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शुक्रवार, 25 जून 2021

मैं भारत हूँ


११-७-२०१८ 
विजय भारत भारती की, अनुपमा शोभा लखें 
जन्म लें गोविन्द भी आ, संग कमला भी दिखें 
*
हो अशोक स्वदेश सारा, निशा सारा तम पिएँ 
प्रगट सरला उषा सीमा, हम दधीच सदृश जिएँ 
*
बनें कंकर सभी शंकर, जीव हर संजीव हो 

शरद पुष्पाए हमेशा, हरे मधुसूदन तिमिर 
एकता का आचरण कर, छू सकें साफल्य हर 
*


तिरुपुर सेलम को नमन, कोयंबटूर सलाम
जय जय करें इरोड की, भारत हो सुख धाम
*
अटल करें संकल्प हम, बीना छेड़े राग 
भारत भारत ही रहे, हर दिल में है आग 
*
श्रवण संस्कृति सनातन, पाती विजय हमेश 
शोभा इसकी अनुपमा, निर्मल सलिल अशेष  
*
श्रीगोपाल सदय रहें, हर दिन विपुल विकास 
हम दधीच वत कर सकें, निशा पूर्ण हो आस 
*
हो अशोक जनगण सकल, जन मत हो कैलाश 
जीव सभी संजीव हों, साक्षी हो आकाश 
*
हर मन में विश्वास हो, तरुण अरुण है साथ 
मधु दे कडुवाहट मिटा, गह हरीश का हाथ 
*
कौन किशोर नहीं यहाँ, सोहन ह्रदय उमंग 
शशि प्रकाश दस दिश बिखर, जीते निश्चय जंग 
*
२३-६-२०२१ 
*



दोहा सलिला पिता

दोहा सलिला
पिता
*
गीता पढ़कर नित पिता, रहे पढ़ाते पाठ
सदानंद कर्त्तव्य से, मिले करो हंस ठाठ
*
विभा-रश्मि जब साथ हो, तब न तिमिर को भूल
भूमि रेणु से जो जुड़े, वह सरला मति फूल
*
पिता शिवानी पूजते, माँ शंकर की भक्त
भोर दुपहरी रीझती, संध्या थी अनुरक्त
*
करते भजन रमेश का, थे न रमा आधीन
शेख मान शहजाद सम, दें आदर बन दीन
*
राहुल और यशोधरा, साथ रहे कर युद्ध 
थे अनुराग-विराग के, मूर्त रूप शुचि बुद्ध 
*
प्रतिमा मन में पिता की, शोभित माँ के साथ
जीव हुआ संजीव तब, धर पग में नत माथ
*
श्वास आस माता पिता, हैं श्रद्धा-विश्वास
इंद्र-इंदिरा ले गए, अब है शेष सुवास
२५-६-२०२१
****

पिता रचनाएँ

पिता रचनाएँ
*
शिशु गीत सलिला :
संजीव 'सलिल'
*
पापा-
पापा लाड़ लड़ाते खूब,
जाते हम खुशियों में डूब।
उन्हें बना लेता घोड़ा-
हँसती, देख बाग़ की दूब।।
*
पापा चलना सिखलाते,
सारी दुनिया दिखलाते।
रोज बिठाकर कंधे पर-
सैर कराते मुस्काते।।
*
गलती हो जाए तो भी,
मुझे नहीं खोना आपा।
सीख-सुधारो, खुद सुधारो-
सीख सिखाते थे पापा।।
*
बाल कविता:
मेरे पिता
संजीव 'सलिल'
जब तक पिता रहे बन साया!
मैं निश्चिन्त सदा मुस्काया!
*
रोता देख उठा दुलराया
कंधे पर ले जगत दिखाया
उँगली थमा,कहा: 'बढ़ बेटा!
बिना चले कब पथ मिल पाया?'
*
गिरा- उठाकर मन बहलाया
'फिर दौड़ो' उत्साह बढ़ाया
बाँह झुला भय दूर भगाया
'बड़े बनो' सपना दिखलाया
*
'फिर-फिर करो प्रयास न हारो'
हरदम ऐसा पाठ पढ़ाया
बढ़ा हौसला दिया सहारा
मंत्र जीतने का सिखलाया
*
लालच करते देख डराया
आलस से पीछा छुड़वाया
'भूल न जाना मंज़िल-राहें
दृष्टि लक्ष्य पर रखो' सिखाया
*
रवि बन जाड़ा दूर भगाया
शशि बन सर से ताप हटाया
मैंने जब भी दर्पण देखा
खुद में बिम्ब पिता का पाया
२१-६-२०१५
***
स्मृति गीत:
हर दिन पिता याद आते हैं...
संजीव 'सलिल' 
*
जान रहे हम अब न मिलेंगे. 
यादों में आ, गले लगेंगे.
आँख खुलेगी तो उदास हो-
हम अपने ही हाथ मलेंगे. 
पर मिथ्या सपने भाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
लाड, डांट, झिडकी, समझाइश.
कर न सकूँ इनकी पैमाइश. 
ले पहचान गैर-अपनों को-
कर न दर्द की कभी नुमाइश.
अब न गोद में बिठलाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
अक्षर-शब्द सिखाये तुमने.
नित घर-घाट दिखाए तुमने.
जब-जब मन कोशिश कर हारा-
फल साफल्य चखाए तुमने.
पग थमते, कर जुड़ जाते हैं 
हर दिन पिता याद आते हैं...
२०-६-२०१० 
***
दोहा सलिला 
*
माँ जमीन में जमी जड़, पिता स्वप्न आकाश
पिता हौसला-कोशिशें, माँ ममतामय पाश
*
वे दीपक ये स्नेह थीं, वे बाती ये ज्योत
वे नदिया ये घाट थे, मोती-धागा पोत
*
गोदी-आंचल में रखा, पाल-पोस दे प्राण
काँध बिठा, अँगुली गही, किया पुलक संप्राण
*
ये गुझिया वे रंग थे, मिल होली त्यौहार
ये घर रहे मकान वे,बाँधे बंदनवार
*
शब्द-भाव रस-लय सदृश, दोनों मिलकर छंद
पढ़-सुन-समझ मिले हमें, जीवन का आनंद
*
नेत्र-दृष्टि, कर-शक्ति सम, पैर-कदम मिल पूर्ण
श्वास-आस, शिव-शिवा बिन, हम रह गये अपूर्ण७.१०.२०१८
***
मुक्तिका
*
माता जिसकी सूरत है, वह मूरत है साकार पिता
लेन-देन कहिए, या मुद्रा माँ है तो व्यापार पिता

माँ बिन पिता, पिता बिन माता कैसे कहिए हो सकते?
भव्य इमारत है मैया तो है उसका आधार पिता

यह काया है वह छाया है, यह तरु वह है पर्ण हरे
माँ जीवन प्रस्ताव मान सच, जिसका है स्वीकार पिता

अर्पण और समर्पण की हैं परिभाषा अद्भुत दोनों
पिता बिना माता बेबस हैं, माता बिन लाचार पिता

हम दोनों उन दोनों से हों, एक दूसरे के पूरक
यही चाहते रहे हमेशा माँ दुलार कर प्यार पिता
***
गीता पढ़कर नित पिता, रहे पढ़ाते पाठ
सदानंद कर्त्तव्य से, मिले करो हंस ठाठ 
*
विभा-रश्मि जब साथ हो, तब न तिमिर को भूल 
भूमि रेणु से जो जुड़े, वह सरला मति फूल 
*
पिता शिवानी पूजते, माँ शंकर की भक्त 
भोर दुपहरी रीझती, संध्या थी अनुरक्त 
*
करते भजन रमेश का, थे न रमा आधीन 
शेख मान शहजाद सम, दें आदर बन दीन 
*
राहुल और यशोधरा, साथ रहे बन बुद्ध 
थे अनुराग-विराग के मूर्त रूप सन्नद्ध 
*
प्रतिमा मन में पिता की, शोभित माँ के साथ 
जीव हुआ संजीव तब, धर पग में नत माथ 
*
 श्वास आस माता पिता, हैं श्रद्धा-विश्वास 
इंद्र-इंदिरा ले गए, अब है शेष उजास 
२५-६-२०२१ 
****

