ
pa pha ba bha
‘अ’ से ‘ह’ तक : अ’ से ह तक के सूत्र को यदि मिलाओ तो अहं बनता है। वस्तुतः सृष्टि संरचना का मूल भी अहं ही है यहाँ अहं का अर्थ सात्विक है। जो अस्तित्व में आने का द्योतक है। अर्थात किसी तत्व का अस्तित्व में आना । इसी अर्थ में सृष्टि संरचना हुई तो यही सात्विक अर्थ का निरूपण हिंदी के अस्तित्व की संरचना का निरूपण करती है। वह सृष्टि संरचना है तो यह शब्द सृष्टि संरचना है।
हिंदी अ से ह तक – अर्थात अस्तित्व में आना।
अ और ह के ऊपर बिंदु लगते ही अहं होता है। यह बिंदु विस्तृत अर्थों में शून्य होने का द्योतक है। संकुचित अर्थों में अभिमान का द्योतक है। अहं अस्तित्व के अर्थ में कभी जाता नहीं है, इसे किसी उच्चतर में लय करना होता है। इसका पूर्ण विलय कभी नहीं होता।
एक से एक बढ़कर प्रकांड भाषाविद , पाणिनी जैसे व्याकरण के प्रणेता ने अद्भुत ज्ञान भारतीय संस्कृति को दिया। जिसका एक अंश भी हम ठीक से समझ भी नहीं पाते हैं। हम भाषा विज्ञान ज्ञान की अकूत सम्पदा संजोये हुए है। हिन्दी का मूल्यांकन, सच पूछो तो किसी में कर पाने की क्षमता भी नहीं। राजनैतिक दांव पेंच, वोट की कुटिल नीति की बहुत बड़ी कीमत हमारी संस्कृति और भाषा को चुकानी पड़ रही है। अभी भी देर नहीं हुई है, क्योंकि जागरूक होते ही शक्ति संचरित होने लगती है। अब तो कंप्यूटर की तकनीक से सब कुछ सरल और सहज हो गया है। कंप्यूटर की तकनीक में संस्कृत को सर्वाधिक अनुकूल माना गया है। प्रवासी जो भी हिंदी प्रेमी है , कभी एक -एक रचना को लालायित रहते थे। आज एक क्लिक से सभी महाग्रंथ सुलभ है। अतः हिंदी का विकास, रूचि और सजगता अब प्रगति पर ही है। हिंदी से ही तो ‘मौलिक’ भारत का परिचय और अस्तित्व मुखरित है। हमें गर्व है कि हिंदी जैसी दिव्य भाषा हमारी भाषा है।

paryavaran geet: apradhee -SANJIV

पर्यावरण गीत:
अपराधी संजीव
*
हम तेरे अपराधी गंगा, हम तेरे अपराधी
ज्यों-ज्यों दवा कर रहे, त्यों-त्यों बढ़ती जाती व्याधी …
*
बढ़ती है तादाद हमारी, बढ़ती रोज जरूरत,
मन मंदिर में पूज रहे हैं, तज आस्थाएँ मूरत।
सूरत अपनी करें विरूपित, चाहें सुधरे सूरत-
कथनी-करनी भिन्न, ज़िन्दगी यह कैसी आराधी…
*
भू माता की छाती पर, दल दाल नहीं शर्माते,
वन काटें, गिरि खोद, पूर सर करनी पर इतराते।
भू डोले, नभ-वक्ष फटे, हम करते हैं अनदेखी-
निर्माणों का नाम, नाश की कला 'सलिल' ने साधी…
*
बिजली गिरती अपनों पर, हम हाहाकार मचाते,
भुला कच्छ-केदार, प्रकृति से तोड़ रहे हैं नाते।
मानव हैं या दानव? सोचें, घटा तनिक आबादी-
घटा मुसीबत की हो पाए तभी गगन में आधी…
*

kavya setu: English-Hindi No more aur naheen indira sharma / sanjiv

काव्य सेतु:

No more-----------

Indira Sharma 
*
 No more, no more, no more
Breaking waves, breaking waves
No roar, no roar, no roar
On the shore, on the shore, on the shore

No tears, no tears, no tears
Any more, any more, any more
Even a particle of dust in the eyes
Make you cry, make you cry

Leave this transit world, forever
As soon as, you can try, may try
Evoke the fire and music, side by side
Let it be, let it be, let it be
For sake of the love Divine

No more breaking waves
No more roar on the shore
No tears any more
Even a particle of dust in the eyes
What makes a person cry

For sake of love Divine
This must be your goal
No tears any more
On this worldly – shore. No tears. 
*
--<pindira77@gmail.com>
भावानुवाद:
और नहीं -------
 संजीव 
*

और नहीं अब और नहीं
गम की लहरें और नहीं
जीवन सागर के तट पर
गर्जन-तर्जन और नहीं  
*
तिनका आँखों में पड़कर

बेबस करता, रोते हो
और नहीं अब और नहीं

आँख में आँसू और नहीं  
*
जल्दी से जल्दी छोडो

नश्वर जगत हमेशा को
संग आग संगीत चले
दैविक प्रेम हमेशा  को

 *
गम की लहरें और नहीं
तट पर गर्जन और नहीं
आँख में आँसू और नहीं
तिनका आँखों में पड़कर

बेबस करता, रोते हो
  *
दैविक प्रेम हमेशा हो
लक्ष्य तुम्हारा रहे यही
जीवन सागर के तट पर
आँख में आँसू और नहीं
===============

शनिवार, 27 जुलाई 2013

doha salila: loktantra / prajatantra -sanjiv

दोहा सलिला:
संजीव
लोकतंत्र
*
लोक तंत्र की मांग है, ताकतवर हो लोक। 
तंत्र भार हो लोक पर, तो निश्चय हो शोक। ।
*
लोभ तंत्र ने रख लिया, लोक तंत्र का वेश।
शोक तंत्र की जड़ जमी, कर दूषित परिवेश।।
*
क्या कहता है लोक-मत, सुन-समझे सरकार।
तदनुसार जन-नीति हो, सभी करें स्वीकार।।
*
लोक तंत्र में लोक की, तंत्र न सुनाता पीर।
रुग्ण व्यवस्था बदल दे, क्यों हो लोक अधीर।।
*
लोक तंत्र को दे सके, लोक-सूर्य आलोक।
जन प्रतिनिधि हों चन्द्र तो, जगमग हो भू लोक।।
===
प्रजा तंत्र
*
प्रजा तंत्र है प्रजा का, प्रजा हेतु उपहार।
सृजा प्रजा ने ही इसे, करने निज उपकार।।
*
प्रजा करे मतदान पर, करे नहीं मत-दान।
चुनिए अच्छे व्यक्ति को, दल दूषण की खान।।
*
तंत्र प्रजा का दास है, प्रजा सत्य ले जान।
प्रजा पालती तंत्र को, तंत्र तजे अभिमान।।
*
सुख-सुविधा से हो रहे, प्रतिनिधि सारे भ्रष्ट।
श्रम कर पालें पेट तो, पाप सभी हों नष्ट।।
*
प्रजा न हो यदि एकमत, खो देती निज शक्ति।
हावी होते सियासत-तंत्र, मिटे राष्ट्र-अनुरक्ति।।
===





आमने-सामने:

  करोड़पति बेस्टसेलर लेखक - अमीश त्रिपाठी से चण्डीदत्त शुक्ल की बातचीत

image(अमीश त्रिपाठी को उनके नए, अनाम उपन्यास, जिनके लिए उन्होंने अभी विषय भी नहीं सोचा है, पांच करोड़ रुपए का एडवांस प्रकाशक की ओर से मिला है. किसी भी लेखक के लिए इससे बेहतर बात और क्या हो सकती है भला! इन्हीं अमीश त्रिपाठी से अहा! जिंदगी के फ़ीचर संपादक चण्डीदत्त शुक्ल ने लंबी बातचीत की और उसे अहा! जिंदगी के साहित्य महाविशेषांक {जी हाँ, अब विशेषांकों का जमाना खत्म हो गया, महा-विशेषांक आने लगे  हैं और शायद जल्द ही अति-महा-विषेशांक भी देखने को मिलें!} में छापा है. रचनाकार के पाठकों के लिए उनकी यह विचारोत्तेजक, मनोरंजक बातचीत साभार प्रस्तुत है. लगे हाथों बता दें कि अहा! जिंदगी का 100 रुपए कीमत का यह साहित्य महाविषेशांक पूरा पैसा वसूल है - 10 हंस+वागर्थ+वर्तमान साहित्य इत्यादि पत्रिकाओं से भी वजन में ज्यादा. मंटो पर भी कुछ बेहतरीन पन्ने हैं, तो विश्व स्त्री साहित्य पर विशेष खंड. साथ ही विदेशी कविताएं भी खूब हैं, जिनसे देसी कवियों को विषय-वस्तु-ज्ञान मिल सकता है.)


