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रविवार, 21 अक्टूबर 2012

धरोहर: दोहा दुनिया

धरोहर:

दोहा दुनिया


रसखान

प्रेम प्रेम सब ही कहें, प्रेम न जानत कोय।
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोय॥

काम क्रोध मद मोह भय, लोभ द्रोह मात्सर्य।
इन सबहीं ते प्रेम है - परे, कहत मुनिवर्य॥

बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि।
सुद्ध कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥
 

बिहारी

नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल।
अली कली में ही बिंध्यो, आगे कौन हवाल।।
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥
कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच।
नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच।।
 

रहीम

रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुस, चून॥
अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम।
साँचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम॥

 

कबीर

तिनका कबहुँ न निंदिये, पाँव तले भलि होय ।
कबहूँ उड़ आँखन पड़े, पीर घनेरी होय ॥
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर ॥

वृन्द

कुल सपूत जान्यौ परै लखि सुभ लच्छन गात।
होनहार बिरवान के होत चीकने पात॥

क्यों कीजै ऐसो जतन जाते काज न होय।
परवत पर खोदी कुआँ कैसे निकसे तोय॥

करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान॥
 
कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खइयो मास
दो नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस
[इस दोहे के रचयिता के बारे में संदेह है]
 
केशवदास
केशव केसन असि करी जस अरि हु न कराय
चन्द्र वदन मृग लोचनी बाबा कह कें जाय
 
 
चंदबरदाई
चार बास चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमान
ता ऊपर सुल्तान है मत चूकै चौहान
 
रसलीन
कुमति चंद प्रति द्यौस बढ़ि मास मास कढ़ि आय।
तुव मुख मधुराई लखे फीको परि घटि जाय
 
***
 

दोहा दुनिया: नदिया जैसी रात -शशि पाधा

दोहा दुनिया:



नदिया जैसी रात 

शशि पाधा
*
नीले नभ से ढल रही, नदिया जैसी रात
ओढ़ी नीली ओढनी, चाँदी शोभित गात

श्यामल अलकें खोल दीं, तारक मुक्ताहार
माथे सोहे चन्द्रिमा, चाँद गया मन हार
   
सागर दर्पण झांकती, अधरों पे मित हास     
लहरें हँसती डोलतीं, नयनों में परिहास

छमछम झांझर बोलती, धीमी सी पदचाप
पात-पात पर रागिनी, डाली-डाली थाप  

मंद-मंद बहती पवन, मंद्र लहर संगीत 
रजनीगंधा ढूँढती, तारों में मनमीत

ओट घटा के चाँद था, रात न आए चैन
नभ तारों में ढूँढते, विरहन के दो नैन  

चंचल चितवन चातकी, श्याम सलोनी रात
चंदा देखें एकटक, दोनों बैठी साथ 

श्वेत कमलिनी झील में, रात सो गई संग
लहरों में घुल मिल गए, नीलम-हीरा रंग

भोर पलों में सूर्य ने, मानी अपनी भूल
धरती झोली भर दिए, पारिजात के फूल

************

शनिवार, 20 अक्टूबर 2012

धरोहर : स्व0 बलवीर सिंह 'रंग'

धरोहर :


इस स्तम्भ में विश्व की किसी भी भाषा की श्रेष्ठ मूल रचना देवनागरी लिपि में, हिंदी अनुवाद, रचनाकार का परिचय व चित्र, रचना की श्रेष्ठता का आधार जिस कारण पसंद है. संभव हो तो रचनाकार की जन्म-निधन तिथियाँ व कृति सूची दीजिए. धरोहर में आनंद लें स्व0 बलवीर सिंह 'रंग' की रचना का।

. स्व0 बलवीर सिंह 'रंग'             परिचय -
गीतकार  -.................................................स्व0 बलवीर सिंह 'रंग'
जीवनकाल -      .....................................1911 -  1984
जन्म -स्थान ---                 ..........              जिला -एटा   (उ0प्र0 )                                                                    

हमने जो भोगा सो गाया ।

अकथनीयता को दी वाणी                                             

वाणी को भाषा कल्याणी
कलम कमण्डल लिये हाथ में
दर-दर अलख जगाया
हमने जो भोगा सो गाया ।