बुधवार, 23 जून 2021

काल है संक्रांति का, आचार्य भगवत दुबे

पुस्तक चर्चा-
संक्रांतिकाल की साक्षी कवितायें
आचार्य भगवत दुबे
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१६, आकार २२ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ १२८, मूल्य जन संस्करण २००/-, पुस्तकालय संस्करण ३००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१]
कविता को परखने की कोई सर्वमान्य कसौटी तो है नहीं जिस पर कविता को परखा जा सके। कविता के सही मूल्याङ्कन की सबसे बड़ी बाधा यह है कि लोग अपने पूर्वाग्रहों और तैयार पैमानों को लेकर किसी कृति में प्रवेश करते हैं और अपने पूर्वाग्रही झुकाव के अनुरूप अपना निर्णय दे देते हैं। अतः, ऐसे भ्रामक नतीजे हमें कृतिकार की भावना से सामंजस्य स्थापित नहीं करने देते। कविता को कविता की तरह ही पढ़ना अभी अधिकांश पाठकों को नहीं आता है। इसलिए श्री दिनकर सोनवलकर ने कहा था कि 'कविता निश्चय ही किसी कवि के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। किसी व्यक्ति का चेहरा किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलता, इसलिए प्रत्येक कवी की कविता से हमें कवि की आत्मा को तलाशने का यथासम्भव यत्न करना चाहिए, तभी हम कृति के साथ न्याय कर सकेंगे।' शायद इसीलिए हिंदी के उद्भट विद्वान डॉ. रामप्रसाद मिश्र जब अपनी पुस्तक किसी को समीक्षार्थ भेंट करते थे तो वे 'समीक्षार्थ' न लिखकर 'न्यायार्थ' लिखा करते थे।
रचनाकार का मस्तिष्क और ह्रदय, अपने आसपास फैले सृष्टि-विस्तार और उसके क्रिया-व्यापारों को अपने सोच एवं दृष्टिकोण से ग्रहण करता है। बाह्य वातावरण का मन पर सुखात्मक अथवा पीड़ात्मक प्रभाव पड़ता है। उससे कभी संवेदनात्मक शिराएँ पुलकित हो उठती हैं अथवा तड़प उठती हैं। स्थूल सृष्टि और मानवीय भाव-जगत तथा उसकी अनुभूति एक नये चेतन संसार की सृष्टि कर उसके साथ संलाप का सेतु निर्मित कर, कल्पना लोक में विचरण करते हुए कभी लयबद्ध निनाद करता है तो कभी शुष्क, नीरस खुरदुरेपन की प्रतीति से तिलमिला उठता है।
गीत-नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' के रचनाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका 'दिव्य नर्मदा' के यशस्वी संपादक रहे हैं जिसमें वे समय के साथ चलते हुए १९९४ से अंतरजाल पर अपने चिट्ठे (ब्लॉग) के रूप में निरन्तर प्रकाशित करते हुए अब तक ४००० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित कर चुके हैं। अन्य अंतर्जालीय मंचों (वेब साइटों) पर भी उनकी लगभग इतनी ही रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। वे देश के विविध प्रांतों में भव्य कार्यक्रम आयोजित कर 'अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण' के माध्यम से हिंदी के श्रेष्ठ रचनाकारों के उत्तम कृतित्व को वर्षों तक विविध अलंकरणों से अलंकृत करने, सत्साहित्य प्रकाशित करने तथा पर्यावरण सुधार, आपदा निवारण व शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने का श्रेय प्राप्त अभियान संस्था के संस्थापक-अध्यक्ष हैं।
इंजीनियर्स फोरम (भारत) के महामंत्री के रूप में अभियंता वर्ग को राष्ट्रीय-सामाजिक दायित्वों के प्रति सचेत कर उनकी पीड़ा को समाज के सम्मुख उद्घाटित कर सलिल जी ने सार्थक संवाद-सेतु बनाया है। वे विश्व हिंदी परिषद जबलपुर के संयोजक भी हैं।
अभिव्यक्ति विश्वम दुबई द्वारा आपके प्रथम नवगीत संग्रह 'सड़क पर...' की पाण्डुलिपि को 'नवांकुर अलंकरण २०१६' (१२०००/- नगद) से अलङ्कृत किया गया है। अब तक आपकी चार कृतियाँ कलम के देव (भक्तिगीत), लोकतंत्र का मक़बरा तथा मीत मेरे (काव्य संग्रह) तथा भूकम्प के साथ जीना सीखें (लोकोपयोगी) प्रकाशित हो चुकी हैं।
सलिल जी छन्द शास्त्र के ज्ञाता हैं। दोहा छन्द, अलंकार, लघुकथा, नवगीत तथा अन्य साहित्यिक विषयों के साथ अभियांत्रिकी-तकनीकी विषयों पर आपने अनेक शोधपूर्ण आलेख लिखे हैं। आपको अनेक सहयोगी संकलनों, स्मारिकाओं तथा पत्रिकाओं के संपादन हेतु साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा ने 'संपादक रत्न' अलंकरण से सम्मानित किया है। हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग ने संस्कृत स्त्रोतों के सारगर्भित हिंदी काव्यानुवाद पर 'वाग्विदाम्बर सम्मान' से सलिल जी को सम्मानित किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि सलिल जी साहित्य के सुचर्चित हस्ताक्षर हैं। 'काल है संक्रांति का' आपकी पाँचवी प्रकाशित कृति है जिसमें आपने दोहा, सोरठा, मुक्तक, चौकड़िया, हरिगीतिका, आल्हा अदि छन्दों का आश्रय लेकर गीति रचनाओं का सृजन किया है।
भगवन चित्रगुप्त, वाग्देवी माँ सरस्वती तथा पुरखों के स्तवन एवं अपनी बहनों (रक्त संबंधी व् मुँहबोली) के प्रति गीतात्मक समर्पण से प्रारम्भ इस कृति में संक्रांतिकाल जनित अराजकताओं से सजग करते हुए चेतावनी व् सावधानियों के सन्देश अन्तर्निहित है।
'सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे वंशी मादल
लूट-छिपा माल दो
जगो, उठो।'
उठो सूरज, जगो सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे?, छुएँ सूरज, हे साल नये आदि शीर्षक नवगीतों में जागरण का सन्देश मुखर है। 'सूरज बबुआ' नामक बाल-नवगीत में प्रकृति के उपादानों से तादात्म्य स्थापित करते हुए गीतकार सलिल जी ने पारिवारिक रिश्तों के अच्छे रूपक बाँधे हैं-
'सूरज बबुआ!
चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी।
बहिन उषा को गिर दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ीं।
धूप बुआ ने लपक उठाया
पछुआ लायी
बस्ता फूल।'
गत वर्ष के अनुभवों के आधार पर 'मत हिचक' नामक नवगीत में देश की सियासी गतिविधियों को देखते हुए कवी ने आशा-प्रत्याशा, शंका-कुशंका को भी रेखांकित किया है।
'नये साल
मत हिचक
बता दे क्या होगा?
सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पाएगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटाई
तो क्या
घटनाक्रम होगा?'
पाठक-मन को रिझाते ये गीत-नवगीत देश में व्याप्त गंभीर समस्याओं, बेईमानी, दोगलापन, गरीबी, भुखमरी, शोषण, भ्रष्टाचार, उग्रवाद एवं आतंक जैसी विकराल विद्रूपताओं को बहुत शिद्दत के साथ उजागर करते हुए गम्भीरता की ओर अग्रसर होते हैं।
बुंदेली लोकशैली का पुट देते हुए कवि ने देश में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, विषमताओं एवं अन्याय को व्यंग्यात्मक शैली में उजागर किया है।
मिलती काय ने ऊँचीबारी
कुर्सी हमखों गुईंया
पैला लेऊँ कमिसन भारी
बेंच खदानें सारी
पाँछू घपले-घोटालों सों
रकम बिदेस भिजा री
समीक्ष्य कृति में 'अच्छे दिन आने वाले' नारे एवं स्वच्छता अभियान को सटीक काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी गयी है। 'दरक न पायें दीवारें नामक नवगीत में सत्ता एवं विपक्ष के साथ-साथ आम नागरिकों को भी अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति सचेष्ट करते हुए कवि ने मनुष्यता को बचाये रखने की आशावादी अपील की है।
लिये शपथ सब संविधान की
देश देवता है सबका
देश-हितों से करो न सौदा
तुम्हें वास्ता है रब का
सत्ता, नेता, दल, पद झपटो
करो न सौदा जन-हित का
भार करों का इतना ही हो दरक न जाएँ दीवारें
कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने वर्तमान के युगबोधी यथार्थ को ही उजागर नहीं किया है अपितु अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति सुदृढ़ आस्था का परिचय भी दिया है। अतः, यह विश्वास किया जा सकता है कि कविवर सलिल जी की यह कृति 'काल है संक्रांति का' सारस्वत सराहना प्राप्त करेगी।
***
आचार्य भगवत दुबे
महामंत्री कादंबरी
पिसनहारी मढ़िया के निकट
जबलपुर ४८२००३, चलभाष ९३००६१३९७५

मुक्तक

 
⛅🌱 मुक्तक 🍀🌵
*************************
हम हैं धुर देहाती शहरी दंद-फंद से दूर
पुलकित होते गाँव हेर नभ, ऊषा, रवि, सिंदूर
कलरव-कलकल सुन कर मन में भर जाता है हर्ष
किलकिल तनिक न भाती, घरवाली लगती है हूर. *
तुम शहरी बंदी रहते हो घर की दीवारों में
पल-पल घिरे हुए अनजाने चोरों, बटमारों में
याद गाँव की छाँव कर रहे, पनघट-अमराई भी
सोच परेशां रहते निश-दिन जलते अंगारों में
********************************************** 
*************************
हम हैं धुर देहाती शहरी दंद-फंद से दूर
पुलकित होते गाँव हेर नभ, ऊषा, रवि, सिंदूर
कलरव-कलकल सुन कर मन में भर जाता है हर्ष
किलकिल तनिक न भाती, घरवाली लगती है हूर. 
*
तुम शहरी बंदी रहते हो घर की दीवारों में
पल-पल घिरे हुए अनजाने चोरों, बटमारों में
याद गाँव की छाँव कर रहे, पनघट-अमराई भी
सोच परेशां रहते निश-दिन जलते अंगारों में
२३-६-२०१७
*********************************** 

द्विपदियाँ

कुछ द्विपदियाँ :
संजीव 'सलिल'
*
वक्-संगति में भी तनिक, गरिमा सके न त्याग.
राजहंस पहचान लें, 'सलिल' आप ही आप..
*
चाहे कोयल-नीड़ में, निज अंडे दे काग.
शिशु न मधुर स्वर बोलता, गए कर्कश राग..
*
रहें गृहस्थों बीच पर, अपना सके न भोग.
रामदेव बाबा 'सलिल', नित करते हैं योग..
*
मैकदे में बैठकर, प्याले पे प्याले पी गये.
'सलिल' फिर भी होश में रह, हाय! हम तो जी गए..
*
खूब आरक्षण दिया है, खूब बाँटी राहतें.
झुग्गियों में जो बसे, सुधरी नहीं उनकी गतें..
*
थक गए उपदेश देकर, संत मुल्ला पादरी.
सुन रहे प्रवचन मगर, छोड़ें नहीं श्रोता लतें.
*
२३-६-२०१०

मुक्तिका

मुक्तिका
*
साँझ शर्मा गयी, गुलाल हुई
क्या कहूँ?, हाय! बेमिसाल हुई
*
एक पल में हँसी वो बच्ची सी
दूसरे पल मचल, धमाल हुई
*
फ़िक्र में माँ दुपहरी दुबलाई
रात दादी मिली, निहाल हुई
*
चाँद माथे सजा, लगे सूरज
चाँदनी जिस्म-ढल कमाल हुई
*
होंठ हैं या कमल की पंखुड़ियाँ?
मुस्कुराहट भ्रमर-रसाल हुई
*
ओढ़नी-टाँक ओढ़कर तारे
ज़ुल्फ़ काली नची निढाल हुई
*
अँजुरी में 'सलिल' लिया बरबस
रूप देखे नज़र सवाल हुई
***
२३-६-२०१५


