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सोमवार, 21 अगस्त 2023

मुक्तिका, मुक्तक, दोहा, हाइकु,

दोहा सलिला
मन-मंजूषा जब खिली, यादें बन गुलकंद
मतवाली हो महककर, लुटा रही मकरंद
*
सुमन सुमन उपहार पा, प्रभु को नमन हजार
सुरभि बिखेरें हम 'सलिल ', दस दिश रहे बहार
*
जिससे मिलकर हर्ष हो, उससे मिलना नित्य
सुख न मिले तो सुमिरिए, प्रभु को वही अनित्य
*
मुक्तक:
मिलीं मंगल कामनाएँ, मन सुवासित हो रहा है।
शब्द, चित्रों में समाहित, शुभ सुवाचित हो रहा है।।
गले मिल, ले बाँह में भर, नयन ने नयना मिलाए-
अधर भी पीछे कहाँ, पल-पल सुहासित हो रहा है।।
***
चिंतन :
पादुका को शीश पर धर, चले त्रेता में भरत थे.
पादुका बिन जानकी को, त्यागने राघव त्वरित थे.
आज ने पाई विरासत, कर रहा निर्वाह बेबस-
सार्थक हों यदि किताबें, समादृत होंगी तभी बस .
सिर्फ लिखने के लिए, मत लिखें थोडा मर्म भी हो.
व्यर्थ कागज़ हो न जाया, सोच सार्थक कर्म भी हो.
***
जिसने सपने में देखा, उसने ही पाया
जिसने पाया, स्वप्न मानकर तुरत भुलाया
भुला रहा जो याद उसी को फिर-फिर आया
आया बाँहों-चाहों में जो वह मन-भाया
***
मुक्तिका:
जागे बहुत, चलो अब सोएँ
किसका कितना रोना रोएँ?
नेता-अफसर माखन खाएँ
आम आदमी दही बिलोएँ
पाये-जोड़े की तज चिंता
जो पाया, दे कर खुद खोएँ
शासन चाहे बने भिखारी
हम-तुम केवल साँसें ढोएँ
रहे विपक्ष न शेष देश में
फूल रौंदकर काँटे बोएँ
सत्ता करे देश को गंदा
जनगण केवल मैला धोएँ
***
षट्पदी-
कर-भार
चाहा रहें स्वतंत्र पर, अधिकाधिक परतंत्र
बना रहा शासन हमें, छीन मुक्ति का यंत्र
रक्तबीज बन चूसते, कर जनता का खून
गला घोंटते निरन्तर, नए-नए कानून
राहत का वादा करें, लाद-लाद कर-भार
हे भगवान्! बचाइए, कम हो अत्याचार
***
कठिन-सरल
'क ख ग' भी लगा था, प्रथम कठिन लो मान.
बार-बार अभ्यास से, कठिन हुआ आसान
कठिन-सरल कुछ भी नहीं, कम-ज्यादा अभ्यास
मानव मन को कराता, है मिथ्या आभास.
भाषा मन की बात को, करती है प्रत्यक्ष
अक्षर जुड़कर शब्द हों, पाठक बनते दक्ष
***
चतुष्पदी
फूल चित्र दे फूल मन, बना रहा है fool.
स्नेह-सुरभि बिन धूल है, या हर नाता शूल
स्नेह सुवासित सुमन से, सुमन कहे चिर सत्य
जिया-जिया में पिया है, पिया जिया ने सत्य
***
मुक्तिका
बेटी
*
बेटी दे आशीष, आयु बढ़ती है
विधि निज लेखा मिटा, नया गढ़ती है
*
सचमुच है सौभाग्य बेटियाँ पाना-
आस पुस्तकें, श्वास मौन पढ़ती है.
*
कभी नहीं वह रुकती,थकती, चुकती
चुक जाते सोपान अथक चढ़ती है
*
पथ भटके तो नाक कुलों की कटती
काली लहू खलों का पी कढ़ती है
*
असफलता का फ्रेम बनाकर गुपचुप
चित्र सफलता का सुन्दर मढ़ती है
21-8-2017
***
हाइकु
*
जो जमाये हो
धरती पर पैर
उसी की खैर।
*
भू पर पैर
हाथ में आसमान
कोई न गैर।
*
गह ले थाह
तब नदी में कूद
जी भर तैर
*
सब अपने
हैं प्रभु की सृष्टि में
पाल न बैर
*
भुला चिंता
नित्य सबेरे-शाम
कर ले सैर
***
बाल गीत
खेलें खेल
*
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
मैं दौडूँगा इंजिन बनकर
रहें बीच में डब्बे बच्चे
गार्ड रहेगा सबसे पीछे
आपस में रखना है मेल
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
सीटी बजी भागना हमको
आपस में बतियाना मत
कोई उतर नहीं पायेगा
जब तक खड़ी न होगी रेल
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
यह बंगाली गीत सुनाये
उसे माहिया गाना है
तिरक्कुरल, आल्हा, कजरी सुन
कोई करे न ठेलमठेल
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
खेल कबड्डी, हॉकी, कैरम
मुक्केबाजी, तैराकी
जायेंगे हम भी ओलंपिक
पदक जितने,क्यों हों फेल?
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
योगासन, व्यायाम करेंगे
अनुशासित करना व्यवहार
पौधे लगा, स्वच्छता रख हम
दूध पियें,खाएंगे भेल
आओ! मिलकर खेलें खेल
***
मुक्तिका
*
रखें पुराना भी सहेजकर, आवश्यक नूतन वर लें
अब तक रहते आये भू पर, अब मंगल को घर कर लें
*
किया अमंगल कण-कण का लेकिन फिर भी मन भरा नहीं
पंचामृत तज, देसी पौआ पियें कण्ठ तर कर, तर लें
*
कण्ठ हलाहल धारण कर ले भले, भला हो सब जग का
अश्रु पोंछकर क्रंदन के, कलरव-कलकल से निज स्वर लें
*
कल से कल को मिले विरासत कल की, कोशिश यही करें
दास न कल का हो यह मानव, 'सलिल' लक्ष्य अपने सर लें
*
सर करना है समर न अवसर बार-बार सम्मुख होगा
क्यों न पुराने और नए में सही समन्वय हम कर लें
***
*राम की बहन शांता*
अंगदेश के राजा रोमपाद और उनकी रानी वर्षिणी थे वर्षिणी कौशल्या की बहन थी। उनके कोई संतान नहीं थी। राजा दशरथ ने अपनी पुत्री शांता को उन्हेंदे दिया. शांता अंगदेश की राजकुमारी बन गईं। शांता वेद, कला तथा शिल्प में पारंगत थीं और वे अत्यधिक सुंदर भी थीं। उनका विवाह ऋषि श्रुंग से हुआ . इन्हीं ऋषि श्रुंग ( जो कि दशरथ के दामाद थे) ने पुत्रेष्ठी यज्ञ करवाया जिससे राम और उनके भाइयों का जन्म हुआ . राम अपनी बहन शांता से कभी नहीं मिले. आधुनिक काल के काव्य को छोड़कर सभी प्राचीन रामायण ने इन सन्दर्भों पर मौन हैं . कहा जाता है कि सेंगर राजपूत इन्ही शांता देवी और ऋषि श्रुंग के वंशज हैं....
***
*भाषाविद तुलसी *.
तुलसीदास जी ने अपने सम्पूर्ण काव्य में 90 हज़ार ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो संस्कृत मूल के हैं और बोली के रूप में तैयार किये गए हैं . दूसरी तरफ 40 हज़ार ऐसे शब्द हैं जो देशज प्रकृति के हैं . एक शोधार्थी ने यह रोचक आंकडा प्रस्तुत किया है. मैंने कहीं यह भी पढ़ा है कि आंग्ल भाषा में सबसे अधिक शब्दों का प्रयोग करने वाले शेक्सपियर भी तुलसी के निकट हैं . यूं देखा जाए तो आचार्य भवभूति शब्द संयोजना में सबसे आगे हैं और उनके बाद आचार्य केशवदास ...
21-8-2016
***
मुक्तक:
संजीव
*
अहमियत न बात को जहाँ मिले
भेंट गले दिल-कली नहीं खिले
'सलिल' वहां व्यर्थ नहीं जाइए
बंद हों जहाँ ह्रदय-नज़र किले
*
'चाँद सा' जब कहा, वो खफा हो गये
चाँदनी थे, तपिश दुपहरी हो गये
नेह निर्झर नहीं, हैं चट्टानें वहाँ
'मैं न वैसी' कहा औ' जुदा हो गये
*
मुक्तिका:
*
नज़र मुझसे मिलाती हो, अदा उसको दिखाती हो
निकट मुझको बुलाती हो, गले उसको लगाती हो
यहाँ आँखें चुराती हो, वहाँ आँखें मिलाती हो
लुटातीं जान उस पर, मुझको दीवाना बनाती हो
हसीं सपने दिखाती हो, तुरत हँसकर भुलाती हो
पसीने में नहाता मैं, इतर में तुम नहाती हो
जबाँ मुझसे मुखातिब पर निग़ाहों में बसा है वो
मेरी निंदिया चुराती, ख़्वाब में उसको बसाती हो
अदा दिलकश दिखा कर लूट लेती हो मुझे जानम
सदा अपना बतातीं पर नहीं अपना बनाती हो
न इज़हारे मुहब्बत याद रहता है कभी तुमको
कभी तारे दिखाती हो, कभी ठेंगा दिखाती हो
वज़न बढ़ना मुनासिब नहीं कह दुबला दिया मुझको
न बाकी जेब में कौड़ी, कमाई सब उड़ाती हो
कलेजे से लगाकर पोट, लेतीं वोट फिर गायब
मेरी जाने तमन्ना नज़र तुम सालों न आती हो
सियासत लोग कहते हैं सगी होती नहीं संभलो
बदल बैनर, लगा नारे मुझे मुझसे चुराती हो
सखावत कर, अदावत कर क़यामत कर रही बरपा
किसी भी पार्टी में हो नहीं वादा निभाती हो
२१-८-२०१४
*

शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

सॉनेट, कशमकश, शुद्धगीता, छंद, कहमुकरी, सरसी कुण्डलिया, मुक्तक, गीता,

सॉनेट 
वाह कहूँ या आह करूँ? 
मन-मंथन कर लिया चित्र का, 
दृश्य-अदृश्य शब्द माला में, 
गूंँथ कार्य कर दिया मित्र का। 

शब्द सटीक तलब, लब चुनकर, 
धूम्रपान की हानि बताई, 
कथ्य सही क्रम में विकसित कर, 
सार दो पदी में ले आई। 

सहज सज गया है मुहावरा, 
'छाती फूँक' न सब जन जागो, 
सीख जरूरी, सबक है खरा, 
अब मत रोगों को अनुरागो। 

नीलम सॉनेट समझ रही है। 
कली मोगरा महक रही है।। 
१८-८-२०२३
 •••
सॉनेट
कशमकश
जागती हैं कामनाएँ,
नहीं वश में हृदय रहता,
हम नयन कैसे मिलाएँ?,
मन विकल अनकहा कहता।

धड़कनें सुन, दिल धड़कता,
परस पारस कहे पा रस,
नयन बायाँ झट फड़कता?,
लब अबोले गा रहा जस।

मुँह फिराए वक्ष से लग,
राज मन में है छिपाए,
जाए तो उठते नहीं पग,
रुके तो साजन लुभाए।

