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शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

सॉनेट

सॉनेट 
राग दरबारी
*
मेघ आच्छादित गगन है, रवि न दिखता खोज लाएँ।
लॉकडाउन कर चुनावी भीड़ बन हम गर्व  करते।
खोद कब्रें, हड्डियों को अस्थियाँ कह मार मरते।।
राग दरबारी निरंतर सुनाकर नव वर्ष लाएँ।।

आम्रपाली के पुजारी, आपका बंटी सिरजते।
एक था चंदर सुधा को विवाहे, फिर छोड़ जाए।
थाम सत्ता सुंदरी की बाँह, जाने किसे ध्याए?
अब न दिव्या रही भव्या, चित्रलेखा सँग थिरकते।।

लक्ष्य मुर्दे उखाड़ें परिधान पहना नाम बदलें।
दुश्मनों के हाथ खाकर मात, नव उपलब्धि कह लें।।
असहमत को खोज कुचलें, देख दिल अपनों के दहलें।।

प्रदूषित कर हर नदी, बन अंधश्रद्धा सुमन बह लें।।
जड़ें खोदें रात-दिन, जड़मति न बोलें, अनय सह लें।।
अधर क्या कहते न सुनकर, लाठियाँ को हाथ धर लें।।
१-१-२०२२
***

गुरुवार, 30 दिसंबर 2021

सानेट, गीत, नवगीत, लघुकथा, ठंड, नव वर्ष, रक्त समूह, अल्जाइमर्स, चतुरसेन, दोहा, चित्रगुप्त,

सॉनेट 
अलविदा
*
अलविदा उसको जो जाना चाहता है, तुरत जाए।
काम दुनिया का किसी के बिन कभी रुकता नहीं है?
साथ देना चाहता जो वो कभी थकता नहीं है।।
रुके बेमन से नहीं, अहसान मत नाहक जताए।।

कौन किसका साथ देगा?, कौन कब मुँह मोड़ लेगा?
बिना जाने भी निरंतर कर्म करते जो न हारें।
काम कर निष्काम,खुद को लक्ष्य पर वे सदा वारें।।
काम अपना कर चुका, आगे नहीं वह काम देगा।।

व्यर्थ माया, मोह मत कर, राह अपनी तू चला चल।
कोशिशों के नयन में सपने सदृश गुप-चुप पला चल।
ऊगना यदि भोर में तो साँझ में हँसकर ढला चल।

आज से कर बात, था क्या कल?, रहेगा क्या कहो कल?
कर्म जैसा जो करेगा, मिले वैसा ही उसे फल।।
मुश्किलों की छातियों पर मूँग तू बिन रुक सतत दल।।
३०-१२-२०२१
***
सॉनेट

ठंड

*

ठंड ठिठुरती गर्म सियासत।

स्वार्थ-सिद्धि ही बनी रवायत।

ईश्वर की है बहुत इनायत।।

दंड न देता सुने शिकायत।।




पाँच साल को सत्ता पाकर।

ऐंठ रहे नफरत फैलाकर।

आपन मूँ अपना गुण गाकर।।

साधु असाधु कर्म अपनाकर।।




जला झोपड़ी आग तापते।

मुश्किल से डर दूर भागते।

सच सूली पर नित्य टाँगते।।

झूठ बोलकर वोट माँगते।।




मत मतदान कभी करना बिक।

सदा योग्य पर ही रहना टिक।।

३०-१२-२०२१

***

लघुकथा:
ठण्ड
*
संजीव
बाप रे! ठण्ड तो हाड़ गलाए दे रही है। सूर्य देवता दिए की तरह दिख रहे हैं। कोहरा, बूँदाबाँदी, और बरछी की तरह चुभती ठंडी हवा, उस पर कोढ़ में खाज यह कि कार्यालय जाना भी जरूरी और काम निबटाकर लौटते-लौटते अब साँझ ढल कर रात हो चली है। सोचते हुए उसने मेट्रो से निकलकर घर की ओर कदम बढ़ाए। हवा का एक झोंका गरम कपड़ों को चीरकर झुरझुरी की अनुभूति करा गया।
तभी चलभाष की घंटी बजी, भुनभुनाते हुए उसने देखा, किसी अजनबी का क्रमांक दिखा। 'कम्बख्त न दिन देखते हैं न रात, फोन लगा लेते हैं' मन ही मन में सोचते हुए उसने अनिच्छा से सुनना आरंभ किया- "आप फलाने बोल रहे हैं?" उधर से पूछा गया।
'मेरा नंबर लगाया है तो मैं ही बोलूँगा न, आप कौन हैं?, क्या काम है?' बिना कुछ सोचे बोल गया। फिर आवाज पर ध्यान गया यह तो किसी महिला का स्वर है। अब कडुवा बोल जाना ख़राब लग रहा था पर तोप का गोला और मुँह का बोला वापिस तो लिया नहीं जा सकता।
"अभी मुखपोथी में आपकी लघुकथा पढ़ी, बहुत अच्छी लगी, उसमें आपका संपर्क मिला तो मन नहीं माना, आपको बधाई देना थी। आम तौर पर लघुकथाओं में नकली व्यथा-कथाएँ होती हैं पर आपकी लघुकथा विसंगति इंगित करने के साथ समन्वय और समाधान का संकेत भी करती है। यही उसे सार्थक बनाता है। शायद आपको असुविधा में डाल दिया... मुझे खेद है।"
'अरे नहीं नहीं, आपका स्वागत है.... ' दाएँ-बाएँ देखते हुए उसने सड़क पार कर गली की ओर कदम बढ़ाए। अब उसे नहीं चुभ रही थी ठण्ड।
***
एक कुण्डलिया : दो कवि
तन को सहलाने लगी, मदमाती सी धूप
सरदी हंटर मारती, हवा फटकती सूप -शशि पुरवार
हवा फटकती सूप, टपकती नाक सर्द हो
हँसती ऊषा कहे, मर्द को नहीं दर्द हो
छोड़ रजाई बँधा, रहा है हिम्मत मन को
लगे चंद्र सा, सूर्य निहारे जब निज तन को - संजीव
***
बैठे-ठाले
रक्तसमूह और आप
ए + = अच्छे नायक, नेता
ए - = परिश्रमी
बी + = त्याग
बी - = स्वार्थी, स्वकेन्द्रित, अड़ियल
ओ + = परोपकारी, मददगार
ओ - = संकीर्ण दृष्टि
एबी + = जटिल, कठिन
एबी - = मेधावी
३०-१२-२०२१
***
छंद क्या है?
*
छंद क्या है?
छंद रस है,
रस बिना नीरस न होना
निराशा में पथ न खोना
चीरकर तम, कर उजाला
जागरण का गान होना
*
छंद क्या है?
छंद लय है
प्राणप्रद गंधित मलय है
सत्य में शिव का विलय है
सत्य सुंदर तभी शिव है
असुंदर के हित प्रलय है
*
छंद क्या है?
छंद ध्वनि है
नाद अनहद सृष्टि रचता
वीतरागी सतत भजता
डूब रागी गा-बजाता
शब्द सार्थक हो हुलसता
*
छंद क्या है?
छंद जग है
कथ्य कहता हुआ पग है
खुशी वरता हुआ डग है
कभी कलकल; कभी कलरव
दर्द पर विजयी सुमग है
*
छंद क्या है?
छंद जय है
सर्वहित की बात बोले
स्वार्थ विष किंचित् न घोले
अमिय औरों को पिलाए
नीलकंठी अभय डोले
*
छंद रस है
छंद लय है
छंद ध्वनि है
छंद जग है
छंद जय है
२९-१२-२०१९
***
गीत :
*
सत्रह साला
सदी हुई यह
*
सपनीली आँखों में आँसू
छेड़ें-रेपें हरदिन धाँसू
बहू कोशिशी झुलस-जल रही
बाधा दियासलाई सासू
कैरोसीन ननदिया की जय
माँग-दाँव पर
लगी हुई सह
सत्रह साला
सदी हुई यह
*
मालिक फटेहाल बेचारा
नौकर का है वारा-न्यारा
जीना ही दुश्वार हुआ है
विधि ने अपनों को ही मारा
नैतिकता का पल-पल है क्षय
भाँग चाशनी
पगी हुई कह
सत्रह साला
सदी हुई यह
*
रीत पुरातन ज्यों की त्यों है
मत पूछो कैसी है?, क्यों है?
कहीं बोलता है सन्नाटा
कहीं चुप्प बैठी चिल्ल-पों है
अँधियारे की दीवाली में
ज्योति-कालिमा
सगी हुई ढह
सत्रह साला
सदी हुई यह
***
***
नवगीत
*
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
वही रफ़्तार बेढंगी
जो पहले थी, सो अब भी है
दिशा बदले न गति बदले
निकट हो लक्ष्य फिर कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
हरेक चेहरा है दोरंगी
न मेहनत है, न निष्ठा है
कहें कुछ और कर कुछ और
अमिय हो फिर गरल कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
हुई सद्भाव की तंगी
छुरी बाजू में मुख में राम
धुआँ-हल्ला दसों दिश है
कहीं हो अमन फिर कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
३०-१२-२०१७

***
एक रचना
*
मचा महाभारत भारत में, जन-गण देखें ताली पीट
दहशत में हैं सारे नेता, कैसे बचे पुरानी सीट?
हुई नोटबंदी, पैरों के नीचे, रही न हाय जमीन
कौन बचाए इस मोदी से?, नींद निठुर ने ली है छीन
पल भर चैन न लेता है खुद, दुनिया भर में करता धूम
कहे 'भाइयों-बहनों' जब भी, तभी सफलता लेता चूम
कहाँ गए वे मौनी बाबा?, घपलों-घोटालों का राज
मनमानी कर जोड़ी दौलत, घूस बटोरी तजकर लाज
हाय-हाय हैं कैसे दुर्दिन?, छापा पड़ता सुबहो-शाम
चाल न कोई काम आ रही, जब्त हुआ सब धन बेदाम
जन-धन खातों में डाला था, रूपया- पीट रहे अब माथ
स्वर्ण ख़रीदा जाँच हो रही, बैठ रहा दिल खाली हाथ
पत्थर फेंक करेगा दंगा, कौन बिना धन? पिट रइ गोट
नकली नोट न रहे काम के, रोज पड़े चोटों पर चोट
ताले तोड़ आयकरवाले, खाते-बही कर रहे जब्त
कर चोरी की पोल खोलते, रिश्वत लेंय न कैसी खब्त?
बेनामी संपत्ति बची थी, उस पर ली है नजर जमाय
हाय! राम जी-भोले बाबा, हनुमत कहूँ न राह दिखाय
छोटे नोट दबाये हमीं ने, जनता को है बेहद कष्ट
चूं न कर रहा फिर भी कोई, समय हो रहा चाहे नष्ट
लगे कतारों में हैं फिर भी, कहते नीति यही है ठीक
शायर सिंह सपूत वही जो, तजे पुरानी गढ़ नव लीक
पटा लिया कुछ अख़बारों को, चैनल भरमाते हैं खूब
दोष न माने फिर भी जनता, लुटिया रही पाप की डूब
चचा-भतीजे आपस में भिड़, मोदी को करते मजबूत
बंद बोलती माया की भी, ममता को है कष्ट अकूत
पाला बदल नितिश ने मारा, दाँव न लालू जाने काट
बोल थके है राहुल भैया, खड़ी हुई मैया की खाट
जो मैनेजर ललचाये थे, उन पर भी गिरती है गाज
फारुख अब्दुल्ला बौराया, कमुनिस्टों का बिगड़ा काज
भूमि-भवन के भाव गिर रहे, धरे हाथ पर हाथ सुनार
सेठ अफसरों नेताओं के ठाठ, न बाकी- फँसे दलाल
रो-रो सूख रहे हैं आँसू, पिचक गए हैं फूले गाल
जनता जय-जयकार कर रही, मोदी लिखे नाता इतिहास
मन मसोस दिन-रात रो रहे, घूसखोर सब पाकर त्रास
३०-१२-२०१६
***
नव वर्ष गीत :
*
सोलह साला
सदी हुई यह
*
सपनीली आँखों में आँसू
छेड़ें-रेपें हरदिन धाँसू
बहू कोशिशी झुलस-जल रही
बाधा दियासलाई सासू
कैरोसीन ननदिया की जय
माँग-दाँव पर
लगी हुई सह
सोलह साला
सदी हुई यह
*
मालिक फटेहाल बेचारा
नौकर का है वारा-न्यारा
जीना ही दुश्वार हुआ है
विधि ने अपनों को ही मारा
नैतिकता का पल-पल है क्षय
भाँग चाशनी
पगी हुई कह
सोलह साला
सदी हुई यह
*
रीत पुरातन ज्यों की त्यों है
मत पूछो कैसी है?, क्यों है?
कहीं बोलता है सन्नाटा
कहीं चुप्प बैठी चिल्ल-पों है
अंधियारे की दिवाली में
ज्योति-कालिमा
सगी हुई ढह
सोलह साला
सदी हुई यह
***

