नवगीत:
संजीव 'सलिल'
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
पर्वत-शिखरों पर जब जाओ,
स्नेहपूर्वक छू सहलाओ.
हर उभार पर, हर चढाव पर-
ठिठको, गीत प्रेम के गाओ.
स्पर्शों की संवेदन-सिहरन
चुप अनुभव कर निज मन वारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
जब-जब तुम समतल पर चलना,
तनिक सम्हलना, अधिक फिसलना.
उषा सुनहली, शाम नशीली-
शशि-रजनी को देख मचलना.
मन से तन का, तन से मन का-
दरस करो, आरती उतारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
घटी-गव्ह्रों में यदि उतरो,
कण-कण, तृण-तृण चूमो-बिखरो.
चन्द्र-ज्योत्सना, सूर्य-रश्मि को
खोजो, पाओ, खुश हो निखरो.
नेह-नर्मदा में अवगाहन-
करो 'सलिल' पी कहाँ पुकारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
शनिवार, 5 दिसंबर 2009
नवगीत: मौन निहारो... संजीव 'सलिल'
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शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009
नव गीत: सागर उथला / पर्वत गहरा...
नव गीत:
संजीव 'सलिल'
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
डाकू तो ईमानदार
पर पाया चोर सिपाही.
सौ पाए तो हैं अयोग्य,
दस पायें वाहा-वाही.
नाली का
पानी बहता है,
नदिया का
जल ठहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
अध्यापक को सबक सिखाता
कॉलर पकड़े छात्र.
सत्य-असत्य न जानें-मानें,
लक्ष्य स्वार्थ है मात्र.
बहस कर रहा
है वकील
न्यायालय
गूंगा-बहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
मना-मनाकर भारत हारा,
लेकिन पाक न माने.
लातों का जो भूत
बात की भाषा कैसे जाने?
दुर्विचार ने
सद्विचार का
जाना नहीं
ककहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
संजीव 'सलिल'
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
डाकू तो ईमानदार
पर पाया चोर सिपाही.
सौ पाए तो हैं अयोग्य,
दस पायें वाहा-वाही.
नाली का
पानी बहता है,
नदिया का
जल ठहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
अध्यापक को सबक सिखाता
कॉलर पकड़े छात्र.
सत्य-असत्य न जानें-मानें,
लक्ष्य स्वार्थ है मात्र.
बहस कर रहा
है वकील
न्यायालय
गूंगा-बहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
मना-मनाकर भारत हारा,
लेकिन पाक न माने.
लातों का जो भूत
बात की भाषा कैसे जाने?
दुर्विचार ने
सद्विचार का
जाना नहीं
ककहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
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नवगीत: माटी में-/ मिलना परिपाटी... संजीव 'सलिल'
नवगीत:
संजीव 'सलिल'
काया माटी,
माया माटी,
माटी में-
मिलना परिपाटी...
*
बजा रहे
ढोलक-शहनाई,
होरी,कजरी,
फागें, राई,
सोहर गाते
उमर बिताई.
इमली कभी
चटाई-चाटी...
*
आडम्बर करना
मन भाया.
खुद को खुद से
खुदी छिपाया.
पाया-खोया,
खोया-पाया.
जब भी दूरी
पाई-पाटी...
*
मौज मनाना,
अपना सपना.
नहीं सुहाया
कोई नपना.
निजी हितों की
माला जपना.
'सलिल' न दांतों
रोटी काटी...
*
चाह बहुत पर
राह नहीं है.
डाह बहुत पर
वाह नहीं है.
पर पीड़ा लख
आह नहीं है.
देख सचाई
छाती फाटी...
*
मैं-तुम मिटकर
हम हो पाते.
खुशियाँ मिलतीं
गम खो जाते.
बिन मतलब भी
पलते नाते.
छाया लम्बी
काया नाटी...
*
संजीव 'सलिल'
काया माटी,
माया माटी,
माटी में-
मिलना परिपाटी...
*
बजा रहे
ढोलक-शहनाई,
होरी,कजरी,
फागें, राई,
सोहर गाते
उमर बिताई.
इमली कभी
चटाई-चाटी...
*
आडम्बर करना
मन भाया.
खुद को खुद से
खुदी छिपाया.
पाया-खोया,
खोया-पाया.
जब भी दूरी
पाई-पाटी...
*
मौज मनाना,
अपना सपना.
नहीं सुहाया
कोई नपना.
निजी हितों की
माला जपना.
'सलिल' न दांतों
रोटी काटी...
*
चाह बहुत पर
राह नहीं है.
डाह बहुत पर
वाह नहीं है.
पर पीड़ा लख
आह नहीं है.
देख सचाई
छाती फाटी...
*
मैं-तुम मिटकर
हम हो पाते.
खुशियाँ मिलतीं
गम खो जाते.
बिन मतलब भी
पलते नाते.
छाया लम्बी
काया नाटी...
*
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
गुरुवार, 3 दिसंबर 2009
नवगीत: बस इतना है रोना... संजीव 'सलिल'
नवगीत:
संजीव 'सलिल'
हम भू माँ की
छाती खोदें,
वह देती है सोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
हमें स्वार्थ
अपना प्यारा है,
नहीं देश से मतलब.
क्रय-विक्रय कर रहे
रोज हम,
ईश्वर हो या हो रब.
कसम न सीखेंगे
सुधार की
फसल रोपना-बोना
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
जोड़-जोड़
जीवन भर मरते,
जाते खाली हाथ.
शीश उठाने के
चक्कर में
नवा रहे निज माथ.
काश! पाठ पढ लें,
सीखें हम
जो पाया, वह खोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
निर्मल होने का
भ्रम पाले
ओढ़े मैली चादर.
बने हुए हैं
स्वार्थ-अहम् के
हम अदना से चाकर.
किसने किया?,
कटेगा कैसे?
'सलिल'
निगोड़ा टोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
संजीव 'सलिल'
हम भू माँ की
छाती खोदें,
वह देती है सोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
हमें स्वार्थ
अपना प्यारा है,
नहीं देश से मतलब.
क्रय-विक्रय कर रहे
रोज हम,
ईश्वर हो या हो रब.
कसम न सीखेंगे
सुधार की
फसल रोपना-बोना
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
जोड़-जोड़
जीवन भर मरते,
जाते खाली हाथ.
शीश उठाने के
चक्कर में
नवा रहे निज माथ.
काश! पाठ पढ लें,
सीखें हम
जो पाया, वह खोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
निर्मल होने का
भ्रम पाले
ओढ़े मैली चादर.
बने हुए हैं
स्वार्थ-अहम् के
हम अदना से चाकर.
किसने किया?,
कटेगा कैसे?
'सलिल'
निगोड़ा टोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
सौ. कां. शिल्पी एवं चि. पंकज के परिणय-पर्व पर शुभकामनाएँ
श्री चित्रगुप्ताय नमः
सौ. कां. शिल्पी एवं चि. पंकज के परिणय-पर्व पर शुभकामनाएँ
. श्री गणेश विघ्नेश्वर, ऋद्धि-सिद्धि के साथ .
.. विश्वनाथ जगदंबिका, रखें शीश पर हाथ ..
. चित्रगुप्त प्रभु शत नमन, जग-'शिल्पी' कर्मेश .
.. इरावती-नंदिनी माँ, रहिये सदय हमेश ..
. शतदल 'पंकज' सम खिले, मिले ह्रदय शत आज .
.. माई महामाया विनय, सफल करो शुभ काज ..
. आये अरपा-तीर से, गंगा-तट ले आस .
.. बने बनारस में सरस, श्वास-आस मधुमास ..
. काया में स्थित हुआ, परमब्रम्ह कायस्थ .
.. काया-काया से मिले, 'शोभा' काया स्वस्थ ..
. प्रकृति-पुरुष का सम्मिलन, रीति सनातन सत्य .
.. दो अपूर्ण मिल पूर्ण हों, नीर-क्षीर सम नित्य ..
. अनुगुंजन शहनाई की, 'रामाडा' में मीत .
.. स्वागत करती आपका, दिल हारें दिल जीत ..
. 'देवनारायण' दे रहे, सुरपुर से आशीष.
.. 'ज्वालाप्रसाद' मना रहे, शुभ करना हे ईश ..
. 'महावीर' स्वागत करें. भुज-भर 'राधेश्याम' .
.. 'प्रभावती' आशीष दें, 'प्रतिमा-प्रीती' ललाम ..
. शुभ-'प्रभात' कह 'आरती', 'संध्या' लिए 'विनीत' .
.. 'आशा-सत्य सहाय' से, पाई मंगल रीत ..
. 'प्यारेमोहन जी' नमन, 'रविप्रकाश-संदीप' .
.. खुश 'प्रशांत-संभ्रांत हों, शत स्वागत 'हरदीप' ..
. स्वागतरत हैं 'मुदित' मन, 'सागर, किरण, गजेन्द्र' .
.. 'आशा, मधु, तनया, तनय, सुरभि, प्रसन्न, नरेंद्र' ..
. 'दीप्ति, निर्मला, रेवती, ज्योति, अंशिका' झूम .
.. अरुण, अजय, पल्लवी' संग, 'नीरज' लें नभ चूम..
. 'अनुपम, शुचि, अनमोल' हैं, श्वास-आस संबंध .
.. 'पंकज, अंशुल, मोहिनी', नवल युगल अनुबंध ..
. 'मुकुल, वन्दना, प्रार्थना, निशा, साधना,-नाथ .
