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रविवार, 26 अक्टूबर 2025

अक्टूबर २६, सॉनेट, हाइकु गीत, राम, प्रतीप अलंकार, नैरंतरी छंद, शरत्पूर्णिमा, चाँद

 सलिल सृजन अक्टूबर २६

*
पूर्णिका
दुनिया भले हो हिसाबी
कुदरत नहीं है हिजाबी
बिन पिए ही रहा झूम मैं
मिले नैन जब से गुलाबी
भँवरा रहा गुनगुना बाग में
दुनिया समझती शराबी
काँटों की संगत सुहाए
देखो कली की नवाबी
शबनम सहेली सुहाए
रंगत कई हर शबाबी
पैगाम लाएँ तितलियाँ
लेतीं सँदेशा जवाबी
ताला लगा पाए माली
बनी ही नहीं है वो चाबी
२६.१०.२०२४
•••
सॉनेट
बैठ चाँद पर
बैठ चाँद पर धरा देखकर व्रत तोड़ेंगी
कथा कहेंगी सात भाई इक बहिना वाली
कैसे बिगड़ी बात, किस तरह पुनः बना ली
सात जन्म तक पति का पीछा नहिं छोड़ेंगी
शरत्पूर्णिमा पर धारा उल्टी मोड़ेंगी
वसुधा की किरणों में रखें खीर की प्याली
धरा बुआ दिखलाएँ जसोदा धरकर थाली
बाल कृष्ण को बहला-समझा खुश हो लेंगी।
उल्टी गंगा बहे चाँद पर, धरती निरखें
कैसे छू लें धरा? सोच शशि- मानव तरसें
उस कक्षा से इस कक्षा में आकर हरषें
अभियंता-वैज्ञानिक कर नव खोजें परखें
सुमिर सुमिर मंगल-यात्रा को नैना बरसें
रवि की रूप छटाएँ मन को मन आकरषें।
२६.१०.२०२३
•••
अभिनव प्रयोग
राम
हाइकु गीत
(छंद वार्णिक, ५-७-५)
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बल बनिए
निर्बल का तब ही
मिले प्रणाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सुख तजिए / निर्बल की खातिर / दुःख सहिए।
मत डरिए / विपदा - आपद से / हँस लड़िए।।
सँग रहिए
निषाद, शबरी के
सुबहो-शाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
मार ताड़का / खर-दूषण वध / लड़ करिए।
तार अहल्या / उचित नीति पथ / पर चलिए।।
विवश रहे
सुग्रीव-विभीषण
कर लें थाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सिय-हर्ता के / प्राण हरण कर / जग पुजिए।
आस पूर्ण हो / भरत-अवध की / नृप बनिए।।
त्रय माता, चौ
बहिन-बंधु, जन
जिएँ अकाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
२६-१०२०२२
***
अलंकार सलिला: २५
प्रतीप अलंकार
*
अलंकार में जब खींचे, 'सलिल' व्यंग की रेख.
चमत्कार सादृश्य का, लें प्रतीप में देख..
उपमा, अनन्वय तथा संदेह अलंकार की तरह प्रतीप अलंकार में भी सादृश्य का चमत्कार रहता है, अंतर यह है कि उपमा की अपेक्षा इसमें उल्टा रूप दिखाया जाता है। यह व्यंग पर आधारित सादृश्यमूलक अलंकार है। प्रसिद्ध उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान सिद्ध कर चमत्कारपूर्वक उपमेय या उपमान की उत्कृष्टता दिखाये जाने पर प्रतीप अलंकार होता है।जब उपमेय के समक्ष उपमान का तिरस्कार किया जाता है तो प्रतीप अलंकार होता है।
प्रतीप अलंकार के ५ प्रकार हैं।
उदाहरण-
१. प्रथम प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के रूप में वर्णित किया जाता है अर्थात उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान बनाकर।
