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मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी) छंद: भारती की आरती --संजीव 'सलिल'

मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी) छंद

संजीव 'सलिल'

भारती की आरती उतारिये 'सलिल' नित, सकल जगत को सतत सिखलाइये.
जनवाणी हिंदी को बनायें जगवाणी हम, भूत अंगरेजी का न शीश पे चढ़ाइये.
बैर ना विरोध किसी बोली से तनिक रखें, पढ़िए हरेक भाषा, मन में बसाइये.
शब्द-ब्रम्ह की सरस साधना करें सफल, छंद गान कर रस-खान बन जाइए.

**************

एक अगीत: बिक रहा ईमान है __संजीव 'सलिल'

एक अगीत:

बिक रहा ईमान है

__संजीव 'सलिल'



कौन कहता है कि...
मंहगाई अधिक है?

बहुत सस्ता

बिक रहा ईमान है.


जहाँ जाओगे

सहज ही देख लोगे.

बिक रहा

बेदाम ही इंसान है.


कहो जनमत का

यहाँ कुछ मोल है?

नहीं, देखो जहाँ

भारी पोल है.


कर रहा है न्याय

अंधा ले तराजू.

व्यवस्था में हर कहीं

बस झोल है.


आँख का आँसू,

हृदय की भावनाएँ.

हौसला अरमान सपने

समर्पण की कामनाएँ.


देश-भक्ति, त्याग को

किस मोल लोगे?

कहो इबादत को

कैसे तौल लोगे?


आँख के आँसू,

हया लज्जा शरम.

मुफ्त बिकते

कहो सच है या भरम?


क्या कभी इससे सस्ते

बिक़े होंगे मूल्य.

बिक रहे हैं

आज जो निर्मूल्य?


मौन हो अर्थात

सहमत बात से हो.

मान लेता हूँ कि

आदम जात से हो.


जात औ' औकात निज

बिकने न देना.

मुनाफाखोरों को

अब टिकने न देना.


भाव जिनके अधिक हैं

उनको घटाओ.

और जो बेभाव हैं

उनको बढाओ.

****************

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

गीत: एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए... --संजीव 'सलिल'

गीत




एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...

*

याद जब आये तुम्हारी, सुरभि-गंधित सुमन-क्यारी.

बने मुझको हौसला दे, क्षुब्ध मन को घोंसला दे.

निराशा में नवाशा की, फसल बोना चाहिए.

एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...

*

हार का अवसाद हरकर, दे उठा उल्लास भरकर.

बाँह थामे दे सहारा, लगे मंजिल ने पुकारा.

कहे- अवसर सुनहरा, मुझको न खोना चाहिए.

एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...

*

उषा की लाली में तुमको, चाय की प्याली में तुमको.

देख पाऊँ, लेख पाऊँ, दुपहरी में रेख पाऊँ.

स्वेद की हर बूँद में, टोना सा होना चाहिए.

एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...

*

साँझ के चुप झुटपुटे में, निशा के तम अटपटे में.

पाऊँ यदि एकांत के पल, सुनूँ तेरा हास कलकल.

याद प्रति पल करूँ पर, किंचित न रोना चाहिए.

एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...

*

जहाँ तुमको सुमिर पाऊँ, मौन रह तव गीत गाऊँ.

आरती सुधि की उतारूँ, ह्रदय से तुमको गुहारूँ.

स्वप्न में देखूं तुम्हें वह नींद सोना चाहिए.

एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...

*

महाकवि कालिदास कृत मेघदूतम् श्लोक ४६ से ५० हिन्दी पद्यानुवाद द्वारा प्रो. सी. बी. श्रीवास्तव "विदग्ध " मो ००९४२५८०६२५२


महाकवि कालिदास कृत मेघदूतम् श्लोक ४६ से ५०
हिन्दी पद्यानुवाद द्वारा प्रो. सी. बी. श्रीवास्तव "विदग्ध " मो ००९४२५८०६२५२


तत्र स्कन्दं नियतवसतिं पुष्पमेघीकृतात्मा
पुष्पासारैः स्नपयतु भवान व्योमगङ्गाजलार्द्रैः
रक्षाहेतोर नवशशिभृता वासवीनां चमूनाम
अत्यादित्यं हुतवहमुखे संभृतं तद धि तेयः॥१.४६॥

जलासेक से तब मुदित, धरणि उच्छवास
मिश्रित पवन रम्य शीतल सुखारी
जिसे शुण्ड से पान करते द्विरद दल
सध्वनि , पालकी ले बढ़ेगा तुम्हारी
तुम्हें देवगिरि पास गमनाभिलाषी
वहन कर पवन मंद गति से चलेगा
कि पा इस तरह सुखद वातावरन को
वहां पर सपदि वन्य गूलर पकेगा

शब्दार्थ ... जलासेक = पानी की फुहार



ज्योतिर्लेखावलयि गलितं यस्य बर्हं भवानी
पुत्रप्रेम्णा कुवलयदलप्रापि कर्णे करोति
धौतापाङ्गं हरशशिरुचा पावकेस तं मयूरं
पश्चाद अद्रिग्रहणगुरुभिर गर्जितैर नर्तयेथाः॥१.४७॥
वहाँ पर स्वयं पुण्य घन व्योम गंगा
सलिल सिक्त तुम पुष्प वर्षा विमल से
नियतवास स्कन्द को देवगिरि पर
प्रथम पूजना मित्र कुछ और चल के
षडानन वही इन्द्र की सैन्य रक्षार्थ
जिनको स्वयं शम्भु ने था बनाया
रवि से प्रभापूर्ण , अति तेज वाले
जिन्होंने अनल मुख से था जन्म पाया


आराद्यैनं शरवणभवं देवम उल्लङ्घिताध्वा
सिद्धद्वन्द्वैर जलकणभयाद वीणिभिर मुक्तमार्गः
व्यालम्बेथाः सुरभितनयालम्भजां मानयिष्यन
स्रोतोमूर्त्या भुवि परिणतां रन्तिदेवस्य कीर्तिम॥१.४८॥
जिसके सुरंजित प्रभारश्मि मण्डित
स्वयं ही गिरे पंख को श्री भवानी
वात्सल्य के वश , कमल दल अलग कर
बना निज लिया धार अवतंस मानी
शिव शशि प्रभा से त्ा धौत जिसके
नयन, षडानन का शिखि वहां पाना
पर्वत गुहा ध्वनित घन गर्जना से
स्वयं की , उसे तुम वहां पर नचाना

शब्दार्थ ... अवतंस = कान का आभूषण



त्वय्य आदातुं जलम अवनते शार्ङ्गिणो वर्णचौरे
तस्याः सिन्धोः पृथुम अपि तनुं दूरभावात प्रवाहम
प्रेक्षिष्यन्ते गगनगतयो नूनम आवर्ज्य दृष्टिर
एकं भुक्तागुणम इव भुवः स्थूलमध्येन्द्रनीलम॥१.४९॥

तब "स्कंद " को अर्घ्य दे देवगिरि पार
करते समय सिध्दगण वीणधारी
वर्षा सलिल भीति से वे युगल पुंज
देंगे तुम्हें मार्ग वनपंथ चारी
सुरभि धेनु की पुत्रियो के सतत मेघ
से बन गई भूमि पर है नदी जो
रुकना उसे मान देने कि रतिदेव की
कीर्ति को .. नदी चर्मण्वती को
शब्दार्थ ... चर्मण्वती = चंबल नदी


ताम उत्तीर्य व्रज परिचितभ्रूलताविभ्रमाणां
पक्ष्मोत्क्षेपाद उपरिविलसत्कृष्णशारप्रभाणाम
कुन्दक्षेपानुगमधुकरश्रीमुषाम आत्मबिम्बं
पात्रीकुर्वन दशपुरवधूनेत्रकौतूहलानाम॥१.५०॥

नदी तीर लेने तुझे आ गये को
स्वयं श्यामघन ! विष्णु के वर्णधारी
बँधी दृष्टि से अचल अपलक नयन से
लखेंगे सभी सिद्धगण व्योमचारी
चर्मण्वती की विपुलधार जो
दूर नभ से दिखेगी सरल क्षीण धारा
उस पर पड़े तुम दिखोगे वहां
ज्यों , धरा के गले में तरल नील माला

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

नवगीत: डर लगता है --संजीव 'सलिल'

नवगीत:


संजीव 'सलिल'

*
डर लगता है

आँख खोलते...

