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मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

समीक्षा

पुस्तक सलिला-
इसी आकाश में-  कविता की तलाश 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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[पुस्तक परिचय- इसी आकाश में, कविता संग्रह, हरभगवान चावला, ISBN ९७८-९३-८५९४२-२२-८,  वर्ष २०१५, आकार २०.५ x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ १७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर, ३०२००६, दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, चलभाष ९८२९०१८०८७, ई  मेल bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क- ४०६ सेक़्टर २०, हुडा सिरसा, हरयाणा चलभाष: ०९३५४५४४०]
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'इसी आकाश में' सिरसा निवासी हरभगवान सिंह का नव प्रकाशित काव्य संग्रह है इसके पूर्व उनके २ काव्य कविता मेरी आत्मा का सूरज है, कविता हलुआ नहीं हो सकती, कविता को कम से कम / रोटी जैसा तो होना ही चाहिए, जब कविता नहीं थी / क्या तब भी किसी के / छू देने भर से दिल धड़कता था / होंठ कांपते थे, क्या कोई  ऐसा असमय था/ जब कविता नहीं थी?, मैंने अपनी कविता को हमेश / धूप, धूल और धुएँ से बचाया...कि कहीं सिद्धार्थ की तरह विरक्त न हो जाए मेरी कविता, मेरी कविता ने नहीं धरे / किसी कँटीली पगडंडी पर पाँव..... पर इतने लाड-प्यार और ऐश्वर्य के होते हुए भी / निरन्तर पीली पड़ती जा रही है, ईंधन की मानिंद भट्टियों में/ झोंक दिए जाते हैं ज़िंदा इंसान / तुम्हारी कविता को गंध नहीं आती.... कहाँ से लाते हो तुम अपनी कविता की ज्ञानेन्द्रियाँ कवि?  आदि पंक्तियाँ कवि और कविता के अंतरसंबंधों को तलाशते हुए पाठक को भी इस अभियान में सम्मिलित कर लेती हैं कविता का आकारित होना 'कविता दो' शीर्षक कविता सामने लाती है- 
संग्रह 'कोेे अच्छी खबर लिखना' व 'कुम्भ में छूटी हुई औरतें' तथा एक कहानी संग्रह ' हमकूं मिल्या जियावनहारा' प्रकाशित हो चुके हैं
'प्यास से आकुल कोई चिड़िया 
चिकनी चट्टानों की ढलानों पर से फिसलते 
पानियों में चोंच मार देती है 
कविता यूँ भी आकार लेती है

अर्थात कविता के लिये 'प्यास' और प्यास से 'मुक्ति का प्रयास' का प्रयास आवश्यक है यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या 'तृप्ति' और 'हताशाजनित निष्प्रयासता' की स्थिति में कविता नहीं हो सकती?  'प्रयास-जनित कविता प्रयास के परिणाम "तृप्ति" से दूर कैसे रह सकती है? विसंगति, विडम्बना, दर्द, पीड़ा और अभाव को ही साहित्य  का जनक मानने और स्थापित को नष्ट करना साहित्य का उद्देश्य मानने की एकांगी दृष्टि ने अश्रित्य को विश्व में सर्वत्र ठुकराए जा चुके साम्यवाद को साँसें भले दे दी हों, समाज का भला नहीं किया। टकराव और विघटन से समनस्य और सृजन कैसे पाया जा सकता है? 'तर्क' शीर्षक कविता स्थिति का सटीक विश्लेषण ३ चरणों में करती है- १. सपनों के परिंदे को निर्मम तर्क-तीर ने धरती पर पटक दिया, २. तुम (प्रेयसी) पल भर में छलछलाती नदी से जलती रेत हो जाती है, ३. परिणाम यह की प्यार गेंद की तरह लुढ़काये जाकर लुप्त हो जाता है और शेष रह जाते हैं दो अजनबी जो एक दूसरे को लहूलुहान करने में ही साँसों को जाया कर देते हैं। 

'पत्थर हुए गीत' एक अन्य मानसिकता को सामने लाती है। प्यार को अछूत की तरह ठुकराने परिणाम प्यार का पथराना ही हो सकता है प्रेम से उपजी लगाव की बाँसुरी, बाधाओं की नदी को सौंप दी जाए तो प्रेमियों की नियति लहूलुहान होना ही रह जाती है कवी ने सरल. सशक्त, सटीक बिम्बों के माध्यम से काम शब्दों में अधिक कहने में सफलता पायी है। वाह पाठक को विचार की अंगुली पकड़ाकर चिंतन के पगडण्डी पर खड़ा कर जाता है, आगे कितनी दूर जाना है यह पाठक पर निर्भर है 
'आँखों की नदी में / सपनों की नाव 
हर समय / बारह की आशंका से 
डगमगाती। 

माँ की ममता समय और उम्र को चुनौती देकर भी तनिक नहीं घटती। इस अनुभूति की अभिव्यक्ति देखें-
मैं पैदा हुआ / तब माँ पच्चीस की थी 
आज मैं सत्तावन का हो चला हूँ 
माँ, आज भी पच्चीस की है

व्यष्टि में समष्टि की प्रतीति का आभिनव अंदाज़ 'चूल्हा और नदी' कविता में देखिये-
चूल्हा घर का जीवन है / नदी गाँव का 
अलग कहाँ हैं घर और गाँव? 
गाँव से घर है / घर से गाँव 
चूल्हे को पानी की दरकार है / नदी को आग की 
चूल्हा नदी के पास / हर रोज पानी लेने आता है  
नदी आती है / चूल्हे के पास आग लेने। 

हरभगवान जी की इन ७९ कविताओं की ताकत सच को देखना और बिना पूर्वाग्रह के कह देना है। भाषा की सादगी और बयान में साफगोई उनकी ताकत है। चिट्ठियाँ, मुल्तान की औरतें, गाँव से लौटते हुए, रानियाँ आदि कवितायेँ उनकी संवेदनशील दृष्टि की परिचायक हैं। शिक्षा जगत से जुड़ा कवि समस्या के मूल तक जाने और जड़ को तलाशकर  समाधान पाने में समर्थ है। वह उपदेश नहीं देता किन्तु सोचने के दिशा दिखाता है- 'पाप' और 'पाप  का घड़ा' शीर्षक दो रचनाओं  कवि का शिक्षक प्रश्न उठता है, उसका उत्तर नहीं देता किन्तु वह तर्क प्रस्तुत कर देता है जिससे पाठकरूपी विद्यार्थ उठता देने की मनस्थिति में आ सके- 
पाप 
अपने पापों को 
आटे में गूँथकर पेड़ा बनाइये 
अपने हाथों पेड़ा गाय को खिलाइये 
और फिर पाप करने में जुट जाइये 
पाप का घड़ा 
अंजुरी भर-भर / घड़े में उड़ेल दो 
अपने सारे पाप 
पाप का घड़ा / अभी बहुत खाली है 
घड़ा जब तक भरेगा नहीं 
ईश्वर कुछ करेगा नहीं। 

इसी आकाश में की कवितायें मन की जड़ता को तोड़कर स्वस्थ चिंतन की और प्रेरित करती हैं। कवि साधुवाद का पात्र है। ज़िंदगी में हताशा के लिये कोई  जगह नहीं है, मिट्टी है तो अंकुर निकलेंगे ही- 
युगों से तपते रेगिस्तान में / कभी फूट आती है घास
दुखों से भरे मन के होठों पर / अनायास फूट पड़ती है हँसी 
धरती है तो बाँझ कैसे रहेगी सदा  
ज़िंदगी है तो दुखों की कोख में से भी 
पैदा होती रहेगी हँसी। 

समाज में विघटनहनित आँसू का सैलाब लाती सियासत के खिलाफ कविता हँसी लाने का अभियान  चलती रहे यही कामना है
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-समन्वयम् २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४ 




  