सहज भाव से किया खुलासा

आँखों देखा हुआ तमाशा
कौन करेगा लेखा-जोखा
क्या खोया, क्या पाया
हमने जो भोगा सो गाया ।

पीडाओं के परिचायक हैं

और भला हम किस लायक हैं
अन्तर्मठ की प्राचीरों में
अनहद नाद गुँजाया
हमने जो भोगा सो गाया ।

          प्रस्तुतकर्ता-     कमल

माहिया: दिन आस निरास के हैं -शशि पाधा

माहिया:
दिन आस निरास के हैं
शशि पाधा 
*
दिन आस निरास भरे  
धीरज रख रे मन
सपने विश्वास  भरे
 *
सूरज फिर आएगा
बादल छंटने दो
वो फिर मुस्काएगा
 *
हर दिवस सुहाना है
जीवन उत्सव सा
हँस हँस के मनाना है
 *
दुर्बल मन धीर धरो
सुख फिर  लौटेंगे
इस पल की पीर हरो
 *
बस आगे बढ़ना है
बाधा आन  खड़ी
साहस से लड़ना है
 *
थामो ये हाथ कभी  
राहें लम्बी हैं 
क्या दोगे साथ कभी  
 *
फिर भोर खड़ी द्वारे
वन्दनवार सजे
क्यों बैठे मन हारे
 *
नदिया की धारा है
थामों पतवारें
उस पार किनारा है
 *
हाथों की रेखा है
खींची विधना ने
वो कल अनदेखा है
 *
दिन कैसा निखरा है
अम्बर की गलियाँ
सोना सा बिखरा है
 *
शशि पाधा १७ सितम्बर २०१२

माहिया: पंजाब का लोकगीत नवीन चतुर्वेदी

माहिया: पंजाब का लोकगीत
नवीन चतुर्वेदी
*
स्रोत : ग़ज़ल सृजन - द्वारा श्री आर. पी. शर्मा महर्षि
पृष्ठ संख्या 92

यह पंजाब के एक लोकप्रिय गीत से अभिप्रेरित है। सन 1936 में गीतकार हिम्मतराय ने फ़िल्म 'ख़ामोशी' के लिए पहला माहिया लिखा था। माहिया - लेखन में डा. हैदर कुरैशी और डा. मनाज़िर आशिक हरगानवी के नाम प्रमुख हैं। माहिया में तीन मिसरे होते हैं, बह्र निम्न प्रकार है:

मफ़ऊलु मफ़ाईलुन
221 1222

फ़ैलु मफ़ाईलुन
21 1222

मफ़ऊलु मफ़ाईलुन
221 1222


कुछ ग़म के सिवा सोचें
रेत के टीले पर
हम बैठ के क्या सोचें - डा. मनाज़िर आशिक हरगानवी

बोसीदा इमारत है
शेरो सुख़न अब तो
लफ़्ज़ों की तिजारत है - डा. एस. पी. 'तफ़ता ज़ारी'

पैसे की हुकूमत है
झूठ की दुनिया में
सब इस की बदौलत है - एहतिशाम अख़्तर

तू लांस की लज़्ज़त दे
दिल में बिठा मुझको
थोड़ी सी मुहब्बत दे - मुईन महज़र


उदाहरण जहाँ तीनों मिसरे समान होते हैं यानि 221 1222

इस दौर में दहकाँ ही
बोलेगा अगर सच तो
पिछड़ा हुआ इंसाँ ही - डा. एस. पी. 'तफ़ता ज़ारी'

कुछ लोग माहिया यूँ भी लिखते हैं

22 112 22
फ़ैलुन फ़एलुन फ़ैलुन
22 22 2
फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ा
22 112 22
फ़ैलुन फ़एलुन फ़ैलुन

बादल तो ज़रूर आये
लेकिन साजन का
संदेश नहीं लाये - आर. पी. शर्मा महर्षि

विचारोत्तेजक लेख: इस्लाम : एक वैदिक धर्म प्रकाश गोविन्द

विचारोत्तेजक लेख:
इस्लाम : एक वैदिक धर्म 
 
प्रकाश गोविन्द
*   
वेद सार्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ हैं तथा वैदिक आचरणों से परे न तो कोई अराधना विधि है और न प्रभु तक पहुँचने का मार्ग ! क्षेत्र विशेष तथा समयानुसार इसमें स्वाभाविक परिवर्तन तो होते रहे हैं परन्तु मूल वेद ही रहे ! अनेकानेक विद्वानों के अनुसार 'इस्लाम' भी वैदिक पद्धति पर ही आधारित है ! 

