दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शुक्रवार, 8 मई 2009
शब्द-सलिला: गणना -अजित वडनेरकर
अ गर हम कहें कि सिरों की गिनती से ही सरदार चुने जाते हैं तो इस बात को अटपटा समझा जाएगा। मगर बात सच है। चुनाव को लिए पोल poll शब्द भी भारत में प्रचलित है। पोल, पोलिंग और ओपिनियन पोल जैसे शब्द अब चुनावी संदर्भो में हिन्दी में खूब इस्तेमाल होते हैं। पोल शब्द की व्युत्पत्ति दिलचस्प है।
अंग्रेजी का पोल poll शब्द प्राचीन डच भाषा का है जिसका अर्थ होता है सिर। शरीर का ऊपरी हिस्सा। खासतौर पर वह जिस पर केश हों। प्राचीनकाल में मानव समाज पशुपालक था। विभिन्न समूहों के साथ उनके पालतू पशु भी साथ रहते थे। आमतौर पर इन्हें चिह्मित किया जाता था मगर दिनभर चरागाहों में चरने के बाद शाम को जब ये मवेशी लौटते थे तो इनकी गिनती अनिवार्य तौर पर होती थी। आज भी गांवों में ऐसा ही होता है। पशुओं की गिनती उनके सिर से होती थी।
सिर का प्रतीक सिर्फ इतना ही है कि यह शरीर का वह प्रमुख हिस्सा है जिस पर सबसे पहले नजर पड़ती है। क्योंकि यह शरीर के ऊपरी हिस्से पर होता है। हिन्दी, फारसी, उर्दू का सिर शब्द संस्कृत के शीर्ष से बना है जिसका मतलब होता है सर्वोच्च, सबसे ऊपर। इससे ही फारसी का सरदार शब्द बना है अर्थात प्रमुख व्यक्ति। सरदार में सिरवाला या बड़े सिरवाला जैसा भाव न होकर शीर्ष अर्थात सर्वोच्च का भाव है। यही प्रक्रिया अंग्रेजी में भी प्रमुख व्यक्ति के लिए हैड के संदर्भ में देखी जा सकती है। हैड का अर्थ सिर होता है मगर इसका प्रयोग प्रमुख या प्रधान के तौर पर भी होता है।
पशुगणना से उठकर यह शब्द जन समूहों में किसी मुद्दे पर सबकी राय जानने का जरिया भी बना। जिस मुद्दे पर लोगों की राय जाननी होती है आमतौर पर आज भी सहमति या असहमति व्यक्त करने के लिए सिर हिलाया जाता है। प्राचीनकाल में भी पक्ष और विपक्ष के लोगों के सिर गिनने के बाद बहुमत के आधार पर निर्णय लिया जाता था। इस तरह सिर गिनने की प्रक्रिया किसी मामले पर लोगों की रायशुमारी या निर्वचन का तरीका बन गई।
पशुगणना से होते हुए जन समूहों की रायशुमारी के बाद यही पोल आधुनिक दौर में लोकतात्रिक प्रणाली का आधार बना है। मतपत्र के लिए बैलट शब्द का इस्तेमाल होता है। भाषाविज्ञानियों के मुताबिक यह शब्द भी भारोपीय भाषा परिवार का है। अग्रेजी का बैलट बना है इतालवी के बलोट्टा ballotta से जिसका अर्थ होता है छोटी गेंद।
रोमनकाल में मतों के निर्धारण के लिए नन्हीं गेंदों का प्रयोग किया जाता था। कुछ संदर्भो के अनुसार एक घड़ेनुमा पात्र में मत के प्रतीक स्वरूप ये गेंदें डाली जाती थी जिनकी गणना बाद में की जाती थी। कुछ संदर्भों के अनुसार घड़े मे डाली गई गेंदों में से किसी एक को लाटरी पद्धति से निकाल लिया जाता था।
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गुरुवार, 7 मई 2009
सूक्ति सलिला: Dream स्वप्न -प्रो. बी. पी. मिश्र'नियाज़' / सलिल
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नगर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है। प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।
सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-
Dream स्वप्न :
Dreams,
Which are the children of an idle brain,,
Begot of nothing but vain fantasy.'