पांच करोड़ रुपए का एडवांस - वह भी ऐसी किताब के लिए जिसका विषय तक नहीं सोचा.. खुश तो बहुत होंगे आप?
खुश हूं पर करोड़ों का एडवांस पाने की वजह से नहीं, बल्कि अपने विश्वास की पुष्टि होने पर! मैं हमेशा सोचता था कि अच्छे मन से कुछ किया जाए तो ईश्वर साथ देते हैं और अब वह यकीन और ज्यादा मजबूत हो गया है। जहां तक उपलब्धियों की बात है तो यह बेहद अस्थायी वस्तु है। कभी भी आपके हाथ से फिसलकर गिर सकती है। आज कामयाब हूं तो प्रकाशक पीठ थपथपा रहे हैं। कल को असफल हो गया तो कोई मुड़कर भी नहीं देखेगा, इसलिए व्यर्थ का अहंकार या प्रसन्नता का भाव मन में नहीं पालना चाहिए।
. ... पर प्रसिद्ध तो हो गए हैं आप!
मैं ऐसा नहीं सोचता। रास्ते से निकलता हूं तो भीड़ इकट्ठी नहीं होती। खं, कुछ लोग पहचान लेते हैं, लेकिन किताबों की वजह से ।
अब, आप विनम्र हो रहे हैं..
मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कर रहा हूं! असल प्रसिद्धि पुस्तकों को मिली है। मुझसे वह दूर ही है। सच को जितनी जल्दी समझ लिया जाए बेहतर होता है और मैंने यह हकीकत समझ ली है।
खैर, बड़ी कंपनी में ऊंची तनख्वाह की नौकरी छोड़कर पूर्णकालिक लेखक बनने का फैसला करना छोटी-मोटी बात नहीं होती!
लंबे संघर्ष के बाद ऐसा हुआ है। वैसे भी, आप जानते हैं कि मैं मैनेजमेंट की फील्ड से हूं (हंसते हैं) । पहली दो किताबें जॉब में रहते हुए लिखी हैं जब देखा कि रायल्टी के चेक की रकम तनख्वाह से ज्यादा हो रही है तब नौकरी छोड़ी। आखिरकार, मेरा एक परिवार है। उसका भविष्य सुरक्षित किए बिना जॉब कैसे छोड़ सकता था? बाबा कहते थे - दो तरह की भाषा होती है एक - पेट की भाषा और दूसरी दिल की । पहले पेट की जबान सुनी और अब दिल के रास्ते पर चलने लगा हूं।
किस तरह का संघर्ष करना पड़ा?
हर स्तर पर संघर्ष। पल्ले तो यही कि लिखना कैसे है। जब वह हुनर आ गया तो प्रकाशन का। पस्ती किताब - 'द इमॉर्टल्स ऑफ मेलुहा' बहुत-से प्रकाशकों ने रिजेक्ट कर दी थी, लेकिन आप संख्या न पूछिएगा, क्योंकि बीस प्रकाशकों की ओर से मना किए जाने के बाद मैंने गिनती करनी बंद कर दी थी। बाद में खुद ही चुनौती मोल ली और पाठकों ने इसे पसंद किया।
क्या ऐसा फैसला करने के लिए नैतिक साहस देने वाला, सही समय आ चुका था?
यकीनन, बदलती आर्थिक परिस्थितियों में सबकी हिम्मत बढ़ी है। लोग जोखिम ले सकते हैं। मैं मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता हूं जहां पढ़ाई-लिखाई का पूरा जोर करिअँर बनाने पर होता है। मेरे सामने इंजीनियरिंग, बैंकिंग, एमबीए जैसे विकल्प ही थे, इसलिए इतिहासकार बनने की इच्छा कहीं दबा दी थी । यह वह समय था, जब देश की अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी थी । अब, हालात बदले हैं और अवसर बढ़े हैं।
एक व्यक्ति के रूप में, दबाव से बाहर आकर, बेहतर प्रदर्शन कर सकता हूं जब यह लगा तो लेखन करने की ठान ली।
यूं भी, इन दिनों बैंकिंग, फाइनेंस के क्षेत्र से कई लेखक बाहर आ हैं..
बात महज इन तकनीकी क्षेत्रों की नहीं है। बदलाव हर जगह आया है। आम भारतीय में आत्मविश्वास बढ़ा है और यकीनन, जब खुद पर भरोसा बढ़ेगा तो वह रचनात्मक तरीके से बाहर आएगा।
आत्मविश्वास में, इजाफा क्या नई बात है? भारत तो सोने की चिड़िया था ही...
हम सैकड़ों साल गुलामी से जूझते रहे हैं। गुलामी भी तरह-तरह की। आर्थिक, वैचारिक... सब। इसकी वजह से इतने पीछे आ गए थे कि सोने की चिड़िया वाली बात महज इतिहास में ही दर्ज होकर रह गई। हमारे महान अतीत का रहस्य यही है कि समाज नई चीजों को स्वीकार करता था। बाद में हम खुले तो थोड़े और, लेकिन पश्चिम के प्रभाव में अपनी मौलिकता खो बैठे।
वैसे, आधुनिक जमाने में, ज्यादातर अंग्रेजी पाठक युवा हैं ऐसे में मिथकों पर लिखना कितना चुनौतीपूर्ण था?
यह सोचना गलत है कि युवा पाठकों की मिथक, धर्म या अध्यात्म में रुचि नहीं है। धारणा हमने बना ली है, वह भी मजेदार बात बिना आधार के। नौजवान अपनी जड़ों के बारे में जानना चाहते हैं। हां, उन्हें उबाऊ तरीके से सब कुछ बताया जाता है, इसलिए उनकी रुचि नहीं बन पाती। युवा तार्किक तौर पर चीजें परखना चाहते हैं। हम जहां पर उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाते, वह वहीं पर सवालिया निशान लगा देता है। इसके अलावा, जातिवाद और महिलाओं के लिए अपमानजनक प्रसंगों को भी वे पसंद नहीं करते । खैर, मैं जितने नौजवानों को जानता हूं वे सब अपनी संस्कृति से जुड़े हैं। कुछ जरूर बेहद वेस्टर्न हैं, खुद को इलीट समझते हैं - वे जानकर भी धार्मिकता और संस्कृति की बात नहीं करना चाहते।
फिर भी, पॉपुलर लिटरेचर में मिथक..!
इतनी हैरत की जरूरत नहीं है। भारत में मिथक-आधारित कथा लेखन नया नहीं है। बुजुर्गों से हमने बार-बार कथाएं सुनी हैं और उनमें हो रहा बदलाव देखा है। अलग-अलग इलाकों में एक ही कथा के परिवर्तित रूप सुनने को मिलते हैं। वाल्मीकि की रामायण हो या तुलसी का रामचरित मानस बदलाव साफ नजर आता है। उत्तर भारत के श्रीराम अलग हैं और आदिवासियों के समाज के राम अलग । दक्षिण भारत, गुजरात और महाराष्ट्र की रामकथाएं हों और उत्तर प्रदेश व बिहार की रामगाथा, कबा रामायण, गोंड कथा आप विभिन्नता महसूस कर सकेंगे। जैसा समाज, जिस तरह का सामाजिक-आर्थिक स्तर, कथाओं में वैसा ही अंतर! कहानी सुनाना और सुनना हमारे डीएनए का हिस्सा रहा है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में मिथक कथा की परंपरा है। नरेंद्र कोहली ने अपने तरीके से श्रीराम के चरित्र का वर्णन किया। अंग्रेजी में अशोक बैंकर ने। दीपक चोपड़ा ने कामिक्स का माध्यम अपनाया। अमर चित्रकथा आदि ने तो महापुरुषों से परिचित कराया ही। अंग्रेजी भाषा में इसे मैंने आगे बढ़ाने की कोशिश की है लेकिन नया कम नहीं कर रहा हूं। खाली जगह बन गई थी, जिसे भरने में जुटा हूं। एक और तथ्य स्पष्ट कर दूं - लिखने से पहले मैंने इस बात को लेकर बिल्कुल चिंता नहीं की थी कि किसे पसंद आएगा और किसे नहीं ।
आप प्रभु को ही सब श्रेय देते हैं। ऐसा श्रद्धा के कारण है या तार्किक ढंग से मानते हैं?
मेरा स्वभाव बेहद चंचल था, शायद खेलकूद से प्रेम करने की वजह से। ईश-कृपा न होती तो संयत और स्थिर होकर लिख ही नहीं सकता था।
हमेशा इतने ही आस्तिक थे?
बचपन में तो था, पर बाद में भक्ति का भाव कुछ डगमगा गया था। खैर, पहले बचपन की बात करूं। उस समय घर में भक्ति-भाव की बयार बहती थी। पूरा समय मंत्रपाठ होता रहता। पूजा-आरती, घटियों की ध्वनि शंख का नाद - दादा और पिताजी के पास देवी-देवताओं से जुडे किस्से-कहानियों का भंडार था। हालांकि थोड़ा-सा बड़ा होने पर मुझे कर्मकांड और इससे जुड़ी सांप्रदायिक सोच से काफी उलझन हो गई थी । मुंबई में आए दिन दंगे होते, आतंकी हमलों की खबर भी सुनाई देती पर पिताजी ने मन में आस्तिकता की ली बुझने नहीं दी। उन्होंने गीता का ही उपदेश सुनाया कि सब प्रभु इच्छा से होता है। हम अपना कर्म न भुलाएं ये आवश्यक है। लगातार अंतर्द्वंद्व में रहा पर पहली किताब लिखने से पहले फिर से पूर्ण आस्तिक हो चुका था।
पिता ने धार्मिकता की ओर लौटाया और पत्नी ने? मान्यता है कि एक सफल व्यक्ति के पीछे पत्नी का बड़ा हाथ होता है। आपकी क्या राय है?
प्रीति से मेरी मुलाकात 1990 में हुई थी। उनसे मिलने से पहले मैं एकदम उबाऊ इंसान था। लोगों को अब जितना विनम्र दिखता हूँ उसकी तुलना में बेहद चीखने-चिल्लाने वाला आदमी था। जरा-सी बात में धैर्य खो देता था। प्रीति ने जीवन को जीना और इसका आनंद उठाना सिखाया है। पेश उपलब्धियों के पीछे इनका जो हाथ है, वह मैँ शब्दों में व्याख्यायित नहीं कर सकता। मुश्किल समय में वे अचूक और सटीक सलाह देती हैं। उनके जैसी मार्केटिंग मुझे भी नहीं आती। हम दोनों साथ में खुश हैं। हां, कई बार वे चुटकी लेते हुए कहती हैं कि एक सक्सेस फुल राइटर से शादी करके ज़िंदगी का चैन गायब हो गया है। जिस वक्त उन्हें टेलीविजन पर एक्शन शो देखना होता है, वे मेरे लिए रिसर्च कर रही होती हैं या फिर मार्केटिगं की योजनाओं में व्यस्त होती हैं।