*
कालिख हावी है

उजास पर.

जयी न कोशिश

क्षुधा-प्यास पर.

रुदन हँस रहा

त्रस्त हास पर.

आम प्रताड़ित

मस्त खास पर.

डर लगता है

बोल बोलते.

डर लगता है

आँख खोलते...

*
लूट फूल को

शूल रहा है.

गरल अमिय को

भूल रहा है.

राग- द्वेष का

मूल रहा है.

सर्प दर्प का

झूल रहा है.

डर लगता है

पोल खोलते.

डर लगता है

आँख खोलते...

*
आसमान में

तूफाँ छाया.

कर्कश स्वर में

उल्लू गाया.

मन ने तन को

है भरमाया.

काया का

गायब है साया.

डर लगता है

पंख तोलते.

डर लगता है

आँख खोलते...

*

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

नव गीत: अवध तन,/मन राम हो... संजीव 'सलिल'

नव गीत:

संजीव 'सलिल'

अवध तन,
मन राम हो...
*
आस्था सीता का
संशय का दशानन.
हरण करता है
न तुम चुपचाप हो.
बावरी मस्जिद
सुनहरा मृग- छलावा.
मिटाना इसको कहो
क्यों पाप हो?

उचित छल को जीत
छल से मौन रहना.
उचित करना काम
पर निष्काम हो.
अवध तन,
मन राम हो...
*
दगा के बदले
दगा ने दगा पाई.
बुराई से निबटती
यूँ ही बुराई.
चाहते हो तुम
मगर संभव न ऐसा-
बुराई के हाथ
पिटती हो बुराई.

जब दिखे अंधेर
तब मत देर करना
ढेर करना अनय
कुछ अंजाम हो.
अवध तन,
मन राम हो...
*
किया तुमने वह
लगा जो उचित तुमको.
ढहाया ढाँचा
मिटाया क्रूर भ्रम को.
आज फिर संकोच क्यों?
निर्द्वंद बोलो-
सफल कोशिश करी
हरने दीर्घ तम को.

सजा या ईनाम का
भय-लोभ क्यों हो?
फ़िक्र क्यों अनुकूल कुछ
या वाम हो?
अवध तन,
मन राम हो...
*

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

भजन: सुन लो विनय गजानन -sanjiv 'salil'


भजन:




सुन लो विनय गजानन



संजीव 'सलिल'



जय गणेश विघ्नेश उमासुत, ऋद्धि-सिद्धि के नाथ.

हर बाधा हर शुभ करें, विनत नवाऊँ माथ..

*

सुन लो विनय गजानन मोरी

सुन लो विनय गजानन.

करो कृपा हो देश हमारा

सुरभित नंदन कानन....

*

करो कृपा आया हूँ देवा, स्वीकारो शत वंदन.

भावों की अंजलि अर्पित है, श्रृद्धा-निष्ठा चंदन..

जनवाणी-हिंदी जगवाणी

हो, वर दो मनभावन.

करो कृपा हो देश हमारा

सुरभित नंदन कानन....

*

नेह नर्मदा में अवगाहन, कर हम भारतवासी.

सफल साधन कर पायें,वर दो हे घट-घटवासी!

भारत माता का हर घर हो,

शिवसुत! तीरथ पावन.

करो कृपा हो देश हमारा

सुरभित नंदन कानन....

*

प्रकृति-पुत्र बनकर हम मानव, सबकी खुशी मनायें.

पर्यावरण प्रदूषण हरकर, भू पर स्वर्ग बसायें.

रहे 'सलिल' के मन में प्रभुवर

श्री गणेश तव आसन.

करो कृपा हो देश हमारा

सुरभित नंदन कानन....

*

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

भिलाई में मिले चिट्ठाकार


ब्लागर बैठक : भिलाई  (आभार: राजतन्त्र)



   संजीव तिवारी, बीएस पाबला, राजकुमार ग्वालानी, ललित शर्मा, शरद कोकास, और सूर्यकांत गुप्ता

भिलाई में छत्तीसगढ़ के ब्लागरों की एक आकस्मिक चिंतन बैठक हुई। आठ घंटे से ज्यादा समय तक चली इस लंबी मैराथन बैठक में कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर लंबी चर्चा हुई। 12 बजे शरद कोकास के निवास में प्रारंभ हुई यह बैठक रात 8 बजे तक चली। इस बैठक में करीब एक दर्जन ब्लागर शामिल हुए लेकिन जिन मुद्दों पर चर्चा चली उन मुद्दों पर देश के साथ विदेशी ब्लागरों से भी चर्चा कर सहमति ले ली गई है कि  जल्द ही दिग्गज ब्लागर एक नई चिट्ठा चर्चा प्रारंभ करने वाले हैं। इस चर्चा में देशी ब्लागर के साथ कुछ विदेशी ब्लागर भी शामिल होंगे। कुछ नाम चौकाने वाले होंगे। ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा। यहां चर्चा साफ-सुधरी और स्वस्थ मानसिकता वाली होगी। वैसे आप चाहें तो कयास लगा सकते हैं कि कौन-कौन दिग्गज ब्लागर चर्चा करने वालों में शामिल हो सकते हैं।





बीएस पाबला, शरद कोकास, संजीव तिवारी,ललित शर्मा, राजकुमार ग्वालानी, और सूर्यकांत गुप्ता

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मुंबई ब्लॉगर मीट - रपट विवेक रस्तोगी

मुंबई ब्लॉगर मीट - रपट     


Vivek Rastogi   rastogi.v@gmail.com 



प्रकृति के आंचल में ६ दिसंबर २००९ को मुंबई में हिन्दी ब्लॉगर मिलन आयोजित हुआ जिसमें १५ ब्लॉगर्स ने भाग लिया। इस ब्लॉगर मीट का उद्देश्य एक दूसरे से परिचय था जिससे सब ब्लॉगर्स एक दूसरे से जुड़ें । सबने अपना अपना परिचय दिया, ब्लॉग जगत में कैसे आये और ब्लॉग पर क्या लिख रहे हैं और क्यों लिख रहे हैं इस पर चर्चा हुई। हिन्दी के पाठक हैं और उनमें जागृति फ़ैलायी जाये क्योंकि अभी तक बहुत से लोग जानते ही नहीं हैं कि ब्लॉग क्या होता है और हिन्दी में भी कम्प्य़ूटर पर लिखा जा सकता है। सभी ब्लॉगर्स अपने आसपास ये जागृति फ़ैलायें, और ज्यादा से ज्यादा हिन्दी ब्लॉग लिखने के लिये प्रेरित करें।

अगली मीट के लिये कोई विशेष रुपरेखा तय नहीं की गई परंतु इस बात पर जोर दिया गया कि नियमित अंतराल के बाद मुंबई में ब्लॉगर्स मीट आयोजित होना चाहिये। मुंबई भारत की आर्थिक राजधानी है इसे शाब्दिक राजधानी भी होना चाहिये,  भविष्य में अगर जरुरत महसूस होती है तो एक एसोसिएशन बनाया जा सकता है जो निश्चित तौर पर रुपरेखा बनाकर कार्य कर सकती है ।