स्वप्न ऐसे शिशु हैं जिनकी जननी व्यर्थ कल्पना और पिता एक निष्क्रिय मस्तिष्क है।
व्यर्थ कल्पना है जननि, जड़ दिमाग है तात.
'सलिल' स्वप्न शिशु जानिए, कहे अनकही बात..
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
हास्य दोहे: दोहा श्री ४२० -रामस्वरूप ब्रिजपुरिया, ग्वालियर
अंक चार सौ बीस तो, सिर्फ गणित का अंक.
करते अर्थ अनर्थ हैं, माथे लगा कलंक..
ठग औ' धोखेबाज को, कहें चार सौ बीस.
इस क्रमांक पर आ गयी, धारा यह कटपीस..
अब क्रमांक का कुछ नहीं, इसमें यहाँ कुसूर.
क्यों क्रमांक को कह रहे, धोखेबाज हुज़ूर..
लिखे चार सौ बीस ये, दोहे हाथों हाथ.
धोते अंक कलंक रख, दोहा श्री के साथ..
कविगण तो कहते रहे, लिखते हैं दो टूक.
उन पर क्या होगा असर, चाट रहे जो थूक..
फूलों से यह कह रहे, हास्य व्यंग के शूल.
अपनी निज पहचान तुम, कभी न जाना भूल..
बीस चार सौ दोहरे, ज्यों चौसर के दाँव.
देखत में छोटे लगें, देते गहरे घाव..
ब्रम्हा से दोहे बने, बनी विष्णु से टेक.
तेरह-ग्यारह मात्रा, से शिव का अभिषेक..
हास्य-व्यंग को जानिए, ज्यों लड्डू गोपाल.
कहावत में मीठे लगें, जावत पेट बवाल..
हास्य-व्यंग के पात दो, हँसा कबीर देख.
चक्की भी चलती रही, बनी न तन पर रेख..
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
काव्य कल्लोल : यामिनी -अग्निभ मुखर्जी
विपुलक विपुला विपिन अधर में,
श्वेत दुकूल लिपट.
अंतर आकुल अखिल अँधर से,
धारण कर नव पट.
जल-विप्लव में बहे तड़ित शशि,
राज तरंगिणी हे!
बहती चंचल, कल-कल सुरमय
सरित-सुधा बन के.
माधवियों का दल परिमलमय
आभा करे वरण.
चारु चन्द्र की तरि तिमिर से
मनु मन करे तरण.
विपुलक विपुला विपिन अँधर में
श्वेत दुकूल लिपट.
अभिरत पवनाधूत अजहर से
श्यामल तेरे लट.
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
बुधवार, 6 मई 2009
भजन: मिथिला में सजी बरात -स्व. शांतिदेवी
मिथिला में सजी बरात
मिथिला में सजी बरात, सखी! देखन चलिए...
शंख मंजीरा तुरही बाजे, सजे गली घर द्वार।
सखी! देखन चलिए...
हाथी सज गए, घोड़ा सज गए, सज गए रथ असवार।
सखी! देखन चलिए...
शिव-बिरंचि-नारद जी नभ से, देख करें जयकार।
सखी! देखन चलिए...
रामजी की घोडी झूम-नाचती, देख मुग्ध नर-नार।
सखी! देखन चलिए...
भरत-लखन की शोभा न्यारी, जनगण है बलिहार।
सखी! देखन चलिए...
लाल शत्रुघन लगें मनोहर, दशरथ रहे दुलार।
सखी! देखन चलिए...
'शान्ति' प्रफुल्लित हैं सुमंत जी, नाच रहे सरदार।
सखी! देखन चलिए...