पत्नी धर्म की बात तो हुई, लेकिन अब बात करते हैं भारत में धर्म और समाज के अंतर्संबंध की। यह तो अब भी मजबूत है पर हम पाते हैं कि साहित्य और समाज के बीच दूरी बढ़ गई है..
थोड़ी दूरी जरूर आ गई थी, लेकिन कुछ अरसे में ये खाई पटी है। आर्थिक परिस्थितियां सब कुछ बदल देती हैं रिश्तों और समाज पर भी असर डालती हैं। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था में सकारात्मक परिवर्तन आ रहा है, भविष्य में सबंध निश्चित तौर पर और मजबूत होंगे - आपसी रिश्तों और साहित्य के साथ समाज के भी।
आम आरोप है कि साहित्य में जो कुछ बयान हो रहा है हकीकत में वह कहीं रहता ही नहीं, यानी लिटरेचर से 'सच' गायब हो चुका है..
कुछ मायनों में यह बात सही हो सकती है पर धीरे-धीरे लोग यथार्थ की मांग जोर-शोर से करने लगे हैं। पढ़ना-लिखना केवल अपने सुख के लिए नहीं रह गया है। नए दौर के लेखक स्वांत: सुखाय या कुछ महान कर रहे हैं - के भाव में नहीं लिखते रह सकते ।
बुक पब्लिशिंग बड़ा व्यवसाय है। पहले प्रकाशक दस-बीस हजार प्रतियों की बिक्री को बड़ा आंकड़ा मानते थे, लेकिन वे भी जोर देकर कहने लगे हैं कि एक लाख से अधिक प्रतियां जिस किताब की बिकेंगी, वही बेस्टसेलर होगी। लेखकों को तय करना पड़ रहा है कि वे पाठकों की रुचि के मुताबिक रचे। प्रकाशक ऐसी ही कृतियां प्रकाशित करें। पाठक समझते हैं कि उन्हें क्या पढ़ना चाहिए। सही मायने में इलीट राइटिंग का कॉन्सेप्ट खत्म हो रहा है। सबके लिए लिखना ही होगा । ऐसी हजारों किताबें हैं, जिन्हें बेस्टसेलर होना चाहिए था, लेकिन उनका किसी ने नाम तक नहीं सुना। सुनेंगे ही नहीं तो खरीदेंगे कैसे? अब वक्त आ गया है जब लेखक बाजार को समझें और खुद में सिमटे रहने की अंधेरी दुनिया से बाहर आएं।
अच्छा! लिटरेचर फेस्टिवल्स की बढ़ती संख्या से भी साहित्य को कुछ लाभ पहुंचेगा?
यकीनन। जितने लोग लिखने-पढ़ने की बातें करेंगे, उनमें से कुछ तो किताबों तक पहुंचेंगे ही। हमारी सोच में परिवर्तन लाना लाजिमी हो गया है। हम बुक और लिटरेचर फेस्टिवल्स को संदेह की निगाह से देखते हैं, जबकि बाजार कोई बुरी चीज कभी थी ही नहीं। अतीत में झांककर देखिए - पुराने जमाने में भी हाट-बाज़ार के बिना जीवन एक कदम भी आगे नहीं खिसकता था।
लोग यह भी कहते हैं - अपनी किताबें बेचने के लिए अमीश कोई भी दांव आजमाने से नहीं चूकते।
बुरा क्या है? आप कुछ भी लिखें, अगर वह किसी तक पहुँचे नहीं तो उसका क्या लाभ होगा। मैं सोशल कम्यूनिटीज के जरिए युवाओं से जुड़ा हूं। जरूरत के हिसाब से प्रमोशन करता हूं और इसमें कुछ भी खराब है ऐसा नहीं समझता।
वैसे, यह विचार कैसे जन्मा कि धर्म-अध्यात्म-संस्कृति से जुड़े किसी विषय पर उपन्यास लिखा जाए?
विचार बस लिखने का था... वह उपन्यास होगा या शोध, तब तक पता भी नहीं था। यूं लेखन का इरादा भी एक घटना से जुडा है। एक दिन शाम के वक्त हम सब घर पर खाना खाते हुए टीवी देख रहे थे। तभी ईरानी संस्कृति से संबंधित एक कार्यक्रम आने लगा और फिर उस पर चर्चा शुरू हो गई। जोरदार बहस। सही कौन और गलत कौन? बात फिर भारतीय संस्कृति तक पहुंची। यहां सबके देवता अलग-अलग हैं। कोई आपको प्रिय होगा, पर दूसरे को नापसंद हो सकता है। स्वाभाविक तौर पर सवाल खड़ा हुआ कि उचित कौन है? शायद दोनों पक्ष? कुछ अच्छ या बुरा है ही नहीं। प्रश्न महज सोच का है। देवता और दानव, खराब और सही - यह नज़रिए का सवाल है लेकिन सब तो यह बात नहीं समझते। चर्चा इतनी आगे तक गई कि मैंने सोच लिया इस विषय पर कुछ लिखूंगा। ऐसा, जिससे अच्छे बुरे, देवता-दानव की कुछ परिभाषा स्पष्ट हो सके।
चलिए, इरादा बना... इसके बाद?
भाई-बहन को बताया कि मैं अच्छाई और बुराई के कोण पर कुछ लिखना चाहता हूं तो उन्होंने सुझाव दिया कि जो कुछ लिखे, वह दार्शनिकता से इतना न भर जाए कि उबाऊ लगने लगे। आप अपने विचार व्यक्त कीजिए लेकिन कहानी की शैली में। ऐसा होने पर ही पाठकों के साथ बेहतर संवाद स्थापित हो सकेगा। मैंने उनके सुझावों पर गौर किया और लिखना शुरू कर दिया, लेकिन कहानी की भाषा में विचार और शोध करना आसान नहीं था।
किस तरह की मुश्किलें सामने आई?
मैंने पहले कुछ भी नहीं लिखा था । स्कूल में भी छोटी-सी कहानी तक नहीं । विस्तार से पढ़ने जैसा काम नहीं किया था। अपने प्रोफेशन से संबंधित ई-मेल्स लिखने के अलावा! हां, जब सोच लिया कि अच्छाई-बुराई के बारे में एक विचारपरक पुस्तक लिखनी है तब 'सेल्फ हेल्प' जैसी कुछ किताबें जरूर खरीदीं। लंबी-चौड़ी तैयारी के साथ, लिखना शुरू किया। ठीक वैसे ही, जैसे कोई एमबीए पर्सन प्रोजेक्ट तैयार करे, लेकिन पता नहीं कितनी बार, लिखा और फाड़कर फेंक दिया। कुछ रुचता ही नहीं था। आखिरकार, पत्नी ने मार्के की सलाह दी - तुम इसलिए अच्छ नहीं लिख पा रहे हो, क्योंकि तुम्हारे मन में 'क्रिएटर' होने का दंभ पल रहा है। उसे त्याग दो। खुद को गवाह मानो और सोचो- भगवान विचारों की गंगा को तुम्हारे मन की धरती के लिए मुक्त कर रहे हैं। उस प्रवाह को रोको नहीं, पन्नों पर बिखर जाने दो। मैंने ऐसा ही किया और फिर देखते ही देखते किताब पूरी हो गई।
आपकी रचनाओं में प्रमुख तत्व क्या है - शोध, विचार या कहानी?
एक ही शब्द में कहूंगा - आशीर्वाद। ये किताबें वरदान हैं। वैसे भी, यदि कोई लेखक यह सोचता है कि वह अपने मन से कुछ कर सकेगा तो यह संभव नहीं है। कम से कम मेरे लिए तो बिल्कुल नहीं । खुद को निर्माता मान लेना अहंकार है। जहां तक आपका प्रश्न है, मेरी प्राथमिकताओं में विचार और कहानी एक-दूसरे के पूरक हैं। बाकी लिखते समय बहुत-सी चीजें बिना कोशिश के होती हैं और उनकी खूबसूरती का कोई सानी नहीं होता। आपके विचार एक संदेश के रूप में सामने आते हैँ और कहानी उस प्रवाह को बनाए रखने में मदद करती है।
इतिहास की पुनर्व्याख्या में बहुत-से खतरे होते हैं। वह भी तब, जब इतिहास धर्म से जुड़ा हो। इसके मद्देनज़र अपनी पहली किताब के लिए आपने कितना शोध किया?
मैं स्पष्ट कर दूं कि हिंदू धर्मावलंबी, बल्कि ज्यादातर भारतीय, बहुत सहिष्णु हैं। धर्म की बात होने पर या उसकी किसी भी तरह की आलोचना सुनते ही संयम खो देने वाले और लोग होंगे कम से कम भारत में ऐसा नहीं है। शोध की बात पर जवाब दोहराना चाहूंगा - सोच-समझकर, योजना बनाकर कभी पढ़ाई नहीं की । ऐसा नहीं है कि मैं किताब लिखने के लिए महादेव से संबंधित जगहों की यात्रा पर गया हूं। हां, पूरे देश का भ्रमण और बहुत-सी चीजों को समझने का 25 साल से जारी है। पर वह पढ़ना-समझना और घूमना बेइरादा था। परिवार में पठन-पाठन और धार्मिकता का माहौल शुरू से था । मेरे दादा वाराणसी के हैं। वे पूजा-पाठ में खासी रुचि लेते थे । हमेशा धार्मिक प्रतीकों, कथाओं की बातें करते । तो वह एक बीज था, जो मन में पड़ गया था । धार्मिकता का यह अंकुर ही बाद में विचार यात्रा में परिणत हुआ, जिसके कुछ अंश आप ‘द इमॉर्टल्स ऑफ मेलुहा' जैसी किताबों में देख सकते हैं।
दादाजी के बारे में कुछ और बताइए..
वे धर्म की जीती-जागती किताब थे । धार्मिकता से भरपूर, पांडित्यपूर्ण व्यक्तित्व के स्वामी । बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में शिक्षक भी रहे। मेरे माता-पिता ने भी धर्म में विश्वास के गुण उनसे ही प्राप्त किए हैं। उनसे मैंने प्रचुर मात्रा में पौराणिक कथाएं सुनीं । धार्मिकता का भाव समझा । हालांकि उनके व्यक्तित्व की एक और खासियत थी उदार होना । घर में सभी आस्तिक हैं, लेकिन उतने ही लोकतांत्रिक भी । वे दूसरों के विचारों का भरपूर सम्मान करते हैं। हम अक्सर दिलचस्प बहसें करते । अलग-अलग मुद्दों पर विचार-विमर्श करते रहते। यही कारण है कि मैं अलग-अलग धर्मों और मान्यताओं के बारे में तार्किकता से समझ सका । वह भी तब, जबकि पस्ती किताब लिखने से पहले मैं खुद नास्तिक था।