इस दिन

जम्मू-कश्मीर और अनुच्छेद ३७०

चौपाल चर्चा:
जम्मू-कश्मीर और अनुच्छेद ३७०
संजीव
*
भारत की स्वतंत्रता के समय भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम १९४७ के अनुसार भारतीय रियासतों को छूट थी कि वे भारत या पाकिस्तान में से जिसके साथ चाहें विलय करें या दोनों में से किसी से विलय न कर स्वतंत्र रहें। कश्मीर, हैदराबाद तथा जूनागढ़ को छोड़कर शेष रियासतों ने अधिमिलन पत्र हस्ताक्षरित कर भारत के साथ मिलन स्वीकार कर लिया। जूनागढ़ की जनता ने नवाब से विद्रोह कर भारत में विलय की घोषणा कर दी तो नवाब पाकिस्तान भाग गया। हैदराबाद में जनता भारत चाहती थी जबकि नवाब पाकिस्तान में। तब सरदार पटेल ने सैन्य कार्यवाही कर जनता के चाहे अनुसार नवाब को भारत में विलय स्वीकारने हेतु बाध्य कर दिया।
जम्मू-कश्मीर के एक भाग में मुस्लिम जनसँख्या अधिक थी तो दूसरे में हिंदू, राजा हिन्दू तो वज़ीर मुसलमान। मुसलमान वज़ीर शेख अब्दुल्ला तथा जनता भारत में विलय के पक्ष में थे, पाकिस्तान मुस्लिम आबादी का आधार लेकर अपना दावा कर रहा था, जबकि महाराज हरिसिंह स्वतंत्र देश के रूप में रहना चाहते थे। पाकिस्तान ने अनिश्चितता का लाभ उठाने की नियत से फ्रोंटियर के पठानों को शस्त्र देकर कश्मीर पर हमलाकर कब्ज़ा करने के लिए भेजा। अपना बचाव करने में असमर्थ होकर २६-१०-१९४७ को महाराज ने भारत सरकार के पास विलय पत्र भेजा।
महाराज तथा भारत सरकार के बीच वार्ता में महाराजा ने जनप्रतिनिधियों के सहयोग से उत्तरदायी सरकार बनाकर वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव कराना तथा कश्मीरी संविधान निर्माण हेतु विधान सभा बनाना स्वीकार कर ५-३-१९४८ को उद्घोषणा जारी की।महाराज के स्थान सत्तासीन युवराज कर्णसिंह ने २५-११-१९४९ को एक उद्घोषणा जारी की जिसके आधार पर संविधान के भाग २१ में अनुच्छेद ३७० अस्थायी संक्रमणकालीन और विशेष उपबंध सम्मिलित कर ने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्ज़ा दिया है। इसके अनुसार अनुच्छेद २३८ के उपबंध जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होंगे। इस राज्य के सम्बन्ध में भारत की कानून बनाने की शक्ति उन विषयों तक सीमित होगी जिनको राष्ट्रपति राज्य सरकार से परामर्श कर अधिमिलन पत्र में निर्दिष्ट ऐसे विषय के रूप घोषित कर दे उक्त जिस पर भारत कानून बना सकता है।
अतः संसद को जम्मू -कश्मीर के सम्बन्ध में स्वरक्षा, यातायात, मुद्रा (सिक्का) तथा विदेश नीति के सम्बन्ध में ही कानून बनाने का अधिकार है. अन्य विषयों पर कानून कश्मीर सरकार की सहमति से ही बनाया जा सकता है। राष्ट्रपति ने संविधान जम्मू-कश्मीर में प्रभावशील होने का आदेश १९५० में जारी तथा १९५४ में परिवर्तित किया। अनुच्छेद २४६ के अनुसार अवशिष्ट शक्तियाँ संसद को नहीं कश्मीर विधान सभा को है।
इस अनुच्छेद के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विविध वादों में निर्गत निर्णयों के अनुसार यह अनुच्छेद अस्थायी है किन्तु इसे राज्य विधान सभा की सहमति से ही समाप्त किया जा सकता है।
इसी अनुच्छेद में गुजरात, महाराष्ट्र, नागालैंड, सिक्किम मिजोरम आदि सम्बन्धी विशेष उपबंधों की चर्चा है।

गीत

गीत:
मौसम बदल रहा है…
संजीव
*
मौसम बदल रहा है
टेर रही अमराई
परिवर्तन की आहट
पनघट से भी आई...
*
जन आकांक्षा नभ को
छूती नहीं अचंभा
छाँव न दे जनप्रतिनिधि
ज्यों बिजली का खंभा
आश्वासन की गर्मी
सूरज पीटे डंका
शासन भरमाता है
जनगण मन में शंका
अपचारी ने निष्ठा
बरगद पर लटकाई
सीता-द्रुपदसुता अब
घर में भी घबराई...
*
मौनी बाबा गायब
दूजा बड़बोला है
रंग भंग में मिलकर
बाकी ने घोला है
पत्नी रुग्णा लेकिन
रास रचाये बुढ़ापा
सुत से छोटी बीबी
मिले शौक है व्यापा
घोटालों में पीछे
ना सुत, नहीं जमाई
संसद तकती भौंचक
जनता है भरमाई...
*
अच्छे दिन आये हैं
रखो साल भर रोजा
घाटा घटा सकें वे
यही रास्ता खोजा
हिंदी की बिंदी भी
रुचे न माँ मस्तक पर
धड़क रहा दिल जन का
सुन द्वारे पर दस्तक
क्यों विरोध की खातिर
हो विरोध नित भाई
रथ्या हुई सियासत
निष्कासित सिय माई...
२३-६-२०१४
***

नवगीत

नवगीत:
करो बुवाई...
संजीव 'सलिल'
*
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
ऊसर-बंजर जमीन कड़ी है.
मँहगाई जी-जाल बड़ी है.
सच मुश्किल की आई घड़ी है.
नहीं पीर की कोई जडी है.
अब कोशिश की
हो पहुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
उगा खरपतवार कंटीला.
महका महुआ मदिर नशीला.
हुआ भोथरा कोशिश-कीला.
श्रमसे कर धरती को गीला.
मिलकर गले
हँसो सब भाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
मत अपनी धरती को भूलो.
जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो.
स्नेह-'सलिल' ले-देकर फूलो.
पेंगें भर-भर झूला झूलो.
घर-घर चैती
पड़े सुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
***

मुक्तिका: आँख का पानी

मुक्तिका:
आँख का पानी
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आजकल दुर्लभ हुआ है आँख का पानी.
बंद पिंजरे का सुआ है आँख का पानी..
शिलाओं को खोदकर नाखून टूटे हैं..
आस का सूखा कुंआ है आँख का पानी..
द्रौपदी को मिल गया है यह बिना माँगे.
धर्मराजों का जुआ है आँख का पानी..
मेमने को जिबह करता शेर जब चाहे.
बिना कारण का खुआ है आँख का पानी..
हजारों की मौत भी उनको सियासत है.
देख बिन बोले चुआ है आँख का पानी..
किया मुजरा, मिला नजराना न तो बोले-
जहन्नुम जाए मुआ! खो आँख का पानी..
देवकी राधा यशोदा कभी विदुरानी.
रुक्मिणी कुंती बुआ आँख का पानी..
देख चन्दा याद आतीं रोटियाँ जिनको
दिखे सूरज में पुआ बन आँख का पानी..
भजन प्रवचन सबद साखी साधना बानी
'सलिल' पुरखों की दुआ है आँख का पानी..
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२३-६-२०१०

नवगीत प्रश्नावली

नवगीत प्रश्नावली
प्रश्नकर्ता : डॉ. संजय यादव, लवली प्रोफेशनल विद्यालय , फगवाड़ा पंजाब 
ए ५७ राठ नगर, अलवर राजस्थान, ३०१००१, चलभाष ८७१७० ८४००५, ९०८६३ ४८४१८, sanjay4643n @gmail.com 
शोध निदेशक विनोद कुमार 
साक्षात्कार : 
प्रश्नकर्ता : डॉ. संजय यादव, लवली प्रोफेशनल विद्यालय , फगवाड़ा पंजाब
उत्तरदाता : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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प्रश्न १ - अध्ययन और मनन के और भी क्षेत्र थे लेकिन उस तरफ न जाकर, साहित्य का पथ अपने चुना, ऐसा किसी सुझाव, विशेष कारण या किसी व्यक्तित्व से प्रेरित होकर अपने इस ओर रुख किया?

उत्तर - मेरा जन्म मसिजीवी (कलम के बल पर जीविका कमानेवाले) बुद्धिजीवी कायस्थ परिवार में हुआ। मेरी मातुश्री शांति देवी वर्मा स्वयं कवयित्री थीं। पारिवारिक कारणों से उनकी प्रतिभा को विकसित होने का अवसर नहीं मिला तथापि वे महिलाओं की मंडली में रामचरित पाठ के समय प्रसंगानुसार भक्तिगीत, भजन आदि लिखकर गाया करती थीं। 'राम नाम सुखदाई' शीर्षक से उनके द्वारा लिखित भजनों के दो संस्करण प्रकाशित हुए हैं। पिताश्री राजबहादुर वर्मा जेलर और जेल अधीक्षक रहे। उन्हें शेरो-शायरी का शौक था। बचपन से घर में पुस्तकें पढ़ने का वातावरण था। हम ६ भाई-बहिन रोज शाम को आरती और भजन करते थे। मंगलवार और शनिवार को जेल परिसर में बजे मंदिर में शाम को मानस का पाठ होता। हम बच्चे सिपाहियों के साथ बैठकर मानस पढ़ते, कोई समझदार सिपाही चौपाई दोहों के अर्थ बताता। होली आदि त्योहारों पर सिपाहियों की पत्नियों हुए सिपाहियों के दल अलग-अलग बंगले पर आते और झूम-झूमकर फागें, कजरी, बिरहा, आदि लोकगीत सुनाते। हम बच्चों को इसमें विशेष रस मिलता। आजीविका से अभियंता होते हुए भी साहित्य की और रुझान का एक कारण यह परिवेश है।

दूसरा कारण मेरी बड़ी बहिन आशा जिज्जी और मेरे शिक्षक कवि द्वय सुरेश उपाध्याय व सुरेंद्र कुमार मेहता हैं। शिक्षा आरंभ होने पर स्वतंत्र दिवस, गणतंत्र पर्वों पर जिज्जी मेरे लिए भाषण लिखतीं या गीत याद करवातीं और उन्हें प्रस्तुत कर मुझे पुरस्कार मिलता। सुरेश उपाध्याय जी तथा सुरेंद्र कुमार मेहता ७ वीं से १० वीं तक सेठ नन्हेंलाल घासीराम उच्चतर माध्यमिक विद्यालय होशंगाबाद में मेरे हिंदी शिक्षक थे। इन दोनों ने हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति अभिरुचि विकसित करने में प्रेरक का कार्य किया।

प्रश्न २ - साहित्य में अन्य विधाओं की अपेक्षा नवगीत ही आपकी प्रतिनिधि विधा क्यों है?