.. 'सलिल, अशोक, अनूप' हैं, 'हर्षित' जोड़े हाथ ..
. 'आभा' रमा-'रमेश' सी, 'मन्वंतर' तक दिव्य .
.. 'अनुश्री-तुहिना' मनायें, 'हों 'पृथीश' ये नव्य..
. अचकन पर बेंदा हुआ, हुलस-पुलक बलिहार .
.. कलगी नथनी पर गयी, निज अंतर्मन हार ..
. कंगन-चूड़ी की खनक, सुन पटका बेचैन .
.. लड़े झुके उठ मिल झुके, चार हुए जब नैन ..
. चुटकी भर सिन्दूर से, सात जन्म का संग .
.. सप्तपदी पर चल युगल, नहा रहा है गंग ..
. बन्ना-बन्नी गारियाँ, विदा-बधाई गीत .
.. ढोलक की हर थाप में, है 'सरोज' की प्रीत ..
. हुलसित हैं 'राजुल-अतुल', नर्तित हैं 'पीयूष' .
.. 'शिल्पी-पंकज' उम्र भर, पायें सुख प्रत्यूष ..
. चिर जीवहु जोरी जिए, पाए 'कीर्ति' सुनाम .
.. दस-दिश-छाये 'मंजुला', 'शिल्पी-पंकज' नाम ..
. 'खरे'-खरे व्यवहार कर, 'श्री वास्तव' में जीत .
.. नवल-युगल में नित बढे, 'सलिल' परस्पर प्रीत ..
*** शब्दसुमन: संजीव वर्मा 'सलिल' ***
divynarmada.blogspot.com
salil.sanjiv@gmail.com
094251833244
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
बुधवार, 2 दिसंबर 2009
नवगीत: पलक बिछाए / राह हेरते... संजीव 'सलिल'
नवगीत:
आचार्य संजीव 'सलिल'
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
जनगण स्वामी
खड़ा सड़क पर.
जनसेवक
जा रहा झिड़ककर.
लट्ठ पटकती
पुलिस अकड़कर.
अधिकारी
गुर्राये भड़ककर.
आम आदमी
ट्रस्ट-टेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
लोभ,
लोक-आराध्य हुआ है.
प्रजातंत्र का
मंत्र जुआ है.
'जय नेता की'
करे सुआ है.
अंत न मालुम
अंध कुआ है.
अन्यायी मिल
मार-घेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
मुंह में राम
बगल में छूरी.
त्याग त्याज्य
आराम जरूरी.
जपना राम
हुई मजबूरी.
जितनी गाथा
कहो अधूरी.
अपने सपने
'सलिल' पेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
आचार्य संजीव 'सलिल'
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
जनगण स्वामी
खड़ा सड़क पर.
जनसेवक
जा रहा झिड़ककर.
लट्ठ पटकती
पुलिस अकड़कर.
अधिकारी
गुर्राये भड़ककर.
आम आदमी
ट्रस्ट-टेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
लोभ,
लोक-आराध्य हुआ है.
प्रजातंत्र का
मंत्र जुआ है.
'जय नेता की'
करे सुआ है.
अंत न मालुम
अंध कुआ है.
अन्यायी मिल
मार-घेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
मुंह में राम
बगल में छूरी.
त्याग त्याज्य
आराम जरूरी.
जपना राम
हुई मजबूरी.
जितनी गाथा
कहो अधूरी.
अपने सपने
'सलिल' पेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
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नवगीत: जब तक कुर्सी, तब तक ठाठ...
नवगीत:
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
नाच जमूरा,
नचा मदारी.
सत्ता भोग,
करा बेगारी.
कोइ किसी का
सगा नहीं है.
स्वार्थ साधने
करते यारी.
फूँको नैतिकता
ले काठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
बेच-खरीदो
रोज देश को.
अस्ध्य मान लो
सिर्फ ऐश को.
वादों का क्या
किया-भुलाया.
लूट-दबाओ
स्वर्ण-कैश को.
झूठ आचरण
सच का पाठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
मन पर तन ने
राज किया है.
बिजली गायब
बुझा दिया है.
सच्चाई को
छिपा रहे हैं.
भाई-चारा
निभा रहे हैं.
सोलह कहो
भले हो साठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
नाच जमूरा,
नचा मदारी.
सत्ता भोग,
करा बेगारी.
कोइ किसी का
सगा नहीं है.
स्वार्थ साधने
करते यारी.
फूँको नैतिकता
ले काठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
बेच-खरीदो
रोज देश को.
अस्ध्य मान लो
सिर्फ ऐश को.
वादों का क्या
किया-भुलाया.
लूट-दबाओ
स्वर्ण-कैश को.
झूठ आचरण
सच का पाठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
मन पर तन ने
राज किया है.
बिजली गायब
बुझा दिया है.
सच्चाई को
छिपा रहे हैं.
भाई-चारा
निभा रहे हैं.
सोलह कहो
भले हो साठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
मंगलवार, 1 दिसंबर 2009
Meghdootam ..hindi poetry translation ..shlok..41 to 45by Prof . C B shrivastava " vidagdh"..Mandla / jabalpur
Meghdootam ..hindi poetry translation ..shlok..41 to 45
by Prof . C B shrivastava " vidagdh"..Mandla / jabalpur
तां कस्यांचिद भवनवलभौ सुप्तपारावतायां
नीत्वा रात्रिं चिरविलसनात खिन्नविद्युत्कलत्रः
दृष्टे सूर्ये पुनरपि भवान वाहयेदध्वशेषं
मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपतार्थकृत्याः॥१.४१॥
वहाँ घन तिमिर से दुरित राजपथ पर
रजनि में स्वप्रिय गृह मिलन गामिनी को
निकष स्वर्ण रेखा सदृश दामिनी से
दिखाना अभय पथ विकल कामिनी को
न हो घन ! प्रवर्षण , न हो घोर गर्जन
न हो सूर्य तर्जन , वहाँ मौन जाना
प्रणयकातरा स्वतः भयभीत जो हैं
सदय तुम उन्हें , अकथ भय से बचाना
तस्मिन काले नयनसलिअं योषितां खण्डितानां
शान्तिं नेयं प्रणयिभिर अतो वर्त्म भानोस त्यजाशु
प्रालेयास्त्रं कमलवदनात सोऽपि हर्तुं नलिन्याः
प्रत्यावृत्तस्त्वयि कररुधि स्यादनल्पभ्यसूयः॥१.४२॥
सतत लास्य से खिन्न विद्युत लतानाथ
वह निशि वहीं भवन छत पर बिताना
कहीं एक पर , जहाँ पारावतों को
सुलभ हो सका हो शयन का ठिकाना
बिता रात फिर प्रात , रवि के उदय पर
विहित मार्ग पर तुम पथारूढ़ होना
सखा के सुखों हेतु संकल्प कर्ता
है सच , जानते न कभी मन्द होना
गम्भीरायाः पयसि सरितश चेतसीव प्रसन्ने
चायात्मापि प्रकृतिसुभगो लप्स्यते ते प्रवेशम
तस्माद अस्याः कुमुदविशदान्य अर्हसि त्वं न धैर्यान
मोघीकर्तुं चटुलशफोरोद्वर्तनप्रेक्षितानि॥१.४३॥
तभी , सान्त्वना हेतु खण्डित प्रिया के
नयनवारि प्रेमी यथा पोंछते न !
हरे ओस आंसू , नलिन मुख कमल से
तरणि कर बढ़ा , तू अतः राह देना
तस्याः किंचित करधृतम इव प्राप्त्वाईरशाखं
हृत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तरोधोनितम्बम
प्रस्थानं ते कथम अपि सखे लम्बमानस्य भावि
ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्था॥१.४४॥
मन सम तरल स्वच्छ जल में गंभीरा
नदी धार लेगी प्रकृत छबि तुम्हारी
कुमुद शुभ्र चंचल चपल मीन प्लुति दृष्टि
उसकी उपेक्षा न हो धैर्य धारी
त्वन्निष्यन्दोच्च्वसितवसुधागन्धसम्पर्करम्यः
स्रोतोरन्ध्रध्वनितसुभगं दन्तिभिः पीयमानः
नीचैर वास्यत्य उपजिगमिषोर देवपूर्वं गिरिं ते
शीतो वायुः परिणमयिता काननोदुम्बराणाम॥१.४५
उस क्षीण सलिला नदी को निरखकर
लगेगा तुम्हें ज्यों कोई कामिनी हो
जो वानीर रूपी झुकी उंगलियों से
सम्भाले सलिल नील रूपी वसन को
वसन तुम जिसे हर , अनावृत जघन कर
कठिन पाओगे मित्र , प्रस्थान पाना
विवृत जघन कामिनी को भला
ज्ञातरस किस रसिक से बना छोड़ जाना
by Prof . C B shrivastava " vidagdh"..Mandla / jabalpur
तां कस्यांचिद भवनवलभौ सुप्तपारावतायां
नीत्वा रात्रिं चिरविलसनात खिन्नविद्युत्कलत्रः
दृष्टे सूर्ये पुनरपि भवान वाहयेदध्वशेषं
मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपतार्थकृत्याः॥१.४१॥
वहाँ घन तिमिर से दुरित राजपथ पर
रजनि में स्वप्रिय गृह मिलन गामिनी को
निकष स्वर्ण रेखा सदृश दामिनी से
दिखाना अभय पथ विकल कामिनी को
न हो घन ! प्रवर्षण , न हो घोर गर्जन
न हो सूर्य तर्जन , वहाँ मौन जाना
प्रणयकातरा स्वतः भयभीत जो हैं
सदय तुम उन्हें , अकथ भय से बचाना
तस्मिन काले नयनसलिअं योषितां खण्डितानां
शान्तिं नेयं प्रणयिभिर अतो वर्त्म भानोस त्यजाशु
प्रालेयास्त्रं कमलवदनात सोऽपि हर्तुं नलिन्याः
प्रत्यावृत्तस्त्वयि कररुधि स्यादनल्पभ्यसूयः॥१.४२॥
सतत लास्य से खिन्न विद्युत लतानाथ
वह निशि वहीं भवन छत पर बिताना
कहीं एक पर , जहाँ पारावतों को
सुलभ हो सका हो शयन का ठिकाना
बिता रात फिर प्रात , रवि के उदय पर
विहित मार्ग पर तुम पथारूढ़ होना
सखा के सुखों हेतु संकल्प कर्ता
है सच , जानते न कभी मन्द होना
गम्भीरायाः पयसि सरितश चेतसीव प्रसन्ने
चायात्मापि प्रकृतिसुभगो लप्स्यते ते प्रवेशम
तस्माद अस्याः कुमुदविशदान्य अर्हसि त्वं न धैर्यान
मोघीकर्तुं चटुलशफोरोद्वर्तनप्रेक्षितानि॥१.४३॥
तभी , सान्त्वना हेतु खण्डित प्रिया के
नयनवारि प्रेमी यथा पोंछते न !
