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मंगलवार, 21 अगस्त 2012

विशेष लेख: भोजपुरी संस्कार गीतों में पर्यावरण चेतना -- जितेन्द्र कुमार "देव"

  विशेष लेख:
भोजपुरी संस्कार गीतों में पर्यावरण चेतना 
                                                                                               -- जितेन्द्र कुमार "देव" 
                                                                                                              


              भारतीय संस्कृति में प्राकृतिक अनुराग एवं प्रकृति संरक्षण की चिरंतर धारा प्रवाहित है| प्रकृति अनुराग हमारी पुरातन संस्कृति में इस कदर रचा-बसा है कि हम प्रकृति से अपने को पृथक अस्तित्व की कल्पना ही नहीं  कर सकते| इस तरह हम प्रकृति के हम अविभाज्यअंग है| हम प्रकृति से एवं प्रकृति हम से अलग हो ही नहीं सकती| 

             यही कारण है कि भारतीय मनीषियों ने सम्पूर्ण प्राकृतिक शक्तियों को देव-देवी स्वरुप माना है| देव पूजा, देवी पूजा, वृक्ष पूजा एवं पशु-पक्षियों की पूजा भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया और हमारे जीवन में रच-बस गया| हमारे मनीषियों को यह भली-भांति मालूम था कि जड़-जगत अर्थात पृथ्वी, नदी, पर्वत, वन आदि का चेतन जगत से पारस्परिक संबंध, उसका परिणाम चक्र पूरी पर्यावरण प्रणाली को प्रभावित करती है, इसलिए उन्होंने चराचर जगत के प्रति सदाशयता, दया एवं प्रेम की भावना अर्थात 'जियो और जीने दो' पर बल दिया|

               भारतीय मनीषियों द्वारा स्थापित पर्यावरण चेतना की यह धारा युग-युग से हमारे समाज में संचालित होती रही और हमारे जीवन का अंग बन गई| यही कारण है कि लोकगीतों, लोकोक्तियों एवं कहावतों में भी पर्यावरण चेतना की स्पष्ट झलक दिखाई देती है जो जन-जन के जीवन से जुड़ी है|
  
               भोजपुरी संस्कार गीतों में पर्यावरण चेतना पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है|ऊर्जा के अपरिमित स्रोत सूर्य को देवता माना गया है और यह यथार्थ भी है, सूर्य हमारा अर्थात इस ग्रह का जीवन दाता है| सूर्य के बिना वनस्पतियों का और परोक्ष रूप से अन्य जीवों का अस्तित्व असम्भव है| इसीलिए भोजपुरी संस्कार गीतों में सूर्य पूजा ( सूर्यषष्ठी ) का महत्वपूर्ण स्थान है-

केरवा जे मंगनी शहर से ,बालक दिहले जुठियाई |
रोवेले तिरिया झनक के, नैना ढरे हो बहु लोर   |
हमरा सुरुजमल के अर्घिया ,बालक दिहले जुठियाई |              

  पुत्र प्राप्ति के लिए भी सूर्य पूजन का विधान भोजपुरी लोक गीतों में मिलता है | जैसे :-                
   
    फाड़ बान्हि नेहू तिल चाउर, हथवा गेडउ पानी हो |
    भउजी अंगना में आदित्य मनाव,होरिला होई हेंन  हो |
    .....................................................
    आदित्य मनावही ना पवली, सुरुज गोड़ लगेली हो |
    भुइया गिरेले नन्दलाल , महल उठे सोहर हो .......|

               वस्तुतः सूर्य हम में, सभी प्राणियो में, वनस्पतियों  में जीवन का संचार करता है और आदि काल से सूर्य रश्मियाँ जीवन को संचालित करती आ रही है| ऐसे जीवन दाता के रूप में किसी दैविक शक्ति के प्रतीक रूप की कल्पना यदि  की गई है तो यह सर्वथा समाचीन है| यही नहीं सूर्य के अतिरिक्त अन्य देवी, देवताओं का भी वर्णन संस्कार गीतों में आया है| 
    