संस्कृत भाषा में 'मख' का अर्थ पूजा की अग्नि होता है सभी जानते हैं कि इस्लाम के आने से पहले समस्त पश्चिम में अग्नि-पूजा का चलन था ! 'मख' इस बात का सूचक है कि  वहां एक विशिष्ट अग्नि-मंदिर था ! 'मक्का-मदीना' वास्तव में 'मख-मेदिनी' अर्थात यज्ञं की भूमि का सूचक है ! 

इस्लाम धर्म के अनुयायी सामान्य रूप से विस्मयादिबोधक अव्यय एवं आराधना के लिए 'या अल्लाह 
(अल्ल: ) का प्रयोग करते हैं ! यह शब्द भी विशुद्ध रूप से संस्कृत मूल का है ! संस्कृत में अल्ल: , अवकः  और अन्बः  पर्यायवाची हैं और इनका अर्थ माता अथवा देवी से होता है ! माँ दुर्गा का आवाह्न  करते समय 'अल्ल :' का प्रयोग किया जाता है ! अतः 'अल्लाह' शब्द इस्लाम में पुरातनकाल से संस्कृत से ज्यों का त्यों ग्रहण कर प्रयोग में लाया गया ! 

मुस्लिम में माह 'रबी' सूर्य के द्योतक  'रवि' का अपभ्रंश लगता है क्योंकि संस्कृत का 'व'  प्राकृत में 'ब' में परिवर्तित हो जाता है ! 

यह आश्चर्यजनक समानता है कि अधिकाँश मुस्लिम त्यौहार शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाये जाते हैं, जो एकादशी के पुरातन वैदिक महत्त्व का द्योतक है ! 
इसी प्रकार संस्कृत में 'ईड ' का अर्थ पूजन है ! पूजा से आनंद जन्मता है ! आनंदोत्सव के रूप में इस्लाम का शब्द 'ईद' विशुद्ध रूप से संस्कृत का ही है ! 

हिन्दू धर्म में राशियों का विवरण है ! एक राशि 'मेष' है, जिसका सम्बन्ध मेमने (भेड़) से है !  पुराने समय में जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता था, तो नवीन वर्ष का आरम्भ होता था ! इस अवसर पर मांस-भोजन का प्रचलन था ! लोग ऐसा करके अपनी ख़ुशी प्रकट करते थे ! 'बकरी- ईद' का उदभव भी इसी तरह हुआ होगा ! 

ईदगाह भी इसी तरह सामने आया होगा ! जहाँ तक नमाज़ का सवाल है, वह संस्कृत की दो धातुएं 'नम' और  'यज' से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ झुकना तथा पूजा करना है ! 

रमजान के महीने को अरबी भाषा में 'सियाम' भी कहा जाता है ! 'सियाम' शब्द  'सौम' से बना है, जिसका अर्थ है - रुक जाना अर्थात एक विशेष अवधि तक के लिए खाने-पीने एवं स्त्री प्रसंग में रुक जाना !      

प्रार्थना करने से पहले शरीर के पांच भागों की स्वच्छता मुस्लिमों के लिए अनिवार्य है ! यह विधान भी 'शरीर शुद्धयर्थ पंचांगन्यास' से ही व्यत्पन्न स्पष्ट होता है ! 