रविवार, 10 अप्रैल 2016

गीत कलश: घूंघट से कुछ रंग चुरा कर

गीत कलश: घूंघट से कुछ रंग चुरा कर

समीक्षा

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पुस्तक चर्चा- 
'महँगाई का शुक्ल पक्ष'-सामयिक विसंगतियों की शल्यक्रिया 
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
 [पुस्तक विवरण- महँगाई का शुक्ल पक्ष,  व्यंग्य लेख संग्रह, सुदर्शन कुमार सोनी, ISBN ९७८-९३-८५९४२-११-२, प्रथम संस्करण २०१६, आकार- २०.५ सेमी X १४ सेमी, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, लेमिनेटेड, पृष्ठ १४४, मूल्य १२०/-,बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक्टर ९, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, ९८२६० १८०८७, व्यंग्यकार संपर्क- डी ३७ चार इमली, भोपाल, ४६२०१६, चलभाष ९४२५६३४८५२, sudarshanksoniyahoo.co.in ]
​विवेच्य कृति एक व्यंग्य संग्रह है। संस्कृत भाषा का शब्द व्यंग्य’ शब्द अज्ज’ धातु में वि’ उपसर्ग और ण्यत्’ प्रत्यय के लगाने से बनता है। यह व्यंजना शब्द शक्ति से संबंधित है तथा व्यंग्यार्थ’ के रूप में प्रयोग किया जाता है। आम बोलचाल में व्यंग्य को ताना’ या चुटकी’ कहा जाता है जिसका अर्थ है “चुभती हुई बात जिसका कोई गूढ़ अर्थ हो।” आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार व्यंग्य कथन की एक ऐसी शैली है जहाँ बोलने वाला अधरोष्ठों में मुस्करा रहा हो और सुननेवाला तिलमिला उठे।” व्यंग्य सोद्देश्य, तीखा व तेज-तर्रार कथन है जिसका प्रभाव तिलमिला देने वाला होता है। कथन की एक शैली के रूप में जन्मा व्यंग्य क्रमश: साहित्य की ऊर्जस्वित विधा के रूप में विक्सित हो रहा है 

आज़ादी के बाद आमजन का रामराज की परिकल्पना से शासन-प्रशासन की व्यवस्था में मनोवांछित परिवर्तन न पाकर मोह-भंग हुआ राजनैतिक-सामाजिक विद्रूपताओं ने व्यंग्य शैली को विधा का रूप धारण करने के लिए उर्वर जमीन प्रदान की है। व्यंग्य जो गलत है’ उस पर तल्ख चोट कर जो सही होना चाहिए’ उस सत्य ओर इशारा भी करता है। इसलिए व्यंग्य आमें साहित्य की केन्द्रीय विधा बनने की पूरी संभावना सन्निहित है। आधुनिक हिंदी साहित्य का व्यंग्य अंग्रेजी की 'सैटायर' विधा से प्रेरित है जिसमें व्यवस्था का मजान उदय जाता है। व्यंग्य में उपहास, कटाक्ष, मजाक, लुत्फ़, आलोचना तथा यत्किंचित निंदा का समावेश होता है। 

इस पृष्ठ भूमि में सुदर्शन कुमार सोनी के व्यंग्य लेख संग्रह 'मँहगाई का शुक्ल पक्ष' को पढ़ना सैम सामयिक विसंगतियों से साक्षात् करने की तरह है। उनके व्यंग्य लेख न तो परसाई जी के व्यंग्य की तरह तिलमिलाते हैं, न शरद जोशी के व्यंग्य की तरह गुदगुदाते हैं, न लतीफ़ घोंघी के व्यंग्य लेखों की तरह गुदगुदाते हैं। सनातन सलिल नर्मदा तट स्थित संस्कारधानी जबलपुर में जन्में सुदर्शन जी प्रशासनिक अधिकारी हैं, अत: उनकी भाषा में गाम्भीर्य, अभिव्यक्ति में संतुलन, आक्रोश में मर्यादा तथा असहमति में संयम होना स्वाभाविक है। विवेच्य कृति के पूर्व उनके ३ कहानी संग्रह नजरिया, यथार्थ, जिजीविषा तथा एक व्यंग्य संग्रह 'घोटालेबाज़ न होने का गम' छप चुके हैं। 

इस संग्रह में बैंडवालों से माफी की फरियाद, अनोखा मर्ज़, देश में इस समय दो ही काम बयान हो रहे हैं, सबके पेट पर लात, कुछ घट रहा है तो कुछ बढ़ रहा है, इट्स रेनिंग डिक्शनरीज एंड ग्रामर बुक्स, मँहगाई का शुक्ल पक्ष, चिर यौवनता की धनी, आज अफसर बहुत खुश है, आम और ख़ास, आवश्यकता नहीं उचक्कापन ही आविष्कार की जननी है, आई एम वोटिंग फॉर यू, धूमकेतु समस्या, सबसे ज्यादा असरकारी इंसान नहीं उसके रचे शब्द हैं, लाइन में लगे रहो, हाय मैंने उपवास रखा, नींद दिवस, समस्या कभी खत्म नहीं होती, सरकार के लिए कहाँ स्कोप है?, मीटिंग अधिकारी, देश का रोजनामचा, झाड़ू के दिन जैसे सबके फिरे, ये ही मेरे आदर्श हैं, फूलवालों की सैर, इन्सान नहीं परियोजनाएं अमर होती हैं, उदासी का सेलिब्रेशन, महिला सशक्तिकरण के सही पैमाने, नेता का पियक्कड़ से चुनावी मौसम में आमना-सामना, भरे पेट का चिंतन खालीपेट का चिंतन, पलटे पेटवाला आदमी, खूब जतन कर लिये नहीं हो पाया, मानसून व पत्नी की तुलना, अनोखी घुड़दौड़, रत्नगर्भा अभियान, पेड़ कटाई, बेचारे ये कुत्ते घुमानेवाले, जेनरेशन गैप इन कुत्तापालन, इंसान की पूंछ होती तो क्या होता?, इन्सान के इंजिन व ऑटोमोबाइल के हार्ट का परिसंवाद, धांसू अंतिम यात्रा की चाहत, 'अच्छे दिन आने वाले हैं' पर पीएच डी, आक्रोश ज़ोन तथा इन्सान तू सच में बहुरूपिया है शीर्षक ४३ व्यंग्य लेख सम्मिलित हैं।   

प्रस्तुत संग्रह से देश के सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य में व्याप्त अराजकता के साथ-साथ हिंदी के भाषिक लिखित-वाचिक रूप में व्याप्त अराजकता का भी साक्षात् हो जाता है। व्यंग्यकार सुशिक्षित, अनुभवी और समृद्ध शब्द-भण्डार के धनी हैं। साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन मात्र नहीं होता, वह भाषा के स्वरूप को संस्कारित भी करता है। नई पीढ़ी पुरानी पुस्तकों से ही भाषा को ग्रहण करती है। यह सर्वमान्य तथ्य है की किसी भाषा के श्रेष्ठ साहित्य में अन्य भाषा के शब्द आवश्यक होने पर ही लिये जाते हैं। विवेच्य कृति में हिंदी, संस्कृत, उर्दू तथा अंग्रेजी के शब्दों का उदारतापूर्वक और बहुधा उपयुक्त प्रयोग हुआ है। अप्रतिम, उत्तरार्ध, शाश्वत, अदृश्य, गरिष्ठ, अपसंस्कृति, वयस्कता जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्द, नून तलक, बावला, सयाना आदि देशज शब्द, खास, रिश्तों, खत्म, माशूक, अय्याश, खुराफाती, जंजीर जैसे उर्दू शब्द और क्रिकेट, एस एम एस, डोक्टर, इलेक्ट्रोनिक, डॉलर, सोफ्टवेयर जैसे अंग्रेजी शब्दों के समुचित प्रयोग से लेखों की भाषा जीवंत और सहज हुई है किन्तु ऐसे अंग्रेजी शब्द जिनके सरल, सहज और प्रचलित हिंदी शब्द उपलब्ध और जानकारी में हैं उनका प्रयोग न कर अंग्रेजी शब्द को ठूँसा जाना खीर में कंकर की प्रतीति कराता है। ऐसे शताधिक शब्दों में से कुछ इंटरेस्ट (रूचि), लेंग्थ (लंबाई), ड्रेस (पोशाक), क्वालिटी (गुणवत्ता), क्वांटिटी (मात्रा), प्लाट (भूखंड), साइज (परिमाप), लिस्ट (सूची), पैरेंट (अभिभावक), चैप्टर (अध्याय), करेंसी (मुद्रा), इमोशनल (भावनात्मक) आदि हैं। इससे भाषा प्रदूषित होती है