नवगीत
*
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
वही रफ़्तार बेढंगी
जो पहले थी, सो अब भी है
दिशा बदले न गति बदले
निकट हो लक्ष्य फिर कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
हरेक चेहरा है दोरंगी
न मेहनत है, न निष्ठा है
कहें कुछ और कर कुछ और
अमिय हो फिर गरल कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
हुई सद्भाव की तंगी
छुरी बाजू में मुख में राम
धुआँ-हल्ला दसों दिश है
कहीं हो अमन फिर कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
३०-१२-२०१५
***
संस्मरण
।। पुरस्कार यदि काट न खाय तो ।।
‘'सम्भवतः पहली कहानी लिखकर दुलारेलाल भार्गव को लखनऊ भेजी। ‘सुधा’ उन्होंने तब निकाली ही थी, एक दिन मुझे उनका पोस्टकार्ड मिला। लिखा था - आपको यदि नागवार न गुजरे तो हम कहानी का पुरस्कार आपको देना चाहते हैं। पाठक मेरी खुशी का अनुमान न लगा सकेंगे। यह एक ऐसी आमदनी का सीधा रास्ता खुल रहा था, जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। अब तक तो मैं इसी में खुश था कि मेरी रचनाएं छप रही हैं। तब तक मैं ‘प्रताप’ कानपुर में ही लेख भेजता था, पर उसने कभी एक धेला भी पारिश्रमिक नहीं दिया था।
अतः मैंने कार्ड का तुरन्त उत्तर दिया कि- ‘पुरस्कार यदि काट न खाय तो मुझे किसी हालत में उसका भेजा जाना नागवार न गुजरेगा।’ कुछ दिन बाद ही ५ रूपये का मनीआर्डर मिला। उस दिन मैंने सपत्नीक जश्न मनाया और कई दिन तक उन पांच रूपयों का हम लोगों को नशा-सा रहा।’'
- आचार्य चतुरसेन शास्त्री
***
अल्ज़ाइमर्स की दवा का अमरीकी पेटेंट बीएचयू को
मनीष कुमार मिश्रा
बीएचयू अल्ज़ाइमर्स पेटेंट
काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) को अल्ज़ाइमर की दवा बनाने का अमरीकी पेटेंट हासिल हुआ है.
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के चिकित्सा विज्ञान संस्थान के आयुर्वेद विभाग को यह अमरीकी पेटेंट हासिल हुआ है.
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टॉपिकभारत
अल्ज़ाइमर्स बुढ़ापे में होने वाली बीमारी. इसमें यादाश्त चली जाती है. उम्र बढ़ने के साथ ही इसका दुष्प्रभाव भी बढ़ता जाता है.
आयुर्वेद विभाग के प्रमुख डॉ गोविंद प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि भारत में परंपरागत रूप से औषधीय गुणों वाले पौधौं से दवा बनाने का काम किया जाता रहा है.
इन्हीं परंपरागत औषधियों को आधार बनाकर विभाग ने ब्राह्मी कल्प, वराही कल्प और अम्ल वेतक नाम से अल्ज़ाइमर, पार्किंसन और बुढ़ापे को कम करने वाली दवाएं विकसित की गई हैं.
डॉ गोविंद के अनुसार इन तीनों दवाओं का अमरीका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की स्टैंडर्ड लैबोरेट्री में परीक्षण कर इन्हें प्रमाणित किया गया है.
ब्राम्ही कल्प, वराही कल्प और अम्ल वेतक आयुर्वेदिक दवाओं का अमरीका की फ़ेडरल ड्रग एजेंसी (एफ़डीए) द्वारा मान्य प्रयोगशाला में परीक्षण भी किया गया.
बिज़नेस प्लानबीएचयू अल्ज़ाइमर्स पेटेंट
बीएचयू की दवाइयों का जापान और ऑस्ट्रेलिया की लैब में भी परीक्षण किया गया.
डॉ गोविंद ने बताया कि इन दवाओं के चिकित्सकीय परीक्षण के लिए चार संस्थानों को अधिकृत किया गया है. ये हैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू), एसआरएम यूनिवर्सिटी, आदेश यूनिवर्सिटी- भटिंडा और जिनोम फ़ाउंडेशन- हैदराबाद.
इन चार संस्थानों ने चेन्नई के अरविंद रेमेडीज़ लिमिटेड के साथ इन तीनों दवाओं की ग्लोबल मार्केटिंग के लिए समझौता किया है.
अरविंद रेमेडीज़ लिमिटेड अमरीका की फ़ेडरल ड्रग एजेंसी से अनुमति, प्रमाणन और प्रायोजन के साथ सभी ख़र्च वहन करने के लिए सहमत हो गई है.
अरविंद रेमेडीज़ लिमिटेड बीएचयू और अन्य सहयोगी संगठनों में दवा के निर्माण के लिए धन उपलब्ध करवाएगी.
इसके संबंध में फ़ैसला बीएचयू के वाइस चांसलर पद्मश्री लालजी सिंह की अध्यक्षता में हुई बिज़नेस सेल की मीटिंग में लिया गया.
डॉ गोविंद कहते हैं कि ये दवाएं अल्ज़ाइमर, पार्किंसन और बुढ़ापे के असर को कम करने के अलावा अवसाद, अनिद्रा और स्मरण शक्ति के कमज़ोर होने पर प्रयोग में लाई जा सकती है.
वो दावा करते हैं कि इन दवाओं के प्रयोग का शरीर पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा.


डॉ गोविंद कहते हैं कि इन दवाओं के बाज़ार में आ जाने से इन बीमारियों के मरीज़ों और उनके परिजनों को काफ़ी राहत मिलेगी.
आभार शीला मदान (गुड्डो दादी)
२९-१२-२०१३
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दोहा सलिला:
पौधरोपण कीजिए
संजीव
*
पौधारोपण कीजिए, शुद्ध हो सके वायु
जीवन जियें निरोग सब, मानव हो दीर्घायु
*
एक-एक ग्यारह हुए, विहँसे बारह मास
तेरह पग चलकर हरें, 'सलिल' सभी संत्रास
*
मैं-तुम मिल जब हम हुए, मंज़िल मिली समीप
हों अनेक जब एक तो, तम हरते बन दीप
*
चेतन जब चैतन्य हो, तब होता संजीव
अंतर्मन शतदल सदृश, खिल होता राजीव
*
विजय-पराजय से रहे, जब अंतर्मन दूर
प्रभु-कीर्तन पल-पल करे, श्वासों का संतूर
*
जब तक रीतेगा नहीं, आकांक्षा का कोष
जब तक पायेगा नहीं, अंतर्मन संतोष
*
नित लाती है रवि-किरण, दिनकर का पैगाम
लाली आती उषा के, गालों पर सुन नाम
*
आशीषों की रोटरी, कोशिश की हो राह
वाह परिश्रम की करें, मन में पले न डाह
*
अंकुर पल्लव पौध ही, बढ़ बनते उद्यान
संरक्षण पा ओषजन, से दें जीवन दान
३०-१२-२०१३
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लेख - चित्रगुप्त रहस्य
चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं
परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्ण देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है:
''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.''
अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं. आत्मा क्या है? सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके लिए पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के लिए नहीं।
चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं
सभी जानते हैं कि आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं।
चित्रगुप्त पूर्ण हैं
अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आराम तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। इसी का पूजन कायस्थ जन करते हैं।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
*
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा।
चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण हैं
चित्रगुप्त निराकार ही नहीं निर्गुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिए वे साकार-सगुण रूप में प्रगट होते हैं। आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं।
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह।
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।।
*
परमब्रम्ह के अंश कर, कर्म भोग परिणाम
जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।।
कर्म ही वर्ण का आधार
श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः' अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं। स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं हो था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिए मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया।
चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वन हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह कहने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं। चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं। सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है।मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं।
सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य:
आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में परतो पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना। यम द्वितीय पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिए 'ॐ' को श्रृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिए उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।
बहुदेव वाद की परंपरा
इसके नीचे कुछ श्री के साथ देवी-देवताओं के नाम लिखे जाते हैं, फिर दो पंक्तियों में 9 अंक इस प्रकार लिखे जाते हैं कि उनका योग 9 बार 9 आये। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठाई जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें। प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु के साकार होकर सृष्टि के कल्याण के लिए विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है। सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये।
पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य
निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में
अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम की पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियां अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन व्यवसायिक कार्य न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है।
'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है।
उदारता तथा समरसता की विरासत


यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वतीसभी का पूजन किया जाता है। आर्य समाज, साईं बाबा, युग निर्माण योजना आदि हर रचनात्मक मंच पर कायस्थ योगदान करते मिलते हैं।

***

बिदाई गीत:
अलविदा दो हजार दस...

*

अलविदा दो हजार दस
स्थितियों पर
कभी चला बस
कभी हुए बेबस.


अलविदा दो हजार दस...

तंत्र ने लोक को कुचल
लोभ को आराधा.
गण पर गन का
आतंक रहा अबाधा.
सियासत ने सिर्फ
स्वार्थ को साधा.
होकर भी आउट न हुआ
भ्रष्टाचार पगबाधा.
बहुत कस लिया
अब और न कस.
अलविदा दो हजार दस...

लगता ही नहीं, यही है
वीर शहीदों और
सत्याग्रहियों की नसल.
आम्र के बीज से
बबूल की फसल.
मंहगाई-चीटी ने दिया
आवश्यकता-हाथी को मसल.
आतंकी-तिनका रहा है
सुरक्षा-पर्वत को कुचल.
कितना धँसेगा?
अब और न धँस.