हरे ओस आंसू , नलिन मुख कमल से
तरणि कर बढ़ा , तू अतः राह देना
तस्याः किंचित करधृतम इव प्राप्त्वाईरशाखं
हृत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तरोधोनितम्बम
प्रस्थानं ते कथम अपि सखे लम्बमानस्य भावि
ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्था॥१.४४॥
मन सम तरल स्वच्छ जल में गंभीरा
नदी धार लेगी प्रकृत छबि तुम्हारी
कुमुद शुभ्र चंचल चपल मीन प्लुति दृष्टि
उसकी उपेक्षा न हो धैर्य धारी
त्वन्निष्यन्दोच्च्वसितवसुधागन्धसम्पर्करम्यः
स्रोतोरन्ध्रध्वनितसुभगं दन्तिभिः पीयमानः
नीचैर वास्यत्य उपजिगमिषोर देवपूर्वं गिरिं ते
शीतो वायुः परिणमयिता काननोदुम्बराणाम॥१.४५
उस क्षीण सलिला नदी को निरखकर
लगेगा तुम्हें ज्यों कोई कामिनी हो
जो वानीर रूपी झुकी उंगलियों से
सम्भाले सलिल नील रूपी वसन को
वसन तुम जिसे हर , अनावृत जघन कर
कठिन पाओगे मित्र , प्रस्थान पाना
विवृत जघन कामिनी को भला
ज्ञातरस किस रसिक से बना छोड़ जाना
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नदी,
पथ,
Meghdootam,
Prof . C B श्रीवास्तव,
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सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
सोमवार, 30 नवंबर 2009
लघुकथा ...ब्रांड एम्बेसडर
लघुकथा
ब्रांड एम्बेसडर
विवेक रंजन श्रीवास्तव
c/6 , MPSEB Colony , Rampur , Jabalpur (MP)
mob 9425806252
vivek1959@yahoo.co.in
काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट , हल्की नीली शर्ट ,गले में गहरी नीली टाई , कंधे पर लैप टाप का काला बैग , और हाथ में मोबाइल ...जैसे उसकी मोनोटोनस पहचान बन गई है . मोटर साइकिल पर सुबह से देर रात तक वह शहर में ही नही बल्कि आस पास के कस्बों में भी जाकर अपनी कंपनी के लिये संभावित ग्राहक जुटाता रहता ,सातों दिन पूरे महीने , टारगेट के बोझ तले . एटीकेट्स के बंधनो में , लगभग रटे रटाये जुमलों में वह अपना पक्ष रखता हर बार ,बातचीत के दौरान सेलिंग स्त्रेतजी के अंतर्गत देश दुनिया , मौसम की बाते भी करनी पड़ती , यह समझते हुये भी कि सामने वाला गलत कह रहा है , उसे मुस्कराते हुये हाँ में हाँ मिलाना बहुत बुरा लगता पर डील हो जाये इसलिये सब सुनना पड़ता . डील होते तक हर संभावित ग्राहक को वह कंपनी का "ब्रांड एम्बेसडर" कहकर प्रभावित करने का प्रयत्न करता जिसमें वह प्रायः सफल ही होता .डील के बाद वही "ब्रांड एम्बेसडर" कंपनी के रिकार्ड में महज एक आंकड़ा बन कर रह जाता . बाद में कभी जब कोई पुराना ग्राहक मिलता तो वह मन ही मन हँसता ,उस एक दिन के बादशाह पर . उसका सेल्स रिकार्ड बहुत अच्छा है , अनेक मौकों पर उसकी लच्छेदार बातों से कई ग्राहकों को उसने यू तर्न करवा कर कंपनी के पक्ष में डील करवाई है . अपनी ऐसी ही सफलताओ पर नाज से वह हर दिन नये उत्साह से गहरी नीली टाई के फंदे में स्वयं को फंसाकर मोटर साइकिल पर लटकता डोलता रहता है , घर घर .
इयर एंड पर कंपनी ने उसे पुरस्कृत किया है , अब उसे कार एलाउंस की पात्रता है , आज कार खरीदने के लिये उसने एक कंपनी के शोरूम में फोन किया तो उसके घर , झट से आ पहुंचे उसके जैसे ही नौजवान काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट , हल्की भूरी शर्ट ,गले में गहरी भूरी टाई लगाये हुये ... वह पहले ही जाँच परख चुका था कार , पर वे लोग उसे अपनी कंपनी का "ब्रांड एम्बेसडर" बताकर टेस्ट ड्राइव लेने का आग्रह करने लगे , तो उसे अनायास स्वयं के और उन सेल्स रिप्रेजेंटेटिव नौजवानो के खोखलेपन पर हँसी आ गई .. पत्नी और बच्चे "ब्रांड एम्बेसडर" बनकर पूरी तरह प्रभावित हो चुके थे ..निर्णय लिया जा चुका था , सब कुछ समझते हुये भी अब उसे वही कार खरीदनी थी . डील फाइनल हो गई . सेल्स रिप्रेजेंटेटिव जा चुके थे .बच्चे और पत्नी बेहद प्रसन्न थे .आज उसने अपनी पसंद का रंगीन पैंट और धारीदार शर्ट पहनी हुई थी बिना टाई लगाये , वह एटीकेत्स का ध्यान रखे बिना धप्प से बैठ गया अपने ही सोफे पर .. आज वह "ब्रांड एम्बेसडर" जो था .
ब्रांड एम्बेसडर
विवेक रंजन श्रीवास्तव
c/6 , MPSEB Colony , Rampur , Jabalpur (MP)
mob 9425806252
vivek1959@yahoo.co.in
काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट , हल्की नीली शर्ट ,गले में गहरी नीली टाई , कंधे पर लैप टाप का काला बैग , और हाथ में मोबाइल ...जैसे उसकी मोनोटोनस पहचान बन गई है . मोटर साइकिल पर सुबह से देर रात तक वह शहर में ही नही बल्कि आस पास के कस्बों में भी जाकर अपनी कंपनी के लिये संभावित ग्राहक जुटाता रहता ,सातों दिन पूरे महीने , टारगेट के बोझ तले . एटीकेट्स के बंधनो में , लगभग रटे रटाये जुमलों में वह अपना पक्ष रखता हर बार ,बातचीत के दौरान सेलिंग स्त्रेतजी के अंतर्गत देश दुनिया , मौसम की बाते भी करनी पड़ती , यह समझते हुये भी कि सामने वाला गलत कह रहा है , उसे मुस्कराते हुये हाँ में हाँ मिलाना बहुत बुरा लगता पर डील हो जाये इसलिये सब सुनना पड़ता . डील होते तक हर संभावित ग्राहक को वह कंपनी का "ब्रांड एम्बेसडर" कहकर प्रभावित करने का प्रयत्न करता जिसमें वह प्रायः सफल ही होता .डील के बाद वही "ब्रांड एम्बेसडर" कंपनी के रिकार्ड में महज एक आंकड़ा बन कर रह जाता . बाद में कभी जब कोई पुराना ग्राहक मिलता तो वह मन ही मन हँसता ,उस एक दिन के बादशाह पर . उसका सेल्स रिकार्ड बहुत अच्छा है , अनेक मौकों पर उसकी लच्छेदार बातों से कई ग्राहकों को उसने यू तर्न करवा कर कंपनी के पक्ष में डील करवाई है . अपनी ऐसी ही सफलताओ पर नाज से वह हर दिन नये उत्साह से गहरी नीली टाई के फंदे में स्वयं को फंसाकर मोटर साइकिल पर लटकता डोलता रहता है , घर घर .