उत्तर - केवल नवगीत मेरी प्रतिनिधि विधा नहीं है। प्रभु चित्रगुप्त और माँ शारदा की कृपा से मैं गद्य-पद्य की सभी मुख्य विधाओं और तकनीकी लेख आदि हिंदी में लिख पाता हूँ। मैं पद्य में गीत ५०० से अधिक, नवगीत ४०० से अधिक, हिंदी ग़ज़ल (मुक्तिका) ५०० से अधिक, मुकताक लगभग १०००, क्षणिका, हाइकु लगभग ६००, माहिया आदि, गद्य में लघुकथा ३०० से अधिक, लेख, समीक्षा ४०० से अधिक, समालोचना, व्यंग्य लेख ५० से अधिक, तकनीकी लेख लगभग ५०, भूमिका ७५ आदि लिख चुका हूँ। गूगल सर्च पर मेरे नाम के साथ १ लाख ८५ हजार प्रविष्टियाँ दर्ज हैं। मेरे ब्लॉग दिव्य नर्मदा, मुखपोथी पृष्ठों (फेसबुक पेजों) तथा वाट्स ऐप समूहों पर २०,००० से अधिक मेरी रचनाएँ हैं। अन्य विधाओं की तरह ही गीत-नवगीत मेरी प्रमुख सृजन विधाओं में से एक है।

प्रश्न ३ - जब गीत स्वयं में एक विधा थी और नवगीतकार भी यह मानते हैं, गीत की जानकारी के बिना नवगीत नहीं लिखा जा सकता तो नवगीत नामकरण की क्या विवशता थी? इसे गीत के रूप में ही रहने दिया जाता।

उत्तर - गीत वृक्ष की एक शाखा है नवगीत। लोकगीत, बालगीत, आव्हान गीत, प्रयाण गीत, क्रांति गीत, ऋतु गीत, पर्व गीत, अनुगीत, प्रगीत, अगीत आदि अन्य अनेक शाखाएँ भी हैं। इन शाखाओं पर विविध रसों के गीत (श्रृंगार गीत, भक्ति गीत, लोरी आदि) कुसुम गुच्छ की तरह हैं। मेरी एक रचना का मुखड़ा है 'गीत और नवगीत / नहीं हैं भारत-पाकिस्तान'।

कथ्य के आधार पर नवगीत को विडंबना गीत, वैषम्य गीत, व्यथा गीत बनाने का आग्रह प्रबल रहा है किन्तु बहुसंखयक गीतकार नवगीत को इस रूप में नहीं देखते। युवा नवगीतकारों ने नवगीत के शिल्प में सभी रसों को स्थान देने के सफल प्रयास किया है। कुमार रवींद्र का 'अप्प दीपो भव' बुद्ध पर नवगीतीय प्रबंध कृति है। यह अपनी मिसाल आप है।

गीत की जानकारी के बिना तो बाल गीत या अन्य प्रकार के गीत भी नहीं लिखे जा सकते। गीत तो सभी हैं पर किस प्रकार के गीत हैं? इसका उत्तर देने के लिए वर्गीकरण की आवश्यकता है। यह नामकरण नहीं वर्गीकरण है। गीत किसी भी वर्ग का हो अंतत: गीत ही है। नवगीत को पृथक विधा मानने का दुराग्रह कुछ मठाधीशों का है जो यह सोचते हैं कि इस तरह वे नवगीत के इतिहास में अमर हो सकेंगे पर उन्हें गीत के इतिहास में गीत-द्रोहियों के रूप में लांछना ही मिलेगी।

प्रश्न ४ - क्या आपमें जन्म से लेकर आज तक अपने शिल्प और कथ्य के संदर्भ में परिवर्तन आए हैं? यदि परिवर्तन आए हैं तो वे क्या हैं?

उत्तर - मुझमें क्या हर रचनाकार में समय-समय पर परिवर्तन आते हैं। चेतन पल-पल बदलता है, जो न बदले वह जड़ होता है। साहित्यकार की चेतना प्रबल होती है। गीतकार तो सर्वाधिक संवेदनशील और चेतना संपन्न होता है

मैं आरंभ में छंदरहित कवितायेँ अधिक लिखता था। तब छंद की समझ थी नहीं, वरिष्ठ जन कुछ बताने या सिखाने के स्थान पर हतोत्साहित करते थे। शायद अपना स्पर्धी न बनाकर, कमजोर रखकर अपनी श्रेष्ठता बनाए रखना उनका उद्देश्य था। छात्र जीवन से ही स्वाध्याय मेरा व्यसन रहा है। निरंतर पढ़ने से क्रमशः शब्द भंडार, भाषा-ज्ञान, लय की समझ, मात्रा व गण आदि की जानकारी मिलती रही। वरिष्ठों से मिली उपेक्षा ने एक जिद भी पैदा कर दी कि अपनी राह आप बनाना है। अभियांत्रिकी की पढ़ाई और नौकरी में साहित्य को उपेक्षित होते ही देखा। विभाग और साथी साहित्य से जुड़ाव होने के कारण मुझे विश्वसनीय नहीं मानते थे। उच्चाधिकारी संकेत में एक दूसरे से कहते 'मेहनती तो है, काम जानता भी है पर काम का नहीं है।' उनके लिए काम का वह होता था जो कार्य की गुणवत्ता पर ऊपरी कमाई को वरीयता दे। साहित्य से जुड़े नैतिक मूल्यों के कारण, साहित्यकार की समझ कुछ अधिक होने के कारण वह काम का कैसे रहता? मुझे कार्यस्थलीयों के स्थान पर कार्यालय में संलग्न रखा जाता। मैं इसे वरदान मानकर अधिक से अधिक किताबें पढ़ता। हिंदी प्रचारक संघ वाराणसी और राजकमल प्रकाशन की घरेलू पुस्तकालय योजना से कई वर्षों सैंकड़ों किताबें खरीदी और पढ़ीं। दो-तीन स्थानीय पुस्तकालयों से किताबें लेकर पढ़ता रहा। मेरे एक गीत का मुखड़ा है 'पहले एक पसेरी पढ़ / फिर तोला लिख।'

अभियंता संघ से जुड़ने पर मेरी कवि होने की ख्याति (?) के कारण मुझे संघ पत्रिका का संपादक बना दिया गया। अब सम्पादकीय लिखने, तकनीकी लेख लिखने, रिपोर्ताज लिखने, व्यंग्य लेख लिखने की और रुझान हुआ। फिर लघुकथा, पुस्तक समीक्षा, संस्मरण, साक्षात्कार आदि भी लिखे। सामाजिक पत्रिका चित्राशीष का संपादन-प्रकाशन किया तो सामाजिक समस्याओं पर जी भरकर लिखा। पर्यटन वृतांत भी लिखे। आवश्यकता होने पर अंग्रेजी में कविता, लेख आदि भी लिखे। धीरे-धीरे मेरा झुकाव छंद की और हुआ। गीत और ग़ज़ल में प्रयुक्त छंदों को जानने के लिए पिंगल ग्रंथों को पढ़ा। छंद लिखे अंतरजाल आने पर सबसे पहले वर्षों तक छंद लिखना सिखाया। ५०० से अधिक नए छंद बनाए। तकनीकी लेखन के लिए कई नए शब्द गढ़े। मोबाइल के लिए चलभाष, चैटबॉक्स के लिए दूरलेख मञ्जूषा, फेसबुक के लिए मुखपोथी जैसे शताधिक शब्द गढ़े। शिल्प और कथ्य मेरे कार्यानुभवों के अनुसार बदलता रहा है। मेरी सैंकड़ों रचनाएँ निर्माण स्थलियों पर लिखी गई हैं जिनमें स्थानों के, वहाँ की वनस्पतियों के, श्रमिकों के नाम आए हैं।

विधागत परिवर्तन कविता से, गीत, दोहा, लेख, संस्मरण, ग़ज़ल, लघुकथा, नवगीत, समीक्षा आदि के रूप में हुए। तदनुसार शिल्प और शैली में परिवर्तन आते गए। कथ्य भी सतत बदलता रहा है। अतीत के प्रति अंधश्रृद्धा, राष्ट्र गौरव से यथार्थ की और उन्मुख होने पर लिजलिजी भावुकता का स्थान सत्यपरकता ने लिया। सामाजिक, राजनैतिक, प्रशासनिक विद्रूपताओं से जैसे-जैसे और जब-जब साक्षात हुआ, उनकी अभिव्यक्ति ने कथ्य को भी बदला है। इस कोरोना काल में प्रशासनिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में हो रहे कदाचार, भ्रष्टाचार, मौका परस्ती, धन लोलुपता, निर्ममता और गिरोहबंदी ने हर सीमा तोड़ दी है। साहित्यकार को इन पर आघात करना ही होगा। मेरी नई रचनाओं में यह पीड़ा मुखर हो रही है।

प्रश्न ५ - आज लिखे जा रहे नवगीत की चुनौतियाँ क्या हैं? क्या वह अपनी समकालीन चिंताओं को सीधी तरह स्वर दे पा रहा है, जैसे हिंदी के अन्य समकालीन काव्य रूप दे रहे हैं?