इस्लाम धर्म की मान्यता के अनुसार उनके अनुयायिओं के लिए पांच फ़र्ज़ हैं --
1- तौहीद - (एक ईश्वर और अंतिम पैगम्बर पर ईमान)
2- नमाज़ - (उपासना) 
3- रोजा - (उपवास) 
4- ज़कात - (सात्विक दान) 
5- हज - (तीर्थाटन)  

इससे प्रतीत होता है कि मूलाधार एक ही है, सिर्फ पूजाविधि परिवर्तित है   


प्रस्तुति -                        

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

कजरी गीत: गौरा वंदना -संजीव 'सलिल'

कजरी गीत:





गौरा वंदना
संजीव 'सलिल'
*
गौरा! गौरा!! मनुआ मानत नाहीं, दरसन दै दो रे गौरा!
*
गौरा! गौरा!! तुम बिन सूना है घर, मत तरसाओ रे गौरा!
*
गौरा! गौरा!!  बिछ गये पलक पाँवड़े, चरण बढ़ाओ रे गौरा!
*
गौरा! गौरा!! पीढ़ा-आसन सज गए, आओ बिराजो रे गौरा!
*
गौरा! गौरा!! पूजन-पाठ न जानूं, भगति-भाव दो रे गौरा!
*
गौरा! गौरा!! कुल-सुहाग की बिपदा, पल में टारो रे गौरा!
*
गौरा! गौरा!! धरती माँ की कैयाँ हरी-भरी हो रे गौरा!
*
गौरा! गौरा!! लोभ-द्वेष महिषासुर, मार भगाओ रे गौरा!
*
गौरा! गौरा!! पान-फूल स्वीकारो, भव से तारो रे गौरा!
*

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012

माहिया गीत: मौसम के कानों में --संजीव 'सलिल'

माहिया गीत   
मौसम के कानों में
संजीव 'सलिल'
*
 
(माहिया:पंजाब का त्रिपदिक मात्रिक छंद है. पदभार 12-10-12, प्रथम-तृतीय पद सम तुकांत, विषम पद तगण+यगण+2 लघु = 221 122 11, सम पद 22 या 21 से आरंभ, एक गुरु के स्थान पर दो गुरु या दो गुरु के स्थान पर एक लघु का प्रयोग किया जाता है, उर्दू पिंगल की तरह हर्फ गिराने की अनुमति, पदारंभ में 21 मात्रा का शब्द वर्जित।)
* 
मौसम के कानों में
कोयलिया बोले,
खेतों-खलिहानों में।
*
आओ! अमराई से
 
आज मिल लो गले, 
भाई और माई से।
*
आमों के दानों में,
गर्मी रस घोले,
बागों-बागानों में---
*
होरी, गारी, फगुआ
गाता है फागुन,
बच्चा, बब्बा, अगुआ।
*
 
प्राणों में, गानों में,
मस्ती है छाई,
दाना-नादानों में---
*

Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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कविता: सुबह-सवेरे इंदिरा प्रताप
















कविता:
सुबह-सवेरे  
इंदिरा प्रताप
*
सुबह सवेरे
छल – छल जल
उमगी एक तरंग
लहर – लहर लहराया
चंचल जल |
भोर – किरण जल थल
खिले सुमन
मृग तृष्णा सा मन
करे नित्य नर्तन |
सन – सन - सन
चली पवन
उड़ा संग ले मन
तन हर्षाया |
कुहू – कुहू की तान
लाया मधुर विहान
दिल भर आया |
रस – रूप – गंध
सब एक संग
हैं तेरे ही अंश
हे ! परमब्रह्म |
सुन्दर, शुभ्र प्रभात
मन भाया
धरती पर
धीरे से
उतर आया |

विष्णु खरे की कविताएं

विष्णु खरे की कविताएं

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छिंदवाड़ा, मध्यप्रदेश में 9 फरवरी, 1940 को जन्मे विष्णु खरे हिंदी कविता, आलोचना और संपादन की दुनिया में एक विरल उपस्थिति हैं। खाते में आधा दर्जन कविता संकलन, बहुत सारे अनुवाद और समीक्षाएं। ‘नवभारत टाइम्स’ के संपादक रहे। लघु पत्रिका ‘वयम्’ निकाली। दो टूक लहजे के कारण हमेशा विवादों से भी वास्ता। फिलहाल दिल्ली
छोड़कर मुंबई में वास। दुनिया के बहुत सारे देशों की यात्राएं।  ईमेलः vishnukhare@yahoo.com
असह्य
दुनिया भर की तमाम प्यारी औरतों और आदमियों और बच्चों
मेरे अपने लोगो
सारे संगीतों महान कलाओं विज्ञानों
बड़ी चीज़ें सोच कह रच रहे समस्त सर्जकों
अब तक के सारे संघर्षों जय-पराजयों
प्यारे प्राणियों चरिन्दों परिन्दों
ओ प्रकृति
सूर्य चन्द्र नक्षत्रों सहित पूरे ब्रह्माण्ड
हे समय हे युग हे काल
अन्याय से लड़ते शर्मिंदा करते हुए निर्भय (मुझे कहने दो) साथियों
तुम सब ने मेरे जी को बहुत भर दिया है भाई
अब यह पारावार मुझसे बर्दाश्त नहीं होता
मुझे क्षमा करो
लेकिन आख़िर क्या मैं थोड़े से चैन किंचित् शान्ति का भी हक़दार नहीं