इयर एंड पर कंपनी ने उसे पुरस्कृत किया है , अब उसे कार एलाउंस की पात्रता है , आज कार खरीदने के लिये उसने एक कंपनी के शोरूम में फोन किया तो उसके घर , झट से आ पहुंचे उसके जैसे ही नौजवान काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट , हल्की भूरी शर्ट ,गले में गहरी भूरी टाई लगाये हुये ... वह पहले ही जाँच परख चुका था कार , पर वे लोग उसे अपनी कंपनी का "ब्रांड एम्बेसडर" बताकर टेस्ट ड्राइव लेने का आग्रह करने लगे , तो उसे अनायास स्वयं के और उन सेल्स रिप्रेजेंटेटिव नौजवानो के खोखलेपन पर हँसी आ गई .. पत्नी और बच्चे "ब्रांड एम्बेसडर" बनकर पूरी तरह प्रभावित हो चुके थे ..निर्णय लिया जा चुका था , सब कुछ समझते हुये भी अब उसे वही कार खरीदनी थी . डील फाइनल हो गई . सेल्स रिप्रेजेंटेटिव जा चुके थे .बच्चे और पत्नी बेहद प्रसन्न थे .आज उसने अपनी पसंद का रंगीन पैंट और धारीदार शर्ट पहनी हुई थी बिना टाई लगाये , वह एटीकेत्स का ध्यान रखे बिना धप्प से बैठ गया अपने ही सोफे पर .. आज वह "ब्रांड एम्बेसडर" जो था .
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
रविवार, 29 नवंबर 2009
साइकल ने बना दिया इंजीनियर
साइकल ने बना दिया इंजीनियर
सिवनी। आपने कभी नहीं सुना होगा कि साइकल ने किसी व्यक्ति को मेकेनिकल इंजीनियर बनाया हो लेकिन नगर के काजी चौक में रहने वाले एक व्यक्ति को साइकल ने मेकेनिकल इंजीनियर बना दिया है। पेशे से शिक्षक इस व्यक्ति ने साइकल में इंजन लगाकर उसे पेट्रोल चलित वाहन का रूप दे दिया है। ऐसा करने के लिए उसे मेकेनिकल इंजीनियरिंग का अध्ययन करना पड़ा। हम बात कर रहे हैं समद खान (४५) की जो १२ किमी दूर आमागढ़ के शासकीय स्कूल में शिक्षक हैं। वैसे तो इन्होंने कबाड़ की जुगाड़ से कई सामान बनाए, लेकिन पेट्रोल से चलित और बैटरी से चलने वाली साइकल कुछ खास है।
श्री खान बताते हैं कि जब वे आमागढ़ के शासकीय स्कूल में शिक्षक थे। शहर से रोजाना २४ किमी का सफर करने में उन्हें काफी दिक्कतें होती थी। सन १९८७-८८ में उन्होंने लूना खरीदने की कोशिश की, परंतु उस समय किसी भी गाड़ी खरीदने के लिए नंबर लगाना पड़ता था। नंबर लगाने के कई माह बाद गाड़ी हाथ में आ पाती थी। इन झंझटों में पड़ने की बजाय उन्होंने अपनी साइकल में ही इंजन लगाने की ठान ली और इंजन की तलाश भी शुरू कर दी। इसी दौरान किसी काम से उनका नागपुर जाना हुआ और वहां की एक कबाड़ी की दुकान में इंजन भी मिल गया।
साइकल में इंजन लगाने और उसे गाड़ी का रूप देने में उन्हें इंजीनियरिंग संबंधी विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन करना पड़ा। काफी मशक्कत के बाद उन्हें इस कार्य में सफलता मिल गयी। इस कार्य के लिए उन्हें साढ़े छह सौ रूपए खर्च करने पड़े थे। जबकि लूना की कीमत उस समय ८ हजार रुपए थी।
कुछ वर्षों तक वे ७० किमी प्रति लीटर के हिसाब से चलने वाली साइकल से आमागढ़ आते-जाते रहे। इसके बाद उन्होंने बैटरी से चलने वाली साढ़े बारह हजार मूल्य की एक साइकल छिंदवाड़ा से खरीदी। यहां गौर करने वाली बात श्री खान छिंदवाड़ा और सिवनी जिले में सबसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने बैटरी से चलने वाली साइकल खरीदी थी।
उन्होंने बताया कि कुछ ही समय बाद साइकल की बैटरी और चार्जर खराब हो गए। इसे सुधारने के लिए कोई मैकेनिक उन्हें नहीं मिला। यहां तक चार्जर सुधरवाने के लिए वे बाम्बे तक गये लेकिन वहां भी नहीं सुधरा और न ही बैटरी मिली।
इस स्थिति में उन्होंने पुनः किताबों का अध्ययन किया और चार्जर को सुधार लिया। साथ ही बैटरी का जुगाड़ उन्होंने कम्प्यूटर में लगने वाली वेकअप बैटरी से कर लिया। आज वे इस बैटरी से अपनी साइकल चलाते हुए रोजाना २४ किमी का सफर तय करते हैं। इतने सफर में उनका रोज ५ रुपए व्यय होता है।
सिवनी। आपने कभी नहीं सुना होगा कि साइकल ने किसी व्यक्ति को मेकेनिकल इंजीनियर बनाया हो लेकिन नगर के काजी चौक में रहने वाले एक व्यक्ति को साइकल ने मेकेनिकल इंजीनियर बना दिया है। पेशे से शिक्षक इस व्यक्ति ने साइकल में इंजन लगाकर उसे पेट्रोल चलित वाहन का रूप दे दिया है। ऐसा करने के लिए उसे मेकेनिकल इंजीनियरिंग का अध्ययन करना पड़ा। हम बात कर रहे हैं समद खान (४५) की जो १२ किमी दूर आमागढ़ के शासकीय स्कूल में शिक्षक हैं। वैसे तो इन्होंने कबाड़ की जुगाड़ से कई सामान बनाए, लेकिन पेट्रोल से चलित और बैटरी से चलने वाली साइकल कुछ खास है।
श्री खान बताते हैं कि जब वे आमागढ़ के शासकीय स्कूल में शिक्षक थे। शहर से रोजाना २४ किमी का सफर करने में उन्हें काफी दिक्कतें होती थी। सन १९८७-८८ में उन्होंने लूना खरीदने की कोशिश की, परंतु उस समय किसी भी गाड़ी खरीदने के लिए नंबर लगाना पड़ता था। नंबर लगाने के कई माह बाद गाड़ी हाथ में आ पाती थी। इन झंझटों में पड़ने की बजाय उन्होंने अपनी साइकल में ही इंजन लगाने की ठान ली और इंजन की तलाश भी शुरू कर दी। इसी दौरान किसी काम से उनका नागपुर जाना हुआ और वहां की एक कबाड़ी की दुकान में इंजन भी मिल गया।
साइकल में इंजन लगाने और उसे गाड़ी का रूप देने में उन्हें इंजीनियरिंग संबंधी विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन करना पड़ा। काफी मशक्कत के बाद उन्हें इस कार्य में सफलता मिल गयी। इस कार्य के लिए उन्हें साढ़े छह सौ रूपए खर्च करने पड़े थे। जबकि लूना की कीमत उस समय ८ हजार रुपए थी।
कुछ वर्षों तक वे ७० किमी प्रति लीटर के हिसाब से चलने वाली साइकल से आमागढ़ आते-जाते रहे। इसके बाद उन्होंने बैटरी से चलने वाली साढ़े बारह हजार मूल्य की एक साइकल छिंदवाड़ा से खरीदी। यहां गौर करने वाली बात श्री खान छिंदवाड़ा और सिवनी जिले में सबसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने बैटरी से चलने वाली साइकल खरीदी थी।
उन्होंने बताया कि कुछ ही समय बाद साइकल की बैटरी और चार्जर खराब हो गए। इसे सुधारने के लिए कोई मैकेनिक उन्हें नहीं मिला। यहां तक चार्जर सुधरवाने के लिए वे बाम्बे तक गये लेकिन वहां भी नहीं सुधरा और न ही बैटरी मिली।
इस स्थिति में उन्होंने पुनः किताबों का अध्ययन किया और चार्जर को सुधार लिया। साथ ही बैटरी का जुगाड़ उन्होंने कम्प्यूटर में लगने वाली वेकअप बैटरी से कर लिया। आज वे इस बैटरी से अपनी साइकल चलाते हुए रोजाना २४ किमी का सफर तय करते हैं। इतने सफर में उनका रोज ५ रुपए व्यय होता है।
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
शनिवार, 28 नवंबर 2009
छठी इंद्रिय
मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता.. छठी इंद्रिय
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
हमारी सबसे बड़ी योग्यता क्या है ? जीवन के विहंगम दृश्य को देखने की हमारी दृष्टि ? गीत और भाषा की ध्वनियाँ सुनने की शक्ति ? भौतिक संसार का आनंद अनुभव करने की क्षमता ? या शायद समृद्घ प्रकृति की मधुरता और सौंदर्य का स्वाद व गंध लेने की योग्यता ? दार्शनिको व मनोवैज्ञानिको का मत है कि हमारी सबसे अधिक मूल्यवान अनुभूति है हमारी ‘‘मस्तिष्कदृष्टि’’ (mindsight) . जिसे छठी इंद्रिय के रूप में भी विश्लेषित किया जाता है । यह एक दिव्यदृष्टि है . हमारे जीवन की कार्ययोजना भी यही तय करती है . यह एक सपना है और उस सपने को हक़ीक़त में बदलने की योग्यता भी । यही मस्तिष्क दृष्टि हमारी सोच निर्धारित करती है और सफल सोच से ही हमें व्यावहारिक राह सूझती है , मुश्किल समय में हमारी सोच ही हमें भावनात्मक संबल देती है। अपनी सोच के सहारे ही हम अपने अंदर छुपी शक्तिशाली कथित ‘‘छठी इंद्रिय’’ को सक्रिय कर सकते हैं और जीवन में उसका प्रभावी प्रयोग कर सकते हैं। हममें से बहुत कम लोग जानते हैं कि दरअसल हम अपने आप से चाहते क्या हैं ? यह तय है कि जीवन लक्ष्य निर्धारित कर सही दिशा में चलने पर हमारा जीवन जितना रोमांचक, संतुष्टिदायक और सफल हो सकता है, निरुद्देश्य जीवन वैसा हो ही नहीं सकता। हम ख़ुद को ऐसी राह पर कैसे ले जायें, जिससे हमें स्थाई सुख और संतुष्टि मिले। सफलता व्यक्तिगत सुख की पर्यायवाची है। हम अपने बारे में, अपने काम के बारे में, अपने रिश्तों के बारे में और दुनिया के बारे में कैसा महसूस करते हैं, यही तथ्य हमारी व्यक्तिगत सफलता व संतुष्टि का निर्धारक होता है।
