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शनिवार, 22 नवंबर 2014

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नवगीत:



रस्म की दीवार
करती कैद लेकिन  
आस खिड़की
रूह कर आज़ाद देती

सोच का दरिया
भरोसे का किनारा
कोशिशी सूरज
न हिम्मत कभी हारा
उमीदें सूखी नदी में
नाव खेकर
हौसलों को हँस
नयी पतवार देती

हाथ पर मत हाथ 
रखकर बैठना रे!
रात गहरी हो तो
सूरज लेखना रे!
कालिमा को लालिमा
करती विदा फिर 
आस्मां को
परिंदा उपहार देती

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नवगीत:


तरस मत खाओ
अभी भी बहुत दम है

झाड़ कचरा, तोड़ टहनी, बीन पाती
कसेंड़ी ले पोखरे पर नहा, जल लाती
फूँकती चूल्हा कमर का धनु बनाती
धुआँ-खाँसी से न डरती
आँख नम है 

बुढ़ाई काया मगर है हौसला बाकी
एक आलू संग चाँवल एक मुट्ठी भर
तोड़ टहनी फूँक चूल्हा पकाये काकी
खिला सकती है तुम्हें 
ममता न कम है

***


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नवगीत:

वृक्ष ही हमको हुआ 
स्टेडियम है 

शहर में साधन हजारों
गाँव में आत्मबल 
यहाँ अपनापन मिलेगा 
वहाँ है हर ओर छल
हर जगह जय समर्थों की 
निबल की खातिर 
नियम है 

गगन छूते भवन लेकिन 
मनों में स्थान कम 
टपरियों में संग रहते 
खुशी, जीवट, हार, गम 
हर जगह जय अनर्थों की 
मृदुल की खातिर 
प्रलय है

***
 
  

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नवगीत:



ज़िंदगी मेला
झमेला आप मत कहिए इसे

फोड़कर ऊसर जमीं को
मुस्कुराता है पलाश
जड़ जमा लेता जमीं में
कब हुआ कहिए हताश?
है दहकता तो
बहकता आप मत कहिए इसे 

पूछिए जा दुकानों में
पावना-देना कहानी
देखिए जा तंबुओं में
जागना-सोना निशानी
चक्र चलता
सिर्फ ढलता आप मत कहिए इसे

जानवर भी है यहाँ
दो पैर वाले सम्हलिए
शांत चौपाया भले है
दूर रह मत सिमटिए
प्रदर्शन है
आत्मदर्शन आप मत कहिए इसे 

आपदा में
नहीं होती नष्ट दूर्वा देखिए
सूखकर फिर
ऊग जाती, शक्ति इसकी लेखिए
है रवानी
निगहबानी आप मत कहिए इसे
***


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नवगीत:

अहर्निश चुप 
लहर सा बहता रहे 

आदमी क्यों रोकता है धार को?
क्यों न पाता छोड़ वह पतवार को 
पला सलिला के किनारे, क्यों रुके?
कूद छप से गव्हर नापे क्यों झुके?

सुबह उगने साँझ को 
ढलता रहे 
हरीतिमा की जयकथा 
कहता रहे 

दे सके औरों को कुछ ले कुछ नहीं 
सिखाती है यही भू माता मही 
कलुष पंकिल से उगाना  है कमल 
धार तब ही बह सकेगी हो विमल 

मलिन वर्षा जल 
विकारों सा बहे  
शांत हों, मन में न 
दावानल दहे 

ऊर्जा है हर लहर में कर ग्रहण  
लग न लेकिन तू लहर में बन ग्रहण 
विहंगम रख दृष्टि, लघुता छोड़ दे 
स्वार्थ साधन की न नाहक होड़ ले 

कहानी कुदरत की सुन, 
अपनी कहे 
स्वप्न बनकर नयन में 
पलता रहे 
***

नवगीत:

काबलियत को भूल
चुना बेटे को मैंने

बाम्हन का बेटा बाम्हन है
बनिया का बेटा है बनिया
संत सेठ नेता भी चुनता
अपना बेटा माने दुनिया
देखा सपना झूम
उठा बेटे को मैंने