कशमकश प्रिय जान ना ले।
कशमकश प्रिय! जान ना ले।।
१७-८-२०२३
***
मुकरी /कहमुकरी
*
अंतर्मन में चित्र गुप्त है
अभी दिख रहा, अभी लुप्त है
कुछ पहचाना, कुछ अनजान
क्या सखि साजन?, नहिं भगवान
*
मन मंदिर में बैठा आकर
कहीं नहीं जाता वह जाकर
उसकी दम से रहे बहार
क्या सखि ईश्वर?, ना सखि प्यार
*
है समर्थ पर कष्ट न हरती
पल में निर्भय, पल में डरती
मनमानी करती हर बार
मितवा सजनी?, नहिं सरकार
*
जब आता तब आग लगाता
इसे लड़ाता, उसे भिड़ाता
होने देता नहीं निभाई
भाग्यविधाता?, नहीं चुनाव
*
देख आप हर कर जुड़ जाता
बिना कहे मस्तक झुक जाता
भूल व्यथा, हो हर मन चंगा
देव?, नहीं है ध्वजा तिरंगा
*
दैया! लगता सबको भय
कोई रह न सके निर्भय
कैद करे मानो कर टोना
सखी! सिपैया, नहिं कोरोना
*
जो पाता सो सुख से सोता
हाय हाय कर चैन न खोता
जिसे न मिलता करता रोष
है सखि रुपया, नहिं संतोष
*
माया पाती तनिक न मोह
पास न फटके गुस्सा-द्रोह
राजा है या संत विशेष
सुन सखि! सूरज, ना मिथिलेश
*
जन प्रिय मोह न पाता काम
अभिवादन है जिसका नाम
भक्तों का भय पल में लें हर
प्रिय! मधुसूदन?, नहिं शिवशंकर
*
पल में सखि री! चित्त चुराता
अनजाने मन में बस जाता
नयन बंद तो भी दे दर्शन
सखि! साजन?, नहिं कृष्ण सुदर्शन
*
काम करे निष्काम रात-दिन
रक्षा कर, सुख भी दे अनगिन
फिर भी रहती सदा विनीता
सजनी?, ना ना नदी पुनीता
*
इसको उससे जोड़ मिलाए
शीत-घाम हँस सहता जाए
सब पग धरते निज हित हेतु
क्या सखि धरती?, ना सखि सेतु
*
वह आए रौनक आ जाती
जाए ज्यों जीवन ले जाती
आँख मिचौली खेले उजली
क्या प्रिय सजनी?, ना सखि बिजली
*
भर देता मन में आनंद
फूल खिला बिखरा मकरंद
सबको सुखकर जैसे संत
क्या सखि!साजन? नहीं बसंत
18-8-2020
***
पाठ १०४
नव प्रयोग: शुद्धगीता छंद
*
छंद सलिला सतत प्रवहित, मीत अवगाहन करें।
शारदा का भारती सँग, विहँस आराधन करें।।
*
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह-प्रवेश त्यौहार।
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार।।
*
लक्षण:
१. ४ पंक्ति।
२. प्रति पंक्ति २७ मात्रा।
३. १४-१३ मात्राओं पर यति।
४. हर पंक्ति के अंत में गुरु-लघु मात्रा।
५. हर २ पंक्ति में सम तुकांत।
लक्षण छंद:
शुद्धगीता छंद रचना, सत्य कहना कवि न भूल।
सम प्रशंसा या कि निंदा, फूल दे जग या कि शूल।।
कला चौदह संग तेरह, रहें गुरु-लघु ही पदांत।
गगनचुंबी गिरे बरगद, दूब सह तूफ़ान शांत।।
उदाहरण:
कौन है किसका सगा कह, साथ जो देता न छोड़?
गैर क्यों मानें उसे जो, साथ लेता बोल होड़।।
दे चुनौती, शक्ति तेरी बढ़ाता है वह सदैव।
आलसी तू हो न पाए, गर्व की तज दे कुटैव।।
***
हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल
सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल
*
मुक्तक
ढाले- दिल को छेदकर तीरे-नज़र जब चुभ गयी,
सांस तो चलती रही पर ज़िन्दगी ही रुक गयी।
तरकशे-अरमान में शर-हौसले भी कम न थे -
मिल गयी ज्यों ही नज़र से नज़र त्यों ही झुक गयी।।
***
छंद सलिला: पहले एक पसेरी पढ़ / फिर तोला लिख...
छंद सलिला सतत प्रवाहित, मीत अवगाहन करें
शारदा का भारती सँग, विहँस आराधन करें
*
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह-प्रवेश त्यौहार
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार
*
पाठ १०२
नव प्रयोग: सरसी कुण्डलिया
*
कुंडलिया छंद (एक दोहा + एक रोला, दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण, दोहारम्भ के अक्षर, शब्द, शब्द समूह या पंक्ति रोला के अंत में) और्सर्सी छंद (१६-११, पदांत गुरु-लघु) से हम पूर्व परिचित हो चुके हैं. इन दोनों के सम्मिलन से सरसी कुण्डलिया बनता है. इसमें कुछ लक्षण कुण्डलिया के (६ पंक्तियाँ, चतुर्थ चरण का पंचम चरण के रूप में दुहराव, आरंभ के अक्षर, शब्दांश, शब्द ता चरण का अंत में दुहराव) तथा कुछ लक्षण सरसी के (प्रति पंक्ति २७ मात्रा, १६-११ पर यति, पदांत गुरु-लघु) हैं. ऐसे प्रयोग तभी करें जब मूल दोनों छंद साध चुके हों.
लक्षण:
१. ६ पंक्ति.
२. प्रति पंक्ति २७ मात्रा.
३. पहली दो पंक्ति १६-११ मात्राओं पर यति, बाद की ४ पंक्ति ११-१६ पर यति.
४. पंक्ति के अंत में गुरु-लघु मात्रा.
५. चतुर्थ चरण का पंचम चरण के रूप में दुहराव.
६. छंदारंभ के अक्षर, शब्दांश, शब्द, या शब्द समूह का छंदात में दुहराव.
उदाहरण:
भारत के जन गण की भाषा, हिंदी बोलें आप.
बने विश्ववाणी हिंदी ही, मानव-मन में व्याप.
मानव मन में व्याप, भारती दिल से दिल दे जोड़.
क्षेत्र न पाए नाप, आसमां कितनी भी ले होड़.
कहता कवी 'संजीव', दिलों में बढ़े हमेशा प्यार.
हो न नेह निर्जीव, न नाते कभी बनेंगे भार.
***
हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल
सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल
18-8-2017
***
दोहा मुक्तिका-
*
साक्षी साक्षी दे रही, मत हो देश उदास
जीत बनाती है सदा, एक नया इतिहास
*
कर्माकर ने दिखाया, बाकी अभी उजास
हिम्मत मत हारें करें, जुटकर सतत प्रयास
*
जीत-हार से हो भले, जय-जय या उपहास
खेल खिलाड़ी के लिए, हर कोशिश है खास
*
खेल-भावना ही हरे, दर्शक मन की प्यास
हॉकी-शूटिंग-आर्चरी, खेलो हो बिंदास
*
कहाँ जाएगी जीत यह?, कल आएगी पास
नित्य करो अभ्यास जुट, मन में लिए हुलास
*
निराधार आलोचना, भूल करो अभ्यास
सुन कर कर दो अनसुना, मन में रख विश्वास
*
मरुथल में भी आ सके, निश्चय ही मधुमास
आलोचक हों प्रशंसक, डिगे न यदि विश्वास
***
मुक्तक
ढाले- दिल को छेदकर तीरे-नज़र जब चुभ गयी,
सांस तो चलती रही पर ज़िन्दगी ही रुक गयी।
तरकशे-अरमान में शर-हौसले भी कम न थे -
मिल गयी ज्यों ही नज़र से नज़र त्यों ही झुक गयी।।