उदाहरण-
१. यह मयंक तव मुख सम मोहन
२. है दाँतों की झलक मुझको दीखती दाडिमों में.
बिम्बाओं में पर अधर सी राजती लालिमा है.
मैं केलों में जघन युग की देखती मंजुता हूँ.
गुल्फों की सी ललित सुखमा है गुलों में दिखाती
३. वधिक सदृश नेता मुए, निबल गाय सम लोग
कहें छुरी-तरबूज या, शूल-फूल संयोग?
२. द्वितीय प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को अपेक्षाकृत हीन उपमेय कल्पित कर वास्तविक उपमेय का निरादर किया जाता है।
उदाहरण-
१. नृप-प्रताप सम सूर्य है, जस सम सोहत चंद
२. का घूँघट मुख मूँदहु नवला नारि.
चाँद सरग पर सोहत एहि अनुसारि
३. बगुला जैसे भक्त भी, धारे मन में धैर्य
बदला लेना ठनकर, दिखलाते निर्वैर्य
3. तृतीय प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान का उपमेय के आगे निरादर होता है।
उदाहरण-
१. काहे करत गुमान मुख?, तुम सम मंजू मयंक
२. मृगियों ने दृग मूँद लिए दृग देख सिया के बांके.
गमन देखि हंसी ने छोडा चलना चाल बनाके.
जातरूप सा रूप देखकर चंपक भी कुम्हलाये.
देख सिया को गर्वीले वनवासी बहुत लजाये.
३. अभिनेत्री के वसन देख निर्वासन साधु शरमाये
हाव-भाव देखें छिप वैश्या, पार न इनसे पाये
४. चतुर्थ प्रतीप:
जहाँ उपमेय की बराबरी में उपमान नहीं तुल/ठहर पाता है, वहाँ चतुर्थ प्रतीप होता है।
उदाहरण-
१. काहे करत गुमान ससि! तव समान मुख-मंजु।
२. बीच-बीच में पुष्प गुंथे किन्तु तो भी बंधहीन
लहराते केश जाल जलद श्याम से क्या कभी?
समता कर सकता है
नील नभ तडित्तारकों चित्र ले?
३. बोली वह पूछा तो तुमने शुभे चाहती हो तुम क्या?
इन दसनों-अधरों के आगे क्या मुक्ता हैं विद्रुम क्या?
४. अफसर करते गर्व क्यों, देश गढ़ें मजदूर?
सात्विक साध्वी से डरे, देवराज की हूर
५. पंचम प्रतीप:
जहाँ उपमान का कार्य करने के लिए उपमेय ही पर्याप्त होता है और उपमान का महत्व और उपयोगिता व्यर्थ हो जाती है, वहाँ पंचम प्रतीप होता है।
उदाहरण-
१. का सरवर तेहि देऊँ मयंकू
२. अमिय झरत चहुँ ओर से, नयन ताप हरि लेत.
राधा जू को बदन अस चन्द्र उदय केहि हेत..
३. छाह करे छितिमंडल में सब ऊपर यों मतिराम भए हैं.
पानिय को सरसावत हैं सिगरे जग के मिटि ताप गए हैं.
भूमि पुरंदर भाऊ के हाथ पयोदन ही के सुकाज ठये हैं.
पंथिन के पथ रोकिबे को घने वारिद वृन्द वृथा उनए हैं.
४. क्यों आया रे दशानन!, शिव सम्मुख ले क्रोध
पाँव अँगूठे से दबा, तब पाया सत-बोध
२८-१०-२०१५
***
नैरंतरी छंद
रात जा रही, उषा आ रही
उषा आ रही, प्रात ला रही
प्रात ला रही, गीत गा रही
गीत गा रही, मीत भा रही
मीत भा रही, जीत पा रही
जीत पा रही, रात आ रही
गुप-चुप डोलो, राज न खोलो
राज न खोलो, सच मत तोलो
सच मत तोलो,मन तुम सो लो
मन तुम सो लो, नव रस घोलो
नव रस घोलो, घर जा सो लो
घर जा सो लो, गुप-चुप डोलो
२६-१०-२०१४
***

शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

वर्षा, सॉनेट, शेक्सपियर, मिल्टन, सलिल

सॉनेट

बारिश तुम फिर

१.