जैसा कि ब्लॉगर्स मीट के आयोजन के लिये लिखी पोस्ट में लिखा था मैंने २९९ नं. बस के लास्ट स्टॉप से चाल के बीच से जाते हुए रास्ते को चुना और केवल २-३ मिनिट चलने पर सीधे त्रिमूर्ति जैन मंदिर जा पहुंचा।

चाल से निकलते हुए देखा कि कई घरों के सामने महिलाएँ बैठकर पापड़ की लोईयां बना रही थीं, कुछ घरों में पापड़ बिले जा रहे थे और लगभग सभी घरों के आगे बड़ी टोकरी उल्टी करके उस पर पापड़ सुखाये जा रहे थे सभी एक ही साईज के पापड़ और लगभग एक ही मोटाई के देखने से ही महसूस होता था। शायद लिज्जत पापड़ वाले वहाँ से ले जाते होंगे। गृहस्थी के बीच उन महिलाओं की पापड़ के लिये मेहनत, बहुत जीवट का काम है। उन्हें क्या पता कि ये ब्लॉगर मीट क्या है और एक ब्लॉगर उनके इस पापड़ कर्म को अपने ब्लॉग पर छाप देगा। हम फ़ोटो नहीं खींच पाये क्योंकि मुंबई की किसी भी अनजानी चाल में मतलब जहाँ आपको कोई नहीं जानता हो ये दुस्साहस जैसा है। भले ही ये लोग वहाँ शेरों के बीच रहते हैं परंतु आदमी से डरते हैं।


हम अपने साथ लिये हुए थे नाश्ते का सामान बिस्किट्स, चिप्स और रसगुल्ले  जो कि भली-भांति कवर किया हुआ था तथा साथ ही सभी ब्लॉगरों के स्वागत के लिये गुलाब के फ़ूल।

सबसे पहले मैं पहुँचा और बाहर ही बैठकर अपने ब्लॉगर बंधुओं का इंतजार करने लगा। सबसे पहले पहुँचे सतीश पंचम जी, फ़िर आये आलोक नंदन जी, तभी अविनाश वाचस्पति जी का फ़ोन आया कि हम १०-१५ मिनिट में पहुंचने वाले हैं, अविनाश वाचस्पति जी सूरजप्रकाश जी के साथ उनकी कार में पहुंचे, फ़िर तो धीरे धीरे सभी ब्लॉगर्स आने लगे।

इधर रुपेश श्रीवास्तव जी, फ़रहीन के साथ पनवेल से निकल चुके थे चूँकि रविवार को हार्बर लाईन पर मेगाब्लॉक होता है, तो हमने उनसे कहा कि वाशी डिपो से सीधे बस सेवा उपलब्ध है, और वे वहाँ से सानपाड़ा तक आ गये और बस स्टॉप पर बस का इंतजार करते हुए फ़ोन आया कि हमें पहुंचने में बिलंब होगा पर आप हमारा इंतजार करियेगा, हमसे मिले बिना नहीं जाईयेगा, हमें उनकी मिलने की इच्छा शक्ति बहुत अच्छी लगी। महावीर बी सेमलानी जी भी तब तक नाश्ता लेकर आ चुके थे।


 

महावीर बी. सेमलानी जी का स्वागत करते हुए विवेक रस्तोगी

मुलाकात का दौर शुरु हुआ परिचय के साथ, सबसे पहले परिचय सूरजप्रकाश जी ने दिया। वे अपना परिचय पहले ही करवा चुके थे एक अनूठे तरीके से, उन्होंने अपना परिचय का ब्रोशर सबको दे दिया जिसमें उन्होंने अपने साहित्यिक और ब्लॉगर जीवन में हुई उपलब्धियों को बताया है। और उन्होंने बताया कि वे अब तक लगभग ९०० लोगों को ब्लॉग लेखन के लिये प्रेरित कर चुके हैं। पाठकों के ऊपर उनका कहना है कि उन्होंने चार्ली चैपलिन नामक किताब का हिन्दी अनुवाद किया तो उसकी ५०० प्रतियां भी नहीं बिकीं पर जैसे वह प्रति ब्लॉग के माध्यम से रचनाकार पर उपलब्ध करवाई गई लगभग ६००० लोगों ने वहाँ से डाउनलोड की है, ब्लॉग के माध्यम से लेखक पूरी दुनिया से जुड़ चुका है और पाठकों की त्वरित प्रतिक्रिया भी मिल जाती है। वहीं उन्होंने प्रोज़.कॉम के बारे में भी बताया कि वहाँ ब्लॉगर ट्रांसलेटर की सेवाएँ दे सकते हैं। और बताया कि २५० से ज्यादा भाषाएँ अब  यूनिकोड में उपलब्ध हैं जो कि इंटरनेट पर भाषायी क्रांति है।

                               

                                               अविनाश वाचस्पति जी और सूरजप्रकाश जी

विमल वर्मा जी ने अपना परिचय दिया और बताया कि वे ठुमरी ब्लॉग लिखते हैं और अपने मनपसंद के गाने वहाँ अपने पाठकों को सुनवाते हैं।



विवेक रस्तोगी, अजय कुमार जी, शशि सिंह जी और महावीर बी. सेमलानी जी

अजय कुमार जी ने बताया कि उन्हें ब्लॉगजगत में विमल वर्मा जी लेकर आये और वे गठरी नाम का ब्लॉग चलाते हैं। उन्हें ब्लॉग जगत के बारे में जानकर बहुत ही अच्छा लगा और वे इसी सितंबर से ब्लॉग जगत में आये हैं।
 


विमल वर्मा जी और अजय कुमार जी

शमा जी ने अपना परिचय दिया और बताया कि वे अकेली लगभग १६ ब्लॉगों की मालकिन हैं और सामुदायिक ब्लॉग अलग। जिनमें कुछ हैं बागवानी, संस्मरण, गृहसज्जा, धरोहर, एक सवाल तुम करो…। शमा जी ब्लॉगर से मिलने के लिये मुंबई में रुकी हुई थीं, उनका शुक्रवार दोपहर को फ़ोन आया था कि वे भी इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहती हैं। सभी ब्लॉगर्स को यह जानकर प्रसन्नता हुई के वे पूना की ब्लॉगर हैं ।



सहभागी चिट्ठाकार



रश्मि रविजा जी ने अपना परिचय दिया और बताया कि वे भी ब्लॉग जगत में अभी सितंबर से ही हैं और अपना ब्लॉग मन का पाखी के नाम से लिख रही हैं।
 
फ़िर मैंने अपना परिचय दिया कि मेरा उपनाम कल्पतरु अपने कालेज के जमाने में रखा था अब इसी नाम से ब्लॉग लिख रहा हूँ और तब कविता लिखने का बहुत शौक था, चूँकि शुरु से ही हिन्दी और संस्कृत साहित्य से लगाव है, व आई.टी. में होने के कारण शुरु से ही हिन्दी कम्प्यूटर पर लिखने की रुचि रही, पहले डोस पर अक्षर में लिखते थे, फ़िर कृतिदेव फ़ोंट में और बहुत सारी टेक्नालाजी जो तेजी से बदलती रही अब यूनिकोड में लेखन जारी है। चिंता यह है कि सभी केवल साहित्य और अपने बारे में लिख रहे हैं, पर ब्लॉगर अपने जिस कार्य में विशिष्ट हैं और दुनिया उसके बारे में नहीं जानती है, ऐसे जानकारीपरक ब्लॉगों की बहुत कमी है, मैंने एक ब्लॉग बनाया था बैंकज्ञान, उस पर बहुत कम पाठक संख्या के चलते लिखने में रुचि नहीं बनी। इसी तरह से सभी लोग अपने अपने पेशे से संबंधित कुछ सार्थक लेख लिखें तो यह निश्चित ही शिक्षा का साधन भी बनेगा।

रविवार, 6 दिसंबर 2009

आलेख: मैं अयोध्या हूँ --चण्डीदत्त शुक्ल

बावरी ढांचा ध्वंस दिवस : ६ दिसंबर पर विशेष आलेख

...मैं अयोध्या हूँ!


