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गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

नव गीत

नव गीत-
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
दिन भर मेहनत
आँतें खाली,
कैसे देखें सपना?
*

दाने खोज,
खीझता चूहा।
बुझा हुआ है चूल्हा।
अरमां की
बारात सजी- पर
गुमा सफलता दूल्हा।
कौन बताये
इस दुनिया का
कैसा बेढब नपना ?
*

कौन जलाये
संझा-बाती
गयी माँजने बर्तन।
दे उधार,
देखे उभार
कलमुँहा सेठ
ढकती तन।
नयन गड़ा
धरती में
काटे मौन
रास्ता अपना
*

ग्वाल-बाल
पत्ते खेलें
छिप चिलम चढ़ाएँ ।
जेब काटता
कान्हा-राधा छिप
बीड़ी सुलगाये।
पानी मिला
दूध में
जसुमति बिसरी
माला जपना
*

बैठ मुँडेरे
बोले कागा
झूठी आस बँधाये।
निठुर न आया,
राह देखते
नैना हैं पथराये।
ईंटों के
भट्टे में मानुस
बेबस पड़ता खपना
*
श्यामल 'मावस
उजली पूनम,
दोनों बदलें करवट।
साँझ-उषा की
गैल ताकते
सूरज-चंदा नटखट।
किसे सुनाएँ
व्यथा-कथा
घर की घर में
चुप ढकना
****************

शब्द यात्रा : अजित वडनेरकर - निर्वाचन

नि र्वाचन के लिए चुनाव शब्द बड़ा आम और लोकप्रिय है। बोलचाल में निर्वाचन की जगह चुनाव शब्द का ही इस्तेमाल होता है। संचार माध्यम भी निर्वाचन के स्थान पर इसका प्रयोग ही करते हैं। पंचायत चुनाव, विधानसभा चुनाव या लोकसभा चुनाव-राज्यसभा चुनाव आदि। संसदीय चुनावों को आम चुनाव कहने का भी चलन है जो अंग्रेजी के जनरल इलेक्शन का अनुवाद ही है। चुनाव शब्द बना है चि धातु से जिससे चिनोति, चयति, चय जैसे शब्द बनते हैं जिनमें उठाना, चुनना, बीनना, ढेर लगाना जैसे भाव हैं। इन्ही भावों पर आधारित हिन्दी के चुनना, चुनाव,चयन जैसे शब्द भी हैं। निश्चय, निश्चित जैसे शब्द भी इसी कड़ी के हैं जो निस् उपसर्ग के प्रयोग से बने हैं जिनमें तय करना, संकल्प करना, निर्धारण करना शामिल है। इसके बावजूद सरकार चुनने की प्रक्रिया के लिए चुनाव शब्द में उतनी व्यापक अभिव्यक्ति नहीं है जितनी निर्वाचन शब्द में है। चि धातु में चुनने का जो भाव है वह सत्य की पड़ताल या विशिष्ट तथ्य के शोध से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि किसी समुच्चय में से कुछ चुन कर अलग समुच्चय बनाने जैसी भौतिक-यांत्रिक क्रिया अधिक लगती है और चिन्तन का अभाव झलकता है। चुनाव के लिए मराठी में निवडणूक शब्द है जो निर्वचन से ही बना है। निर्वचन का र मराठी के ड़ में तब्दील हुआ और अंत में ड में बदल गया। इसके साथ ही वर्ण विपर्यय भी हुआ। र ने व की जगह ली। क्रम कुछ यूं रहा। निर्वचन > निवड़अन > निवडन > निवडणूक। बीनने के लिए मराठी में निवड़न शब्द प्रचलित है और इसके क्रियारूप इस्तेमाल होते हैं। हिन्दी का निर्वाचन शब्द मूलतः संस्कृत वाङमय का ही शब्द है मगर लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत शासन प्रबंध के लिए योग्य प्रतिनिधियों के चुनाव का अभिप्राय इसमें नहीं था क्योंकि मूल रूप में यह निर्वचन है। संस्कृत में निर्वचन शब्द का मतलब होता है व्याख्या, व्युत्पत्ति या अभिप्राय लगाना। संस्कृत साहित्य में निर्वचन की परम्परा बहुत पुरानी है। मोटे रूप में समझने के लिए साहित्य की टीका लिखने के चलन को याद करें। इसे निर्वचन कहा जा सकता है। संस्कृत साहित्य में निर्वचन की परम्परा शुरू होने के पीछे भी साहित्य की वाचिक परम्परा का ही योगदान है। पुराणकालीन सूक्तों, श्लोकों के रचनाकारों नें इन्हें रचते वक्त जो व्याख्याएं कीं वे कालांतर में अनुपलब्ध हो गई। इनके आधार पर जो भाष्य़ लिखे गए उनमें विविधता रही। वैदिक-निर्वचन का उद्धेश्य ही यह है कि तमाम विविधताओं और विसंगतियों के बीच किसी भी उक्ति, भाष्य, श्लोक आदि की सार्थक व्याख्या हो। जाहिर है इस सार्थक व्याख्या के जरिये किसी एक निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। निर्वचन शब्द बना है निर्+वचन से अर्थात बहुत से वचनों के बीच से अर्थ को अलग करना। यूं कहें कि गूढ़ वचनों में छिपे संदेश को चुनना। स्पष्ट है कि निर्वचन में चुनने का भाव ही प्रमुखता से उभर रहा है। इसके दार्शनिक भाव को ग्रहण करें तो बहुत से तथ्यों, आयामों और व्याख्याओं में से किसी एक को चुनना। यह एक निश्चित ही सत्य है, क्योंकि असत्य या भ्रष्ट के चयन के लिए निर्वचन प्रक्रिया नहीं हो सकती। विडम्बना है कि वच् धातु, जिसमें कहना, बोलना, कथन, वचन जैसे भाव हैं, से बने इस शब्द में नेता के वचन ही प्रमुख हो गए। जो नेता जितनी वाचालता दिखाता है, उसके जीतने के योग उतने ही अधिक होते हैं। वाचाल-प्रयत्नों से चुनावी वैतरणी पार करने के तरीके सफल भी रहते हैं। इसके बाद जनप्रतिनधि महोदय के वचनों को सदन में चाहे असंदीय समझा जाए, जनता ने तो उन्ही वचनों के आधार पर उन्हें निर्वाचित कर अपना ईष्ट चुना है। दो हीन चरित्रों वाले प्रत्याशियों में से किसी एक के निर्वाचन से देश में शांति, स्थिरता और समृद्धि कैसे आएगी, जिन्हें पाने के लिए लोकतंत्र के इस यज्ञ का आयोजन होता है? स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता देने के बाद राजभाषा के तौर पर हिन्दी की पारिभाषिक शब्दावली बनाने का काम शुरू हुआ। चुनाव के अर्थ में राजभाषा समिति के विद्वानों ने निर्वाचन शब्द तय किया। सरकार चुनने की प्रक्रिया के लिए मानक शब्द बनाने में अंग्रेजी के इलेक्शन शब्द को ही आधार बनाया गया। निर्वचन से बने निर्वाचन पर गौर करें तो इस शब्द की व्याख्या उसी तर्क प्रणाली पर आधारित जान पड़ती है जो इलेक्शन की है। इलेक्शन शब्द की रिश्तेदारी लैक्चर शब्द से है जिसमें पुस्तक से पाठ चुनने का जो भाव है वही भाव निर्वचन से बने निर्वाचन में आ रहा है यानी बहुतों में से एक को चुनना। विडम्बना है कि निर्वाचन जैसे गूढ़ दार्शनिक भावों वाले इस शब्द और प्रकारांतर से प्रक्रिया को वोट देने जैसी औपचारिकता का रूप दे दिया गया है। राजनीतिक पार्टियां ही प्रत्याशी तय करती हैं। वहां निर्वाचन के पवित्र अर्थ का ध्यान नहीं रखा जाता। भ्रष्ट-अपराधी अगर उम्मीदवार है तो उसका पार्टी स्तर पर उसका निर्वाचन सही कैसे कहा जा सकता है? महान राजनीतिक दलों को बहुतों में से एक परम सत्य के रूप में अगर अपराधी और दागी चरित्र के लोग ही जनप्रतिनिधि के रूप में विधायी संस्थाओं में देखने है तो यह निर्वाचन शब्द की घोर अवनति है। दो हीन चरित्रों वाले प्रत्याशियों में से किसी एक के निर्वाचन से देश में शांति, स्थिरता और समृद्धि कैसे आएगी, जिन्हें पाने के लिए लोकतंत्र के इस यज्ञ का आयोजन होता है?