बारिश तुम फिर रूठ गई हो।

तरस रहा जग होकर प्यासा।

दुबराया ज्यों शिशु अठमासा।।

मुरझाई हो ठूठ गई हो।।

कुएँ-बावली बिलकुल खाली।

नेह नर्मदा नीर नहीं है।

बेकल मन में धीर नहीं है।।

मुँह फेरे राधा-वनमाली।।

दादुर बैठे हैं मुँह सिलकर।

अंकुर मरते हैं तिल-तिलकर।

झींगुर संग नहीं हिल-मिलकर।

बीरबहूटी हुई लापता।

गर्मी सबको रही है सता।

जंगल काटे, मनुज की खता।।

*

२.

मान गई हो, बारिश तुम फिर।

सदा सुहागिन सी हरियाईं।

मेघ घटाएँ नाचें घिर-घिर।।

बरसीं मंद-मंद हर्षाईं।।

आसमान में बिजली चमकी।

मन भाई आधी घरवाली।

गिरी जोर से बिजली तड़की।।

भड़क हुई शोला घरवाली।।

तन्वंगी भीगी दिल मचले।

कनक कामिनी देह सुचिक्कन।

दृष्टि न ठहरे, मचले-फिसले।।

अनगिन सपने देखे साजन।।

सुलग गई हो बारिश तुम फिर।

पिघल गई हो बारिश तुम फिर।।

*

३.

क्रुद्ध हुई हो बारिश तुम फिर।

सघन अँधेरा आया घिर घिर।।

बरस रही हो, गरज-मचल कर।

ठाना रख दो थस-नहस कर।।

पर्वत ढहते, धरती कंपित।

नदियाँ उफनाई हो शापित।।

पवन हो गया क्या उन्मादित?