सच्चे सफल लोग हर नये दिन का स्वागत उत्साह, आत्मविश्वास और आशा के साथ करते हैं। उन्हें ख़ुद पर भरोसा होता है और उस जीवन शैली पर भी, जिसे जीने का विकल्प उन्होंने चुना है। वे जानते हैं कि जीवन में कुछ पाने के लिए उन्हें अपनी सारी शक्ति एकाग्र कर लगानी पड़ेगी । वे अपने काम से प्रेम करते हैं। वे लोग दूसरों को प्रेरित करने में कुशल होते हैं और दूसरों की उपलब्धियों पर ख़ुश होते हैं। वे दूसरों का ध्यान रखते हैं, उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं स्वाभाविक रूप से प्रतिसाद में उन्हें भी अच्छा व्यवहार मिलता है। मस्तिष्कदृष्टि द्वारा हम जानते हैं, कि मेहनत, चुनौती और त्याग जीवन के हिस्से हैं। हम हर दिन को व्यक्तिगत विकास के अवसर में बदल सकते हैं। सफल व्यक्ति डर का सामना करके उसे जीत लेते हैं और दर्द को झेलकर उसे हरा देते हैं। उनमें अपने दैनिक जीवन में सुख पैदा करने की क्षमता होती है, जिससे उनके आसपास रहने वाले लोग भी सुखी हो जाते हैं। उनकी निश्छल मुस्कान , उनकी आंतरिक शक्ति और जीवन की सकारात्मक शैली का प्रमाण होती है।
क्या आप उतने सुखी हैं, जितने आप होना चाहते हैं ? क्या आप अपने सपनों का जीवन जी रहे हैं या फिर आप उतने से ही संतुष्ट होने की कोशिश कर रहे हैं, जो आपके हिसाब से आपको मिल सका है ? क्या आपको हर दिन सुंदर व संतुष्टिदायक अनुभवों से भरे अद्भुत अवसर की तरह दिखता है ? अगर ऐसा नहीं है, तो सच मानिये कि व्यापक संभावनाये आपको निहार रही हैं . किसी को भी संपूर्ण, समृद्ध और सफलता से भरे जीवन से कम पर समझौता नहीं करना चाहिये। आप अपनी मनचाही ज़िंदगी जीने में सफल हो पायेंगे या नहीं, यह पूरी तरह आप पर ही निर्भर है .आप सब कुछ कर सकते हैं, बशर्तें आप ठान लें। अपने जीवन के मालिक बनें और अपने मस्तिष्क में निहित अद्भुत संभावनाओं को पहचानकर उनका दोहन करें। अगर मुश्किलें और समस्याएँ आप पर हावी हो रही हैं तथा आपका आत्मविश्वास डगमगा रहा है, तो जरूरत है कि आप समझें कि आप अपनी समस्या का सामना कर सकते हैं .आप स्वयं को प्रेरित कर , आत्मविश्वास अर्जित कर सकते हैं , आप अपने डर भूल सकते हैं ,असफलता के विचारों से मुक्त हो सकते हैं ,आप में नैसर्गिक क्षमता है कि आप चमत्कार कर सकते हैं , आप अपने प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से लाभ उठा कर अपना जीवन बदल सकते हैं ,आप शांति से और हास्य-बोध के साथ खुशहाल जीवन जी सकते हैं , शिखर पर पहुँचकर वहाँ स्थाई रूप से बने रह सकते हैं , और इस सबके लिये आपको अलग से कोई नये यत्न नही करने है केवल अपनी मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता को एक दिशा देकर विकसित करते जाना है .
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
हमारी सबसे बड़ी योग्यता क्या है ? जीवन के विहंगम दृश्य को देखने की हमारी दृष्टि ? गीत और भाषा की ध्वनियाँ सुनने की शक्ति ? भौतिक संसार का आनंद अनुभव करने की क्षमता ? या शायद समृद्घ प्रकृति की मधुरता और सौंदर्य का स्वाद व गंध लेने की योग्यता ? दार्शनिको व मनोवैज्ञानिको का मत है कि हमारी सबसे अधिक मूल्यवान अनुभूति है हमारी ‘‘मस्तिष्कदृष्टि’’ (mindsight) . जिसे छठी इंद्रिय के रूप में भी विश्लेषित किया जाता है । यह एक दिव्यदृष्टि है . हमारे जीवन की कार्ययोजना भी यही तय करती है . यह एक सपना है और उस सपने को हक़ीक़त में बदलने की योग्यता भी । यही मस्तिष्क दृष्टि हमारी सोच निर्धारित करती है और सफल सोच से ही हमें व्यावहारिक राह सूझती है , मुश्किल समय में हमारी सोच ही हमें भावनात्मक संबल देती है। अपनी सोच के सहारे ही हम अपने अंदर छुपी शक्तिशाली कथित ‘‘छठी इंद्रिय’’ को सक्रिय कर सकते हैं और जीवन में उसका प्रभावी प्रयोग कर सकते हैं। हममें से बहुत कम लोग जानते हैं कि दरअसल हम अपने आप से चाहते क्या हैं ? यह तय है कि जीवन लक्ष्य निर्धारित कर सही दिशा में चलने पर हमारा जीवन जितना रोमांचक, संतुष्टिदायक और सफल हो सकता है, निरुद्देश्य जीवन वैसा हो ही नहीं सकता। हम ख़ुद को ऐसी राह पर कैसे ले जायें, जिससे हमें स्थाई सुख और संतुष्टि मिले। सफलता व्यक्तिगत सुख की पर्यायवाची है। हम अपने बारे में, अपने काम के बारे में, अपने रिश्तों के बारे में और दुनिया के बारे में कैसा महसूस करते हैं, यही तथ्य हमारी व्यक्तिगत सफलता व संतुष्टि का निर्धारक होता है।
सच्चे सफल लोग हर नये दिन का स्वागत उत्साह, आत्मविश्वास और आशा के साथ करते हैं। उन्हें ख़ुद पर भरोसा होता है और उस जीवन शैली पर भी, जिसे जीने का विकल्प उन्होंने चुना है। वे जानते हैं कि जीवन में कुछ पाने के लिए उन्हें अपनी सारी शक्ति एकाग्र कर लगानी पड़ेगी । वे अपने काम से प्रेम करते हैं। वे लोग दूसरों को प्रेरित करने में कुशल होते हैं और दूसरों की उपलब्धियों पर ख़ुश होते हैं। वे दूसरों का ध्यान रखते हैं, उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं स्वाभाविक रूप से प्रतिसाद में उन्हें भी अच्छा व्यवहार मिलता है। मस्तिष्कदृष्टि द्वारा हम जानते हैं, कि मेहनत, चुनौती और त्याग जीवन के हिस्से हैं। हम हर दिन को व्यक्तिगत विकास के अवसर में बदल सकते हैं। सफल व्यक्ति डर का सामना करके उसे जीत लेते हैं और दर्द को झेलकर उसे हरा देते हैं। उनमें अपने दैनिक जीवन में सुख पैदा करने की क्षमता होती है, जिससे उनके आसपास रहने वाले लोग भी सुखी हो जाते हैं। उनकी निश्छल मुस्कान , उनकी आंतरिक शक्ति और जीवन की सकारात्मक शैली का प्रमाण होती है।
क्या आप उतने सुखी हैं, जितने आप होना चाहते हैं ? क्या आप अपने सपनों का जीवन जी रहे हैं या फिर आप उतने से ही संतुष्ट होने की कोशिश कर रहे हैं, जो आपके हिसाब से आपको मिल सका है ? क्या आपको हर दिन सुंदर व संतुष्टिदायक अनुभवों से भरे अद्भुत अवसर की तरह दिखता है ? अगर ऐसा नहीं है, तो सच मानिये कि व्यापक संभावनाये आपको निहार रही हैं . किसी को भी संपूर्ण, समृद्ध और सफलता से भरे जीवन से कम पर समझौता नहीं करना चाहिये। आप अपनी मनचाही ज़िंदगी जीने में सफल हो पायेंगे या नहीं, यह पूरी तरह आप पर ही निर्भर है .आप सब कुछ कर सकते हैं, बशर्तें आप ठान लें। अपने जीवन के मालिक बनें और अपने मस्तिष्क में निहित अद्भुत संभावनाओं को पहचानकर उनका दोहन करें। अगर मुश्किलें और समस्याएँ आप पर हावी हो रही हैं तथा आपका आत्मविश्वास डगमगा रहा है, तो जरूरत है कि आप समझें कि आप अपनी समस्या का सामना कर सकते हैं .आप स्वयं को प्रेरित कर , आत्मविश्वास अर्जित कर सकते हैं , आप अपने डर भूल सकते हैं ,असफलता के विचारों से मुक्त हो सकते हैं ,आप में नैसर्गिक क्षमता है कि आप चमत्कार कर सकते हैं , आप अपने प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से लाभ उठा कर अपना जीवन बदल सकते हैं ,आप शांति से और हास्य-बोध के साथ खुशहाल जीवन जी सकते हैं , शिखर पर पहुँचकर वहाँ स्थाई रूप से बने रह सकते हैं , और इस सबके लिये आपको अलग से कोई नये यत्न नही करने है केवल अपनी मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता को एक दिशा देकर विकसित करते जाना है .