लो हम वोट दे आये !

लो हम वोट दे आये !
विवेक रंजन श्रीवास्तव

लो हम वोट दे ही आये ! लाइन में लगकर .. ! दो दो लाइनों मे लगकर .. पोलिंग बूथ क्रमांक १०३ और १०३ क का ऐसा चक्कर हुआ कि पहले तो २० मिनट बूथ क्रमांक १०३ पर लाइन में लगे खड़े रहे , जब अंदर जाने का नम्बर आया तो द्वार पर खड़े कोटवार ने , जो आज सुरक्षा अधिकारी का बिल्ला लगाये हुये था दरवाजे से ही वापस कर दिया , यह कहकर कि आपकी सुविधा को ध्यान में रखकर ही कि जिससे एक केंद्र पर ज्यादा भीड़ न हो इस मतदान केंद्र को २ केंद्रो में बांट दिया गया है .. १०३ और १०३ क .... हमने उससे पूछा कि अब हमें कहां जाना है तो उसने कहा ढ़ूंढ़ लो .. स्कूल में हर कमरे में अलग अलग मतदान केंद्र थे.. हमने मन ही मन उसकी असंवेदन शीलता को कोसा ... पूंछ पांछ कर पता लगाया और नई लाइन में फिर कोई २५ मिनट खड़े रहकर अपने मताधिकार का सक्षम प्रयोग कर ही आये ...
महीने भर से शहर में गहमा गहमी थी , हमें मनाने के लिये हैलीकाप्टर पर , तक नेता गण दौड़े भागे आ जा रहे थे , रोड शो कर रहे थे , एस एमएस कर रहे थे ...टीवी चैनल , ब्लाग्स आदि हमसे लगातार जागरूख होने की अपील कर रहरे थे .. हम मान गये .. लो हम वोट दे आये ! अब शाम को सरकारी तंत्र हमारा मतदान प्रतिशत बतायेगा .. १६ मई तक हमारे मत की रखवाली करेगा .. फिर दो एक से घटिया चेहरों में से कोई ना कोई चुन ही लिया जायेगा ... हम तो फुरसत हुये लो हम वोट दे आये !