कोढ़ में खाज यह कि मुद्रण-त्रुटि ने भी जाने-अनजाने शब्दों को विरूपित कर दिया है। महँगाई (बृहत हिंदी कोश, पृष्ठ ८७८) शब्द के दो रूप महंगाई तथा मंहगाई मुद्रित हुए हैं किन्तु दोनों ही गलत हैं। गजब यह कि 'मंह' का मतलब 'मुंह' बता दिग गया है। यह भाषा विज्ञानं के किस नियम से संभव है? यदि वह सन्दर्भ दे दिया जाता तो मुझ पाठक का ज्ञान बढ़ पाता अनुस्वार तथा अनुनासिक के प्रयोग में भी स्वच्छन्दता बरती गयी है। 'ढ' और 'ढ़' के मुद्रण की त्रुटि ने 'मेंढक' को 'मेंढ़क' बना दिया। 'लड़ाई' के स्थान पर 'लड़ी', 'ढूँढना' के स्थान पर 'ढूंढ़ने' जैसी मुद्रण त्रुटी सम्भवत:शीघ्रता के कारण हुई हो क्योंकि प्रकाशक की अन्य पुस्तकें पथ्य त्रुटियों से मुक्त हैं व्यंग्यकार का भाषा कौशल 'आम के आम गुठली के दाम', 'नाक-भौं सिकोड़ना' आदि मुहावरों तथा 'आवश्यकता अविष्कार की जननी है' जैसे सूक्ति वाक्यों के प्रयोग में निखरा है। 'लोकलीकरण' जैसे नये शब्द का प्रयोग लेखक की सामर्थ्य दर्शाता है ऐसे प्रयोगों से भाषा समृद्ध होती है

व्यंग्य लेखों के विषय सामयिक, चिन्तन सार्थक तथा भाषा शैली सहज ग्राह्य है। 'व्यंजना' शक्ति का अधिकाधिक प्रयोग भाषा के मारक प्रभाव में वृद्धि करेगा पाठकों के बीच यह संग्रह लोकप्रिय होगा
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- समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com

Narmadashtakam  Sri Adi Shankaracharya


सबिन्दुसिन्धुसुस्खलत्तरङ्गभङ्गरञ्जितं
द्विषत्सु पापजातजातकारिवारिसंयुतम् ।
कृतान्तदूतकालभूतभीतिहारिवर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥१॥
Sa-Bindu-Sindhu-Suskhalat-Tarangga-Bhangga-Ran.jitam
Dvissatsu Paapa-Jaata-Jaata-Kaari-Vaari-Samyutam |
Krtaanta-Duuta-Kaala-Bhuuta-Bhiiti-Haari-Varma-De
Tvadiiya-Paada-Pangkajam Namaami Devi Narmade ||1||

Meaning:
1.1: (Salutations to Devi Narmada) Your River-body illumined with Sacred drops of Water, flows with mischievous playfulness, bending with Waves,
1.2: Your Sacred Water has the divine power to transform those who are prone to Hatred, the Hatred born of Sins,
1.3: You put an end to the fear of the messenger of Death by giving Your protective Armour (of Refuge),
1.4: O Devi Narmada, I Bow down to Your Lotus Feet, Please give me Your Refuge.

त्वदम्बुलीनदीनमीनदिव्यसम्प्रदायकं
कलौ मलौघभारहारि सर्वतीर्थनायकम् ।
सुमच्छकच्छनक्रचक्रचक्रवाकशर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥२॥
Tvad-Ambu-Liina-Diina-Miina-Divya-Sampradaayakam
Kalau Malau[a-O]gha-Bhaara-Haari Sarva-Tiirtha-Naayakam |
Sumaccha-Kaccha-Nakra-Cakra-Cakravaaka-Sharmade
Tvadiiya-Paada-Pangkajam Namaami Devi Narmade ||2||

Meaning:
2.1: (Salutations to Devi Narmada) You confer Your Divine touch to the Lowly Fish merged in Your Holy Waters,
2.2: You take away the weight of the Sins in this age of Kali; and You are the foremost among all Tirthas (Pilgrimage),
2.3: You confer Happiness to the many Fishes, Tortoises, Crocodiles, Geese and Chakra Birds dwelling in Your Water,
2.4: O Devi Narmada, I Bow down to Your Lotus Feet, Please give me Your Refuge.

महागभीरनीरपूरपापधूतभूतलं
ध्वनत्समस्तपातकारिदारितापदाचलम् ।
जगल्लये महाभये मृकण्डसूनुहर्म्यदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥३॥
Mahaa-Gabhiira-Niira-Puura-Paapa-Dhuuta-Bhuutalam
Dhvanat-Samasta-Paata-Kaari-Daari-Taapa-Daa-[A]calam |
Jagal-Laye Mahaa-Bhaye Mrkanndda-Suunu-Harmya-De
Tvadiiya-Paada-Pangkajam Namaami Devi Narmade ||3||

Meaning:
3.1: (Salutations to Devi Narmada) Your River-body is Deep and Overflowing, the Waters of which remove the Sins of the Earth, ...
3.2: ... and it flows with great force making a loud reverberating Sound, splitting asunder Mountains of Distresses, the distresses which bring our downfall,
3.3: In the Heat of this World, You provide the Place of Rest and assure great Fearlessness; You Who gave the place of refuge at Your Banks to the son of Rishi Mrikandu (Rishi Markandeya was the son of Rishi Mrikandu),
3.4: O Devi Narmada, I Bow down to Your Lotus Feet, Please give me Your Refuge.

गतं तदैव मे भवं त्वदम्बुवीक्षितं यदा
मृकण्डसूनुशौनकासुरारिसेवि सर्वदा ।
पुनर्भवाब्धिजन्मजं भवाब्धिदुःखवर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥४॥
Gatam Tadai[aa-E]va Me Bhavam Tvad-Ambu-Viikssitam Yadaa
Mrkanndda-Suunu-Shaunaka-Asura-Ari-Sevi Sarvadaa |
Punar-Bhava-Abdhi-Janma-Jam Bhava-Abdhi-Duhkha-Varmade
Tvadiiya-Paada-Pangkajam Namaami Devi Narmade ||4||

Meaning:
4.1: (Salutations to Devi Narmada) O Devi, after I have seen Your Divine Water, my attachment to the Worldly Life has indeed vanished, ...
4.2: ... Your Water, which is revered by the son of Rishi Mrikandu (The son of Rishi Mrikandu was Rishi Markandeya), Rishi Shaunaka, and the enemies of the Asuras (i.e. Devas),
4.3: ... Your Water which is a Protective Shield against the Sorrows of the Ocean of Worldly Existence, caused by repeated Births in this Ocean of Samsara (Worldly Existence),
4.4: O Devi Narmada, I Bow down to Your Lotus Feet, Please give me Your Refuge.

अलक्षलक्षकिन्नरामरासुरादिपूजितं
सुलक्षनीरतीरधीरपक्षिलक्षकूजितम् ।
वसिष्ठसिष्टपिप्पलादिकर्दमादिशर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥५॥
Alakssa-Lakssa-Kinnara-Amara-Asura-[A]adi-Puujitam
Sulakssa-Niira-Tiira-Dhiira-Pakssi-Lakssa-Kuujitam |
Vasissttha-Sisstta-Pippala-[A]adi-Kardama-[A]adi-Sharmade
Tvadiiya-Paada-Pangkajam Namaami Devi Narmade ||5||

Meaning:
5.1: (Salutations to Devi Narmada) You are worshipped by lakhs of (i.e. innumerable) invisible celestial beings like Kinnaras (Celestial Musicians), Amaras (Devas), and also Asuras and others,
5.2: Your River-body with Auspicious Waters, as well as Your River-banks which are Calm and Composed, are filled with the sweet Sounds of lakhs of (i.e. innumerable) cooing Birds,
5.3: You confer Happiness to great sages like Vashistha, Sista, Pippala, Kardama and others,
5.4: O Devi Narmada, I Bow down to Your Lotus Feet, Please give me Your Refuge.

सनत्कुमारनाचिकेतकश्यपादिषट्पदैः_
धृतं स्वकीयमानसेषु नारदादिषट्पदैः ।
रवीन्दुरन्तिदेवदेवराजकर्मशर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥६॥
Sanatkumaara-Naaciketa-Kashyapa-[A]adi-Ssatt-Padaih_
Dhrtam Svakiiya-Maanasessu Naarada-[A]adi-Ssatt-Padaih |
Ravi-Indu-Rantideva-Devaraaja-Karma-Sharmade
Tvadiiya-Paada-Pangkajam Namaami Devi Narmade ||6||

Meaning:
6.1: (Salutations to Devi Narmada) By Rishis Sanatkumara, Nachiketa, Kashyapa and others who are like the six-feeted (Bee) (since they seek the honey of divine communion), ...
6.2: ... is held (Your Lotus Feet) in their Heart; and also by Bee-like sages Narada and others (is held Your Lotus Feet in their Heart),
6.3: You confer Happiness to Ravi (Sun), Indu (Moon), Ranti Deva and Devaraja (Indra) by making their works successful,
6.4: O Devi Narmada, I Bow down to Your Lotus Feet, Please give me Your Refuge.

