कुल पेज दृश्य

रविवार, 16 नवंबर 2025

गीत रामायण, डॉ. रवींद्र भ्रमर

कृति-चर्चा
''गीत रामायण''  प्रथम सांस्कृतिक नवगीतीय संकलन 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
(कृति परिचय- गीत रामायण, रामकथा गीतानुवाद, डॉ. रवींद्र भ्रमर, सजिल्द बहुरंगी जैकेट युक्त आवरण, पृष्ठ १४४, प्रथम संस्करण १९९९, मूल्य १५०/-, प्रकाशक ग्रंथायन, सर्वोदय नगर, सासनी गेट, अलीगढ़ २०२००१)
*
            ''गीतों के आत्मा को अक्षुण्ण रखकर रवींद्र 'भ्रमर' ने जो नए प्रयोग किए हैं उनसे निश्चय ही गीतों के विकास को नयी दिशा मिली है।'' - डॉ. हरिवंश राय 'बच्चन'

            ''रवींद्र 'भ्रमर' के गीतों की सर्वथा नयी शैली है, भावभूमि और अभिव्यक्ति दोनों दृष्टियों से गीत को नया आयाम देने के लिए वे बधाई के पात्र हैं।'' - डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन'

            ''रवींद्र 'भ्रमर' ने प्रकृति के चित्रों के साथ मन की स्थितियों को जोड़कर अपने गीतों में नया रंग भरने का प्रयत्न किया है।'' - डॉ. शंभु नाथ सिंह

            डॉ. रवींद्र 'भ्रमर' की गीतों में नव्य गीत-शिल्प लोक तत्व तथा संगीतात्मकता तीनों का सुंदर संगम हुआ है।'' - डॉ. रमेश कुंतल मेघ


            हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने 'गीत रामायण' के गीतों को 'नवगीत' क्यों नहीं कहा? गीत वृक्ष के सुदृढ़ तने से विकसित विविध शाखाएँ लोक गीत, बाल गीत, पर्व गीत, ऋतु गीत, आह्वान गीत, जागरण गीत, विवाह गीत, शृंगार गीत, हास्य गीत, नवगीत आदि विशेषणों से अभिषिक्त किए गए हैं।

            नवता क्या है? किसी अनुभूति को अभिव्यक्त करते समय विषय, कथ्य, शैली, अलंकार, मिथक, शब्द प्रयोग आदि के निरंतर नए प्रयोग नवता या रचनाकार का वैशिष्ट्य कहे जाते हैं। नवता व्यक्तिगत भी हो सकती है और अभिव्यक्ति गत भी। बच्चा कोई कार्य पहलीबार कर, उसे बार-बार दोहराता-दिखाता है क्योंकि अपनी समझ में उसने यह पहली बार किया है। बड़े उसे प्रोत्साहित करते हैं ताकि वह विकास पथ पर बढ़ता रह सके। साहित्य सृजन में हर नया रचनाकार अपने से पहले के रचनाकारों को सुन-पढ़कर लेखन आरंभ करता है, कुछ वरिष्ठ जनों द्वारा बनाई गई लीक का अनुसरण करते हैं, कुछ अन्य लीक से हटकर लिखते हैं। लोक कहता है- 'लीक तोड़ तीनों चलें, शायर सिंह सपूत'। मैं इसमें जोड़ता हूँ 'लीक-लीक तीनों चलें, कायर काग कपूत'। रचनाकार जब पूर्ववर्तियों द्वारा बनाई परंपरा से हटकर लिखता है तो कालजयी दृष्टि रखनेवाले उसे आशीषित करते हैं। डॉ. बच्चन और डॉ. सुमन ने गीत रामायण के रचनाकार को मुक्त कंठ से आशीष दिए हैं। 

            किसी वैचारिक आंदोलन अथवा विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध रचनाकार अपनी मान्यताओं से हटकर अन्य किसी को महत्व कम ही देते हैं। डॉ. शंभुनाथ सिंह ने नवगीत को एक आंदोलन के रूप में विकसित करने और उसे साहित्यिक मंच पर स्थापित करने में केंद्रीय भूमिका निभाई।स्वाभाविक है कि डॉ. शंभुनाथ सिंह ने नवगीत संबंधी अपनी मान्यताओं से हटकर आई कृति को नवगीत स्वीकार नहीं किया और गीत रामायण को 'गीतों में नया रंग भरने का प्रयत्न' मात्र कहा जबकि उनसे पूर्व उनसे वरिष्ठ बच्चन जी 'निश्चय ही गीतों के विकास को नयी दिशा' देने वाला तथा सुमन जी 'गीत को नया आयाम देने के लिए'  बधाई दे चुके थे। उल्लेखनीय है कि बच्चन जी तथा सुमन जी ने नवगीत का, गीत से प्रथक अस्तित्व ही स्वीकार नहीं किया था अन्यथा वे गीत रामायण की गीति रचनाओं को 'नवगीत' कहने में संकोच नहीं करते। डॉ. सिंह नवगीत के शीर्ष हस्ताक्षर थे तथापि उन्होंने गीत रामायण को नवगीत-करती मानने में न केवल संकोच किया अपितु इसे 'नया रंग भरने का प्रयास' मात्र कहा। प्रयास को सफल भी नहीं कहा क्योंकि सफल कहते तो यह शैली नवगीत के पहचान बन सकती थी। अस्तु... 

            समय खुद भी न्याय करता ही है। पश्चातवर्ती गीतकारों-समीक्षकों से 'गीत रामायण' का महत्व अदेखा नहीं रह सका। डॉ. रमेश कुंतल मेघ के अनुसार- ''डॉ. रवींद्र 'भ्रमर' के गीतों में नवी गीत शिल्प लोक तत्व तथा संगीतात्मकता तीनों का सुंदर समन्वय हुआ है।'' डॉ. श्रीपाल सिंह 'क्षेम' गीत रामायण की गीति रचनाकारों को नवगीत मानते हुए लिखते हैं- ''डॉ. रवींद्र 'भ्रमर' ने परंपरित गीतों को सँवारकर सहज बनाने में विश्रुत ख्याति अर्जित की। .... उनके नवगीतों में उनकी सहज कविता की परिकल्पना साकार हुई है।'' इससे और आगे बढ़ते हुए डॉ. राम दरश मिश्र गीत रामयण की रचनाओं को संभवत: पहली बार नवगीत घोषित करते हुए उनमें 'लोक संवेगों के प्रति उन्मुखता' के दर्शन करते हैं- ''रवींद्र 'भ्रमर' के नवगीतों में  अनुभव की सच्चाई, लोक संवेगों के प्रति उन्मुखता दृष्टव्य है। कहीं-कहीं बड़े ही ताजे बिंब प्रयुक्त हुए हैं।''  डॉ. वेद प्रताप 'अमिताभ' गीत रामायण में संश्लिष्ट बिंबधर्मिता और समकालिकता को उल्लेख्य मानते हैं- ''रवींद्र 'भ्रमर' के गीतों की ताकत उनकी सहज और संश्लिष्ट बिंबधर्मिता में है। .... इस तरह के बिंब न केवल गीत को समकालीन बनाते हैं, अपितु संवेदन और चिंतन के स्तर पर झकझोरते भी हैं।'' गीत रामायण को आशीषित करते डॉ. विद्या निवास मिश्र ने गीत-प्रबंध काव्य के रूप में देखा है जबकि भ्रमर जी ने अपनी इस कृति को प्रबंध काव्य नहीं माना है।   

            वर्ष १९५८ में राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने अपने गीतों का नामकरण 'नवगीत' करते हुए 'गीतांगिनी' संकलन प्रकाशित किया। उनका उद्देश्य गीतों से पुरानी भावुकता को अलगकर सामाजिक यथार्थ से जोड़ना तथा नवगीत को नई कविता के समानांतर एक स्वायत्त विधा के रूप में विकसित करना था। नवगीत परंपरा के शीर्ष हस्ताक्षर डॉ. शंभुनाथ सिंह ने वर्ष १९८२ में नवगीतों का पहला महत्वपूर्ण संकलन 'नवगीत दशक-१', 'नवगीत अर्धशती' और 'नवगीत सप्तक' संपादन-प्रकाशन किया था। भ्रमर जी (६.६.१९३४ जौनपुर - २८.११.१९९८ पटना) की जीवन यात्रा पूर्ण होने के पश्चात १९९९ में उनकी धर्मपत्नी शकुंतला राजलक्ष्मी जी, पुत्र द्वय डॉ. श्री हर्ष व आनंद वर्धन तथा पुत्रवधू डॉ. मीनाक्षी आनंद ने कृति प्रकाश का सारस्वत अनुष्ठान संकल्पपूर्वक पूर्ण किया किंतु इसकी रचनाएँ लगभग १५ वर्ष पूर्व से ही पढ़ी और सराही जा रही थीं। नवगीत को समाजवादी-साम्यवादी आंदोलन से जोड़ रहे हस्ताक्षर इन्हें नवगीत कहने से परहेज कर रहे थे जबकि गीत में नवता को नवगीत मान रहे हस्ताक्षर इन्हें नवगीत घोषित कर रहे थे। वास्तव में ''गीत रामायण''  प्रथम सांस्कृतिक नवगीतीय संकलन है जिसमें नवगीत के कथ्य में सामाजिकता पर सांस्कृतिकता को वरीयता दी गई इसीलिए नवगीत में सामाजिकता (वैषम्य,विसंगति, टकराव, बिखराव आदि) तक ही नवगीत को सीमित रखने के पक्षधर नवगीत में सांस्कृतिक कथ्य को अमान्य करने की कोशिश करते रहे। इन्हें चुनौती मध्य प्रदेश विशेषकर नर्मदांचल के नवगीतकारों से मिली जो नवगीत को नई विधा नहीं विशेषण मानते रहे। स्व. जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण' के गीतों में ग्राम्य तथा नागर जीवन शैली को केंद्र में रखकर अभिनव शैली में प्रस्तुति के बावजूद प्रगतिवादी खेमे ने नवगीत नहीं माना। विविध साहित्यिक आयोजनों में कई बार जबलपुर आए नवगीतकार श्री मधुकर अष्ठाना के साथ विश्ववाणी हिंदी संस्थान की गोष्ठियों में नवगीत में नवता पर विशद विमर्श हुआ। 

            वर्ष २०१४ में पूर्णिमा बर्मन जी का नवगीत संकलन 'चोंच में आकाश' अजूमन प्रकाशन ने प्रकाशित किया। अभिव्यक्ति विश्वम् के मञ्च पर नवगीत महोत्सव  में इस की समीक्षा करते हुए मैंने इसे नवगीत संकलन घोषित किया किंतु परंपरावादी नवगीतकार इसे गीत संकलन ही कहते रहे। यही स्थिति में गीत-नवगीत संकलनों 'काल है संक्रांति का' तथा 'सड़क पर' के साथ हुई। वर्ष २००३ में प्रकाशित कुमार रवींद्र के नवगीत संकलन 'सुनो तथागत' ने कुमार रवींद्र ने भ्रमर जी  द्वारा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के नवगीत संकलन की परंपरा में अगली कड़ी जोड़ी। इस संकलन पर जबलपुर में संपन्न गोष्ठी में मधुकर अष्ठाना जी ने इसे नवगीत नहीं माना जबकि मैंने इसे नवगीतीय प्रबंध काव्य कहा था। आज भी नवगीत के जन्म के लगभग ७ दशक बाद यही स्थिति है। यह विमर्श इसलिए कि विश्व विद्यालयों में आज भी प्रगतिवाद के पक्षधर आसंदियों पर प्रतिष्ठित हैं जो भारतीय सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को नकारने में गौरव अनुभव करते हैं। यात: गीत रामायण को आज भी वह महत्व नहीं मिल सका है जो मिलना चाहिए। वस्तुत: 'गीत रामायण' प्रथम नवगीतीय प्रबंध कृति है जिसमें सांस्कृतिक ग्राम्य और नागर परंपराओं का सुंदर समन्वय रामकथा के संदर्भ में दृष्टव्य है। इस दृष्टि से 'सुनो तथागत' दूसरी नवगीतीय प्रबंध कृति है जिसमें बुद्धकथा के पात्रों के माध्यम से  कुमार रवींद्र जी ने अभिनव बिंबों और नूतन मिथकों की स्थापना की है। 