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

शब्द यात्रा - 'चुनाव' : अजित वडनेरकर



लोकतंत्र में चुनाव के जरिये ही शासक चुना जाता है। पुराने दौर में राजा-महाराजा होते थे, वही शासक कहलाते थे। अब जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है और बहुमत प्राप्त प्रतिनिधियों का समूह शासन व्यवस्था चलाता है। पसंद की सरकार बनाने की प्रक्रिया के लिए हिन्दी में निर्वाचन या चुनाव शब्द ज्यादा प्रचलित है। अरबी-फारसी-उर्दू में इसे इंतिखाबात कहते है और अंग्रेजी में इलेक्शन election। यह दिलचस्प है कि नेता का रिश्ता नेतृत्व से होता है मगर समाज को आगे ले जाने या राह दिखाने की बजाय नेता सिर्फ बोलता है। भाषण देता है। किसी ज़माने के नेताओं के मुखारविंद से जो वचन झरते थे उन्हें प्रवचन, व्याख्यान की श्रेणी में रखा जा सकता था मगर अब इनके भाषण सिर्फ शब्दों की जुगाली है जिसके प्रमुख तत्व हैं वोट की जुगत और विपक्षी को गाली। अंग्रेजी का इलेक्शन शब्द हिन्दी में सहज स्वीकार्य हो चुका है। यह बना है लैटिन के ऐलिगर से जिसका मतलब होता है उठाना, चुनना और जिसका रिश्ता है लैटिन के ही लीगर legere से जिसका अर्थ है पढ़ना। भारोपीय धातु लेग् leg, lego से बने ये शब्द जिसमें सामूहिकता, एकत्रीकरण या इकट्ठा होने का भाव है साथ ही इस धातु में चुनाव या चुनने का अर्थ भी निहित है। लैटिन का इलेक्टम भी इसी मूल का है जिसमें यही भाव समाए हैं। इलेक्शन में चुनने का भाव दरअसल अंग्रेजी के लैक्चर से आ रहा है जो खुद लैटिन के लीगर legere से ही बना है। लैक्चर का मतलब आज चाहे व्याख्यान या भाषण देना हो मगर लैटिन में इसका मूलार्थ है पुस्तक में से पठन-पाठन योग्य अंश को चुनना। यहां लैक्चर का मतलब पुस्तक के अध्याय अथवा आख्यान से है। व्याख्याता का काम हर रोज़ छात्रों को एक विशेष अध्याय अथवा आख्यान पढ़ाना ही है। वह उस आख्यान की विवेचना करता है, उसकी व्याख्या करता है। कुल मिला कर जो बात उभर रही है वह यह कि बहुत सारी सामग्री में से कुछ बातें सार रूप में चुनना। पुस्तकों में तथ्य होते हैं, शिक्षक का काम उनका निचोड़ निकाल कर, उनसे ज्ञान की बातें चुन कर छात्रों का मार्गदर्शन करना। इसी दार्शनिक भाव के साथ लैक्चर और इलेक्शन को देखना चाहिए। लैक्चर से ही बना है लैक्चरर अर्थात व्याख्याता। इस शब्द को भारतीय संस्कृति के आईने में देखें। प्राचीन गुरुकुलों के अधिष्ठाता प्रसिद्ध ऋषि-मुनि थे। प्रायः वे स्वयं अथवा अन्य विद्वान ब्राह्मण जो वेदोपनिषदों की दार्शनिक मीमांसा करते थे, आचार्य कहलाते थे। विद्यार्थी को वेदों के विशिष्ट अंश पढ़ाने के लिए नियमित वृत्ति अर्थात वेतन पर जो शिक्षक होते थे वे उपाध्याय कहलाते थे। कालांतर में शिक्षावृत्ति अर्थात पारिश्रमिक के बदले पढ़ानेवाले ब्राह्मणों का पदनाम ही उनकी पहचान बन गया। पुस्तक या ग्रंथ में समूह का भाव स्पष्ट देखा जा सकता है। कोई भी पुस्तक कई पृष्ठों का समूह होती है। ये तमाम पृष्ठ अलग अलग अध्यायों में निबद्ध होते हैं। लेगो lego का ही एक रूप लेक्टम है जिसमें किसी समूह से चुनने का भाव आ रहा है। विभिन्न उपसर्गों के प्रयोग से इस धातु से बनी कुछ और भी क्रियाएं हैं जो हिन्दी परिवेश में भी बोली जाती हैं जैसे कलेक्ट यानी एकत्रित। उपेक्षा के अर्थ में नेगलेक्ट शब्द है जिसका मूलार्थ किसी समूह से निकाले जाने का भाव है। इसी श्रंखला में इलेक्टम से होते हए इलेक्शन शब्द बना है जिसका चुनाव या निर्वाचन अर्थ स्पष्ट है। अरबी, फारसी, उर्दू में चुनाव के लिए इंतिखाब या इंतिखाबात शब्द है। मूल रूप से यह अरबी का है जिसका रूप है इंतिक़ा या अल-इंतिक़ा। फारसी प्रभाव में यह इंतेख़ाब या इंतिखाब हुआ। मोटे तौर पर इंतिक़ा का मतलब होता है बहुतों में से किसी एक को या कुछ को छांट लेना या बीन लेना। अंग्रेजी के इलेक्शन शब्द के पीछे जो दर्शन है वही दर्शन और तर्कप्रणाली अरबी के इंतिक़ा में भी है अर्थात किन्हीं दो व्याख्याओं या विवेचनाओं में से किसी एक परम तार्किक व्याख्या का चयन। अरबी में चुनाव के लिए इज्तिहाद शब्द भी है और चुनाव को इज्तिहाद इंतिकाई भी कहा जाता है। ऐसे चुनाव जो नस्ली आधार पर हों यानी मुस्लिम मुस्लिम को वोट दे और हिन्दू हिन्दू को, उन्हें इंतिखाबे-जुदाग़ानः कहते हैं और संयुक्त निर्वाचन को इंतिखाबे-मख्लूत कहते हैं। गौर करें कि प्राचीन समाज की ज्ञान परम्परा में सत्य की थाह लेने और निष्कर्ष पर पहुंचने के प्रयासों के लिए ही ये शब्द अस्तित्व में आए जिनका व्यापक प्रयोग बाद में समूह या समष्टि में से किसी एक या कुछ इकाइयों को छांटने या बीनने के लिए होने लगा। मूल रूप में चुनाव अगर होना है सच्चे पंथ का। सच्चे ज्ञान का और अंततः परम सत्य का। लोकतंत्र के तहत हम लगातार चुनावों से गुज़रते हैं क्या उसमें छांटने, बीनने, चुनने के बाद वैसा मूल्यवान, प्रदीप्त और शाश्वत तत्व हमारे हाथ लगता है जिसका संकेत इलेक्शन या इंतिखाब जैसे शब्दों में छुपा हैं? चुनाव परम सत्य का होना चाहिए मगर दागी, अपराधी उम्मीदवारों, जोड़-तोड़ वाले राजनीतिक दलों के बीच इस सच का चुनाव कैसे हो?

रचना आमंत्रण : नमामि मातु भारती

साहित्य समाचार:भारतीय वांग्मय पीठ कोलकाता द्बारा नमामि मातु भारती २००९ हेतु रचना आमंत्रित
संपादक श्री श्यामलाल उपाध्याय तथा अतिथि संपादक आचार्य संजीव 'सलिल' के कुशल संपादन में शीघ्र प्रकाश्य
कोलकाता. विश्ववाणी हिन्दी के में श्रेष्ठ साहित्य सृजन की पक्षधर भारतीय वांग्मय पीठ कोलकाता द्वारा वश २००२ से हर साल एक स्तरीय सामूहिक काव्य संकलन का प्रकाशन किया जाता है. इस अव्यावसायिक योजना में सम्मिलित होने के लिए रचनाकारों से राष्ट्रीय भावधारा की प्रतिनिधि रचना आमंत्रित है. यह संकलन सहभागिता के आधार पर प्रकाशित किया जाता है. इस स्तरीय संकलन के संयोजक-संपादक श्री श्यामलाल उपाध्याय तथा अतिथि संपादक आचार्य संजीव 'सलिल', संपादक दिव्य नर्मदा हैं.
हर सहभागी से संक्षिप्त परिचय (नाम, जन्मतिथि, जन्मस्थान, आजीविका, संपर्क सूत्र, दूरभाष/चलभाष, ईमेल/चिटठा (ब्लोग) का पता, श्वेत-श्याम चित्र, नाम-पता लिखे २ पोस्ट कार्ड तथा अधिकतम २० पंक्तियों की राष्ट्रीय भावधारा प्रधान रचना २५०/- सहभागिता निधि सहित आमंत्रित है.
हर सहभागी को संकलन की २ प्रतियाँ निशुल्क भेंट की जायेंगी जिनका डाकव्यय पीठ वहन करेगी. हर सहभागी की प्रतिष्ठा में 'सारस्वत सम्मान पत्र' प्रेषित किया जायेगा. समस्त सामग्री दिव्य नर्मदा कार्यालय २०४ विजय अपार्टमेन्ट, नेपिअर टाऊन, जबलपुर ४८२००१ या भारतीय वांग्मय पीठ, लोकनाथ कुञ्ज १२७/ए/ ८ ज्योतिष राय मार्ग, नया अलीपुर, कोलकाता ७०००५३ के पते पर ३० मई तक प्रेषित करें.
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चुनाव चिंतन : रामेश्वर भइया 'रामू भइया'

हिंदू मुस्लिम क्रिश्चियन, वणिक विप्र राजपूत।
सबकी माता भारती, हम सब इसके पूत॥


सुनो बंधुओं मिल चलो, नव चुनाव की ओर।
अंधियारों से छीन लो, अपनी प्यारी भोर॥

प्रत्याशी का कीजिये, धर्म-तुला में तौल।
खरे स्वर्ण को दीजिये, वोट आप अनमोल।।

मंगलमय जन-राज हो, अथवा जंगलराज।
अब कल पर मत छोडिये, निर्णय कर लो आज।।



प्रान्त जाति भाषा धर्म, लिंग-पंथ के भेद।
लोकतंत्र की नाव में, हुए अनेकों छेद।।

मतदाता का देख कर, अतिशय मृदुल स्वभाव।
आतुर हैं नेतृत्व को, नौ ढोबे के पाव।।

निष्ठाओं पर कीजिये, फिर से नया विचार।
अंधी निष्ठा बोझ है, फेंको इसे उतार।।


लुप्त हुआ नेतृत्व वह, था जिससे अनुराग।
अमराई में भर गए, अब तो उल्लू-काग।।

हूजी लश्कर जैश के, गुर्गों का भी जोर।
सभी चाहते तोड़ने, सद्भावों की डोर।।

पाँच साल पूछें नहीं, मुड़कर भी हालात।
उनको भी आघात दे, मतदाता की लात।।

तोडें धनबल-बाहुबल, विषकारी हैं दंत।
वर्ना निश्चित जानिए, लोकतंत्र का अंत।।

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मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

चंद अशआर : सलिल


इन्तिज़ार

कोशिशें मंजिलों की राह तकें।

मंजिलों ने न इन्तिज़ार किया।

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बूढा बरगद कर रहा है इन्तिज़ार।

गाँव का पनघट न क्यों होता जवां?