क्या?
यह तो मानता था कि संपूर्ण प्रकृति के संचालन की एक व्यवस्था है, लेकिन ईश्वरीय सत्ता या अस्तित्व को लेकर जिस तरह के विचार थे, उनके हिसाब से मैं नास्तिक ही कहलाऊंगा ।
बदलाव कैसे आया?
यह भी ईश्वरीय आशीष है। उन्होंने मन में आस्था पैदा की, फिर इतनी दृढ़ कर दी कि शिव के अतिरिक्त किसी और बात का विचार ही मन में नहीं ला सकता । एक बार आस्तिक बनने के बाद मैंने अन्य धर्मों में भी विश्वास रखना शुरू कर दिया । सभी धर्म समान रूप से सुंदर हैं।
अच्छाई और बुराई के संधान को कथारूप देते हुए प्रमुख पात्र के रूप में शिव को ही क्यों चुना? किसी और ईश्वरीय स्वरूप पर विचार न करने की वजह क्या थी?
देखिए बुराई के संहार की जब बात होती है तो निगाह के सामने एक ही देवता का चेहरा घूमने लगता है, वे हैं - शिव । मैं बुराई के सिद्धांतों की व्याख्या करने में लगा था और तब मुझे शिव से बेहतरीन किरदार दूसरा कोई भी नहीं दिखा। इसके अलावा, जब आप मिथक में 'हीरो' तलाशते हैं तो वे एक आदर्श चरित्र हैं। शिव 'माचो' हैं, औघड़ है और उतने ही रहस्यमयी भी हैं। पूरे संसार में वे अनगिनत रूपों और तरीके से पूजे जाते हैं। वे आज़ाद और अकेले हैं। कांवड़ से लेकर पॉप तक पूरी तरह 'फिट' हो जाते हैं। तानाशाह ईश्वर की तरह नहीं दिखते । उनकी सहजता प्रभावित करती है।
अगला कदम क्या था?
लिखना शुरू हो पाना ही मेरे लिए सबसे बड़ी बात थी। एक-एक कदम चलते हुए मंजिल तक पहुंच तो गया, लेकिन पहले शुरुआत और फिर प्रवाह का बने रहना और अंततः शिव के पात्र के साथ न्याय कर पाना सबसे बड़ी चुनौती थी। एक घटना याद आती है सुबह के समय मैं स्नान कर रहा था। कथा-सूत्र कुछ अटक-सा गया था। यकायक, मन में विचार कौंधे। मैं खुशी से कांप उठा। बाहर निकलकर रोना शुरू कर दिया। जोर-जोर से रुदन। वह एक ऐसी भावुक स्थिति थी, अकल्पनीय और अवर्णनीय, जिसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। यूं भी शिव सबमें हैं। उनकी अनुश्रुति न होने तक ही सब संकट मौजूद हैं। जैसे ही शिवत्व को आपने पहचान लिया, उसके बाद एक ही नाद नस-नस में गूंजता है हर हर महादेव, हर एक में महादेव, हम सब महादेव हैं!
कभी ऐसा नहीं लगा कि तीन अलग-अलग किताबों में कथानक बिखेर देने की वजह से पाठकों को असुविधा होगी?
मुझे ऐसा नहीं लगता है बल्कि तीन खंडों की वजह से पाठकों को कुछ सोचने-समझने और विराम लेने का अवसर मिला है। दूसरे - प्रकाशक के लाभ, मार्केटिंग की संभावना और लेखक को भी कुछ चिंतन का मौका मिलने का ध्यान रखना होता है।
एक सफल रचनाकार, इतिहासकार या धार्मिक व्यक्ति - खुद को क्या कहलाना पसंद करेंगे?
एक शिवभक्त और पारिवारिक व्यक्ति, उसके बाद बाकी सब कुछ। परिवार मेरी ताकत है और शिव कृपालु। इनके बिना मेरी कोई गति नहीं है।
'शिव-त्रयी' के बाद अगली श्रृंखला के लिए कोई विषय सोचा?
फिलहाल, प्राचीन ग्रीक और मिस्र संस्कृतियों पर अध्ययन कर रहा हूं। मनु और अकबर पर चिंतन कर रहा हूं। रामायण और महाभारत के अलग-अलग संस्करणों और व्याख्याओं पर भी लिख सकता हूं। बहुत-से विचार हैं। देखते हैं। भविष्य में कौन-सी सोच ज्यादा मजबूत होकर किताब बन सकेगी। बैंकर साहब और देवदत्त पटनायक ने मिथकों पर अच्छा शोध किया है और दिलचस्प किताबें लिखी हैं। आजकल उनके भी पन्ने पलट रहा हूं।
(साभार : रचनाकार)
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गुरुवार, 25 जुलाई 2013