            भ्रमर जी की जन्मस्थली जौनपुर सूफी संतों के प्रेमाख्यानों के लिए प्रसिद्ध रही है । इसे 'शिराजे हिंद' संज्ञा से अभिषिक्त किया गया। भ्रमर जी ने शैशव से यह संस्कार पाया और जाने-अनजाने वह उनकी बौद्धिक चेतना  का अंश बन गया। भ्रमर जी की साहित्यिक यात्रा लगभग २० वर्ष की उम्र में आरंभ हुई। 'कविता-सविता' (१९५६), 'रवींद्र भ्रमर के गीत' (१९६२-६३), 'प्रक्रिया' (१९७२), 'सोन मछरी मन बसी' (१९८०)  तथा 'धूप दिखाए आरसी' (१९९१) आदि की रचनाओं में भ्रमर जी ने सहज मानवीय आदर्शों और समाज सापेक्ष सांस्कृतिक सूत्रों को निरंतर अभिव्यक्त किया। तथाकथित प्रगतिवादी-समाजवादी मूल्यहीनता के चक्रव्यूह में भ्रमर जी अभिमन्यु की तरह जूझते रहे। उनकी रचनाओं में सांस्कृतिक निर्वैयक्तिकता व सार्वजनीनता की उपस्थिति निरंतर बनी रही। 'गीत रामायण' में संत कवियों द्वारा प्रयुक्त पद पद्धति के स्थान पर प्रगीत पद्धति को अपनाते हुए भ्रमर जी ने वैश्विक मानवता तथा पारंपरिक मर्यादा के तटों पर संवेदना सेतु बनाए हैं। श्री राम तथा रामायण भ्रमर जी के व्यक्तित्व के अभिन्न अंग हैं। भ्रमर जी लिखते हैं- 

मैंने नवगीतों में रामायण लिखने की धुन ठानी ।
वे क्षमा करें जिनके लेखे यह गाथा हुई पुरानी।।

            यह 'क्षमा' तथाकथित प्रगतिवादियों और साम्यवादियों के लिए ही है जो श्री राम को काल्पनिक मानते रहे हैं। भ्रमर जी के शब्दों में- ''मैंने उन्हें (श्री राम को) पुरुषोत्तम और जननायक के रूप में प्रस्तुत करने पर बल दिया है।'' यहाँ यह स्मरण करना अप्रासंगिक न होगा कि वर्ष १९७५ में नरेंद्र कोहली जी की रामकथा पर औपन्यासिक शृंखला (७ उपन्यास दीक्षा, अवसर, संघर्ष की ओर, युद्ध १, युद्ध २, अभिज्ञान व पृष्ठभूमि) प्रकाशित हीना आरंभ हुई थी जो १९८० के आसपास पूर्ण हुई। कोहली जी ने भी श्री राम को भगवान के स्थान पर जननायक ही प्रस्तुत किया था। संभवत:, भ्रमर जी को इन उपन्यासों के पठन से ही 'गीत रामायण' रचने की प्रेरणा प्राप्त हुई। १०१ प्रगीतिय नवगीतों में भ्रमर जी  ने कृति का श्री गणेश पारंपरिक पद्धति अनुसार श्री गणेश वंदना से करते हुए उन्हें 'भारती भवन के आदि देव', जन गण मंगल अधिनायक', 'सुर साधक' तथा 'जनगायक' जैसे विशेषण दिए जो तब ही नहीं, अब भी सर्वथा नवता परक प्रतीत होते हैं। 

            भ्रमर जी के राम मेरुदंड की तरह तननेवाले, ज्योतिपुंज बन उगनेवाले, पुण्य पयोधर की तरह तृषा हरनेवाले, कर्मक्षेत्र में कीर्ति-कथा लिखनेवाले, इतिहास में अंकित स्वर्णाक्षर, जनमानस में प्रतिष्ठित नरसिंह और नरोत्तम हैं। वे  भूगोल, इतिहास, आकाश, मूर्ति, चित्र, रस, रास, वारिद, धरा, वातास, चेतन श्वास, विश्वास, जप-जोग-सन्यास आदि में राम के दर्शन करते हुए अपने हृदय में निवास करने के लिए प्रार्थना करते हैं। राम कथा के प्रथम गायक वाल्मीकि (देववाणी) तथा तुलसी (लोक भाषा) को स्मरण-नमन करने के बाद अपने आपसे संबोधित होते हैं- 

''बजट रहा अनंग, गीत तृष्णा के गाए।
तूने आठों पहर, अंध आलाप उठाए।।
प्यारे भ्रमर, खोल अब अंतर्मन की आँखें।
रामनाम-रस में डूबें, जीवन की पाँखें।।

            'गीत रामायण' के प्रगीतों को नवगीतों के स्वघोषित मसीहा नकारेंगे, यह सत्य भ्रमर जी भी जानते थे, इसलिए उन्होंने लिखा-

मैं उनके लिए नहीं लिखता राघव की कीर्ति-कथा को,
जो बड़े काल-सापेक्ष, धर्म-निपेक्ष, नवल विज्ञानी।। 

            ईंट ही नहीं भ्रमर जी यह भी लिखते हैं- ''मैं लिखता उनके लिए जिन्हें अपनी मिट्टी प्यारी है''। समीक्षकों के लिए भी संकेत है- 

हर पद पर शिल्प-शिला के घाट नहीं बांधे हैं मैंने,
रचना की निश्छल धारा है झरने का बहता पानी।।

कल्पना-कला के घाट-बात कुछ पीछे छूट गए है,
गायक की तान लगेगी रसिया को जानी-पहचानी।।

            'फिर होता अवतार' शीर्षक नवगीत में गीतकार त्रेता की कथा को वर्तमान से जोड़ते हुए 'लोकतंत्र में छेद कर रहे', 'उनके मुँह हराम की चर्बी', खाली है खलिहान, व्यवस्था खड़ी फसल चर जाति', 'चोर-उचक्कों की काय में माय दुंद मचाती' आदि से सम-सामयिक परिदृश्य का संकेत करते हुए 'फटती है धरती की छाती' लिखकर विसंगतियों की विकरालता 'कम लिखे को अधिक समझना' की परंपरा अनुसार इंगित करते हैं। मानस में वर्णित कथा क्रमानुसार राम-जन्म के पश्चात बधाई गीत, सोहर गीत आदि का प्रयोग नवगीत में संभवत: पहली बार किया गया है- 

मची ताता-थइया, अरे ताता-थइया। 
अवध के अँगना, बाजे बधइया।। 
तथा 
चंदन का पलना रे, डोरियाँ रेशम की, 
ललन झूल रहे श्री राम, झुलाएँ देवी कौशल्या।। 

            श्री राम की बाल लियाल व शिक्षा के पश्चात विश्वामित्र के साथ अहल्या उद्धार प्रसंग में भ्रमर जी समाज में नारी की दुरावस्था इंगित करते हैं- '... बन के पत्थर अहल्या पड़ी  है....   कर लो फिर कोई व्यभिचार कर लो / एक असहाय औरत पड़ी है'। 

            मिथिला में राम-विवाह पसंग में विवाह गीत, विवाह पश्चात अयोध्या में फाग, राजतिलक की घोषणा और वनवास। भ्रमर जी ने कैकेयी प्रसंग की अनदेखी की है, संभवत: नारी-निंदा से बचने के लिए। वनवास प्रसंग में 'महल ढाँप कार मुँह सोता है, /जंगल में मंगल होता है', 'ठग-ठकुर तो छल के राजा, / राम हुए जंगल के राजा  तथा 'ग्रीष्म तपे तो कुंदन होंगे, / पावस की झर, चंदन होंगे' जैसी मौलिक और मार्मिक अभिव्यक्तियाँ पाठक को मोहती हैं। 

         

    



   

शुक्रवार, 14 नवंबर 2025

नवंबर १४, सॉनेट, नमन, हाइकु, ग़ज़ल, चौपाई ग़ज़ल, जनक छंदी ग़ज़ल, सोरठा ग़ज़ल, हवा, बाल, अचल, अचल धृति, छंद