 --चण्डीदत्त शुक्ल, स्क्रिप्ट राइटर फोकस टीवी  


मैं अयोध्या हूँ ...। राजा राम की राजधानी अयोध्या...। यहीं राम के पिता दशरथ ने राज किया...यहीं सीता जी राजा जनक के घर से विदा होकर आईं। यहीं श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ...। यहीं बहती है सरयू.... लेकिन अब नदी की मस्ती भी कुछ बदल-सी गई है...। कहाँ तो कल तक वो कल-कल कर बहती थी- और आज, जैसे धारा भी सहमी-सहमी है...धीरे-धीरे बहती है। पता नहीं, किस कदर सरयू प्रदूषित हो गई है...कुछ तो कूड़े-कचरे से और उससे भी कहीं ज्यादा...सियासत की गंदगी से। सच कहती हूँ... आज से सत्रह साल पहले मेरा, अयोध्या का कुछ लोगों ने दिल छलनी कर दिया...वो मेरी मिट्टी में अपने-अपने हिस्से का खुदा तलाश करने आए थे...।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ था...सैकड़ों साल से मज़हबों के नाम पर कभी हिंदुओं के नेता आते हैं, तो कभी मुसलमानों के अगुआ आ धमकते हैं...वो ज़ोश से भरी तक़रीरे देते हैं...अपने-अपने लोगों को भड़काते हैं और फिर सब मिलकर मेरे सीने पर घाव बना जाते हैं...। कभी हर-हर महादेव की गूँज होती है, तो कभी अल्ला-हो-अकबर...की आवाज़ें आती हैं....

लेकिन ये आवाज़ें, नारा-ए-तकबीर जैसे नारे अपने ईश्वर को याद करने के लिए लगाए जाते हैं...। पता नहीं...ये तो ऊँची-ऊँची आवाज़ों में भगवान को याद करने वाले जानें, लेकिन मैंने, अयोध्या ने तो देखा है... अक्सर भगवान का नाम पुकारते हुए तमाम लोगों ने खून की होलियाँ खेली...और हमारे लोगों के घरों से मोहब्बत लूट ले गए...। जिन गलियों में रामधुन होती थी...जहाँ ईद की सेवइयाँ खाने हर घर से लोग जमा होते थे...वहाँ अब सन्नाटा पसरा रहता है...वहाँ नफ़रतों का कारोबार होता है। किसी को मंदिर मिला, किसी को मसज़िद मिली...हमारे पास थी मोहब्बत की दौलत, घर को लौटे, तो तिज़ोरी खाली मिली...।

छह दिसंबर, 1992 को अयोध्या में जो कुछ हुआ...हो गया...पर वो सारा मंज़र अब तक याद आता है...और जब याद आता है, तो थर्रा देता है...। धर्म के नाम पर जो लोग लड़े-भिड़े, उनकी छातियाँ चौड़ी हो जाती हैं...कोई शौर्य दिवस मनाता है, कोई कलंक दिवस, लेकिन अयोध्या के आम लोगों से पूछो...वो क्या मनाते हैं?...क्या सोचते हैं?...बाकी मुल्क के बाशिंदे क्या जानते हैं?...क्या चाहते हैं...? वो तो आज से सत्रह साल पहले का छह दिसंबर याद भी नहीं करना चाहते, जब एक विवादित ढाँचे  को कुछ लोगों ने धराशायी कर दिया था।

हिंदुओं का विश्वास है कि विवादित स्थल पर रामलला का मंदिर था...। वहाँ पर बनेगा तो राम का मंदिर ही बनेगा...। मुसलिमों को यकीन है कि वहाँ मसज़िद थी... जिन्हें दंगे करने थे, उन्होंने घर जलाए...जिन्हें लूटना था, वो सड़कों पर हथियार लेकर दौड़े चले आए...नफरतों का कारोबार उन्होंने किया...और बदनाम हो गई अयोध्या...मैंने क्या बिगाड़ा था किसी का?

मेरी गलियों में ही बौद्ध और जैन पंथ फला-फूला। पाँच जैन तीर्थंकर यहाँ जन्मे...इनके मंदिर भी तो बने हैं यहाँ. वो लोग भला क्यों नहीं झगड़ते। नहीं...मैं नहीं चाहती...कि वो भी अपने मज़हब के नाम पर लड़ाइयाँ लड़ें...लेकिन मंदिर और मसजिद के नाम पर तो कितनी बड़ी लड़ाई छिड़ गई है।

आज...रात के इस पहर...जैसे फिर वो मंज़र आँख के सामने उभर आया है...एक माँ  के सीने में दबे जख्म हरे हो गए हैं...कल फिर सारे मुल्क में लोग अयोध्या का नाम लेंगे...कहेंगे..इसी जगह मज़हब के नाम पर नफ़रत का तमाशा देखने को मिला था।

हमारे नेता तरह-तरह के बयान देते हैं। मुझे कभी हँसी सी आती है...अपने नेताओं की बात सुनकर...तो कई बार मन करता है...अपना ही सिर धुन लूँ । एक नेता कहती हैं—विवादित स्थल पर कभी मस्जिद नहीं थी...इसीलिए हम चाहते हैं कि वहाँ एक भव्य मंदिर बने। वो इसे जनता के आक्रोश का नाम देती हैं। उमा भारती ने साफ़ कहा है कि वो ढाँचा गिराने को लेकर माफ़ी नहीं मांगेंगी...चाहे उन्हें फाँसी  पर चढ़ा दिया जाए।

सियासतदानों की ज़ुबान के क्या मायने हैं...वही जानें...वही समझें...ना अयोध्या समझ पाती है...ना उसके मासूम बच्चे। राम के मंदिर के सामने टोकरियों में फूल बेचते मुसलमानों के बच्चे नहीं जानते कि दशरथ के बेटे का मज़हब क्या था, ना ही सेवइयों का कारोबार करने वाले हिंदू हलवाइयों को मतलब होता है इस बात से कि बाबर के वशंजों से उन्हें कौन-सा रिश्ता रखना है और कौन-सा नहीं? वो तो बस एक ही संबंध जानते हैं—मोहब्बत का!

खुदा ही इंसाफ़ करेगा उन सियासतदानों का...जो मेरे घर, मेरे आँगन में नफ़रत की फसल बोकर चले गए? मैं देखती हूँ...मेरी बहनें...दिल्ली, पटना, काशी, लखनऊ...सबकी छाती ज़ख्मी है।

एक नेता कहती हैं—जैसे 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद सिखों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैली थी और कत्ल-ए-आम हुए थे, वैसे ही तो छह दिसंबर, 1992 को विवादित ढाँचा गिरा दिया ....अयोध्या में मौजूद कुछ लोग जनविस्फोट को कैसे रोक पाते?