मरकर पगड़ी बाँधी सुत-सिर
तुमने, पर मैंने जीते जी
बिना बात ही बात उछाली
तुमने खूब तवज्जो क्यों दी?
चर्चित होकर लिया
चूम बेटे को मैंने

खुद को बदलो तब यह बोलो
बेटा दावेदार नहीं है
किसे बुलाऊँ, किसको छोड़ूँ
क्या मेरा अधिकार नहीं है?
गर्वित होकर लिया बाँध
फेंटे को मैंने
***






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नवगीत:

जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार

बीड़ी-गुटखा बहुत जरूरी
साग न खा सकता मजबूरी
पौआ पी सकता हूँ, लेकिन
दूध नहीं स्वीकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार

कौन पकाये घर में खाना
पिज़्ज़ा-चाट-पकौड़े खाना
चटक-मटक बाजार चलूँ
पढ़ी-लिखी मैं नार 
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार

रहें झींकते बुड्ढा-बुढ़िया
यही मुसीबत की हैं पुड़िया
कहते सादा खाना खाओ
रोके आ सरकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार

हुआ कुपोषण दोष न मेरा
खुद कर दूँ चहुँ और अँधेरा
करे उजाला घर में आकर
दखल न दे सरकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार

***

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नवगीत:

बग्घी बैठा
सठियाया है समाजवादी

हिन्दू-मुस्लिम को लड़वाए
अस्मत की धज्जियाँ उड़ाए
आँसू सिसकी चीखें नारे
आश्वासन कथरी लाशों पर
सत्ता पाकर
उढ़ा रहा है समाजवादी

खुद बीबी साले बेटी को
सत्ता दे, चाहे हेटी हो
घपलों-घोटालों की जय-जय
कथनी-करनी में अंतर कर
न्यायालय से
सजा पा रहा समाजवादी

बना मसीहा झाड़ू थामे
गाल बजाये, लाज न आए
कुर्सी मिले छोड़कर भागे
पाक साफ़ खुद को बतलाये
सपना देखे
ठोकर खाए समाजवादी

***

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

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नवगीत:

अंध श्रद्धा शाप है

आदमी को देवता मत मानिये
आँख पर अपनी न पट्टी बाँधिए
साफ़ मन-दर्पण हमेशा यदि न हो
गैर को निज मसीहा मत मानिए
लक्ष्य अपना आप है

कौन गुरुघंटाल हो किसको पता?
बुद्धि को तजकर नहीं करिए खता
गुरु बनायें तो परखिए भी उसे
बता पाये गुरु नहीं तुझको धता
बुद्धि तजना पाप है 

नीति-मर्यादा सुपावन धर्म है  
आदमी का भाग्य लिखता कर्म है
शर्म आये कुछ न ऐसा कीजिए
जागरण ही ज़िंदगी का मर्म है
देव-प्रिय निष्पाप है

*** 

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नवगीत:

वेश संत का
मन शैतान

छोड़ न पाये भोग-वासना
मोह रहे हैं काम-कामना
शांत नहीं है क्रोध-अग्नि भी
शेष अभी भी द्वेष-चाहना
खुद को बता
रहे भगवान

शेष न मन में रही विमलता
भूल चुके हैं नेह-तरलता
कर्मकांड ने भर दी जड़ता
बन बैठे हैं
ये हैवान

जोड़ रखी धन-संपद भारी
सीख-सिखाते हैं अय्यारी
बेचें भ्रम, क्रय करते निष्ठा
ईश्वर से करते गद्दारी
अनुयायी जो
है नादान

खुद को बतलाते अवतारी
मन भाती है दौलत-नारी
अनुशासन कानून न मानें 
कामचोर-वाग्मी हैं भारी
पोल खोल दो
मन में ठान

***

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

kahawaten, muhaware, lokoktiyan: aankh

कहावतें, मुहावरे, लोकोक्तियाँ

आँख से सम्बंधित कहावतें, मुहावरे, लोकोक्तियाँ अर्थ और प्रयोग सहित प्रस्तुत करें।

जैसे आँख लगना = नींद आ जाना।  जैसे ही आँख लगी दरवाजे की सांकल बज गयी. 


navgeet: brajesh shrivastava

नवगीत:

ब्रजेश श्रीवास्तव
(नवगीत महोत्सव लखनऊ में वरिष्ठ नवगीतकार श्री ब्रजेश श्रीवास्तव, ग्वालियर से उनका नवगीत संग्रह 'बाँसों के झुरमुट से' प्राप्त हुआ. प्रस्तुत है उनका एक नवगीत) 
*
देखते ही देखते बिटिया
सयानी हो गई 

उच्च शिक्षा प्राप्त कर वह
नौकरी करने चली
कल तलक थी साथ में
अब कर्म पथ वरने चली
कौन विषपायी यहाँ
बिटिया भवानी हो गई

ब्याह दी निज घर बसाने
छोड़ बाबुल को चली
सरल सरिता सी समंदर
से गले मिलने चली
मायके आती कभी
बिटिया कहानी हो गई

माँ-पिता को याद आता
भाइयों संग खेलना
कभी उनसे झगड़ पड़ना
किन्तु संग-संग जेवना
छोड़ गुड़िया को यहाँ
बिटिया निशानी हो गई

*** 

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नवगीत: 

अच्छा लगेगा आपको 
यह जानकर अच्छा लगेगा

*
सुबह सूरज क्षितिज पर 
अलसा रहा था 
उषा-वसुधा-रश्मि को 
भरमा रहा था 
मिलीं तीनों,
भाग नभ पर
जां बचाई, कान पकड़े
अब न संध्या को ठगेगा
*
दोपहर से दिन ढले
की जी हजूरी
समय से फिर भी
नहीं पाई मजूरी
आह भरता नदी से
मिल गले रोया
लहर का मुख
देखकर पीड़ा तहेगा
*
हार अब तक नहीं मानी
फिर उठेगा
स्वप्न सब साकार करने
हँस बढ़ेगा
तिमिर बाधा कर पराजित
जब रुकेगा
सकल जग में ईश्वरवत
नित पुजेगा
*

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नवगीत:

भाग-दौड़ आपा-धापी है 

नहीं किसी को फिक्र किसी की
निष्ठा रही न ख़ास इसी की
प्लेटफॉर्म जैसा समाज है
कब्जेधारी को सुराज है
अति-जाती अवसर ट्रेन
जगह दिलाये धन या ब्रेन
बेचैनी सबमें व्यापी है

इंजिन-कोच ग्रहों से घूमें
नहीं जमाते जड़ें जमीं में
यायावर-पथभ्रष्ट नहीं हैं
पाते-देते कष्ट नहीं हैं
संग चलो तो मंज़िल पा लो
निंदा करो या सुयश सुना लो
बाधा बाजू में चाँपी है

कोशिश टिकिट कटाकर चलना
बच्चों जैसे नहीं मचलना
जाँचे टिकिट घूम तक़दीर
आरक्षण पाती तदबीर
घाट उतरते हैं सब साथ
लें-दें विदा हिलाकर हाथ
यह धर्मात्मा वह पापी है

***

नवगीत:

अच्छा लगेगा आपको
यह जानकर अच्छा लगेगा

*
सुबह सूरज क्षितिज पर
अलसा रहा था
उषा-वसुधा-रश्मि को
भरमा रहा था
मिलीं तीनों,
भाग नभ पर
जां बचाई, कान पकड़े
अब न संध्या को ठगेगा
*
दोपहर से दिन ढले
की जी हजूरी
समय से फिर भी
नहीं पाई मजूरी
आह भरता नदी से
मिल गले रोया
लहर का मुख
देखकर पीड़ा तहेगा
*
हार अब तक नहीं मानी
फिर उठेगा
स्वप्न सब साकार करने
हँस बढ़ेगा
तिमिर बाधा कर पराजित
जब रुकेगा
सकल जग में ईश्वरवत
नित पुजेगा
*

geet: shrikant mishr 'kant'

गीत:

भारती उठ जाग रे !...... 

- श्रीकान्त मिश्र ’कान्त’












है कहां निद्रित अलस से 
स्वप्न लोचन जाग रे !
प्रगति प्राची से पुकारे
भारती उठ जाग रे ! 

मलय चन्दन सुरभि नासा
नित नया उत्साह लाती
अरूणिमा हिम चोटियों से
पुष्प जीवन के खिलाती

कोटिश: पग मग बढ़े हैं
रंग विविध ले हाथ रे !