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
शुक्रवार, 27 नवंबर 2009
हिंदी सबके मन बसी : संजीव 'सलिल'
हिंदी सबके मन बसी
आचार्य संजीव'सलिल', संपादक दिव्य नर्मदा
हिंदी भारत भूमि के, जन-गण को वरदान.
हिंदी से ही हिंद का, संभव है उत्थान..
संस्कृत की पौत्री प्रखर, प्राकृत-पुत्री शिष्ट.
उर्दू की प्रेमिल बहिन, हिंदी परम विशिष्ट..
हिंदी आटा माढिए, उर्दू मोयन डाल.
'सलिल' संस्कृत तेल ले, पूड़ी बने कमाल..
ईंट बने सब बोलियाँ, गारा भाषा नम्य.
भवन भव्य है हिंद का, हिंदी ह्रदय प्रणम्य.
संस्कृत पाली प्राकृत, हिंदी उर्दू संग.
हर भाषा-बोली लगे, भव्य लिए निज रंग..
सब भाषाएँ-बोलियाँ, सरस्वती के रूप.
स्नेह पले, साहित्य हो, सार्थक सरस अनूप..
भाषा-बोली श्रेष्ठ हर, त्याज्य न कोई हेय.
सबसे सबका स्नेह ही, हो लेखन का ध्येय..
उपवन में कलरव करें, पंछी नित्य अनेक.
भाषाएँ अगणित रखें, मन में नेह-विवेक..
भाषा बोले कोई भी. किन्तु बोलिए शुद्ध.
दिल से दिल तक जा सके, बनकर दूत प्रबुद्ध..
आचार्य संजीव'सलिल', संपादक दिव्य नर्मदा
हिंदी भारत भूमि के, जन-गण को वरदान.
हिंदी से ही हिंद का, संभव है उत्थान..
संस्कृत की पौत्री प्रखर, प्राकृत-पुत्री शिष्ट.
उर्दू की प्रेमिल बहिन, हिंदी परम विशिष्ट..
हिंदी आटा माढिए, उर्दू मोयन डाल.
'सलिल' संस्कृत तेल ले, पूड़ी बने कमाल..
ईंट बने सब बोलियाँ, गारा भाषा नम्य.
भवन भव्य है हिंद का, हिंदी ह्रदय प्रणम्य.
संस्कृत पाली प्राकृत, हिंदी उर्दू संग.
हर भाषा-बोली लगे, भव्य लिए निज रंग..
सब भाषाएँ-बोलियाँ, सरस्वती के रूप.
स्नेह पले, साहित्य हो, सार्थक सरस अनूप..
भाषा-बोली श्रेष्ठ हर, त्याज्य न कोई हेय.
सबसे सबका स्नेह ही, हो लेखन का ध्येय..
उपवन में कलरव करें, पंछी नित्य अनेक.
भाषाएँ अगणित रखें, मन में नेह-विवेक..
भाषा बोले कोई भी. किन्तु बोलिए शुद्ध.
दिल से दिल तक जा सके, बनकर दूत प्रबुद्ध..
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हिंदी सबके मन बसी --संजीव'सलिल'
हिंदी सबके मन बसी
आचार्य संजीव'सलिल', संपादक दिव्य नर्मदा
हिंदी भारत भूमि के, जन-गण को वरदान.
हिंदी से ही हिंद का, संभव है उत्थान..
संस्कृत की पौत्री प्रखर, प्राकृत-पुत्री शिष्ट.
उर्दू की प्रेमिल बहिन, हिंदी परम विशिष्ट..
हिंदी आटा माढिए, उर्दू मोयन डाल.
'सलिल' संस्कृत तेल ले, पूड़ी बने कमाल..
ईंट बने सब बोलियाँ, गारा भाषा नम्य.
भवन भव्य है हिंद का, हिंदी ह्रदय प्रणम्य.
संस्कृत पाली प्राकृत, हिंदी उर्दू संग.
हर भाषा-बोली लगे, भव्य लिए निज रंग..
सब भाषाएँ-बोलियाँ, सरस्वती के रूप.
स्नेह पले, साहित्य हो, सार्थक सरस अनूप..
भाषा-बोली श्रेष्ठ हर, त्याज्य न कोई हेय.
सबसे सबका स्नेह ही, हो लेखन का ध्येय..
उपवन में कलरव करें, पंछी नित्य अनेक.
भाषाएँ अगणित रखें, मन में नेह-विवेक..
भाषा बोले कोई भी. किन्तु बोलिए शुद्ध.
दिल से दिल तक जा सके, बनकर दूत प्रबुद्ध..
आचार्य संजीव'सलिल', संपादक दिव्य नर्मदा
हिंदी भारत भूमि के, जन-गण को वरदान.
हिंदी से ही हिंद का, संभव है उत्थान..
संस्कृत की पौत्री प्रखर, प्राकृत-पुत्री शिष्ट.
उर्दू की प्रेमिल बहिन, हिंदी परम विशिष्ट..
हिंदी आटा माढिए, उर्दू मोयन डाल.
'सलिल' संस्कृत तेल ले, पूड़ी बने कमाल..
ईंट बने सब बोलियाँ, गारा भाषा नम्य.
भवन भव्य है हिंद का, हिंदी ह्रदय प्रणम्य.
संस्कृत पाली प्राकृत, हिंदी उर्दू संग.
हर भाषा-बोली लगे, भव्य लिए निज रंग..
सब भाषाएँ-बोलियाँ, सरस्वती के रूप.
स्नेह पले, साहित्य हो, सार्थक सरस अनूप..
भाषा-बोली श्रेष्ठ हर, त्याज्य न कोई हेय.
सबसे सबका स्नेह ही, हो लेखन का ध्येय..
उपवन में कलरव करें, पंछी नित्य अनेक.
भाषाएँ अगणित रखें, मन में नेह-विवेक..
भाषा बोले कोई भी. किन्तु बोलिए शुद्ध.
दिल से दिल तक जा सके, बनकर दूत प्रबुद्ध..
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गुरुवार, 26 नवंबर 2009
गीतिका: अपने मन से हार रहे हैं -संजीव 'सलिल'
गीतिका
आचार्य संजीव 'सलिल'
अपने मन से हार रहे हैं.
छुरा पीठ में मार रहे हैं॥
गुलदस्ते हैं मृग मरीचिका।
छिपे नुकीले खार रहे हैं॥
जनसेवक आखेटक निकले।
जन-गण महज शिकार रहे हैं॥
दुःख के सौदे नगद हो रहे।
सुख-शुभ-सत्य उधार रहे हैं॥
शिशु-बच्चों को यौन-प्रशिक्षण?
पाँव कुल्हाडी मार रहे हैं॥
राष्ट्र गौड़, क्यों प्रान्त प्रमुख हो?
कलुषित क्षुद्र विचार रहे हैं॥
हुए अजनबी धन-पद पाकर।
कभी ह्रदय के हार रहे हैं॥
नेह नर्मदा की नीलामी।
'सलिल' हाथ अंगार रहे हैं॥
*********************
आचार्य संजीव 'सलिल'
अपने मन से हार रहे हैं.
छुरा पीठ में मार रहे हैं॥
गुलदस्ते हैं मृग मरीचिका।
छिपे नुकीले खार रहे हैं॥
जनसेवक आखेटक निकले।
जन-गण महज शिकार रहे हैं॥
दुःख के सौदे नगद हो रहे।
सुख-शुभ-सत्य उधार रहे हैं॥
शिशु-बच्चों को यौन-प्रशिक्षण?
पाँव कुल्हाडी मार रहे हैं॥
राष्ट्र गौड़, क्यों प्रान्त प्रमुख हो?
कलुषित क्षुद्र विचार रहे हैं॥
हुए अजनबी धन-पद पाकर।
कभी ह्रदय के हार रहे हैं॥
नेह नर्मदा की नीलामी।
'सलिल' हाथ अंगार रहे हैं॥
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
सड़क पर...ओवरटेकिंग और टर्निंग इंडीकेटर्स अलग अलग हों....!!!!