वो बतायें ....सड़कों पर निकले हुए लोग एक-दूसरे को देखकर गले लगाने को क्यों नहीं मचल पड़ते... क्यों नहीं उनके मन में आता...सामने वाले को जादू की झप्पी देनी है...। क्या नफ़रतों के सैलाब ही उमड़ते हैं? बसपा की नेता, उप्र की मुख्यमंत्री मायावती कांग्रेस को दोष देती हैं...कांग्रेस वाले बीजेपी पर आरोप मढ़ते हैं...बाला साहब ठाकरे कहते हैं...1992 में हिंदुत्ववादी ताकतें एक झंडे के तले नहीं आईं...नहीं तो मैं भी अयोध्या आता।

मुझ पर, अयोध्या पे शायद ही इतने पन्ने किसी ने रंगे हों, लेकिन हाय री मेरी किस्मत...मेरी मिट्टी पर छह दिसंबर, 1992 को जो खून बरसा, उसके छींटों की स्याही से हज़ारों ख़बरें बुन दी गईं। किसने घर जलाया, किसके हाथ में आग थी...मुझको नहीं पता...हाँ  एक बात ज़रूर पता है...मेरे जेहन में है...खयाल में है...विवादित ढांचे की ज़मीन पर कब्जे को लेकर सालों से पाँच मुक़दमे चल रहे हैं...।
पहला मुक़दमा तो 52 साल भी ज्यादा समय से लड़ा जा रहा है, यानी तब से, जब जंग-ए-आज़ादी के जुनून में पूरा मुल्क मतवाला हुआ था...। अफ़सोस...मज़हब का जुनून भी देशप्रेम पर भारी पड़ गया। मुझे पता चला है कि कई मामले 6 दिसम्बर 1992 को विवादित ढाँचा गिराए जाने से जुड़े हैं। क्या कहूँ...या कुछ ना कहूँ...चुप रहूँ, तो भी कैसे? माँ  हूँ...मुझसे अपनी ऐसी बेइज़्ज़ती देखी नहीं जाती। कहते हैं—23 दिसंबर 1949 को विवादित ढांचे का दरवाज़ा खोलने पर वहाँ  रामलला की मूर्ति रखी मिली थी। मुसलिमों ने आरोप लगाया था--रात में किसी ने चुपचाप ये मूर्ति वहाँ  रख दी थीं.
किसे सच कहूँ और किसे झूठा बता दूँ...दोनों तेरे लाल हैं...चाहे हिंदू हों या फिर मुसलमान...मैं बस इतना जानना चाहती हूँ कि नफ़रत की ज़मीन पर बने घर में किसका ख़ुदा रहने के लिए आएगा?

23 दिसंबर 1949 को ढाँचे के सामने हज़ारों लोग इकट्ठा हो गए. यहाँ के डीएम ने यहाँ ताला लगा दिया। मैंने सोचा—कुछ दिन में हालात काबू में आ जाएंगे...लेकिन वो आग जो भड़की, वो फिर शांत नहीं हुई। अब तक सुलगती जा रही है...और मेरे सीने में कितने ही छाले बनाती जा रही है...। 16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद, दिगंबर अखाड़ा के महंत और राम जन्मभूमि न्यास के तत्कालीन अध्यक्ष परमहंस रामचंद्र दास ने अर्ज़ी दी कि रामलला के दर्शन की इजाज़त मिले। अदालत ने उनकी बात मान ली...और फिर यहाँ दर्शन-पूजा का सिलसिला शुरू हो गया। एक फ़रवरी 1986 को यहाँ ताले खोल दिए गए और इबादत का सिलसिला ढाँचे के अंदर ही शुरू हो गया।

हे राम! क्या कहूँ...अयोध्या ने कब सोचा था...कि उसकी मिट्टी पर ऐसे-ऐसे कारनामे होंगे। 11 नवंबर 1986 को विश्व हिंदू परिषद ने यहीं पास में ज़मीन पर गड्ढे खोदकर शिला पूजन किया। अब तक अलग-अलग चल रहे मुक़दमे एक ही जगह जोड़कर हाईकोर्ट में एकसाथ सुने जाएं। किसी और ने मांग की—विवादित ढांचे को मंदिर घोषित कर दिया जाए। 10 नवंबर 1989 को अयोध्या में मंदिर का शिलान्यास हुआ और 6 दिसंबर 1992 को वो सबकुछ हो गया...जो मैंने कभी नहीं सोचा था...। कुछ दीवानों ने वो ढाँचा ही गिरा दिया...जिसे किसी ने मसज़िद का नाम दिया, तो किसी ने मंदिर बताया। मैं तो माँ हूँ...क्या कहूँ...वो क्या है...। क्या इबादतगाहों के भी अलग-अलग नाम होते हैं? इन सत्रह सालों में क्या-क्या नहीं देखा...क्या-क्या नहीं सुना...क्या-क्या नहीं सहा मैंने...। मैं अपनी भीगी आँखें लेकर बस सूनी राह निहार रही हूँ...क्या कभी मुझे भी इंसाफ़ मिलेगा? क्या कभी मज़हब की लड़ाइयों से अलग एक माँ को उसका सुकून लौटाने की कोशिश भी होगी?

1993 में यूपी सरकार ने विवादित ढाँचे के पास की 67 एकड़ ज़मीन एक संगठन को सौंप दी..। 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला रद्द कर दिया। अदालत ने ध्यान तो दिया था मेरे दिल का...मेरे जज़्बात का...इंसाफ़ के पुजारियों ने साफ़ कहा था... मालिकाना हक का फ़ैसला होने से पहले इस ज़मीन के अविवादित हिस्सों को भी किसी एक समुदाय को सौंपना "धर्मनिरपेक्षता की भावना" के अनुकूल नहीं होगा। इसी बीच पता चला कि उत्तर प्रदेश सचिवालय से अयोध्या विवाद से जुड़ी 23 फा़इलें ग़ायब हो गईं। क्या-क्या बताऊँ...! मज़हब को लेकर फैलाई जा रही नफ़रत मैं बरसों-बरस से झेल रही हूँ। 1528 में यहाँ एक मसज़िद बनाई गई। 1853 में पहली बार यहाँ सांप्रदायिक दंगे हुए।

1859 में अंग्रेजों ने बाड़ लगवा दी। मुसलिमों से कहा...वो अंदर इबादत करें और हिंदुओं को बाहरी हिस्से में पूजा करने को कहा। हाय रे...क्यों किए थे अंग्रेजों ने इस क़दर हिस्से? ये कैसा बँटवारा था...उन्होंने जो दीवार खींची...वो जैसे दिलों के बीच खिंच गई। 1984 में कहा गया...यहाँ राम जन्मे थे और इस जगह को मुक्त कराना है...। हिंदुओं ने एक समिति बनाई और मुसलमानों ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति गठित कर डाली। 1989 में विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर निर्माण के लिए अभियान तेज़ कर दिया और विवादित स्थल के नज़दीक राम मंदिर की नींव डाल दी। 1990 में भी विवादित ढाँचे के पास थोड़ी-बहुत तोड़फोड़ की गई थी। 1992 में छह दिसंबर का दिन...मेरे हमेशा के लिए ख़ामोशियों में डूब जाने का दिन...अपने-अपने ख़ुदा की तलाश में कुछ दीवानों ने मुझे शर्मशार कर दिया। विवादित ढाँचे को गिरा दिया गया। अब कुछ लोग वहाँ मंदिर बनाना चाहते हैं...तो कुछ की तमन्ना है मसज़िद बने...। मैं तो चाहती हूँ...कि मेरे घर में, मेरे आँगन में मोहब्बत लौट आए।

बीते सत्रह सालों में मैंने बहुत-से ज़ख्म खाए हैं...सारे मुल्क में 2000 लोगों की साँसें हमेशा के लिए बंद हो गईं...कितने ही घरों में खुशियों पर पहरा लग गया। ऐसा भी नहीं था कि दंगों और तोड़फोड़ के बाद भी ज़िंदगी अपनी रफ्तार पकड़ ले। 2001 में भी इसी दिन खूब तनाव बढ़ा...जनवरी 2002 में उस वक्त के पीएम ने अयोध्या समिति गठित की...पर हुआ क्या??? क्या कहूँ...!!! मेरी बहन गोधरा ने भी तो वही घाव झेले हैं...फरवरी, 2002 में वहाँ कारसेवकों से भरी रेलगाड़ी में आग लगा दी गई। 58 लोग वहाँ मारे गए।

किसने लगाई ये आग...। अरे! हलाक़ तो हुए मेरे ज़िगर के टुकड़े ही तो!! माँ के बच्चों का मज़हब क्या होता है? बस...बच्चा होना!!