             यदि हम प्रकृति की सत्ता को स्वीकार करते हैं और वह सत्ता अगर किसी एक शक्ति द्वारा संचालित होती है तो उस शक्ति का वर्णन भी संस्कार गीतों में 'देवी' रूप में मिलता है  |
  
      निमिया के  डाढ मइया लावेली हिंडोलवा की झूली-झूली ना ,
     मइया मोरी गावेली गितिया की  झूली-झूली ना ................२ 
    .................................................................
    मल्होरिया अवासवा की चली भइली ना  

             इस गीत में शक्ति की प्रतीक शीतला माता नीम की डाल पर झूला झूल रही है और झूलते-झूलते उन्हें प्यास लगती है तो वह मालिन के घर जाती हैं| प्रश्न यह उठता है कि देवी माँ मालिन के घर ही क्यों जाती हैं अन्यत्र क्यों नहीं? माली के घर पुष्प-पौधों की अधिकता होती है, अनेक तरह के पुष्पों की सुगंध से उसका आंगन भरा होता है| माता स्वयं प्रकृति का ही रूप हैं| इसलिए उन्हें प्राकृतिक सौन्दर्य की जगह जाना अच्छा लगता है| इसलिए इस गीत में न केवल शक्ति की आराधना की बात है बल्कि यह भी स्पष्ट है कि हमें पेड़-पौधों को लगाकर उनका संरक्षण करना चाहिए| तभी देवी प्रसन्न होंगी| वायु में भी दैवीय शक्ति की कल्पना की गयी है, क्योंकि वायु ही प्राण बन कर शरीर में वास करती है| वायु-पूजन का वर्णन भी संस्कार गीतों में मिलता है|   

     निमिया के छाह करुवैनी , शीतल बतास बहे ए |
     ए बतासवा  में माई जी  बइठली,   एही से पूरा उजियार हे ......|

             भगवान शिव को प्रकृति का रक्षक माना जाता है|सभी विषैले जीव-जन्तु उनके गण हैं| भगवान शिव उनकी रक्षा करते हैं, माँ गंगा को अपनी जटा में धारण करते हैं| भारतीय संस्कृति में जल को भी देवता माना गया है, ताकि जल स्रोतों को देवता मानकर हम उनकी रक्षा करें और जल को प्रदूषित न करें| नदियों को जीवनदायिनी भी कहा गया है| हमारी पुरातन संस्कृति में नदियों, तालाबों और पोखरों में मल-मूत्र बिसर्जन की कल्पना भी नहीं की जा सकती अपितु नदियों को माता मानकर उनकी पूजा की परम्परा कायम रही है, जिसकी झलक भोजपुरी संस्कार गीतों में मिलती है|

   गंगा त हइ हमार माई , हम उनकर बेतवा नदान |
   हमार माई आपन लहर सिकोर , हम जेब ओही हो पार |
   गंगा माई हमके पुतवा  जे देइहन, शिर नवैब बार-बार   |
  बबुवा के .........................................भुत होई उपकार | 

               माता गंगा पर अनेक लोकगीत भोजपुरी में मिलते हैं| भोजपुरी संस्कार गीतों में कुआँ खुदवाने का भी वर्णन मिलता है| 

    अंगना में कुअवा खनावल पियर माटी हो |
    अहो माई रे जगावहु सब देवता लोग ,
               रउरा घरे ललना भाईले हो ...................|        

               पोखरों एवं तालाबों का वर्णन भोजपुरी संस्कार गीतों में प्रचुरता से हुआ है| सरोवर को घर का बुनियाद माना गया है| सरोवर को दामाद दहेज के रूप में मांगता है और सरोवर न मिलने पर रूठ जाता है| बेटी भी अपने पिता से कहती है कि जब इतना धन-दौलत, गाय आदि आप दहेज में दे रहे हैं तो एक सरोवर में क्या रखा है? बेटी का पिता यह सुनकर कहता है 'बेटी! सरोवर हमारी बुनियाद है|' फिर बेटी के आग्रह पर पिता कुछ हिदायतों के साथ सरोवर भी दे देता है| तात्पर्य यह है कि सरोवर के प्रति लोगों का कितना लगाव है| सरोवर जल का एक स्थाई स्रोत होता है, इसलिए इसके प्रति सबकी चाह होती है -  
 