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मात नर्मदे गोविन्द प्रसाद तिवारी 'देव', मंडला
ॐ रुद्रतनया नर्मदे, शत शत समर्पित वन्दना।
हे देव वन्दित, धरा-मंडित , भू तरंगित वन्दना॥
पयामृत धारामयी हो, ओ तरल तरंगना।
मीन, कच्छप मकर विचरें, नीर तीरे रंजना॥
कल-कल करती निनाद, उछल-कूद भँवर जाल।
दिव्य-रम्य शीतालाप, सत्य-शिवम् तिलक भाल॥
कोटि-कोटि तीर्थराज, कण-कण शिव जी विराज।
देव-दनुज नर बसते, तट पर तेरे स्वकाम।
मोदमयी अठखेलियाँ, नवल धवलित लहरियाँ।
अमरकंटकी कली, भारती चली किलकारियाँ॥
ओ! विन्ध्यवासिनी, अति उत्तंग रंजनी।
अटल, अचल, रागिनी, स्वयं शिवा-त्यागिनी॥
पाप-तापहारिणी, दिग्-दिगंत पालिनी।
शाश्वत मनभावनी, दूर दृष्टि गामिनी॥
पर्वत, गुह, वन, कछार, पथराया वन-पठार।
भील, गोंड, शिव, सांवर, ब्रम्हज्ञानी वा नागर।
सुर-नर-मुनियों की मीत, वनचर विचरें सप्रीत।
उच्च श्रृंग शाल-ताल, मुखरित वन लोकगीत॥
महामहिम तन प्रभाव, तीन लोक दर्शना।
धन-जन पालन स्वभाव, माता गिरी नंदना॥
निर्मल जल प्राण सोम, सार तोय वर्षिणी।
साधक मन सदा रटत, भक्ति कर्म- मोक्षिणी॥
ध्यान धरूँ, सदा जपूँ, मंगल कर वर्मदे।
मानस सतत विराज, देवि मातृ नर्मदे!!
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नव गीत: आचार्य संजीव 'सलिल'
मगरमच्छ सरपंच
मछलियाँ घेरे में
फंसे कबूतर आज
बाज के फेरे में...
सोनचिरैया विकल
न कोयल कूक रही
हिरनी नाहर देख
न भागी, मूक रही
जुड़े पाप ग्रह सभी
कुण्डली मेरे में...
गोली अमरीकी
बोली अंगरेजी है
ऊपर चढ़ क्यों
तोडी स्वयं नसेनी है?
सन्नाटा छाया
जनतंत्री डेरे में...
हँसिया फसलें
अपने घर में भरता है
घोड़ा-माली
हरी घास ख़ुद
चरता है
शोले सुलगे हैं
कपास के डेरे में...
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ग़ज़ल: मनु बेतखल्लुस, दिल्ली
मेरी निगाह ने वा कर दिए बवाल कई,
हुए हैं जान के दुश्मन ही हमखयाल कई
नज़र मिलाते ही मुझसे वो हुआ,
कहा था जिसने के, आ पूछ ले सवाल कई
उलट पलट दिया सब कुछ नई हवाओं ने,
कई निकाल दिए, हो गए बहाल कई
कहीं पे नूर, कहीं ज़ुल्मतें बरसती रहीं,
दिखाए रौशनी ने ऐसे भी कमाल कई
है बादे-मर्ग की बस्ती ज़रा अदब से चल,
यहाँ पे सोये हैं, तुझ जैसे बेमिसाल कई ************
शब्द सलिला: लखपति -अजित वडनेरकर
भारतीय उपमहाद्वीप में हज़ार, लाख, करोड़ शब्दों का आम इस्तेमाल होता है। पाकिस्तान में भी और बांग्लादेश में भी।
हिन्दी-उर्दू के करोड़ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के कोटि crore से हुई है। जबकि लाख की व्युत्पत्ति लक्ष से और फ़ारसी का हज़ार शब्द आ रहा है इंड़ो-ईरानी परिवार के हस्र से।
संस्कृत का कोटि शब्द कुट् धातु से बना है। धातुएं अक्सर विभिन्नार्थक होती हैं। कुट् का एक अर्थ होता है वक्र या टेढ़ा। दिलचस्प बात यह है यही वक्रता या टेढ़ापन ही उच्च, सर्वोच्च, निम्नता या पतन का कारण भी है। पृथ्वी की सतह पर आई वक्रता ने ही पहाड़ों के उच्च शिखरों को जन्म दिया इसीलिए इससे बना कोट शब्द पहाड़ या किले के अर्थ में प्रचलित है। किसी टहनी को जब मोड़ा जाता है तो अपने आप उसके घुमाव वाले स्थान पर उभार आना शुरु हो जाता है। इस कोण में तीक्ष्णता, पैनापन और उच्चता समाहित रहती है। इसी धातु से बने कोटि शब्द में यह भाव और स्पष्ट है। कोटि यानी उच्चता, चरम सीमा। धनुष को मुड़े हुए हिस्से को भी कोटि ही कहा जाता है। कोटि में उच्चतम बिन्दु, परम और पराकाष्ठा का भाव है। इसी रूप में एक करोड़ को भी सामान्य तौर पर संख्यावाची प्रयोग में पराकाष्ठा कहा जा सकता है।