18-8-2016
***
अध्याय १
कुरुक्षेत्र और अर्जुन
कड़ी ४.
*
कुरुक्षेत्र की तपोभूमि में
योद्धाओं का विपुल समूह
तप्त खून के प्यासे वे सब
बना रहे थे रच-रच व्यूह
*
उनमें थे वीर धनुर्धर अर्जुन
ले मन में भीषण अवसाद
भरा ह्रदय ले खड़े हुए थे
आँखों में था अतुल विषाद
*
जहाँ-जहाँ वह दृष्टि डालता
परिचित ही उसको दिखते
कहीं स्वजन थे, कहीं मित्र थे
कहीं पूज्य उसको मिलते
*
कौरव दल था खड़ा सामने
पीछे पाण्डव पक्ष सघन
रक्त एक ही था दोनों में
एक वंश -कुल था चेतन
*
वीर विरक्त समान खड़ा था
दोनों दल के मध्य विचित्र
रह-रह जिनकी युद्ध-पिपासा
खींच रही विपदा के चित्र
*
माँस-पेशियाँ फड़क रही थीं
उफ़न रहा था क्रोध सशक्त
संग्रहीत साहस जीवन का
बना रहा था युद्धासक्त
*
लड़ने की प्रवृत्ति अंतस की
अनुभावों में सिमट रही
झूल विचारों के संग प्रतिपल
रौद्र रूप धर लिपट रही
*
रथ पर जो अनुरक्त युद्ध में
उतर धरातल पर आया
युद्ध-गीत के तेज स्वरों में
ज्यों अवरोह उतर आया
*
जो गाण्डीव हाथ की शोभा
टिका हुआ हुआ था अब रथ में
न्योता महानाश का देकर-
योद्धा था चुप विस्मय में
*
बाण चूमकर प्रत्यञ्चा को
शत्रु-दलन को थे उद्यत
पर तुरीण में ही व्याकुल हो
पीड़ा से थे अब अवनत
*
और आत्मा से अर्जुन की
निकल रही थी आर्त पुकार
सकल शिराएँ रण-लालायित
करती क्यों विरक्ति संचार?
*
यौवन का उन्माद, शांति की
अंगुलि थाम कर थका-चुका
कुरुक्षेत्र से हट जाने का
बोध किलकता छिपा-लुका
*
दुविधा की इस मन: भूमि पर
नहीं युद्ध की थी राई
उधर कूप था गहरा अतिशय
इधर भयानक थी खाई
*
अरे! विचार युद्ध के आश्रय
जग झुलसा देने वाले
स्वयं पंगु बन गये देखकर
महानाश के मतवाले
*
तुम्हीं क्रोध के प्रथम जनक हो
तुम में वह पलता-हँसता
वही क्रिया का लेकर संबल
जग को त्रस्त सदा करता
*
तुम्हीं व्यक्ति को शत्रु मानते
तुम्हीं किसी को मित्र महान
तुमने अर्थ दिया है जग को
जग का तुम्हीं लिखो अवसान
*
अरे! कहो क्यों मूल वृत्ति पर
आधारित विष खोल रहे
तुम्हीं जघन्य पाप के प्रेरक
क्यों विपत्तियाँ तौल रहे?
*
अरे! दृश्य दुश्मन का तुममें
विप्लव गहन मचा देता
सुदृढ़ सूत्र देकर विनाश का
सोया क्रोध जगा देता
*
तुम्हीं व्यक्ति को खल में परिणित
करते-युद्ध रचा देते
तुम्हीं धरा के सब मनुजों को
मिटा उसे निर्जन करते
*
तुम मानस में प्रथम उपल बन
लिखते महानाश का काव्य
नस-नस को देकर नव ऊर्जा
करते युद्ध सतत संभाव्य
*
अमर मरण हो जाता तुमसे
मृत्यु गरल बनती
तुम्हीं पतन के अंक सँजोकर
भाग्य विचित्र यहाँ लिखतीं
*
तुम्हीं पाप की ओर व्यक्ति को
ले जाकर ढकेल देते
तुम्हीं जुटा उत्थान व्यक्ति का
जग को विस्मित कर देते
*
तुम निर्णायक शक्ति विकट हो
तुम्हीं करो संहार यहाँ
तुम्हीं सृजन की प्रथम किरण बन
रच सकती हो स्वर्ग यहाँ
*
विजय-पराजय, जीत-हार का
बोध व्यक्ति को तुमसे है
आच्छादित अनवरत लालसा-
आसक्तियाँ तुम्हीं से हैं
*
तुम्हीं प्रेरणा हो तृष्णा की
सुख पर उपल-वृष्टि बनते
जीवन मृग-मरीचिका सम बन
व्यक्ति सृष्टि अपनी वरते
*
अरे! शून्य में भी चंचल तुम
गतिमय अंतर्मन करते
शांत न पल भर मन रह पाता
तुम सदैव नर्तन करते
*
दौड़-धूप करते पल-पल तुम
तुम्हीं सुप्त मन के श्रृंगार
तुम्हीं स्वप्न को जीवन देते
तुम्हीं धरा पर हो भंगार
*
भू पर तेरी ही हलचल है
शब्द-शब्द बस शब्द यहाँ
भाषण. संभाषण, गायन में
मुखर मात्र हैं शब्द जहाँ
*
अवसरवादी अरे! बदलते
क्षण न लगे तुमको मन में
जो विनाश का शंख फूँकता
वही शांति भरता मन में
*
खाल ओढ़कर तुम्हीं धरा पर
नित्य नवीन रूप धरते
नये कलेवर से तुम जग की
पल-पल समरसता हरते
*
तुम्हीं कुंडली मारे विषधर
दंश न अपना तुम मारो
वंश समूल नष्ट करने का
रक्त अब तुम संचारो
*
जिस कक्षा में घूम रहे तुम
वहीँ शांति के बीज छिपे
अंधकार के हट जाने पर
दिखते जलते दिये दिपे
*
दावानल तुम ध्वस्त कर रहे
जग-अरण्य की सुषमा को
तुम्हीं शांति का चीर-हरण कर
नग्न बनाते मानव को
*
रोदन जन की है निरीहता
अगर न कुछ सुन सके यहाँ
तुम विक्षिप्त , क्रूर, पागल से
जीवन भर फिर चले यहाँ
*
अरे! तिक्त, कड़वे, हठवादी
मृत्यु समीप बुलाते क्यों?
मानवहीन सृष्टि करने को
स्वयं मौत सहलाते क्यों?
*
गीत 'काम' के गाकर तुमने
मानव शिशु को बहलाया
और भूख की बातचीत की
बाढ़ बहाकर नहलाया
*
सदा युद्ध की विकट प्यास ने
छला, पतिततम हमें किया
संचय की उद्दाम वासना, से
हमने जग लूट लिया
*
क्रूर विकट घातकतम भय ने
विगत शोक में सिक्त किया
वर्तमान कर जड़ चिंता में
आगत कंपन लिप्त किया
*
लूट!लूट! तुम्हारा नाम 'राज्य' है
औ' अनीति का धन-संचय
निम्न कर्म ही करते आये
धन-बल-वैभव का संचय
*
रावण की सोने की लंका
वैभव हँसता था जिसमें
अट्हास आश्रित था बल पर
रोम-रोम तामस उसमें
*
सात्विक वृत्ति लिये निर्मल
साकेत धाम अति सरल यहाँ
ऋद्धि-सिद्धि संयुक्त सतत वह
अमृतमय था गरल कहाँ?
*
स्वेच्छाचारी अभय विचरते
मानव रहते हैं निर्द्वंद
दैव मनुज दानव का मन में
सदा छिड़ा रहता है द्वंद
*
सुनो, अपहरण में ही तुमने
अपना शौर्य सँवारा है
शोषण के वीभत्स जाल को
बुना, सतत विस्तारा है
*
बंद करो मिथ्या नारा
जग के उद्धारक मात्र तुम्हीं
उद्घोषित कर मीठी बातें
मूर्ख बनाते हमें तुम्हीं
*
व्यक्ति स्वयं है अपना नेता
अन्य कोई बन सकता
अपना भाग्य बनाना खुद को
अन्य कहाँ कुछ दे सकता?
*
अंतर्मन की शत शंकाएँ
अर्जुन सम करतीं विचलित
धर्मभूमि के कर्मयुद्ध का
प्रेरक होता है विगलित
*
फिर निराश होता थक जाता
हार सहज शुभ सुखद लगे
उच्च लक्ष्य परित्याग, सरलतम
जीवन खुद को सफल लगे
*
दुविधाओं के भंवरजाल में
डूब-डूब वह जाता है
क्या करना है सोच न पाता
खड़ा, ठगा पछताता है