एकली आगिन , एकली गाभिन , एकली दिहली किलोर जी |
अतना दहेज हम बेटी के देहली , सरवर लागी रुसले दमाद जी ||
सभा अलोते होई बेटी अरज करे बाबा से , सुन बाबा अरज हमार जी |
अतना दहेज बाबा बेटी के दिहल , सरवर कवन बुनियाद जी   ||
सरवर - सरवर जनि कर बेटी , सरवर कवन मोर बुनियाद जी |
ओही सरवर बेटी चकवा - चकइया , गइया पियेले जुड़ पानी जी ||
 --------------------------------------------------------------
दह जनि लनघिय , पुरइन जनि धंगीयह , बिरइन  जनि उठ्वास जी |
एकही घटवे नहइय ए बेटी , अररा सुखइय लागी केस जी ||

                इन लोकगीतों को पढ़ने पर पता चलता है की कैसी समझ भोजपुरी संस्कार गीतों में छिपी हुई है| भोजपुरी संस्कार गीतों में वृक्ष की महत्ता का भी वर्णन है|

           निमिया के दाढ़ मइया लावेली---------------|
           
               भोजपुरी संस्कार गीतों में इस बात का भी चिंतन किया गया है कि जब तक कोई फूल पूर्णतः विकसित न हो तब तक उसे तोडना नही चाहिए|
  
         बनवा में फुले ला ब्येलिया  त मन रीति भावन रे  |
         मालिन जे हाथ पसरे ली की, कब फुलवा लोड्हब हे||
         धीर धरु  हे मालिन , धीर धरु हो, अभी त कोढ़ी फूल हे |
         जब फूल होइहे कचनार त फूल तू लोध लिय हो |            

                                                       
                                                                              समाप्त

ग़ज़लें: प्राण शर्मा

ग़ज़लें

 प्राण शर्मा 

प्राण शर्मा
जन्म : १३ जून १९३७ को वजीराबाद (अब पाकिस्तान) में।
शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय से एम ए बी एड
कार्यक्षेत्र :
प्राण शर्मा जी १९६५ से लंदन-प्रवास कर रहे हैं। वे यू.के. के लोकप्रिय शायर और लेखक है। यू.के. से निकलने वाली हिन्दी की एकमात्र पत्रिका 'पुरवाई' में गज़ल के विषय में आपने महत्वपूर्ण लेख लिखे हैं। आपने लंदन में पनपे नए शायरों को कलम माजने की कला सिखाई है। आपकी रचनाएँ युवा अवस्था से ही पंजाब के दैनिक पत्र, 'वीर अर्जुन' एवं 'हिन्दी मिलाप' में प्रकाशित होती रही हैं। वे देश-विदेश के कवि सम्मेलनों, मुशायरों तथा आकाशवाणी कार्यक्रमों में भी भाग ले चुके हैं। वे अपने लेखन के लिये अनेक पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं तथा उनकी लेखनी आज भी निरंतर चल रही है।
प्रकाशित रचनाएँ :'सुराही' (कविता संग्रह)

 
(1)

सोच की भट्टी में सौ-सौ बार दहता है
तब कहीं जाकर कोई इक शेर कहता है
हर किसी में होता है नफ़रत का पागलपन
कौन है जो इस बला से दूर रहता है
बात का तेरी करे विश्वास क्यों कोई
तू कभी कुछ और कभी कुछ और कहता है
टूट जाता है किसी बच्चे का दिल अक्सर
ताश के पत्तों का घर जिस पल भी ढहता है
यूँ तो सुनता है सभी की बातें वो लेकिन
अच्छा करता है जो अक्सर मौन रहता है
हाय री मजबूरियाँ उसकी गरीबी की
वो अमीरों की जली हर बात सहता है
धूप से तपते हुए ए `प्राण`मौसम में
सूख जाता है समंदर कौन कहता है