कोटि का दूसरा अर्थ होता है कोण या भुजा। एक अन्य अर्थ है वर्ग, श्रेणी जिसे उच्च कोटि, निम्नकोटि में समझा जा सकता है। यह कोटि ही कोण है। उच्च कोण निम्न कोण।
करोड़ शब्द का इस्तेमाल अब ठाठ से अंग्रेजी में भी होता है। भारत में पुत्र के सौभाग्य की कामना से पुराने ज़माने में करोड़ीमल जैसा नाम भी रखा जाता रहा है। बेचारा करोड़ीमल देहात में नासमझी के कारण रोड़मल और बाद में रोड़ा, रोडे या रोड्या बनकर रह गया।
एक सहस्र के लिए हज़ार hazar शब्द उर्दू-फारसी का माना जाता है। मज़े की बात यह कि उर्दू ही नही ज्ञानमंडल जैसे प्रतिष्ठित हिन्दी के शब्दकोश में भी यह इन्हीं भाषाओं के नाम पर दर्ज है। हजार इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है। इसका संस्कृत रूप हस्र है। अवेस्ता में भी इसका यही रूप है जिसने फारसी के हज़र/हज़ार का रूप लिया और लौट कर फिर हिन्दी में आ गया। सहस्र यानी स+हस्र में हज़ार का ही भाव है। हस्र बना है हस् धातु से। करोड़ के कुट् की तरह से इसमें भी चमक का भाव है। हास्य, हंसी जैसे शब्द इसी धातु से जन्मे हैं। हँसी से चेहरे पर चमक आती है क्योंकि यह प्रसन्नता का प्रतीक है। प्रसन्नता, खुशहाली, आनंद ये चमकीले तत्व हैं। धन से हमारी आवश्यकताएं पूरी होती हैं। आवश्यकताएं अनंत हैं तो भी इनकी आंशिक पूर्णता, आंशिक संतोष तो देती ही है। सो एक सहस्र की राशि में धन से मिले अल्प संतोष की एक हजार चमक छुपी हैं। अपने प्रसिद्ध उपन्यास अनामदास का पोथा में हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने नाम की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि हज़ार वस्तुतः सहस्त्र में विद्यमान हस्र का ही फ़ारसी उच्चारण है....यूं शक्ति का एक रूप भी हजारी है।
सहज शब्द ह (हठयोग) और ज (जययोग) का गुणपरक समन्वित रूप है और हजारी क्रियापरक समन्वय है। “ हजमाराति या देवी महामायास्वरूपिणी, सा हजारीति सम्प्रोक्ता राधेति त्रिपुरेति वा ” सामान्य बोलचाल में हज़ार शब्द में कई, अनेक का भाव भी शामिल हो गया। जैसे बागवानी का एक उपकरण हजारा hazara कहलाता है जिसके चौड़े मुंह पर बहुत सारे छिद्र होते हैं जिससे पौधों पर पानी का छिड़काव किया जाता है। यही हजारा हिन्दी में रसोई का झारा बन जाता है जिससे बूंदी उतारी जाती है। शिवालिक और पीरपंजाल पर्वतीय क्षेत्र की एक जनजाति का नाम भी हजारा है। यह क्षेत्र अब पाकिस्तान में आता है। एक प्रसिद्ध फूल का नाम भी हजारी है। इसे गेंदा भी कहा जाता है। इसमें बेशुमार पंखुड़ियां होती हैं जिसकी वजह से इसे यह नाम मिला। हजारीलाल और हजारासिंह जैसे नाम इसी मूल से निकले हैं।