AMNE-SAMNE:

आमने-सामने

सिनेमा मेरी ज़िंदगी: अभय देओल

साक्षात्कार : माधवी शर्मा गुलेरी


(मुंबई के जुहू इलाके में पहुंचकर किसी राहगीर से बंगला नंबर 22 का पता पूछा तो उसने कहा... धर्मेन्द्र का बंगला? मैं कुछ पसोपेश में पड़ी क्योंकि अभय देओल का इंटरव्यू लेने निकली थी और अभय ने जो पता एसएमएस किया था, उससे लगा था कि वो उनके ही घर का पता होगा, लेकिन वहां पहुंचकर पता चला कि बंगला केवल धर्मेन्द्र का नहीं, बल्कि पूरे देओल परिवार का है, क्योंकि धर्मेन्द्र इन सबके अपने हैं। इस दौर में जहां परिवार बिखर रहे हैं, वहीं यह एक ऐसा परिवार है, जो अपनी जड़ें मज़बूती से जमाए हुए है। इस ख़ानदान की नई पीढ़ी के अगुवा हैं... अभय देओल, जो धर्मेन्द्र के छोटे भाई अजीत देओल के पुत्र हैं। बड़े भाई सनी और बॉबी ने जहां एक तरफ़ एक्शन को अपना हथियार बनाया, वहीं अभय ने शायद ही किसी फ़िल्म में गुंडों की पिटाई करने वाला किरदार निभाया हो। वे थोड़े अलग किस्म के देओल हैं, हटकर सोचते हैं, अलग तरह की फ़िल्में करते हैं और उनका यही अंदाज़ फ़िल्म इंडस्ट्री में एक अलग पहचान बनाने का सबब बन गया है। एक स्निग्ध मुस्कान के साथ अभय ने स्वागत किया और दिल से कीं, दिल की बातें...)   

आपका जन्म मुंबई में हुआ और यहीं पले-बढ़े, किस तरह की यादें जुड़ी हैं इस शहर से?
मैं आम शहरी लड़कों की तरह हूं। हम गांव में पैदा हुए हों या शहर में, अंतर केवल सुविधाओं और इन्फ्रास्ट्रक्चर में होता है। तकनीक और शिक्षा के स्तर पर हम थोड़े बेहतर होते हैं, बस। बचपन सभी का एक-सा होता है। मेरा बचपन साधारण रूप से बीता। स्कूल-कॉलेज की यादें और दोस्तों के साथ की गई मस्ती नहीं भूलती।
अभिनेता बनने का ख़याल कब और कैसे आया? 
बचपन से ही ख़ुद को बड़े परदे पर एक्टिंग करते देखना चाहता था। स्कूल में नाटकों में हिस्सा लिया है। स्टेज पर मैं आत्मविश्वास से भरा लड़का था, जबकि पढ़ाई और दूसरी चीज़ों में औसत, लेकिन फ़िल्मों में आने से परहेज़ करता रहा, क्योंकि जो भी हमारे घर आता, वो यही कहता कि बड़े होकर तो तुम एक्टर ही बनोगे। सिर्फ़ इसलिए एक्टर नहीं बनना चाहता था क्योंकि मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि फ़िल्मी थी। जब 19 साल का हुआ तो यह बात गहरे पैठ गई कि मैं फ़िल्मों के लिए ही बना हूं और यही एक काम है जो मैं ईमानदारी से कर पाऊंगा।
देओल परिवार से होने के कारण करियर में कितनी मदद मिली?
मेरी पहली फ़िल्म सोचा न था धर्मेन्द्र अंकल ने ही प्रोड्यूस की थी। जब इम्तियाज़ अली से मिला और उन्होंने मुझे स्क्रिप्ट सुनाई तो मैंने उनसे कहा था कि यह कहानी सनी भैया को बहुत पसंद आएगी। ऐसा हुआ भी। सनी भैया ने कहानी सुनते ही कहा कि इसका किरदार तो बिल्कुल अभय जैसा है। फ़िल्म बनी और लोगों को पसंद आई। मुझे इससे ज़्यादा मदद क्या मिल सकती थी!
सोचा न था के बाद किस तरह की चुनौतियां सामने आईं?
सोचा न था से दो स्टार निकले... एक थे इम्तियाज़ अली और दूसरी आयशा टाकिया। मुझे ज़्यादा ऑफर नहीं मिल रहे थे। फ़िल्म इंडस्ट्री में मुझे लेकर दिलचस्पी नहीं थी। जिन्हें दिलचस्पी थी, वो मुझे थर्ड लीड के रोल ऑफर कर रहे थे। उनके बैनर बड़े थे लेकिन रोल छोटे थे। एक तरह से इंडस्ट्री ने तय कर दिया था कि फ़ॉर्मूला फ़िल्में मेरे लिए नहीं हैं और मुझे हीरो बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, अगर कोशिश करूंगा तो फ्लॉप हो जाऊंगा। मेरी पहली दो फ़िल्में फ्लॉप हो चुकी थीं और मैंने सोचा क्यों न अब अपनी पसंद का ही काम करूं। फिर मैंने एक चालीस की लास्ट लोकल और मनोरमा सिक्स फीट अंडर जैसी छोटे बजट की फ़िल्में साइन कीं। यहीं से मेरी सफलता की शुरुआत हुई। मुझे समझ आ गया था कि मुझे कैसी फ़िल्में करनी हैं।
आपने ज़्यादातर कम बजट की फ़िल्में की हैं, कोई पछतावा है
?
एक समय था जब मैं असफल एक्टर था। मेरे साथ काम करने या मुझे पैसे देने के लिए कोई तैयार नहीं था। उस वक़्त मैंने पैसे को नहीं, अपनी सोच को महत्व दिया। मैं अलग सोचता था और यह मानता था कि अगर अच्छा काम करूंगा तो पैसा अपने-आप आ जाएगा। अच्छा ही हुआ कि शुरुआत असफल रही, कम-से-कम इस वजह से मैं प्रयोग कर पाया। अपने किए पर पछतावा नहीं है। लेकिन हां, अब पैसे के बारे में ज़रूर सोचता हूं।

जीवन का टर्निंग पॉइंट?
जब मैं पढ़ाई के लिए लॉस एंजेलिस गया। इससे पहले मैं 18 साल तक मुंबई में संयुक्त परिवार में, सुरक्षित वातावरण में रहा था। हमारा परिवार बहुत पारंपरिक है। मां का बहुत लाडला था मैं। लॉस एंजेलिस जाने के बाद पता चला कि मैं अपने परिवार पर कितना निर्भर था और मेरा सामान्य ज्ञान कितना कम था। आर्थिक रूप से दूसरे छात्रों के मुकाबले मैं बेहतर स्थिति में था, लेकिन पढ़ाई के साथ-साथ काम भी करता था ताकि अपने पैरों पर खड़ा हो सकूं। एडजस्ट करने में कुछ महीने लगे। लेकिन मेरा असली विकास वहीं से शुरू हुआ। अब अच्छा-बुरा सब सामने था और मैं हर चीज़ से ख़ुद जूझ रहा था। दुनिया कितनी बड़ी है, इसमें तरह-तरह के लोग हैं, आत्मनिर्भर होना क्या होता है... यह सब मैंने वहीं जाकर सीखा।
अच्छा अभिनेता बनने के लिए क्या ज़रूरी है?
ईमानदारी। यूं तो ज़िंदगी में हर काम के लिए ईमानदार होना ज़रूरी है, लेकिन एक अभिनेता में यह गुण होना ही चाहिए। अगर अभिनेता ईमानदार है तो यह उसके अभिनय में नज़र आता है। परदे पर कोई भी इमोशन दिखाने के लिए ईमानदार होना पहली शर्त है, चाहे वो ख़ुशी का भाव हो या उदासी का। संवेदनशीलता भी ज़रूरी है। अगर आप संवेदनशील नहीं हैं तो आप अच्छे अभिनेता कभी नहीं बन सकते।
फ़िल्मों में नाच-गानों से परेहज़ की ख़ास वजह? 
मैं शुरू से ही इस धारणा के ख़िलाफ़ हूं कि फ़िल्म की सफ़लता के लिए उसमें नाच-गाना होना ज़रूरी है। यह बात मेरी समझ से बाहर है कि अगर रोमांस है, कॉमेडी है, ड्रामा है, लेकिन नाच-गाना नहीं है तो वो फ़िल्म हिट नहीं हो सकती। अच्छी कहानी और अच्छे डायलॉग्स काफी होते हैं, किसी फ़िल्म की कामयाबी के लिए। देव डी में गाने बैकग्राउंड में थे लेकिन फ़िल्म को अच्छा रिस्पॉन्स मिला। ओए लक्की, लक्की ओए में भी ऐसा ही था। अच्छा गीत-संगीत बेशक़ मनोरंजक होता है लेकिन आजकल फ़िल्मों में मनोरंजन के नाम पर गाने बेवजह ठूंस दिए जाते हैं जिनसे कहानी का कोई मतलब नहीं होता।

आपको इंडस्ट्री में आठ साल हो गए हैं। इस दौरान ख़ुद में क्या बदलाव देखते हैं? 
अब काफी सुरक्षित महसूस करने लगा हूं। मेरा आत्मविश्वास भी बढ़ा है। मैं उन सभी लोगों का तहे-दिल से शुक्रग़ुज़ार हूं जिन्होंने मेरा साथ दिया है और मेरे काम को पसंद किया है। बचपन में मैं शर्मीला और डरपोक लड़का था। मेरे अंदर आत्मविश्वास की काफी कमी थी। लेकिन अब मेरे अंदर से डर निकल गया है। पूरा डर नहीं निकला है, हम सबके थोड़े-बहुत डर होते ही हैं, लेकिन मैं अब नॉर्मल हो गया हूं।


सफलता के क्या मायने हैं
?