सलिल सृजन नवंबर १४
*
सॉनेट
नमन
नमन गजानन, वंदन शारद
भू नभ रवि शशि पवन नमन।
नमन अनिल चर-अचर नमन शत
सलिल करे पद प्रक्षालन।।
नमन नाद कलकल कलरव को
नमन वर्ण लिपि क्षर-अक्षर।
नमन भाव रस लय को, भव को
नमन उसे जो तारे तर।।
नमन सुमन को, सुरभि भ्रमर को
प्यास हास को नमन रुदन।
नमन जन्म को, नमन मरण को
पीर धैर्य सद्भाव नमन।।
असंतोष को, जोश-घोष को
नमन तुष्टि के अचल कोष को।।
१४-११-२०२२
●●●
हाइकु ग़ज़ल-
नव दुर्गा का, हर नव दिन हो, मंगलकारी
नेह नर्मदा, जन-मन रंजक, संकटहारी
मैं-तू रहें न, दो मिल-जुलकर एक हो सकें
सुविचारों के, सुमन सुवासित, जीवन-क्यारी
गले लगाये, दिल को दिल खिल, गीत सुनाये
हों शरारतें, नटखटपन मन,-रञ्जनकारी
भारतवासी, सकल विश्व पर, प्यार लुटाते
संत-विरागी, सत-शिव-सुंदर, छटा निहारी
भाग्य-विधाता, लगन-परिश्रम, साथ हमारे
स्वेद बहाया, लगन लगाकर, दशा सुधारी
पंचतत्व का, तन मन-मंदिर, कर्म धर्म है
सत्य साधना, 'सलिल' करे बन, मौन पुजारी
चौपाई ग़ज़ल
यायावर मन दर-दर भटके, पर माया मृग हाथ न आए।
मन-नारायण तन नारद को, कह वानर शापित हो जाए।।
राजकुमारी चाह मनुज को, सौ-सौ नाच नचाती बचना।
'सलिल' अधूरी तृष्णा चालित, कह क्यों निज उपहास कराए।।
मन की बात करो मत हरदम, जन की बात कभी तो सुन लो।
हो जम्हूरियत तानाशाही, अपनों पर ही लट्ठ चलाए।।
दहशतगर्दी मेरी तेरी, जिसकी भी हो बहुत बुरी है।
ख्वाब हसीन मिटाकर सारे, धार खून की व्यर्थ बहाए।।
जमीं किसी की कभी न होती, बेच-खरीद हो रही नाहक।
लालच में पड़कर अपने भी, नाहक ही हो रहे पराए।।
दुश्मन की औकात नहीं जो, हमको कुछ तकलीफ दे सके।
जब भी ढाए जुल्म हमेशा, अपनों ने ही हम पर ढाए।।
कहते हैं उस्ताद मगर, शागिर्द न कोई बात मानते।
बस में हो तो उस्तादों को, पाठ लपक शागिर्द पढ़ाए।।
***
जनक छंदी ग़ज़ल
*
मेघ हो गए बाँवरे, आये नगरी-गाँव रे!, हाय! न बरसे राम रे!
प्राण न ले ले घाम अब, झुलस रहा है चाम अब, जान बचाओ राम रे!
गिरा दिया थक जल-कलश, स्वागत करते जन हरष, भीगे-डूबे भू-फ़रश
कहती उगती भोर रे, चल खेतों की ओर रे, संसद-मचे न शोर रे!
काटे वन, हो भूस्खलन, मत कर प्रकृति का दमन, ले सुधार मानव चलन
सुने नहीं इंसान रे, भोगे दण्ड-विधान रे, कलपे कह 'भगवान रे!'
तोड़े मर्यादा मनुज, करे आचरण ज्यों दनुज, इससे अच्छे हैं वनज
लोभ-मोह के पाश रे, करते सत्यानाश रे, क्रुद्ध पवन-आकाश रे!
तूफ़ां-बारिश-जल प्रलय, दोषी मानव का अनय, अकड़ नहीं, अपना विनय
अपने करम सुधार रे, लगा पौध-पतवार रे, कर धरती से प्यार रे!
*
सोरठा ग़ज़ल
आ समान जयघोष, आसमान तक गुँजाया
आस मान संतोष, आ समा न कह कराया
जिया जोड़कर कोष, खाली हाथों मर गया
व्यर्थ न करिए रोष, स्नेह न जाता भुनाया
औरों का क्या दोष, अपनों ने ही भुलाया
पालकर असंतोष, घर गैरों का बसाया
***
सुधियों के दोहे
यादों में जो बसा है, वही प्रेरणा स्रोत।
पग पग थामे हाथ वह, बनकर जीवन-ज्योत।।
जाकर भी जाते नहीं, जो हम उनके साथ।
पल पल जीवन का जिएँ, सुमिर उठाकर माथ।।
दिल में जिसने घर किया, दिल कर उसके नाम।
जागेंगे हम हर सुबह, सुमिरेंगे हर शाम।।
सुस्मृति के उद्यान में, सुरभित दिव्य गुलाब।
दिल की धड़कन है वही, वह नयनों का ख्वाब।।
बाकी जीवन कर दिया, बरबस उसके नाम।
जीवन की हर श्वास अब, उसके लिए प्रणाम।।
१४-११-२०२१
***
हवा पर दोहे
*
हवा हो गई हवा जब, मिली हवा के साथ।
दो थे मिलकर हैं, मिले हवा के हाथ।।
हवा हो गई दवा जब, हवा बही रह साफ।
हवा न दूषित कीजिए, ईश्वर करे न माफ।।
हवा न भूले कभी भी, अपना फर्ज जनाब।
हवा न बेपरदा रहे, ओढ़े नहीं नकाब।।
ऊँच-नीच से दूर रह, सबको एक समान।
मान बचाती सभी की, हवा हमेशा जान।।
भेद-भाव करती नहीं, इसे न कोई गैर।
हवा मनाती सभी की, रब से हरदम खैर।।
कुदरत का वरदान है, हवा स्वास्थ्य की खान।
हुई प्रदूषित हवा को, पल में ले ले जान।।
हवा नीर नभ भू अगन, पंचतत्व पहचान।
ईश खुदा क्राइस्ट गुरु, हवा राम-रहमान।।
*
सुंदर को सुंदर कहे, शिव है सत्य न भूल।
सुंदर कहे न जो उसे चुभता निंदा शूल।।
१४.११.२०१९
***
बाल दिवस पर
*
दाढ़ी-मूँछें बढ़ रहीं, बहुत बढ़ गए बाल।
क्यों न कटाते हो इन्हें, क्यों जाते हो टाल?
लालू लल्ला से कहें, होगा कभी बबाल।
कह आतंकी सुशासन, दे न जेल में डाल।।
लल्ला बोला समझिए, नई समय की चाल।
दाढ़ीवाले कर रहे, कुर्सी पकड़ धमाल।।
बाल बराबर भी नहीं, गली आपकी दाल।
बाल बाल बच रहा है, भगवा मचा बबाल।।
बाल न बाँका कर सकी, ३७० ढाल।
मूँड़ मुड़ा ओले पड़ें, तो होगा बदहाल।।
बाल सफेद न धूप में, होते लगते साल।
बाल झड़ें तो यूँ लगे, हुआ शीश कंगाल।।
सधवा लगती खोपड़ी, जब हों लंबे बाल।
हो विधवा श्रंगार बिन, बिना बाल टकसाल।।
चाल-चलन की बाल ही, देते रहे मिसाल।
बाल उगाने के लिए, लगता भारी माल।।
मौज उसी की जो बने, किसी नाक का बाल।
बाल मूँछ का मरोड़ें, दुश्मन हो बेहाल।।
तेल लगाने की कला, सिखलाते हैं बाल।
जॉनी वॉकर ने करी चंपी, हुआ निहाल।।
नागिन जैसी चाल हो, तो बल खाते बाल।
लट बन चूमें सुमुखि के, गोरे-गोरे गाल।।
दाढ़ी-मूँछ बढ़ाइए, तब सुधरेंगे हाल।
सब जग को भरमाइए, रखकर लंबे बाल।।
***
एक रचना
*
पुष्पाई है शुभ सुबह,
सूरज बिंदी संग
नीलाभित नभ सज रओ
भओ रतनारो रंग
*
झाँक मुँडेरे से गौरैया डोले
भोर भई बिद्या क्यों द्वार न खोले?
घिस ले दाँत गनेस, सुरसति मुँह धो
परबतिया कर स्नान, न नाहक उठ रो
बिसनू काय करे नाहक
लछमी खों तंग
*
हाँक रओ बैला खों भोला लै लठिया
संतोसी खों रुला रओ बैरी गठिया
किसना-रधिया छिप-छिप मिल रए नीम तले
बीना ऐंपन लिए बना रई हँस सतिया
मनमानी कर रए को रोके
सबई दबंग
***
नवगीत
*
सम अर्थक हैं,
नहीं कहो क्या
जीना-मरना?
*
सीता वन में;
राम अवध में
मर-मर जीते।
मिलन बना चिर विरह
किसी पर कभी न बीते।
मूरत बने एक की,
दूजी दूर अभी भी।
तब भी, अब भी
सिर्फ सियासत, सिर्फ सुभीते।
सम अर्थक हैं
नहीं कहो क्या
मरना-तरना?
*
जमुन-रेणु जल,
वेणु-विरह सह,
नील हो गया।
श्याम पीत अंबर ओढ़े
कब-कहाँ खो गया?
पूछें कुरुक्षेत्र में लाशें
हाथ लगा क्या?
लुटीं गोपियाँ,
पार्थ-शीश नत,
हृदय रो गया।
सम अर्थक हैं
नहीं कहो क्या
संसद-धरना?
*
कौन जिया,
ना मरा?
एक भी नाम बताओ।
कौन मरा,
बिन जिए?
उसी के जस मिल गाओ।
लोक; प्रजा; जन; गण का
खून तंत्र हँस चूसे
गुंडालय में
कृष्ण-कोट ले
दिल दहलाओ।
सम अर्थक हैं
नहीं कहो क्या
हाँ - ना करना?
१३-११-१९
***