हिन्दी में एक और संख्यावाची शब्द का इस्तेमाल खूब होता है वह है लाख। यह बना है संस्कृत के लक्षम् से बना है। इसमें सौ हज़ार की संख्या का भाव है। लक्षम् बना है लक्ष् धातु से जिसमें देखना, परखना जैसे अर्थ हैं। इस लक्ष् में आंख की मूल धातु अक्ष् ही समायी हुई है। इसमें चिह्नित करना, प्रकट करना, दिखाना लक्षित करना जैसे भाव भी निहित हैं। बाद में इसमें विचार करना, मंतव्य रखना, निर्धारित करना जैसे भाव भी जुड़ते चले गए। टारगेट के लिए भी लक्ष्य शब्द बना जो एक चिह्न ही होता है। धन की देवी लक्ष्मी का नाम भी इसी धातु से उपजा है जिसमें समृद्धि का भाव है।
किन्हीं संकेतों, चिह्नों के लिए लक्षण शब्द का प्रयोग भी होता है। लक्षण में पहचान के संकेतों का भाव ही है चाहे स्वभावगत हों या भौतिक। मालवी राजस्थानी में इससे लक्खण (बुन्देली में लच्छन- सलिल) जैसा देशज शब्द भी बनता है। देखने के अर्थ में भी लख शब्द का प्रयोग होता है। लखपति शब्द से यूं तो अभिप्राय होता है बहुत धनवान, समृद्ध व्यक्ति। मगर इसका भावार्थ है भगवान विष्णु जो लक्ष्मीपति हैं। स्पष्ट है कि लखपति lakhpati में प्रभु विष्णु जैसी दयालुता, तेज और पौरुष का भाव समाहित है पर आज के लखपति-करोड़पति सिर्फ धनपति हैं। इन्हें किस कोटि में आप रखना चाहते हैं?
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स्वास्थ्य सम्पदा बचायें : दादी माँ के घरेलू नुस्खे -स्व. शान्ति देवी
इस स्तम्भ के अंतर्गत पारंपरिक चिकित्सा-विधि के प्रचलित नुस्खे दिए जा रहे हैं। हमारे बुजुर्ग इन का प्रयोग कर रोगों से निजात पाते रहे हैं।
आपको ऐसे नुस्खे ज्ञात हों तो भेजें।
इनका प्रयोग आप अपने विवेक से करें, परिणाम के प्रति भी आप ही जिम्मेदार होंगे, लेखक या संपादक नहीं।
रोग: अतिसार / दस्त
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
सूक्ति-सलिला:प्रो. बी. पी. मिश्र 'नियाज़' / सलिल
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ. अम्बाशंकर नगर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है। प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।
सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-
Discontent असंतोष :
'Happy thou are not,
For what thou hast not, still thou strivest to get,
And what thou hast, forgetest.'
जीवन में सुख क्योंकर आए?
जो अप्राप्य है, उसके पीछे तू मन को भटकाए।
और पास है जो निधि, निष्ठुर! तू उसको ठुकराए॥
जो कुछ भी तुझको मिला, उसे गया तू भूल।
जो न मिला वह चाहकर, ख़ुद चुनता है शूल॥
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
मंगलवार, 5 मई 2009
भजन: चलीं सिया गिरिजा पूजन को -स्व. शान्ति देवी
चलीं सिया गिरिजा पूजन को
चलीं सिया गिरिजा पूजन को, देवी-देव मनात।
तोरी शरण में आयी मैया, रखियो हमरी बात...
फुलबगिया के कुंवर सांवरे, मोरो चित्त चुरात।
मैया, रखियो हमरी बात...
कुंवर सुकोमल, प्रण कठोर अति, मन मोरो घबरात।
मैया, रखियो हमरी बात...
बीच स्वयम्वर अवध कुंवर जू, धनुष भंग कर पात।
मैया, रखियो हमरी बात...
मिले वही जो मैया मोरे मन को भात सुहात।
मैया, रखियो हमरी बात...