सफ़लता आनी-जानी चीज़ है। सफ़लता को सिर पर चढ़ने देंगे तो यह अपने बोझ से आपको ज़मीन पर ले आएगी। आप सफ़ल हैं तो सहज रहें, नहीं हैं तो भी सहज रहें। इंसान को सफ़लता के लिए नहीं, संतुष्टि के लिए काम करना चाहिए। जैसे ही आप संतुष्ट नज़र आएंगे, जीवन के हर मोड़ पर आप अपने-आप को सफ़ल इंसान ही पाएंगे।

आपके लिए सिनेमा का क्या अर्थ है?

मेरे जीवन का अटूट हिस्सा है सिनेमा। मेरे लिए इसके वही मायने हैं जो मायने मेरी ज़िंदगी के हैं। जैसे ज़िंदगी में ख़ुशी, ग़म, गुस्सा, निराशा और संतुष्टि के भाव होते हैं, वैसे ही भाव मैं सिनेमा में भी महसूस करता हूं। अगर मुझे कुछ बोलना हो, निकालना हो या दिखाना हो तो ये मैं सिर्फ़ फ़िल्म के ज़रिए कर सकता हूं। सिनेमा मेरा प्रेरणास्रोत है।

अनुराग कश्यप आपकी तुलना जॉनी डैप से करते हैं... 

वो ऐसा कहते हैं तो ज़रूर कोई बात होगी। जब मैंने
देव डी का आयडिया लिखा था तब मैंने भी अनुराग के बारे में ही सोचा था। मुझे पता था कि यह फ़िल्म अनुराग ही बना पाएंगे। अनुराग बहुत मौलिक हैं। वे वही फ़िल्में बनाते हैं जिनमें उनका विश्वास है। इस मामले में अनुराग कभी कोई समझौता नहीं कर सकते, चाहे आपको फ़िल्म अच्छी लगे या न लगे।

दिबाकर बैनर्जी के साथ काम करना कैसा अनुभव रहा
?

बहुत अच्छा तजुर्बा रहा। हम दोनों अच्छे दोस्त हैं। एक अभिनेता के तौर पर मेरी ख़ासियत और मेरी कमज़ोरियों को दिबाकर जानते हैं। मैं भी जानता हूं कि बतौर निर्देशक उन्हें क्या चाहिए। हम दोनों में अच्छी ट्यूनिंग है।

किस्मत या भाग्य पर कितना भरोसा है
?

किस्मत और भाग्य... ये दोनों अलग चीज़ें हैं मेरे लिए। मैं मानता हूं कि किस्मत में जो लिखा है, वो होना ही है, लेकिन हमारा भाग्य हमारे हाथ में होता है। मेरी किस्मत में शायद यह लिखा था कि मैं अभिनेता बनूंगा। पर मैं अच्छा अभिनेता कहलाऊंगा या बुरा अभिनेता, यह मेरे हाथ में है। मेरी लगन, मेहनत और समझ तय करेगी कि मेरे भाग्य में कितना अच्छा अभिनेता होना है।

किस काम में सबसे ज़्यादा सुकून मिलता है
?

एक्टिंग में। भविष्य में फ़िल्में प्रोड्यूस और डायरेक्ट करना चाहता हूं।

एक्टिंग के अलावा क्या पसंद है
?

मुझे कुत्ते बहुत पसंद हैं। तीन बार काटा भी है कुत्तों ने, लेकिन कुत्ता ऐसा प्राणी है जो आपकी आंखों में देखकर अपने वफ़ादार होने का सबूत दे देता है। हमारे घर में कुत्ते ज़रूर नज़र आएंगे आपको। इसके अलावा, म्यूज़िक सुनना अच्छा लगता है। घूमना बहुत पसंद है। डीप सी डायविंग अच्छी लगती है। 


जब शूट पर नहीं होते, तब क्या करते हैं
?

मैं दुनिया का सबसे आलसी इंसान हूं। खाली वक़्त मिलता है तो टीवी देखकर सो जाता हूं।

खाने में क्या पसंद है
?

पंजाबी खाना। इसके अलावा जापानी और इटैलियन भोजन पसंदीदा है।


ख़ुद को फिट रखने के लिए क्या करते हैं
?

ज़्यादातर योग, स्विमिंग और
'क्राव मगा' करता हूं। 'क्राव मगा' इज़रायली मार्शल आर्ट का एक फॉर्म है। पहले वेट-लिफ्टिंग नहीं करता था, लेकिन अब शुरू कर दिया है।

घर में कौन-कौन है
?

बहुत सारे लोग हैं... माता-पिता, ताया-तायी, सनी और बॉबी भैया, उनकी पत्नियां और बच्चे।

सबसे बड़ा सपना क्या है
?

दिल से चाहता हूं कि पूरी दुनिया में शांति कायम हो। देश की ग़रीबी ख़त्म हो जाए। जब सड़कों पर बच्चों को भीख मांगते हुए देखता हूं तो बहुत तकलीफ़ होती है। एक तरफ़ हमारा देश तरक्की कर रहा है और दूसरी तरफ़ गोदामों में पड़ा अन्न सड़ रहा है। उस अन्न को गरीबों में बराबर बांटा जाए तो भुखमरी की नौबत नहीं आएगी। कम-से-कम भोजन और पानी जैसी बुनियादी ज़रूरतों में भ्रष्टाचार न हो। लोगों को राशन कार्ड
आसानी से मिल जाएं... यही सपना है मेरा।

पर्यावरण के प्रति आप काफी संवेदनशील हैं, इसके बारे में कुछ बताएं।
 

मैं
ग्रीनपीस, बटरफ्लाइज़ और वीडियो वॉलन्टियर्स जैसी संस्थाओं से जुड़ा हुआ हूं। वीडियो वॉलन्टियर्स का काम करने का तरीका काफी अलग है। स्टालिन नाम के एक शख़्स हैं, जो भारतीय मूल के हैं। अमेरिकन पत्नी जेसिका के साथ मिलकर वे समाज के अलग-अलग तबके के लोगों को ख़ास तरह का प्रशिक्षण देते हैं। स्टालिन और उनकी टीम लोगों को तीन मिनट की शॉर्ट फ़िल्म बनाना सिखाती है। लोगों को कैमरा हैंडल करना और एडिटिंग सिखाई जाती है। लोग जब ये सब सीख जाते हैं तो उन्हें प्रोड्यूसर कहकर बुलाया जाता है। ये प्रोड्यूसर उन मुद्दों पर फ़िल्म बनाते हैं, जो उनके समाज को प्रभावित कर रहे होते हैं। फिर शूट की गई फ़िल्में स्थानीय प्रशासन को दिखाई जाती हैं। अच्छी बात यह है कि ज़्यादातर मामलों में कार्रवाई होती है। महाराष्ट्र, पंजाब और गुजरात जैसे राज्यों में इसका असर दिख रहा है। वीडियो वॉलन्टियर्स निहत्थे लोगों को अपने हक़ के लिए लड़ने का हथियार देता है, कैमरे के रूप में। समाज में कुछ परिवर्तन होता है तो मुझे ख़ुशी मिलती है। बदलाव समाज में सकारात्मकता की भावना का विस्तार करता है। यही कारण है कि 'वीडियो वॉलन्टियर्स' जैसी कोशिशें मुझे प्रभावित करती हैं।

अपनी किस ख़ूबी से प्यार है
?