उत्तर - समय और परिस्थितिगत चुनौतियाँ साहित्य की हर विधा के रचनाकारों के सामने हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि चुनौती एक विधा के रचनाकारों के सामने हों, अन्य के सामने न हों। 
चुनौतियों को तीन वर्गों में रख सकते हैं- १. विधा के सामने चुनौतियाँ और २. रचनाकार के सामने चुनौतियाँ, ३. विधागत चुनौतियाँ।
नवगीत विधा के सामने चुनौती गंभीर है। नवगीत का उद्भव लगभग ८ दशक पूर्व का माना जा रहा है। उद्भव काल में दिए गए लक्षणों और मानकों को आज भी आदर्श बताया जा रहा है। इससे नवता कैसे होगी? इस कारण नवगीत में कथ्य और शिल्प का दुहराव दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। नवगीत में ताजगी का अभाव और पिष्टपेषण की प्रवृत्ति चिंता का कारण है। इस चुनौती को स्वीकारते हुए मुझ सहित अनेक नवगीतकारों ने नवगीत को विडंबना, विसंगति, बिखराव, टकराव आदि के पिंजरे से निकालकर सभी रसों को समाविष्ट करते हुए नवगीत रचे हैं किन्तु हठधर्मी और संकुचित दृष्टि का परिचय देते हुए उनका स्वागत न कर अवहेलना का प्रयास किया गया तथापि कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर नवता को प्रधानता देने का कार्य निरंतर प्रगति पर है। 

नवगीतकार के सामने सामान्य चुनौती उसका लिखा हुआ समाज और शासन द्वारा न पढ़े-समझे जाने की है। लिखना और छपना बढ़ता जा रहा है किन्तु गंभीरतापूर्वक पढ़ना-सुनना और प्रतिक्रिया देना घटता जा रहा है। नवगीतकार के सामने व्यक्तिगत चुनौती अनुभूत की अनुभूति को संचित कर अभिव्यक्त कर पाने की है। इस राह पर सम्यक शब्द भंडार, भाषिक संस्कार, निजी कहन और मौलिक कथन की खोज और उसे स्थापित कर पाना सबसे कठिन चुनौती है। 

विधागत चुनौतियों को देखें तो गीत की गणना सर्वाधिक लोकप्रिय विधाओं में की जाती है। नवगीत गीत का ही एक प्रकार है। स्वाभाविक रूप से नवगीत को गीत की लोकप्रियता विरासत में मिली है। विधा के रूप में गीत-नवगीत के सामने ग़ज़ल की चुनौती है। ग़ज़ल मुक्तक का विस्तार और गीत का ही एक अन्य प्रकार है। गीत की कहन मौलिक, अनूठी और चित्ताकर्षक होती है जिसे  'ग़ज़लियत'  कहा जाता है। गीत में अर्थ गांभीर्य, बिम्ब वैचित्र्य और आलंकारिकता का आकर्षण होता है। आजकल गीतकार ग़ज़ल और गज़लकार गीत लिखने लगे हैं जिस कारण दोनों में एक दूसरे के गुण मिलते हैं।  

प्रश्न ६ - युगबोध के विविध आयाम क्या हैं? क्या युगबोध की संकल्पना को संपूर्णता से लाने में सक्षम है यह विधा?

उत्तर - आप जिन आयामों की बात कर रहे हैं उनका उल्लेख करें तो उस संबंध में उत्तर दूँ। मेरी समझ में युग बोधात्मकता गीत का अविच्छिन्न लक्षण है। गीत जिस देश-काल-परिस्थिति से संबद्ध होता है, उसी की बात करता है। कथ्य की माँग के अनुसार युगबोध न हो तो गीत अप्रासंगिक हो जाएगा। 

प्रश्न ७ - आपकी दृष्टि में युगबोध में किस प्रकार की संभावनाएँ निहित हैं?

उत्तर - युगबोध में अन्तर्निहित संभावनाओं का आकलन, प्रस्तुति तथा प्रभाव रचनाकार की सामर्थ्य पर निर्भर है। युगबोध के अंतर्गत गतागत का मूल्यांकन, तुलना, शुभाशुभ, विसंगति, विडंबना, साहचर्य, सद्भाव, भविष्य आदि विविध संभावनाएँ समेटी जा सकती हैं। युगबोध समसामयिक परिस्थितियों के ज्ञान की अवधारणा है। समसामयिक परिस्थितियों में किसी काल की सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, और आर्थिक स्थितियाँ सम्मिलित की जाती हैं। गीति रचनाओं में युगबोध की अभिव्यक्ति कथ्य चयन के साथ ही शिल्पगत प्रयोग के रूप में प्रकट होती है। युगबोधजनित मानसिकता का प्रस्फुटन गीतों के कथ्य व शिल्प में शब्दित होता है। आधुनिक गीत काव्य के तीन तत्व मिथक, प्रतीक और बिंब समसामयिक परिस्थितियों के यथार्थ पर आधारित हैं। ये आधार निश्चय ही आधुनिक युगबोध से प्रेरित हैं। आधुनिक युगबोध गीत / नवगीत में सर्वत्र शिल्पित होता है। 

प्रश्न ८ - वर्तमान सदी में २१ वीं सदी के नवगीतों को आप २० वीं सदी के नवगीतों से किन आयामों पर भिन्न पाते हैं?

उत्तर - २० वीं सदी के नवगीतों में भाषिक प्रांजलता, भावनात्मक सघनता, शिल्पिक निखार तथा कथ्यात्मक मौलिकता निखार पर थी। संवत: इसलिए कि नवगीत की पहचान स्थापित करने के लिए और नवगीतकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित करने के लिए नवगीतकार सजग और सतर्क थे। २१ वीं सदी के नवगीतों में विषयों का दुहराव, कथ्य का बासीपन, विषमताओं का अतिरेकी वर्णन, अस्वाभाविक राजनैतिक वैचारिक प्रतिबद्धता भी नवगीत के स्वाभाविक विकास, सहजता और सारल्य में बाधक है। आजकल नवगीतों में प्रचारात्मकता अधिक है, संवेदनात्मकता कम।     

प्रश्न ९ - हिंदी कविता की मुख्य धारा में नवगीत की उपस्थिति के मायने क्या हैं?

उत्तर - कविता शब्द का उपयोग किस अर्थ में कर रहे हैं? मूलत: कविता का अर्थ पद्य (पोएट्री) है किंतु सामान्यत: छंदरहित काव्यरचनाओं को कविता कहा जाता है। मैं कविता को मूल अर्थ में लेते हुए कहना चाहता हूँ कि कविता गीतमय ही होती है। छंदानुसार गति-यति, लय आदि परिवर्तित होते हैं किन्तु गीति तत्व हमेशा बना रहता है। गीत-नवगीत की उपस्थिति रस तथा भाव की संवाहक होकर जन-मन को रसानंद और आत्मानंद पाने का अवसर सुलभ कराती है। इसीलिए लोक पर्वों, उत्सवों, विशिष्ट दिवसों पर गीत का आकंठ रसपान करता है। लोकगीत नवगीत का भी पूर्वज है। नवगीत के टटकापन, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, विशिष्ट कहाँ जैसे लक्षण लोकगीतों से ही आते हैं।    
  
प्रश्न १०-  नवगीत का लोकधर्मी अथवा जनसंवादी रूप हमारे सामने सामने क्यों नहीं आ पा रहा है और वर्तमान नवगीत जनता से सीधा संवाद क्यों नहीं कर पा रहा है?

उत्तर - गीत का लोकधर्मी रूप लोकगीत है। लोकगीत की जन जागरण से जुड़ी भावमुद्रा आह्वान गीत, जनगीत, प्रयाणगीत आदि हैं।  गीत का तथाकथित नवगीती रूप  वैचारिक प्रतिबद्ध  मठाधीशों  की दिमागी उपज है जिसमें सामाजिक टकराव-बिखराव जनित नकारात्मकता के अलावा जीवन से संबद्ध अन्य किसी रस या भाव के लिए स्थान ही नहीं है। तो तब हो जब जन के जीवन से जुडी सब भावनाएँ-कामनाएँ  नवगीत में समाहित और प्रतिबिंबित हो। कई नवगीतकार इस तरह का सृजन कर लोकप्रिय हो रहे हैं।  नवगीतों में पारंपरिक छंदों का प्रयोग, लोकधुनों का प्रयोग, लोकप्रतीकों का प्रयोग  है। मेरे दोनों गीत-नवगीत संग्रहों ''काल है संक्रान्ति का'' तथा ''सड़क पर'' में ऐसे कुछ नवगीत हैं। कुमार रवींद्र ने ''अप्प दीपो भव'' में अभिनव प्रयोग किये हैं। बुद्धिनाथ जी मिश्र का नवगीत 'एक बार जाल फिर फेंक रे मछेरे / जाने किस मछली में फँसने की चाह हो'', विनोद निगम का ''चलो चाय पी जाए'' जैसे नवगीत लोक में खूब सराहे जाते हैं। 

लोकप्रियता के लिए प्रस्तुतकर्ता की प्रस्तुति में लोकरंजकता होना भी आवश्यक है। प्रस्तुति की दृष्टि से गीतकार चार तरह के होते हैं। पहले जिनकी प्रस्तुति और कथ्य दोनों श्रेष्ठ हों जैसे हरिवंश राय बच्चन, दूसरे जिनकी प्रस्तुति अपेक्षाकृत कम आकर्षक और रचना श्रेष्ठ हो जैसे मैथिलीशरण गुप्त जी, तीसरे जिनकी प्रस्तुति आकर्षक पर रचना सामान्य हो तथा चौथे जिनकी प्रस्तुति और रचना दोनों सामान्य हों। सकल साहित्य विशेषकर गीत से जनमानस के दूर  कारण  के गीतकारों का बाहुल्य होना है। इस पारिस्थितिक चक्रव्यूह को दूरदर्शनी हास्य सम्मेलनों और नयनाभिराम रूप सज्जा को प्रधानता देती कवयित्रियों ने अभेद्य प्राय बना  दिया है।  
 
प्रश्न ११ - क्या नवगीत एक सीमित बौद्धिक समाज तक ही सिमट कर रह गया है?

उत्तर - दुर्भाग्य से यह बहुत हद तक सच है। नवगीत को तथाकथित बौद्धिक और राजनैतिक विचारधाराओं से प्रतिबद्ध रचनाकारों की कारा से मुक्त कराने की कोशिशें जारी हैं। धुर वामपंथी, धुर दक्षिण पंथी, धुर स्त्री विमर्शवादी, ध्रुव दलितपंथी खेमों में बँटकर गीत-नवगीत ही नहीं पूरे साहित्य की दुर्दशा हुई है। पुरस्कार और अलंकरण भी इसी आधार पर दिए जा रहे हैं।  

प्रश्न १२ - हिंदी कविता की मुख्य धारा की आलोचना नवगीत का मूल्याङ्कन करने से क्यों बचती रही?

उत्तर - हिंदी साहित्य में लाला भगवानदीन, आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदि की तरह  समीक्षक-समालोचक है ही नहीं। रामविलास शर्मा से लेकर नामवर सिंह तक अधिकांश समालोचक साम्यवादी विचारधारा के रहे हैं। इसके बाद प्राध्यापकों ने समीक्षक बनकर निजी लाभों के लिए ''जैसी सरकार वैसी समीक्षा'' का सूत्र अपना लिया।  जिस समीक्षक को गीति काव्य की लोकधर्मिता की समझ ही नहीं है, वह निष्पक्ष और स्तरीय समीक्षा कैसे करेगा? आजकल समीक्षा के नाम पर संकलनों का सूचनापरक  आलेख पत्र-पत्रिकाओं  में उपलब्ध स्थान के अनुसार लिखी जा रही हैं हाशिये पर छापकर उपकृत है। निष्पक्ष समीक्षक को प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी तो कोई क्यों इसमें सिर खपाएगा?