अब तक तमाम सियासतदां मेरे साथ खिलवाड़ करते रहे हैं। फरवरी, 2002 में एक पार्टी ने यकायक अयोध्या मुद्दे से हाथ खींच लिया...। जैसे मैं उनके लिए किसी ख़िलौने की तरह थी...। जब तक मन बहलाया, साथ रखा, नहीं चाहा, तो फेंक दिया। आंकड़ों की क्या बात कहूँ...कितनी तस्वीरें याद करूं...जो कुछ याद आता है...दिल में और तक़लीफ़ ताज़ा कर देता है। क्या-क्या धोखा नहीं किया...किस-किस ने दग़ा नहीं दी।

अभी-अभी लिब्राहन आयोग ने रिपोर्ट दी है..कुछ लोगों को दंगों का, ढांचा गिराने का ज़िम्मेदार बताया है...सुना है...उन्हें सज़ा देने की सिफ़ारिश नहीं की गई है। गुनाह किसने किया...सज़ा किसे मिलेगी...पता नहीं...पर ये अभागी अयोध्या...अब भी उस राम को तलाश कर रही है...जो उसे इंसाफ़ दिलाए।

कोई कहता है—अगर मेरे खानदान का पीएम होता, तो ढाँचा नहीं गिरता...कोई कहता है—अगर मैं नेता होती, तो मंदिर वहीं बनता...कहाँ है वो...जो कहे...मैं होता तो अयोध्या इस क़दर सिसकती ना रहती...मैं होती, तो मोहब्बत इस तरह रुसवा नहीं होती।

                                                                                       (आभार: फोकस टीवी, चण्डीदत्त शुक्ल, चौराहा)

                                        ****************************************

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

नवगीत: मौन निहारो... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

रूप राशि को

मौन निहारो...

*

पर्वत-शिखरों पर जब जाओ,

स्नेहपूर्वक छू सहलाओ.

हर उभार पर, हर चढाव पर-

ठिठको, गीत प्रेम के गाओ.

स्पर्शों की संवेदन-सिहरन

चुप अनुभव कर निज मन वारो.

रूप राशि को

मौन निहारो...

*

जब-जब तुम समतल पर चलना,

तनिक सम्हलना, अधिक फिसलना.

उषा सुनहली, शाम नशीली-

शशि-रजनी को देख मचलना.

मन से तन का, तन से मन का-

दरस करो, आरती उतारो.

रूप राशि को

मौन निहारो...

*

घटी-गव्ह्रों में यदि उतरो,

कण-कण, तृण-तृण चूमो-बिखरो.

चन्द्र-ज्योत्सना, सूर्य-रश्मि को

खोजो, पाओ, खुश हो निखरो.

नेह-नर्मदा में अवगाहन-

करो 'सलिल' पी कहाँ पुकारो.

रूप राशि को

मौन निहारो...

*

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

नव गीत: सागर उथला / पर्वत गहरा...

नव गीत:


संजीव 'सलिल'


सागर उथला,

पर्वत गहरा...

*

डाकू तो ईमानदार

पर पाया चोर सिपाही.

सौ पाए तो हैं अयोग्य,

दस पायें वाहा-वाही.

नाली का

पानी बहता है,

नदिया का

जल ठहरा.
सागर उथला,

पर्वत गहरा...

*

अध्यापक को सबक सिखाता

कॉलर पकड़े छात्र.

सत्य-असत्य न जानें-मानें,

लक्ष्य स्वार्थ है मात्र.

बहस कर रहा

है वकील

न्यायालय

गूंगा-बहरा.

सागर उथला,

पर्वत गहरा...

*

मना-मनाकर भारत हारा,

लेकिन पाक न माने.

लातों का जो भूत

बात की भाषा कैसे जाने?

दुर्विचार ने

सद्विचार का

जाना नहीं

ककहरा.

सागर उथला,

पर्वत गहरा...

*

नवगीत: माटी में-/ मिलना परिपाटी... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

काया माटी,
माया माटी,
माटी में-
मिलना परिपाटी...
*
बजा रहे
ढोलक-शहनाई,
होरी,कजरी,
फागें, राई,
सोहर गाते
उमर बिताई.
इमली कभी
चटाई-चाटी...
*
आडम्बर करना
मन भाया.
खुद को खुद से
खुदी छिपाया.
पाया-खोया,
खोया-पाया.
जब भी दूरी
पाई-पाटी...
*
मौज मनाना,
अपना सपना.
नहीं सुहाया
कोई नपना.
निजी हितों की
माला जपना.
'सलिल' न दांतों
रोटी काटी...
*
चाह बहुत पर
राह नहीं है.
डाह बहुत पर
वाह नहीं है.
पर पीड़ा लख
आह नहीं है.
देख सचाई
छाती फाटी...
*
मैं-तुम मिटकर
हम हो पाते.
खुशियाँ मिलतीं
गम खो जाते.
बिन मतलब भी
पलते नाते.
छाया लम्बी
काया नाटी...
*

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

नवगीत: बस इतना है रोना... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

हम भू माँ की
छाती खोदें,
वह देती है सोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...

*

हमें स्वार्थ
अपना प्यारा है,
नहीं देश से मतलब.
क्रय-विक्रय कर रहे
रोज हम,
ईश्वर हो या हो रब.
कसम न सीखेंगे
सुधार की
फसल रोपना-बोना
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...

*

जोड़-जोड़
जीवन भर मरते,
जाते खाली हाथ.
शीश उठाने के
चक्कर में
नवा रहे निज माथ.
काश! पाठ पढ लें,
सीखें हम
जो पाया, वह खोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...

*

निर्मल होने का
भ्रम पाले
ओढ़े मैली चादर.
बने हुए हैं
स्वार्थ-अहम् के
हम अदना से चाकर.
किसने किया?,
कटेगा कैसे?
'सलिल'
निगोड़ा टोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...

*

सौ. कां. शिल्पी एवं चि. पंकज के परिणय-पर्व पर शुभकामनाएँ


श्री चित्रगुप्ताय नमः

सौ. कां. शिल्पी एवं चि. पंकज के परिणय-पर्व पर शुभकामनाएँ

. श्री गणेश विघ्नेश्वर, ऋद्धि-सिद्धि के साथ .
.. विश्वनाथ जगदंबिका, रखें शीश पर हाथ ..



. चित्रगुप्त प्रभु शत नमन, जग-'शिल्पी' कर्मेश .
.. इरावती-नंदिनी माँ, रहिये सदय हमेश ..

. शतदल 'पंकज' सम खिले, मिले ह्रदय शत आज .
.. माई महामाया विनय, सफल करो शुभ काज ..

. आये अरपा-तीर से, गंगा-तट ले आस .
.. बने बनारस में सरस, श्वास-आस मधुमास ..

. काया में स्थित हुआ, परमब्रम्ह कायस्थ .
.. काया-काया से मिले, 'शोभा' काया स्वस्थ ..

. प्रकृति-पुरुष का सम्मिलन, रीति सनातन सत्य .
.. दो अपूर्ण मिल पूर्ण हों, नीर-क्षीर सम नित्य ..

. अनुगुंजन शहनाई की, 'रामाडा' में मीत .
.. स्वागत करती आपका, दिल हारें दिल जीत ..

. 'देवनारायण' दे रहे, सुरपुर से आशीष.
.. 'ज्वालाप्रसाद' मना रहे, शुभ करना हे ईश ..

. 'महावीर' स्वागत करें. भुज-भर 'राधेश्याम' .
.. 'प्रभावती' आशीष दें, 'प्रतिमा-प्रीती' ललाम ..

. शुभ-'प्रभात' कह 'आरती', 'संध्या' लिए 'विनीत' .
.. 'आशा-सत्य सहाय' से, पाई मंगल रीत ..