अलक्षलक्षलक्षपापलक्षसारसायुधं
ततस्तु जीवजन्तुतन्तुभुक्तिमुक्तिदायकम् ।
विरञ्चिविष्णुशङ्करस्वकीयधामवर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥७॥
Alakssa-Lakssa-Lakssa-Paapa-Lakssa-Saarasa-[A]ayudham
Tatas-Tu Jiiva-Jantu-Tantu-Bhukti-Mukti-Daayakam |
Viran.ci-Vissnnu-Shangkara-Svakiiya-Dhaama-Varmade
Tvadiiya-Paada-Pangkajam Namaami Devi Narmade ||7||

Meaning:
7.1: (Salutations to Devi Narmada) You cleanse lakhs of (i.e. innumerable) Invisible and Visible Sins with Your River-body, the Banks of which are beautifully decorated with lakhs of (i.e. innumerable) Sarasas (Cranes or Swans),
7.2: In that Holy Place (i.e. in Your River Banks), You give both Bhukti (Worldly Prosperity) as well as Mukti (Liberation) to the series of Living Beings including Animals (who take Your Shelter),
7.3: The presence of Brahma, Vishnu and Shankara in Your Holy Dhama (i.e. River body) provides a Protective Shield (of Blessings to the Devotees),
7.4: O Devi Narmada, I Bow down to Your Lotus Feet, Please give me Your Refuge.

अहोऽमृतं स्वनं श्रुतं महेशकेशजातटे
किरातसूतवाडवेषु पण्डिते शठे नटे ।
दुरन्तपापतापहारिसर्वजन्तुशर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥८॥
Aho-[A]mrtam Svanam Shrutam Mahesha-Kesha-Jaa-Tatte
Kiraata-Suuta-Vaaddavessu Pannddite Shatthe Natte |
Duranta-Paapa-Taapa-Haari-Sarva-Jantu-Sharmade
Tvadiiya-Paada-Pangkajam Namaami Devi Narmade ||8||

Meaning:
8.1: (Salutations to Devi Narmada) O, I only Hear the Sound of Immortality, flowing down as Your River-body, originating from the Matted Hairs of Shankara, and filling Your River Banks,
8.2: There (i.e. in Your River-banks), everyone, whether Kirata (Mountain-Tribe), Suta (Charioteer), Vaddava (Brahmin), Pandita (Learned and Wise) or Shattha (Deceitful) gets purified within the Dance of Your Waters,
8.3: By vigourously removing Papa (Sins) and Tapa (Heat of the miseries of Life) of all Animals (Including Man), You confer that Happiness (born of Purification),
8.4: O Devi Narmada, I Bow down to Your Lotus Feet, Please give me Your Refuge.

इदं तु नर्मदाष्टकं त्रिकालमेव ये सदा
पठन्ति ते निरन्तरं न यान्ति दुर्गतिं कदा ।
सुलभ्य देहदुर्लभं महेशधामगौरवं
पुनर्भवा नरा न वै विलोकयन्ति रौरवम् ॥९॥
Idam Tu Narmadaassttakam Tri-Kaalam-Eva Ye Sadaa
Patthanti Te Nirantaram Na Yaanti Durgatim Kadaa |
Sulabhya Deha-Durlabham Mahesha-Dhaama-Gauravam
Punar-Bhavaa Naraa Na Vai Vilokayanti Rauravam ||9||

Meaning:
9.1: (Salutations to Devi Narmada) This Narmadashtakam, those who always during Three times of the day ...
9.2: ... Recite constantly, they do not ever undergo Misfortune,
9.3: It becomes easy to obtain the great privilege of going to the abode of Mahesha, which is very difficult for an embodied being to attain,
9.4: And those persons do not have to see the fearful World again (by taking birth).

Note: Place the mouse over each Sanskrit word to get the meaning. 
Click here to open the mouseover meanings in a new window. Translated by greenmesg 

Amarkantak: Narmada mandir & kund, Sonemuda, Mai ki bagiya, Kapildhara, Jwaleshwar Mahadev, Kabir chuara, Bhrigukamandal, Dudhdhara, Markandey Ashram, 

- Source of river Narmada: Amarkantak is situated in the Maikal mountains which links the Vindhya and Satpura mountain ranges. Amarkantak is the source of river Narmada as well as rivers Sone and Johila.

- Shakti Peetha: Amarkantak has one of the 51 Shakti Peethas known as Narmada Shakti Peetha.
(Refer to the list of Shakti Peethas - Refer to Shakti Peetha Stotram)

- Narmada Mandir and Kund: At the source of river Narmada lies the holy Narmada kund. Around this kund are several temples like Narmada Mandir, Shiva temple, Annapoorna temple, Durga temple, Rama temple, Radha Krishna temple, Suryanarayan temple etc.

- Sonemuda: Sonemuda is the place of origin of the Sone river. It is around 1.5 km from the Narmada kund.

- Mai ki Bagiya: The Mai ki Bagiya or the garden of the mother lies around 1 km from Narmada kund, within a densely forested area. It is believed that Devi Narmada used to pluck flowers in this garden.

- Kapildhara: At a distance of around 8 km from the origin of river Narmada, the river falls at a height of 100 feet creating a waterfall known as Kapildhara. It is believed that Rishi Kapila used to meditate here.

- Jwaleshwar Mahadev Temple: Around 8 km from Amarkantak is the origin of river Johila (or Johilla). There is a Shiva temple deep within the forest known as Jwaleshwar Mahadev Temple.

- Kabir Chabutra: At the meeting point of three districts - Anuppur of Madhya Pradesh, Dindori of Madhya Pradesh and Bilaspur of Chhattisgarh is a place known as Kabir Chabutra (Platform). It is believed that Sant Kabir used to meditate here. There is a waterfall nearb known as Kabir waterfall.

- Bhrigukamandal: Around 3 km from Amarkantak is a place within a forest known as Bhrigukamandal. It is believed that Rishi Bhrigu used to meditate here.

- Dudhdhara: Around 1 km from Amarkantak is a waterfall on river Narmada known as Dudhdhara.

- Shambudhara and Durgadhara: Deep within the forest near Amarkantak are two waterfalls known as Shambhudhara and Durgadhara.

- Markandeya Ashram: - Amarkantak is located in the Anuppur district of Madhya Pradesh.

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

नवगीत

एक रचना-
अभिन्न
*
हो अभिन्न तुम
निकट रहो 
या दूर
*
धरा-गगन में नहीं निकटता
शिखर-पवन में नहीं मित्रता
मेघ-दामिनी संग न रहते-
सूर्य-चन्द्र में नहीं विलयता
अविच्छिन्न हम
किन्तु नहीं
हैं सूर
*
देना-पाना बेहिसाब है
आत्म-प्राण-मन बेनक़ाब है
तन का द्वैत, अद्वैत हो गया
काया-छाया सत्य-ख्वाब है
नयन न हों नम
मिले नूर
या धूर
*
विरह पराया, मिलन सगा है
अपना नाता नेह पगा है
अंतर साथ श्वास के सोया
अंतर होकर आस जगा है.
हो न अधिक-कम
नेह पले
भरपूर
काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह 



पंद्रह वर्ष पश्चात् माँ के दरबार में पुस्तक-दीप अर्पित कर प्रसन्न हूँ. मुद्रक से प्राप्त प्रथम प्रति मैया के चरणों में. समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर द्वारा प्रकाशित ६४ गीति रचनाओं का यह संग्रह 'काल है संक्रांति का' सजिल्द ३००रु., पेपरबैक २०० रु. मित्रों को आधे मूल्य पर, डाक व्यय निशुल्क सुविधा सहित उपलब्ध कराया जा सकेगा। इस हेतु राशि यूनियन बैंक ऑफ़ इंडिया जबलपुर सिटी शाखा के लेखा क्रमांक 325602010071613, IFSC code 0532568 में जमा कर पावती तथा अपना पूरा पता, चलभाष क्रमांक सहित salil.sanjiv@gmail.com पर ईमेल करें।