प्रश्न १३ - समकालीन कविता और नवगीत के बीच इतनी विभेदक रेखाएँ क्यों खींची गई हैं? क्या उसे आलोचना जगत से बहिष्कृत किया गया?

उत्तर - अघोषित रूप से ऐसी ही स्थिति है। वामपंथी समीक्षकों ने तथाकथित प्रगतिशील कविता-कहानी की समीक्षा के पोथे लिख डाले किन्तु साहित्य की शेष विधाओं को दरकिनार कर दिया। गीत / नवगीत भी इस प्रवृत्ति का शिकार हुए। 'कोढ़ में खाज' यह कि नवगीत, अपने मूल गीत  को नीचा और खुद को श्रेष्ठ सिद्ध करने की मृगतृष्णा में समाज से जुड़ नहीं सका। 

प्रश्न १४ - हिंदी साहित्य के विकास एवं प्रचार-प्रसार में पत्र-पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है परन्तु नवगीत पर केंद्रित पत्रिकाओं का अभाव क्यों है? 

उत्तर - जब गीत-नवगीत के पाठक-श्रोता न्यून हैं तो पत्रिका स्थान क्यों देंगी? विधा आधारित पत्रिका के ग्राहक ही कहाँ हैं? पत्रिकाएँ  विज्ञापनों और राजनैतिक हित साधन के लिए निकाली जा रही हैं। शिक्षा के प्रसार और टंकण तकनीक की सुलभता के कारण औसत और निम्न स्तरीय इतनी अधिक मात्रा में लिखा, छपाया  और निशुल्क बाँटा जा रहा है कि साहित्य खरीदने की प्रवृत्ति समाप्तप्राय है। सरकारी खरीद में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। पत्रिका निकालने का मेरा कटु अनुभव है, लागत ही नहीं निकलती। इसलिए नवगीत ही क्या, अन्य साहित्य विधाओं में भी पत्रिकाओं का अभाव है। नवगीत स्वतंत्र विधा है ही नहीं, तो केवल इस पर पत्रिका कैसे हो?

प्रश्न १५ - नवगीत की आलोचना को समृद्ध करने के लिए और क्या क्या किया जाना चाहिए?

उत्तर - नवगीत अर्थात गीत की समालोचना हो रही है, होती है पर उस पर ध्यान नहीं दिया जाता। समीक्षा कर्म दोधारी तलवार की तरह है। सत्य समीक्षा करो तो रचनाकार नाराज। विस्तृत समीक्षा करो तो पत्रिकाओं में स्थानाभाव। व्यवहारिकता से समझौता करो और रचनाकार को प्रिय, संपादक के अनुसार समीक्षा करो तो समीक्षा कर्म की महत्ता नष्ट होती है। समीक्षा कब, कहाँ, कैसे और कैसी करनी है यह जानना भी आवश्यक है। समीक्षा शास्त्र का अध्ययन किए बिना, प्रशंसात्मक पुस्तक परिचय को ही समीक्षा के नाम पर छपा जाता है जो पूरी तरह निरर्थक है। साहित्य-समीक्षा को समृद्ध करने के लिए (अ) समीक्षकों को समीक्षा शास्त्र का ज्ञान, (आ)रचनाकार में समीक्षक के प्रति आदरभाव और सहिष्णुता, (इ) संपादक में समीक्षा को प्राथमिकता और पर्याप्त स्थान देने की मनोवृत्ति तथा (ई) पाठक में समालोचना को पढ़कर साहित्य खरीदने-पढ़ने की दृष्टि आवश्यक है।    

प्रश्न १६ - नवगीत परंपरा को प्रतिष्ठा दिलाने का श्रेय आप किसे देते हैं?

उत्तर - साहित्य की सभी विधाओं को जन्मने तथा स्वीकार कर प्रतिष्ठा देने का श्रेय और सामर्थ्य केवल और केवल ''लोक'' में है। किसी एक व्यक्ति की सामर्थ्य ही नहीं है कि वह सत्य-शिव-सुंदर' को अन्तर्निहित कर उसका पर्याय बननेवाले साहित्य या उसकी किसी विधा को प्रतिष्ठा दिला सके, जो ऐसे कहता है वह खुद को और खुद पर भरोसा करनेवाले को ठगता है। 

प्रश्न १७ - अपनी ६ दशकों की यात्रा में नवगीत को महिला साहित्यकारों का साथ क्यों नहीं मिल पाया है?

साहित्य की हर विधा में महिला रचनाकार पर्याप्त हैं। गीत (नवगीत सम्मिलित) विधा में माया गोविन्द, महाश्वेता चतुर्वेदी, मनोरमा तिवारी, पूर्णिमा बर्मन, शांति सुमन, नीलमणि दुबे, आदर्शिनी श्रीवास्तव, अंबर प्रियदर्शी, मधु प्रधान, मधु प्रसाद, शांति सुमन, गरिमा सक्सेना, छाया सक्सेना, आभा सक्सेना, संध्या सिंह, शशि पुरवार, भावना सक्सेना, संगीता सक्सेना, कांति शुक्ला, सरिता शर्मा, सीमा अग्रवाल, विनीता श्रीवास्तव, सुनीता सिंह, सुनीता मैत्रेयी, प्रेमलता नीलम, अंजना वर्मा, अरुणा दुबे,  इंदिरा मोहन, मिथलेश बड़गैया, उषा यादव, कल्पना रामानी, कल्पना मनोरमा, कीर्ति काले, गीता पंडित, पूनम गुजरानी, शैल रस्तोगी, भावना तिवारी, मंजुलता श्रीवास्तव, मधु शुक्ला, ममता बाजपेई, मालिनी गौतम, मिथिलेश अकेला, मिथिलेश दीक्षित, मीना शुक्ला, यशोधरा यादव, यशोधरा राठोड़, रजनी मोरवाल, राजकुमारी रश्मि, रेखा लोढ़ा, पुनीता भारद्वाज, सरला वर्मा, वर्षा रश्मि, वर्षा सिंह, शीला पांडेय, शैल रस्तोगी,  सुशीला जोशी, शुचि भावी, रीता सिवानी, अनीता सिंह, आशा देशमुख, इंदिरा सिंह, नेहा वैद, नीलम श्रीवास्तव, निशा कोठरी, निर्मला जोशी, प्राची सिंह, प्रीता प्रिय, मधु शुक्ला, रंजना गुप्ता, शरद सिंह आदि सतत क्रियाशील तथा चर्चित हैं। 

गीत के क्षेत्र में प्रवासी महिला गीतकारों में शार्दूला नौगजा, मानोशी चटर्जी, कविता वाचक्नवी, शशि पाधा, ममता सैनी, तोशी अमृता, उषा वर्मा, उषा राजे सक्सेना आदि उल्लेखनीय हैं। 

प्रश्न १८ - २१वीं सदी  में युगबोध किस प्रकार व्यक्त हो रहा है?

उत्तर - युग अर्थात कालखंड और बोध अर्थात ज्ञान होना। किसी कालखंड विशेष की सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक, यांत्रिक आदि क्षेत्रों का ज्ञान उस समय का युगबोध कहा जाता है। गीत में युगबोध कथ्य में अन्तर्निहित होता है। २१ वीं सदी द्रुत वैज्ञानिक और यांत्रिक परिवर्तन के साथ-साथ सामाजिक बिखराव का समय है। संयुक्त परिवार क्रमश: समाप्त हो रहे हैं। ग्रामों का शहरीकरण हो रहा है। नैतिक मूल्यों और मान्यताओं का क्षरण हो रहा है। संपन्नता और समृद्धि की वृद्धि के साथ-साथ सुख-सौहार्द्र-सहिष्णुता का ह्रास हो रहा है। स्त्रीपुरुष संबंध मन से कम, तन से अधिक जुड़ रहे हैं। 'लिव इन' और 'समलैंगिकता' ने पारंपरिक मूल्यों को ध्वस्त कर दिया है। 'लव जिहाद' तथा 'किराए की कोख' ने धार्मिक-नैतिक, सामाजिक-विधिक मूल्यों को चुनौती दी है। गीत में मिथक, बिम्ब, प्रतीक भी युगबोध की अभिव्यक्ति करते हैं।      

प्रश्न १९ - आधुनिक युगबोध में सम्मिलित तत्व यथा वैश्वीकरण, उत्तर आधुनिकतावाद, बाज़ारवाद, महामारी, राष्ट्रवाद आदि को नवगीत किस प्रकार व्यक्त कर रहे हैं?

उत्तर - हिंदी गीतकारों में अंतर्राष्ट्रीय चेतना की कमी है। अधिकांश गीत-नवगीत भारत के ग्राम-शहरों, स्त्री-पुरुषों, नेताओं-धनपतियों, लोक-तंत्र के टकराव पर केंद्रित हैं। डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर' ने आधुनिक बाज़ारवाद और माल संस्कृति पर तीखे प्रहार किये हैं। मेरे कुछ गीत-नवगीत इसरो और अन्य यांत्रिक-वैज्ञानिक अभियानों को केंद्र में लाते हैं। कोरोना को लेकर मुखपोथी पृष्ठों (फेसबुक पेजेस) पर अनेक गीत-नवगीत हैं। वॉट्सऐप समूह और चिट्ठे (ब्लॉग) पर भी इन आयामों को स्पर्श करते गीत-नवगीत मिलते हैं किंतु हिंदी के प्राध्यापक अभी यहाँ तक नहीं पहुँच सके हैं। प्राध्यापकों को वाकिताबों के साथ-साथ सामाजिक विमर्श के इन नए पटलों पर पहुँचकर इनसे जुड़ना होगा। कोरोनाजनित तालाबंदी (लोकडाउन) ने इसके पूर्व अंतर्जाल से दूर रहनेवालों को भी अंतरजाल से जुड़ने के लिए विवश कर दिया है। यह एक शुभ संकेत है।   

प्रश्न २० - दलित, स्त्री, आदिवासी आदि विमर्शों में नवगीत का क्या स्थान है? क्या यह वर्तमान विमर्शों को व्यक्त कर पा रहा है?