जीव-जंतु-मनु होते कंपित।।

प्रलय न लाओ, कहर न ढाओ।

रूद्र सुता हे! कुछ सुस्ताओ।।

थोड़ा हरषो, थोड़ा बरसो।

जीवन विकसे, थोड़ा सरसो।।

भ्रांत न हो हे बारिश! तुम फिर।

शांत रही हे बारिश! हँस फिर।।

३०-१०-२०२२

*** 

अक्टूबर २५, बाल गीत, चिड़िया, गीत, चित्रगुप्त, कातिक

सलिल सृजन अक्टूबर २५
विश्व पास्ता (नाश्ता) दिवस
*
कातिक मास मनाइए, झूम-नाचकर पर्व 
लोकतंत्र पर कीजिए, जी भरकर नित गर्व 
हर दिन उत्सव दुख भुला, मन में रख उत्साह 
जला दीप करिए सतत, उजियाले की चाह 
गर्म-शीत दिन-रात हों, रखें स्वच्छता सर्व 
कातिक मास मनाइए, झूम-नाचकर पर्व
दलहन-मेवे खाइए, तजिए मांसाहार 
सुरा-सुंदरी से बचें, संयम ही उपहार 
साधन वैभव, स्नेह ही साध्य न करिए खर्व 
कातिक मास मनाइए झूम-नाचकर पर्व
करें तेल मालिश रहे स्निग्ध-सुचिक्कन देह
सुख-दुख साझा कीजिए, सुदृढ़ रहे तब गेह 
सद्भावी संसार में हर दिन होता पर्व
कातिक मास मनाइए झूम-नाचकर पर्व
पाँच तत्व ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय भी पाँच 
पाँच पर्व कह रहे हैं, सदा साथ हो साँच 
भेद न कर; सहयोग रख, सुर मानव गंधर्व 
कातिक मास मनाइए झूम-नाचकर पर्व
२५.१०.२०२५  
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पूर्णिका
आशा दिवस
*
मना 'आशा दिवस' हम सब
नव कहानी नित लिखें अब
पढ़े आकर धरा पर खुद
ईश गुरु नब गॉड प्रभु रब
पूर्ण हों कर सतत कोशिश
पूछना न मुहूर्त है कब?
चुनौती से स्नेह जिसको
वह न करता व्यर्थ जब-तब
हो सलिल संजीव ओझा
मंत्र पढ़कर फूँक दे जब
जबलपुर, २५.१०.२०२४
*
वंदन वसुधा का करें, भोर भई घनश्याम।
सरला जी की शरण पा, दें सबको पैगाम।।
पूनम शुक्ला रश्मि दे, संगीता हो श्वास।
रेखा सीधी लक्ष्य तक, तनुजा खींच अनाम।।
मीनाकारी नीलिमा, करे साँझ से भोर।
चंदा-तारे टाँककर, नभ पर करें विभोर।।
२४.१०.२४
*
जन्म दिवस
*
जन्म दिवस पर अगिन बधाई
नव आशा आशा को भाई
ओझा हर विपदा को झाड़े
पांडे सुख के पढ़े पहाड़े
कोशिश हाथों रहे सफलता
श्रम मंज़िल पर झंडे गाड़े
अधरों पर मुस्कान धरो नित
वाचा में मिसरी घुल पाई
जन्म दिवस पर अगिन बधाई
जब जो पाओ, झट से खो दो
बंजर में नव फसलें बो दो
'लो लो' सब जग से कह पाओ
कभी किसी से कहो न 'दो दो'
मत पछुवा से कर्जा लेना
पुरवैया हर दिवस बहाई
जन्म दिवस पर अगिन बधाई
२५.१०.२०२३
***
गीत
*
क्या लिखूँ?
कैसे लिखूँ?
कब कुछ लिखूँ, बतलाइये?
मत करें संकोच
सच कहिये, नहीं शर्माइये।
*
मिली आज़ादी चलायें जीभ जब भी मन करे
कौन होते आप जो कहते तनिक संयम वरें?
सांसदों का जीभ पर अपनी, नियंत्रण है नहीं
वायदों को बोल जुमला मुस्कुराते छल यहीं
क्या कहूँ?
कैसे कहूँ?
क्या ना कहूँ समझाइये?
क्या लिखूँ?
कैसे लिखूँ?
कब कुछ लिखूँ, बतलाइये?
*
आ दिवाली कह रही है, दीप दर पर बालिये
चीन का सामान लेना आप निश्चित टालिए
कुम्हारों से लें दिए, तम को हराएँ आप-हम
अधर पर मृदु मुस्कराहट हो तनिक भी अब न कम
जब मिलें
तब लग गले
सुख-दुःख बता-सुन जाइये
क्या लिखूँ?
कैसे लिखूँ?
कब कुछ लिखूँ, बतलाइये?
*
बाप-बेटे में न बनती, भतीजे चाचा लड़ें
भेज दो सीमा पे ले बंदूक जी भरकर अड़ें
गोलियां जो खाये सीने पर, वही मंत्री बने
जो सियासत मात्र करते, वे महज संत्री बनें
जोड़कर कर
नागरिक से
कहें नेता आइये
२५-१०-२०१६
***
गीत
*
तन के प्रति मन का आकर्षण
मन में तन के लिये विकर्षण
कितना उचित?
कौन बतलाये?
*
मृण्मय मन ने तन्मय तन को
जब ठुकराया तब यह जाना
एक वही जिसने लांछित हो
श्वासों में रस घोल दिया है
यश के वश कोशिश-संघर्षण
नियम संग संयम का तर्पण
क्यों अनुचित है?
कौन सिखाये??
कितना उचित?
कौन बतलाये?
तन के प्रति मन का आकर्षण
मन में तन के लिये विकर्षण
*
नंदन वन में चंदन-वंदन
महुआ मादक अप्रतिम गन्धन
लाल पलाश नटेरे नैना
सती-दाह लख जला हिया है
सुधि-पावस का अमृत वर्षण
इसका उसको सब कुछ अर्पण
क्यों प्रमुदित पल ?
मौन बिताये??
कितना उचित?
कौन बतलाये?
तन के प्रति मन का आकर्षण
मन में तन के लिये विकर्षण
*
यह-वह दोनों लीन हुए जब
तनिक न तिल भर दीन हुए तब
मैंने, तूने या किस-किसने
उस पल को खो आत्म, जिया है?
है असार संसार विलक्षण
करे आक्रमण किन्तु न रक्षण
क्या-क्यों अनुमित?
कौन बनाये??
कितना उचित?
कौन बतलाये?
तन के प्रति मन का आकर्षण
मन में तन के लिये विकर्षण
२५-१०-२०१५
***
बाल गीत :
चिड़िया
*
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
आनंदित हो
झूम रही है
हवा मंद बहती है
कहती: 'बच्चों!
पानी सींचो,
पौधे लगा-बचाओ
बन जाएँ जब वृक्ष
छाँह में
उनकी खेल रचाओ
तुम्हें सुनाऊँगी
मैं गाकर
लोरी, आल्हा, कजरी
कहना राधा से
बन कान्हा
'सखी रूठ मत सज री'
टीप रेस,
कन्ना गोटी,
पिट्टू या बूझ पहेली
हिल-मिल खेलें
तब किस्मत भी
आकर बने सहेली
नमन करो
भू को, माता को
जो यादें तहती है
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
***
लेख :
चित्रगुप्त रहस्य:
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं:
परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्म देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है: '
चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.''
अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं.
आत्मा क्या है?
सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के नहीं।
चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं:
सभी जानते हैं कि परमात्मा और उनका अंश आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं।
चित्रगुप्त पूर्ण हैं:
अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आरम्भ तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। दूज पूजन के समय कोरे कागज़ पर चन्दन, केसर, हल्दी, रोली तथा जल से ॐ लिखकर अक्षत (जिसका क्षय न हुआ हो आम भाषा में साबित चांवल)से चित्रगुप्त जी पूजन कायस्थ जन करते हैं।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा।
चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण दोनों हैं:
चित्रगुप्त निराकार-निर्गुण ही नहीं साकार-सगुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिये वे साकार-सगुण रूप में प्रगट हुए वर्णित किये गए हैं। सकल सृष्टि का मूल होने के कारण उनके माता-पिता नहीं हो सकते। इसलिए उन्हें ब्रम्हा की काया से ध्यान पश्चात उत्पन्न बताया गया है. आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं।
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह.
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।।
परमब्रम्ह के अंश- कर, कर्म भोग परिणाम
जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।।
कर्म ही वर्ण का आधार श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः'
अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं।
स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिये मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया।
चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन प्रातः-संध्या में तथा विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन (जो सदा था, है और रहेगा) धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वह हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह खाने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं।
चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं:
सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं। सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य: आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में प्रति पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण (बोसान पार्टिकल) तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना।
यम द्वितीया पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिये 'ॐ' को सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिये उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।
बहुदेववाद की परंपरा:
इसके नीचे श्री के साथ देवी-देवताओं के नाम लिखे जाते हैं, फिर दो पंक्तियों में 9 अंक इस प्रकार लिखे जाते हैं कि उनका योग 9 बार 9 आये। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठायी जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें। प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु द्वारा सृष्टि के कल्याण के लिये विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार, विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ये देवी शक्तियां ज्ञान के विविध शाखाओं के प्रमुख हैं. ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है।
सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव पहले देवी-देवताओं के नाम लिखकर फिर दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये व्यक्त किया जाता है। पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम को देव के समीप रखकर उसकी पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियाँ अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन कोई सांसारिक कार्य (व्यवसायिक, मैथुन आदि) न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है।
'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है। उदारता तथा समरसता की विरासत यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। इसलिए उन्हें औरों से अधिक बुद्धिमान कहा गया है. चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा आदि देवी-देवताओं के साथ समाज सुधारकों दयानंद सरस्वती, आचार्य श्री राम शर्मा, सत्य साइ बाबा, आचार्य महेश योगी आदि का पूजन-अनुकरण किया जाता है। कायस्थ मानवता, विश्व तथा देश कल्याण के हर कार्य में योगदान करते मिलते हैं.
२५-१०-२०१४
***