अलविदा दो हजार दस...
३०-१२-२०१०

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बुधवार, 29 दिसंबर 2021

माहिया, कुण्डलिया, कायस्थ, चित्रगुप्त, छंद-बह्र, लघुकथा, मुक्तिका,

हाइकु
*
समय ग्रंथ 
एक बार फिर से
पलटा पन्ना।
*
हरेक वर्ष 
आता है यह दिन
मनाओ हर्ष।
*
हर पल हो
सत-शिव-सुंदर 
सुख दे साल।
*
हैलो डिअर!
विदाउट फिअर
हो न्यू इयर।
*
डूबता सूर्य 
इक्कीस है बाईस
ऊगता सूर्य।
२९-१२-२०२१
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त्रिपदियाँ, तसलीस, माहिया
*
नोटा मन भाया है,
क्यों कमल चुनें बोलो?
अब नाथ सुहाया है।
*
तुम मंदिर का पत्ता
हो बार-बार चलते
प्रभु को भी तुम छलते।
*
छप्पन इंची छाती
बिन आमंत्रण जाकर
बेइज्जत हो आती।
*
राफेल खरीदोगे,
बिन कीमत बतलाये
करनी भी भोगोगे।
*
पंद्रह लखिया किस्सा
भूले हो कह जुमला
अब तो न चले घिस्सा।
*
वादे मत बिसराना,
तुम हारो या जीतो-
ठेंगा मत दिखलाना।
*
जनता भी सयानी है,
नेता यदि चतुर तो
यान उनकी नानी है।
*
कर सेवा का वादा,
सत्ता-खातिर लड़ते-
झूठा है हर दावा।
*
पप्पू का था ठप्पा,
कोशिश रंग लाई है
निकला सबका बप्पा।
*
औंधे मुँह गर्व गिरा,
जुमला कह वादों को
नज़रों से आज गिरा।
*
रचना न चुराएँ हम,
लिखकर मौलिक रचना
निज नाम कमाएँ हम।
*
गागर में सागर सी
क्षणिका लघु, अर्थ बड़े-
ब्रज के नटनागर सी।
*
मन ने मन से मिलकर
उन्मन हो कुछ न कहा-
धीरज का बाँध ढहा।
*
है किसका कौन सगा,
खुद से खुद ने पूछा?
उत्तर जो नेह-पगा।
*
तन से तन जब रूठा,
मन, मन ही मन रोया-
सुनकर झूठी-झूठा।
*
तन्मय होकर तन ने,
मन-मृण्मय जान कहा-
क्षण भंगुर है दुनिया।
*
कार्यशाला:
दोहा - कुण्डलिया
*
नवल वर्ष इतना करो, हम सब पर उपकार।
रोटी कपड़ा गेह पर, हो सबका अधिकार।। -सरस्वती कुमारी, ईटानगर
हो सबका अधिकार, कि वह कर्तव्य कर सके।
हिंदी से कर प्यार सत्य का पंथ वर सके।।
चमड़ी देखो नहीं, गुणों से प्यार सब करो।
नवल वर्ष उपकार, हम सब पर इतना करो।। -संजीव, जबलपुर
२९-१२-२०१८
***
उपनिषद कहते हैं-
यक्ष प्रश्न १. चित्रगुप्त जी केवल कायस्थों के देवता कैसे हैं?
'काया स्थिते स: कायस्थ:' अर्थात जब वह (निराकार परमात्मा) काया में (आत्मा रूप में) स्थित होता है तो कायस्थ कहलाता है।
यक्ष प्रश्न २. चित्रगुप्त जी सभी जातियों के देवता क्यों नहीं हैं?
चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानम सर्व देहिनाम' अर्थात सभी देहधारियों में आत्मा रूप में बसे चित्रगुप्त (चित्र आकार से बनता है, चित्र गुप्त है अर्थात नहीं है क्योंकि परमात्मा निराकार है) को सबसे पहले प्रणाम।
इसीलिए सशक्त और समृद्ध होने पर भी वैदिक काल से १०० वर्ष पूर्व तक चित्रगुप्त जी के मंदिर, मूर्ति, पुराण, कथा, आरती, भजन, व्रत आदि नहीं बनाये गए। स्वयं को चित्रगुप्त का वारिस माननेवाला समुदाय गणेश, शिव, शक्ति, विष्णु, बुद्ध, महावीर, आर्य समाज, युगनिर्माण योजना, साई बाबा आदि का अनुयायी होता रहा। कण-कण में भगवान् और कंकर कंकर में शंकर के आदि सत्य को स्वीकार कर देश और समाज के प्रति समर्पित रहा। अब अन्यों की नकल पर ये भी मंदिर, मूर्ति और जन्मना जातीयता के शिकार क्यों हो रहे हैं?
यक्ष प्रश्न ३. जात का अर्थ क्या है?
जब कोई भद्र दिखनेवाला मनुष्य गिरी हुई हरकत करे तो कहते हैं 'जात दिखा गया। बुंदेली कहावत 'जात दिखा गया' का अर्थ है अपनी सचाई (असलियत) दिखा गया।
जात कर्म अर्थात जन्म देने कई क्रिया (गर्भ में छिपी सचाई सामने आना), जातक जन्म लेनेवाला शिशु, जाया जन्म दिया, जच्चा जन्मदात्री, जाना बच्चा देना, जगतजननी का एक नाम 'जाया' (जिसने सबको जन्म दिया) भी है।
यक्ष प्रश्न ४. क्या जात और जाति समानार्थी हैं?
जाति अर्थात एक जैसे गुण-धर्म के लोग, जिनमें समानता हो ऐसा समूह। जाट और जाति का अर्थ लगभग समान है।
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कार्यशाला- छंद बहर का मूल है- २.​​
उर्दू की १९ बहरें २ समूहों में वर्गीकृत की गयी हैं।
१. मुफरद बहरें-
इनमें एक ही अरकान या लय-खण्ड की पुनरावृत्ति होती है।
इनके ७ प्रकार (बहरे-हज़ज सालिम, बहरे-ऱज़ज सालिम, बहरे-रमल सालिम, बहरे-कामिल, बहरे-वाफिर, बहरे-मुतक़ारिब तथा बहरे-मुतदारिक) हैं।
२. मुरक्कब बहरें-
इनमें एकाधिक अरकान या लय-खण्ड मिश्रित होते हैं।
इनके १२ प्रकार (बहरे-मनसिरह, बहरे-मुक्तज़िब, बहरे-मुज़ारे, बहरे-मुजतस, बहरे-तवील, बहरे-मदीद, बहरे-बसीत, बहरे-सरीअ, बहरे-ख़फ़ीफ़, बहरे-जदीद, बहरे-क़रीब तथा बहरे-मुशाकिल) हैं।
*
ख. बहरे-मनसिरह
बहरे-मनसिरह मुसम्मन मतवी मक़सूफ़-
शायरों ने इस बहर का प्रयोग बहुत कम किया है। इसके अरकान 'मुफ़तइलुन फ़ाइलुन मुफ़तइलुन फ़ाइलुन' (मात्राभार ११११२ २१२ ११११२ २१२) हैं।
यह १६ वर्णीय अथाष्टिजातीय छंद है जिसमें ८-८ पर यति तथा पदांत में रगण (२१२) का विधान है।
यह २२ मात्रिक महारौद्र जातीय छंद है जिसमें ११-११ मात्राओं पर यति तथा पदांत में २१२ है।
उदाहरण-
१.
जब-जब जो जोड़ते, तब-तब वो छोड़ते
कर-कर के साथ हैं, पग-पग को मोड़ते
कर कुछ तू साधना, कर कुछ आराधना
जुड़-जुड़ जाता वही, जिस-जिस को तोड़ते
२.
निकट हमें देखना, सजन सुखी लेखना
सजग रहो हो कहीं, सलवट की रेख ना
उर्दू व्याकरण के अनुसार गुरु के स्थान पर २ लघु या दो लघु के स्थान पर गुरु मात्रा का प्रयोग करने पर छंद का वार्णिक प्रकार बदल जाता है जबकि मात्रिक प्रकार तभी बदलता है जब यह सुविधा पदांत में ली गयी हो। हिंदी पिंगल-नियम यह छूट नहीं देते। उर्दू का एक उदाहरण देखें-
१.
यार को क़ा/सिद मिरे/जाके अगर/देखना
मेरी तरफ/से भी तू/ एक नज़र/देखना
(सन्दर्भ ग़ज़ल रदीफ़-काफ़िया और व्याकरण, डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल')
२९-१२-२०१६
***
लघुकथा:
करनी-भरनी
*
अभियांत्रिकी महाविद्यालय में परीक्षा का पर्यवेक्षण करते हुए शौचालयों में पुस्तकों के पृष्ठ देखकर मन विचलित होने लगा। अपना विद्यार्थी काल में पुस्तकों पर आवरण चढ़ाना, मँहगी पुस्तकों की प्रति तैयार कर पढ़ना, पुस्तकों में पहचान पर्ची रखना ताकि पन्ने न मोड़ना पड़े, वरिष्ठ छात्रों से आधी कीमत पर पुस्तकें खरीदना, पढ़ाई कर लेने पर अगले साल कनिष्ठ छात्रों को आधी कीमत पर बेच अगले साल की पुस्तकें खरीदना, पुस्तकालय में बैठकर नोट्स बनाना, आजीवन पुस्तकों में सरस्वती का वास मानकर खोलने के पूर्व नमन करना, धोखे से पैर लग जाए तो खुद से अपराध हुआ मानकर क्षमाप्रार्थना करना आदि याद हो आया।
नयी खरीदी पुस्तकों के पन्ने बेरहमी से फाड़ना, उन्हें शौच पात्रों में फेंक देना, पैरों तले रौंदना क्या यही आधुनिकता और प्रगतिशीलता है?
रंगे हाथों पकड़ेजानेवालों की जुबां पर गिड़गड़ाने के शब्द पर आँखों में कहीं पछतावे की झलक नहीं देखकर स्तब्ध हूँ। प्राध्यापकों और प्राचार्य से चर्चा में उन्हें इसकी अनदेखी करते देखकर कुछ कहते नहीं बनता। उनके अनुसार वे रोकें या पकड़ें तो उन्हें जनप्रतिनिधियों, अधिकारियों या गुंडों से धमकी भरे संदेशों और विद्यार्थियों के दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है। तब कोई साथ नहीं देता। किसी तरह परीक्षा समाप्त हो तो जान बचे। उपाधि पा भी लें तो क्या, न ज्ञान होगा न आजीविका मिलेगी, जैसा कर रहे हैं वैसा ही भरेंगे।
२९-१२-२०१५
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समस्यापूर्ति:
अना की चादर उतार फेंके, मुहब्बतों के चलन में आये
मुक्तिका
*
मिले झुकाये पिया निगाहें, लगा कि चन्दा गहन में आये
बसी बसायी लुटी नगरिया, अमावसी तम सहन में आये
उठी निगाहें गिरी बिजुरिया, न चाक हो दिल तो फिर करे क्या?
मिली नज़रिया छुरी चल गयी, सजन सनम के नयन में आये
समा नज़र में गयी है जबसे, हसीन सूरत करार गम है
पलक किनारे खुले रह गये, करूँ बंद तो सपन में आये
गया दिलरुबा बजा दिलरुबा, न राग जानूँ न रागिनी ही
कहूँ किस तरह विरह न भये, लगन लगी कब लगन में आये
जुदा किया क्यों नहीं बताये?, जुदा रखा ना गले लगाये
खुद न चाहे कभी खुदाया, भुला तेरा दर सदन में आये
छिपा न पाये कली बेकली, भ्रमर गीत जब चमन में गाये
एना की चादर उतार फेंके, मुहब्बतों के चलन में आये
अनहद छेड़ूँ अलस्सुबह, कर लिए मंजीरा सबद सुनाऊँ
'सलिल'-तरंगें कलकल प्रवाहित, मनहर छवि हर-भजन में आये
२९-१२-२०१३
***