. 'प्यारेमोहन जी' नमन, 'रविप्रकाश-संदीप' .
.. खुश 'प्रशांत-संभ्रांत हों, शत स्वागत 'हरदीप' ..

. स्वागतरत हैं 'मुदित' मन, 'सागर, किरण, गजेन्द्र' .
.. 'आशा, मधु, तनया, तनय, सुरभि, प्रसन्न, नरेंद्र' ..

. 'दीप्ति, निर्मला, रेवती, ज्योति, अंशिका' झूम .
.. अरुण, अजय, पल्लवी' संग, 'नीरज' लें नभ चूम..

. 'अनुपम, शुचि, अनमोल' हैं, श्वास-आस संबंध .
.. 'पंकज, अंशुल, मोहिनी', नवल युगल अनुबंध ..

. 'मुकुल, वन्दना, प्रार्थना, निशा, साधना,-नाथ .
.. 'सलिल, अशोक, अनूप' हैं, 'हर्षित' जोड़े हाथ ..

. 'आभा' रमा-'रमेश' सी, 'मन्वंतर' तक दिव्य .
.. 'अनुश्री-तुहिना' मनायें, 'हों 'पृथीश' ये नव्य..

. अचकन पर बेंदा हुआ, हुलस-पुलक बलिहार .
.. कलगी नथनी पर गयी, निज अंतर्मन हार ..

. कंगन-चूड़ी की खनक, सुन पटका बेचैन .
.. लड़े झुके उठ मिल झुके, चार हुए जब नैन ..

. चुटकी भर सिन्दूर से, सात जन्म का संग .
.. सप्तपदी पर चल युगल, नहा रहा है गंग ..

. बन्ना-बन्नी गारियाँ, विदा-बधाई गीत .
.. ढोलक की हर थाप में, है 'सरोज' की प्रीत ..

. हुलसित हैं 'राजुल-अतुल', नर्तित हैं 'पीयूष' .
.. 'शिल्पी-पंकज' उम्र भर, पायें सुख प्रत्यूष ..

. चिर जीवहु जोरी जिए, पाए 'कीर्ति' सुनाम .
.. दस-दिश-छाये 'मंजुला', 'शिल्पी-पंकज' नाम ..

. 'खरे'-खरे व्यवहार कर, 'श्री वास्तव' में जीत .
.. नवल-युगल में नित बढे, 'सलिल' परस्पर प्रीत ..

*** शब्दसुमन: संजीव वर्मा 'सलिल' ***

divynarmada.blogspot.com
salil.sanjiv@gmail.com
094251833244

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

नवगीत: पलक बिछाए / राह हेरते... संजीव 'सलिल'

नवगीत:




आचार्य संजीव 'सलिल'



पलक बिछाए

राह हेरते...

*

जनगण स्वामी

खड़ा सड़क पर.

जनसेवक

जा रहा झिड़ककर.

लट्ठ पटकती

पुलिस अकड़कर.

अधिकारी

गुर्राये भड़ककर.

आम आदमी

ट्रस्ट-टेरते.

पलक बिछाए

राह हेरते...

*

लोभ,

लोक-आराध्य हुआ है.

प्रजातंत्र का

मंत्र जुआ है.

'जय नेता की'

करे सुआ है.

अंत न मालुम

अंध कुआ है.

अन्यायी मिल

मार-घेरते.

पलक बिछाए

राह हेरते...

*

मुंह में राम

बगल में छूरी.

त्याग त्याज्य

आराम जरूरी.

जपना राम

हुई मजबूरी.

जितनी गाथा

कहो अधूरी.

अपने सपने

'सलिल' पेरते.

पलक बिछाए

राह हेरते...

*

नवगीत: जब तक कुर्सी, तब तक ठाठ...

नवगीत:

जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
नाच जमूरा,
नचा मदारी.
सत्ता भोग,
करा बेगारी.
कोइ किसी का
सगा नहीं है.
स्वार्थ साधने
करते यारी.
फूँको नैतिकता
ले काठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
बेच-खरीदो
रोज देश को.
अस्ध्य मान लो
सिर्फ ऐश को.
वादों का क्या
किया-भुलाया.
लूट-दबाओ
स्वर्ण-कैश को.
झूठ आचरण
सच का पाठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
मन पर तन ने
राज किया है.
बिजली गायब
बुझा दिया है.
सच्चाई को
छिपा रहे हैं.
भाई-चारा
निभा रहे हैं.
सोलह कहो
भले हो साठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

Meghdootam ..hindi poetry translation ..shlok..41 to 45by Prof . C B shrivastava " vidagdh"..Mandla / jabalpur

Meghdootam ..hindi poetry translation ..shlok..41 to 45
by Prof . C B shrivastava " vidagdh"..Mandla / jabalpur


तां कस्यांचिद भवनवलभौ सुप्तपारावतायां
नीत्वा रात्रिं चिरविलसनात खिन्नविद्युत्कलत्रः
दृष्टे सूर्ये पुनरपि भवान वाहयेदध्वशेषं
मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपतार्थकृत्याः॥१.४१॥

वहाँ घन तिमिर से दुरित राजपथ पर
रजनि में स्वप्रिय गृह मिलन गामिनी को
निकष स्वर्ण रेखा सदृश दामिनी से
दिखाना अभय पथ विकल कामिनी को
न हो घन ! प्रवर्षण , न हो घोर गर्जन
न हो सूर्य तर्जन , वहाँ मौन जाना
प्रणयकातरा स्वतः भयभीत जो हैं
सदय तुम उन्हें , अकथ भय से बचाना


तस्मिन काले नयनसलिअं योषितां खण्डितानां
शान्तिं नेयं प्रणयिभिर अतो वर्त्म भानोस त्यजाशु
प्रालेयास्त्रं कमलवदनात सोऽपि हर्तुं नलिन्याः
प्रत्यावृत्तस्त्वयि कररुधि स्यादनल्पभ्यसूयः॥१.४२॥

सतत लास्य से खिन्न विद्युत लतानाथ
वह निशि वहीं भवन छत पर बिताना
कहीं एक पर , जहाँ पारावतों को
सुलभ हो सका हो शयन का ठिकाना
बिता रात फिर प्रात , रवि के उदय पर
विहित मार्ग पर तुम पथारूढ़ होना
सखा के सुखों हेतु संकल्प कर्ता
है सच , जानते न कभी मन्द होना



गम्भीरायाः पयसि सरितश चेतसीव प्रसन्ने
चायात्मापि प्रकृतिसुभगो लप्स्यते ते प्रवेशम
तस्माद अस्याः कुमुदविशदान्य अर्हसि त्वं न धैर्यान
मोघीकर्तुं चटुलशफोरोद्वर्तनप्रेक्षितानि॥१.४३॥

तभी , सान्त्वना हेतु खण्डित प्रिया के
नयनवारि प्रेमी यथा पोंछते न !
हरे ओस आंसू , नलिन मुख कमल से
तरणि कर बढ़ा , तू अतः राह देना


तस्याः किंचित करधृतम इव प्राप्त्वाईरशाखं
हृत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तरोधोनितम्बम
प्रस्थानं ते कथम अपि सखे लम्बमानस्य भावि
ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्था॥१.४४॥

मन सम तरल स्वच्छ जल में गंभीरा
नदी धार लेगी प्रकृत छबि तुम्हारी
कुमुद शुभ्र चंचल चपल मीन प्लुति दृष्टि
उसकी उपेक्षा न हो धैर्य धारी


त्वन्निष्यन्दोच्च्वसितवसुधागन्धसम्पर्करम्यः
स्रोतोरन्ध्रध्वनितसुभगं दन्तिभिः पीयमानः
नीचैर वास्यत्य उपजिगमिषोर देवपूर्वं गिरिं ते
शीतो वायुः परिणमयिता काननोदुम्बराणाम॥१.४५