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2025

निकाह, मुसलमान, इस्लाम

इस्लाम में निकाह
)
इस्लाम धर्म के धार्मिक और सांस्कृतिक नियमों के संदर्भ में समझा जा सकता है। इस्लाम में निकाह (शादी) के लिए कुछ स्पष्ट सीमाएं और नियम निर्धारित किए गए हैं। कुरान और हदीस के अनुसार, निकट संबंधियों (महिरम) के साथ शादी हराम (निषिद्ध) है। इसमें मां, बहन, बेटी, चाची, मामी, मौसी आदि शामिल हैं।

कारण:
1. कुरान का आदेश:
इस्लामिक धर्मग्रंथ कुरान में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि निकट रिश्तेदारों से शादी करना हराम है।
उदाहरण: सूरह अन-निसा (4:23) में अल्लाह ने बताया है कि किन-किन रिश्तों के साथ शादी निषिद्ध है।

2. जैविक और सामाजिक कारण:
निकट संबंधियों के साथ विवाह से जैविक रूप से बच्चों में आनुवंशिक बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। इसके अलावा, यह परिवार की सामाजिक संरचना और नैतिक मूल्यों को कमजोर कर सकता है।

3. सामाजिक और नैतिकता:
इस्लाम एक समाज को नैतिक और व्यवस्थित रूप से चलाने पर जोर देता है। निकट रिश्तेदारों से शादी करने पर पारिवारिक रिश्ते बिगड़ सकते हैं और समाज में असंतोष उत्पन्न हो सकता है।
इस्लाम के अलावा भी, लगभग सभी धर्मों और सभ्यताओं में इस प्रकार के विवाह को अनुचित और अनैतिक माना गया है। इसका उद्देश्य परिवार और समाज की एकता और पवित्रता बनाए रखना है।

निष्कर्ष:
इस्लाम के अनुसार, मां, बहन और बेटी जैसे महिरम रिश्तों से शादी हराम और अनुचित है। इसे धार्मिक, नैतिक और जैविक कारणों से मना किया गया है।
००० 

उल्कापिंड

 मर्चिसन उल्कापिंड: क्या जीवन के बीज अंतरिक्ष से आए थे?

28 सितंबर 1969 का दिन विज्ञान के इतिहास में एक ऐसा मोड़ लेकर आया, जिसने जीवन की उत्पत्ति को लेकर हमारी सोच को ही बदल डाला। ऑस्ट्रेलिया के मर्चिसन शहर में एक रहस्यमयी पत्थर आकर गिरा और यह कोई साधारण पत्थर नहीं था बल्कि एक अंतरिक्ष से आया हुआ उल्कापिंड था,जिसे आज हम मर्चिसन उल्कापिंड के नाम से जानते हैं।

क्या है मर्चिसन उल्कापिंड?

मर्चिसन उल्कापिंड एक कार्बनसस कोन्ड्राइट प्रकार का उल्कापिंड है। यह सौरमंडल की शुरुआत के समय का बचा हुआ टुकड़ा माना जाता है,जिसकी उम्र लगभग 4.6 अरब साल बताई गई है यानी यह हमारे सूरज और ग्रहों से भी पुराना हो सकता है।

क्या मिला इस उल्कापिंड में?