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जो मजा इन्तिजार में पाया।

वस्ल में हाय वो मजा न मिला।

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मिलन के पल तो लगे, बाप के घर बेटी से।

जवां बेवा सी घड़ी, इन्तिज़ार सी है 'सलिल'।

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इन्तिज़ार दिल से करोगे अगर पता होता।

छोड़कर शर्म-ओ-हया मैं ही मिल गयी होती।

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एक दोहा दो दुम का... सलिल

लोकतंत्र के देखिये, अजब-अनोखे रंग।

नेता-अफसर चूसते, खून आदमी तंग॥

जंग करते हैं नकली।

माल खाते हैं असली॥

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सोमवार, 20 अप्रैल 2009

गीतिका

सपने तो
सपने होते हैं.
बोलो,

कब अपने होते हैं?
हम यथार्थ की
मरुस्थली में,
फसलें
यत्नों की बोते हैं.
कभी किनारे पर
डूबे तो,
कभी उबर
खाते गोते हैं.
उम्मीदों को
यत्न 'सलिल' से
सींच-सींच
हर्षित होते हैं.
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सामयिक रचना...

शक्कर मंहगी होना पर...

दोहा गजल

आचार्य संजीव 'सलिल'

शक्कर मंहगी हो रही, कडुवा हुआ चुनाव.
क्या जाने आगे कहाँ, कितना रहे अभाव?

नेता को निज जीत की, करना फ़िक्र-स्वभाव.
भुगतेगी जनता'सलिल',बेबस करे निभाव.

व्यापारी को है महज, धन से रहा लगाव.
क्या मतलब किस पर पड़े कैसा कहाँ प्रभाव?

कम ज़रूरतें कर 'सलिल',कर मत तल्ख़ स्वभाव.
मीठी बातें मिटतीं, शक्कर बिन अलगाव.

कभी नाव में नदी है, कभी नदी में नाव.
डूब,उबर, तरना'सलिल',नर का रहा स्वभाव.

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रविवार, 19 अप्रैल 2009

चिटठा-लेखन तथा अंतर्जाल पत्रकारिता : द्विदिवसीय कार्यशाला

'व्यष्टि से समष्टि तक वही पहुंचे जो सर्व हितकारी हो'-- संजीव सलिल


जबलपुर, १९ अप्रैल २००९. ''चिटठा लेखन वैयक्तिक अनुभूतियों की सार्वजानिक अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र नहीं है, यह निजता के पिंजरे में क़ैद सत्य को व्यष्टि से समष्टि तक पहुँचने का उपक्रम भी है. एक से अनेक तक वही जाने योग्य है जो 'सत्य-शिव-सुन्दर' हो, जिसे पाकर 'सत-चित-आनंद' की प्रतीति हो. हमारी दैनन्दिनी अंतर्मन की व्यथा के प्रगटीकरण के लिए उपयुक्त थी चूंकि उसमें अभिव्यक्त कथ्य और तथ्य तब तक गुप्त रहते थे जब तक लेखक चाहे किन्तु चिटठा में लिखा गया हर कथ्य तत्काल सार्वजानिक हो जाता है, इसलिए यहाँ तथ्य, भाषा, शैली तथा उससे उत्पन्न प्रभावों के प्रति सचेत रहना अनिवार्य है. अंतर्जाल ने वस्तुतः सकल विश्व को विश्वैक नीडं तथा वसुधैव कुटुम्बकम की वैदिक अवधारणा के अनुरूप 'ग्लोबल विलेज' बना दिया है. इन माध्यमों से लगी चिंगारी क्षण मात्र में महाज्वाला बन सकती है, यह विदित हो तो इनसे जुड़ने के अस्त ही एक उत्तरदायित्व का बोध होगा. जन-मन-रंजन करने के समर्थ माध्यम होने पर भी इन्हें केवल मनोविनोद तक सीमित मत मानिये. ये दोनों माध्यम जन जागरण. चेतना विस्तार, जन समर्थन, जन आन्दोलन, समस्या निवारण, वैचारिक क्रांति तथा पुनर्निर्माण के सशक्त माध्यम तथा वाहक भी हैं.''

उक्त विचार स्वामी विवेकानंद आदर्श महाविद्यालय, मदन महल, जबलपुर में आयोजित द्विदिवसीय कार्यशाला के द्वितीय दिवस प्रशिक्षुओं को संबोधित करते हुए मुख्य वक्ता आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संपादक दिव्य नर्मदा ने व्यक्त किये.

विशेष वक्ता श्री विवेकरंजन श्रीवास्तव 'विनम्र' ने अपने ५ वर्षों के चिटठा-लेखन के अनुभव सुनाते हुए प्रशिक्षुओं को इस विधा के विविध पहलुओं की जानकारी दी. उक्त दोनों वक्ताओं ने अंतरजाल पर स्थापित विविध पत्र-पत्रिकाओं तथा चिट्ठों का परिचय देते हुए उपस्थितों को उनके वैशिष्ट्य की जानकारी दी.

संगणक पर ई मेल आई डी बनाने, चिटठा खोलने, प्रविष्टि करने, चित्र तथा ध्वनि आदि जोड़ने के सम्बन्ध में दिव्य नर्मदा के तकनीकी प्रबंधक श्री मंवंतर वर्मा 'मनु' ने प्रायोगिक जानकारी दी. चिटठा लेखन की कला, आवश्यकता, उपादेयता, प्रभाव, तकनीक, लोकप्रियता, निर्माण विधि, सावधानियां, संभावित हानियाँ, क्षति से बचने के उपाय व् सावधानियां, सामग्री प्रस्तुतीकरण, सामग्री चयन, स्थापित मूल्यों में परिवर्तन की सम्भावना तथा अंतर्विरोधों, अश्लील व अशालीन चिटठा लेखन और विवादों आदि विविध पहलुओं पर प्रशिक्षुओं ने प्रश्न किया जिनके सम्यक समाधान विद्वान् वक्ताओं ने प्रस्तुत किये. चिटठा लेखन के आर्थिक पक्ष को जानने तथा इसे कैरिअर के रूप में अपनाने की सम्भावना के प्रति युवा छात्रों ने विशेष रूचि दिखाई.