18-8-2015

***

रोचक चर्चा:
अगले २० वर्षों में मिटने-टूटनेवाले देश
साभार : https://youtu.be/1vP3Ju7J4gk
यू ट्यूब के उक्त अध्ययन के अनुसार अगले २० वर्षों में दुनिया के निम्न देशों के सामने मिटने या टूटने का गंभीर खतरा है.
१. स्पेन: केटेलेनिआ तथा बास्क क्षेत्रों में स्वतंत्रता की सबल होती मांग से २ देशों में विभाजन.
२. उत्तर कोरिआ: न्यून संसाधनों के कारण दमनकारी शासन के समक्ष आत्मनिर्भरता की नीति छोड़ने की मजबूरी, शेष देशों से जुड़ते ही परिवर्तन और दोनों कोरिया एक होने की मान के प्रबल होने के आसार.
३. बेल्जियम: वालोनिआ तथा फ्लेंडर्स में विभाजन की लगातार बढ़ती मांग.
४. चीन: प्रदूषित होता पर्यावरण, जल की घटती मात्र, २०३० तक चीन उपलब्ध जल समाप्त कर लेगा। प्रांतों में विभाजन की माँग।
५. इराक़: सुन्नी, कुर्द तथा शीट्स बहुल ३ देशों में विभाजन की माँग.
६. लीबिया: ट्रिपोलिटेनिआ, फैजान तथा सायरेनीका में विभाजन
७. इस्लामिक स्टेट: तुर्किस्तान, सीरिया, सऊदी अरब, ईरान, तथा इराक उसके क्षेत्र को आपस में बांटने के लिये प्रयासरत।
८. यूनाइटेड किंगडम: स्कॉट, वेल्स तथा उत्तर आयरलैंड में स्वतंत्र होने के पक्ष में जनमत।
९. यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका: ५० प्रांतों का संघ, अलास्का तथा टेक्सास में स्वतंत्र होने की बढ़ती माँग।
१०. मालदीव: समुद्र में डूब जाने का भीषण खतरा।
११. पाकिस्तान: पंजाब, सिंध तथा बलूचों में अलग होने की मांग.
१२. श्री लंका: तमिलों तथा सिंहलियों में सतत संघर्ष।
***

ओशो का अंतिम प्रवचन

ओशो का अंतिम प्रवचन :
"सम्मासति"
10 अप्रैल 1989
बुद्धा सभागार
ओशो आश्रम, पुणे
भारत।
अपने अंतिम प्रवचन में भगवान् श्री ने कहा-
"परम्परावादी झेन का मार्ग रहित मार्ग बहुत कठिन या दुरूह है।20-30 वर्षों तक, घर परिवार छोड़कर मठ में गुरु के सानिध्य में निरंतर ध्यान करते रहना और सभी स्थानों से अपनी उर्जा हटाकर केवल ध्यान में लगाना बहुत मुश्किल है। यह परम्परा गौतम बुद्ध से प्रारम्भ हुई जो बारह वर्ष तक निरंतर कठोर तप करते रहे और एक दिन सब छोडकर परम विश्राम में लेट गये और घटना घट गई। पर आज के युग में न तो किसी के पास इतना धैर्य और समय है और न सुविधा।
मैं इस परम्परा को पूर्णतया बदल रहा हूं। इसी परम्परा के कारण झेन चीन से समाप्त हुआ और अब वह जापान से समाप्त हो रहा है। इसका प्रारम्भ गौतम बुद्ध द्वारा महाकाश्यप को कमल का फूल देने से हुआ था जब उन्होंने मौन की संपदा का महाकाश्यप को हस्तांतरण किया था। बुद्ध के 500 वर्षों बाद तक यह परम्परा भारत में रही। फिर भारत में इस सम्पदा के लेवनहार न होने से बोधिधर्म इसे चीन ले गया। भारत से चीन, चीन से जापान और अब इस परम्परा को अपने नूतन स्वरुप में मैं फिर जापान से भारत ले आया हूं।
जापान के झेन सदगुरु पत्र लिखकर मुझे बताते हैं कि जापान में बढ़ती वैज्ञानिक प्रगति और टेक्नोलोजी से झेन जापान से मिट रहा है और वह झेन मठों में मेरी प्रवचन पुस्तकों से शिष्यों को शिक्षा दे रहें हैं। यही स्थिति भारत में भी है।
यह परम्परा तभी जीवित रह सकती है जब यह सरल, सहज और विश्राम पूर्ण हो। यह उबाऊ न होकर उत्सवपूर्ण हो। यह वर्षों की साधना न होकर समझ विकसित होते ही कम समय ले।
जब उर्जा अंदर जाती है तो वही उर्जा विचारों, भावों और अनुभवों में रूपांतरित हो जाती है। जब वही उर्जा बाहर गतिशील होती है तो वह व्यक्तियों से, वस्तुओं से या प्रकृति से संबंध जोड़ती है। अब एक तीसरी स्थिति भी है कि उर्जा न अंदर जाये और न बाहर, वह नाड़ियों में धड़कती हुई अस्तित्व से एकाकार हो जाये।
पूरे समाज का यही मानना है कि उर्जा खोपड़ी में गतिशील है, पर झेन कहता है कि खोपड़ी से निकल कर अपने हारा केंद्र पर पहुंचो। वह तुम्हारा ही नहीं पूरे अस्तित्व का केंद्र है। वहां पहुंचकर अंदर और बाहर का आकाश एक हो जाता है, जहां तुम स्वतंत्रता से मुक्ताकाश में पंखों को थिर किये चील की भांति उड़ते हो। झेन का अर्थ है- इसी केंद्र पर थिर होकर पहुंचना। यह प्रयास से नहीं, यह होता है परम विश्रामपूर्ण स्थिति में।
सबसे पहले शांत बैठकर अपने अंदर सरक जाओ। अपनी खोपड़ी के अंदर समस्त उर्जा को भृकुटी या त्रिनेत्र पर ले आओ। गहन भाव करो कि सिर की सारी उर्जा भुकुटि पर आ गई है। थोड़ी ही देर में भृकुटी पर उर्जा के संवेदनों को महसूस करोगे।फिर गहन भाव करते हुये इस उर्जा को हृदय की ओर ले आओ। हृदय चक्र पर तुम्हें जब उर्जा के स्पंदनों का अनुभव होने लगे तो समग्रता से केंद्र की ओर गतिशील करना है। पर यह बिंदु बहुत नाज़ुक है। हृदय चक्र से उर्जा से सीधे सहस्त्रधार की ओर फिर से वापस लौट सकती है। पर गहन भाव से तुम्हें अपनी गहराई में उतरना है। अपने केंद्र तक अपनी समग्र उर्जा को लाये बिना उसे जानने का अन्य कोई उपाय नहीं।
'हू मंत्र की चोट से, सूफी नृत्य के बाद नाभि के बल लेटकर, चक्रा ब्रीदिंग, चक्रा साउंड अथवा मिस्टिक रोज़ ध्यान से जिनका हारा चक्र सक्रिय हो गया है, वह गहन भाव करते ही स्वयं समस्त उर्जा को अपनी ओर खीँच लेते हैं। मैं इसीलिये पिछले एक वर्ष से प्रवचन के बाद तुम्हें सरदार गुरुदयाल सिंह के जोक्स सुनाकर ठहाके लगाने को विवश करता हूं, जिससे तुम्हारा हारा चक्र सक्रिय हो। उसके द्वारा नो माइंड ध्यान द्वारा मैं तुम्हें निर्विचार में ले जाता रहा हूं जिससे विचारों भावों में लगी उर्जा रूपांतरित होकर नाड़ियों में गतिशील हो जाये।"
इतना कहकर भगवान् श्री कुछ देर के लिये मौन में चले गये। बोलते-बोलते उनके अचानक मौन हो जाने से, सभी संन्यासी भी प्रस्तर प्रतिमा की भांति अपनी दो श्वांसों के अन्तराल में थिर हो गये। उन्होंने ओशो से यही सीखा था कि दो शब्दों या आती जाती श्वांस के अंतराल में थिर हो जाना ही मौन में गहरे सरक जाना है, जहाँ विचार और भाव सभी विलीन हो जाते हैं। इस गहन मौन में ओशो उस अमूल्य संपदा को अपने शिष्यों को हस्तांतरित कर रहे थे जिसे शब्दों द्वारा अभिव्यक्त करने का कोई उपाय नहीं।पर यह अमूल्य सम्पदा केवल थोड़े से ही संन्यासी ही ग्रहण कर सके जो मौन की भाषा समझने लगे थे।
कुछ मिनट बाद भगवान् ने काफी देर से थिर पलकों को झपकाया। उनके हाथों की मुद्रा परवर्तित हुई। उनके होठ हिले।
उन्होंने कहा-" सम्मासति "
"स्मरण करो। तुम भी एक बुद्ध हो।"