तभी

सृष्टि के सारे प्राणियों का
अब तक का सारा दुःख
कितना होता होगा यह मैं
अपने वास्तविक और काल्पनिक दुखों से
थोड़ा-बहुत जानता लगता हूँ
और उन पर हुआ सारा अन्याय?
उसका निहायत नाकाफ़ी पैमाना
वे अन्याय हैं जो
मुझे लगता है मेरे साथ हुए
या कहा जाता है मैंने किए
कितने करोड़ों गुना वे दुःख और अन्याय
हर पल बढ़ते ही हुए
उन्हें महसूस करने का भरम
और ख़ुशफ़हमी पाले हुए
यह मस्तिष्क
आख़िर कितना ज़िन्दा रहता है
कोशिश करता हूँ कि
अंत तक उन्हें भूल न पाऊँ
मेरे बाद उन्हें महसूस करने का
गुमान करनेवाला एक कम तो हो जाएगा
फिर भी वे मिटेंगे नहीं
इसीलिए अपने से कहता हूँ
तब तक भी कुछ करता तो रह

संकल्प

सूअरों के सामने उसने बिखेरा सोना
गर्दभों के आगे परोसे पुरोडाश सहित छप्पन व्यंजन
चटाया श्वानों को हविष्य का दोना
कौओं उलूकों को वह अपूप देता था अपनी हथेली पर
उसने मधुपर्क-चषक भर-भर कर
किया शवभक्षियों का रसरंजन
सभी बहरूपिये थे सो उसने भी वही किया तय
जन्मान्धों के समक्ष करता वह मूक अभिनय
बधिरों की सभा में वह प्रायः गाता विभास
पंगुओं के सम्मुख बहुत नाचा वह सविनय
किए जिह्वाहीन विकलमस्तिष्कों को संकेत-भाषा सिखाने के प्रयास
केंचुओं से करवाया उसने सूर्य-नमस्कार का अभ्यास
बृहन्नलाओं में बाँटा शुद्ध शिलाजीत ला-लाकर
रोया वह जन-अरण्यों में जाकर
स्वयं को देखा जब भी उसने किए ऐसे जतन
उसे ही मुँह चिढ़ाता था उसका दर्पन
अन्दर झाँकने के लिए तब उसने झुका ली गर्दन
वहाँ कृतसंकल्प खड़े थे कुछ व्यग्र निर्मम जन

साभार: रचनाकार
************

ENGLISH POEM: A cold Within

ENGLISH POEM:

A cold   Within  ;

In dark and bitter cold 
each one possessed  a stick of wood ,
or so the story's told ,

Their dying fire in need of logs ,
The first woman held hers back,
For on the faces around the fire ,
She noticed one was black ,
                   The next man looking cross the way ,
                   Saw one was not of his church ,
                   and couldn't  bring  himself to give 
                   the fire his stick of birch ,
             
the third one sat in tattered clothes ,
he gave his coat a hitch ,
Why his log be put to use ,
to warm the idle rich?
                   The man  just sat back

The rich man just sat -back and thought
of the wealth he had in store 
And somehow to keep what he had earned
from the lazy shiftless  poor ,
                       
                              The black man's  face bespoke revenge 
                              As the fire  passed from sight ,
                              for all he saw in  his stick of wood 
                              was his chance to spite the white 
 
The last man of this forlorn group,
did not expect  -for   gain ,
giving only to those who gave ,
was how he played the game ,
             
                             The logs held tight in deaths still hands ,
                             was the proof of human sin,
                             They didn't die from the cold without ,
                             They died from the cold within 