 
(2)

हर चलन तेरा कि जैसे राज़ ही है
ज़िन्दगी तू ज़िन्दगी या अजनबी है
कुछ न कुछ तो हाथ है तकदीर का भी
आदमी की कब सदा अपनी चली है
टूटते रिश्ते, बदलती फ़ितरतें हैं
क्या करे कोई, हवा ऐसी चली है
क्यों न हो अलगाव अब हमसे तुम्हारा
दुश्मनों की चाल तुम पर चल गयी है
आदमी दुश्मन है माना आदमी का
आदमी का दोस्त फिर भी आदमी है
कुछ तो अच्छा भी दिखे उसको किसीमें
आँख वो क्या जो बुरा ही देखती है
`प्राण` औरों की कभी सुनता नहीं वो
सिर्फ़ अपनी कहता है मुश्किल यही है

 
(3)

मेरे दुखों में मुझ पे ये एहसान कर गये
कुछ लोग मशवरों से मेरी झोली भर गये
पुरवाइयों में कुछ इधर और कुछ उधर गये
पेड़ों से टूट कर कई पत्ते बिखर गये
वो प्यार के ए दोस्त उजाले किधर गये
हर ओर नफरतों के अँधेरे पसर गये
अपनों घरों को जाने के काबिल नहीं थे जो
मैं सोचता हूँ कैसे वो औरों के घर गये
हर बार उनका शक़ की निगाहों से देखना
इक ये भी वज़ह थी कि वो दिलसे उतर गये
तारीफ़ उनकी कीजिये औरों के वास्ते
जो लोग चुपके - चुपके सभी काम कर गये
यूँ तो किसी भी बात का डर था नहीं हमें
डरने लगे तो अपने ही साये से डर गये

 
(4)

तुझसे दिल में रोशनी है
ए खुशी तू शमा सी है
आपकी संगत है प्यारी
गोया गुड़ की चाशनी है
बारिशों की नेमतें हैं
सूखी नदिया भी बही है
मिट्टी के घर हों सलामत
कब से बारिश हो रही है
नाज़ क्योंकर हो किसीको
कुछ न कुछ सबमें कमी है
कौन अब ढूँढे किसी को
गुमशुदा हर आदमी है
बाँट दे खुशियाँ खुदाया
तुझको कोई क्या कमी है
***
आभार:  आखर कलश 

कविता: प्रश्न -- एस. एन. शर्मा 'कमल'

कविता:
प्रश्न
 एस. एन. शर्मा 'कमल'
                           

तब तुम क्या करोगे
आकाश में मेघों का
बिछौना बिछाकर
जब मैं सो जाऊँगा
तब तुम क्या करोगे

मेघ तो बरसेंगे ही
उफनती नदी पर भी
बहा ले जायेगी हमें
महासागर के तल पर 
लहरों में कहीं दबा देगी
तब तुम क्या करोगे

सागर-जल बनेगा बादल
चल पड़ेगा हमें ले कर
तुम्हारे आँगन की ओर
बरस जायेगा वहाँ पर
कविता बिछ जायेगी 
एक धुन  बस जायेगी  
तब तुम क्या करोगे

बटोर कर  फेंक दोगे  
बाहर कूड़े में कहीं तुम  
मेरा बीज अंकुरित हो
एक विटप बन जाएगा    
कविता के पात होंगे  
गीतों की गंध होगी
गुजरोगे उधर से जब  
तब तुम क्या करोगे
घड़ी  भर ठहर जाना       
पातों के बजते गीत
हवा में लय की सुगंध
बरबस कदम रोकेगी
स्मृतियों की गांठें जब 
एक एक खुलने लगेंगी     
 
तब तुम क्या करोगे
        
एक आँसू गिरा देना 
मीत मेरे गाये गीत                   
मन में गुनगुना लेना  
तृप्त हो जाऊँगा मैं  
और तुम चल पड़ोगे  
तब तुम क्या करोगे
 
******************
sn Sharma <ahutee@gmail.com>

गीत : आज मंदिर को... राकेश खंडेलवाल / एस. एन. शर्मा 'कमल'

रचना - प्रति रचना 

गीत :

आज मंदिर को...