बाल कविता:
मेरे पिता
*
जब तक पिता रहे बन साया!
मैं निश्चिन्त सदा मुस्काया!
*
रोता देख उठा दुलराया
कंधे पर ले जगत दिखाया
उँगली थमा,कहा: 'बढ़ बेटा!
बिना चले कब पथ मिल पाया?'
*
गिरा- उठाकर मन बहलाया
'फिर दौड़ो'उत्साह बढ़ाया
बाँह झुला भय दूर भगाया
'बड़े बनो' सपना दिखलाया
*
'फिर-फिर करो प्रयास न हारो'
हरदम ऐसा पाठ पढ़ाया
बढ़ा हौसला दिया सहारा
मंत्र जीतने का सिखलाया
*
लालच करते देख डराया
आलस से पीछा छुड़वाया
'भूल न जाना मंज़िल-राहें
दृष्टि लक्ष्य पर रखो' सिखाया
*
रवि बन जाड़ा दूर भगाया
शशि बन सर से ताप हटाया
मैंने जब भी दर्पण देखा
खुद में बिम्ब पिता का पाया
***
बाल गीत :
चिड़िया
*
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
आनंदित हो
झूम रही है
हवा मंद बहती है
कहती: 'बच्चों!
पानी सींचो,
पौधे लगा-बचाओ
बन जाएँ जब वृक्ष
छाँह में
उनकी खेल रचाओ
तुम्हें सुनाऊँगी
मैं गाकर
लोरी, आल्हा, कजरी
कहना राधा से
बन कान्हा
'सखी रूठ मत सज री'
टीप रेस,
कन्ना गोटी,
पिट्टू या बूझ पहेली
हिल-मिल खेलें
तब किस्मत भी
आकर बने सहेली
नमन करो
भू को, माता को
जो यादें तहती है
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
***
कृति चर्चा :
'चुप्पियों को तोड़ते हैं' नव आशाएँ जोड़ते नवगीत
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति परिचय - चुप्पियों को तोड़ते हैं, नवगीत संग्रह, योगेंद्र प्रताप मौर्य, प्रथम संस्करण २०१९, ISBN ९७८-९३-८९१७७-८७-९, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, २०.५ से. मी .x १४से. मी., पृष्ठ १२४, मूल्य १५०/-, प्रकाशक - बोधि प्रकाशन, सी ४६ सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया विस्तार, नाला मार्ग, २२ गोदाम, जयपुर ३०२००६, ईमेल bodhiprakashan@gmail.com, चलभाष ९८२९०१८०८७, दूरभाष ०१४१२२१३७, रचनाकार संपर्क - ग्राम बरसठी, जौनपुर २२२१६२ उत्तर प्रदेश, ईमेल yogendramaurya198384@gmail.com, चलभाष ९४५४९३१६६७, ८४००३३२२९४]
*
सृष्टि के निर्माण का मूल 'ध्वनि' है। वैदिक वांगमय में 'ओंकार' को मूल कहा गया है तो विज्ञान बिंग बैंग थ्योरी' की दुहाई देता है। मानव सभ्यता के विकास के बढ़ते चरण 'ध्वनि' को सुनना-समझना, पहचानना, स्मरण रखना, उसमें अन्तर्निहित भाव को समझना, ध्वनि की पुनरावृत्ति कर पाना, ध्वनि को अंकित कर सकना और अंकित को पुनः ध्वनि के रूप में पढ़-समझ सकना है। ध्वनि से आरम्भ कर ध्वनि पर समाप्त होने वाला यह चक्र सकल कलाओं और विद्याओं का मूल है। प्रकृति-पुत्र मानव को ध्वनि का यह अमूल्य उपहार जन्म और प्रकृति से मिला। जन्मते ही राव (कलकल) करने वाली सनातन सलिला को जल प्रवाह के शांतिदाई कलकल 'रव' के कारण 'रेवा' नाम मिला तो जन्मते ही उच्च रुदन 'रव' के कारण शांति हर्ता कैकसी तनय को 'रावण' नाम मिला। परम शांति और परम अशांति दोनों का मूल 'रव' अर्थात ध्वनि ही है। यह ध्वनि जीवनदायी पंचतत्वों में व्याप्त है। सलिल, अनिल, भू, नभ, अनल में व्याप्त कलकल, सनसन, कलरव, गर्जन, चरचराहट आदि ध्वनियों का प्रभाव देखकर आदि मानव ने इनका महत्व जाना। प्राकृतिक घटनाओं जल प्रवाह, जल-वृष्टि, आँधी-तूफ़ान, तड़ितपात, सिंह-गर्जन, सर्प की फुँफकार, पंछियों का कलरव-चहचहाहट, हास, रुदन, चीत्कार, आदि में अंतर्निहित अनुभूतियों की प्रतीति कर, उन्हें स्मरण रखकर-दुहराकर अपने साथियों को सजग-सचेत करना, ध्वनियों को आरम्भ में संकेतों फिर अक्षरों और शब्दों के माध्यम से लिखना-पढ़ना अन्य जीवों की तुलना में मानव के द्रुत और श्रेष्ठ विकास का कारण बना।
नाद की देवी सरस्वती और लिपि, लेखनी, स्याही और अक्षर दाता चित्रगुप्त की अवधारणा व सर्वकालिक पूजन ध्वनि के प्रति मानवीय कृतग्यता ज्ञापन ही है। ध्वनि में 'रस' है। रस के बिना जीवन रसहीन या नीरस होकर अवांछनीय होगा। इसलिए 'रसो वै स:' कहा गया। वह (सृष्टिकर्ता रस ही है), रसवान भगवान और रसवती भगवती। यह रसवती जब 'रस' का उपहार मानव के लिए लाई तो रास सहित आने के कारण 'सरस्वती' हो गई। यह 'रस' निराकार है। आकार ही चित्र का जनक होता है। आकार नहीं है अर्थात चित्र नहीं है, अर्थात चित्र गुप्त है। गुप्त चित्र को प्रगट करने अर्थात निराकार को साकार करनेवाला अक्षर (जिसका क्षर न हो) ही हो सकता है। अक्षर अपनी सार्थकता के साथ संयुक्त होकर 'शब्द' हो जाता है। 'अक्षर' का 'क्षर' त्रयी (पटल, स्याही, कलम) से मिलन द्वैत को मिटाकर अद्वैत की सृष्टि करता है। ध्वनि प्राण संचार कर रचना को जीवंत कर देती है। तब शब्द सन्नाटे को भंग कर मुखर हो जाते हैं, 'चुप्पियों को तोड़ते हैं'। चुप्पियों को तोड़ने से संवाद होता है। संवाद में कथ्य हो, रस हो, लय हो तो गीत बनता है। गीत में विस्तार और व्यक्तिपरक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होता है। जब यह अनुभूति सार्वजनीन संश्लिष्ट हो तो नवगीत बनता है।
शब्द का अर्थ, रस, लय से संयोग सर्व हित साध सके तो साहित्य हो जाता है। सबका हित समाहित करता साहित्य जन-जन के कंठ में विराजता है। शब्द-साधना तप और योग दोनों है। इंद्र की तरह ध्येय प्राप्ति हेतु 'योग' कर्ता 'योगेंद्र' का 'प्रताप', पीड़ित-दलित मानव रूपी 'मुरा' से व्युत्पन्न 'मौर्य' के साथ संयुक्त होकर जन-वाणी से जन-हित साधने के लिए शस्त्र के स्थान पर शास्त्र का वरण करता है तो आदि कवि की परंपरा की अगली कड़ी बनते हुए काव्य रचता है। यह काव्य नवता और गेयता का वरण कर नवगीत के रूप में सामने हो तो उसे आत्मसात करने का मोह संवरण कैसे किया जा सकता है?
कवि शब्द-सिपाही होता है। भाषा कवि का अस्त्र और शस्त्र दोनों होती है। भाषा के साथ छल कवि को सहन नहीं होता। वह मुखर होकर अपनी पीड़ा को वाणी देता है -
लगा भाल पर
बिंदी हिंदी-
ने धूम मचाई
बाहर-बाहर
खिली हुयी
पर भीतर से मुरझाई
लील गए हैं
अनुशासन को
फैशन के दीवाने
इंग्लिश देखो
मार रही है
भोजपुरी को ताने
गाँवों से नगरों की और पलायन, स्वभाषा बोलने में लज्जा और गलत ही सही विदेशी भाषा बोलने में छद्म गौरव की प्रतीति कवि को व्यथित करती है। 'अलगू की औरत' सम्बोधन में गीतकार उस सामाजिक प्रथा को इंगित करता है, जिसमें विवाहित महिला की पहचान उसके नाम से नहीं, उसके पति के नाम से की जाती है। गागर में सागर भरने की तरह कही गयी अभिव्यक्ति में व्यंजना कवि के भावों को पैना बनाती है-
अलगू की
औरत को देखो
बैठी आस बुने है
भले गाँव में
पली-बढ़ी है
रहना शहर चुने है
घर की
खस्ताहाली पर भी
आती नहीं दया है
सीख चुकी वह
यहाँ बोलना
फर्राटे से 'हिंग्लिश'
दाँतों तले
दबाए उँगली
उसे देखकर 'इंग्लिश'
हर पल फैशन
में रहने का
छाया हुआ नशा है
लोकतंत्र 'लोक' और 'तंत्र' के मध्य विश्वास का तंत्र है। जब जन प्रतिनिधियों का कदाचरण इस विश्वास को नष्ट कर देता है तब जनता जनार्दन की पीड़ा असहनीय हो जाती है। राजनेताओं के मिथ्या आश्वासन, जनहित की अनदेखी कर मस्ती में लीन प्रशासन और खंडित होती -आस्था से उपजी विसंगति को कवि गीत के माध्यम से स्वर देता है -
संसद स्वयं
सड़क तक आई
ले झूठा आश्वासन
छली गई फिर
भूख यहाँ पर
मौज उड़ाये शासन
लंबे-चौड़े
कोरे वादे
जानें पुनः मुकरना
अपसंस्कृति के संक्रांति काल में समय से पहले सयानी होती सहनशीलता में अन्तर्निहित लाक्षणिकता पाठक को अपने घर-परिवेश की प्रतीत होती है। हर दिन आता अख़बार नकारात्मक समाचारों से भरा होता है जबकि सकारात्मक घटनाएँ खोजने से भी नहीं मिलतीं। बच्चे समय से पहले बड़े हो रहे हैं। कटु यथार्थ से घबराकर मदहोशी की डगर पकड़ने प्रवृत्ति पर कवि शब्दाघात करता है-
सुबह-सुबह
अखबार बाँचता
पीड़ा भरी कहानी
सहनशीलता
आज समय से
पहले हुई सयानी
एक सफर की
आस लगाये
दिन का घाम हुआ
अय्याशी
पहचान न पाती
अपने और पराये
बीयर ह्विस्की
'चियर्स' में
किससे कौन लजाये?
धर्म के नाम पर होता पाखंड कवि को सालता है। रावण से अधिक अनीति करनेवाले रावण को जलाते हुए भी अपने कुकर्मों पर नहीं लजाते। धर्म के नाम पर फागुन में हुए रावण वध को कार्तिक में विजय दशमी से जोड़नेवाले भले ही इतिहास को झुठलाते हैं किन्तु कवि को विश्वास है कि अंतत: सच्चाई ही जीतेगी -
फिर आयी है
विजयादशमी
मन में ले उल्लास
एक ओर
कागज का रावण
एक ओर इतिहास
एक बार फिर
सच्चाई की
होगी झूठी जीत
शासक दल के मुखिया द्वारा बार-बार चेतावनी देना, अनुयायी भक्तों द्वारा चेतावनी की अनदेखी कर अपनी कारगुजारियाँ जारी रखी जाना, दल प्रमुख द्वारा मंत्रियों-अधिकारियों दलीय कार्यकर्ताओं के काम काम करने हेतु प्रेरित करना और सरकार का सोने रहना आदि जनतंत्री संवैधानिक व्यवस्थ के कफ़न में कील ठोंकने की तरह है -
महज कागजी
है इस युग के
हाकिम की फटकार
बे-लगाम
बोली में जाने
कितने ट्रैप छुपाये
बहरी दिल्ली
इयरफोन में
बैठी मौन उगाये
लंबी चादर
तान सो गई
जनता की सरकार
कृषि प्रधान देश को उद्योग प्रधान बनाने की मृग-मरीचिका में दम तोड़ते किसान की व्यथा ग्रामवासी कवि को विचलित करती है-
लगी पटखनी
फिर सूखे से
धान हुये फिर पाई
एक बार फिर से
बिटिया की
टाली गयी सगाई
गला घोंटती
यहाँ निराशा
टूट रहे अरमान
इन नवगीतों में योगेंद्र ने अमिधा, व्यंजना और लक्षणा तीनों का यथावश्यक उपयोग किया है। इन नवगीतों की भाषा सहज, सरल, सरस, सार्थक और सटीक है। कवि जानता है कि शब्द अर्थवाही होते हैं। अनुभूति को अभिव्यक्त करते शब्दों की अर्थवत्ता मुख्या घटक है, शब्द का देशज, तद्भव, तत्सम या अन्य भाषा से व्युत्पन्न हो पाठकीय दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है, समीक्षक भले ही नाक-भौं सिकोड़ते रहे-
उतरा पानी
हैंडपम्प का
हत्था बोले चर-चर
बिन पानी के
व्याकुल धरती
प्यासी तड़प रही है
मिट्टी में से
दूब झाँकती
फिर भी पनप रही है
'दूब झाँकती', मुखर यहाँ अपराध / ओढ़कर / गाँधी जी की खादी, नहीं भरा है घाव / जुल्म का / मरहम कौन लगाये, मेहनत कर / हम पेट भरेंगे / दो मत हमें सहारे, जैसे प्रयोग कम शब्दों में अधिक कहने की सामर्थ्य रखते हैं। यह कवि कौशल योगेंद्र के उज्जवल भविष्य के प्रति आशा जगाता है।
रूपक, उपमा आदि अलंकारों तथा बिम्बों-प्रतीकों के माध्यम से यत्र-तत्र प्रस्तुत शब्द-चित्र नवोदित की सामर्थ्य का परिचय देते हैं-
जल के ऊपर
जमी बर्फ का
जलचर स्वेटर पहने
सेंक रहा है
दिवस बैठकर
जलती हुई अँगीठी
और सुनाती
दादी सबको
बातें खट्टी-मीठी
आसमान
बर्फ़ीली चादर
पंछी लगे ठिठुरने
दुबका भोर
रजाई अंदर
बाहर झाँके पल-पल
विसंगियों के साथ आशावादी उत्साह का स्वर नवगीतों को भीड़ से अलग, अपनी पहचान प्रदान करता है। उत्सवधर्मिता भारतीय जन जीवन के लिए के लिए संजीवनी का काम करती है। अपनत्व और जीवट के सहारे भारतीय जनजीवन यम के दरवाजे से भी सकुशल लौट आता है। होली का अभिवादन शीर्षक नवगीत नेह नर्मदा प्रवाह का साक्षी है-
ले आया ऋतुओं
का राजा
सबके लिए गुलाल
थोड़ा ढीला
हो आया है
भाभी का अनुशासन
पिचकारी
से करतीं देखो
होली का अभिवादन
किसी तरह का
मन में कोई
रखतीं नहीं मलाल
ढोलक,झाँझ,
मजीरों को हम
दें फिर से नवजीवन
इनके होंठों पर
खुशियों का
उत्सव हो आजीवन
भूख नहीं
मजबूर यहाँ हो
करने को हड़ताल
योगेंद्र नागर और ग्राम्य दोनों परिवेशों और समाजों से जुड़े होने के नाते दोनों स्थानों पर घटित विसंगतियों और जीवन-संघर्षों से सुपरिचित हैं। उनके लिए किसान और श्रमिक, खेत और बाजार, जमींदार और उद्योगपति, पटवारी और बाबू सिक्के के दो पहलुओं की तरह सुपरिचित प्रतीत होते हैं। उनकी अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों परिवेशों से समान रूप से सम्बद्ध हो पाती है। इन नवगीतों में अधिकाँश का एकांगी होना उनकी खूबी और खामी दोनों है। जनाक्रोश उत्पन्न करने के इच्छुक जनों को विसंगतियों, विडंबनाओं, विद्रूपताओं, टकरावों और असंतोष का अतिरेकी चित्रण अभीष्ट प्रतीत होगा किंतु उन्नति, शांति, समन्वय, सहिष्णुता और ऐक्य की कामना कर रहे पाठकों को इन गीतों में राष्ट्र गौरव, जनास्था और मेल-जोल, उल्लास-हुलास का अभाव खलेगा।
'चुप्पियों को तोड़ते हैं' से योगेंद्र प्रताप मौर्य ने नवगीत के आँगन में प्रवेश किया है। वे पगडंडी को चहल-पहल करते देख किसानी अर्थात श्रम या उद्योग करने हेतु उत्सुक हैं। देश का युवा मन, कोशिश के दरवाजे पर दस्तक देता है -
सुबह-सुबह
उठकर पगडंडी
करती चहल-पहल है
टन-टन करे
गले की घंटी
करता बैल किसानी
उद्यम निरर्थक-निष्फल नहीं होता, परिणाम लाता है-
श्रम की सच्ची
ताकत ही तो
फसल यहाँ उपजाती
खुरपी,हँसिया
और कुदाली
मजदूरों के साथी
तीसी,मटर
चना,सरसों की
फिर से पकी फसल है
चूल्हा-चौका
बाद,रसोई
खलिहानों को जाती
देख अनाजों
के चेहरों को
फूली नहीं समाती
टूटी-फूटी
भले झोपड़ी
लेकिन हृदय महल है
नवगीत की यह भाव मुद्रा इस संकलन की उपलब्धि है। नवगीत के आँगन में उगती कोंपलें इसे 'स्यापा ग़ीत, शोकगीत या रुदाली नहीं, आशा गीत, भविष्य गीत, उत्साह गीत बनाने की दिशा में पग बढ़ा रही है। योगेंद्र प्रताप मौर्य की पीढ़ी यदि नवगीत को इस मुकाम पर ले जाने की कोशिश करती है तो यह स्वागतेय है। किसी नवगीत संकलन का इससे बेहतर समापन हो ही नहीं सकता। यह संकलन पाठक बाँधे ही नहीं रखता अपितु उसे अन्य नवगीत संकलन पढ़ने प्रेरित भी करता है। योगेंद्र 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। आशा की जानी चाहिए कि युवा योगेंद्र के आगामी नवगीत संकलनों में भारतीय जन मानस की उत्सवधर्मिता और त्याग-बलिदान की भावनाएँ भी अन्तर्निहित होकर उन्हें जन-मन से अधिक सकेंगी।
***
दोहा सलिला
आभा से आभा गहे, आ भा कहकर सूर्य।
आभित होकर चमकता, बजा रहा है तूर्य।।
हवा हो गई हवा जब, मिली हवा के साथ।
दो थे मिलकर हो गए, एक हवा के हाथ।।
हवा हो गई दवा जब, हवा बही रह साफ।
हवा न दूषित कीजिए, ईश्वर करे न माफ।।
हवा न भूले कभी भी, अपना फर्ज जनाब।
हवा न बेपरदा रहे, ओढ़े नहीं नकाब।।
ऊँच-नीच से दूर रह, सबको एक समान।
मान बचाती सभी की, हवा हमेशा जान।।
भेद-भाव करती नहीं, इसे न कोई गैर।
हवा मनाती सभी की, रब से हरदम खैर।।
कुदरत का वरदान है, हवा स्वास्थ्य की खान।
हुई प्रदूषित हवा को, पल में ले ले जान।।
हवा नीर नभ भू अगन, पंचतत्व पहचान।
ईश खुदा क्राइस्ट गुरु, हवा राम-रहमान।।
१४-११-२०१८
***
मुक्तिका
लहर में भँवर या भँवर में लहर है?
अगर खुद न सम्हले, कहर ही कहर है.
उसे पूजना है, जिसे चाहना है
भले कंठ में हँस लिए वह ज़हर है
गजल क्या न पूछो कभी तुम किसी से
इतना ही देखो मुकम्मल बहर है
नहाना नदी में जाने न बच्चे
पिंजरे का कैदी हुआ सब शहर है
तुम आईं तो ऐसा मुझको लगा है
गई रात आया सुहाना सहर है
***
दोहा सलिला
सागर-सिकता सा रहें, मैं-तुम पल-पल साथ.
प्रिय सागर प्यासी प्रिया लिए हाथ में हाथ.
.
रहा गाँव में शेष है, अब भी नाता-नेह.
नगर न नेह-विहीन पर, व्याकुल है मन-देह.
.
जब तक मन में चाह थी, तब तक मिली न राह.
राह मिली अब तो नहीं, शेष रही है चाह.
.
राम नाम की चाह कर, आप मिलेगी राह.
राम नाम की राह चल, कभी न मिटती चाह.
.
दुनिया कहती युक्ति कर, तभी मिलेगी राह.
दिल कहता प्रभु-भक्ति कर, मिले मुक्ति बिन चाह.
.
भटक रहे बिन राह ही, जग में सारे जीव.
राम-नाम की राह पर, चले जीव संजीव..
१४-११-२०१७
***
बाल गीत
बिटिया छोटी
*
फ़िक्र बड़ी पर बिटिया छोटी
क्यों न खेलती कन्ना-गोटी?
*
ऐनक के चश्में से आँखें
झाँकें लगतीं मोटी-मोटी
*
इतनी ज्यादा गुस्सा क्यों है?
किसने की है हरकत खोटी
*
दो-दो फूल सजे हैं प्यारे
सर पर सोहे सुंदर चोटी
*
हलुआ-पूड़ी इसे खा मुस्काए
तनिक न भाती सब्जी-रोटी
*
खेल-कूद में मन लगता है
नहीं पढ़ेगी पोथी मोटी
१४-११-२०१६
***
छंद सलिला:
अचल धृति छंद
*
छंद विधान: सूत्र: ५ न १ ल, ५ नगण १ लघु = ५ (१ + १ +१ )+१ = हर पद में १६ लघु मात्रा, १६ वर्ण
उदाहरण:
१. कदम / कदम / पर ठ/हर ठ/हर क/र
ठिठक / ठिठक / कर सि/हर सि/हर क/र
हुलस / हुलस / कर म/चल म/चल क/र
मनसि/ज सम / खिल स/लिल ल/हर क/र
२. सतत / अनव/रत प/थ पर / पग ध/र
अचल / फिसल / गर सँ/भल ठि/ठकक/र
रुक म/त झुक / मत चु/क मत / थक म/त
'सलिल' / विहँस/कर प्र/वह ह/हरक/र
---
छंद सलिला:
अचल छंद
*
अपने नाम के अनुरूप इस छंद में निर्धारित से विचलन की सम्भावना नहीं है. यह मात्रिक सह वर्णिक छंद है. इस चतुष्पदिक छंद का हर पद २७ मात्राओं तथा १८ वर्णों का होता है. हर पद (पंक्ति) में ५-६-७ वर्णों पर यति इस प्रकार है कि यह यति क्रमशः ८-८-११ मात्राओं पर भी होती है. मात्रिक तथा वार्णिक विचलन न होने के कारण इसे अचल छंद कहा गया होगा। छंद प्रभाकर तथा छंद क्षीरधि में दिए गए उदाहरणों में मात्रा बाँट १२१२२/१२१११२/२११२२२१ रखी गयी है. तदनुसार
सुपात्र खोजे, तभी समय दे, मौन पताका हाथ.
कुपात्र पाये, कभी न पद- दे, शोक सभी को नाथ..
कभी नवायें, न शीश अपना, छूट रहा हो साथ.
करें विदा क्यों, सदा सजल हो, नैन- न छोड़ें हाथ..
*
वर्ण तथा मात्रा बंधन यथावत रखते हुए मात्रा बाँट में परिवर्तन करने से इस छंद में प्रयोग की विपुल सम्भावनाएँ हैं.
मौन पियेगा, ऊग सूर्य जब, आ अँधियारा नित्य.
तभी पुजेगा, शिवशंकर सा, युगों युगों आदित्य..
इस तरह के परिवर्तन किये जाएं या नहीं? विद्वज्जनों के अभिमत आमंत्रित हैं
१४.११.२०१३
***