                             **********

दो बालगीत: बिटिया / लंगडी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

दो बालगीत: 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

1- बिटिया

*

स्वर्गलोक से आयी बिटिया।
सबके दिल पर छाई बिटिया।।

यह परियों की शहजादी है।
खुशियाँ अनगिन लाई बिटिया।।

है नन्हीं, हौसले बड़े हैं।
कलियों सी मुस्काई बिटिया।।

जो मन भाये वही करेगी.
रोको, हुई रुलाई बिटिया।।

मम्मी दौड़ी, पकड़- चुपाऊँ.
हाथ न लेकिन आई बिटिया।।

ठेंगा दिखा दूर से हँस दी .
भरमा मन भरमाई बिटिया।।

दादा-दादी, नाना-नानी,
मामा के मन भाई बिटिया।।

मम्मी मैके जा क्यों रोती?
सोचे, समझ न पाई बिटिया।।

सात समंदर दूरी कितनी?
अंतरिक्ष हो आई बिटिया।।

*****
*
बाल गीत:
2- लंगडी

आचार्य संजीव 'सलिल'
*
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*************
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
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poem: words from my heart -mileth

सामयिक लोकगीत: जे पुरवैया मतवारी --रामबाबू गौतम

सामयिक लोकगीत:
जे पुरवैया मतवारी.

रामबाबू गौतम, न्यू जर्सी 
*
       मेरी गाँठिन दर्द उठाय गयी,
                         जे पुरवैया मतवारी ||

     सनन- सनन जे पुरवैया चाले,
     वैरिन साँस मेरी रहि-२ चाले,
एजी ऊपर से बरसे पुरवैया की बौछार,
                       भीगि गयी देह सारी ||  
                       जे पुरवैया मतवारी ....

  अंग - अंग जब दर्द उठे और ठहराये,
  वैरिन संग चले पुरवैया मन घबडाये,
एजी ऊपर ते पसली को दर्द करे लाचार,
                           दर्द उठे अति भारी ||
                           जे पुरवैया मतवारी ..

  कदम-कदम पे उठि- उठि बैठूं चालूँ,
  वैरिन- टाँगें साथ चलें न कैसे चालूँ?,
एजी ऊपर ते दिल - दर्द उठे अनेकों बार,
                      जाते मति गयी है मारी ||
                        जे पुरवैया मतवारी ..

   घिरि- घिरि बदरा मेरे आँगन आयें,
   वैरिन बयार चले बदरा आयें- जायें,
एजी ऊपर ते दामिन तडपे, तडपे जिया हमार,
                    डर, अकुलाइ व्याकुल मैं भारी ||
                              जे पुरवैया मतवारी ..           
               ----------------
            

बुधवार, 17 अक्टूबर 2012

माहियों की छटा प्राण शर्मा

माहियों की छटा
प्राण शर्मा








*
तेरी ये पहुनाई 
कानों में घोले 
रस जैसे शहनाई 

मोहा पहुनाई से 
साजन ने लूटा 
मन किस चतुराई से 

माना तू अपना है 
तुझसे तो प्यारा 
तेरा हर सपना है 

फूलों जैसी रंगत 
क्यों न लगे प्यारी 
मुझको तेरी संगत 

हर बार नहीं करते 
अपनों का न्योता 
इनकार नहीं करते 

रस्ते  अनजाने  हैं 
खोने  का डर है 
साथी  बेगाने   हैं 

आँखों में ख्वाब तो हो 
फूलों के जैसा 
चेहरे पे  आब तो हो 

इक जैसी रात नहीं 
इक सा नहीं बादल 
इक सी बरसात नहीं 

तकदीर बना न सका 
तूली के बिन मैं 
तस्वीर बना न सका 

हम घर को जाएँ क्या 
बीच में बोलते हो 
हम हाल सुनाएँ क्या 

मैं - मैं ना कर माहिया 
ऐंठ नहीं चंगी 
रब से कुछ डर माहिया 

नादान  नहीं  बनते 
सब कुछ जानके भी 
अनजान नहीं बनते 

झगड़ा न हुआ होता 
सुन्दर सा अपना 
घरबार  बना  होता 

पल का मुस्काना न हो 
ए  मेरे  साथी 
झूठा  याराना  न  हो 

कुछ अपनी सुना माहिया 
मेरी भी कुछ सुन 
यूँ   प्यार  जगा  माहिया 

आँखों  में  नीर न  हो 
प्रीत ही क्या जिस में 
मीरा  की  पीर  न हो 

आओ  इक  हो  जाएँ 
प्रीत  की  दुनिया  में 
दोनों   ही   खो   जाएँ 

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भगवान वेंकटेश्वर का अभिषेक,तिरुपति,12-10-2011