मंगलवार, 28 दिसंबर 2021

लेख:गीति-काव्य में छंदों की उपयोगिता और प्रासंगिकता / गीत, नवगीत तथा नई कविता

आलेख:
गीति-काव्य में छंदों की उपयोगिता और प्रासंगिकता / गीत, नवगीत तथा नई कविता
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भूमिका: ध्वनि और भाषा
अध्यात्म, धर्म और विज्ञान तीनों सृष्टि की उत्पत्ति नाद अथवा ध्वनि से मानते हैं। सदियों पूर्व वैदिक ऋषियों ने ॐ से सृष्टि की उत्पत्ति बताई, अब विज्ञान नवीनतम खोज के अनुसार सूर्य से नि:सृत ध्वनि तरंगों का रेखांकन कर उसे ॐ के आकार का पा रहे हैं। ऋषि परंपरा ने इस सत्य की प्रतीति कर सर्व सामान्य को बताया कि धार्मिक अनुष्ठानों में ध्वनि पर आधारित मंत्रपाठ या जप ॐ से आरम्भ करने पर ही फलता है। यह ॐ परब्रम्ह है, जिसका अंश हर जीव में जीवात्मा के रूप में है। नव जन्मे जातक की रुदन-ध्वनि बताती है कि नया प्राणी आ गया है जो आजीवन अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्ति ध्वनि के माध्यम से करेगा। आदि मानव वर्तमान में प्रचलित भाषाओँ तथा लिपियों से अपरिचित था। प्राकृतिक घटनाओं तथा पशु-पक्षियों के माध्यम से सुनी ध्वनियों ने उसमें हर्ष, भय, शोक आदि भावों का संचार किया। शांत सलिल-प्रवाह की कलकल, कोयल की कूक, पंछियों की चहचहाहट, शांत समीरण, धीमी जलवृष्टि आदि ने सुख तथा मेघ व तङित्पात की गड़गड़ाहट, शेर आदि की गर्जना, तूफानी हवाओं व मूसलाधार वर्ष के स्वर ने उसमें भय का संचार किया। इन ध्वनियों को स्मृति में संचित कर, उनका दोहराव कर उसने अपने साथियों तक अपनी अनुभूतियाँ सम्प्रेषित कीं। यही आदिम भाषा का जन्म था। वर्षों पूर्व पकड़ा गया भेड़िया बालक भी ऐसी ही ध्वनियों से शांत, भयभीत, क्रोधित होता देखा गया था।

कालांतर में सभ्यता के बढ़ते चरणों के साथ करोड़ों वर्षों में ध्वनियों को सुनने-समझने, व्यक्त करने का कोष संपन्न होता गया। विविध भौगोलिक कारणों से मनुष्य समूह पृथ्वी के विभिन्न भागों में गये और उनमें अलग-अलग ध्वनि संकेत विकसित और प्रचलित हुए जिनसे विविध भाषाओँ तथा बोलिओं का विकास हुआ। सुनने-कहने की यह परंपरा ही श्रुति-स्मृति के रूप में सहस्त्रों वर्षों तक भारत में फली-फूली। भारत में मानव कंठ में ध्वनि के उच्चारण स्थानों की पहचान कर उनसे उच्चरित हो सकनेवाली ध्वनियों को वर्गीकृत कर शुद्ध ध्वनि पर विशेष ध्यान दिया गया। इन्हें हम स्वर के तीन वर्ग हृस्व, दीर्घ व् संयुक्त तथा व्यंजन के ६ वर्गों क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग, य वर्ग आदि के रूप में जानते हैं। अब समस्या इस मौखिक ज्ञान को सुरक्षित रखने की थी ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी उसे सही तरीके से पढ़ा-सुना तथा सही अर्थों में समझा-समझाया जा सके। निराकार ध्वनियों का आकार या चित्र नहीं था, जिस शक्ति के माध्यम से इन ध्वनियों के लिये अलग-अलग संकेत मिले उसे आकार या चित्र से परे मानते हुए चित्रगुप्त संज्ञा दी जाकर ॐ से अभिव्यक्त कर ध्वन्यांकन के अपरिहार्य उपादानों असि-मसि तथा लिपि का अधिष्ठाता कहा गया। इसीलिए वैदिक काल से मुग़ल काल तक धर्म ग्रंथों में चित्रगुप्त का उल्लेख होने पर भी उनका कोई मंदिर, पुराण, उपनिषद, व्रत, कथा, चालीसा, त्यौहार आदि नहीं बनाये गये।

निराकार का साकार होना, अव्यक्त का व्यक्त होना, ध्वनि का लिपि, लेखनी, शिलापट के माध्यम से स्थयित्व पाना और सर्व साधारण तक पहुँचना मानव सभ्यता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है। किसी भी नयी पद्धति का परंपरावादियों द्वारा विरोध किया ही जाता है। लिपि द्वारा ज्ञान को संचित करने का विरोध हुआ ही होगा और तब ऐसी-मसि-लिपि के अधिष्ठाता को कर्म देवता कहकर विरोध का शमन किया गया। लिपि का विरोध अर्थात अंत समय में पाप-पुण्य का लेख रखनेवाले का विरोध कौन करता? आरम्भ में वनस्पतियों की टहनियों को पैना कर वनस्पतियों के रस में डुबाकर शिलाओं पर संकेत अंकित-चित्रित किये गये। ये शैल-चित्र तत्कालीन मनुष्य की शिकारादि क्रियाओं, पशु-पक्षी आदि सहचरों से संबंधित हैं। इनमें प्रयुक्त संकेत क्रमश: रुढ़, सर्वमान्य और सर्वज्ञात हुए। इस प्रकार भाषा के लिखित रूप लिपि (स्क्रिप्ट) का उद्भव हुआ। लिप्यांकन में प्रवीणता प्राप्त ब्राम्हण-कायस्थ वर्ग को समाज, शासन तथा प्रशासन में सर्वोच्च स्थान सहस्त्रों वर्षों तक प्राप्त हुआ। ध्वनि के उच्चारण तथा अंकन का विज्ञानं विकसित होने से शब्द-भंडार का समृद्ध होना, शब्दों से भावों की अभिव्यक्ति कर सकना तथा इसके समानांतर लिपि का विकास होने से ज्ञान का आदान-प्रदान, नव शोध और सकल मानव जीवन व संस्कृति का विकास संभव हो सका।

रोचक तथ्य यह भी है कि मौसम, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, तथा वनस्पति ने भी भाषा और लिपि के विकास में योगदान किया। जिस अंचल में पत्तों से भोजपत्र और टहनियों या पक्षियों के पंखों कलम बनायीं जा सकी वहाँ मुड्ढे (अक्षर पर आड़ी रेखा) युक्त लिपि विकसित हुई जबकि जहाँ ताड़पत्र पर लिखा जाता था वहाँ मुड्ढा खींचने पर उसके चिर जाने के कारण बिना मुड्ढे वाली लिपियाँ विकसित हुईं। क्रमश: उत्तर व दक्षिण भारत में इस तरह की लिपियों का अस्तित्व आज भी है। मुड्ढे हीन लिपियों के अनेक प्रकार कागज़ और कलम की किस्म तथा लिखनेवालों की अँगुलियों क्षमता के आधार पर बने। जिन क्षेत्रों के निवासी वृत्ताकार बनाने में निपुण थे वहाँ की लिपियाँ तेलुगु, कन्नड़ , बांग्ला, उड़िया आदि की तरह हैं जिनके अक्षर किसी बच्चे को जलेबी-इमरती की तरह लग सकते हैं। यहाँ बनायी जानेवाली अल्पना, रंगोली, चौक आदि में भी गोलाकृतियाँ अधिक हैं। यहाँ के बर्तन थाली, परात, कटोरी, तवा, बटलोई आदि और खाद्य रोटी, पूड़ी, डोसा, इडली, रसगुल्ला आदि भी वृत्त या गोल आकार के हैं।

रेगिस्तानों में पत्तों का उपचार कर उन पर लिखने की मजबूरी थी इसलिए छोटी-छोटी रेखाओं से निर्मित अरबी, फ़ारसी जैसी लिपियाँ विकसित हुईं। बर्फ, ठंड और नमी वाले क्षेत्रों में रोमन लिपि का विकास हुआ। चित्र अंकन करने की रूचि ने चीनी जैसी चित्रात्मक लिपि के विकास का पथ प्रशस्त किया। इसी तरह खान-पान के कारण विविध अंचल के निवासियों में विविध ध्वनियों के उच्चारण की क्षमता भी अलग-अलग होने से वहाँ विकसित भाषाओँ में वैसी ध्वनियुक्त शब्द बने। जिन अंचलों में जीवन संघर्ष कड़ा था वहाँ की भाषाओँ में कठोर ध्वनियाँ अधिक हैं, जबकि अपेक्षाकृत शांत और सरल जीवन वाले क्षेत्रों की भाषाओँ में कोमल ध्वनियाँ अधिक हैं। यह अंतर हरयाणवी, राजस्थानी, काठियावाड़ी और बांग्ला., बृज, अवधि भाषाओँ में अनुभव किया जा सकता है।

सार यह कि भाषा और लिपि के विकास में ध्वनि का योगदान सर्वाधिक है। भावनाओं और अनुभूतियों को व्यक्त करने में सक्षम मानव ने गद्य और पद्य दो शैलियों का विकास किया। इसका उत्स पशु-पक्षियों और प्रकृति से प्राप्त ध्वनियाँ ही बनीं। अलग-अलग रुक-रुक कर हुई ध्वनियों ने गद्य विधा को जन्म दिया जबकि नदी के कलकल प्रवाह या निरंतर कूकती कोयल की सी ध्वनियों से पद्य का जन्म हुआ। पद्य के सतत विकास ने गीति काव्य का रूप लिया जिसे गाया जा सके। गीतिकाव्य के मूल तत्व ध्वनियों का नियमित अंतराल पर दुहराव, बीच-बीच में ठहराव और किसी अन्य ध्वनि खंड के प्रवेश से हुआ। किसी नदी तट के किनारे कलकल प्रवाह के साथ निरंतर कूकती कोयल को सुनें तो एक ध्वनि आदि से अंत तक, दूसरी के बीच-बीच में प्रवेश से गीत के मुखड़े और अँतरे की प्रतीति होगी। मैथुनरत क्रौंच युगल में से नर का व्याध द्वारा वध, मादा का आर्तनाद और आदिकवि वाल्मिकी के मुख से प्रथम कविता का प्रागट्य इसी सत्य की पुष्टि करता है। हिरण शावक के वध के पश्चात अश्रुपात करती हिरणी के रोदन से ग़ज़ल की उत्पत्ति की मान्यताएँ गीति काव्य की उत्पत्ति में प्रकृति और पर्यावरण का योगदान ही इंगित करते हैं।

व्याकरण और पिंगल का विकास-

भारत में गुरुकुल परम्परा में साहित्य की सारस्वत आराधना का जैसा वातावरण रहा वैसा अन्यत्र कहीं नहीं रह सका, इसलिये भारत में कविता का जन्म ही नहीं हुआ पाणिनि व पिंगल ने विश्व के सर्वाधिक व्यवस्थित, विस्तृत और समृद्ध व्याकरण और पिंगल शास्त्रों का सृजन किया जिनका कमोबेश अनुकरण और प्रयोग विश्व की अधिकांश भाषाओँ में हुआ। जिस तरह व्याकरण के अंतर्गत स्वर-व्यंजन का अध्ययन ध्वनि विज्ञानं के आधारभूत तत्वों के आधार पर हुआ वैसे ही पिंगल के अंतर्गत छंदों का निर्माण ध्वनि खण्डों की आवृत्तिकाल के आधार पर हुआ। पिंगल ने लय या गीतात्मकता के दो मूल तत्वों गति-यति को पहचान कर उनके मध्य प्रयुक्त की जा रही लघु-दीर्घ ध्वनियों को वर्ण या अक्षर के माध्यम से पहचाना तथा उन्हें क्रमश: १-२ मात्रा भार देकर उनके उच्चारण काल की गणना बिना किसी यंत्र या विधि न विशेष का प्रयोग किये संभव बना दी। ध्वनि खंड विशेष के प्रयोग और आवृत्ति के आधार पर छंद पहचाने गये। छंद में प्रयुक्त वर्ण तथा मात्रा के आधार पर छंद के दो वर्ग वर्णिक तथा मात्रिक बनाये गये। मात्रिक छंदों के अध्ययन को सरल करने के लिये ८ लयखंड (गण) प्रयोग में लाये गये सहज बनाने के लिए एक सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' बनाया गया।