गुरुवार, 13 नवंबर 2025

मीना भट्ट, जीवन-धारा, पुरोवाक्

पुरोवाक् 
लोकोपयोगी गीतों की मंजूषा ''जीवन धारा''   
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
                    सनातन सलिला नर्मदा की घाटी आदि काल से साधना भूमि के रूप में प्रसिद्ध है। साधना की यह विरासत अतीत से वर्तमान तक गतिमान है। सर्व हित की साधना केवल आध्यात्मिक व्यक्तित्व ही नहीं करते, सांसारिक व्यक्ति भी सर्व कल्याण की साधना करता है। साहित्य की साधना इसी प्रकार की साधना है। साहित्य वह जिसमें सबका हित समाहित हो। नर्मदा तटीय संस्कारधानी जबलपुर की पुण्य भूमि पर साहित्य सृजन की दिव्य परंपरा चिरकालिक है। संस्कारधानी के समसामयिक साहित्य-साधकों में 'मीना भट्ट' एक ऐसा नाम है जो सत्य-शिव-सुंदर और सत-शिव-सुंदर को साहित्य सृजन का लक्ष्य मानकर, निरंतर सृजन में रत है। सामान्यत: नया साहित्यकार अपने लिखे को ही श्रेष्ठ समझता और आत्म मुग्ध रहता है। अंतर्जाल के विविध समूहों पर अधकचरा साहित्य निरंतर परोसा जा रहा है। मीना जी इस कुप्रवृत्ति का विरोध बोलकर नहीं, निरंतर लिखकर करती हैं। वे लिखने के साथ-साथ निरंतर पढ़ती और समझती हैं। गीत-गजल आदि विधाओं में मीना का रचनाकार कलम उठाने के पहले उसका अध्ययन करता है, निरंतर अभ्यास कर सृजन करता है, जानकारों से विमर्श करता है और अपने लेखन को तराशने के बाद प्रकाशित करता है। संभवत:, इस मनोवृत्ति का कारण मीना जी का विधि और न्याय विभाग से जुड़ा रहना है। मीना जी का एक और वैशिष्ट्य आत्म प्रचार से विमुख रहना और अपने पूर्व पद का अहं न रखना भी है। यह निरासक्त भाव लेखन के विषय और शिल्प के प्रति तटस्थ रहकर उससे संबंधित मौलिक चिंतन करने और उसे रचनाओं में अभिव्यक्त करने में सहायक होता है। ''जीवन धारा'' मीना जी की नवीन काव्य कृति है, जिसमें मीना जी की सुदीर्घ काव्य-सृजन साधना का संस्कार पंक्ति-पंक्ति में प्रतिबिंबित है।

                    जीवन धारा का श्रीगणेश वाग्देवी वंदना से करने की सनातन परंपरा को जीवंत रखते हुए मीना जी उन्हें 'महाबला', 'शत्रुनाशिनी', 'सुलोचना', 'सुमंगला', 'मुक्तिवाहिनी', 'प्रेमदायिनी', 'सुहासिनी', 'श्रीप्रदा', 'प्रशासनी' आदि अपारंपरिक विशेषणों से अभिषिक्त कर, मौलिक चिंतन दृष्टि का परिचय देती हैं। श्रीराम पर केंद्रित रचना में 'गंगा धारे' लिखा जाना मौलिक तो है किंतु लोक में 'गंगा धारे' शिव जी हेतु प्रयुक्त होता है। इसे 'गंग किनारे' लिखना अधिक समीचीन होता। वंदना क्रम में श्री कृष्ण, भारत देश के पश्चात लोक का स्मरण 'प्रेम' भाव को अपनाने के आह्वान से किया जाना द्वेषाधिक्य से ग्रसित इस समय में सर्वथा श्लाघ्य है। जीवन धारा के गीतों में जन सामान्य को जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने, पारस्परिक सद्भाव वृद्धि, सत्कर्म करने की प्रेरणा, राष्ट्र भक्ति, नैतिक मूल्यों की स्थापना तथा पर्यावरण और प्रकृति के प्रति दायित्व बोध के साथ नर-नारी के मध्य स्वस्थ्य पारस्परिक सहयोग भाव की आवश्यकता प्रतिपादित कर मीना जी ने अपने गीतों को केवल वाग्विलास होने से बचाकर, लोकोपयोगी और अनुकरणीय बनाने में सफलता अर्जित की है। गत ७ दशकों में प्रगतिवाद और यथार्थ की दुहाई देकर हिंदी साहित्य में जिस नकारात्मक और द्वेषवर्धक प्रवृत्ति की बढ़ आई है, उसका रचनात्मक प्रतिरोध करते हुए मीना जी ने अपने हर गीत में सकारात्मक और निर्माणात्मक सुरुचि का बीजारोपण किया है। 