उस क्षीण सलिला नदी को निरखकर
लगेगा तुम्हें ज्यों कोई कामिनी हो
जो वानीर रूपी झुकी उंगलियों से
सम्भाले सलिल नील रूपी वसन को
वसन तुम जिसे हर , अनावृत जघन कर
कठिन पाओगे मित्र , प्रस्थान पाना
विवृत जघन कामिनी को भला
ज्ञातरस किस रसिक से बना छोड़ जाना

सोमवार, 30 नवंबर 2009

लघुकथा ...ब्रांड एम्बेसडर

लघुकथा
ब्रांड एम्बेसडर
विवेक रंजन श्रीवास्तव
c/6 , MPSEB Colony , Rampur , Jabalpur (MP)
mob 9425806252
vivek1959@yahoo.co.in

काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट , हल्की नीली शर्ट ,गले में गहरी नीली टाई , कंधे पर लैप टाप का काला बैग , और हाथ में मोबाइल ...जैसे उसकी मोनोटोनस पहचान बन गई है . मोटर साइकिल पर सुबह से देर रात तक वह शहर में ही नही बल्कि आस पास के कस्बों में भी जाकर अपनी कंपनी के लिये संभावित ग्राहक जुटाता रहता ,सातों दिन पूरे महीने , टारगेट के बोझ तले . एटीकेट्स के बंधनो में , लगभग रटे रटाये जुमलों में वह अपना पक्ष रखता हर बार ,बातचीत के दौरान सेलिंग स्त्रेतजी के अंतर्गत देश दुनिया , मौसम की बाते भी करनी पड़ती , यह समझते हुये भी कि सामने वाला गलत कह रहा है , उसे मुस्कराते हुये हाँ में हाँ मिलाना बहुत बुरा लगता पर डील हो जाये इसलिये सब सुनना पड़ता . डील होते तक हर संभावित ग्राहक को वह कंपनी का "ब्रांड एम्बेसडर" कहकर प्रभावित करने का प्रयत्न करता जिसमें वह प्रायः सफल ही होता .डील के बाद वही "ब्रांड एम्बेसडर" कंपनी के रिकार्ड में महज एक आंकड़ा बन कर रह जाता . बाद में कभी जब कोई पुराना ग्राहक मिलता तो वह मन ही मन हँसता ,उस एक दिन के बादशाह पर . उसका सेल्स रिकार्ड बहुत अच्छा है , अनेक मौकों पर उसकी लच्छेदार बातों से कई ग्राहकों को उसने यू तर्न करवा कर कंपनी के पक्ष में डील करवाई है . अपनी ऐसी ही सफलताओ पर नाज से वह हर दिन नये उत्साह से गहरी नीली टाई के फंदे में स्वयं को फंसाकर मोटर साइकिल पर लटकता डोलता रहता है , घर घर .
इयर एंड पर कंपनी ने उसे पुरस्कृत किया है , अब उसे कार एलाउंस की पात्रता है , आज कार खरीदने के लिये उसने एक कंपनी के शोरूम में फोन किया तो उसके घर , झट से आ पहुंचे उसके जैसे ही नौजवान काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट , हल्की भूरी शर्ट ,गले में गहरी भूरी टाई लगाये हुये ... वह पहले ही जाँच परख चुका था कार , पर वे लोग उसे अपनी कंपनी का "ब्रांड एम्बेसडर" बताकर टेस्ट ड्राइव लेने का आग्रह करने लगे , तो उसे अनायास स्वयं के और उन सेल्स रिप्रेजेंटेटिव नौजवानो के खोखलेपन पर हँसी आ गई .. पत्नी और बच्चे "ब्रांड एम्बेसडर" बनकर पूरी तरह प्रभावित हो चुके थे ..निर्णय लिया जा चुका था , सब कुछ समझते हुये भी अब उसे वही कार खरीदनी थी . डील फाइनल हो गई . सेल्स रिप्रेजेंटेटिव जा चुके थे .बच्चे और पत्नी बेहद प्रसन्न थे .आज उसने अपनी पसंद का रंगीन पैंट और धारीदार शर्ट पहनी हुई थी बिना टाई लगाये , वह एटीकेत्स का ध्यान रखे बिना धप्प से बैठ गया अपने ही सोफे पर .. आज वह "ब्रांड एम्बेसडर" जो था .

रविवार, 29 नवंबर 2009

साइकल ने बना दिया इंजीनियर

साइकल ने बना दिया इंजीनियर



सिवनी। आपने कभी नहीं सुना होगा कि साइकल ने किसी व्यक्ति को मेकेनिकल इंजीनियर बनाया हो लेकिन नगर के काजी चौक में रहने वाले एक व्यक्ति को साइकल ने मेकेनिकल इंजीनियर बना दिया है। पेशे से शिक्षक इस व्यक्ति ने साइकल में इंजन लगाकर उसे पेट्रोल चलित वाहन का रूप दे दिया है। ऐसा करने के लिए उसे मेकेनिकल इंजीनियरिंग का अध्ययन करना पड़ा। हम बात कर रहे हैं समद खान (४५) की जो १२ किमी दूर आमागढ़ के शासकीय स्कूल में शिक्षक हैं। वैसे तो इन्होंने कबाड़ की जुगाड़ से कई सामान बनाए, लेकिन पेट्रोल से चलित और बैटरी से चलने वाली साइकल कुछ खास है।

श्री खान बताते हैं कि जब वे आमागढ़ के शासकीय स्कूल में शिक्षक थे। शहर से रोजाना २४ किमी का सफर करने में उन्हें काफी दिक्कतें होती थी। सन १९८७-८८ में उन्होंने लूना खरीदने की कोशिश की, परंतु उस समय किसी भी गाड़ी खरीदने के लिए नंबर लगाना पड़ता था। नंबर लगाने के कई माह बाद गाड़ी हाथ में आ पाती थी। इन झंझटों में पड़ने की बजाय उन्होंने अपनी साइकल में ही इंजन लगाने की ठान ली और इंजन की तलाश भी शुरू कर दी। इसी दौरान किसी काम से उनका नागपुर जाना हुआ और वहां की एक कबाड़ी की दुकान में इंजन भी मिल गया।

साइकल में इंजन लगाने और उसे गाड़ी का रूप देने में उन्हें इंजीनियरिंग संबंधी विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन करना पड़ा। काफी मशक्कत के बाद उन्हें इस कार्य में सफलता मिल गयी। इस कार्य के लिए उन्हें साढ़े छह सौ रूपए खर्च करने पड़े थे। जबकि लूना की कीमत उस समय ८ हजार रुपए थी।

कुछ वर्षों तक वे ७० किमी प्रति लीटर के हिसाब से चलने वाली साइकल से आमागढ़ आते-जाते रहे। इसके बाद उन्होंने बैटरी से चलने वाली साढ़े बारह हजार मूल्य की एक साइकल छिंदवाड़ा से खरीदी। यहां गौर करने वाली बात श्री खान छिंदवाड़ा और सिवनी जिले में सबसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने बैटरी से चलने वाली साइकल खरीदी थी।

उन्होंने बताया कि कुछ ही समय बाद साइकल की बैटरी और चार्जर खराब हो गए। इसे सुधारने के लिए कोई मैकेनिक उन्हें नहीं मिला। यहां तक चार्जर सुधरवाने के लिए वे बाम्बे तक गये लेकिन वहां भी नहीं सुधरा और न ही बैटरी मिली।

इस स्थिति में उन्होंने पुनः किताबों का अध्ययन किया और चार्जर को सुधार लिया। साथ ही बैटरी का जुगाड़ उन्होंने कम्प्यूटर में लगने वाली वेकअप बैटरी से कर लिया। आज वे इस बैटरी से अपनी साइकल चलाते हुए रोजाना २४ किमी का सफर तय करते हैं। इतने सफर में उनका रोज ५ रुपए व्यय होता है।