जब वैज्ञानिकों ने इस उल्कापिंड का गहराई से अध्ययन किया, तो जो बातें सामने आईं, वो चौंकाने वाली थीं:

1. अमीनो एसिड्स की खोज

* इसमें 70 से अधिक प्रकार के अमीनो एसिड पाए गए।

* अमीनो एसिड वे कार्बनिक अणु हैं जो जीवन की नींव माने जाते हैं। हमारे DNA,प्रोटीन और कोशिकाओं की संरचना में इनकी भूमिका है।

* आश्चर्य की बात यह थी कि इन अमीनो एसिड्स में से कुछ ऐसे थे जो पृथ्वी पर नहीं पाए जाते।

2. RNA-DNA से जुड़े तत्व

* इसमें यूरासिलऔर ज़ैंथीन जैसे तत्व मिले जो RNA और DNA जैसे आनुवंशिक कोड की संरचना में इस्तेमाल होते हैं।

* यह खोज दर्शाती है कि जीवन के मूलभूत तत्व पृथ्वी से बाहर भी मौजूद हैं।

3. स्टार डस्ट के संकेत

* इसमें ऐसे आइसोटोप्स पाए गए जो केवल सुपरनोवा (विस्फोटक तारकीय घटनाओं) के दौरान बनते हैं।

* इसका मतलब है कि मर्चिसन उल्कापिंड ब्रह्मांड की गहराइयों से आया हुआ एक प्राचीन टुकड़ा है।

क्या जीवन की शुरुआत पृथ्वी से बाहर हुई?

मर्चिसन उल्कापिंड ने वैज्ञानिकों को यह सोचने पर मजबूर किया कि:

* क्या पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत बाहरी अंतरिक्ष से हुई थी?

* क्या उल्कापिंडों के ज़रिए पृथ्वी पर अमीनो एसिड और अन्य जैविक तत्व आए?

* क्या जीवन ब्रह्मांड में फैला हुआ एक सामान्य घटनाक्रम है?

इन सवालों को जन्म देता है एक विचार Panspermia सिद्धांत जिसके अनुसार जीवन के बीज अंतरिक्ष में फैले हुए हैं और उल्कापिंडों या धूमकेतुओं के ज़रिए विभिन्न ग्रहों पर पहुंच सकते हैं।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण

नासा,ESA और जापानी मिशनों ने इस सिद्धांत को और मजबूती देने के लिए अंतरिक्ष से धूल,बर्फ और उल्कापिंडों के नमूने एकत्र किए हैं। Hayabusa2 और OSIRIS-REx जैसे मिशनों ने अंतरिक्ष से लौटे नमूनों में भी ऑर्गेनिक मॉलिक्यूल्स की पुष्टि की है।

निष्कर्ष

मर्चिसन उल्कापिंड सिर्फ एक पत्थर नहीं,बल्कि यह ब्रह्मांड की प्रयोगशाला से गिरा एक रहस्यभरा संदेश है। यह बताता है कि जीवन का बीज केवल पृथ्वी तक सीमित नहीं है यह पूरे ब्रह्मांड में फैला हो सकता है। हो सकता है अगली बार जब कोई उल्कापिंड पृथ्वी पर गिरे तो वह जीवन के और भी गहरे रहस्यों को उजागर करे।