                    मानव जीवन में ऋतु परिवर्तन की महती भूमिका है। मीना जी ने मौसमों के अतिरेकी विनाशक परिदृश्य पर मोहक स्वरूप को वरीयता ठीक ही दी है। सावन वर्णन में घोंसले भीगने पर भी पंछी का दाना चुनने आना उसकी जिजीविषा दर्शाता है किंतु चुगने को दाना न मिलना मनुष्यों के कदाचरण का संकेत करता है- 

छोड़ घोंसले भीगे-भीगे, 
पंछी आए आँगन में।
नहीं मिला दान चुगने को,
अब के देखो सावन में।। 

                    हमने बचपन में देखा है कि गरीब से गरीब घर में भी गाय और कुत्ते के लिए रोटी निकली जाती थी, अब संपन्नतम घरों से भी किसी को कुछ नहीं मिलता। मीना जी की खूबी यही है कि वे स्थूल वर्णन न कर परोक्ष संकेत करती हैं, समझनेवाले के लिए इशारा ही काफी होता है। 

                    वर्षा न होने संबंधी गीत में ''रिक्त नेह के घट सारे हैं, / कुटिल मलिनता भरी हुई है। / पत्थर हृदय जमाना सारा, / मानवता भी मरी हुई है।। /  चटक मन नित प्यास तरसे, / सूख हुआ तन भी पंजर है। / तरस रहे वर्षा को हम सब, / मौन मगर बैठ अंबर है।।'' लिखकर गीतकार ने अवर्षा के लिए प्रकृति को दोष न देते हुए मानव में स्नेह के अभाव और मलिनता के आधिक्य को इंगित कर 'वर्षा' को केवल मौसमी बरसात नहीं मानव जीवन में स्नेह की वर्षा के अभाव के रूप में शब्दित किया है, यह श्लेष प्रयोग गीत को चिंतन और चिंता दोनों धरातलों पर प्रतिष्ठित करता है। 

                    लोकतंत्र का आधार हर नागरिक को अपनी  सरकार आप चुनने का संविधान सम्मत मताधिकार है। 'जागो मतदाता, जागो अब' गीत में नागरिकों को उनके गुरुतर दायित्व का बोध कराया गया है। अपने गीतों में मीना जी सरल, सहज, प्रवाहमयी भाषा का उपयोग करते हुए अन्य भाषाओं के शब्दों से परहेज नहीं करतीं। इस गीत में अंग्रेजी भाषा के पोलिंग बूथ, वोटिंग कार्ड शब्दों का प्रयोग उनकी भाषिक उदार दृष्टि का परिचायक है। तद्भव / देशज शब्दों (मनवा, करतार, हिय, टोटा, अँखियाँ, जिया, नैना, डगर, छोरी, भौंरा, करधनिया, इत-उत आदि), उर्दू में व्यवहृत अरबी-फारसी शब्दों (मस्त, तूफान, खुशियाँ, रोशनी आदि), शब्द युग्मों (निशि-वासर, निशि-दिन, दिन-रात, राग-द्वेष, पाप-पुण्य, दीन-दुखी, शीलवंत-गुणवंत, मंदिर-मस्जिद, चंदल-रोली,धूल-धूसरित, राग-रागिनी आदि), तत्सम शब्दों (नवल, हलाहल, मयंक, अनुपम, अंबुज आदि) के साथ अन्य भाषा के शब्दों के देशज रूपों (अंग्रेजी सैंडल - संदल, संस्कृत हट्ट - हाट आदि), शब्द-आवृत्ति (गली-गली, खंड-खंड, निरख-निरख, अंग-अंग आदि)  के साथ बटोही (भोजपुरी), सैंदुर (बुंदेली) आदि शब्दों का सम्यक-सार्थक प्रयोग मीना जी के शब्द-सामर्थ्य का परिचायक है। 

                    इस गीतों में शृंगार (आध्यात्मिक-सांसारिक, मिलन-विरह) , शांत, करुण, भक्ति तथा वीर रस अपनी सरसता के साथ यथास्थान सहभागी होकर संकलन को समृद्ध कर रहे हैं। संकलन का आलंकारिक वैभव रुचिवान पाठक को अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, रुपक, अतिशयोक्ति, पुनरावृत्ति आदि अलंकारों की छटा दिखाकर मुग्ध करता है। 

                    मीना जी व्यवसाय से न्यायाधीश रही हैं। स्वाभाविक है कि उन्हें कर्तव्य पालन और अनुशासन प्रिय हों। इस संकलन के माध्यम से केवम मनोरंजन न कार, उन्होंने पाठक के माध्यम से समग्र समाज को जाग्रत कार उसमें कर्तव्य बोध और अनुशासन पालन का पथ शक्कर में लपेटी कुनैन की गोली खिलाने की तरह किया है- 

देता गौरव है अनुशासन, 
देखो अलख जगाएगा। 
अनुशासन के पालन से ही 
युग परिवर्तन आएगा।  

                    इन गीतों की भाषा प्रांजल, प्रवाहमयी, सरस और सुबोध है। मुझे आशा हे नहीं भरोसा भी है कि ये गीत हर आयु वर्ग, क्षेत्र, पंथ और वादाग्रहियों द्वारा सराहे और समझें जाएँगे। लंबे समय बाद साहित्यिक गुणवत्ता युक्त लोकोपयोगी गीत संग्रह की पांडुलिपि का वाचन कर रसानंद में मगन होने का अवसर मिला है। मीना जी साधुवाद की पात्र हैं।  
          
***
संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४                     

विचार हेतु 
लक्ष्मी दुर्गावती में काल-क्रम दोष (दुर्गावती पहले हुईं, लक्ष्मीबाई बाद में) 
पाना तुमको लक्ष्य अगर तो / निशि-वासर चलते रहिए  - तुम के साथ रहो, आप से साथ रहिए?