अपने व्यक्तित्व की किसी ख़ूबी से मुझे प्यार नहीं है। मुझमें ऐसा कुछ नहीं है, जो बहुत चमत्कृत या प्रभावित करने वाला हो। वैसे, ईमानदारी के साथ कहूं तो इस सवाल का जवाब दूसरे लोग बेहतर दे सकते हैं। हां, यब बात सच है कि मुझे संगीत का संग्रह करना बहुत पसंद है, जो मेरे व्यक्तित्व को थोड़ा विशिष्ट ज़रूर बनाना है। मुझे हर तरह का संगीत सुनना अच्छा लगता है, जैसे रॉक, जैज़ और अल्टरनेटिव। ज़्यादातर पाश्चात्य संगीत सुनना पसंद है। नए गाने भी अच्छे लगते हैं। हिन्दी फ़िल्मों में
रॉकस्टार के गाने बहुत पसंद आए। पाकिस्तानी संगीत बेमिसाल है। अपने देश में एक बात थोड़ी अखरती है कि यहां फ़िल्मों के अलावा संगीत का विस्तार बहुत कम है और एक आम भारतीय केवल फ़िल्मी संगीत को ही संगीत समझता है। ऐसा होना ठीक नहीं है। हमारे समाज में लोक संगीत, शास्त्रीय संगीत समेत विभिन्न विधाओं के प्रति रुचि बढ़नी ही चाहिए और इस काम में हमें सहभागिता के लिए तैयार रहना चाहिए।
...और ख़ुद में क्या बदलाव लाना चाहते हैं?


मेरी प्रवृत्ति ऐसी है कि कभी मैं बहुत ख़ुश रहता हूं और कभी बहुत उदास। एक पल मैं गुस्से में होता हूं तो दूसरे ही पल शांत हो जाता हूं। अपने भावों को लेकर तटस्थ नहीं हूं मैं। हर मनोभाव में अति करता हूं।


भारत में कौन-सी जगह पसंद है
?

गोवा में घर बना रहा हूं। हिमाचल प्रदेश, ख़ासकर मनाली बहुत पसंद है। केरल भी पसंदीदा है।

...और विदेश में?


स्पेन और न्यूयॉर्क।


ख़ुशी की परिभाषा क्या है
?

संतुष्ट होना। संतुष्टि ही असली ख़ुशी है। 


मुंबई में प्रिय जगह?
 


मेरा घर।
 


प्रिय किताबें
?
यान मार्टल की लाइफ ऑफ पाई और चक पालाहनियक (Chuck Palahniuk) की चोक

प्रिय फिल्में
?

'डॉ. स्ट्रेंजलव'
, 'फुल मेटल जेकेट', 'चिल्ड्रन ऑफ हेवन', और 'टॉक टू हर'। हिन्दी फ़िल्मों में 'चुपके-चुपके', 'शोले', और घायल। 

आने वाली फ़िल्में? 

सिन्ग्युलेरिटी, चक्रव्यूह और रांझणा’।
 


आपका जीवन दर्शन क्या है
?

कोई एक नहीं, बहुत सारे दर्शन हैं। फिलहाल दिमाग में है कि जियो और जीने दो।

पाठकों के लिए कोई संदेश
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ख़ुद के प्रति ईमानदार रहें। ज़िंदगी बहुत छोटी है, इसे हंसी-ख़ुशी और प्रेम-भाव से बिताएं। अपने लिए जिएं, लेकिन दूसरों के लिए भी जीना सीखें।
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smaran: chandradhar sharma guleri -madhvi sharma


गुलेरी जयंती (७ जुलाई )पर विशेष:
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माधवी शर्मा गुलेरी
(साहित्य के पुरोधा पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी की रचनाओं के बारे में इतना सब लिखा, पढ़ा व सुना जा चुका है कि कुछ और कहना सूरज को दीया दिखाने समान है। दो साल पहले पैतृक घर गुलेर जाना हुआ तो मैं गुलेरी जी की निजी डायरी अपने साथ मुंबई ले आई थी। यह वह डायरी है जिसे गुलेरी जी के पौत्र यानी मेरे पिता डॉ. विद्याधर शर्मा गुलेरी अपनी सबसे बड़ी संपत्ति मानते थे। परदादा जी की डायरी पढ़ते हुए उन्हें व्यक्तिगत तौर पर जानने का सौभाग्य मुझे मिला, वहीं उनके अपने शब्दों में उनका परिचय पाकर मैं अभिभूत हो उठी। इसे हिन्दी-साहित्य का दुर्भाग्य माना जाना चाहिए कि पाठकवर्ग गुलेरी जी की उन अधिकांश रचनाओं से वंचित रहा है, जो वे 39 वर्ष की अल्पायु में लिखकर चले गए। प्रतिभापुत्र गुलेरी जी मुख्यतया उसने कहा था कहानी से साहित्य-प्रेमियों में अपनी पहचान रखते हैं, लेकिन कहानी लेखन के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी उनका योगदान अप्रतिम है। भाषा एवं साहित्य से इतर दर्शन, इतिहास, पुरातत्व, धर्म, ज्योतिष, पत्रकारिता व मनोविज्ञान जैसे अनेक विषयों पर गुलेरी जी की गहरी पैठ थी। गुलेरी जी के रचनाकर्म को पाठक अच्छे से जान पाएं, इस कामना के साथ उनका यह लेख, जो मूल अंग्रेजी से अनूदित है।)
गुलेरी जी अपने शब्दों में

मैं पंजाब प्रांत के काँगड़ा जिले में गुलेर नामक ग्राम निवासी सारस्वत ब्राह्मणों के सम्मान्य कुल का वंशज हूँ। ज्योतिष के विद्वान और पंचांग विद्या के कर्ता के रूप में मेरे प्रपितामह की प्रसिद्धि उन दिनों में पटियाला और बनारस तक फैली हुई थी। हमारे वंश के लोग माफी और जागीर की भूमि का उपभोग करते हैं और हम इतिहास-प्रसिद्ध गुलेर के राजा कटोच क्षत्रियों के मुख्य पुरोहित और गुरु हैं। गुलेर के राजा ने मेरे पिताजी को गुरु के रूप में पालकी, गद्दी और ताजीम का सम्मान प्रदान किया था और उनके बाद मुझे भी वही प्रतिष्ठा प्राप्त है।

मेरे पिता पंडित शिवरामजी, अपने समय में बनारस के विशिष्ट संस्कृत विद्वान माने जाते थे और जयपुर के स्वर्गीय महाराजा रामसिंह जी बहादुर ने अपने दरबार के राजपंडित पद के लिए उनका चयन किया था। वे जयपुर दरबार के वरिष्ठ पंडित थे और लगभग 48 वर्ष तक जयपुर के संस्कृत कॉलेज में उपाध्यक्ष एवं संस्कृत, व्याकरण, भाषा विज्ञान और वेदान्त, दर्शन के आचार्य पर प्रतिष्ठित रहे। स्वर्गीय एवं वर्तमान महाराजा तथा समाज के सभी वर्गों के लोगों से प्रखर पाण्डित्य तथा निर्मल चरित्र के कारण उनको महान समादर प्राप्त था। वे जयपुर में संस्कृत अध्ययन के आद्य प्रवर्तकों में थे और उनकी शिष्य मण्डली में देश के बहुत से प्रसिद्ध पंडित हैं तथा तीन को तो भारत सरकार द्वारा महामहोपाध्याय का सम्मान भी प्राप्त हो चुका है।

मेरा जन्म जयपुर में ही हुआ और मैंने महाराज कॉलेज में शिक्षा पाई। स्कूल व कॉलेज की सभी कक्षाओं में मैं सर्वोच्च स्थान एवं पारितोषिक पाता रहा। मैंने माध्यमिक परीक्षा 1897 ई. में द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। सन् 1899 ई. में मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एण्ट्रेन्स परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और विश्वविद्यालय की इस परीक्षा के वरिष्ठता क्रम में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। जयपुर राज्य में शिक्षा के इतिहास में यह एक अभूतपूर्व अवसर था। अत:, महाराजा साहिब बहादुर की ओर से सार्वजनिक शिक्षा विभाग द्वारा मुझे स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। साथ ही, मैंने उसी वर्ष कलकत्ता विश्वविद्यालय से मैट्रिक परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। 1901 ई. में मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रथम वर्ष कला परीक्षा में द्वितीय श्रेणी प्राप्त करके उत्तीर्ण हुआ। इस परीक्षा में अंग्रेजी के अतिरिक्त मेरे विषय तुर्क, ग्रीक और रोमन इतिहास, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, संस्कृत और सामान्य एवं उच्चतर गणित रहे थे। इसके साथ ही मैंने हिन्दी में मौलिक रचना प्रस्तुत करके वैकल्पिक परीक्षा में सफलता प्राप्त की। मेरे एक आचार्य द्वारा मेरे नाम लिखे गये पत्र के उद्धरण से ज्ञात होगा कि मैंने कलकत्ता के सभी परीक्षार्थियों में अंग्रेजी गद्य-लेखन में द्वितीय स्थान प्राप्त किया था।