संसथान के संचालक श्री प्रशांत कौरव ने अतिथियों का परिचय करने के साथ-साथ कार्यशाला के उद्देश्यों तथा लक्ष्यों की चर्चा करते हुए चिटठा लेखन के मनोवैज्ञानिक पहलू का उल्लेख करते हुए इसे व्यक्तित्व विकास का माध्यम निरूपित किया.

सुश्री वीणा रजक ने कार्य शाला की व्यवस्थाओं में विशेष सहयोग दिया तथा चिटठा लेखन में महिलाओं के योगदान की सम्भावना पर विचार व्यक्त करते हुए इसे वरदान निरुपित किया. द्विदिवसीय कार्य शाला का समापन डॉ. मदन पटेल द्वारा आभार तथा धन्यवाद ज्ञापन से हुआ. इस द्विदिवसीय कार्यशाला में शताधिक प्रशिक्षुओं तथा आम जनों ने चिटठा-लेखन के प्रति रूचि प्रर्दशित करते हुए मार्गदर्शन प्राप्त किया.

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शनिवार, 18 अप्रैल 2009

दिव्य नर्मदा संपादक श्री संजीव 'सलिल' 'वाग्विदान्वर सम्मान' से अलंकृत

साहित्य समाचार:

हिन्दी साहित्य सम्मलेन प्रयाग : शताब्दी वर्ष समारोह संपन्न
*
अयोध्या, १०-११ मई '0९ । समस्त हिन्दी जगत की आशा का केन्द्र हिन्दी साहित्य सम्मलेन प्रयाग अपने शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में देव भाषा संस्कृत तथा विश्व-वाणी हिन्दी को एक सूत्र में पिरोने के प्रति कृत संकल्पित है। सम्मलेन द्वारा राष्ट्रीय अस्मिता, संस्कृति, हिंदी भाषा तथा साहित्य के सर्वतोमुखी उन्नयन हेतु नए प्रयास किये जा रहे हैं। १० मई १९१० को स्थापित सम्मलेन एकमात्र ऐसा राष्ट्रीय संस्थान है जिसे राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन तथा अन्य महान साहित्यकारों व समाजसेवियों का सहयोग प्राप्त हुआ। नव शताब्दी वर्ष में प्रवेश के अवसर पर सम्मलेन ने १०-११ मई '0९ को अयोध्या में अखिल भारतीय विद्वत परिषद् का द्विदिवसीय सम्मलेन हनुमान बाग सभागार, अयोध्या में आयोजित किया गया। इस सम्मलेन में २१ राज्यों के ४६ विद्वानों को सम्मलेन की मानद उपाधियों से सम्मानित किया गया।



१० मई को 'हिंदी, हिंदी साहित्य और हिंदी साहित्य सम्मलेन' विषयक संगोष्ठी में देश के विविध प्रान्तों से पधारे ११ वक्ताओं ने विद्वतापूर्ण व्याख्यान दिए । साहित्य वाचस्पति डॉ। बालशौरी रेड्डी, अध्यक्ष, तमिलनाडु हिंदी अकादमी ने इस सत्र के अध्यक्षता की। इस सत्र का संचालन डॉ। ओंकार नाथ द्विवेदी ने किया। स्वागत भाषण डॉ। बिपिन बिहारी ठाकुर ने दिया। प्रथम दिवस पूर्वान्ह सत्र में संस्कृत विश्व विद्यालय दरभंगा के पूर्व कुलपति डॉ। जय्मंत मिश्र की अध्यक्षता में ११ उद्गाताओं ने 'आज संस्कृत की स्थिति' विषय पर विचार व्यक्त किए। विद्वान् वक्ताओं में डॉ. तारकेश्वरनाथ सिन्हा बोध गया, श्री सत्यदेव प्रसाद डिब्रूगढ़, डॉ. गार्गीशरण मिश्र जबलपुर, डॉ. शैलजा पाटिल कराड, डॉ.लीलाधर वियोगी अंबाला, डॉ. प्रभाशंकर हैदराबाद, डॉ. राजेन्द्र राठोड बीजापुर, डॉ. नलिनी पंड्या अहमदाबाद आदि ने विचार व्यक्त किये।


अपरान्ह सत्र में प्रो. रामशंकर मिश्र वाराणसी, .मोहनानंद मिश्र देवघर, पं. जी. आर. तिरुपति, डॉ. हरिराम आचार्य जयपुर, डॉ. गंगाराम शास्त्री भोपाल, डॉ. के. जी. एस. शर्मा बंगलुरु, पं. श्री राम देव जोधपुर, डॉ. राम कृपालु द्विवेदी बांदा, डॉ। अमिय चन्द्र शास्त्री मथुरा, डॉ. भीम सिंह कुरुक्षेत्र, डॉ. महेशकुमार द्विवेदी सागर आदि ने संस्कृत की प्रासंगिकता तथा हिंदी--संस्कृत की अभिन्नता पर प्रकाश डाला. यह सत्र पूरी तरह संस्कृत में ही संचालित किया गया. श्रोताओं से खचाखच भरे सभागार में सभी वक्तव्य संस्कृत में हुए.


समापन दिवस पर ११ मई को डॉ। राजदेव मिश्र, पूर्व कुलपति सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी की अध्यक्षता में ५ विद्द्वजनों ने ज्योतिश्पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती के प्रति प्रणतांजलि अर्पित की। सम्मलेन के अध्यक्ष साहित्य वाचस्पति श्री भगवती प्रसाद देवपुरा, अध्यक्ष हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग की अध्यक्षता में देश के चयनित ५ संस्कृत विद्वानों डॉ। जय्म्न्त मिश्र दरभंगा, श्री शेषाचल शर्मा बंगलुरु, श्री गंगाराम शास्त्री भोपाल, देवर्षि कलानाथ शास्त्री जयपुर, श्री बदरीनाथ कल्ला फरीदाबाद को महामहिमोपाध्याय की सम्मानोपाधि से सम्मानित किया गया।


११ संस्कृत विद्वानों डॉ। मोहनानंद मिश्र देवघर, श्री जी. आर. कृष्णमूर्ति तिरुपति, श्री हरिराम आचार्य जयपुर, श्री के.जी.एस. शर्मा बंगलुरु, डॉ. रामकृष्ण सर्राफ भोपाल, डॉ. शिवसागर त्रिपाठी जयपुर, डॉ.रामकिशोर मिश्र बागपत, डॉ. कैलाशनाथ द्विवेदी औरैया, डॉ. रमाकांत शुक्ल भदोही, डॉ. वीणापाणी पाटनी लखनऊ तथा पं. श्री राम देव जोधपुर को महामहोपाध्याय की सम्मानोपाधि से सम्मानित किया गया.