गुरुवार, 17 अगस्त 2023

संजीव वर्मा 'सलिल'


आप अपनी जानकारी आज ही भेज दीजिए---
1-नाम : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
2-पिता का नाम : स्मृतिशेष राजबहादुर वर्मा, पूर्व जेल अधीक्षक। 
3 -माता का नाम : स्मृतिशेष शांति देवी वर्मा, कवयित्री।
3 a - जीवन संगिनी : डॉ. साधना वर्मा, पूर्व प्राध्यापक अर्थशास्त्र।   
4-जन्म दिनांक : 20 अगस्त 1952। 
5-जन्म स्थान : मंडला, मध्य प्रदेश। 
6-प्रेरणाश्रोत : बुआश्री महियासी महादेवी वर्मा। 
7-दायित्व : पूर्व संभागीय परियोजना अभियंता लोक निर्माण विभाग, सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर, संचालक समन्वय प्रकाशन जबलपुर, चेयरमैन इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर । पूर्व वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व महामंत्री राष्ट्रीय कायस्थ महासभा,  पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व मण्डल अध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, पूर्व संपादक चित्राशीष कायस्थ पत्रिका, पूर्व महामंत्री प्रादेशिक चित्रगुपर महासभा मध्य प्रदेश। 
8-किन क्षेत्रों में कार्यरत हैं/समाज/देश आदि : साहित्य सृजन, छंद शिक्षण, समाज सेवा, पर्यावरण सुधार, तकनीकी क्षेत्र में हिंदी का उपयोग, हिंदी से रोजगार, प्रेरक व्याख्यान, चित्रगुप्त जी व कायस्थों पर शोध आदि।  
9-कोई उल्लेखनीय उपलब्धि-
1. 500 से अधिक नये छंदों का आविष्कार। 
2. प्रति दिन लाखों बच्चों द्वारा सरस्वती वंदना 'हे हँसवाहिनी ज्ञानदायिनी अंब! विमल मति दे' का सभी सरस्वती शिशु मंदिरों में गायन। 
3. 85 पुस्तकों में भूमिका लेखन। 
4. 350 पुस्तकों की समीक्षा। 
5. 12 पुस्तकें प्रकाशित ।
6.  जीवन परिचय प्रकाशित 7 साहित्यकार कोश।
7.  इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी में तकनीकी लेख 'वैश्विकता के निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएँ को द्वितीय श्रेष्ठ - तकनीकी प्रपत्र पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति द्वारा।
8.  9 बोलिओं में रचना।  
9. 75 सरस्वती वंदना लेखन ।  
10. 51 चित्रगुप्त भजन लेखन।
11. विशेष: विश्व रिकॉर्ड - विविध अभियंता संस्थाओं द्वारा जबलपुर में भारतरत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या की ९ मूर्तियों की स्थापना कराई।
12 ट्रू मिडिया पत्रिका द्वारा व्यक्तित्व-कृतित्व पर विशेषांक प्रकाशित।
13.  'सलिल : एक साहित्यिक निर्झर' व्यक्तित्व-कृतित्व पर पुस्तक, लेखिका मनोरमा 'पाखी'।
14. हिंदी सोनेट लेखन सिखाकर 32 सॉनेटकारों के 321 सॉनेटों का साझा संकलन प्रकाशित किया- विश्व रिकॉर्ड। 
15. इंडिया बुक ऑफ रिकार्ड में "भारत को जाने" एक अद्वितीय ग्रंथ लेखन में सहभागिता।
16. 300 से अधिक सम्मान, 12 प्रांतों की संस्थाओं द्वारा। 

कुंडलिया, मुक्तक, षडपदिक सवैया, सरसी छंद, लघुकथा, राखी गीत, गीता गायन

कुंडलिया छंद :