राकेश खंडेलवाल 

आज मंदिर को गये हैं छोड़ कर उसके पुजारी
दूसरी इक मूर्ति से निष्ठायें अपनी जोड़ते हैं
किन्तु हमने एक ही आराध्य को माना हमेशा
आज भी उसके चरण में नारियल ला फ़ोड़ते हैं
एक प्रतिमा संगामरमर की लगा नव आलयों में
थालियाँ नूतन सजा कर गा रहे हैं आरती नव
किन्तु शायद ये विदित उनको नहीं हो पा रहा है
छोड़ कर अपने निलय को देव विस्थापित हुआ कब
प्राण तो पाषाण में रहते सदा ही ओ पुजारी
खोल कर अपने नयन तू झाँकता तो देख पाता
शिव जटाओं की  तरह उलझी हुई पगडंडियों में
एक भागीरथ सहज भागीरथी को ढूँढ़ पाता
बात तो नूतन नहीं, इतिहास भी बतला गया है
एक को साधे सधै सब, साधिये सब शून्य मिलता
पंथ हर इक मोड़ पर बदले हुये चलते पथिक को
है नहीं संभव मिले उसको कभी वांछित सफ़लता
********

<rakesh518@yahoo.com>

प्रति रचना: 

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एस. एन. शर्मा 'कमल'

     देवता जब प्राण खो पाषाण बन जाएँ
  पुजारी क्या करे
  पंख ही जब काट दे सैय्याद नभचर के
  गगनचारी क्या करे
  खो जाए सुरसरि शिव-जटा पगडंडियों में जब
  त्रस्त भागीरथ क्या करे
  पंथ पर दीवार उठ जाए अगर अन्याय की
  सहमा पथिक भी क्या करे
  इतिहास के पन्ने रंगे हो वरिष्ठों के रुधिर से
  न्याय की हो विफलता
  दुष्ट को प्रश्रय मिले जिस ठौर पर ही सर्वदा 
  संभव कहाँ फिर सफलता
  भागीरथ की तपस्या जब व्याध के विष-बाण से 
  विद्ध हो अभिशप्त बन जाये
  सम्बन्धियों की आत्माएं भटकती रह जाएंगी
  वहाँ पर बिन मुक्ति पाए  
*************************************** 

सोमवार, 20 अगस्त 2012

चित्र पर कविता: ६ पद-चिन्ह मुक्तिका : छोड़ दो पद चिन्ह संजीव 'सलिल'

चित्र पर कविता: ६
पद-चिन्ह

इस स्तम्भ की अभूतपूर्व सफलता के लिये आप सबको बहुत-बहुत बधाई. एक से बढ़कर एक रचनाएँ अब तक प्रकाशित चित्रों में अन्तर्निहित भाव सौन्दर्य के विविध अयामोमं को हम तक तक पहुँचाने में सफल रहीं. संभवतः हममें से कोई भी किसी चित्र के उतने पहलुओं पर नहीं लिख पाता जितने पहलुओं पर हमने रचनाएँ पढ़ीं. 

चित्र और कविता की प्रथम कड़ी में शेर-शेरनी संवाद, कड़ी २ में पर्थ दही मिर्च-कॉफी,
कड़ी ३ में दिल -दौलत, चित्र ४ में रमणीक प्राकृतिक दृश्य, चित्र ५ हिरनी की बिल्ली शिशु पर ममता  के पश्चात चित्र ६ में देखिये एक नया चित्र और रच दीजिये एक अनमोल कविता.