सिय उर-श्रद्धा परख उमा माँ, कर में पुष्प गिरात।
मैया, रखियो हमरी बात...
पा माँ का आशीष, सुशीला सिय मन में मुस्कात
मैया, रखियो हमरी बात...
सखी-सहेली समझ न पायीं, काय सिया हर्षात.
मैया, रखियो हमरी बात...
'शान्ति' जुगल-जोड़ी अति सुंदर, जो देखे तर जात।
मैया, रखियो हमरी बात...
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स्वास्थ्य सम्पदा बचायें: स्व. शान्ति देवी
स्वास्थ्य सम्पदा बचायें : दादी माँ के घरेलू नुस्खे
इस स्तम्भ के अंतर्गत पारंपरिक चिकित्सा-विधि के प्रचलित नुस्खे दिए जा रहे हैं। हमारे बुजुर्ग इन का प्रयोग कर रोगों से निजात पाते रहे हैं.
आपको ऐसे नुस्खे ज्ञात हों तो भेजें।
इनका प्रयोग आप अपने विवेक से करें, परिणाम के प्रति भी आप ही जिम्मेदार होंगे, लेखक या संपादक नहीं।
रोग अनेक-दवा एक बदहज्मी, भूख न लगना, वायु गोला, तिल्ली आदि की बीमारियों में निम्न योग का प्रयोग लाभप्रद होता है। हींग १० ग्राम, नौसादर १० ग्राम, सेंधा नमक १० ग्राम लेकर ६०० ग्राम पानी में खरल कर लें। इस मिश्रण को एक शीशी में भर लें। नित्य प्रातः-संध्या २५-२५ ग्राम पीने से कष्ट घटेगा।
नौसादर सेंधा नमक, हींग ले दस-दस ग्राम।
कूट-पीस जल में मिला, पियें सुबह-ओ'-शाम॥
पाचन की बीमारियों, से मिलता आराम।
वायु अपच जैसे मिटें, इससे रोग तमाम॥
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
लघुकथा: एक राजा था -डॉ. किशोर काबरा, अहमदाबाद
''एक राजा था!''
बेताल ने कहानी शुरू की और वहीं समाप्त करते हुए विक्रम से पूछा-
''अब बताओ, एक ही राजा क्यों था? अगर तुम जान-बूझकर इसका उत्तर नहीं दोगे तो तुम्हारे सर के सौ टुकड़े हो जायेंगे।
''विक्रम ने कहा-''जनता मूर्ख थी, इसलिए एक ही राजा था,''
इतना सुनते ही बेताल विक्रम के कंधे से उड़कर झाड़ पर लटक गया।
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
सूक्ति सलिला: Determination दृढ़ता, प्रो. बी. पी. मिश्र 'नियाज़' / सलिल
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।
प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।
सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-
Determination दृढ़ता :
'The native hue of resolution
Is sichled over with the pale cast of thought.
दृढ़ता की स्वाभाविक क्रांति विचार की धूमिल छाया से मंद पड़ जाती है.
अतिशय सोच-विचार की, धूमिल छाया मात्र.
क्रांति-मशालों का करे, शिथिल ज्योतिमय गात्र..