रावण लीला देख
*
लीला कहीं न राम की, रावण लीला देख.
मनमोहन है कुकर्मी, यह सच करना लेख..
यह सच करना लेख काटेगा इसका पत्ता.
सरक रही है इसके हाथों से अब सत्ता..
कहे 'सलिल' कविराय कफन में ठोंको कीला.
कभी न कोई फिर कर पाये रावण लीला..
*
खरी-खरी बातें करें, करें खरे व्यवहार.
जो कपटी कोंगरेस है,उसको दीजे हार..
उसको दीजै हार सबक बाकी दल लें लें.
सत्ता पाकर जन अधिकारों से मत खेलें..
कुचले जो जनता को वह सरकार है मरी.
'सलिल' नहीं लाचार बात करता है खरी.
*
फिर जन्मा मारीच कुटिल सिब्बल पर थू है.
शूर्पणखा की करनी से फिर आहत भू है..
हाय कंस ने मनमोहन का रूप धरा है.
जनमत का अभिमन्यु व्यूह में फँसा-घिरा है..
कहे 'सलिल' आचार्य ध्वंस कर दे मत रह घिर.
नव स्वतंत्रता की नव कथा आज लिख दे फिर..
१७-८-२०२१
***
दोहा सलिला
श्री-प्रकाश पाकर बने, तमस चन्द्र सा दिव्य.
नहीं खासियत तिमिर की, श्री-प्रकाश ही भव्य ..
*
आशा-आकांक्षा लिये, सबकी जीवन-डोर.
'सलिल' न अब तक पा सका, कहाँ ओर या छोर.
*
मुक्तक :
अधरों पर सोहे मुस्कान
नित गाओ कोयल सम गान
हर बाधा पर विजयी हो -
शीश उठा रह सीना तान
*
मन की पीड़ा को शब्दों ने जब-जब भी गाया है
नूर खुदाई उनमें बरबस उतर-उतर आया है
करा कीर्तन सलिल रूप का, लीन हुआ सुध खोकर
संगत-रंगत में सपना साकार हुआ पाया है
*
कुसुम वीर हो, भ्रमर बहादुर, कली पराक्रमशाली
सोशल डिस्टेंसिंग पौधों में रखता है हर माली
गमछे-चुनरी से मुँह ढँककर, होंगी अजय बहारें-
हाथ थाम दिनकर का ऊषा, तम हर दे खुशहाली
१७-८-२०२०
***
नवप्रयोग
षडपदिक सवैया
*
पौ फटी नीलांबरी नभ, मेघ मल्लों को बुलाता, दामिनी की छवि दिखा, दंगल कराता।
होश खोते जोश से भर, टूट पड़ते, दाँव चलते, पटक उठते मल्ल कोई जय न पाता।
स्वेद धारा प्रवह धरती को भिगोती, ऊगते अंकुर नए शत, नर सृजन दुंदुभि बजाता।
दामिनी जल पतित होती, मेघ रो आँसू बहाता, कुछ न पाता।
पवन सनन सनन बहता, सत्य कहता मत लड़ो, मिलकर रचे कुछ नित नया जो कीर्ति पाता।
गरजकर आतंक की जो राह चलता, कुछ न पाता, सब गँवाता, हार कहता बहुत निष्ठुर है विधाता।
*
संजीव
१७-८-२०१९, मथुरा
बी ३-५२ संपर्क क्रांति एक्सप्रेस
***
छंद सलिला: पहले एक पसेरी पढ़ / फिर तोला लिख...
छंद सलिला सतत प्रवाहित, मीत अवगाहन करें
शारदा का भारती सँग, विहँस आराधन करें
*
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह-प्रवेश त्यौहार
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार
*
पाठ १०१
सरसी छंद
*
लक्षण:
१. ४ पंक्ति.
२. प्रति पंक्ति २७ मात्रा.
३. १६-११ मात्राओं पर यति.
४. पंक्ति के अंत में गुरु-लघु मात्रा.
५. दो-दो पंक्ति में सम तुकांत.
लक्षण छंद:
सरसी सोलह-ग्यारह रखिए मात्रा, गुरु-लघु अंत.
नित्य करें अभ्यास सधे तब, कहते कविजन-संत.
कथ्य भाव रस अलंकार छवि, बिंब-प्रतीक मनोहर.
काव्य-कामिनी जन-मन मोहे, रचना बने धरोहर.
*
उदाहरण:
पशु-पक्षी,कृमि-कीट करें सुन, निज भाषा में बात.
हैं गुलाम मानव-मन जो पर-भाषा बोलें तात.
माँ से ज्यादा चाची-मामी,'सलिल' न करतीं प्यार.
माँ-चरणों में स्वर्ग, करो सेवा तो हो उद्धार.
***
हिंदी आटा माढ़िये, देशज मोयन डाल
सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल
१७-८-२०१७
***
लघुकथा-
टूटती शाखें
*
नुक्कड़ पर खड़े बरगद की तरह बब्बा भी साल-दर-साल होते बदलावों को देखकर मौन रह जाते थे। परिवार में खटकते चार बर्तन अब पहले की तरह एक नहीं रह पा रहे थे। कटोरियों को थाली से आज़ादी चाहिए थी तो लोटे को बाल्टी की बन्दिशें अस्वीकार्य थीं। फिर भी बरसों से होली-दिवाली मिल-जुलकर मनाई जा रही थी।

राजनीति के राजमार्ग के रास्ते गाँव में घुसपैठ कर चुके शहर ने टाट पट्टियों पर बैठकर पढ़ते बच्चे-बच्चियों को ऐसा लुभाया कि सुनहरे कल के सपनों को साकार करने के लिए अपनों को छोड़कर, शहर पहुँच कर छात्रावासों के पिंजरों में कैद हो गए।

कुछ साल बाद कुछ सफलता के मद में और शेष असफलता की शर्म से गाँव से मुँह छिपाकर जीने लगे। कभी कोई आता-जाता गाँववाला किसी से टकरा जाता तो 'राम राम दुआ सलाम' करते हुए समाचार देता तो समाचार न मिलने को कुशल मानने के आदी हो चुके बब्बा घबरा जाते। ये समाचार नए फूल खिलने के कम ही होते थे जबकि चाहे जब खबरें बनती रहती थीं गुल खिलानेवाली हरकतें और टूटती शाखें।
***
मुक्तक
अधरों पर सोहे मुस्कान
नित गाओ कोयल सम गान
हर बाधा पर विजयी हो -
शीश उठा रह सीना तान

१७-८-२०१६

***

राखी गीत
*
बंधनों से मुक्त हो जा
*
बंधनों से मुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
कभी अबला रही बहिना
बने सबला अब प्रखर हो
तोड़ देना वह कलाई
जो अचाहे राह रोके
काट लेना जुबां जो
फिकरे कसे या तुझे टोंके
सासरे जा, मायके से
टूट मत, संयुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
बंधनों से मुक्त हो जा
बलि न तेरे हौसलों को
रीति वामन कर सके अब
इरादों को बाँध राखी
तू सफलता वर सके अब
बाँध रक्षा सूत्र तू ही
ज़िंदगी को ज़िंदगी दे
हो समर्थ-सुयोग्य तब ही
समय तुझको बन्दगी दे
स्वप्न हर साकार करने
कोशिशों के बीज बो जा
नयी फसलें उगाना है
बंधनों से मुक्त हो जा
पूज्य बन जा राम राखी
तुझे बाँधेगा जमाना
सहायक हो बँधा लांबा
घरों में रिश्ते जिलाना
वस्त्र-श्रीफल कर समर्पित
उसे जो सब योग्य दिखता
अवनि की हर विपद हर ले
शक्ति-वंदन विश्व करता
कसर कोई हो न बाकी
दाग-धब्बे दिखे धो जा
शिथिल कर दे नेह-नाते
बंधनों से मुक्त हो जा
१५ अगस्त २०१६
***