सड़क पर...ओवरटेकिंग और टर्निंग इंडीकेटर्स अलग अलग हों....!!!!
vivek ranjan shrivastava , jabalpur
सड़क पर , लेफ्ट या राइट टर्न के लिये , या लेन परिवर्तन के लिये चार पहिये वाले वाहन में बैठा ड्राइवर जिस दिशा में उसे मुड़ना होता है , उस दिशा का पीला इंडीकेटर जला कर पीछे से आने वाले वाहन को अपने अगले कदम का सिग्नल देता है . स्टीयरिंग के साथ जुड़े हुये लीवर के उस दिशा में टर्न करने से से वाहन की बाडी में लगे अगले व पिछले उस दिशा के पीले इंडीकेटर ब्लिंकिंग करने लगते हैं , वाहन के वापस सीधे होते ही स्वयं ही स्टीयरिंग के नीचे लगा लीवर अपने स्थान पर वापस आ जाता है , व इंडीकेटर लाइट बंद हो जाती है . जब आगे चल रही गाड़ी का ड्राइवर दाहिने ओर से पीछे से आते हुये वाहन को ओवर टेक करने की अनुमति देता है तब भी वह इन्ही इंडीकेटर के जरिये पीछे वाली गाड़ी को संकेत देता है . इसी तरह डिवाइडर वाली सड़को पर , बाई ओर से पीछे से आ रहे वाहन को भी ओवरटेक करने की अनुमति इसी तरह वाहन के बाई ओर लगे इंडीकेटर जलाकर दी जाती है .
इस तरह पीछे से आ रहे वाहन के चालक को स्व विवेक से समझना पड़ता है कि इंडीकेटर ओवरटेक की अनुमति है या आगे चल रहे वाहन के मुड़ने का संकेत है , जिसे समझने में हुई छोटी सी गलती भी एक्सीडेंट का कारण बन जाती है .
मेरा सुझाव है कि यदि वाहन निर्माता ओवर टेकिंग हेतु हरे रंग की लाइट , साइड बाडी पर और लगाने लगें तो यह दुविधा की स्थिति समाप्त हो सके व पीछे चल रहा चालक स्पष्ट रूप से आगे के वाहन के संकेत को समझ सके ...
क्या मेरे इस सुझाव पर आर टी ओ व वाहन निर्माता ध्यान देंगे ?
vivek ranjan shrivastava , jabalpur
सड़क पर , लेफ्ट या राइट टर्न के लिये , या लेन परिवर्तन के लिये चार पहिये वाले वाहन में बैठा ड्राइवर जिस दिशा में उसे मुड़ना होता है , उस दिशा का पीला इंडीकेटर जला कर पीछे से आने वाले वाहन को अपने अगले कदम का सिग्नल देता है . स्टीयरिंग के साथ जुड़े हुये लीवर के उस दिशा में टर्न करने से से वाहन की बाडी में लगे अगले व पिछले उस दिशा के पीले इंडीकेटर ब्लिंकिंग करने लगते हैं , वाहन के वापस सीधे होते ही स्वयं ही स्टीयरिंग के नीचे लगा लीवर अपने स्थान पर वापस आ जाता है , व इंडीकेटर लाइट बंद हो जाती है . जब आगे चल रही गाड़ी का ड्राइवर दाहिने ओर से पीछे से आते हुये वाहन को ओवर टेक करने की अनुमति देता है तब भी वह इन्ही इंडीकेटर के जरिये पीछे वाली गाड़ी को संकेत देता है . इसी तरह डिवाइडर वाली सड़को पर , बाई ओर से पीछे से आ रहे वाहन को भी ओवरटेक करने की अनुमति इसी तरह वाहन के बाई ओर लगे इंडीकेटर जलाकर दी जाती है .
इस तरह पीछे से आ रहे वाहन के चालक को स्व विवेक से समझना पड़ता है कि इंडीकेटर ओवरटेक की अनुमति है या आगे चल रहे वाहन के मुड़ने का संकेत है , जिसे समझने में हुई छोटी सी गलती भी एक्सीडेंट का कारण बन जाती है .
मेरा सुझाव है कि यदि वाहन निर्माता ओवर टेकिंग हेतु हरे रंग की लाइट , साइड बाडी पर और लगाने लगें तो यह दुविधा की स्थिति समाप्त हो सके व पीछे चल रहा चालक स्पष्ट रूप से आगे के वाहन के संकेत को समझ सके ...
क्या मेरे इस सुझाव पर आर टी ओ व वाहन निर्माता ध्यान देंगे ?
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
बुधवार, 25 नवंबर 2009
स्मृति गीत: तुम जाकर भी / गयी नहीं हो... संजीव 'सलिल'
स्मृति गीत:
पूज्य मातुश्री स्व. शांतिदेवी की प्रथम बरसी पर-
संजीव 'सलिल'
धीर बहुत थी.
डगर-मगर उस
भोर नहाया.
प्रभु को जी भर
भोग लगाया.
खाई न औषधि
तुम जाकर भी
गयी नहीं हो...
*
गिरी, कँपा
सारा भू मंडल.
युग सम बीता
पखवाडा-पल.
आँख बोलती
जिव्हा चुप्प थी.
जीवन आशा
हुई गुप्प थी.
नहीं रहीं पर
रहीं यहीं हो
तुम जाकर भी
गयी नहीं हो...
*
पूज्य मातुश्री स्व. शांतिदेवी की प्रथम बरसी पर-
संजीव 'सलिल'
गयी नहीं हो...
*
बरस हो गया
तुम्हें न देखा.
मिति न किंचित
स्मृति रेखा.
प्रतिदिन लगता
टेर रही हो.
देर हुई, पथ
हेर रही हो.
गोदी ले
मुझको दुलरातीं.
मैया मेरी
बसी यहीं हो.
तुम जाकर भी
गयी नहीं हो...
*
सच घुटने में पीर बहुत थी.
लेकिन तुममें धीर बहुत थी.
डगर-मगर उस
भोर नहाया.
प्रभु को जी भर
भोग लगाया.
खाई न औषधि
तुम जाकर भी
गयी नहीं हो...
*
गिरी, कँपा
सारा भू मंडल.
युग सम बीता
पखवाडा-पल.
आँख बोलती
जिव्हा चुप्प थी.
जीवन आशा
हुई गुप्प थी.
नहीं रहीं पर
रहीं यहीं हो
तुम जाकर भी
गयी नहीं हो...
*
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-acharya sanjiv 'salil',
Contemporary Hindi Poetry,
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
मंगलवार, 24 नवंबर 2009
मैथिली गीत सब एलय फगुआ में सजना लल्लन प्रसाद ठाकुर
मैथिली गीत
- लल्लन प्रसाद ठाकुर -
सब एलय फगुआ में सजना ,
अहाँ बिना मोर आँगन सूना ।
सब एलय ....................।
चतुर्थिक राति अहाँ पढिते रहलहुँ,
भोरे उठि कs अहाँ चलि देलहुँ ।
चिट्ठियो नहि देलहुँ खबरियो नहि लेलहुँ,
जाइत काल एकोटा फोटुओ देलहुँ ।
इहो नहि बुझलियय हम जीबय कोना ।
सब एलय .................... ।
खूब पढू खूब पढू खूब पढू यौ,
कखनो कs हमरो बिचारि करू यौ,
लाल काकी के जोड़ा बेटा भेलैंह,
सौंसे गामे के ओ भोज केलैन्ह,
अपन कर्मक लिखल के मेटत के,
ककरो एकोटा नहि ककरो भेंटय दूना ।
सब एलय .................... ।
*******************************
- लल्लन प्रसाद ठाकुर -
सब एलय फगुआ में सजना ,
अहाँ बिना मोर आँगन सूना ।
सब एलय ....................।
चतुर्थिक राति अहाँ पढिते रहलहुँ,
भोरे उठि कs अहाँ चलि देलहुँ ।
चिट्ठियो नहि देलहुँ खबरियो नहि लेलहुँ,
जाइत काल एकोटा फोटुओ देलहुँ ।
इहो नहि बुझलियय हम जीबय कोना ।
सब एलय .................... ।
खूब पढू खूब पढू खूब पढू यौ,
कखनो कs हमरो बिचारि करू यौ,
लाल काकी के जोड़ा बेटा भेलैंह,
सौंसे गामे के ओ भोज केलैन्ह,
अपन कर्मक लिखल के मेटत के,
ककरो एकोटा नहि ककरो भेंटय दूना ।
सब एलय .................... ।
*******************************
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सोमवार, 23 नवंबर 2009
शोकगीत: नाथ मुझे क्यों / किया अनाथ? संजीव 'सलिल'
पूज्य मातुश्री स्व. शांति देवि जी की प्रथम बरसी पर शोकगीत:
नाथ मुझे क्यों / किया अनाथ?
संजीव 'सलिल'
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
छीन लिया क्यों
माँ को तुमने?
कितना तुम्हें
मनाया हमने?
रोग मिटा कर दो
निरोग पर-
निर्मम उन्हें
उठाया तुमने.
करुणासागर!
दिया न साथ.
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
मैया तो थीं
दिव्य-पुनीता.
मन रामायण,
तन से गीता.
कर्तव्यों को
निश-दिन पूजा.
अग्नि-परीक्षा
देती सीता.
तुम्हें नवाया
निश-दिन माथ.
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
हरी! तुमने क्यों
चाही मैया?
क्या अब भी
खेलोगे कैया?
दो-दो मैया
साथ तुम्हारे-
हाय! डुबा दी
क्यों फिर नैया?
उत्तर दो मैं
जोडूँ हाथ.
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
नाथ मुझे क्यों / किया अनाथ?
संजीव 'सलिल'
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
छीन लिया क्यों
माँ को तुमने?
कितना तुम्हें
मनाया हमने?
रोग मिटा कर दो
निरोग पर-
निर्मम उन्हें
उठाया तुमने.
करुणासागर!
दिया न साथ.
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
मैया तो थीं
दिव्य-पुनीता.
मन रामायण,
तन से गीता.
कर्तव्यों को
निश-दिन पूजा.
अग्नि-परीक्षा
देती सीता.
तुम्हें नवाया
निश-दिन माथ.
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
हरी! तुमने क्यों
चाही मैया?