नवंबर १३, चमेली, सरस्वती, हाइकु गीत, सगुण छंद, सुमेरु छंद, नरहरी छंद, राम, गहोई,

 सलिल सृजन नवंबर १३

*
चमेली चर्चा
°
जगी चमेली विहँसकर, जाग जुही से बोल।
सूरज का स्वागत करे, नित दरवज्जा खोल।।
°
चहक चपल चिड़िया करे, चूँ चूँ कर प्रभु गान।
बैठ चमेली डाल पर, मन ही मन अनुमान।।
मन ही मन अनुमान, गिलहरी करे कलेवा।
देख सके आकाश, बाज को आते देवा।।
कोटर में छिप गई, गिलहरी तुरत ही फुदक।
मिली जुही से पुलक, चमेली हुलसकर चहक।।
१३.११.२०२४
°
सरस्वती वंदना
(हाइकु गीत)
सरस्वती जी!
नमन शत शत
दया करिए।
विनत हम
सिर पर हमारे
हाथ धरिए।।
*
हंसवाहिनी!
अमल विमल दो
मति हमें माँ।
ध्याएँ तुमको
भजन गाकर
नित्य प्रति माँ।।
भाव-रस के
सृजन पथ पर
साथ चलिए।
सरस्वती जी!
नमन शत शत
दया करिए।।
शब्द-अक्षर
सरस सहचर
बन सहारे।
पकड़कर
कर कलम छवि
प्यारी उतारे।।
आँख मन की
खुल निरख जग
कथा कहिए।
सरस्वती जी!
नमन शत शत
दया करिए।।
*
बात अपनी
बिन हिचक हम
मिल लिखेंगे।
समय सच
दर्पण सदृश बिन
भय कहेंगे।।
पीर जग की
सकल हर भव
पार करिए।
सरस्वती जी!
नमन शत शत
दया करिए।
१३-११-२०२२
●●●
मुक्तक
खड़े सीमा पर सजग, सोते न प्रहरी ।
अड़े सरहद पर अभय, रोते न प्रहरी।।
शत्रु भय से काँपते, आएँ न सम्मुख -
मिले अवसर तो कभी, खोते न प्रहरी।।
छंदशाला ५०
सगुण छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष व तमाल छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, पदादि ल, पदांत ज।
लक्षण छंद
सगुण-निर्गुण दोनों है ईश एक।
यह सच सब जानते जिनमें विवेक।।
लघु-जगण हों आदि-अंत साथ-साथ।
करें देशसेवा सभी उठा माथ।।
उदाहरण
गुनगुना रहे भ्रमर, लखकर बसंत।
हिल-मिलकर घूमते, कामिनी-कंत।।
महक मोगरा कहे, मैं भी जवान।
मन मोहे चमेली, सुनाकर गान।।
१२-११-२०२२
•••
छंदशाला ५१
सुमेरु छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष, तमाल व सगुण छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, यति १२-७ या १०-९।
लक्षण छंद
रखे यति बारह-सात, सुमेरु छंद।
दस-नौ भी हो यति, पाएं आनंद।।
लघु आदि; यगण से, पदांत भी करें-
काठज्या भाव लय रस, बिंब संग रखें।
उदाहरण
सत्य का अनुगमन, करना है सदा।
धर्म का अनुसरण, करना है बदा।।
जूझना खुद से हमें, प्रभु को भजें-
संतुलन ही साध्य है, सुख मत तजें।।
१३-११-२०२२
•••
छंदशाला ५२
नरहरी छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष, तमाल, सगुण व सुमेरु छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, यति १४-५, पदांत न ग ।
लक्षण छंद
बचाने प्रह्लाद प्रगटे, नरहरी।
यति रखे यम-तत्व झपटे, नरहरी।।
नगण गुरु पद अंत रखकर, कवि रचें।
लोक में रचना सरस पुनि, पुनि बचें।।
टीप - याम १४, तत्व ५।
उदाहरण
छल न अपने आपसे किंचित करें।
फल न अपना आपका जो, मत धरें।।
बीज बोया आपने जो वह फले।
देखकर अरि आपसे नाहक जले।।
१३-११-२०२२
•••
***
दोहा सलिला
राम कथा
वह नर हुआ सुरेश, राम कृपा जिस पर हुई।
उससे खुद देवेश, करे स्पृहा निरंतर।।
कहें आंगिरस सत्य, राम कृष्ण दोउ एक हैं।
वे परमेश अनित्य, वेणु छोड़ धनु कर गहें।।
संगीता हर श्वास, जिसके मन संतोष है।
पूरी हो हर आस, सदानंद उसको मिले।।
जब कृपालु हों राम, जय जयंत को तब मिले।
प्रभु बिन विधना वाम, सिय अनंत गुण-धाम हैं।।
कृष्ण कथा रवि-रश्मि, राम कथा आदित्य है।
प्रभु महिमा का काव्य, सच सच्चा साहित्य है।।
भरद्वाज आश्रम चलें, राम कथा सुन धन्य।
मूल्य आचरण में ढलें, जीवन बने प्रणम्य।।
करिए मंगल कार्य, बाधाएँ हों उपस्थित।
करें विहँस स्वीकार्य, तजें न शुभ संकल्प हम।।
परखें आस्था दैव, किसकी कैसी भक्ति है?
विचलित हुआ न कौन?, जिसकी दृढ़ अनुरक्ति है।।
हों सात्विक तब लोग, संत रूप राजा रहे।
तब सत्ता है रोग, अगर नहीं सद आचरण।।
हो शासक सामान्य, हो विशिष्ट किंचित नहीं।
जनमत का प्राधान्य, राम राज्य तब हो यहीं।।
नहीं किसी से बैर, सदा सभी से निकटता।
तभी रहेगी खैर, जब शासक निष्पक्ष हो।।
समरसता ही साध्य, कहें राम दें बैर तज।
स्वामी-सेवक सम रहें, तभी सकेंगे ईश भज।।
राम सखा वर दीन, दीनों के प्रिय हो गए।
बंधु मानकर दौड़ , भेंटें भुज भरकर भरत।।
हैं परमेश्वर एक, किन्तु विभूति अनंत हैं।
हम मानव हों नेक, भिन्न भले ही पंथ हैं।।
कोई ऊँच; न नीच, कण-कण में सिय-राम।
देश-बाग दें सींच, फूले-फले सुदेश तब।।
राजपुत्र होकर नहीं, जन-चयनित थे राम।
जन आकांक्षा थी तभी, राम अवध-राजा हुए।।
मानव है चैतन्य, प्रश्न करे; हल चाहता।
क्यों जग में वैभिन्न्य, प्रभु से उत्तर चाहता।।
परम शक्ति भगवान्, सब कुछ करता है वही।
रखें हमेशा ध्यान, जो करते भोगें 'सलिल'।।
मनुज सोचता रहा, जाकर आते या नहीं?
एक नहीं मत रहा, विविध पंथ तब ही बने।।
भक्ति शक्ति अनुरक्ति, गुरु अनुकंपा से मिले।
साध्य न होती मुक्ति, प्रभु सेवा ही साध्य हो।।
सोच गहे आनंद, कामी नारी मिलन बिन।
धन से रखता प्रेम, लोभी करता व्यय नहीं।।
भक्त न साधे स्वार्थ, प्रेम अकारण ही करे।
लक्ष्य मात्र परमार्थ, कष्ट अगिन हँसकर सही।।
चित्रकार हर चित्र, निजानंद हित बनाता।
कब देखेगा कौन?, क्रय-विक्रय नहिं सोचता।।
निष्ठा ही हो साध्य, बार-बार बदलें नहीं।
अगिन न हों आराध्य, तभी भक्ति होती सफल।।
तन न; साध्य हो आत्म, माय-छाया एक है।
मूर्त तभी परमात्म, काया जब हो समर्पित।।
१३-११-२०२२
***
पुरोवाक
फ़ुरक़त के बहाने : वस्ल के तराने
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'फ़ुरक़त' (विरह) और वस्ल (मिलन) एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सृष्टि की उत्पत्ति ही प्रकृति और पुरुष के मिलन से होती है। मिलन नव संतति को जन्म देता है जिसका पालन-पोषण मिलनकी अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। अन्य प्राणियों के लिए 'वस्ल' वंश-वृद्धि का माध्यम मात्र है इसलिए 'फ़ुरक़त' का वॉयस सिर्फ मौत होती है। इंसान ने अपने दिमाग के जरिए 'वस्ल' को रोजमर्रा की ज़िंदगी में शामिल कर लिया है। साइंसदां न्यूटन के मुताबिक कुदरत में हर 'एक्शन' का समान लेकिन उलटा 'रिएक्शन' होता है। जब इंसान ने 'वस्ल' की ख़ुशी को रोजमर्रा की ज़िंदगी में जोड़ लिया तो कुदरत ने इंसान के न चाहने पर भी 'फ़ुरक़त' को ज़िंदगी का हिस्सा बना दिया। 'वस्ल' और 'फ़ुरक़त' की शायरी ही 'ग़ज़ल' है। हिंदी में श्रृंगार रस के दो रंग 'मिलन' और 'विरह' के बिना रसानंद की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह श्रृंगार जब सूफियाना रंग में ढलता है तो भक्त और भगवान के मध्य संवाद बन जाता है और जब दुनियावी शक्ल अख्तियार करता है तो माशूक और माशूका के दरमियां बातचीत का वायस बनता है।
ग़ज़ल : दिल को दिल से जोड़ती
ग़ज़ल अरबी साहित्य की प्रसिद्ध काव्य विधा है जो बाद में फ़ारसी, उर्दू, हिंदी, बांगला, मराठी, अंग्रेजी सहित विश्व की कई भाषाओँ में कहीं-पढ़ी और सुनी जाती है। अरबी में ग़ज़ल की पैदाइश भारत में आम लोगों और संतों द्वारा गयी जाती दूहों, त्रिपदियों और चौपदियों और षट्पदीयों के परंपरा में थोड़ा बदलाव कर किया गया। चौपदी की तीसरी और चौथी पंक्ति की तरह समभारिक पंक्तियों को जोड़ने पर मुक्तक ने जो शक्ल पाई, उसे ही 'ग़ज़ल' कहा गया। भारत से अरब-फारस तक आम लोगों, संत-फकीरों और व्यापारियों का आना-जाना हमेशा से होता रहा है। उनके साथ अदबी किताबें और जुबान भी यहाँ से वहां जाती रही। पहले तो जुबानी (मौखिक) लेन-देन हुआ होगा , बाद में लिपि का विकास होने पर ताड़पत्र, भोजपत्र पर कलम से लिखकर किताबें और उनकी नकलें इधर से उधर और उधर से इधर होती रहीं। भारत पर मुगलों के हमलों और उनकी सल्तनत कायम होने के दौर में अरबी-फ़ारसी-तुर्की वगैरह का भारत के सरहदी सूबों की जुबानों के साथ घुलना-मिलना होता रहा। नतीजतन एक नई जुबान सिपाहियों, मजदूरों, किसानों, व्यापारियों और हुक्मरानों के काम-काज के दौरान शक्ल अखित्यार करती रही। लश्करों में बोले जाने की वजह से इसे लश्करी, बाजारू काम-काज की जुबान होने की वजह से 'उर्दू' और महलों में काम आने की वज़ह से 'रेख़्ता' कहा गया। बाद में दिल्ली, हैदराबाद और लखनऊ मुगलों की सत्ता के केंद्र बने तो उर्दू जुबान की तीन शैलियाँ (स्कूल्स) सामने आईं।
हिंदी - उर्दू
अरबी-फारसी की जो काव्य शैलियाँ भारत में पसंद की गईं, उनमें 'भारत की चौपदियों को बढ़ाकर सातवीं सदी में बनाई गई ग़ज़ल' अव्वल थी और है। भारत में अपभृंश, संस्कृत, हिंदी तथा अन्य भाषाओँ/बोलिओं में गीति काव्य का विकास उच्चार (सिलेबल्स) के आधार पर उपयोग किये जा रहे वर्णों और मात्राओं से विकसित लय खंड (रुक्न) और छंद (बह्र) से हुआ। बहुत बाद में इसी तरह अरबी-फ़ारसी में ग़ज़ल कही गई। इसी वजह से भारत के लोगों को ग़ज़ल अपनी सी लगी और हिंदी ही नहीं भारत की कई सी दीगर जुबानों में ग़ज़ल कही जाने लगी। भारत में ग़ज़ल की दो शैलियाँ सामने आईं - पहली जो अरबी-फारसी ग़ज़लों की नकल कर उनके भाष-नियमों और बह्रों को आधार बनाकर लिखी गईं और दूसरी जो भारत के छंदों और हिंदी भाषा के व्याकरण, छंदशास्त्र, षट्कोण, बिम्बों का उपयोग कर कही गईं। शुरुआत में उर्दूभाषियों ने हिंदी ग़ज़ल को खारिज करने की कोशिश की बावजूद इसके कि उनके घरों में चूल्हे हिन्दीवालों द्वारा देवनागरी लिपि में उनकी गज़लें पढ़ने की वजह से जल रहे थे। इस तंग नज़रिए ने हिंदी ग़ज़ल को अलहदा पहचान दिलाने के हालत बनाये और हिंदी ग़ज़ल या भारतीय ग़ज़ल मुक्तिका, गीतिका, पूर्णिका, सजल, तेवरी आदि कही जाने लगी।
हिंदी ग़ज़ल - उर्दू ग़ज़ल