गीति काव्य में छंद-

गणित के समुच्चय सिद्धांत (सेट थ्योरी) तथा क्रमचय और समुच्चय (परमुटेशन-कॉम्बिनेशन) का प्रयोग कर दोनों वर्गों में छंदों की संख्या का निर्धारण किया गया। वर्ण तथा मात्रा संख्या के आधार पर छंदों का नामकरण गणितीय आधार पर किया गया। मात्रिक छंद के लगभग एक करोड़ तथा वर्णिक छंदों के लगभग डेढ़ करोड़ प्रकार गणितीय आधार पर ही बताये गये हैं। इसका परोक्षार्थ यह है कि वर्णों या मात्राओं का उपयोग कर जब भी कुछ कहा जाता है वह किसी न किसी ज्ञात या अज्ञात छंद का छोटा-बड़ा अंश होता है। इसे इस तरह समझें कि जब भी कुछ कहा जाता है वह अक्षर होता है। संस्कृत के अतिरिक्त विश्व की किसी अन्य भाषा में गीति काव्य का इतना विशद और व्यवस्थित अध्ययन नहीं हो सका। संस्कृत से यह विरासत हिंदी को प्राप्त हुई तथा संस्कृत से कुछ अंश अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी , चीनी, जापानी आदि तक भी गयी। यह अलग बात है कि व्यावहारिक दृष्टि से हिंदी में भी वार्णिक और मात्रिक दोनों वर्गों के लगभग पचास छंद ही मुख्यतः: प्रयोग हो रहे हैं। रचनाओं के गेय और अगेय वर्गों का अंतर लय होने और न होने पर ही है। गद्य गीत और अगीत ऐसे वर्ग हैं जो दोनों वर्गों की सीमा रेखा पर हैं अर्थात जिनमें भाषिक प्रवाह यत्किंचित गेयता की प्रतीति कराता है। यह निर्विवाद है कि समस्त गीति काव्य ऋचा, मन्त्र, श्लोक, लोक गीत, भजन, आरती आदि किसी भी देश रची गयी हों छंदाधारित है। यह हो सकता है कि उस छंद से अपरिचय, छंद के आंशिक प्रयोग अथवा एकाधिक छंदों के मिश्रण के कारण छंद की पहचान न की जा सके।

वैदिक साहित्य में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएँ गीत का आदि रूप हैं। गीत की दो अनिवार्य शर्तें विशिष्ट सांगीतिक लय तथा आरोह-अवरोह अथवा गायन शैली हैं। कालांतर में 'लय' के निर्वहन हेतु छंद विधान और अंत्यानुप्रास (तुकांत-पदांत) का अनुपालन संस्कृत काव्य की वार्णिक छंद परंपरा तक किया जाता रहा। संस्कृत काव्य के समान्तर प्राकृत, अपभ्रंश आदि में भी 'लय' का महत्व यथावत रहा। सधुक्कड़ी में शब्दों के सामान्य रूप का विरूपण सहज स्वीकार्य हुआ किन्तु 'लय' का नहीं। शब्दों के रूप विरूपण और प्रचलित से हटकर भिन्नार्थ में प्रयोग करने पर कबीर को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'भाषा का डिक्टेटर' तक कह दिया।

अंग्रेजों और अंगरेजी के आगमन और प्रभुत्व-स्थापन की प्रतिक्रिया स्वरूप सामान्य जन अंग्रेजी साहित्य से जुड़ नहीं सका और स्थानीय देशज साहित्य की सृजन धारा क्रमशः खड़ी हिंदी का बाना धारण करती गयी जिसकी शैलियाँ उससे अधिक पुरानी होते हुए भी उससे जुड़ती गयीं। छंद, तुकांत और लय आधृत काव्य रचनाएँ और महाकाव्य लोक में प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हुए। आल्हा, रासो, राई, कजरी, होरी, कबीर आदि गीत रूपों में लय तथा तुकांत-पदांत सहज साध्य रहे। यह अवश्य हुआ कि सीमित शिक्षा तथा शब्द-भण्डार के कारण शब्दों के संकुचन या दीर्घता से लय बनाये रखा गया या शब्दों के देशज भदेसी रूप का व्यवहार किया गया। विविध छंद प्रकारों यथा छप्पय, घनाक्षरी, सवैया आदि में यह समन्वय सहज दृष्टव्य है।खड़ी हिंदी जैसे-जैसे वर्तमान रूप में आती गयी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ कवियों में छंद-शुद्धता के समर्थन या विरोध की प्रवृत्ति बढ़ी जो पारम्परिक और प्रगतिवादी दो खेमों में बँट गयी।

छंदमुक्तता और छंद हीनता-

लम्बे काल खंड के पश्चात हिंदी पिंगल को महाप्राण निराला ने कालजयी अवदान छंदमुक्त गीति रचनाओं के रूप में दिया। उत्तर भारत के लोककाव्य व संगीत तथा रवींद्र संगीत में असाधारण पैठ के कारण निराला की छंद पर पकड़ समय से आगे की थी। उनकी प्रयोगधर्मिता ने पारम्परिक छंदों के स्थान पर सांगीतिक राग-ताल को वरीयता देते हुए जो रचनाएँ प्रस्तुत कीं उन्हें भ्रम-वश छंद विहीन समझ लिया गया, जबकि उनकी गेयता ही इस बात का प्रमाण है कि उनमें लय अर्थात छंद अन्तर्निहित है। निराला की रचनाओं और तथाकथित प्रगतिशील कवियों की रचनाओं के सस्वर पाठ से छंदमुक्तता और छंदहीनता के अंतर को सहज ही समझा जा सकता है।

दूसरी ओर पारम्परिक काव्यधारा के पक्षधर रचनाकार छंदविधान की पूर्ण जानकारी और उस पर अधिकार न होने के कारण उर्दू काव्यरूपों के प्रति आकृष्ट हुए अथवा मात्रिक-वार्णिक छंद के रूढ़ रूपों को साधने के प्रयास में लालित्य, चारुत्व आदि काव्य गुणों को नहीं साध सके। इस खींच-तान और ऊहापोह के वातावरण में हिंदी काव्य विशेषकर गीत 'रस' तथा 'लय' से दूर होकर जिन्दा तो रहा किन्तु जीवनशक्ति गँवा बैठा। निराला के बाद प्रगतिवादी धारा के कवि छंद को कथ्य की सटीक अभिव्यक्ति में बाधक मानते हुए छंदहीनता के पक्षधर हो गये। इनमें से कुछ समर्थ कवि छंद के पारम्परिक ढाँचे को परिवर्तित कर या छोड़कर 'लय' तथा 'रस' आधारित रचनाओं से सार्थक रचना कर्मकार सके किन्तु अधिकांश कविगण नीरस-क्लिष्ट प्रयोगवादी कवितायेँ रचकर जनमानस में काव्य के प्रति वितृष्णा उत्पन्न करने का कारण बने। विश्वविद्यालयों में हिंदी को शोधोपाधियाँ प्राप्त किन्तु छंद रचना हेतु आवश्यक प्रतिभा से हीन प्राध्यापकों का एक नया वर्ग पैदा हो गया जिसने अमरता की चाह ने अगीत, प्रगीत, गद्यगीत, अनुगीत, प्रलंब गीत जैसे न जाने कितने प्रयोग किये पर बात नहीं बनी। प्रारंभिक आकर्षण, सत्तासीन राजनेताओं और शिक्षा संस्थानों, पत्रिकाओं और समीक्षकों के समर्थन के बाद भी नयी कविता अपनी नीरसता और जटिलता के कारण जन-मन से दूर होती गयी। गीत के मरने की घोषणा करनेवाले प्रगतिवादी कवि और समीक्षक स्वयं काल के गाल में समा गये पर गीत लोक मानस में जीवित रहा। हिंदी छंदों को कालातीत अथवा अप्रासंगिक मानने की मिथ्या अवधारणा पाल रहे रचनाकार जाने-अनजाने में उन्हीं छंदों का प्रयोग बहर में करते आ रहे हैं।

उर्दू काव्य विधाओं में छंद-

भारत के विविध भागों में विविध भाषाएँ तथा हिंदी के विविध रूप (शैलियाँ) प्रचलित हैं। उर्दू हिंदी का वह भाषिक रूप है जिसमें अरबी-फ़ारसी शब्दों के साथ-साथ मात्र गणना की पद्धति (तक़्ती) का प्रयोग किया जाता है जो अरबी लोगों द्वारा शब्द उच्चारण के समय पर आधारित हैं। पंक्ति भार गणना की भिन्न पद्धतियाँ, नुक्ते का प्रयोग, काफ़िया-रदीफ़ संबंधी नियम आदि ही हिंदी-उर्दू रचनाओं को वर्गीकृत करते हैं। हिंदी में मात्रिक छंद-लेखन को व्यवस्थित करने के लिये प्रयुक्त गण के समान, उर्दू बहर में रुक्न का प्रयोग किया जाता है। उर्दू गीतिकाव्य की विधा ग़ज़ल की ७ मुफ़र्रद (शुद्ध) तथा १२ मुरक्कब (मिश्रित) कुल १९ बहरें मूलत: २ पंच हर्फ़ी (फ़ऊलुन = यगण यमाता तथा फ़ाइलुन = रगण राजभा ) + ५ सात हर्फ़ी (मुस्तफ़इलुन = भगणनगण = भानसनसल, मफ़ाईलुन = जगणनगण = जभानसलगा, फ़ाइलातुन = भगणनगण = भानसनसल, मुतफ़ाइलुन = सगणनगण = सलगानसल तथा मफऊलात = नगणजगण = नसलजभान) कुल ७ रुक्न (बहुवचन इरकॉन) पर ही आधारित हैं जो गण का ही भिन्न रूप है। दृष्टव्य है कि हिंदी के गण त्रिअक्षरी होने के कारण उनका अधिकतम मात्र भार ६ है जबकि सप्तमात्रिक रुक्न दो गणों का योग कर बनाये गये हैं। संधिस्थल के दो लघु मिलाकर दीर्घ अक्षर लिखा जाता है। इसे गण का विकास कहा जा सकता है।

वर्णिक छंद मुनिशेखर - २० वर्ण = सगण जगण जगण भगण रगण सगण लघु गुरु
चल आज हम करते सुलह मिल बैर भाव भुला सकें

बहरे कामिल - मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
पसे मर्ग मेरे मज़ार परजो दिया किसी ने जला दिया
उसे आह दामने-बाद ने सरे-शाम से ही बुझा दिया

उक्त वर्णित मुनिशेखर वर्णिक छंद और बहरे कामिल वस्तुत: एक ही हैं।

अट्ठाईस मात्रिक यौगिक जातीय विधाता (शुद्धगा) छंद में पहली, आठवीं और पंद्रहवीं मात्रा लघु तथा पंक्त्यांत में गुरु रखने का विधान है।

कहें हिंदी, लिखें हिंदी, पढ़ें हिंदी, गुनें हिंदी
न भूले थे, न भूलें हैं, न भूलेंगे, कभी हिंदी
हमारी थी, हमारी है, हमारी हो, सदा हिंदी
कभी सोहर, कभी गारी, बहुत प्यारी, लगे हिंदी - सलिल
*
हमें अपने वतन में आजकल अच्छा नहीं लगता
हमारा देश जैसा था हमें वैसा नहीं लगता
दिया विश्वास ने धोखा, भरोसा घात कर बैठा
हमारा खून भी 'सागर', हमने अपना नहीं लगता -रसूल अहमद 'सागर'

अरकान मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन से बनी उर्दू बहर हज़ज मुसम्मन सालिम, विधाता छंद ही है। इसी तरह अन्य बहरें भी मूलत: छंद पर ही आधारित हैं।

रुबाई के २४ औज़ान जिन ४ मूल औज़ानों (१. मफ़ऊलु मफ़ाईलु मफ़ाईलु फ़अल, २. मफ़ऊलु मफ़ाइलुन् मफ़ाईलु फ़अल, ३. मफ़ऊलु मफ़ाईलु मफ़ाईलु फ़ऊल तथा ४. मफ़ऊलु मफ़ाइलुन् मफ़ाईलु फ़ऊल) से बने हैं उनमें ५ लय खण्डों (मफ़ऊलु, मफ़ाईलु, मफ़ाइलुन् , फ़अल तथा फ़ऊल) के विविध समायोजन हैं जो क्रमश: सगण लघु, यगण लघु, जगण २ लघु / जगण गुरु, नगण तथा जगण ही हैं। रुक्न और औज़ान का मूल आधार गण हैं जिनसे मात्रिक छंद बने हैं तो इनमें यत्किंचित परिवर्तन कर बनाये गये (रुक्नों) अरकान से निर्मित बहर और औज़ान छंदहीन कैसे हो सकती हैं?