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मुक्तिका :

छोड़ दो पद चिन्ह

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 संजीव 'सलिल'

*

छोड़ दो पद चिन्ह अपने, रास्ते बन जायेंगे।
लक्ष्य खुद ही कोशिशों के, गीत गा तर जायेंगे।।
*
मुश्किलों का क्या है? आयीं आज, कल मिट जायेंगी।
स्वेद,  श्रम, तकनीक के ध्वज, गगन में फहरायेंगे।
*
परख कर हमको कसौटी, सराहेगी भाग्य निज।
हैं खरे सोने, परीक्षाओं से क्यों घबरायेंगे?
*
हौसलों की कसम हमको, फासलों को जीतकर-
हासिलों के हाशिये पर, फासले कर जायेंगे।
*
पाँव के छाले न काँटों से, मिलेंगे ईद गर-
किस तरह ईदी सफलता की, 'सलिल' घर लायेंगे?
*
***********
2.

:) मंजु महिमा भटनागर 
 

सिलसिले कदमों के कुछ इस तरह चलते रहें,
बढ़ते रहे चरण निरंतर ,पीछे निशां बनाते रहें ||
...........

'तुलसी क्यारे सी हिन्दी को,
           हर आँगन में रोपना है.
यह वह पौधा है जिसे हमें,
           नई  पीढ़ी को सौंपना है. '
                                  ---मंजु महिमा
manjumahimab8@gmail.com सम्पर्क-+91 9925220177
******
चित्र ६ पर कविता 
इंदिरा प्रताप  
एक तपस्वी छोड़ सुखों के राजमहल को ,
चला गया था दूर कहीं एकाकी वन में ,
गहन अँधेरे |
धर्म दृष्टि से जो आलोकित ,
चरण अकेले ही बढ़ते हैं |
जो चलते हैं राह धर्म की ,
पीछे कभी नहीं मुड़ते हैं |
चमक रहे ये चिह्न अकेले,
शून्य धरा पर |
मुझे लगा ये बोल रहे हैं ,
शून्यवाद की करके व्याक्खा
कानों में अमृत घोल रहे हैं |
कहते है ये चरण चिह्न अब ,
बुद्धं शरणम् गच्छामि,
संघं शरणम् गच्छामि,
धर्मं शरणम् गच्छामि |
*
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in>
Always say thanks to GOD because he knows our needs better than us before we say.......


*

sn Sharma का प्रोफ़ाइल फ़ोटो
एस. एन. शर्मा 'कमल'




  आ० आचार्य जी द्वारा प्रस्तुत चित्र छः पर कविता -
ani_105.gif (2070 bytes)

                     पद-चिन्ह

ढूंढता हूँ पद-चिन्ह वे
कदम की छैंया तले
यमुना किनारे 
शरद-पूर्णिमा की
महारास लीला में
पड़े थे जो तुम्हारे

वे पदचिन्ह जो
कुरुक्षेत्र के महाभारत में
रथ छोड़ भूमि पर 
घुटने टेके पार्थ को
तुमने खड़े खड़े
गीता में उतारे

वे पदचिन्ह जो
ग्राह-ग्रस्त गज की
रक्षा के लिये
सुदर्शन-चक्र ले कर दौड़े
बनाए तुमने
जलाशय के किनारे

वे चरण-चिन्ह जो
क्षत-विक्षत मरणासन्न
जटायू की पीड़ा-हरण को
उसे उठाने में
ह्रदय से लगाने में
वन-भूमि पर पड़े थे 

वे पद-चिन्ह जो
शबरी के  जूठे बेर खाने
उसके आँगन में जाने पर अड़े  थे

वे पद-चिन्ह जो
अंगद ने
रावण के दरबार में
ललकार  कर जड़े  थे
   
वे पद-चिन्ह जो
ध्रतराष्ट्र की द्यूत-सभा में
पांचाली के चीर-हरण पर
उसके स्मरण पर
दुःशासन के दस हज़ार गज-बल को
पराजित करने हेतु 
अदृश्य रह धरे थे

ढूँढ़ता हूँ कि
आज भी कुशासन दुःशासन का
जनता का चीर-हरण कर रहा
भ्रष्टाचारी शासन प्रशासन
स्वार्थी सत्ता-सिंहासन
अन्याय का वरण कर रहा 
धर्म की ग्लानि का पारा चढ़  रहा 
" तदात्मानं सृजाम्यहम "
का आश्वासन कहाँ अटक रहा