२ हिन्दी विद्वानों डॉ। केशवराम शर्मा दिल्ली व डॉ वीरेंद्र कुमार दुबे को साहित्य महोपाध्याय तथा २८ साहित्य मनीषियों डॉ. वेदप्रकाश शास्त्री हैदराबाद, डॉ. भीम सिंह कुरुक्षेत्र, डॉ. कमलेश्वर प्रसाद शर्मा दुर्ग, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जबलपुर, डॉ. महेश कुमार द्विवेदी सागर, श्री ब्रिजेश रिछारिया सागर, डॉ. मिजाजीलाल शर्मा इटावा, श्री हरिहर शर्मा कबीरनगर, डॉ, रामशंकर अवस्थी कानपूर, डॉ. रामकृपालु द्विवेदी बांदा, डॉ. हरिहर सिंह कबीरनगर, डॉ, अमियचन्द्र शास्त्री 'सुधेंदु' मथुरा, डॉ. रेखा शुक्ल लखनऊ, डॉ. प्रयागदत्त चतुर्वेदी लखनऊ, डॉ. उमारमण झा लखनऊ, डॉ. इन्दुमति मिश्र वाराणसी, प्रो. रमाशंकर मिश्र वाराणसी, डॉ. गिरिजा शंकर मिश्र सीतापुर, चंपावत से श्री गंगाप्रसाद पांडे, डॉ. पुष्करदत्त पाण्डेय, श्री दिनेशचन्द्र शास्त्री 'सुभाष', डॉ. विष्णुदत्त भट्ट, डॉ. उमापति जोशी, डॉ. कीर्तिवल्लभ शकटा, हरिद्वार से प्रो. मानसिंह, अहमदाबाद से डॉ. कन्हैया पाण्डेय, प्रतापगढ़ से डॉ, नागेशचन्द्र पाण्डेय तथा उदयपुर से प्रो. नरहरि पंड्याको ''वागविदांवर सम्मान'' ( ऐसे विद्वान् जिनकी वाक् की कीर्ति अंबर को छू रही है) से अलंकृत किया गया.


उक्त सभी सम्मान ज्योतिश्पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती के कर कमलों से प्रदान किये जाते समय सभागार करतल ध्वनि से गूँजता रहा.
अभियंता-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ''वागविदांवर सम्मान'' से विभूषित
अंतर्जाल पर हिन्दी की अव्यावसायिक साहित्यिक पत्रिका दिव्य नर्मदा का संपादन कर रहे विख्यात कवि-समीक्षक अभियंता श्री संजीव वर्मा 'सलिल' को संस्कृत - हिंदी भाषा सेतु को काव्यानुवाद द्वारा सुदृढ़ करने तथा पिंगल व साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट अवदान के लिए 'वाग्विदान्वर सम्मान' से सम्मलेन द्वारा अलंकृत किया जाना अंतर्जाल जगत के लिया विशेष हर्ष का विषय है चुकी उक्त विद्वानों में केवल सलिल जी ही अंतर्जाल जगत से न केवल जुड़े हैं अपितु व्याकरण, पिंगल, काव्य शास्त्र, अनुवाद, तकनीकी विषयों को हिंदी में प्रस्तुत करने की दिशा में मन-प्राण से समर्पित हैं।


अंतर्जाल की अनेक पत्रिकाओं में विविध विषयों में लगातार लेखन कर रहे सलिल जी गद्य-पद्य की प्रायः सभी विधाओं में सृजन के लिए देश-विदेश में पहचाने जाते हैं।


हिंदी साहित्य सम्मलेन के इस महत्वपूर्ण सारस्वत अनुष्ठान की पूर्णाहुति परमपूज्य ज्योतिश्पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती महाराज के प्रेरक संबोधन से हुई। स्वामी जी ने संकृत तथा हिंदी को भविष्य की भाषाएँ बताया तथा इनमें संभाषण व लेखन को जन्मों के संचित पुण्य का फल निरुपित किया ।


सम्मलेन के अध्यक्ष वयोवृद्ध श्री भगवती प्रसाद देवपुरा, ने बदलते परिवेश में अंतर्जाल पर हिंदी के अध्ययन व शिक्षण को अपरिहार्य बताया।
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साहित्य समाचार:

जाल पत्रकारिता तथा चिट्ठाजगत : द्विदिवसीय कार्यशाला

जाल तथा चिट्ठा 'स्व' से 'सर्व' का साक्षात् करने के माध्यम -संजीव 'सलिल'

जबलपुर, १८ अप्रैल २००९। ' अंतरजाल तथा चिट्ठा-लेखन आत्म अनुभूतियों को अभिव्यक्त कर, 'स्व' से 'सर्व' का साक्षात् करने का माध्यम है. 'सत-शिव-सुन्दर' से 'सत-चित-आनंद' की प्राप्ति के सनातन भारतीय आदर्श की साधना के पथ पर अदेखे-अनजाने से संयुक्त होकर समय की सामान्य सीमा को लांघते हुए असीम और निस्सीम की प्रतीति का अवसर ये माध्यम सर्व सामान्य को उपलब्ध करा रहे हैं. सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम स्वयं को इन माध्यमों से लाभान्वित करते हैं या साथी आकर्षणों और विवादों में सिमटकर व्यर्थ कर देते हैं. तकनीकी निपुणता को वैश्विक संचेतना जाग्रति का माध्यम बनाया जा सके तो मानव मात्र के लिया यह आयाम कल्याणकारी सिद्ध होगा अन्यथा यही माध्यम विनाश को आमंत्रण देगा.' ये विचार दिव्य नर्मदा पत्रिका के संपादक, विख्यात कवी-समीक्षक संजीव 'सलिल' ने स्वामी विवेकानंद आदर्श महाविद्यालय, मदन महल द्वारा 'जाल पत्रकारिता तथा चिट्ठा लेखन' पर आयोजित द्विदिवसीय कार्यशाला के उद्घाटन वक्तव्य में व्यक्त किये. इसके पूर्व महाविद्यालय के संचालक श्री प्रशांत कौरव ने कार्य शाला के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए अतिथि वक्ताओं का परिचय दिया, उपस्थित लगभग ५० सहभागियों ने चिट्ठा-लेखन के तकनीकी, भाषिक, सामाजिक, आर्थिक, विधिक आदि पक्षों की जानकार प्राप्त की तथा शंकाओं का समाधान प्राप्त किया. नयी दुनिया दैनिक समाचार पात्र के विधिक संवाददाता श्री सुरेन्द्र दुबे ने चिट्ठा-लेखन संबन्धी विधिक जिज्ञासाओं का समाधान किया. चैनल ९ एक्स के स्ट्रिंगर श्री मतलूब अहमद अंसारी, रंगकर्मी श्री संदीप पांडे, चैनल २४ की प्रदेश प्रभारी सुश्री वीणा रजक आदि ने अंतरजाल पत्रकारिता के विविध पहलुओं पर प्रकाश डाला तथा प्रशिक्षुओं का मार्गदर्शन किया. प्रशिक्षुओं के आग्रह पर श्री गिरीश बिल्लोरे 'मुकुल', महिला-बाल विकास अधिकारी ने अंतिम दिन सभी को अपना चिट्ठा प्रारंभ करने के लिए अवसर तथा संसाधन उपलब्ध कराये जाने से सहमति व्यक्त करते हुए चिट्ठा-लेखन के भविष्य से अवगत कराया. संचालक श्री प्रशांत कौरव ने तत्सम्बन्धी व्यवस्थाएं करने के निर्देश देते हुए धन्यवाद ज्ञापन कर प्रथम दिवस की कार्यशाला का समापन किया.

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कविता

बूढे सपने !