क्या अब भी
खेलोगे कैया?
दो-दो मैया
साथ तुम्हारे-
हाय! डुबा दी
क्यों फिर नैया?
उत्तर दो मैं
जोडूँ हाथ.
नाथ ! मुझे क्यों
किया अनाथ?...
*
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मेघदूत ..३६ से ४०
मेघदूत ..३६ से ४०
Hindi translation ..by Prof. C.B. Shrivastava" vidagdh"..JABALPUR
मूल संस्कृत
भर्तुः कण्ठच्चविर इति गणैः सादरं वीक्ष्यमाणः
पुण्यं यायास त्रिभुवनगुरोर धाम चण्डीश्वरस्य
धूतोद्यानं कुवलयरजोगन्धिभिर गन्धवत्यास
तोयक्रीडानिरतयुवतिस्नानतिक्तैर मरुद्भिः॥१.३६॥
हिन्दी पद्यानुवाद
वहां केशगंधी अगरु धूम्र से हृष्ट
पा गृहशिखी से मिलन नृत्य उपहार
सुमन गंधसज्जित चरमराग रंजित
भवन श्री निरख , भूल श्रम , मार्ग कर पार
मूल संस्कृत
अप्य अन्यस्मिञ जलधर महाकालम आसाद्य काले
स्थातव्यं ते नयनविषयं यावद अत्येति भानुः
कुर्वन सन्ध्यावलिपटहतां शूलिनः श्लाघनीयाम
आमन्द्राणां फलम अविकलं लप्स्यसे गर्जितानाम॥१.३७॥
हिन्दी पद्यानुवाद
स्वामी सदृश कंठ , छबिवान तुम
गण समावृत महाकाल के धाम जाना
नदी स्नान क्रीड़ा निरत युवतिजन की
कमल धूलि मिस्रित पवन गंध पाना
मूल संस्कृत
पादन्यासैः क्वणितरशनास तत्र लीलावधूतै
रत्नच्चायाखचितवलिभिश चामरैः क्लान्तहस्ताः
वेश्यास त्वत्तो नखपदसुखान प्राप्य वर्षाग्रबिन्दून
आमोक्ष्यन्ते त्वयि मधुकरश्रेणिदीर्घान कटक्षान॥१.३८॥
हिन्दी पद्यानुवाद
कहीं शाम के पूर्व जो मेघ पहुंचो
वहां सूर्य के अस्त तक विरम जाना
त्रिशूली महाकाल के सांध्यवंदन
समय गर्ज दुन्दुभि बजा पुण्य पाना
मूल संस्कृत
पश्चाद उच्चैर्भुजतरुवनं मण्डलेनाभ्लीनः
सांध्यं तेजः प्रतिनवजपापुष्परक्तं दधानः
नृत्तारम्भे हर पशुपतेर आर्द्रनागाजिनेच्चां
शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर भवान्या॥१.३९॥
हिन्दी पद्यानुवाद
वहां चरण निक्षेप से क्वणित रसना
जड़ित चँवरधारे , थके हाथ वाली
नखक्षत सुखद मेहकण पा लखेंगी
भ्रमर पंक्ति नयना तुम्हें देवदासी
मूल संस्कृत
गच्चन्तीनां रमाणवसतिं योषितां तत्र नक्तं
रुद्धालोके नरपतिपथे सूचिभेद्यैस तमोभिः
सौदामन्या कनकनिकषस्निग्धया दर्शयोर्वीं
तोयोत्सर्गस्तनितमुहरो मा च भूर्विक्लवास्ताः॥१.४०॥
हिन्दी पद्यानुवाद
फिर नृत्य में उठे भुजतरु शिखर लिप्त
हो , शंभु के धर जुही सांध्य लाली
हर गज अजिन आद्र परिधान इच्छा
लखें भक्ति , सस्मितवदन तव , भवानी
Hindi translation ..by Prof. C.B. Shrivastava" vidagdh"..JABALPUR
मूल संस्कृत
भर्तुः कण्ठच्चविर इति गणैः सादरं वीक्ष्यमाणः
पुण्यं यायास त्रिभुवनगुरोर धाम चण्डीश्वरस्य
धूतोद्यानं कुवलयरजोगन्धिभिर गन्धवत्यास
तोयक्रीडानिरतयुवतिस्नानतिक्तैर मरुद्भिः॥१.३६॥
हिन्दी पद्यानुवाद
वहां केशगंधी अगरु धूम्र से हृष्ट
पा गृहशिखी से मिलन नृत्य उपहार
सुमन गंधसज्जित चरमराग रंजित
भवन श्री निरख , भूल श्रम , मार्ग कर पार
मूल संस्कृत
अप्य अन्यस्मिञ जलधर महाकालम आसाद्य काले
स्थातव्यं ते नयनविषयं यावद अत्येति भानुः
कुर्वन सन्ध्यावलिपटहतां शूलिनः श्लाघनीयाम
आमन्द्राणां फलम अविकलं लप्स्यसे गर्जितानाम॥१.३७॥
हिन्दी पद्यानुवाद
स्वामी सदृश कंठ , छबिवान तुम
गण समावृत महाकाल के धाम जाना
नदी स्नान क्रीड़ा निरत युवतिजन की
कमल धूलि मिस्रित पवन गंध पाना
मूल संस्कृत
पादन्यासैः क्वणितरशनास तत्र लीलावधूतै
रत्नच्चायाखचितवलिभिश चामरैः क्लान्तहस्ताः
वेश्यास त्वत्तो नखपदसुखान प्राप्य वर्षाग्रबिन्दून
आमोक्ष्यन्ते त्वयि मधुकरश्रेणिदीर्घान कटक्षान॥१.३८॥
हिन्दी पद्यानुवाद
कहीं शाम के पूर्व जो मेघ पहुंचो
वहां सूर्य के अस्त तक विरम जाना
त्रिशूली महाकाल के सांध्यवंदन
समय गर्ज दुन्दुभि बजा पुण्य पाना
मूल संस्कृत
पश्चाद उच्चैर्भुजतरुवनं मण्डलेनाभ्लीनः
सांध्यं तेजः प्रतिनवजपापुष्परक्तं दधानः
नृत्तारम्भे हर पशुपतेर आर्द्रनागाजिनेच्चां
शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर भवान्या॥१.३९॥
हिन्दी पद्यानुवाद
वहां चरण निक्षेप से क्वणित रसना
जड़ित चँवरधारे , थके हाथ वाली
नखक्षत सुखद मेहकण पा लखेंगी
भ्रमर पंक्ति नयना तुम्हें देवदासी
मूल संस्कृत
गच्चन्तीनां रमाणवसतिं योषितां तत्र नक्तं
रुद्धालोके नरपतिपथे सूचिभेद्यैस तमोभिः
सौदामन्या कनकनिकषस्निग्धया दर्शयोर्वीं
तोयोत्सर्गस्तनितमुहरो मा च भूर्विक्लवास्ताः॥१.४०॥
हिन्दी पद्यानुवाद
फिर नृत्य में उठे भुजतरु शिखर लिप्त
हो , शंभु के धर जुही सांध्य लाली
हर गज अजिन आद्र परिधान इच्छा
लखें भक्ति , सस्मितवदन तव , भवानी
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
नव गीत: घर को 'सलिल' मकान मत कहो... --संजीव 'सलिल'
नव गीत
संजीव 'सलिल'
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
कंकर में
शंकर बसता है
देख सको तो देखो.
कण-कण में
ब्रम्हांड समाया
सोच-समझ कर लेखो.
जो अजान है
उसको तुम
बेजान मत कहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
*
भवन, भावना से
सम्प्राणित
होते जानो.
हर कमरे-
कोने को
देख-भाल पहचानो.
जो आश्रय देता
है देव-स्थान
नत रहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
घर के प्रति
श्रद्धानत हो
तब खेलो-डोलो.
घर के
कानों में स्वर
प्रीति-प्यार के घोलो.
घर को
गर्व कहो लेकिन
अभिमान मत कहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
स्वार्थों का
टकराव देखकर
घर रोता है.
संतति का
भटकाव देख
धीरज खोता है.
नवता का
आगमन, पुरा-प्रस्थान
मत कहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
घर भी
श्वासें लेता
आसों को जीता है.
तुम हारे तो
घर दुःख के
आँसू पीता है.
जयी देख घर
हँसता, मैं अनजान
मत कहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
संजीव 'सलिल'
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
कंकर में
शंकर बसता है
देख सको तो देखो.
कण-कण में
ब्रम्हांड समाया
सोच-समझ कर लेखो.
जो अजान है
उसको तुम
बेजान मत कहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
*
भवन, भावना से
सम्प्राणित
होते जानो.
हर कमरे-
कोने को
देख-भाल पहचानो.
जो आश्रय देता
है देव-स्थान
नत रहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
घर के प्रति
श्रद्धानत हो
तब खेलो-डोलो.
घर के
कानों में स्वर
प्रीति-प्यार के घोलो.
घर को
गर्व कहो लेकिन
अभिमान मत कहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
स्वार्थों का
टकराव देखकर
घर रोता है.
संतति का
भटकाव देख
धीरज खोता है.
नवता का
आगमन, पुरा-प्रस्थान
मत कहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
*
घर भी
श्वासें लेता
आसों को जीता है.
तुम हारे तो
घर दुःख के
आँसू पीता है.
जयी देख घर
हँसता, मैं अनजान
मत कहो.
घर को 'सलिल'
मकान मत कहो...
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