ढूंढ़ता  हूँ
वे श्यामल गौर चरण-चिन्ह                                   
कब किस वेष में
पड़ेंगे इस देश में
तुम्हारी प्रतिछाया  की
वही गन्ध ढूँढ़ता  हूँ


sn Sharma  द्वारा yahoogroups.com
*

*

इंदिरा प्रताप 
एक तपस्वी 
छोड़ सुखों के राजमहल को,
चला गया था 
दूर कहीं एकाकी वन में,
गहन अँधेरे|
धर्म दृष्टि से जो आलोकित,
चरण अकेले ही बढ़ते हैं|
जो चलते हैं राह धर्म की,
पीछे कभी नहीं मुड़ते हैं|
चमक रहे ये चिह्न अकेले,
शून्य धरा पर|
मुझे लगा ये बोल रहे हैं,
शून्यवाद की करके व्याख्या
कानों में अमृत घोल रहे हैं|
कहते है ये चरण चिह्न अब,
बुद्धं शरणम् गच्छामि,
संघं शरणम् गच्छामि,
धर्मं शरणम् गच्छामि|
 

Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in>

Always say thanks to GOD because he knows our needs better than us before we say.......
 *
Pranava Bharti का प्रोफ़ाइल फ़ोटो 
प्रणव भारती

       दोराहे से चौराहे तक, कितने नन्हे, लंबे पाँव ,
         कभी धूप में, कभी छाँव में सदा ही चलते पाँव|
       थककर न बैठे हैं, न बैठेंगे कभी ये पाँव,
       जीवन है, चलना ही होगा, यही जानते पाँव|
  
       धूप घनी हो या हो छाया या फिर हों एकाकी,
       थकना नहीं रास आएगा, चाहे मन बैरागी|
       नहीं अमीरी,नहीं गरीबी से बंधते ये पाँव,
       जाति-धर्म को नहीं जानते, हों या न हों त्यागी|

        आसमान को छूने की  कोशिश करते ये पाँव,
        कभी थमककर पल भर को, खोजा करते ठाँव|
        कौन, कहाँ, कैसे पहुंचेगा, सोचा करते पाँव,
        जीवनभर चलना है इनसे, मन-मन भर के पाँव|

         आदम-हव्वा से चलते आये हैं ये ही पाँव,
         मिले विरासत में हम सबको हल्के-भारी पाँव|
         सोच-समझकर रखने में ही सदा भलाई रहती,
         चलो, सभी मिलकर ढूढेंगे ,किस जमीन के पाँव||

  *
प्राण शर्मा
    
चल के अकेला इस दुनिया में करना सब कुछ हासिल साहिब 
मैं  ही  जानूँ  कितना  ज़्यादा  होता  है  ये  मुश्किल साहिब 

मोह  नहीं  जीवन  का  तुझको  मान लिया  है मैंने लेकिन 
दरिया  में  हर  डूबने  वाला  चिल्लाता  है  साहिल  साहिब 

कुछ तो कर महसूस खुशी को कुछ तो कर महसूस तसल्ली 
कुछ तो आये मुख पे रौनक कुछ तो हो दिल झिलमिल साहिब 

सब  की  बातें  सुनने  वाले  अपने  दिल की  बात कभी सुन 
तेरी  खैर  मनाने  वाला  तेरा  अपना  है  दिल  साहिब 

तेरे  -  मेरे   रिश्ते  -  नाते ` प्राण ` भला  क्यों  सारे  टूटें 
माना  ,  तू  मेरे  नाक़ाबिल  मैं  तेरे  नाक़ाबिल   साहिब

prans69@gmail.com 
                        
    








दीप्ति गुप्ता
 नन्हे   डग, लंबी  डगर,
एक  कदम  रखो   तुम
एक   कदम  रखे   हम
हँसते-हँसाते  कट जाए
ज़िंदगी   का  ये  सफर 

deepti gupta  drdeepti25@yahoo.co.in
         

आज का विचार: शाम

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