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

समीक्षा - सरे राह

ॐ 

पुस्तक सलिलां-

‘सरे राह’ मुखौटे उतारती कहानियाॅ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- सरे राह, कहानी संग्रह, डाॅं. सुमनलता श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१५,  आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड जैकट सहित, मूल्य १५० रु., त्रिवेणी परिषद प्रकाशन, ११२१  विवेकानंद वार्ड, जबलपुर, कहानीकार संपर्क १०७ इंद्रपुरी, नर्मदा मार्ग, जबलपुर।]  
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‘कहना’ मानव के अस्तित्व का अपरिहार्य अंग है। ‘सुनना’,‘गुनना’ और ‘करना’ इसके अगले चरण हैं। इन चार चरणों ने ही मनुष्य को न केवल पशु-पक्षियों अपितु सुर, असुर, किन्नर, गंधर्व आदि जातियों पर जय दिलाकर मानव सभ्यता के विकास का पथ प्रशस्त किया। ‘कहना’ अनुशासन और उद्दंेश्य सहित हो तो ‘कहानी’ हो जाता है। जो कहा जंाए वह कहानी, क्या कहा जाए?, वह जो कहे जाने योग्य हो, कहे जाने योग्य क्या है?, वह जो सबके लिये हितकर है। जो सबके हित सहित है वही ‘साहित्य’ है। सबके हित की कामना से जो कथन किया गया वह ‘कथा’ है। भारतीय संस्कृति के प्राणतत्वों संस्कृत और संगीत को हृदयंगम कर विशेष दक्षता अर्जित करनेवाली विदुषी डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव की चैथी कृति और दूसरा कहानी संग्रह ‘सरे राह’ उनकी प्रयोगधर्मी मनोवृत्ति का परिचाायक है। 

विवेच्य कृति मुग्धा नायिका, पाॅवर आॅफ मदर, सहानुभूति, अभिलषित, ऐसे ही लोग, सेवार्थी, तालीम, अहतियात, फूलोंवाली सुबह, तीमारदारी, उदीयमान, आधुनिका, विष-वास, चश्मेबद्दूर, क्या वे स्वयं, आत्मरक्षा, मंजर, विच्छेद, शुद्धि, पर्व-त्यौहार, योजनगंधा, सफेदपोश, मंगल में अमंगल, सोच के दायरे, लाॅस्ट एंड फाउंड, सुखांत, जीत की हार तथा उड़नपरी 28 छोटी पठनीय कहानियों का संग्रह है।  

इस संकलन की सभी कहानियाॅं कहानीकार कम आॅटोरिक्शा में बैठने और आॅटोरिक्शा सम उतरने के अंतराल में  घटित होती हैं। यह शिल्यगत प्रयोग सहज तो है पर सरल नहीं है। आॅटोरिक्शा नगर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुॅंचाने में जो अल्प समय लेता है, उसके मध्य कहानी के तत्वों कथावस्तु, चरित्रचित्रण, पात्र योजना,  कथेपकथन या संवाद, परिवेश, उद्देश्य तथा शैली का समावेश आसान नहीं है। इस कारण बहुधा कथावस्तु के चार चरण आरंभ, आरोह, चरम और अवरोह कां अलग-अलग विस्तार देे सकना संभव न हो सकने पर भी कहानीकार की कहन-कला के कौशल ने किसी तत्व के साथ अन्याय नहीं होने दिया है। शिल्पगत प्रयोग ने अधिकांश कहानियों को घटना प्रधान बना दिया है तथापि चरित्र, भाव और वातावरण यथावश्यक-यथास्थान अपनी उपस्थिति दर्शाते हैं।  

कहानीकार प्रतिष्ठित-सुशिक्षित पृष्ठभूमि से है, इस कारण शब्द-चयन सटीक और भाषा संस्कारित है। तत्सम-तद्भव शब्दों का स्वाभविकता के साथ प्रयोग किया गया है। संस्कृत में शोधोपाधि प्राप्त लेखिका ने आम पाठक का ध्यानकर दैनंदिन जीवन में प्रयोग की जा रही भाषा का प्रयोग किया है। ठुली, फिरंगी, होंड़ते, गुब्दुल्ला, खैनी, हीले, जीमने, जच्चा, हूॅंक, हुमकना, धूरि जैसे शब्दकोष में अप्राप्त किंतु लोकजीवन में प्रचलित शब्द, कस्बाई, मकसद, दीदे, कब्जे, तनख्वाह, जुनून, कोफ्त, दस्तखत, अहतियात, कूवत आदि उर्दू शब्द, आॅफिस, आॅेडिट, ब्लडप्रैशर, स्टाॅप, मेडिकल रिप्रजेन्टेटिव, एक्सीडेंट, केमिस्ट, मिक्स्ड जैसे अंग्रेजी शब्द गंगो-जमनी तहजीब का नजारा पेश करते हैं किंतु कहीं-कहंी समुचित-प्रचलित हिंदी शब्द होते हुए भी अंग्रेजी शब्द का प्रयोग भाषिक प्रदूषण प्रतीत होतं है। मदर, मेन रोड, आफिस आदि के हिंदी पर्याय प्रचलित भी है और सर्वमान्य भी किंतु वे प्रयोग नहीं किये गये। लेखिका ने भाषिक प्रवाह के लिये शब्द-युग्मों चक्कर-वक्कर, जच्चा-बच्चा, ओढ़ने-बिछाने-पहनने, सिलाई-कढ़ाई, लोटे-थालियाॅं, चहल-पहल, सूर-तुलसी,  सुविधा-असुविधा, दस-बारह, रोजी-रोटी, चिल्ल-पों, खोज-खबर, चोरी-चकारी, तरो-ताजा, मुड़ा-चुड़ा, रोक-टोक, मिल-जुल, रंग-बिरंगा, शक्लो-सूरत, टांका-टाकी आदि का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया है।

किसी भाषा का विकास साहित्य से ही होता है। हिंदी विश्वभाषा बनने का सपना तभी साकार कर सकती है जब उसके साहित्य में भाषा का मानक रूप हो। लेखिका सुशिक्षित ही नहीं सुसंस्कृत भी हैं, उनकी भाषा अन्यों के लिये मानक होगी। विवेच्य कृति में बहुवचन शब्दों में एकरूपता नहीं है। ‘महिलाएॅं’ में हिंदी शब्दरूप है तो ‘खवातीन’ में उर्दू शब्दरूप, जबकि ‘रिहर्सलों’ में अंग्रेजी शब्द को हिंदी व्याकरण-नियमानुसार बहुवचन किया ंगया है। 

सुमन जी की इन कहानियों की शक्ति उनमें अंतर्निहित रोचकता है। इनमें ‘उसने कहा था’ और ‘ताई’ से ली गयी प्रेरणा देखी जा सकती है। कहानी की कोई रूढ़ परिभाषा नहीं हो सकती। संग्रह की हर कहानी में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में लेखिका और आॅटोरिक्शा है, सूत्रधार, सहयात्री, दर्शक, रिपोर्टर अथवा पात्र के रूप में वह घटना की साक्ष्य है। वह घटनाक्रम में सक्रिय भूमिका न निभाते हुए भी पा़त्र रूपी कठपुतलियों की डोरी थामे रहती है जबकि आॅटोेरिक्शा रंगमंच बन जाता है। हर कहानी चलचित्र के द्श्य की तरह सामने आती है। अपने पात्रों के माघ्यम से कुछ कहती है और जब तक पाठक कोई प्रतिकिया दे, समाप्त हो जाती है। समाज के श्वेत-श्याम दोनों रंग पात्रों के माघ्यम ेंसे सामने आते हैं।

अनेकता में एकता भारतीय समाज और संस्कृति दोनों की विशेषता है। यहाॅं आॅटोरिक्शा और कहानीकार एकता तथा घटनाएॅं और पात्र अनेकता के वाहक है। इन कहानियों में लघुकथा, संस्मरण, रिपोर्ताज और गपशप का पुट इन्हें रुचिकर बनाता है। ये कहानियाॅं किसी वाद, विचार या आंदोलन के खाॅंचे में नहीं रखी जा सकतीं तथापि समाज सुधार का भाव इनमें अंतर्निहित है। ये कहानियाॅं बच्चों नहीं बड़ों, विपन्नों नहीं संपन्नों के मुखौटों के पीछे छिपे चेहरों को सामने लाती हैं, उन्हें लांछित नहीं करतीं। ‘योजनगंधा’ और ‘उदीयमान’ जमीन पर खड़े होकर गगन छूने, ‘विष वास’, ‘सफेदपोश’, ‘उड़नपरी’, ‘चश्मेबद्दूर आदि में श्रमजीवी वर्ग के सदाचार, ‘सहानूभूति’, ‘ऐसे ही लोग’, ‘शुद्धि’, ‘मंगल में अमंगल’ आदि में विसंगति-निवारण, ‘तालीम’ और ‘सेवार्थी’ में बाल मनोविज्ञान, ‘अहतियात’ तथा ‘फूलोंवाली सुबह’में संस्कारहीनता, ‘तीमारदारी’, ‘विच्छेद’ आदि में  दायित्वहीनता, ‘आत्मरक्षा’ में स्वावलंबन, ‘मुग्धानायिका’ में अंधमोह को केंद्र में रखकर कहानीकार ने सकारात्मक संदेष दिया है।      