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
वीर नारी: आचार्य संजीव 'सलिल'
दोहांजलि:
वीरांगनाओं के प्रति
दिव्यनर्मदा@जीमेल.कॉम">दिव्यनर्मदा@जीमेल.कॉम
वीरांगना शतश: नमन, नत मस्तक हम आज।
त्याग तुम्हारा अपरिमित, रखी देश की लाज।
स्वामी, सुत, पितु, भ्रात को, तुमने कर बलिदान।
बचा-बढ़ाई देश की, युगों-युगों से शान।
रक्षित कर निज देश को, उन्नत रखतीं माथ।
गाथा जनगण गा रहा, रहे शीश पर हाथ।
दुर्गा, लक्ष्मी, चेन्नम्मा, रचें नया इतिहास।
प्राण लुटाये देश पर, प्रसरित कीर्ति-उजास।
जीजा बाई ने जना, शिवा सरीखा शूर।
भारत माँ के मुकुट का, रत्न अपरिमित नूर।
लक्ष्मीबाई ब्रिगेड ने, खूब मचाई धूम।
दिल दहले अँगरेज़ के, देश गया था झूम।
तुमने गवाँ सुहाग निज, बचा लिया है देश।
उऋण न हो सकते कभी, हम सब ऋण से लेश।
प्रिय शहीद के शौर्य की, याद बनी पाथेय।
उस के सुत को उसी सा, बना सको है ध्येय।
त्याग-तपस्या अपरिमित, तुम करुणा की मूर्ति।
नहीं अभावों की तनिक, कोई कर सके पूर्ति।
तव चरणों में स्वर्ग है, माने-पूजे नित्य।
तभी देश यह हो सके, रक्षित और अनित्य।
भारत माँ साकार तुम, दो सबको वरदान।
तव चरणों में हो सके, 'सलिल' विहँस बलिदान।
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
सोमवार, 4 मई 2009
नज़्म: संजीव 'सलिल'
गीत: पारस मिश्र, शहडोल
पारस मिश्र, शहडोल
रात बीती जा रही है,
चाँद ढलता जा रहा है।
देखता हूँ जिंदगी का
राज खुलता जा रहा है॥
कब छुड़ा पाये भ्रमर की
फूल पर कटु शूल गुंजन?
कब किसी की बात सुनता,
रूप पर रीझा हुआ मन?
कब शलभ ने दीप पर जल,
अनल की परवाह की है?
प्यार में किसने कहाँ कब
जिंदगी की चाह की है?
किंतु फिर भी जिंदगी में,
प्यार पलता जा रहा है।
देखता हूँ जिंदगी का
राज खुलता जा रहा है॥
प्यार के सब काम गुपचुप
ही किये जाते रहे हैं।
शाप खुलकर, दान छिपकर
ही दिये जाते रहे हैं॥
हलाहल कुहराम कर दे,
शोर मदिरा पर भले हो।
पर सुधा के जाम तो,
छिपकर पिये जाते रहे हैं॥
होंठ खुलते जा रहे हैं,
जाम ढलता जा रहा है।
देखता हूँ जिंदगी का
राज खुलता जा रहा है॥
सोचता हूँ मौत से पहले ,
तुम्हीं से प्यार कर लूँ।
पार जाने से प्रथम,
मझधार पर एतबार कर लूँ॥
जानता है दीप, यदि है
ज्योति शाश्वत, चिर जलन तो
माँग में सिंदूर के बदले
न क्यों अंगार भर लूँ?
नेह चढ़ता जा रहा है,
दीप जलता जा रहा है।
देखता हूँ जिंदगी का
राज खुलता जा रहा है॥
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व्यंग लेख: आँसुओं का व्यापार - शोभना चौरे.
घर के सारे कामों से निवृत्त होकर अख़बार पढ़ने बैठी तो बाहर से आवाज़ सुनाई दी, आँसू ले लो आँसू .........
मैं ध्यान से सुनने लगी। मुझे शब्द साफ-साफ सुनायी नहीं दे रहे थे।
कुछ देर बाद आवाज पास आई और उसने फ़िर से वही दोहराया तब मुझे स्पष्ट समझ में आया वो आँसू बेचने वाला ही था।
मै उत्सुकतावश बाहर आई अभी तक सब्जी, अख़बार, दूध, झाडू, अचार, पापड़, बड़ी, चूड़ी आदि यहाँ तक कि हर तीसरे दिन बडे-बडे कालीन बेचनेवाले आते देखे थे। मुझे समझ नहीं आता कि इतने छोटे-छोटे घरों में इतने बडे-बडे कालीन कौन खरीदता है? और वो भी इतने मँहगे? मैं तो फेरीवालों से कभी १०० रु. से ज्यादा का सामान नहीं खरीदती पर यह मेरी सोच है। शायद दूसरे लोग खरीदते होगे? तभी तो बेचने आते हैं या फ़िर उनके रोज-रोज आने से लोग खरीदने पर मजबूर हो जाते हों... राम जाने? किंतु आँसू? क्या आँसू भी कोई खरीदने की चीज़ है?