औज़ान- मफ़ऊलु मफ़ाईलुन् मफ़ऊलु फ़अल
सगण लघु जगण २ लघु सगण लघु नगण
सलगा ल जभान ल ल सलगा ल नसल

इंसान बने मनुज भगवान नहीं
भगवान बने मनुज शैवान नहीं
धरती न करे मना, पाले सबको-
दूषित न करो बनो हैवान नहीं -सलिल

गीत / नवगीत का शिल्प, कथ्य और छंद-

गीत और नवगीत शैल्पिक संरचना की दृष्टि से समगोत्रीय है। अन्य अनेक उपविधाओं की तरह यह दोनों भी कुछ समानता और कुछ असमानता रखते हैं। नवगीत नामकरण के पहले भी गीत और दोनों नवगीत रचे जाते रहे आज भी रहे जा रहे हैं और भविष्य में भी रचे जाते रहेंगे। अनेक गीति रचनाओं में गीत और नवगीत दोनों के तत्व देखे जा सकते हैं। इन्हें किसी वर्ग विशेष में रखे जाने या न रखे जाने संबंधी समीक्षकीय विवेचना बेसिर पैर की कवायद कही जा सकती है। इससे मठाधीश या समीक्षक विशेष के अहं की तुष्टि भले हो विधा या भाषा का भला नहीं होता।

गीत और नवगीत के शिल्प में कोई अन्तर नहीं है। गीत - नवगीत दोनों में मुखड़े (स्थाई) और अंतरे का समायोजन होता है, दोनों को पढ़ा, गुनगुनाया और गाया जा सकता है। मुखड़ा अंतरा मुखड़ा अंतरा यह क्रम सामान्यत: चलता है। गीत में अंतरों की संख्या प्राय: विषम यदा-कदा सम भी होती है । अँतरे में पंक्ति संख्या तथा पंक्ति में शब्द संख्या आवश्यकतानुसार घटाई - बढ़ाई जा सकती है। नवगीत में सामान्यतः २-३ अँतरे तथा अंतरों में ४-६ पंक्ति होती हैं। बहुधा मुखड़ा दोहराने के पूर्व अंतरे के अंत में मुखड़े के समतुल्य मात्रिक / वर्णिक भार की पंक्ति, पंक्तियाँ या पंक्त्यांश रखा जाता है। अंतरा और मुखड़ा में प्रयुक्त छंद समान भी हो सकते हैं और भिन्न भी। 

गीत के प्रासाद में छंद विधान और अंतरे का आकार व संख्या उसका विस्तार करते हैं। नवगीत के भवन में स्थाई और अंतरों की सीमित संख्या और अपेक्षाकृत लघ्वाकार व्यवस्थित गृह का सा आभास कराते हैं। प्रयोगधर्मी रचनाकार इनमें एकाधिक छंदों, मुक्तक छंदों अथवा हिंदीतर भाषाओँ के छंदों का प्रयोग करते रहे हैं। गीत में पारम्परिक छंद चयन के कारण छंद विधान पूर्वनिर्धारित गति-यति को नियंत्रित करता है। नवगीत में छान्दस स्वतंत्रता होती है अर्थात मात्रा सन्तुलनजनित गेयता और लयबद्धता पर्याप्त है। दोहा, सोरठा, रोला, उल्लाला, त्रिभंगी, आल्हा, सखी, मानव, नरेंद्र छंद (फाग), जनक छंद, लावणी, हाइकु आदि का प्रयोग गीत-नवगीत में किया जाता रहा है।

गीत - नवगीत दोनों में कथ्य के अनुसार रस, प्रतीक और बिम्ब चुने जाते हैं। गेयता या लयबद्धता दोनों में होती है। गीत का कथ्य वैयक्तिक अनुभूति को सामने लता है जबकि  नवगीत में कथ्य सामाजिकता प्रधान होता है। गीत में कथ्य वर्णन के लिये प्रचुर मात्र में बिम्बों, प्रतीकों और उपमाओं के उपयोग का अवकाश होता है जबकि नवगीत में गागर में सागर, बिंदु में सिंधु की तरह इंगितों में बात कही जाती है। 'कम बोले से अधिक समझना' की उक्ति नवगीत पर पूरी तरह लागू होती है। नवगीत की विषय वस्तु सामायिक और प्रासंगिक होती है। तात्कालिकता नवगीत का प्रमुख लक्षण है जबकि सनातनता, निरंतरता गीत का। गीत रचना का उद्देश्य सत्य-शिव-सुंदर की प्रतीति तथा सत-चित-आनंद की प्राप्ति कही जा सकती है जबकि नवगीत रचना का उद्देश्य इसमें बाधक कारकों और स्थितियों का इंगित कर उन्हें परिवर्तित करने की सरचनात्मक प्रयास कहा जा सकता है। गीत महाकाल का विस्तार है तो नवगीत काल की सापेक्षता।

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संपर्क : विश्ववाणी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com, वॉट्सऐप ९४२५१८३२४४ 