गीता गायन

अध्याय १
पूर्वाभास
कड़ी ३.
*
अभ्यास सद्गुणों का नित कर
जीवन मणि-मुक्ता सम शुचि हो
विश्वासमयी साधना सतत
कर तप: क्षेत्र जगती-तल हो
*
हर मन सौंदर्य-उपासक है
हैं सत्य-प्रेम के सब भिक्षुक
सबमें शिवत्व जगता रहता
सब स्वर्ग-सुखों के हैं इच्छुक
*
वे माता वहाँ धन्य होतीं
होती पृथ्वी वह पुण्यमयी
होता पवित्र परिवार व्ही
होती कृतार्थ है वही मही
*
गोदी में किलक-किलक
चेतना विहँसती है रहती
खो स्वयं परम परमात्मा में
आनंद जलधि में जो बहती
*
हो भले भिन्न व्याख्या इसकी
हर युग के नयन उसी पर थे
जो शक्ति सृष्टि के पूर्व व्याप्त
उससे मिलने सब आतुर थे
*
हम नेत्र-रोग से पीड़ित हो
कब तप:क्षेत्र यह देख सके?
जब तक जीवित वे दोष सभी
तब तक कैसा कब लेख सके?
*
संसार नया तब लगता है
संपूर्ण प्रकृति बनती नवीन
हम आप बदलते जाते हैं
हो जाते उसमें आप लीन
*
परमात्मा की इच्छानुसार
जीवन-नौका जब चलती है
तब नये कलेवर के मानव
में, केवल शुचिता पलती है
*
फिर शोक-मुक्त जग होता है
मिलता है उसको नया रूप
बनकर पृथ्वी तब तप:क्षेत्र
परिवर्तित करती निज स्वरूप
*
जीवन प्रफुल्ल बन जाता है
भौतिक समृद्धि जुड़ जाती है
आत्मिक उत्थान लक्ष्य लेकर
जब धर्म-शक्ति मुड़ जाती है
*
है युद्ध मात्र प्रतिशोध बुद्धि
जिसमें हर क्षण बढ़ता
दो तत्वों के संघर्षण में
अविचल विकास क्रम वह गढ़ता
*
कुत्सित कर्मों का जनक यहाँ
अविवेक भयानकतम दुर्मुख
जिससे करना संघर्ष, व्यक्ति का
बन जाता है कर्म प्रमुख
*
कर्मों का गुप्त चित्र अंकित
हो पल-पल मिटता कभी नहीं
कर्मों का फल दें चित्रगुप्त
सब ज्ञात कभी कुछ छिपे नहीं
*
यह तप:क्षेत्र है कुरुक्षेत्र
जिसमें अनुशासन व्याप्त सकल
जिसका निर्णायक परमात्मा
जिसमें है दण्ड-विधान प्रबल
*
बन विष्णु सृष्टि का करता है
निर्माण अनवरत वह पल-पल
शंकर स्वरूप में वह सत्ता
संहार-वृष्टि करता छल-छल
*
'मैं हूँ, मेरा है, हमीं रहें,
ये अहंकार के पुत्र व्यक्त
कल्मष जिसका आधार बना
है लोभ-स्वार्थ भी पूर्व अव्यक्त
*
कुत्सित तत्वों से रिक्त-मुक्त
जस को करना ही अनुशासन
संपूर्ण विश्व निर्मल करने
जुट जाएँ प्रगति के सब साधन
*
कौरव-पांडव दो मूर्तिमंत
हैं रूप विरोधी गतियों के
ले प्रथम रसातल जाती है
दूसरी स्वर्ग को सदियों से
*
आत्मिक विकास में साधक जो
पांडव सत्ता वह ऊर्ध्वमुखी
माया में लिपट विकट उलझी
कौरव सत्ता है अधोमुखी
*
जो दनुज भरोसा वे करते
रथ, अश्वों, शासन, बल, धन का
पर मानव को विश्वास अटल
परमेश्वर के अनुशासन का
*
संघर्ष करें अभिलाषा यह
मानव को करती है प्रेरित
दुर्बुद्धि प्रबल लालसा बने
हो स्वार्थवृत्ति हावी उन्मत
*
हम नहीं जानते 'हम क्या हैं?
क्या हैं अपने ये स्वजन-मित्र?
क्या रूप वास्तविक है जग का
क्या मर्म लिये ये प्रकृति-चित्र?
*
अपनी आँखों में मोह लिये
हम आजीवन चलते रहते
भौतिक सुख की मृगतृष्णा में
पल-पल खुद को छलते रहते
*
जग उठते हममें लोभ-मोह
हबर जाता मन में स्वार्थ हीन
संघर्ष भाव अपने मन का
दुविधा-विषाद बन करे दीन
*
भौतिक सुख की दुर्दशा देख
होता विस्मृत उदात्त जीवन
हो ध्वस्त न जाए वह क्षण में
हम त्वरित त्यागते संघर्षण
*
अर्जुन का विषाद
सुन शंख, तुमुल ध्वनि, चीत्कार
मनमें विषाद भर जाता है
हो जाते खड़े रोंगटे तब
मन विभ्रम में चकराता है
*
हो जाता शिथिल समूचा तन
फिर रोम-रोम जलने लगता
बल-अस्त्र पराये गैर बनकर डँसते
मन युद्ध-भूमि तजने लगता
*
जिनका कल्याण साधना ही
अब तक है रहा ध्येय मेरा
संहार उन्हीं का कैसे-कब
दे सके श्रेय मुझको मेरा?
*
यह परंपरागत नैतिकता
यह समाजगत रीति-नीति
ये स्वजन, मित्र, परिजन सारे
मिट जाएँगे प्रतीक
*
हैं शत्रु हमारे मानव ही
जो पिता-पितामह के स्वरूप
उनका अपना है ध्येय अलग
उनकी आशा के विविध रूप
*
उनके पापों के प्रतिफल में
हम पाप स्वयं यदि करते हैं
तो स्वयं लोभ से हो अंधे
हम मात्र स्वार्थ ही वरते हैं
*
हम नहीं चाहते मिट जाएँ
जग के संकल्प और अनुभव
संतुलन बिगड़ जाने से ही
मिटते कुलधर्म और वैभव
*
फिर करुणा, दया, पुण्य जग में
हो जाएँगे जब अर्थहीन
जिनका अनुगमन विजय करती
होकर प्रशस्ति में धर्मलीन
*
मैं नहीं चाहता युद्ध करूँ
हो भले राज्य सब लोकों का
अपशकुन अनेक हुए देखो
है खान युद्ध दुःख-शोकों का
*
चिंतना हमारी ऐसी ही
ले डूब शोक में जाती है
किस हेतु मिला है जन्म हमें
किस ओर हमें ले जाती है?
*
जीवन पाया है लघु हमने
लघुतम सुख-दुःख का समय रहा
है माँग धरा की अति विस्तृत
सुरसा आकांक्षा रही महा
*
कितना भी श्रम हम करें यहाँ
अभिलाषाएँ अनेक लेकर
शत रूप हमें धरना होंगे
नैया विवेचना की खेकर
*
सीधा-सदा है सरल मार्ग
सामान्य बुद्धि यह कहती है
कर लें व्यवहार नियंत्रित हम
सर्वत्र शांति ही फलती है
*
ज्यों-ज्यों धोया कल्मष हमने
त्यों-त्यों विकीर्ण वह हुआ यहाँ
हम एक पाप धोने आते
कर पाप अनेकों चले यहाँ
*
प्राकृतिक कार्य-कारण का जग
इससे अनभिज्ञ यहाँ जो भी
मानव-मन उसको भँवर जाल
कब समझ सका उसको वह भी
*
है जनक समस्याओं का वह
उससे ही जटिलतायें प्रसूत
जानना उसे है अति दुष्कर
जो जान सका वह है सपूत
*
अधिकांश हमारा विश्लेषण
होता है अतिशय तर्कहीन
अधिकांश हमारी आशाएँ
हैं स्वार्थपूर्ण पर धर्महीन
*
जो मुक्ति नहीं दे सकती हैं
जीवन की किन्हीं दशाओं में
जब तक जकड़े हम रहे फँसे
है सुख मरीचिका जीवन में
*
लगता जैसे है नहीं कोई
मेरा अपना इस दुनिया में
न पिता-पुत्र मेरे अपने
न भाई-बहिन हैं दुनिया में
*
उत्पीड़न की कैसी झाँकी
घन अंधकार उसका नायक
चिंता-संदेह व्याप्त सबमें
एकाकीपन जिसका गायक
*
जब भी होता संघर्ष यहाँ
हम पहुँच किनारे रुक जाते
साहस का संबल छोड़, थकित
भ्रम-संशय में हम फँस जाते
१७-८-२०१५
***