विद्यार्थी अवस्था में ही स्वर्गीय कर्नल स्विन्टन जैकब और कैप्टन ए.एफ. गैरट आर.ई.एम. ने मुझे जयपुरस्थ ज्योतिष यंत्रालय के यंत्रोद्धार के निमित्त सहायक के रूप में चुन लिया था। कठिन एवं मौलिक कार्य में मैंने जो सहायता की, उसमें मेरी सफलता को प्रमाणित करते हुए राज्य की ओर से मुझे 200 रु. का पारितोषिक प्रदान किया गया। इसके लिए ऊपरिलिखित दोनों महानुभावों ने जो संलग्न प्रमाणपत्र प्रदान किए हैं, वे साक्षीभूत हैं।

अंग्रेजी, मानसिक एवं नैतिक विज्ञान और संस्कृत विषय लेकर मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1903 ई. में बी.ए. परीक्षा पास की और विश्वविद्यालय के सफल परीक्षार्थियों में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया। जयपुर के महाराजा कॉलेज अथवा राजपूताना के किसी भी कॉलेज से कोई भी परीक्षार्थी अब तक ऐसी सफलता प्राप्त नहीं कर सका था। अत: इन शिक्षालयों के इतिहास में यह एक अभूतपूर्व घटना थी। राज्य की ओर से मुझे पुन: स्वर्णपदक और 300 रु. के मूल्य की पुस्तकें प्रदान करके पुरस्कृत किया गया। उस वर्ष का सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी होने के नाते मैंने नॉर्थ ब्रुक स्वर्णपदक भी प्राप्त किया।

मनोविज्ञान एवं कर्तव्यशास्त्र विषय लेकर मैंने एम.ए. उपाधि के लिए परीक्षा के निमित्त आवश्यकता से भी अधिक अध्ययन किया परन्तु स्वास्थ्य की गड़बड़ी ने मुझे परीक्षा में बैठने का अवसर नहीं दिया।
संस्कृत के विश्रुत विद्वान अपने पिताजी से कई वर्षों तक स्वतंत्र रूप से अध्ययन करने का असाधारण सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। मैं संस्कृत बहुत अच्छी तरह जानता हूँ और उच्चतर एवं मौलिक शोध को लक्ष्य में रखकर मैंने वैदिक, पौराणिक, साहित्यिक एवं वेदान्तक विषयक संस्कृत साहित्य के अंगों का विशिष्ट अध्ययन किया है। मैंने संस्कृत का आरम्भिक अध्ययन प्राचीन पद्धति से किया जो बहुत ठोस होता है। अंग्रेजी शिक्षा ने मुझे वह कसौटी प्रदान कर दी है जिसका कि पाश्चात्य विद्वान प्राचीन भाषा में संशोधन के उद्देश्य के लिए प्रयोग करते हैं।

मैंने इण्डियन एन्टीक्वेरी एवं अन्य संस्कृत और हिन्दी सावधिक पत्र-पत्रिकाओं को बहुत से विद्वतापूर्ण लेखों द्वारा योगदान दिया है। इण्डियन एन्टीक्वेरी में प्रकाशित मेरे लेखों की विशिष्ट प्राच्य विद्याविदों ने प्रशंसा की है। जब महामहिम ब्रिटिश सम्राट भारत आये तो मैंने उनके लिए संस्कृत में स्वागत गान की रचना की। सुप्रसिद्ध डच विद्वान डॉ. कैलेण्ड (उद्वेच निवासी) ने एतन्निमित्त मेरी बहुत प्रशंसा की। मैंने कतिपय आद्यावधि अप्रकाशित संस्कृत ग्रन्थों की समीक्षा एवं व्याख्यात्मक प्रस्तावना और टिप्पणियों सहित सम्पादन कार्य भी हाथ में लिया है। जयपुर राज्य द्वारा संचालित संस्कृतोपाधि की परीक्षाओं में मैं साहित्य, धर्मशास्त्र और व्याकरण विषयों का परीक्षक होता हूँ तथा राजपूताना मिडिल स्कूल और जयपुर मिडिल स्कूल परीक्षाओं में भी मुझे परीक्षक नियुक्त किया जाता है।

सन् 1904 ई. में कर्नल टी.सी. पियर्स, आई.ए. तत्कालीन रेजीडेन्ट जयपुर की सहमति से मुझे खेतड़ी के अल्पव्यस्क राजा का अभिभावक, अध्यापक नियुक्त किया गया। पियर्स साहब का कश्मीर से लिखा हुआ प्रशंसा-पत्र इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करता है कि मेरी कार्यप्रणाली के विषय में उनके मन में कैसी धारणा थी। जब जयपुर दरबार ने मेयो कॉलेज अजमेर के मोतमिद् (रियासत के सामन्तों और प्रशिक्षणार्थियों के अभिभावक) पद का स्तर ऊँचा करने का निर्णय किया तो 1907 ई. में इस पद के लिए मुझे चुना गया। यह चुनाव करते समय रियासत की स्टेट कौंसिल के सचिव ने रेजीडेन्ट जयपुर के नाम यह पत्र लिखा था-
संख्या 2254
जयपुर, दिनांक 21 अक्टूबर, 1916
मेयो कॉलेज के मोतमिद् पद पर किसी अधिक योग्य व्यक्ति की नियुक्ति करके उसका स्तर बढ़ाने का प्रश्न कुछ समय से जयपुर दरबार के विचाराधीन है। अब कौंसिल ने राजा जी खेतड़ी के शिक्षक पं. चन्द्रधर गुलेरी बी.ए. को लाला मिट्ठन लाल के स्थान पर मेयो कॉलेज के मोतमिद् पद को ग्रहण करने के लिए चुना है। पं. चन्द्रधर गुलेरी एक बहुत ही योग्य व्यक्ति हैं और उन्होंने अपने कर्तव्यों का सम्यक पालन करते हुए प्रिंसिपल मेयो कॉलेज को सदैव सन्तुष्ट किया है और अब तक इस संस्था का बहुत कुछ अनुभव प्राप्त कर लिया है, अत: कौंसिल को विश्वास है कि इनकी नियुक्त के विषय में प्रिंसिपल मेयो कॉलेज, अजमेर की सहमति प्राप्त हो जायेगी।

मेयो कॉलेज में लगभग 15 वर्ष बहुत लंबे समय तक में विविध श्रेणियों को अवैतनिक रूप से विभिन्न विषय पढ़ाता रहा हूँ। तदन्तर सन् 1916 में मुझे महामहोपाध्याय पंडित शिवनारायण के स्थान पर हैड पंडित मेयो कॉलेज के पद पर नियुक्ति के लिए चुना गया और हिन्दी व संस्कृत का अध्यापन कार्य मुझे सौंपा गया। कक्षा में, छात्रावास में और क्रीड़ा-क्षेत्र में अपने विद्यार्थियों के मानसिक, नैतिक, बौद्धिक और शारीरिक विकास की दिशा में मैंने जिस परिणाम में और जिस स्तर पर कार्य किया है उसके विषय में प्रिंसिपल महोदय ही अपना मत दे सकते हैं कि वह उनके मनोनुकूल है या नहीं।

मैंने प्राचीन एवं आधुनिक गद्य तथा पद्यात्मक हिन्दी सहित्य का विशिष्ट अध्ययन किया है और पाली, प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं से इसके विकास के संबंध में भी अनुशीलन किया है। इतिहास और पुरातत्व विषयों में मेरी अभिरुचि है और अपने नाम से, बिना नाम के अथवा अन्य विद्वानों के साथ जो लेख आदि प्रकाशित किए हैं, वे सर्वनिवेदित हैं।
मैं हिन्दी का प्रसिद्ध लेखक हूँ और साहित्यिक जगत में आलोचक और विद्वान के रूप में मेरी ख्याति है। नागरी प्रचारिणी सभा काशी की प्रबंधकारिणी परिषद् का मैं कई वर्षों तक सदस्य रहा हूँ। जयपुर के रेजीडेन्ट कर्नल शावर्स द्वारा लिखित नोट्स ऑन जयपुर’ पुस्तक में मेरा यथेष्ट योगदान है। युद्ध काल में मैंने सम्राट की सेनाओं की विजय के सम्बन्ध में एक संस्कृत प्रार्थना लिखी थी जो प्रति दिन विद्यालयों में दोहराई जाती थी। युद्धकाल में प्रिंसिपल मेयो कॉलेज पब्लिसिटी बोर्ड, अजमेर मेरवाड़ा बार गजट में हिन्दी संस्करण के सम्पादन में अकेले ही उनकी सहायता की थी और साथ ही अंग्रेजी संस्करण में भी लेख लिखता था। अजमेर मेरवाड़ा गजट के हिन्दी संस्करण की शैली और साहित्यिक स्तर का अपेक्षाकृत अधिक समादर था।
चन्द्रधर गुलेरी
जुलाई 8, 1917