सुमन जी की कहानियों का वैशिष्ट्य उनमें व्याप्त शुभत्व है। वे गुण-अवगुण के चित्रण में अतिरेकी नहीं होतीं। कालिमा की न तो अनदेखी करती हैं, न भयावह चित्रण कर डराती हैं अपितु कालिमा के गर्भ में छिपी लालिमा का संकेत कर  ‘सत-शिव-सुंदर’ की ओर उन्मुख होने का अवसर पाने की इच्छा पाठक में जगााती हैं। उनकी आगामी कृति में उनके कथा-कौशल का रचनामृत पाने की प्रतीक्षा पाठक कम मन में अनायास जग जाती है, यह उनकी सफलता है।  
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- समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४ , salil.sanjiv@gmail.com 

samiksha

ॐ 
 
पुस्तक सलिला-

 ‘सरहदें’ कवि कलम की चाह ले कर सर हदें
 
[पुस्तक परिचय- सरहदें,  ISBN  978.93.83969.72.2, कविता संग्रह, सुबोध श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१. ५ से.मी. x  १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड, मूल्य १२० रु., अंजुमन प्रकाशन, ९४२ आर्य कन्या चैराहा,  मुटठीगंज, इलाहाबाद २११००३, ९४५३००४३९८, anjumanprakashan@gmail.com , कवि संपर्कः माॅडर्न विला, १०/५१८ खलासी लाइंस, कानपुर २०८००१, चलभाष ०९३०५५४०७४५, subodh158@gmail.com ।]
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मूल्यों के अवमूल्यन, नैतिकता के क्षरण तथा संबंधों के हनन को दिनानुदिन सशक्त करती तथाकथित आधुनिक जीवनशैली विसंगतियों और विडंबनाओं के पिंजरे में आदमी को दम तोड़ने के लिये विवश कर रही है। कवि-पत्रकार सुबोध श्रीवास्तव की कविताएॅं बौद्धिक विलास नहीं, पारिस्थितिक जड़ता की चट्टान को तोड़ने में जुटी छेनी की तरह हैं। आम आदमी अवश्वास और निजता की हदों में कैद होकर घुट रहा है। सुबोध जी की कविताएॅं ऐसी हदों को सर करने की कोशिश से उपजी हैं। कवि सुबोध का पत्रकांर उन्हें वायवी कल्पनाओं से दूरकर जमीनी सामाजिकता सम जोड़ता है। उनकी कविताएॅं अनुभूत की सहज-सरल अभिव्यक्ति करती हैं। वर्तमान नकारात्मक पत्रकारिता के समय में एक पत्रकांर को उसका कवि आशावादी बनाता है।
 
सब कुछ खत्म/नहीं होता
सब कुछ/खत्म हो जाने के बाद भी
बाकी रह जाता है/कहीं कुछ
फिर सृजन को।
हाॅं, एक कतरा उम्मीद भी/खड़ी कर सकती है
हौसले और विष्वास की/बुलंद इमारत।
 
अपने नाम के अनुरूप् सुबोध ने कविताओं को सहज बोधगम्य रखा है। वे आतंक के सरपरस्तों को न तो मच्छर के दहाडने की तरह नकली चुनौती देते हैं, न उनके भय से नतमस्तक होते हैं अपितु उनकी साक्षात शांति की शक्ति और हिंसा की निस्सारिता से कराते हैं-
 
     तुम्हें/भले ही भाती हो
     अपने खेतों में खड़ी/बंदूकों की फसल
     लेकिन-/मुझे आनंदित करती है
     पीली-पीली सरसों/और/दूर तक लहलहाती
     गेहूॅं की बालियों से उपजता/संगीत।
     तुम्हारे बच्चों को/शायद
     लोरियों सा सुख भी देती होगी
     गोलियों की तड़तड़ाहट/लेकिन/सुनो
     कभी खाली पेट नहीं भरा करती
     बंदूकें/सिर्फ कोख उजाड़ती हैं।
 
सुबोध की कविताएॅं आलंकारिकता का बहिष्कार नहीं करतीं, नकारती भी नहीं पर सुरुचिपूर्ण तरीके कथ्य और भाषा की आवश्यकता के संप्रेषण को अधिक प्रभावी बनाने के लिये उपकरण की तरह अनुरूप उपयोग करती हैं।
 
उसके बाद/फिर कभी नहीं मिले/हम-तुम
लेकिन/मेरी जि़ंदगी को/महका रही है
अब तक/खुशबू/तेरी याद की
क्योकि/यहाॅं नहीं है/कोई सरहद।
 
‘अहसास’ शीर्षक अनुभाग में संकलित प्रेमपरक रचनाएॅं लिजलिजेपन से मुक्त और यथार्थ के समीप हैं।
 
      आॅंगन में/जरा सी धूप खिली
      मुंडेर पे बैठी/ चिडि़या ने/फुदककर
      पंखों में छिपा मुॅंह/बाहर निकाला
      और/चहचहाई/तो यूॅं लगा/कि तुम आ गये।
 
कवि मानव मन की गहराई से पड़ताल कर, कड़वे सच को भी सहजता और अपनेपन से कह पाता है-
 
जितना/खौफनाक लगता है/सन्नाटा
उससे भी कहीं ज्यादा/डर पैदा करता है
कोई/खामोश आदमी।
दोनों ही स्थितियाॅं/तकरीबन एक सी हैं
फर्क सिर्फ इतना है कि/सन्नाटा/टूटता है तो
फिर पहले जैसा हो जाता है/माहौल/लेकिन
​चुप्पी टूटने पे/अक्सर/बदला-बदला सा
नज़र आता है/आदमी।
 
संग्रह के आकर्षण में डाॅ. रेखा निगम, अजामिल तथा अशोक शुक्ल 'अंकुश' के चित्रों ने वृद्धि की है। प्रतिष्ठित कलमकार दिविक रमेश जी की भूमिका सोने में सुहागे की तरह है।
 
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- समन्वयम, २०४  विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ , चलभाष ९४२५१८३२४४ , salil.sanjiv@gmail.com 

गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

samiksha

ओम

पुस्तक सलिलां-

‘‘बोलना सख्त मना है’’ नवगीत की विसंगतिप्रधान भावमुद्रा

[पुस्तक परिचय- बोलना सख्त मना है,  ISBN 978-93-85942-09-9, नवगीत संग्रह, पंकज मिश्र ‘अटल’,वर्ष २०१६, आकार २०.५ से.मी. x  ७.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड, मूल्य १०० रु., बोधि प्रकाशन एफ ७७ ए सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क सृजन, कुमरा गली, रोशनगंज, शाहजहाॅंपुर २४१००१, चलभाष 99366031136 ।]  
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साहित्य को सशक्त हथियार और पारंपरिकता को तोड़ने व वैचारिक क्रांति करने का उद्देश्य मात्र माननेवाले रचनाकार पंकज मिश्र की इस नवगीत संग्रह से पूर्व दो पुस्तकें ‘चेहरों के पार’ तथा ‘नए समर के लिये’ प्रकाशित हो चुकी र्हैं।  विवेच्य संकलन की भूमिका में नवगीतकार अपनी वैचारिक प्रतिबद्वता  से अवगत कराकर पाठक को रचनाओं में अंतप्र्रवहित भावों का पूर्वाभास करा देता है।  उसके अनुसार ‘‘माध्यम महत्वपूर्ण तो है, पर उतना नहीं जितना कि वह विचार, लक्ष्य या मंतव्य जो समाज को चैतन्यता से पूर्ण कर दे, उसे जागृत कर दे और सकारात्मकता के साथ आगे पढ़ने को बाध्य कर दे। मैंने अपने नवगीतों में अपने आस-पास जो घटित हो रहा है, जो मैं महसूस कर रहा हूॅं और जो भोग रहा हूॅं, उस भोगे हुए यथार्थ को कथ्य रूप में अभिव्यक्ति प्रदान की है।’’ इसका अर्थ यह हुआ कि रचनाकार केवल भोगे हुए को अभिव्यक्ति दे सकता है, अनुभूत को नहीं। तब किसी अनपढ, किसी शोषित़ के दर्द की अभ्व्यिक्ति कोई पढ़ा-लिखा यंा अशोषित कैसे कर सकतंा है? तब कोई स्त्रीए पुरुष की, कोई प्रेमचंद किसी धीसू या जालपा की बात नहीं कह सकेगा क्योंकि उसने वह भोगा नहीं, देखा मात्र है। यह सोच एकांगी ही नहीं गलत भी है। वस्तुतः अभिव्यक्त करने के लिये भोगना जरूरी नहीं, अनुभूति को भी अभिव्यक्त किया जा सकता है। अतः भोगे हुए यथार्थ कथ्य रूप में अभिव्यक्त करने का दावा अतिशयोक्ति ही हो सकता है।    