प्रदीप पाठक

(हाल ही मे हुए बम्ब धमाकों से प्रेरित यह रचना उस गाँव का हाल बताती है जिसे खाली करवा दिया गया है क्योंकि वहाँ कभी भी जंग हो सकती है। वो सारे गाँव के लोग हर दम खानाबदोश की ज़िन्दगी जीते हैं। मै सोचता हूँ हम हर बार क्या खो रहे हैं, इसका ज़रा सा भी इल्म नहीं हमको-सं.)

वो देखो !

गाँव की मस्जिद।

आज भी नमाज़ को

तरस रही है।

फूलों के पेड़ -

बच्चों के स्कूल,

सब सूने पड़े हैं।

लगता है-आज फिर

काफिला आया है।

सिपाहियों का दस्ता लाया है।

गाँवों की पखडंडियाँ

फिर से उजाड़ हो गई।

मौलवी की तमन्ना,

फिर हैरान हो गई।

फिर मन को टटोला है।

जंग ने फिर से कचौला है।

दर्द भी पी लिया है।

अपनों से जुदा हुए-

पर अरमानों को सी लिया है।


खामोश आँखों ने-

फिर ढूँढा है सपनों को।

नादान हथेलियों में-

फिर तमन्ना जागी है।


पर क्यों सरफरोश हो गई,

आशायें इस दिल की।

क्यों कपकपी लेती लौ,

मोहताज़ है तिल तिल की।


टिमटिमाते तारे भी,

धूमिल से हैं।

बारूद के धुएँ में जुगनू भी,

ओझल से हैं.
बस करो भाई!

अब घुटन सी हो रही है।

न करो जंग का ऐलान फिर-

चुभन सी हो रही है।


बड़ी मुश्किलों से,

रमजान का महीना आया है।

मेरी तकदीर की

आखिरी ख्वाहिश को,

संग अपने लाया है।


कर लेने दो अजान

फिर अमन की खातिर,

बह लेने दो पुरवाई

बिखरे चमन की खातिर.
यूँ खून न बरसाओ !

अबकी सुबह निराली है।

हर पतझड़ के बाद मैंने-

देखी हरियाली है।

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शब्द-यात्रा : अजित वडनेरकर

चमक

चमक सका वह जो हरे, तम् दे नित्य प्रकाश।

सब का हित कर तोड़ दे, निजी स्वार्थ के पाश।।

चमकदार सतह के अर्थ में इंडो-ईरानी भाषा परिवार में जहां रुच् या रुख धातुएं बनती हैं वहीं भारोपीय भाषा परिवार में यह ल्युक leuk का रूप लेती है। विज्ञान की नई खोजों और तकनीकों से विकास की दौड़ में लगातार मनुष्य आगे बढ़ा है। शब्द भी इसके साथ ही नए रूप और अर्थ ग्रहण करते चलते हैं। दीपवर्तिका जो मात्र कपास का सूत्र होता था, जिसे जलाकर पुराने समय में रात को रोशनी की जाती थी, दीयाबाती के रूप में प्रकाश का पर्याय बनी। बाद में सिर्फ बत्ती रह गई। बत्ती जलाना यानी प्रकाश करना। विद्युत बल्ब का आविष्कार होने के बाद बल्ब के आकार को ध्यान में रखकर इलेक्ट्रिक बल्ब को लट्टू कहा जाने लगा। यूं लट्टू शब्द हिन्दी में गढ़ा नहीं गया बल्कि गोल, घूमनेवाले खिलौने के तौर पर इसे पहले से जाना जाता है। इसके बावजूद लट्टू की बजाय लोग बत्ती शब्द का ही इस्तेमाल करते हैं। विद्युतधारा के लिए अंग्रेजी में इलेक्ट्रिसिटी शब्द है मगर हिन्दी में विद्युत से बने देशज रूप बिजली का ज्यादा प्रयोग होता है। वैसे बिजली के लिए हिन्दी में लाईट शब्द का इस्तेमाल इतना आम हो चला है कि लाईट मारना जैसा मुहावरा बन गया जो नितांत हिन्दी से जन्मा है। बिजली न होने पर अक्सर यही कहा जाता है कि लाईट नहीं है, चाहे दिन का वक्त हो। इसी तर्ज पर बिजली न रहने पर बत्ती गुल मुहावरा प्रयोग भी कर लिया जाता है। हालांकि हर बार मकसद यही रहता है कि इलेक्ट्रिसिटी न रहने की वजह बिजली से काम करनेवाले उपकरण चल नहीं सकेंगे। रुच् , रुख की श्रंखला में भारोपीय ल्युक धातु से ही बना है अंग्रेजी का लाईट शब्द जिसका मतलब होता है रोशनी, प्रकाश। ल्युक से जर्मन में बना लिट (लिख्त Licht), मध्यकालीन डच में बना लुट (लुख्त lucht) और पुरानी अंग्रेजी में लेट-लोट leoht, leht जैसे रूप बने जिनसे आज की अंग्रेजी में लाईट light शब्द बना। दीप्ति, चमक आदि अर्थ में फारसी के रुख का ही एक और रूप बनता है अफ्रूख्तन afruxtan जिसके मायने हैं प्रकाशित करना, रोशनी करना। वेस्ट जर्मनिक के ल्युख्तम की इससे समानता गौरतलब है। इसका भी वही अर्थ है। फारसी ज़बान का फारुक़ (fo-ruq फारुख और फ़रोग़ उच्चारण भी है) भी इसी कड़ी का शब्द है जिसका मतलब उजाला, प्रकाश होता है जबकि अरबी में भी फारुक़ नाम होता है जिसका अर्थ सच की शिनाख्त करने वाला है। यूं देखा जाए तो सच हमेशा रोशन होता है, इस तरह अरबी फारुक़ की फारसी वाले फारुक़ से रिश्तेदारी मुमकिन है। फारूक़ के बाद इसी श्रंखला में जुड़ता है चिराग़ Ceraq जिसका मतलब होता है दीया, दीपक। इसमें roc का परिवर्तन raq में हुआ है। भारोपीय ल्युक धातु से बना ग्रीक का ल्युकोस leukos, लिथुआनी में बना लॉकास laukas, जिसका अर्थ है पीला, पीतवर्ण। प्राचीनकाल में मनुष्य के पास प्रकाश का मुख्य स्रोत अग्नि ही था जिसमें पीली आभा वाली रोशनी होती है। इसलिए दुनियाभर की भाषाओं में प्रकाश, कांति, दीप्ति से जुड़े जितने भी शब्द है उनमें पीले रंग का संदर्भ भी आमतौर पर आता है। इसी तरह अर्मीनियाई भाषा में lois का मतलब होता है प्रकाश जबकि lusin शब्द चंद्रमा के लिए प्रयुक्त होता है जो प्रकाश स्रोत है। इसी तरह लैटिन में लुसियर lucere यानी चमक और लक्स lux यानी प्रकाश जैसे संदर्भ महत्वपूर्ण हैं। हिन्दुस्तान लीवर कंपनी के प्रसिद्ध ब्रांड साबुन के जरिये लोग लक्स से परिचित है। साबुन के तौर पर लक्स नाम से यहां बदन को चमकाने से ही अभिप्राय है। चमक का सौदर्य से रिश्ता हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं। चमक ही विशिष्टता की सूचक है इसीलिए शानो-शौकत और विलासिता के संदर्भ में डीलक्स शब्द का प्रचलन है। भारत में डीलक्स होटल, डीलक्स ट्रेन, डीलक्स बंगले भी होते हैं। यही नहीं, फुटपाथी चाय वाले की सबसे महंगी चाय का नाम भी डीलक्स ही होता है।

