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मंगलवार, 8 जून 2021

मुक्तिका

मुक्तिका:
संजीव
*
सत्य भी कुछ तो रहा उपहास में
दीन शशि से अधिक रवि खग्रास में
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श्लेष को कर शेष जब चलता किया
यमक की थी धमक व्यापी श्वास में
*
उपन्यासों में बदल कर लघुकथा
दे रही संत्रास ही परिहास में
*
आ गये हैं दिन यहाँ अच्छे 'सलिल'
बरसते अंगार हैं मधुमास में
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मदिर महुआ की कसम खाकर कहो
तृप्ति से ज़्यादा न सुख क्या प्यास में
८-६-२०१५
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