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मुक्तक सलिला 
सरस्वती पूजन 
*
आइए! माँ शारदे का हम करें पूजन।
सलिल सिंचन कर लगाएँ माथ पर चंदन।।
हरिद्रा-कुंकुम व अक्षत सहित अर्पित पुष्प-
शंख-घंटा ध्वनि सहित हो श्लोक का गायन।।
*
दीप प्रज्वलन 
दीपज्योति परब्रह्म है, सकल तिमिर कर दूर। 
सुख-समृद्धि- मति विमल दे, सख बरसा भरपूर।।
*
आत्म दीप जल दुःख हरे, करे पाप का नाश। 
अंतर्मन-सब जगत में, प्रसरित करे प्रकाश।।
*
धूप-अगरु की गंध हर, अहंकार दुर्गंध। 
करे सुवासित प्राण-मन, फैला मदिर सुगंध।। 
हे रविवंशज दीप जल; हरो तिमिर सब आज। 
उजियारे का जगत में; दीपक कर दो राज।।
ज्ञान-उजाला दो हमें; करते विनत प्रणाम- 
आत्म-जगत उजियार दो; साध जाए शुभ काज।। 
सरस्वती वंदना
*
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी,
अम्ब विमल मति दे
जग सिरमौर बनाएँ भारत,
वह बल विक्रम दे ।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।।१।।
साहस शील हृदय में भर दे,
जीवन त्याग-तपोमय कर दे,
संयम सत्य स्नेह का वर दे,
स्वाभिमान भर दे ।।२।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे ।।
लव, कुश, ध्रुव, प्रहलाद बनें हम
मानवता का त्रास हरें हम,
सीता, सावित्री, दुर्गा माँ,
फिर घर-घर भर दे ।।३।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।।
***
सरस्वती वंदना
बृज भाषा
*
सुरसती मैया की किरपा बिन, नैया पार करैगो कौन?
बीनाबादिनि के दरसन बिन, भव से कओ तरैगो कौन?
बेद-पुरान सास्त्र की मैया, महिमा तुमरी अपरंपार-
तुम बिन तुमरी संतानन की, बिपदा मातु हरैगो कौन?
*
धारा बरसैगी अमरित की, माँ सारद की जै कहियौ
नेह नरमदा बन जीवन भर, निर्मल हो कै नित बहियौ
किशन कन्हैया तन, मन राधा रास इन्द्रियन ग्वालन संग
भक्ति मुरलिया बजा रचइयौ, प्रेम गोपियन को गहियौ
***
हिंदी दिवस पर नवगीत
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.
घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.
ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...
हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.
जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?
इन जयचंदों
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...
ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में
माने जाते.
कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...
अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी
भाषा में मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.
देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...
अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.
हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...
**************
हिंदी आरती
*
भारती भाषा प्यारी की।
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
वर्ण हिंदी के अति सोहें,
शब्द मानव मन को मोहें।
काव्य रचना सुडौल सुन्दर
वाक्य लेते सबका मन हर।
छंद-सुमनों की क्यारी की
आरती हिंदी न्यारी की।।
*
रखे ग्यारह-तेरह दोहा,
सुमात्रा-लय ने मन मोहा।
न भूलें गति-यति बंधन को-
न छोड़ें मुक्तक लेखन को।
छंद संख्या अति भारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
विश्व की भाषा है हिंदी,
हिंद की आशा है हिंदी।
करोड़ों जिव्हाओं-आसीन
न कोई सकता इसको छीन।
ब्रम्ह की, विष्णु-पुरारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*****
भारत आरती
*
आरती भारत माता की
सनातन जग विख्याता की
*
सूर्य ऊषा वंदन करते
चाँदनी चाँद नमन करते
सितारे गगन कीर्ति गाते
पवन यश दस दिश गुंजाते
देवगण पुलक, कर रहे तिलक
ब्रह्म हरि शिव उद्गाता की
आरती भारत माता की
*
हिमालय मुकुट शीश सोहे
चरण सागर पल पल धोए
नर्मदा कावेरी गंगा
ब्रह्मनद सिंधु करें चंगा
संत-ऋषि विहँस, कहें यश सरस
असुर सुर मानव त्राता की
आरती भारत माता की
*
करें श्रृंगार सकल मौसम
कहें मैं-तू मिलकर हों हम
ऋचाएँ कहें सनातन सच
सत्य-शिव-सुंदर कह-सुन रच
मातृवत परस, दिव्य है दरस
अगिन जनगण सुखदाता की
आरती भारत माता की
*
द्वीप जंबू छवि मनहारी
छटा आर्यावर्ती न्यारी
गोंडवाना है हिंदुस्तान
इंडिया भारत देश महान
दीप्त ज्यों अगन, शुद्ध ज्यों पवन
जीव संजीव विधाता की
आरती भारत माता की
*
मिल अनल भू नभ पवन सलिल
रचें सब सृष्टि रहें अविचल
अगिन पंछी करते कलरव
कृषक श्रम कर वरते वैभव
अहर्निश मगन, परिश्रम लगन
ज्ञान-सुख-शांति प्रदाता की
आरती भारत माता की
*****
अतिथि आमंत्रण
आत्मीय प्रिय अतिथि पधारें।
शब्द सुमन माला स्वीकारें।।
स्नेह-सलिल स्वागत सहर्ष है-
आसंदी पर आ उपकारें।।
*
स्वागत कर हम धन्य हो रहे, अतिथि पधारे परिसर में। 
प्रेरक है व्यक्तित्व आपका, कीर्ति गूँजती घर-घर में।।
हुलसित पुलकित करतल ध्वनि कर; पलक पाँवड़े बिछा रहे-
करें सुशोभित आसंदी को; नम्र निवेदन हर स्वर में।।
*
अतिथि परिचय हैं समान इंसान सभी पर कुछ होते विशेष गुणवान। 
जिनके सत्कर्मों की होती चर्चा सब करते गुणगान।।
ऐसा ही व्यक्तित्व हमारे मध्य अतिथि हो आया है-
कर स्पर्श लौह को सोना करता यह व्यक्तित्व महान।। 
*
सलिला में सीपी, सीपी में मोती पलता, सब जानें। 
संघर्षों से जूझ बढ़े जो, उसका लोहा सब मानें।।
मेहनत लगन समर्पण से जो नित ऊपर उठते जाते-
ऐसे ही है अतिथि आज के, वह पा लेते ठानें।।
पुलकित-हुलसित-प्रमुदित-हर्षित हो हम वंदन करते हैं। 
स्रोत प्रेरणा के अनुपम हे अतिथि! नमन हम करते हैं।। 
*
सद्गुण के भंडार हे!; सदाचार आगार। 
दस दिश गुंजित कीर्ति तव, धरती के श्रृंगार।।
धूप सुवास बिखर रही; जले प्रेरणा-दीप-
तम हर दिव्य प्रकाश दो; स्वीकारो आभार।। 
अतिथि स्वागत 
नियत तिथि पर अतिथि हे!; आप पधारे आज। 
करतल ध्वनि वंदन करे; माथे तिलक विराज।।
रोली चंदन सुशोभित; अक्षत भाव अनंत। 
ब्द-गलहार हैं; स्वीकारें श्रीमंत।।
* माइक वंदना 
ध्वनि विस्तारक यंत्र हे! स्वीकारो वंदन। 
मम वाणी विस्तार दो, करते अभिनन्दन।।
दस दिश अनहद नाद सम गूँजे मेरा वाक्-
शब्द-शब्द में अर्थ भर; सब जग सुने अवाक्।। 
*
नववर्ष स्वागत है नव वर्ष!, नव उत्कर्ष दो। 
हरो तम-गम; पुलककर नव हर्ष दो। 
निरर्थक बहसें न हों; मत ऐक्य हो-
एक हों मन-प्राण, स्वस्थ्य विमर्श दो।।
*
नया ईस्वी सन लाया है; नव आशा उपहार। 
स्नेह सौख्य सद्भाव अब स्वागत-बंदनवार।।
ईसा जैसी सहनशक्ति हो; क्षमा करें हम सबको-
ईर्ष्या-द्वेष मुक्त हो हर मन; भू हो स्नेहागार।।
*
हिजरी सन 
पैगंबर का संदेश सुनाने आया।
परमपिता है एक हमारा यह संदेशा लाया।।
बिसरा दो मतभेद सभी; मतभेद न होने देना-
हम सब औलादें हैं रब की; सब पर उसका साया।।
*
विक्रम संवत बल-विक्रम की दिखा रहा है राह। 
सबसे सबका सदा भला हो; मन में हो यह चाह।।
सबल; निबल हितरक्षक हों; दूर करें तकलीफ-
जीव सभी संजीव हो सकें; पाएँ प्रभु से वाह।। 
शक संवत शक सभी मिटाकर शंकर हमें बनाएँ। 
हर मन में श्रद्धा-विश्वास सुदीपक सदा जलाएँ।।
कर-पग साथ रहें अपने; सुख-दुःख में हों हम साथ -
स्नेह सलिल में नहा; साधना करें सफलता पाएँ।। 
*
नव वर्ष नवगीत:
संजीव
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
* नया साल आ रहा है, खूब मनाओ हर्ष।
कमी न कोशिश में रहे, तभी मिले उत्कर्ष।।
चन्दन वंदन कर मने, नया साल त्यौहार-
केक तजें, गुलगुले खा, पंचामृत पी यार।। 
*
शुभकामना आपको अर्पित हमारी हार्दिक शुभकामना। 
दूर भव-बाधा सकल हो; पूर्ण हो मनकामना।।
पग रखो जब पंथ पर तो लक्ष्य खुद आए समीप-
जुटें संसाधन सभी; करना नहीं तुम याचना।।
*
दुआ 
दुआ सभी के लिए है; सभी सुखी हों मीत। 
सबका सबसे हित सधे; पले सभी में प्रीत।।
सफल साधना कर सभी; नई बनाएँ रीत -
सद्भावों से सुवासित; 'सलिल' सुनाएँ गीत।।
स्वर गीत
'अ' से अजगर; अचकन; अफसर,
'आ' से आम; आग, आराम।
'इ' से इमली; इस; इकतारा,
'ई' से ईख; ईश; ईनाम।
'उ' से उजियारा; उलूक, उठ,
'ऊ' से ऊखल; ऊसर; ऊन।
'ए' से एड़ी; एक; एकाकी
'ऐ' से ऐनक; ऐसा; ऐन।
'ओ' से ओष्ठ; ओखली; ओला,
'औ' से औरत और औजार।
'अं' से अंकुर; अंजन; अंजुलि,
'अ:' सीख स्वर हो होशियार।
***
***
पुस्तक चर्चा-
''राजस्थानी साहित्य में रामभक्ति-काव्य'' मननीय शोधकृति
चर्चाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[पुस्तक विवरण- 'राजस्थानी साहित्य में रामभक्ति-काव्य, शोध ग्रन्थ, डॉ. गुलाब कुँवर भंडारी, प्रथम संस्करण २०१०, आकार २२से.मी.x १४ से.मी., पृष्ठ ३८०, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, मूल्य ७५०/-, त्रिभुवन प्रकाशन, गुलाब वाटिका, पावटा बी मार्ग, जोधपुर।]
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हिंदी साहित्य में भक्ति काल कभी न रुकनेवाली भाव धारा है। ब्रम्ह को निर्गुण और सगुण दोनों रूपों में आराधा गया है। सगुण भक्ति में राम और कृष्ण दो रूपों को अपार लोकप्रियता मिली है। वीर भूमि राजस्थान में श्रीनाथद्वारा और मीरां बाई श्री कृष्ण भक्ति के केंद्र रहे हैं। रामावतार से सम्बंधित कोई स्थान या व्यक्ति राजस्थान में न होने के बाद भी विषम परिस्थितियों से जूझते हुए एक अल्प शिक्षित गृहणी द्वारा स्वयं को उच्च शिक्षित कर स्तरीय शोध कार्य करना असाधारण पौरुष है। राम पर शोध करना हो तो उत्तर प्रदेश अथवा राम से सम्बंधित अन्य क्षेत्रों के राम साहित्य पर कार्य करना सुगम होता किन्तु राजस्थानी साहित्य में राम-भक्ति काव्य की खोज, अध्ययन और उसका मूल्यांकन करना वस्तुत: दुष्कर और श्रम साध्य कार्य है। ग्रन्थ लेखिका श्रीमती गुलाब कुँवर भंडारी (१४.१०.१९३६-७.१९९१) ने पूर्ण समर्पण भाव से इस शोध ग्रंथ का लेखन किया है।
राजस्थान जुझारू तेवरों के लिए प्रसिद्ध रहा है। जान हथेली पर लेकर रणभूमि में पराक्रम कथाएँ लिखने वाले वीरों के साथ जोश बढ़ानेवाले कवि भी होते थे जो कलम और तलवार समान दक्षता से चला पाते थे। भावावेग राजस्थानियों की रग-रग में समय होता है। भक्ति का प्रबल आवेग राजस्थान के जन-मन की विशेषता है। वीरता के साथ-साथ सौंदर्यप्रियता और समर्पण के साथ-साथ बलिदान को जीते राजस्थानी कवियों ने एक और शत्रुओं को ललकारा तो दूसरी ओर ईशाराधना भी प्राण-प्राण से की।
शोधकर्त्री ने राजस्थानी साहित्य में राम-काव्य को अपभ्रंश-काल से खोजा और परखा है। अहिंसा को सर्वाधिक महत्व देनेवाला जैन साहित्य भी सशस्त्र संघर्ष हेतु ख्यात राम-महिमा के गायन से दूर नहीं रह सका है। ग्रन्थ में रामभक्ति का विकास और राजस्थान में प्रसार, सगुण राम-भक्ति संबन्धी प्रबन्ध काव्य, सगुण राम-भक्ति सम्बन्धी मुक्तक काव्य, निर्गुण राम-भक्ति संबंधी कविता तथा राजस्थानी राम-भक्त कवि एवं उनका काव्य शीर्षक पाँच अध्यायों में यथोचित विस्तार के साथ 'राम' शब्द की व्युत्पत्ति-अर्थ, राम के स्वरुप का विकास, रामभक्ति शाखा का विकास-प्रसार, सगुण राम संबन्धी प्रबन्ध व मुक्तक काव्यों का विवेचन, निर्गुण राम संबंधी काव्य ग्रंथों का अनुशीलन तथा राम-भक्त जैन कवियों के साहित्य का विश्लेषण किया गया है।
उल्लेख्य है कि मूल्यांकित अनेक कृतियाँ हस्तलिखित हैं जिनकी खोज करना, उन्हें पाना और पढ़ना असाधारण श्रम और लगन की माँग करता है। गुलाब कुँवर जी ने नव मान्यताएँ भी सफलतापूर्वक स्थापित की हैं। राम-भक्ति प्रधान प्रबंध काव्यों में कुशललाभ, हरराज, माधोदास दधवाड़िया, रुपनाथ मोहता, मंछाराम की कृतियों का विवेचन किया गया है। राम-भक्ति मुक्तक काव्य के अध्ययन में ४९ कवि सम्मिलित हैं। सर्वज्ञात है कि मीरांबाई समर्पित कृष्णभक्त थीं किंतु लखिमा ने मीरां-साहित्य से राम-भक्ति विषयक अंश उद्धृत कर उन्हें सफलतापूर्वक राम-भक्त सिद्ध किया है। स्थापित मान्यता के विरुद्ध किसी शोध की स्थापना कर पाना सहज नहीं होता। यह अलग बात है कि राम और कृष्ण दोनों विष्णु के अवतार होने के कारण अभिन्न और एक हैं।
निर्गुण राम-भक्ति काव्य के अन्तर्गत दादू सम्प्रदाय के १२, निरंजनी संप्रदाय के १४, चरणदासी संप्रदाय की ३, रामस्नेही संप्रदाय १९, अन्य ८ तथा १२ जैन कवियों कवियों के साहित्य का गवेषणा पूर्ण विश्लेषण इस शोधग्रंथ को पाठ ही नहीं मननीय और संग्रहणीय भी बनाता है। ग्रंथांत में ४ परिशिष्टों में हस्तलिखित ग्रंथ-विवरण, रामभक्ति लोकगीत, रामभक्त कवियों का संक्षिप्त विवरण तथा सहायक साहित्य का उल्लेख इस शोध ग्रन्थ को सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में भी उपयोगी बनाता है।
श्रीमती गुलाब कुँवरि जी की भाषा शुद्ध, सरस तथा सहज ग्राह्य है। उनका शब्द-भंडार समृद्ध है। वे न तो अनावश्यक शब्दों का प्रयोग करती हैं, न सम्यक शब्द-प्रयोग करने से चूकती हैं। कवियों तथा कृतियों का विश्लेषण करते समय वे पूरी तरह तटस्थ और निरपेक्ष रह सकी हैं। राजस्थान और राम भक्ति विषयक रूचि रखनेवाले पाठकों और विद्वानों के लिए यह कृति अत्यंत महत्वपूर्ण है। ग्रन्थ का मुद्रण शुद्ध, सुरुचिपूर्ण तथा आवरण आकर्षक है। इस सर्वोपयोगी कृति का प्रकाशन करने हेतु लेखिका के पुत्र श्री त्रिभुवन राज भंडारी तथा पुत्रवधु श्रीमती सरिता भंडारी साधुवाद के पात्र हैं।
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बाल कविता
मुहावरा कौआ स्नान
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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कौआ पहुँचा नदी किनारे, शीतल जल से काँप-डरा रे!
कौवी ने ला कहाँ फँसाया, राम बचाओ फँसा बुरा रे!!
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पानी में जाकर फिर सोचे, व्यर्थ नहाकर ही क्या होगा?
रहना काले का काला है, मेकप से मुँह गोरा होगा। .
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पूछा पत्नी से 'न नहाऊँ, क्यों कहती हो बहुत जरूरी?'
पत्नी बोली आँख दिखाकर 'नहीं चलेगी अब मगरूरी।।'
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नहा रहे या बेलन, चिमटा, झाड़ू लाऊँ सबक सिखाने
कौआ कहे 'न रूठो रानी! मैं बेबस हो चला नहाने'
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निकट नदी के जाकर देखा पानी लगा जान का दुश्मन
शीतल जल है, करूँ किस तरह बम भोले! मैं कहो आचमन?
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घूर रही कौवी को देखा पैर भिगाये साहस करके
जान न ले ले जान!, मुझे जीना ही होगा अब मर-मर के
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जा पानी के निकट फड़फड़ा पंख दूर पल भर में भागा
'नहा लिया मैं, नहा लिया' चिल्लाया बहुत जोर से कागा
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पानी में परछाईं दिखाकर बोला 'डुबकी आज लगाई
अब तो मेरा पीछा छोडो, ओ मेरे बच्चों की माई!'
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रोनी सूरत देख दयाकर कौवी बोली 'धूप ताप लो
कहो नर्मदा मैया की जय, नाहक मुझको नहीं शाप दो'
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गाय नर्मदा हिंदी भारत भू पाँचों माताओं की जय
भागवान! अब दया करो चैया दो तो हो पाऊँ निर्भय
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उसे चिढ़ाने कौवी बोली' आओ! संग नहा लो-तैर'
कर ''कौआ स्नान'' उड़ा फुर, अब न निभाओ मुझसे बैर
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बच्चों! नित्य नहाओ लेकिन मत करना कौआ स्नान
रहो स्वच्छ, मिल खेलो-कूदो, पढ़ो-बढ़ो बनकर मतिमान
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कार्यशाला-
छंद बहर का मूल है- १.
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उर्दू की १९ बहरें २ समूहों में वर्गीकृत की गयी हैं।
१. मुफरद बहरें-
इनमें एक ही अरकान या लय-खण्ड की पुनरावृत्ति होती है।
इनके ७ प्रकार (बहरे-हज़ज सालिम, बहरे-ऱज़ज सालिम, बहरे-रमल सालिम, बहरे-कामिल, बहरे-वाफिर, बहरे-मुतक़ारिब तथा बहरे-मुतदारिक) हैं।
२. मुरक्कब बहरें-
इनमें एकाधिक अरकान या लय-खण्ड मिश्रित होते हैं।
इनके १२ प्रकार (बहरे-मनसिरह, बहरे-मुक्तज़िब, बहरे-मुज़ारे, बहरे-मुजतस, बहरे-तवील, बहरे-मदीद, बहरे-बसीत, बहरे-सरीअ, बहरे-ख़फ़ीफ़, बहरे-जदीद, बहरे-क़रीब तथा बहरे-मुशाकिल) हैं।
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क. बहरे-मनसिरह
बहरे-मनसिरह मुसम्मन मतबी मौक़ूफ़-
इस बहर में बहुत कम लिखा गया है। इसके अरकान 'मुफ़तइलुन फ़ायलात मुफ़तइलुन फ़ायलात' (मात्राभार ११११२ २१२१ ११११२ २१२१) हैं।
यह १८ वर्णीय अथधृति जातीय शारद छंद है जिसमें ९-९ पर यति तथा पदांत में जगण (१२१) का विधान है।
यह २४ मात्रिक अवतारी जातीय छंद है जिसमें १२-१२ मात्राओं पर यति तथा पदांत में १२१ है।
उदाहरण-
१.
थक मत, बोझा न मान, कदम उठा बार-बार
उपवन में शूल फूल, भ्रमर कली पे निसार
पगतल है भू-बिछान, सर पर है आसमान
'सलिल' नहीं भूल भूल, दिन-दिन होगा सुधार
२.
जब-जब तूने कहा- 'सच', तब झूठा बयान
सच बन आया समक्ष, विफल हुआ न्याय-दान
उर्दू व्याकरण के अनुसार गुरु के स्थान पर २ लघु या दो लघु के स्थान पर गुरु मात्रा का प्रयोग करने पर छंद का वार्णिक प्रकार बदल जाता है जबकि मात्रिक प्रकार तभी बदलता है जब यह सुविधा पदांत में ली गयी हो। हिंदी पिंगल-नियम यह छूट नहीं देते।
३.
अरकान 'मुफ्तइलुन फ़ायलात मुफ्तइलुन फ़ायलात' (मात्राभार २११२ २१२१ २११२ २१२१)
क्यों करते हो प्रहार?, झेल सकोगे न वार
जोड़ नहीं, छीन भी न, बाँट कभी दे पुकार
कायम हो शांति-सौख्य, भूल सकें भेद-भाव
शांत सभी हों मनुष्य, किस्मत लेंगे सुधार
४.
दिल में हम अप/ने नियाज़/रखते हैं सो/तरह राज़
सूझे है इस/को ये भेद/जिसकी न हो/चश्मे-कोर
प्रथम पंक्ति में ए, ओ, अ की मात्रा-पतन दृष्टव्य।
(सन्दर्भ ग़ज़ल रदीफ़-काफ़िया और व्याकरण, डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल')
२८-१२-२०१६
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लघुकथा-
सफ़ेद झूठ
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गाँधी जयंती की सुबह दूरदर्शन पर बज रहा था गीत 'दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल', अचानक बेटे ने उठकर टीवी बंद कर दिया। कारण पूछने पर बोला- '१८५७ से लेकर १९४६ में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के अज्ञातवास में जाने तक क्रांतिकारियों ने आत्म-बलिदान की अनवरत श्रंखला की अनदेखी कर ब्रिटेन संसद सदस्यों से में प्रश्न उठवानेवालों को शत-प्रतिशत श्रेय देना सत्य से परे है. सत्यवादिता के दावेदार के जन्म दिन पर कैसे सहन किया जा सकता है सफ़ेद झूठ?
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लघुकथा -
कब्रस्तान
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महाविद्यालय के प्राचार्य मुख्य अतिथि को अपनी संस्था की गुणवत्ता और विशेषताओं की जानकारी दे रहे थे. पुस्तकालय दिखलाते हुए जानकारी दी की हमारे यहाँ विषयों की पाठ्य पुस्तकें तथा सन्दर्भ ग्रंथों के साथ-साथ अच्छा साहित्य भी है. हम हर वर्ष अच्छी मात्र में साहित्यिक पुस्तकें भी क्रय करते हैं.
आतिथि ने उनकी जानकारी पर संतोष व्यक्त करते हुए पुस्तकालय प्रभारी से जानना चाहा कि गत २ वर्षों में कितनी पुस्तकें क्रय की गयीं, विद्यार्थियों ने कितनी पुस्तकें पढ़ने हेतु लीं तथा किन पुस्तकों की माँग अधिक थी? उत्तर मिला इस वर्ष क्रय की गयी पुस्तकों की आदित जांच नहीं हुई है, गत वर्ष खरीदी गयी पुस्तकें दी नहीं जा रहीं क्योंकि विद्यार्थी या तो विलम्ब से वापिस करते हैं या पन्ने फाड़ लेते हैं.
नदी में बहते पानी की तरह पुस्तकालय से प्रतिदिन पुस्तकों का आदान-प्रदान न हो तो उसका औचित्य और सार्थकता ही क्या है? तब तो वह किताबों का कब्रस्तान ही हो जायेगा, अतिथि बोले और आगे चल दिए.