कवि के अनुसार उसके आस-पास वर्जनाएॅं, मूल्य नहीं मूल्यों की चर्चाएॅं, खोखलेपन और दंभ को पूर्णता मान भटकती-बिखरती पीढ़ी, तिक्त-चुभते संवाद और कथन, खीझ और बासीपन, अति तार्किकता, दम तोड़ती भावनाएॅं, खुद को खोती-चुकती अवसाद धिरी भीड़ है और इसी को से जन्मे हैं उसके नवगीत। यह वक्तव्य कुछ सवाल खड़े करता है. क्या समाज में केवल नकारात्मकता ही है, कुछ भी-कहीं भी सकारात्मक नहीं है? इस विचार से सहमति संभव नहीं क्योंकि समाज में बहुत कुछ अच्छा भी होता है। यह अच्छा नवगीत का विषय क्यों नहीं होे सकता? किसी एक का आकलन सब के लिये बाध्यता कैसे हो सकता है? कभी एक का शुभ अन्य के लिये अशुभ हो सकता है तब रचनाकार किसी फिल्मकार की तरह एक या दोनों पक्षों की अनुभूतियों को विविध पात्रों के माध्यम से व्यक्त कर सकता है।    

कवि की अपेक्षा है कि  उसके नवगीत वैचारिक क्रांति के संवाहक बनें।  क्रांति का जन्म बदलाव की कामना से होता है, क्रांति को ताकत त्याग-बलिदान-अनुशासन से मिलती है। क्रांति की मशाल आपसी भरोसे से रौशन होती है किंतु इन सबकी कोई जगह इन नवगीतों में नहीं है। गीत से जन्में नवगीत में शिल्प की दृष्टि से मुखड़ा-अंतरा, अंतरों में सामान्यतः समान पंक्ति संख्या और पदभार, हर अंतरे के बाद मुखड़े के समान पदभार व समान तुक की पंक्तियाॅं होती हैं। अटल जी ने इस शिल्पानुशासन से रचनाओं को गति-यति युक्त कर गेय बनाया है। हिंदी में स्नातकोत्तर कवि  अभिव्यक्ति सामथ्र्य का धनी है। उसका शब्द-भंडार समृद्ध है। कवि का अवचेतन अपने परिवेश में प्रचलित शब्दों को बिना किसी पूर्वाग्रह के ग्रहण करता है इसलिए भाषा जीवंत है। भाषा को प्राणवान बनाने के लिये कवि गुंफित, तिक्त, जलजात, कबंध, यंत्रवत, वाष्प, वीथिकाएॅं जैसे संस्क्रतनिष्ठ शब्द, दुआरों, सॅंझवाती, आखर आदि देशज शब्द, हाकिम, जि़ंदगी, बदहवास, माफिक, कुबूल, उसूल जैसे उर्दू शब्द तथा फुटपाथ, कल्चर, पेपरवेट, पेटेंट, पिच, क्लासिक, शोपीस आदि अंग्रेजी शब्द यथास्थान स्वाभाविकता के साथ प्रयोग करता है। अहिंदी शब्दों का प्रयोग करतें समय कवि सजगतापूर्वक उन्हें हिंदी शब्दों की तरह वापरता है। पेपरों  तथा दस्तावेजों जैसे शब्दरूप सहजता से प्रयोग किये गये हैं।    
हिंदी मातृभाषा होने के कांरण कवि की सजगता हटी और त्रुटि हुई। शीष, क्षितज जैसी मुद्रण त्रुटियाॅं तथा अनुनासिक तथा अनुस्वार के प्रयोग में त्रुटि खटकती है। संदर्भ का उच्चारण सन्दर्भ है तो हॅंसकर को अहिंदीभाषी हन्सकर पढ़कर हॅंसी का पात्र बन जाएगा। हॅंस और हंस का अंतर मिट जाना दुखद है। इसी तरह बहुवचन शब्दों में कहीं ‘एॅं’ का प्रयोग है, कहीं ‘यें’ का देखें ‘सभ्यताएॅं’और ‘प्रतिमायें’। कवि ने गणित से संबंधित शब्दों का प्रयौग किया है। ये प्रयोग अभिव्यक्ति को विशिष्ट बनाते हैं किंतु सटीकता भी चाहते हैं। ‘अपनापन /घिर चुका आज / फिर से त्रिज्याओं में’ के संबंध में तथ्य  यह है कि त्रिज्या वृत के केंद्र से परिधि तक सीधी लकीर होती है, त्रिज्याएॅं चाप के बिना किसी को घेर नहीे सकतीं। ‘बन चुकी है /परिधि सारी /विवशतायें’, गूॅंगी /चुप्पी में लिपटी /सारी त्रिज्याएॅं हैं’, घुट-घुटकर जीता है नगरीय भूगोल, बढ़ने और घटनें में ही घुटती सीमाएॅं है, रेखाएॅं /घुलकर क्यों /तिरता प्रतिबिंब बनीं?’, ‘धुॅंधलाए /फलकों पर/आधा ही बिंब बनीं’, ‘आकांश बनने /में ही उनके/कट गए डैने’, ‘ड्योढि़याॅं/हॅंसती हैं/आॅंगन को’, इतिहास के /सीने पे सिल/बोते रहे’, ‘लड़ रहीं/लहरें शिलाओं से’, लिपटकर/हॅंसती हवाओं से’, ‘एक बौना/सा नया/सूरज उगाते हम’जैसे प्रयोग ध्यान आकर्षित करते हैं किंतु अधिक सजगता भी चाहते हैं।

अटल जी के ये नवगीत पारंपरिक कथ्य को तोड़ते और बहुत कुछ जोड़ते हैं। वैचारिक प्रतिबद्धता  पर सहज अनुभूतिजन्य अभिव्यक्ति को वरीयता होने पर रस औ भाव पक्ष गीत को अधिक प्रभावी होंगे। यह संकलन अटल जी से और अधिक की आशा जगाता है। नवगीतप्रेमी इसे पढ़कर आनंदित होगे। सुरुचिपूर्ण आवरण, मुद्रण तथा उपयुक्त मूल्य के प्रति प्रकाशक का सजग होना स्वागतेय है।
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- समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com 

कुण्डलिनी

​​रसानंद दे छंद नर्मदा २४​​: ​ ६-४-२०१६
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
​दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​,गीतिका,​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी,​ छप्पय तथा भुजंगप्रयात छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए​ कुण्डलिनी छंद से.

कुण्डलिनी का वृत्त है दोहा-रोला युग्म
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कुण्डलिनी हिंदी के कालजयी और लोकप्रिय छंदों में अग्रगण्य है एक दोहा (दो पंक्तियाँ, १३-११ पर यति, विषम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरणान्त गुरु-लघु या लघु- लघु-लघु) तथा एक रोला (चार पंक्तियाँ, ११-१३यति, विषम चरणान्त गुरु-लघु या लघु- लघु-लघु, सम चरण के आदि में जगण वर्जित,सम चरण के अंत में २ गुरु, लघु-लघु-गुरु, या ४ लघु) मिलकर षट्पदिक (छ: पंक्ति) कुण्डलिनी छंद को आकार देते हैं दोहा और रोला की ही तरह कुण्डलिनी भी अर्ध सम मात्रिक छंद है दोहा का अंतिम या चौथा चरण रोला  प्रथम चरण बनाकर दोहराया जाता है दोहा का प्रारंभिक शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश रोला का अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश होता है प्रारंभिक और अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश की समान आवृत्ति से ऐसा प्रतीत होता है मानो जहाँ से आरम्भ किया वही लौट आये, इस तरह शब्दों के एक वर्तुल या वृत्त की प्रतीति होती है सर्प जब कुंडली मारकर बैठता है तो उसकी पूँछ का सिरा जहाँ होता है वहीं से वह फन उठाकर चतुर्दिक  देखता है   

१. कुण्डलिनी छंद ६ पंक्तियों का छंद है जिसमें एक दोहा और एक रोला छंद  होते हैं
२. दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण होता है
३. दोहा का आरंभिक शब्द, शब्दांश, शब्द समूह या पूरा चरण रोला के अंत में प्रयुक्त होता है
४. दोहा तथा रोला अर्ध सम मात्रिक  छंदहैं अर्थात इनके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ  होती हैं

अ. दोहा में २ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में १३+११=२४ मात्राएँ होती हैं. दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे) चरण में १३ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे) चरण में ११ मात्राएँ होती हैं
आ. दोहा के विषम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते 
इ. दोहा के विषम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए 
ई. दोहा के सम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है
उ. दोहा के लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर २३ प्रकार होते हैं
उदाहरण: समय-समय की बात है, समय-समय का फेर
               जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर
 