उत्तर - यह प्रश्न दोमुखी है। १. विविध विमर्शों में नवगीत का स्थान और २. नवगीत में विविध विमर्शों का स्थान। दलित, स्त्री, आदिवासी आदि से जुड़े तथाकथित विमर्श केवल वाग्विलास है। इस साहित्य का पुस्तकालयों और गोष्ठियों के बाहर शेष समाज से जुड़ाव ही नहीं है। जिन्हें केंद्र बनाकर इन्हें लिखा जाता है, उनसे रचनाकार का कोई संपर्क नहीं होता। आज अख़बार या दूरदर्शन पर खबर आई, कल उसे केंद्र बनाकर सैंकड़ों रचनाएँ तैरने लगती हैं इनके रचनाकार को पीड़ितों या मुद्दे से कुछ लेना-देना नहीं होता। एक स्त्री विमर्श में मैं भी आमंत्रित था। बहुओं पर हो रहे अत्याचारों पर धाराप्रवाह भाषणों के बाद मुख्य वक्ता के नाते मुझे बोलना था। जब मैंने पूछा की पूर्ववक्ताओं में से जिनके बेटे अविवाहित हैं क्या वे बिना दहेज़ के पुत्रवधुएँ स्वीकार करेंगी?, जिनके बेटे विधुर हैं क्या वे विधवाओं से विवाह मंजूर करेंगी?  सब यहाँ वहां बगलें झाँकने लगीं। इन विमर्शों का समाज में कोई स्थान नहीं है। विमर्शों में नवगीत का स्थान केवल रस परिवर्तन तक सीमित है। नवगीत में इन विमर्शों का महत्त्व शून्य है। इन्हें सुनकर कोी नवगीत नहीं लिखता किन्तु ये मुद्दे समाचार के रूप में रचनाकार तक पहुँचते हैं और रचनाकार बिना किसी संवेदना या आत्मानुभूति के केवल बुद्धि की दम पर कागज काले करने लगता है। 

प्रश्न २१ - वर्तमान नवगीतकारों के नवगीतों को दृष्टिगत रखते हुए, आपको नवगीत विधा का भविष्य कैसा प्रतीत होता है?

उत्तर - नवगीतों के मठाधीशों में नवता ही नहीं है। विषय पुनरावृत्ति के कारण आकर्षण खो बैठे हैं। कथ्य में अनुभूत सत्य न होने के कारण मर्मस्पर्शिता नहीं है। कुमार रवींद्र, पूर्णिमा बर्मन, यायावर, निर्मल शुक्ल और मैंने जड़ता को तोड़कर नवगीत में नवत्व रोपने का प्रयास किया है। आंचलिक बोलिओं में प्रदीप शुक्ल का प्रयास महत्वपूर्ण है। नवगीत में हर रस का समावेश हो तो ताजा हवा की अनुभूति होगी। नवगीत में नए रुझान लोक धुनों (फाग, आल्हा, राई, रास आदि) के प्रयोग, यांत्रिक-वैज्ञानिक प्रगति जनित शुभाशुभ प्रभावों, नव बिम्ब-प्रतीकों, नवीन शब्द-प्रयोग, अछूते विषयों के रूप में यत्र-तत्र दृष्टव्य हैं। इस कारण उज्जवल भविष्य के प्रति आशान्वित हूँ।     

प्रश्न २२ - अनेक महाविद्यालयों / विश्व विद्यालयों में नवगीतों पर हुए शोधों/हो रहे शोध कार्य को आप नवगीत के विकास में कितना अहम मानते हैं?

उत्तर - गीत ही क्या सभी साहित्यिक शोधों का महत्व शोधार्थी को नौकरी मिलने और शोध ग्रंथ के बिकने से प्रकाशक का महल तनने तक सीमित है। इन शोध ग्रंथों का मक़बरा सरकारी पुस्तकालय हैं, जहाँ इनके कफ़न-दफन की पूरी व्यवस्था है। न तो ये शोधग्रंथ नवगीतकार तक पहुंचते हैं, न ही वह इन्हें खोजकर पढ़ता और तब इनमें की गई विवेचना को समझकर लिखता है।   

प्रश्न २३ - नवगीतों पर कार्य कर रहे शोधार्थियों को आप क्या सन्देश देना चाहेंगे?

उत्तर - शोधार्थी येन-केन-प्रकारेण शोध पूर्णकर सबसे पहले नौकरी का जुगाड़ करें। तब शोधग्रंथ छपाकर सक्रिय नवगीतकारों को दें ताकि वे पढ़कर, शोध में व्यक्त विचारों से अवगत हो सकें। बेहतर है कि रचनाकारों को महाविद्यालयों / विश्वविद्यालयों में आमंत्रित कर विद्यार्थियों / शोधार्थियों के साथ विचार विनिमय हो ताकि दोनों पक्ष एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझ सकें। इस अनुष्ठान में राजनीतिक या प्रतिबद्ध विचारों से बचना होगा। 
आपका धन्यवाद। 
***  

दोहा दो दुम का

उषा सूर्य कर गह कहे, जगो हो गई भोर।
आलस तजकर थाम लो, श्रम-कोशिश की डोर।।
सफलता तभी मिलेगी
कहानी नई बनेगी

मंगलवार, 22 जून 2021

मैं भारत हूँ आमंत्रण

मैं भारत हूँ
आमंत्रण
भारत की स्वतंत्रता की ७५ वी वर्षगांठ  के अवसर पर "मैं भारत हूँ" पर केंद्रित ७५ काव्य रचनाओं का  संकलन अंतर्जाल पर प्रकाशित किया जाना है। इच्छुक कवि / कवयित्री दो काव्य रचनाएँ, चित्र, सूक्ष्म परिचय (नाम, जन्मतिथि, शिक्षा, माता-पिता, शिक्षा, प्रकाशित पुस्तकें, डाक पता, ईमेल, चलभाष आदि) salil.sanjiv@gmail.com पर या ९४२५१ ८३२४४ पर अविलंब भेजें।
*
रचनाएँ भेजने के लिए सादर आभार 
सर्व श्रीवास्तव / श्रीमती
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 

विनीता श्रीवास्तव 

०१ मदन श्रीवास्तव 
०२ संतोष शुक्ला
०३ उदयभानु तिवारी 'मधुकर'
०४ इंद्रबहादुर श्रीवास्तव 
०५ मुकुल तिवारी
०६ मनोहर चौबे 'आकाश'
०७ सुरेश कुशवाहा 'तन्मय'
०८ अनिल बाजपेई 
०९ संतोष नेमा
१० राजलक्ष्मी शिवहरे
११ बसंत शर्मा
१२ गीता गीत
१३ भारती नरेश पाराशर 
१४ सुरेंद्र सिंह पवार 
१५ जयप्रकाश श्रीवास्तव 
१६ अर्चना गोस्वामी
१७
१८
१९
२०
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अन्य स्थान
०१ धर्मेंद्र तिजोरीवाले 'आजाद' तेंदूखेड़ा
०२ श्यामल सिन्हा गुड़गाँव 
०३ दीपिका माहेश्वरी नजीबाबाद बिजनौर  
०४ सरला वर्मा भोपाल 
०५ अनिल अनवर जोधपुर 
०६ योगेंद्रनाथ शुक्ल इंदौर
०७ नीलमणि दुबे शहडोल
०८ अनुगूँजा सिन्हा मुजफ्फरपुर 
०९ नरेंद्र भूषण लखनऊ 
१० गीता चौबे 'गूँज' राँची
११ अशोक गिरि
१२ श्रीधरप्रसाद द्विवेदी पलामू
१३ देवकांत मिश्र भागलपुर 
१४ पद्मावती मुंबई 
१५ सुशीला जोशी 'विद्योत्तमा'
१६ संजय वर्मा 'दृष्टि' धार  
१७ रमेश श्रीवास्तव 'चातक' सिवनी 
१८ निधि जैन इंदौर 
१९ दीप्ति गुप्ता पुणे 
२० बबीता चौबे 'शक्ति' दमोह        
२१ हिमांशु कुमार सिंह दुआ 
२२ नूतन गर्ग दिल्ली 
२३ रंजना जैन दिल्ली 
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२८
२९
३०
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प्रवासी रचनाकार 
०१ सूर्य कुमार सुतार 'सूर्या' दार ए सलाम तंजानिया

            आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
                 संयोजक - संपादक

घनश्याम छंद

छंद सलिला :
घनश्याम छंद
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संरचना १२१ १२१ २११ २११ २११ २ 
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भजो नित इष्ट , श्री घनश्याम सदा जग के 
हरें हर कष्ट , गोकुलनाथ सदा सब के 
नहीं छल-छद्म , का कुछ काम कहे छलिया  
करे वह प्रीत , हो मनमीत अरे! रसिया 
न माखन चोर , के बिन शांत रहे मइया 
सदा गउपाल , का जप नाम सुखी गुइया
लगा पग धूल , लूँ निज माथ तरूँ भव से 
उठा सुखधाम , कंठ लगा लें खुद झट से 
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शारद वंदना

शारद वंदना
सतमात्रिक नवान्वेषित छंद
सूत्र : ननल।
*
सुर सति नमन
नित कर अमन
*
मुख छवि प्रखर
स्वर-ध्वनि मधुर
अविचल अजर
अविकल अमर
कर नव सृजन
सुरसति नमन
*
पद दल असुर
रच पद स-सुर
कर जननि घर
मम हृदयपुर
कर गह सु मन
सुरसति नमन
*
रस बन बरस
नित धरणि पर
शुभ कर मुखर
सुख रच प्रचुर
शुभ मृदु वचन
सुरसति नमन