२८-१२-२०१५

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नवगीत

ब्रम्हानंद सहोदर*
रसानंद नव गीत मनोहर
ब्रम्हानंद सहोदर है।
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क्रंदन-रुदन, दर्द-पीड़ा ही
नहीं सत्य है।
साध्य शांति-सुख हेतु नहीं क्या
सभी कृत्य है।
संगति और विसंगति संग
नहीं रहतीं क्या?
शिला-रेत पर नदी श्वास की
सम बह बनी धरोहर है।
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चल-गिर, उठ-बढ़ते जाना ही
सही नीति है।
सुख पा, दुख का रोना रोना
गलत रीति है।
हर अभाव के दोषी बाकी
कह न, कोशिशें-
करो अथक, मन से मत हारो
वरो सफलता, दर पर है।
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शब्द-ब्रम्ह ही शिवानंद है,
जीवन उत्सव है।
कोई विधा न निरानंद है,
हँसना लाघव है।
हैं चुनौतियाँ हरदम सम्मुख
यत्न, लड़ें-जीतें-
हाथ हाथ पर धर मत बैठें
कदम-कदम पर अवसर हैं।

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दोहा 'दो है' कह रहा, कर दोनों को एक।
तेज द्वैत अद्वैत वर, रीति-नीति शुभ नेक।।
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सत्-शिव-सुंदर वरण कर, गह सत्-चित्-आनंद।
गागर में सागर भरे, अनुपम दोहा छंद।।
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अमिधा-व्यंजन-लक्षणा, प्रिय है त्रयी समान।
भेद-भाव देता मिटा, दोहा नव रस-खान।।
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दोहा दुनिया में नहीं, आरक्षण का काम।
समझ-सोच युग-सच कहे, कवि पाता यश-नाम।।
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चरण विषम-सम को मिले, अवसर सदा समान।
बिन वरीयता कथ्य कह, दोनों हों रसवान।।
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लघु-गुरु दूरी दूरकर, नीर-क्षीर सम एक।
नेक इरादे ले कहें, अनथक कथ्य अनेक।।
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कल न अकल बिन रह सके, अ-कल न कल बिन जान।
द्विकल त्रिकल चतुकल रखें, सनझ-बूझ मतिमान।।
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गौ-भाषा को दोहकर, अर्थ-दुग्ध बिन अर्थ।
दोहा-ग्वाला बाँटता, इस सम कौन समर्थ।।
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नेह-नर्मदा धार है, दोहा सलिल-प्रवाह।
कवि सुन-पढ़-रच समझकर, डूबे मिले न थाह।।
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इसीलिए सच मत तजें, 'जगण' आदि है दोष।
इसी लिए निर्दोष है, समझ करें संतोष।।
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यगण-मगण विषमांत में, रखते रहे सुजान।
वर्ज्य न कहिए-मानिए, वृथा जिद्द-हठ ठान।।
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कुंडलिया
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झर-झर-झर निर्झर झरे, हरती ताप फुहार।
चट्टानों को भी नमी, देती मृदुल फुहार।।
देती मृदुल फुहार, मृदा को भी नवजीवन।
हरी-भरी हो धरा, तरंगित मन संजीवन।।
ऊषा-संध्या सलिल-धार में नचें थिरककर।
रवि-शशि झूमें संग, धरे निर्झर झर-झर-झर।।
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तेरह-ग्यारह यति रखें, मात्राएँ लययुक्त।
दोहा-रोला को करे, कुंडलिया संयुक्त।।
कुंडलिया संयुक्त, चरण चौ-पाँच एक हो।
ग्यारह-तेरह कला, रखें रोला हरेक हो।।
आदि अंत सम रहे, सत्य युग का सकती कह।
कुंडलिया दिन-रात, सदृश है तेरह-ग्यारह।।
१२-११-२०१८
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बीज नाम कुल तन दिया, तुमने मुझको तात
अन्धकार की कोख से, लाकर दिया प्रभात
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गोदी आँचल लोरियाँ, उँगली कंधा बाँह
माँ-पापा जब तक रहे, रही शीश पर छाँह
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शुभाशीष से भरा था, जब तक जीवन पात्र
जान न पाया रिक्तता, अब हूँ याचक मात्र
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पितृ-चरण स्पर्श बिन, कैसे हो त्यौहार
चित्र देख मन विकल हो, करता हाहाकार
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तन-मन की दृढ़ता अतुल, खुद से बेपरवाह
सबकी चिंता-पीर हर, ढाढ़स दिया अथाह
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श्वास पिता की धरोहर, माँ की थाती आस
हास बंधु, तिय लास है, सुता-पुत्र मृदु हास
१५-११-२०१४
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