५.  रोला भी अर्ध सम मात्रिक  छंद है अर्थात इसके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ  होती हैं
क. रोला में  ४ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में ११+१३=२४ मात्राएँ होती हैं दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें) चरण में ११  मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे, छठवें, आठवें) चरण में १३ मात्राएँ होती हैं
का. रोला के विषम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है
कि. रोला के सम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते
की. रोला के सम चरण का अंत  रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए 
उदाहरण: सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़
 
               हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़
               भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय
               नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय
६. कुण्डलिनी:
                      समय-समय की बात है, समय-समय का फेर
                      जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर
                      सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़
                      हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़
                      भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय
                      नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय

कुण्डलिया है जादुई, छन्द श्रेष्ठ श्रीमान
दोहा रोला का मिलन, इसकी है पहिचान
इसकी है पहिचान, मानते साहित सर्जक
आदि-अंत सम-शब्द, साथ बनता ये सार्थक
लल्ला चाहे और, चाहती इसको ललिया
सब का है सिरमौर छन्द, प्यारे, कुण्डलिया  - नवीन चतुर्वेदी 

कुण्डलिया छन्द का विधान उदाहरण सहित

कुण्डलिया है जादुई
२११२ २ २१२ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
छन्द श्रेष्ठ श्रीमान
२१ २१ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
दोहा रोला का मिलन
२२ २२ २ १११ = १३ मात्रा / अंत में लघु लघु लघु [प्रभाव लघु गुरु] के साथ यति
इसकी है पहिचान
११२ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
इसकी है पहिचान,
११२ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
मानते साहित सर्जक
२१२ २११ २११ = १३ मात्रा
आदि-अंत सम-शब्द,
२१ २१ ११ २१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
साथ, बनता ये सार्थक
२१ ११२ २ २११ = १३ मात्रा
लल्ला चाहे और
२२ २२ २१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
चाहती इसको ललिया
२१२ ११२ ११२ = १३ मात्रा
सब का है सिरमौर
११ २ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
छन्द प्यारे कुण्डलिया
२१ २२ २११२ = १३ मात्रा

उदाहरण -
०१. भारत मेरी जान है,  इस पर मुझको नाज़      
      नहीं रहा बिल्कुल मगर, यह कल जैसा आज
      यह कल जैसा आज, गुमी सोने की चिड़िया
      बहता था घी-दूध, आज सूखी हर नदिया
      करदी भ्रष्टाचार- तंत्र ने, इसकी दुर्गत      
      पहले जैसा आज,  कहाँ है? मेरा भारत  - राजेंद्र स्वर्णकार 




०२. भारत माता की सुनो, महिमा अपरम्पार ।
      इसके आँचल से बहे, गंग जमुन की धार ।।
      गंग जमुन की धार, अचल नगराज हिमाला ।
      मंदिर मस्जिद संग, खड़े गुरुद्वार शिवाला ।।
      विश्वविजेता जान, सकल जन जन की ताकत ।
      अभिनंदन कर आज, धन्य है अनुपम भारत ।। - महेंद्र वर्मा

०३. भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल
      फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल
      तज भेदों के, शूल / अनवरत, रहें सृजनरत
      मिलें अँगुलिका, बनें / मुष्टिका, दुश्मन गारत
      तरसें लेनें. जन्म / देवता, विमल विनयरत
      'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत
      (यहाँ अंतिम पंक्ति में ११ -१३ का विभाजन 'नित' ले मध्य में है अर्थात 'सलिल' पखारे पग नि/त पूजे, माता भारत में यति एक शब्द के मध्य में है यह एक काव्य दोष है और इसे नहीं होना चाहिए। 'सलिल' पखारे चरण करने पर यति और शब्द एक स्थान पर होते हैं, अंतिम चरण 'पूज नित माता भारत' करने से दोष का परिमार्जन होता है।)

०४. कंप्यूटर कलिकाल का, यंत्र बहुत मतिमान
      इसका लोहा मानते, कोटि-कोटि विद्वान
      कोटि-कोटि विद्वान, कहें- मानव किंचित डर
      तुझे बना ले, दास अगर हो, हावी तुझ पर
      जीव श्रेष्ठ, निर्जीव हेय, सच है यह अंतर
      'सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर
      ('सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर' यहाँ 'बेहतर' पढ़ने पर अंतिम पंक्ति में २४ के स्थान पर २५ मात्राएँ हो रही हैं। उर्दूवाले 'बेहतर' या 'बिहतर' पकर यह दोष दूर हुआ मानते हैं किन्तु हिंदी में इसकी अनुमति नहीं है। यहाँ एक दोष और है, ११ वीं-१२ वीं मात्रा है 'बे' है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। 'सलिल' न बेहतर मानव से' करने पर अक्षर-विभाजन से बच सकते हैं पर 'मानव' को 'मा' और 'नव' में तोड़ना होगा, यह भी निर्दोष नहीं है। 'मानव से अच्छा न, 'सलिल' कोई कंप्यूटर' करने पर पंक्ति दोषमुक्त होती है।)

०५. सुंदरियाँ घातक 'सलिल', पल में लें दिल जीत
      घायल करें कटाक्ष से, जब बनतीं मन-मीत
      जब बनतीं मन-मीत, मिटे अंतर से अंतर
      बिछुड़ें तो अवढरदानी भी हों प्रलयंकर
      असुर-ससुर तज सुर पर ही रीझें किन्नरियाँ
      नीर-क्षीर बन, जीवन पूर्ण करें सुंदरियाँ    
     (इस कुण्डलिनी की हर पंक्ति में २४ मात्राएँ हैं। इसलिए पढ़ने पर यह निर्दोष प्रतीत हो सकती है। किंतु यति स्थान की शुद्धता के लिये अंतिम ३ पंक्तियों को सुधारना होगा।   
'अवढरदानी बिछुड़ / हो गये थे प्रलयंकर', 'रीझें सुर पर असुर / ससुर तजकर किन्नरियाँ', 'नीर-क्षीर बन करें / पूर्ण जीवन सुंदरियाँ'  करने पर छंद दोष मुक्त हो सकता है।) 

०६. गुन के गाहक सहस नर, बिन गन लहै न कोय
      जैसे कागा-कोकिला, शब्द सुनै सब कोय 
      शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन 
       दोऊ को इक रंग, काग सब लगै अपावन 
       कह 'गिरधर कविराय', सुनो हे ठाकुर! मन के
      बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के। - गिरधर 
      कुण्डलिनी छंद का सर्वाधिक और निपुणता से प्रयोग करनेवाले गिरधर कवि ने यहाँ आरम्भ के अक्षर, शब्द या शब्द समूह का प्रयोग अंत में ज्यों का त्यों न कर, प्रथम चरण के शब्दों को आगे-पीछे कर प्रयोग किया है। ऐसा करने के लिये भाषा और छंद पर अधिकार चाहिए।   

०७. हे माँ! हेमा है कुशल, खाकर थोड़ी चोट 
      बच्ची हुई दिवंगता, थी इलाज में खोट 
      थी इलाज में खोट, यही अच्छे दिन आये
      अभिनेता हैं खास, आम जन हुए पराये
      सहकर पीड़ा-दर्द, जनता करती है क्षमा?
      समझें व्यथा-कथा, आम जन का कुछ हेमा
      यहाँ प्रथम चरण का एक शब्द अंत में है किन्तु वह प्रथम शब्द नहीं है

०८. दल का दलदल ख़त्म कर, चुनिए अच्छे लोग
      जिन्हें न पद का लोभ हो, साध्य न केवल भोग
      साध्य न केवल भोग, लक्ष्य जन सेवा करना
      करें देश-निर्माण, पंथ ही केवल वरना
      कहे 'सलिल' कवि करें, योग्यता को मत ओझल
      आरक्षण कर  ख़त्म, योग्यता ही हो संबल 
      यहाँ आरम्भ के शब्द 'दल' का समतुकांती शब्द 'संबल' अंत में है।  प्रयोग मान्य हो या न हो, विचार करें

०९. हैं ऊँची दूकान में, यदि फीके पकवान।
      जिसे- देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।
      वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।
      ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ- ना दाल गलेगी।
      कहे 'सलिल' कविराय, दूर हो ऊँचाई से।
      ऊँचाई दिख सके, सदा ही नीचाई से
      यहाँ प्रथम शब्द 'है' तथा अंत में प्रयुक्त शब्द 'से' दोनों गुरु हैं। प्रथम दृष्टया भिन्न प्रतीत होने पर भी दोनों के उच्चारण में लगनेवाला समय समान होने से छंद निर्दोष है
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