एक बात और साफ़ तौर पर समझी जानी चाहिए कि हिंदी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल न तो एक ही चीज हैं, न उनको शब्दों (अलफ़ाज़) की बिना पर अलग-अलग किया जा सकता है। बकौल प्रेमचंद बोलचाल की हिंदी और उर्दू प्राय:एक सी हैं। दोनों जुबानों की निरस्त साझा है सिवाय इसके कि उर्दू की लिपि विदेशी है हिंदी की स्वदेशी। उर्दू ग़ज़ल को देवनागरी में लिखेजाने से यह फर्क भी खत्म होता जा रहा है। अब जो फर्क है वह है भाषाओं के भिन्न व्याकरण और पिंगल का। अरबी-फ़ारसी और हिंदी वर्णमाला का अंतर ही उर्दू-हिंदी ग़ज़ल को अलग-अलग करता है। अरबी-फ़ारसी के कुछ हर्फ़ हिंदी वर्णमाला में नहीं हैं, इसी तरह हिंदी वर्णमाला के कुछ अक्षर (वर्ण) अरबी-फारसी जुबान में नहीं हैं। तुकांत-पदांत (काफिया-रदीफ़) नियमों के अनुसार उनके उच्चार भिन्न नहीं समान होने चाहिए। हिंदी वर्णमाला की पंचम ध्वनिवाले शब्द तुकांत-पदांत में हों तो वे अरबी-फ़ारसी वर्णमाला में न होने के कारण उर्दू ग़ज़ल में नहीं लिखे जा सकते। इसी तरह कुछ ध्वनियों के लिए हिंदी वर्णमाला में एक वर्ण है किंतु अरबी-फ़ारसी वर्णमाला में एक से अधिक हर्फ़ हैं, इस वजह से हिंदी के शायर जिन शब्दों को ठीक समझ कर उपयोग करेगा कि उनमें सम ध्वनि है, अरबी-फ़ारसी के अनुसार उनमें भिन्न ध्वनि वाले हर्फ़ होने की वज़ह से उसे गलत कहा जाएगा। हिंदी के संयुक्ताक्षर भी उर्दू ग़ज़ल में स्थान नहीं पा सकते। अरबी-फ़ारसी के बिम्ब-प्रतीक हिंदी ग़ज़ल में अनुपयुक्त होंगे।
डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार 'हिंदी-उर्दू भाषियों की दो कौमें नहीं है, उनकी जाति एक है और बोलचाल की भाषा भी एक सी है।१ डॉ. शर्मा भूल जाते हैं कि जाती और भाषा एक होने पर भी आदमी-औरत, बच्चे-जवान-बूढ़े कुछ समानता रखते हुए भी पूरी तरह एक ही नहीं, भिन्न होते हैं। वे हिंदी-उर्दू के मुख्य अंतर वर्णमाला और विरासत या अतीत को भुला देते हैं। दुर्भाग्य से देवनागरी लिपि में हिंदी भाषियों द्वारा स्वीकारे जाने के बाद भी, अरबी-फ़ारसी से जुड़े रहने का अंधमोह उर्दू ग़ज़ल में भारतीय बिम्ब-प्रतीकों को दोयम दर्जा देता रहा है। खुद को अलग दिखाने की चाह सिर्फ ग़ज़ल में नहीं मुस्लिम संस्थाओं और लोगों के नामों में भी देखी जा सकती है।
हिंदी ग़ज़ल में तुकांत-पदांत का पालन किया जाता है किन्तु अंग्रेजी ग़ज़ल में ऐसा संभव नहीं हो पाता। अंग्रेजी ग़ज़ल में 'पेंशन' और 'अटेंशन' का पदांत स्वीकार्य है, जबकि हिंदी ग़ज़ल में 'होश' और 'कोष' का पदांत दोषपूर्ण कहा जाता है।
ग़ज़ल और संगीत
संगीत के क्षेत्र में ग़ज़ल गाने के लिए इरानी और भारतीय संगीत के मिश्रण से एक अलग शैली निर्मित हुई। भारतीय शास्त्रीय संगीत की ख्याल और ठुमरी शैली से शुरुआत कर अब ग़ज़ल को विविध सरल और मधुर रागों पर लिखा और गाया जाता है।
फ़ुरक़त की गज़लें
इस पृष्ठभूमि में फ़ुरक़त की ग़ज़लों में हिंदी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल की विरासत का सम्मिश्रण है। ग़ज़लों की गंगो-जमनी भाषा आँखों से दिमाग में नहीं, दिल में उतरती है। यह ख़ासियत इस ग़ज़लों को खास बनाती है। इन ग़ज़लों में 'कसीदे' से पैदा बताई जाती ग़ज़ल की तरह हुस्नों-इश्क़ के चर्चे नहीं हैं, न ही आशिको-माशूक की चिमगोइयाँ हैं। ये गज़लें वक़्त की आँखों में आँखें डालकर सवाल करती हैं -
मुझको आज़ादी से लेकर आज तक बतलाइए
आस क्या थी और क्या सरकार से हासिल हुआ?
आज़ादी के बाद से 'ब्रेन ड्रेन' (काबिल लोगों का विदेश जा बसना) की समस्या के शिकार इस मुल्क की तरफ से ऐसे खुदगर्ज़ लोगों को आईना दिखाती हैं विभा -
बहुत सोचा कि मैं जीवन गुजारूँ मुल्क के बाहर
मगर ग़ैरों के दर पर मौत भी अच्छी नहीं होती।।
विभा हिदायत देते समय मुल्क के बाशिंदों को भी नहीं बख्शतीं। वे हर उस जगह चोट करती हैं जहाँ बदलाव और सुधार की गुंजाइश देखती हैं।
गली हो या मोहल्ला हो 'विभा' ये ज़ह्न हो दिल हो
कहीं पे भी हो फ़ैली गंदगी अच्छी नहीं लगती।
ज़िन्दगी के मौजूदा हालात पर निगाह डालते हुए विभा देख पाती हैं कि घरों में जैसे-जैसे सहूलियात के सामन आते हैं, आपस में दूरियाँ बढ़ती जाती हैं। इस हक़ीक़त की तनक़ीद करती हुई वे कहती हैं -
फिर तमन्नाओं ने रक्खा है मेरे दिल में क़दम
चाँद मिट्टी के खिलौने मेरे घर में आ गए।।
बेसबब फिर बढ़ गयी हैं घर से अपनी दूरियाँ
हम भले बैठे-बिठाये क्यों सफर में आ गए।।
शहर जाकर गाँव को भूल जाने, शहर से आकर गाँव की फिज़ा बिगाड़ने, माँ की ममता को भूल जाने और अत्यधिक आधुनिकता के लिबास में इतराने की कुप्रवृत्ति पर शब्दाघात करते हुई विभा लिखती हैं -
फ़िज़ाएँ इस गाँव की कहती हैं उससे दूर रह
शह्र से लौटा है कितने पल्लुओं से खेलकर।।
मेरा भाई अब उसी माँ की कभी सुनाता नहीं
बन गया पापा वो जिसके पहलुओं में खेलकर।।
किस कदर लैलाएँ इतराने लगी हैं ऐ 'विभा'
आजकल के मनचले कुछ मजनूओं से खेलकर।।
सदियों पहले आदमी की आंख का पानी मरने की फ़िक्र करते हुए रहीं ने लिखा था 'बिन पानी सब सून', यह फ़िक्र तब से अब तक बरकरार है-
इस ज़माने में अब नहीं ग़ैरत
शर्म आँखों में मर गई साहिब।।
विभा का अंदाज़े-बयां, आम आदमी की जुबान में, उसी के हालात पर इस अंदाज़ में तब्सिरा करना है कि वह खुद ठिठककर सोचने लगे। शर्म ही नहीं साथ में ख़ुशी भी गायब हो गई-
आरज़ू दिल से हो गई रुख़सत
और ख़ुशी रूठकर गई साहिब।।
दुनिया-ए-फ़ानी में आना-जाना, एक दस्तूर की तरह है। विभा सूफियाना अंदाज़ में कहती हैं-
तेरी दुनिया सराय जैसी है
कोई आया अगर गया कोई।।
विभा बेहद सादगी से बात कहती हैं, वे पाठक को चौंकाती या डराती नहीं हैं। पूरी सादगी के बाद भी बात पुरअसर रहती हैं। 'इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ खुदा' -
यूँ तो सच्चाई की चिड़िया छटपटाई थी बहुत
आख़िरश फँस ही गई मक्कारियों के बीच में।।
एक माँ कई औलादों को पाल-पोसकर बड़ा और खड़ा कर देती है पर वे औलादें मिलकर भी माँ को नहीं सम्हाल पातीं। इस कड़वी सचाई को विभा एक शे'र में सामने रखती हैं -
बाँट के खाना ही जिस माँ ने सिखाया था कभी
आज वो खुद बँट गई दो भाइयों के बीच में।।
आज की भौतिकतावादी सोच और स्वार्थकेंद्रित जीवनदृष्टि बच्चों को बदजुबानी और बदगुमानी सिखा रही है -
निगल गई है शराफ़त को आज की तहज़ीब
है बदज़ुबान हुए बेज़ुबान से लड़के।।
कहते हैं 'मनुज बली नहीं होत है, समय होत बलवान'। विभा कहती हैं -
अपनी मर्जी से कोई कब काम होता है यहाँ
वक़्त के हाथों की कठपुतली रहा है आदमी।।
जीवन को समग्रता में देखती इन हिंदी ग़ज़लों में प्रेम भी है, पूरी शिद्दत के साथ है लेकिन वह खाम-ख़याली (कपोल कल्पना) नहीं जमीनी हक़ीक़त की तरह है।
इश्क़ में सोचना क्या है।
सोचने के लिए बचा क्या है?
लड़ गयी आँख हो गया जादू
गर नहीं ये तो हादसा क्या है?
बह्र छोटी हो या बड़ी विभा अपनी बैठत बहुत सफ़ाई और खूबसूरती से कहती हैं -
रात भर मुंतज़िर रहा कोई
छत पे आने से डर गया कोई।।
दिल था बेकार उसको तोड़ गया
ये भला काम कर गया कोई
इन ग़ज़लों में अनुपास अलंकार तो सर्वत्र है ही। यमक की छटा देखिए -
मेरी आँखों से तारे टपकते रहे
रात रोती रही रात भर देखिए।।
'व्यंजना' में बात कहने का सलीका और वक्रोक्ति अलंकार की झलक देखिए -
यह हुनर भी तुम्हीं से सीखा है
चार में दो मिलाके सात करूँ।।
सारत:, फ़ुरक़त की गज़लें वक़्त की नब्ज़ टटोलने की कामयाब कोशिश है। गज़लसरा का यह पहला दीवान पाठकों को पसंद आएगा, यह भरोसा है। विभा हालात की हालत पर नज़र रखते हुए ग़ज़ल कहने का सिलसिला न केवल जरी रखें अपना अगला दीवान जल्द से जल्द लाएँ 'अल्लाह करे जोरे कलम और जियादा'।
संदर्भ १, भाषा और समाज पृष्ठ ३५७।
१३.११.२०२१
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विशववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
ईमेल salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४
***
हाइकु गीत
*
ऊगे या डूबे
सूर्य कब थकता?
सदा चलता।
*
हमेशा रहे / गतिमान जो वह / है मतिमान।
सही हो दिशा / साथ हो मति-गति / चाहें सुजान।।
पास या दूर
न भूलता मंजिल
तभी वरता।
ऊगे या डूबे
सूर्य कब थकता?
सदा चलता।।
*
रजनी संग सो / उषा के साथ जागे / रंगे प्राची को।
सखी किरणें / गुइंया दोपहरी / वरे संध्या को।।
ताके धरा को
करता रंगरेली
छैला सजता।
ऊगे या डूबे
सूर्य कब थकता?
सदा चलता।।
*
आँखें दिखाता / कभी नहीं झुकाता / नैना लड़ाता।
तम हरता / किसी से न डरता / प्रकाशदाता।।
है खाली हाथ
जग झुकाए माथ
धैर्य धरता।
ऊगे या डूबे
सूर्य कब थकता?
सदा चलता।।
१३.११.२०२१
***
***
कुण्डलिया
राजनीति आध्यात्म की, चेरी करें न दूर
हुई दूर तो देश पर राज करेंगे सूर
राज करेंगे सूर, लड़ेंगे हम आपस में
सृजन छोड़ आनंद गहेँगे, निंदा रस में
देरी करें न और, वरें राह परमात्म की
चेरी करें न दूर, राजनीति आध्यात्म की
संजीव, १३.११.२०१८
***
मुक्तक : गहोई
कहो पर उपकार की क्या फसल बोई?
मलिनता क्या ज़िंदगी से तनिक धोई?
सत्य-शिव-सुन्दर 'सलिल' क्या तनिक पाया-
गहो ईश्वर की कृपा तब हो गहोई।।
*
कहो किसका कब सदा होता है कोई?
कहो किसने कमाई अपनी न खोई?
कर्म का औचित्य सोचो फिर करो तुम-
कर गहो ईमान तब होगे गहोई।।
*
सफलता कब कहो किसकी हुई गोई?
श्रम करो तो रहेगी किस्मत न सोई.
रास होगी श्वास की जब आस के संग-
गहो ईक्षा संतुलित तब हो गहोई।।
*
कर्म माला जतन से क्या कभी पोई?
आस जाग्रत रख हताशा रखी सोई?
आपदा में धैर्य-संयम नहीं खोना-
गहो ईप्सा नियंत्रित तब हो गहोई।।
*
सफलता अभिमान कर कर सदा रोई.
विफलता की नष्ट की क्या कभी चोई..
प्रयासों को हुलासों की भेंट दी क्या?
गहो ईर्ष्या 'सलिल' मत तब हो गहोई।
*
(गोई = सखी, ईक्षा = दृष्टि, पोई = पिरोई / गूँथी,
ईप्सा = इच्छा,
१३.११.२०१७
***
गीत
*
पूछ रही पीपल से तुलसी
बोलो ऊँचा कौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया
तब उत्तर पाया मौन
*
मीठा कोई कितना खाये
तृप्तिं न होती
मिले अलोना तो जिव्हा
चखने में रोती
अदा करो या नहीं किन्तु क्या
नहीं जरूरी नौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*
भुला स्वदेशी खुद को ठगते
फिर पछताते
अश्रु छिपाते नैन पर अधर
गाना गाते
टूथपेस्ट ने ठगा न लेकिन
क्यों चाहा दातौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
*
हाय-बाय लगती बलाय
पर नमन न करते
इसकी टोपी उसके सर पर
क्यों तुम धरते?
क्यों न सुहाता संयम मन को
क्यों रुचता है यौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
***
षट्पदी
*
करे न नर पाणिग्रहण, यदि फैला निज हाथ
नारी-माँग न पा सके, प्रिय सिंदूरी साज?
प्रिय सिंदूरी साज, न सबला त्याग सकेगी
'अबला' 'बला' बने क्या यह वर-दान मँगेंगी ?
करता नर स्वीकार, फजीहत से न डरे
नारी कन्यादान, न दे- वरदान नर करे
१३.११.२०१६
***