सूर्य चन्द्र जुगनू सभी, चमक रहे है देख।

किसने कितना तम् पिया, 'सलिल' यही अव्लेख॥

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ग़ज़ल

- 'सलिल जी'

चल पड़े अपने कदम तो,मंजिलें भी पायेंगे.
कंठ-स्वर हो साज़ कोई, गीत अपने गायेंगे.
मुश्किलों से दोस्ती है, संकटों से प्यार है.
'सलिल' बनकर नर्मदा हम, सत्य-शिव दुहारायेंगे.
स्नेह की हर लहर हर-हर, कर निनादित हो रही.
चल तनिक अवगाह लें, फिर सूर्य बनकर छायेंगे.
दोस्तों की दुश्मनी की 'सलिल' क्यों चिंता करें.
दुश्मनों की दोस्ती पाकर मरे- जी जायेंगे.
चुनें किसको, तजें किसको, सब निकम्मे एक से.
मिली सत्ता तो ज़मीं से, दूर हो गर्रायेंगे.
दिल मिले न मिलें लेकिन हाथ तो मिलते रहें.
क्या पता कब ह्रदय भी हों एक, फिर मुस्कायेंगे.
स्नेह-सलिला में नहाना, 'सलिल' का मजहब धरम.
सफल हो श्रम साधना, हम गगन पर लहरायेंगे.

हिंदी कविता : संजीव 'सलिल'

हिंदी कविता :

संजीव 'सलिल'

गीता रामायण समझ, जिसे रहा मैं बाँच.
उसे न हीरे की परख, चाह रही वह काँच.
दोहा-चौपाई सरस, गाया मैंने मीत.
नेह निभाने की नहीं, उसे सुहाई रीत.
नहीं भावना का किया, दो कौडी भी मोल.
मौका पाते ही लिया, छिप जेबों को तोल.
केर-बेर का संग यह, कब तक देता साथ?
जुडें नमस्ते कर सकें, अगर अलग हों हाथ.
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एक शेर

संजीव 'सलिल

इन्तिज़ार दिल से करोगे जो पता होता.
छोड़कर शर्मो-हया मैं ही मिल गयी होती.

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

एक शे'र : आचार्य संजीव 'सलिल'

शिकवा न दुश्मनों से मुझको रहा 'सलिल'।

हैरत में हूँ दोस्तों ने प्यार से मारा।

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

चुनाव चालीसा

रामेश्वर शर्मा , रामू भइया', कोटा

जय-जय भारत भारती, जय-जय हिंदुस्तान।
आशीषों मम लेखनी, रचूँ काव्य मतदान॥

कुटिल जनों के हाथ में चली न जाए नाव।
आँख खोलकर कीजिये, अपना सही चुनाव॥

जय-जय प्यारा भारत देशा, भू मंडल पर राष्ट्र विशेषा।

सहस बरस तक सही गुलामी, शासक आए नामी-नामी॥

जब गाँधी की आँधी आयी, तब जाकर आजादी पाई॥

जनता पर जनता ही राजा, लोकतंत्र का मूल तकाजा॥

हम ही अपने मत के दाता, एक दिवस के क्षणिक विधाता॥

घोषित होता दिवस इलेक्शन, हरकत में आ जाता नेशन॥

क्या होरी, क्या धनिया-झुमरू, बाँध जाते सबके ही घुँघरू॥

नेता शहरी, गाँव-गाँव के, ढानी-कसबे, ठांव-ठांव के॥

बैनर, माइक, झंडे-झंडी, राजनीति के चंडू- चंडी॥

नए-पुराने शातिर पंजे, साथ कमल के खेलें कंचे॥

एक मुलायम-एक कठोरा, बाइसिकल का करे ढिंढोरा॥

लालटेन को लेकर लल्लू, समः रहा सूरज को उल्लू॥

कल तक जिनके जूते मारे, आज हुए हाथी को प्यारे॥

कहीं पे हँसिया कहीं हथौडा, हर दल का एक चिन्हित घोड़ा॥

डाकू-गुंडे, चोर-लुटेरे, हर दल में पैठे हैं गहरे॥

जब-जब आता दौर चुनावी, हो जाते जन यही प्रभावी॥

इस दल से उस दल के अन्दर, आते-जाते शातिर बन्दर॥

अपने घर को हरनेवाले, तन के उजले मन के काले॥

नेता क्या सब रंगे सियार, अन्दर नफरत ऊपर प्यार॥

जनता को सुख-सपन दिखाना, जाति-वर्ण से प्रेम सिखाना॥

लड़वाना भाषा से भाषा, उत्तर-दक्षिण की परिभाषा॥

अगडे औ' पिछडे का अंतर, कानों में देते हैं मंतर॥

मीना मुस्लिम जाट अहीरा, सबके वोटन हेतु अधीरा॥

रूपया बहता बनकर पानी, मदिरा की भी यही कहानी॥

वंशवाद के कुछ रखवारे, बाथरूम में नंगे सारे॥

बेटा पोता कहीं लुगाई, स्वयं नहीं तो छोटा भाई॥

दोहन हेतु गाय दुधारी, हर दल में है मारा-मारी॥

वोटर-वोटर द्वारे जाना, वोट मांगते ना शर्माना॥

बाद विजय के करते छुट्टी, पॉँच बरस की मानो कुट्टी॥

कहाँ देश है, कहाँ समाजा, इस चिंतन का नहीं रिवाजा॥

सरे लोक-विधानी बाड़े, नेतागण के नए अखाडे॥

गाँधी-नेहरू, नहीं पटेला, चौराहे पर देश अकेला॥

किसको थामे?, किसको छोडे?, किसके पीछे भारत दौडे॥

लोकतंत्र की चक्क-मलाई, चाट रहे मौसेरे भाई॥

बीसों दल का एक नतीजा, भये इलेक्शन बर्जर-पीजा॥

जन सज्जन सब भये उदासा, दुर्जन खेल रहे हैं पाँसा॥

बहुत निकट हैं नए इलेक्शन, आओ नूतन करें सिलेक्शन॥

एक यही अवसर है प्यारा, पाँच बरस तक नहीं दुबारा॥

मन वचनी कर्मन से सच्चा, चलो चुनें अब नेता अच्छा॥

रामू भैया ने यह दर्पण, मतदाता को किया समर्पण॥

अब तक खाए आपने, नासमझी से घाव ॥
मतदाताओं कीजिये, अब तो सही चुनाव॥

वोट आपका कीमती, रखिये इससे प्रीत ॥
निर्भयता मतदान की, देगी सच्चा मीत ॥
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