भारती उठ जाग रे !

ज्ञान की पावन पुनीता
पुण्य सलिला बह रही
आदि से अध्यात्म गंगा
सुन तुझे क्या कह रही
विश्व है कौटुम्ब जिसका
चरण रज ले माथ रे!
भारती उठ जाग रे !

नदी निर्झर वन सुमन सब
वाट तेरी जोहते
ध्वनित कलकल नीर चँचल
मृगेन्द्रित मन मोहते !
कोटिश: कर साथ तेरे
अनृत झुलसा आग रे !
भारती उठ जाग रे !

युग भारती फिर जाग रे !
जाग रे ! .. फिर जाग रे !



बुधवार, 19 नवंबर 2014

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नवगीत :

जितने मुँह हैं
उतनी बातें

शंका ज्यादा, निष्ठा कम है
कोशिश की आँखें क्यों नम हैं?
जहाँ देखिये गम ही गम है
दिखें आदमी लेकिन बम हैं

श्रद्धा भी करती
है घातें

बढ़ते लोग जमीं कम पड़ती
नद-सर सूखे, वनश्री घटती
हँसे सियासत, जनता पिटती
मेहनत अपनी किस्मत लिखती

दिन छोटा है
लंबी रातें

इंसां कभी न हिम्मत हारे
नभ से तोड़ बिखेरे तारे
मंज़िल खुद आएगी द्वारे
रुक मत, झुक मत बढ़ता जा रे!

खायें मात
निरंतर मातें

***
१३-११-२०१४ 
१२७/७ आयकर कॉलोनी 
विनायकपुर, कानपूर



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नवगीत:

जितने चढ़े
उतरते उतने
कौन बताये
कब, क्यों कितने?

ये समीप वे बहुत दूर से
कुछ हैं गम, कुछ लगे नूर से
चुप आँसू, मुस्कान निहारो
कुछ दूरी से, कुछ शऊर से
नज़र एकटक
पाये न टिकने 

सारी दुनिया सिर्फ मुसाफिर
किसको कहिये यहाँ महाज़िर
छीन-झपट, कुछ उठा-पटक है
कुछ आते-जाते हैं फिर-फिर
हैं खुरदुरे हाथ
कुछ चिकने

चिंता-चर्चा-देश-धरम की
सोच न किंचित आप-करम की
दिशा दिखाते सब दुनिया को
बर्थ तभी जब जेब गरम की
लो खरीद सब
आया बिकने

***
११-११-२०१४ 
कानपुर रेलवे प्लेटफॉर्म 
सवेरे ४ बजे 

swagat geet:

स्वागत गीत:


शुभ नवगीत महोत्सव, आओ!

शब्दब्रम्ह-हरि आराधन हो 
सत-शिव-सुंदर का वाचन हो 
कालिंदी-गोमती मिलाओ 
नेह नर्मदा नवल बहाओ 
'मावस को पूर्णिमा बनाओ 

शब्दचित्र-अंकन-गायन हो 
सत-चित-आनंद पारायण हो
निर्मल व्योम ओम मुस्काओ 
पंकज रमण विवेक जगाओ 
संजीवित अवनीश सजाओ

रस, लय, भाव, कथ्य शुचि स्वागत  
पवन रवीन्द्र आस्तिक आगत 
श्रुति सौरभ पंकज बिखराओ
हो श्रीकांत निनाद गुँजाओ  
रोहित ब्रज- ब्रजेश दिखलाओ   

भाषा में कुछ टटकापन हो 
रंगों में कुछ चटकापन हो 
सीमा अमित सुवर्णा शोभित 
सिंह धनंजय वीनस रोहित 
हो प्रवीण मन-राम रमाओ 

लख नऊ दृष्टि हुई पौबारा 
लखनऊ में गूँजे जयकारा 
वाग्नेर-संध्या हर्षाओ   
हँस वृजेन्द्र सौम्या नभ-छाओ  
रसादित्य जगदीश बसाओ 

नऊ = नौ = नव 
१०-११-२०१४ 
- १२६/७ आयकर कॉलोनी
विनायकपुर, कानपुर
समयाभाव के कारण पढ़ा नहीं गया   
***

navgeet mahotsav lucknow: 15-16 navember 2014