भगवान वेंकटेश्वर का अभिषेक,तिरुपति,12-10-2011
 

world's best healthcare plan

This is the world's best healthcare plan ! ! !♬ •♩ •.•´¯`•.•♭•♪ ❀ Wink

poem

"A kind mouth multiplies friends,
and gracious lips prompt friendly greetings.

Let your acquaintances be many,
but one in a thousand your confidant.

When you gain a friend, first test him,
and be not too ready to trust him

For one sort of friend is a friend when it suits him,
but he will not be with you in time of distress.

Another is a friend who becomes an enemy,
and tells of the quarrel to your shame.

Another is a friend, a boon companion,
who will not be with you when sorrow comes.

When things go well, he is your other self,
and lords it over your servants;

But if you are brought low,
he turns against you and avoids meeting you.

Keep away from your enemies;
be on your guard with your friends.

A faithful friend is a sturdy shelter;
he who finds one finds a treasure.

A faithful friend is beyond price,
no sum can balance his worth.

A faithful friend is a life-saving remedy,
such as he who fears God finds;

For he who fears God behaves accordingly,
and his friend will be like himself."

व्यंग्य चित्र: विनय कुल

व्यंग्य चित्र: विनय कुल

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

सामयिक लेख: " दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन गिरीश बिल्लोरे

सामयिक लेख:

दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन

गिरीश बिल्लोरे 
*
लाइफ़-स्टाइल में बदलाव से ज़िंदगियों में सबसे पहले आधार-भूत परिवर्तन की आहट के साथ कुछ ऐसे बदलावों की आहट सुनाई दे रही है जिससे सामाजिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अवश्यंभावी है. कभी लगता था मुझे भी कि सामाजिक-तानेबाने के परम्परागत स्वरूप को आसानी से बदल न सकेगा . किंतु पिछले दस बरसों में जिस तेजी से सामाजिक सोच में बदलाव आ रहे हैं उससे तो लग रहा कि बदलाव बेहद निकट हैं शायद अगले पांच बरस में... कदाचित उससे भी पहले .कारण यह कि अब "जीवन को कैसे जियें ?" सवाल नहीं हैं अब तो सवाल यह है कि जीवन का प्रबंधन कैसे किया जाए. कैसे जियें के सवाल का हल सामाजिक-वर्जनाओं को ध्यान रखते हुए खोजा जाता है जबकि जीवन के प्रबंधन के लिये वर्जनाओं का ध्यान रखा जाना तार्किक नज़रिये से आवश्यक नहीं की श्रेणी में रखा जाता है.जीवन के जीने के तौर तरीके में आ रहे बदलाव का सबसे पहला असर पारिवारिक व्यवस्थापर खास कर यौन संबंधों पड़ता नज़र आ रहा है. बेशक विवाह नर-मादा के व्यक्तिगत अधिकार का विषय है पर अब पुरुष अथवा महिला के जीवन की व्यस्तताओं के चलते उभरतीं दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन का अधिकार भी मांगा जावेगा कहना कोई बड़ी बात नहीं. वास्तव में ऐसी स्थिति को मज़बूरी का नाम दिया जा रहा है.फ़िलहाल तो लव-स्टोरी को वियोग जन्य हेट स्टोरी में बदलते देर नहीं लगती .  किंतु आने वाला कल ऐसा न होगा.. जहां तक आने वाले कल का आभास हो रहा है वो ऐसा समय होगा जो " दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन" को एक अधिकार के रूप में स्वीकारेगा. दूसरा पक्ष ऐसे अधिकार की मांग के प्रति सकारात्मक रुख अपनाएगा. उसका मूल कारण "सर्वथा दूरियां एवम व्यस्तता जो अर्थोपार्जक कारण जनित होगी"
यह कोई भविष्यवक़्तव्य नहीं है न ही मैं भविष्य वक्ता हूं... वरन तेजी से आ रहे बदलाव से परिलक्षित हो रही स्थिति का अनुमान है. यह ऐसा बदलाव होगा जिसे न तो हमारी सामाजिक-नैतिक व्यवस्था रोकेगी और न ही खाप पंचायत जैसी कोई व्यवस्था इसे दमित कर पाएगी. कुल मिला कर इसे  बल-पूर्वक नहीं रोक सकता.
सामाजिक व्यवस्था द्वारा जनित परम्परागत वर्जनाओं के विरुद्ध सोच और शरीर का एक साथ खड़ा होना भारतीय परिवेश में महानगरों, के बाद नगरों से ग्राम्य जीवन तक गहरा असर डाल सकता है.
आप हम भौंचक इस विकास को देखते रह जाएंगें. सेक्स एक बायोलाजिकल ज़रूरत है उसी तरह अपने पारिवारिक "समुच्चय में रहना" सामाजिक व्यवस्था है. आर्थिक कार्य का दबाव सबसे पहले इन्ही बातों को प्रभावित करेगा. तब दम्पत्ति बायोलाजिकल ज़रूरत को पूरा करते हुए पारिवारिक समुच्चय को भी बनाए रखने के लिये एक समझौता वादी नीति अपनाएंगें. हमारा समाज संस्कृति की बलात रक्षा करते हुए भी असफ़ल हो सकता है . ऐसे कई उदाहरण समाज में व्याप्त हैं..बस लोग इस से मुंह फ़ेर रहे हैं.
पाश्चात्य व्यवस्था इस क़दर हावी होती नज़र आ रही है कि किसी को भी इस आसन्न ब्लैक होल से बचा पाना सम्भव नज़र नहीं आ रहा. हो सकता है मैं चाहता हूं कि मेरा पूरा आलेख झूठा साबित हो जाए जी हां परंतु ऐसा तब होगा जबकि जीवनों में स्थायित्व का प्रवेश हो ... ट्रक ड्रायवरों सा यायावर जीवन जीते लोग (महिला-पुरुष) फ़्रायड को तभी झुठलाएंगे जबकि उनका आत्म-बल सामाजिक-आध्यात्मिक चिंतन से परिपक्व हो पर ऐसा है ही नहीं. लोग न तो आध्यात्मिक सूत्रों को छू ही पाते हैं और न ही सामाजिक व्यवस्था में सन्निहित वर्जनाओं को. आध्यात्म एवम सामाजिक व्यवस्था के तहत बहुल सेक्स अवसरों के उपभोग को रोकने नैतिकता का ज्ञान कराते हुए संयम का पाठ पढ़ाया जाता है ताकि एक और सामाजिक नैतिकता बनी रहे दूसरी ओर यौन जनित बीमारियों का संकट भी जीवनों से दूर रहे, जबकि विज्ञान कंडोम के प्रयोग से एस.टी.डी.(सेक्सुअली-ट्रांसमीटेड-डिसीज़) को रोकने का परामर्श मात्र देता है.

आपको अंदाज़ा भी नहीं होगा कि दो दशक पहले बच्चे ये न जानते थे कि माता-पिता नामक युग्म उनकी उत्पत्ति का कारण है. किंतु अब सात-आठ बरस की उम्र का बच्चा सब कुछ जान चुका है. यह भी कि नर क्या है..? मादा किसे कहते हैं.. ? जब वे प्यार करते हैं तब “जन्म”-की घटना होती है. दूसरे शब्दों में कहें तो वे शारिरिक संपर्क को प्यार मानते हैं.
सामाजिक व्यवस्था पाप-पुण्य की स्थितियों का खुलासा करतीं हैं तथा भय का दर्शन कराते हुए संयम का आदेश देतीं हैं वहीं दूसरी ओर अत्यधिक अधिकाराकांक्षा तर्क के आधार पर जीवन जीने वाले इस आदेश को पिछड़ेपन का सिंबाल मानते हुए नकार रहे हैं .. देखें क्या होता है वैसे सभी चिंतक मानस मेरी अनुभूति से अंशत: ही सही सहमत होंगे.......