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शिक्षा व्यवस्था और शिक्षक

चिंतन
शिक्षा व्यवस्था और शिक्षक
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शासकीय विद्यालयों के परीक्षा परिणाम आने के साथ ही सर्वाधिक अंक प्राप्त करनेवाले विद्यार्थियों को वाहवाही मिलने, पत्रकारों द्वारा खोजबीन, हेराफेरी और गत वर्षों के सफलता प्रतिशत की तुलना जैसी खबरों के बीच कुछ आत्महत्याओं के समाचार आने लगते हैं।
शिक्षा प्रणाली
सबसे पहली बात तो यह है कि देश में शिक्षा की एक ही प्रणाली होना चाहिए। भारत में शासकों और आम जनों के मध्य खाई को बनाए रखने ही नहीं उसे बढ़ाते जाने में भी नेता, अफसर और सेठों की रुची रही है. इस कारण मँहगे विद्यालय और सरकारी विद्यालय अस्तित्व में थे, हैं और रहेंगे।
मेरे पिताजी ने अधिकारी होने के बाद भी मुझे और मैंने अपने अभियंता और श्रीमती जी के कोलेज प्राध्यापक होने के बाद भी बच्चों को सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ाया। हमें अपने निर्णय पर कोई पछतावा नहीं है किन्तु बच्चों को कभी-कभी शिकायत करते सुना है। अब अगली पीढ़ी को शायद ही सरकारी विद्यालय में पढ़ाया जाए। इसका कारण निजी विद्यालयों की श्रेष्ठता नहीं, सरकारी विद्यालयों में राजनीति, विद्यार्थियों का आरक्षण के आधार पर प्रवेश, शिक्षकों की अध्यापन में अरुचि, पुस्तकालयों का न होना तथा प्रयोगों हेतु उपकरणों का न होना है। दुःख यह है कि निजी विद्यालय भी श्रेष्ठ नहीं केवल कुछ बेहतर हैं। वस्तुत: भारत में शिक्षा को ही महत्व नहीं दिया जा रहा है।
शिक्षक: नौकर या गुरु?
शासकीय विद्यालयों के शिक्षकों को निजी विद्यालयों की तुलना में पर्याप्त अधिक वेतन मिलाता है, नौकरी स्थानान्तरणीय किन्तु सुरक्षित होती है जबकि निजी विद्यालयों में वेतन कम, आजीविका अनिश्चित किन्तु अस्थानान्तरणीय होती है। शिक्षक की आजीविका के साथ एक विशेष सामाजिक सम्मान जुड़ा होता है जो बड़े से बड़े नेता, अधिकारी या धनपति को नहीं मिलता। भारत में अधिकांश विद्यार्थी अपने शिक्षक के चरण स्पर्श करते हैं। शिक्षक को फटीचर टीचर नहीं गुरु माना जाता है। क्या शिक्षक स्वयं 'गुरुत्व' प्राप्त करने के प्रति सजग हैं?, अधिकांश नहीं। अधिकांश शिक्षक केवल फर्ज़ अदायगी और वेतन की चिंता करते हैं। यह स्थिति चिन्तनीय और शिक्षा के गिरते स्तर का कारण है। जिस व्यक्ति की शिक्षा कर्म में रुची न हो उसे शिक्षण नहीं होना चाहिए। शिक्षक स्वयं अस्थायी और शोषण का शिकार होगा तो अध्यापन कैसे कराएगा? योग्य शिक्षक को अपने विषय का ज्ञान, अध्यापन विधियों की जानकारी, बाल मनोविज्ञान की समझ तथा अपने कार्य में रुचि होना जरूरी है।
जानकारी, ज्ञान और दायित्व?
शिक्षा का लक्ष्य क्या है? पाठ्यक्रम की जानकारी या विषय का ज्ञान? हमारी शिक्षा प्रणाली विषय को समझने और उसमें कुछ नया सोचने-करने के प्रति उदासीन है। किताबी जानकारी को यादकर परीक्षा पुस्तिका में वामन कर देना ही शिक्षा का पर्याय मान लिया गया है। फलत:, अभियंता और चिकित्सक भी किताबी हैं जिन्हें व्यावहारिक ज्ञान नहीं के बराबर है। यह स्थिति बदली जाना बहुत जरूरी है। प्राथमिक शालेय शिक्षा से ही विद्यार्थी को व्यावहारिक शिक्षा, प्रकृति से जुड़ाव, देश और समाज के प्रति दायित्व आदि की बीज बो दिए जाने चाहिए। हमें बचपन में प्रभात फेरी, जुलूस, व्यायाम, बागवानी, कक्षा की सफाई आदि के काम कराकर अपने दायित्व का भान कराया गया किन्तु आजकल निजी विद्यालयों तो दूर शासकीय विद्यालयों में भी यह नहीं कराया जा रहा। विद्यालयों में राजनैतिक तथा प्रशासनिक हस्तक्षेप न्यूनतम हो। सभी विद्यार्थियों को समान सुविधाएँ, व्यवहार व अवसर मिले तो भविष्य के लिए जिम्मेदार नागरिक तैयार होंगे जो स्वस्थ्य समाज का निर्माण करेंगे। अच्छे नागरिक और मनुष्य किसी कारखाने में किसी तकनीक से तैयार नहीं किये जा सकते केवल शिक्षक विद्यालयों में उन्हें विकसित कर सकता है। इसलिए शिक्षा और शिक्षक को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए।
व्यावहारिक पाठ्यक्रम व विषय चयन
हर कक्षा के लिए पाठ्यक्रम विद्यार्थी की औसत उम्र में हुए मानसिक विकास के आधार पर बनाया जाए। अनावश्यक विषय न पढ़ाए जाए तथा आवश्यक विषय छोड़े भी न जाएँ। साथ ही साथ मानवीय, नैतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय मूल्यों के विकास, शारीरिक मजबूती, चारित्रिक दृढ़ता के विकास संबंधी कार्यक्रम भी होना चाहिए। विद्यार्थियों का मनोवैज्ञानिक परिक्षण कर उनमें अंतर्निहित गुणों और प्रतिभा का आकलन कर तदनुसार विषय या शिल्प की शिक्षा दी जाना चाहिए ताकि उनका सर्वश्रेष्ठ विकास हो। अभिभावकों की इच्छा या समृद्धि को विषय चयन का आधार नहीं होना चाहिए।
एक ही शिक्षा प्रणाली
तत्काल संभव न हो तो भी क्रमश: पूरे देश में सभी व्द्यार्थियों को क्रमश: सामान्य पाठ्यक्रम तथा विद्यालय मिलना चाहिए। सभी जनप्रतिनिधियों और जनसेवकों के लिए अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में पढ़ाना अनिवार्य किया जाना चाहिए। शिक्षा का व्यवसायीकरण बंद करने के लिए निजी विद्यालयों को हतोत्साहित करना आवश्यक है। कमजोर समाज के मतों के लिए राजनीति कर रहे दलों को इस ओर प्रतिबद्ध होना चाहिए। सरकारी विद्यालयों को अधिकाधिक साधन संपन्न और विकसित बनाकर निजी विद्यालयों को हतोत्साहित किया जा सकता है।
शासकीय विद्यालय अभिशाप नहीं वरदान
प्राय: साधन संपन्न जन अपने बच्चों को शासकीय विद्यालयों में नहीं भेजते। यह स्थिति बदली जानी चाहिए। शासकीय संस्थानों में सुयोग्य शिक्षक, समृद्ध पुस्तकालय, सुसज्ज प्रयोगशाला, खेल-कूद उपकरण, समयानुकूल पाठ्यक्रम तथा परिणामोन्मुखी वेतनमान हों तो विद्यार्थी उन्हें चुनने लगेंगे। शासकीय विद्यालयों के श्रेष्ठ विद्यार्थियों को शासकीय सेवा में वरीयता दी जाने से भी स्थिति में सुधार होगा।
शासकीय शक्षकों को अपनी सोच बदलनी होगी। शासकीय विद्यालयों में निम्न अंक प्रतिशत के विद्यार्थी आने का लाभ कुशल शिक्षक ले सकता है। ४० % अंक ला रहे विद्यार्थी पर ध्यान देकर उसे ६०% के स्तर पर ले जाना आसान है किन्तु ९०% अंक ला रहे विद्यार्थी के स्तर को बढ़ाना या बनाये रखना अधि कठिन है। शासकीय विद्यालय के शिक्षक अपने हर विद्यार्थी को पूर्व परीक्षा से बेहतर अंक पाने योग्य बनाने का लक्ष्य रखें। जो शिक्षक यह लक्ष्य पा सकें उन्हें वार्षिक वेतन वृद्धि दी जाए, जो यह लक्ष्य न पा सकें उन्हें पूर्वत वेतन दिया जाए और जिनके विद्यार्थियों का परीक्षा परिणाम घटे उनके वेतन में एक वार्षिक वेतन वृद्धि की राशि काम कर दी जाए। ऐसी व्यवस्था होने पर शिक्षक पूरी क्षमता से अध्यापन कराएँगे।
परिणाम बेहतर आने औए उच्च कक्षा में प्रवेश में प्राथमिकता मिलने से विद्यार्थी भी मनोयोग से पढ़ने के लिए उत्साहित होंगे। निजी विद्यालयों में कमजोर विद्यार्थी जायेंगे तो उन्हें योग्य शिक्षक समुचित वेतनमान पट रखना होंगे। लाभांश कम होगा तो धंधेबाज शिक्षाजगत से बाहर होते जायेंगे और केवल समाज सेवा या देश सेवा को लक्ष्य बनाने वाले ही शिक्षा संस्थाएँ चलाएँगे।
शिक्षक असहाय नहीं
शिक्षा स्तर सुढारने की दिशा में हर शिक्षक अपने स्तर पर पहल कर सकता है। सत्र आरम्भ होने पर वह हर विद्यार्थी के प्राप्तांक की जानकारी ले ले तथा खुद अपने लिए लक्ष्य बनाए की हर विद्यार्थी के अंकों में कम से कम ५% अंक वृद्धि हो, इस तरह अध्यापन कराएगा। इससे और कुछ न हो उसे आत्म संतोष मिलेगा तथा विद्यार्थियों के समय परीक्षा परिणाम के समय यह घोषणा किये जाने पर विद्यार्थियों का सम्मान पायेगा। प्राचार्य ऐसे शिक्षकों के वार्षिक प्रतिवेदन में इस तथ्य का उल्लेख करते हुए पुरस्कार हेतु अनुशंसा करें तथा जिला शिक्षाधिकारी पुरस्कृत करें। शासन उदासीन हो तो यह कार्य शिक्षक संघ भी कर सकते हैं या अन्य सामाजिक संस्थाएँ भी। शिक्षक का सम्मान बढ़ेगा तो उसमें अध्यापन के प्रति रुचि भी बढ़ेगी।
धनहीन विद्यार्थियों के लिए गत वर्ष उत्तीर्ण हो चुके विद्यार्थियों की पुस्तकें उपलब्ध कराकर शिक्षक सहायता कर सकते हैं। इसी तरह निर्धन होशियार छात्रों से निचली कक्षा के कमजोर विद्यार्थी को ट्यूशन दिलाकर दोनों की मदद की जा सकती है। शिक्षकों को साधनहीनता, शासकीय उपेक्षा, काम वेतन आदि का रोना रोना बंद कर स्थिति को सुधारने के उपाय खोजना अपना कार्य मानना होगा तभी वे 'गुरु' हो सकेंगे।

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