मैंने उसे आवाज दी वह १६- १७ साल का पढ़ा-लिखा दिखनेवाला लड़का था।
मैंने उससे पूछा: 'आँसू बेचते हो? यह तो मैंने पहले कभी नहीं सुना? आँसू तो इन्सान की भावनाओं से जुड़े होते हैं। वे तो अपने आप ही आँखों से बरस पड़ते हैं। रही बात नकली आँसुओं की तो फिल्मों और दूरदर्शन में रात-दिन बहते हुए देखते ही हैं उसके लिए तो बरसों से ग्लिसरीन का इस्तेमाल होता है। तुम कौन से आँसू बेचते हो?'
'' बाई साब ! आप देखिये तो सही मेरे पास कई तरह के आँसू हैं। आप ग्लिसरीन को जाने दीजिये। वह तो परदे की बात है। ये तो जीवन से जुड़े हैं।'' यह कहकर उसने एक छोटासा पेटीनुमा थैला निकाला। उसमें छोटी-छोटी रंग-बिरगी शीशियाँ थीं जिनमें आँसू भरे थे।
मैंने फ़िर उसकी चुटकी ली: 'बिसलेरी का पानी भर लाये हो और आँसू कहकर बेचते हो?'
उसने अपने चुस्त-दुरुस्त अंदाज में कहा- 'देखिये, इस सुनहरी शीशी में वे आँसू है जिन्हें दुल्हनें आजकल अपनी बिदाई पर भी इसलिए नहीं बहातीं कि उनका मेकप खराब न हो जाए। इस शीशी को पर्ची लगाकर दुल्हन के सामान के साथ सजाकर रख दो। उसे जब कभी मायके की याद आयेगी तो यह शीशी देखकर उसकी आँखों में आँसू आ जायेंगे'। उसने बहुत ही आत्म विश्वास से कहा।
मैंने कहा- 'मेरी तो कोई लड़की नहीं है'।
उसने तपाक से कहा- ''बहू तो होगी? नहीं है तो आ जायेगी'' और झट से बैंगनी रंग की शीशी निकालकर कहा: ''उसके लिए लेलो उसे भी तो अपने मायके की याद आयेगी।''
'अच्छा छोड़ो बताओ और कौन-कौन से आँसू हैं?'
उसने गहरे नीले रंग की शीशी निकाली और कहने लगा: ''ये देखिये, इसमें बम धमाकों में मरनेवालों के रिश्तेदारों के आँसू हैं जो सिर्फ़ राजनेता ही खरीदते हैं। ये फिरोजी रंग की शीशी में दंगे में मरनेवालों के अपनों के आँसू हैं जो सिर्फ़ डॉन खरीदते हैं। ...ये हरे रंग के असली आँसू उन औरतों के हैं जो बेवजह रोती हैं । इन्हें समाजसेवक खरीदते हैं।
''मैं स्तब्ध थी। मुझे चुप देखकर उसने दुगुने उत्साह से बताना शुरू किया: ''देखिये, ये पीले और नारगी रंग की शीशी के आँसू ज्ञान देते हैं। इन्हें सिर्फ़ प्रवचन देनेवाले साधू महात्मा ही खरीदते हैं। ये जो लाल रंग की शीशी में आँसू हैं, ये तो चुनावों के समय हमारे देश में सबसे अधिक बिकते हैं। इसे हर राजनैतिक दल का बन्दा खरीदता है। ''
मैंने एक सफेद खाली शीशी की तरफ इशारा किया और पूछा: 'इसमें तो कुछ भी नहीं है?'
उसने कहा: ''इसमे वे आँसू हैं जो लोग पी जाते हैं। इन्हें कोई नहीं खरीदता''फ़िर वह और भी कई तरह के आँसू बताता रहा।
मै सुस्त हो रही थी, अचानक पूछ बैठी: 'अच्छा इनके दाम तो बताओ?'उसने कहा: ''दाम की क्या बात है पहले इस्तेमाल तो करके देखिये अगर फायदा हो तो दो आँसू दे देना मेरे भंडार में इजाफा हो जायेगा।
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