अक्टूबर २४, आरती, इला घोष, लघुकथा, त्रिपदी, गीत,

 सलिल सृजन अक्टूबर २४

*
गीत : पाँच पर्व :
*
पाँच तत्व की देह है,
ज्ञाननेद्रिय हैं पाँच।
कर्मेन्द्रिय भी पाँच हैं,
पाँच पर्व हैं साँच।।
*
माटी की यह देह है,
माटी का संसार।
माटी बनती दीप चुप,
देती जग उजियार।।
कच्ची माटी को पका
पक्का करती आँच।
अगन-लगन का मेल ही
पाँच मार्ग का साँच।।
*
हाथ न सूझे हाथ को
अँधियारी हो रात।
तप-पौरुष ही दे सके
हर विपदा को मात।।
नारी धीरज मीत की
आपद में हो जाँच।
धर्म कर्म का मर्म है
पाँच तत्व में जाँच।।
*
बिन रमेश भी रमा का
तनिक न घटता मान।
ऋद्धि-सिद्धि बिन गजानन
हैं शुभत्व की खान।।
रहें न संग लेकिन पुजें
कर्म-कुंडली बाँच।
अचल-अटल विश्वास ही
पाँच देव हैं साँच।।
*
धन्वन्तरि दें स्वास्थ्य-धन
हरि दें रक्षा-रूप।
श्री-समृद्धि, गणपति-मति
देकर करें अनूप।।
गोवर्धन पय अमिय दे
अन्नकूट कर खाँच।
बहिनों का आशीष ले
पाँच शक्ति शुभ साँच।।
*
पवन, भूत, शर, अँगुलि मिल
हर मुश्किल लें जीत।
पाँच प्राण मिल जतन कर
करें ईश से प्रीत।।
परमेश्वर बस पंच में
करें न्याय ज्यों काँच।
बाल न बाँका हो सके
पाँच अमृत है साँच
८-११-२०२१
***
आरती क्यों और कैसे?
संजीव 'सलिल'
*
ईश्वर के आव्हान तथा पूजन के पश्चात् भगवान की आरती, नैवेद्य (भोग) समर्पण तथा अंत में विसर्जन किया जाता है। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। आरती करने ही नहीं, इसमें सम्मिलित होंने से भी पुण्य मिलता है। देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। आरती का गायन स्पष्ट, शुद्ध तथा उच्च स्वर से किया जाता है। इस मध्य शंख, मृदंग, ढोल, नगाड़े , घड़ियाल, मंजीरे, मटका आदि मंगल वाद्य बजाकर जयकारा लगाया जाना चाहिए।
आरती हेतु शुभ पात्र में विषम संख्या (1, 3, 5 या 7) में रुई या कपास से बनी बत्तियां रखकर गाय के दूध से निर्मित शुद्ध घी भरें। दीप-बाती जलाएं। एक थाली या तश्तरी में अक्षत (चांवल) के दाने रखकर उस पर आरती रखें। आरती का जल, चन्दन, रोली, हल्दी तथा पुष्प से पूजन करें। आरती को तीन या पाँच बार घड़ी के काँटों की दिशा में गोलाकार तथा अर्ध गोलाकार घुमाएँ। आरती गायन पूर्ण होने तक यह क्रम जरी रहे। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। आरती पूर्ण होने पर थाली में अक्षत पर कपूर रखकर जलाएं तथा कपूर से आरती करते हुए मन्त्र पढ़ें:
कर्पूर गौरं करुणावतारं, संसारसारं भुजगेन्द्रहारं।
सदावसन्तं हृदयारवंदे, भवं भवानी सहितं नमामि।।
पांच बत्तियों से आरती को पंच प्रदीप या पंचारती कहते हैं। यह शरीर के पंच-प्राणों या पञ्च तत्वों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव पंच-प्राणों (पूर्ण चेतना) से ईश्वर को पुकारने का हो। दीप-ज्योति जीवात्मा की प्रतीक है। आरती करते समय ज्योति का बुझना अशुभ, अमंगलसूचक होता है। आरती पूर्ण होने पर घड़ी के काँटों की दिशा में अपने स्थान पट तीन परिक्रमा करते हुए मन्त्र पढ़ें:
यानि कानि च पापानि, जन्मान्तर कृतानि च।
तानि-तानि प्रदक्ष्यंती, प्रदक्षिणां पदे-पदे।।
अब आरती पर से तीन बार जल घुमाकर पृथ्वी पर छोड़ें। आरती प्रभु की प्रतिमा के समीप लेजाकर दाहिने हाथ से प्रभु को आरती दें। अंत में स्वयं आरती लें तथा सभी उपस्थितों को आरती दें। आरती देने-लेने के लिए दीप-ज्योति के निकट कुछ क्षण हथेली रखकर सिर तथा चेहरे पर फिराएं तथा दंडवत प्रणाम करें। सामान्यतः आरती लेते समय थाली में कुछ धन रखा जाता है जिसे पुरोहित या पुजारी ग्रहण करता है। भाव यह हो कि दीप की ऊर्जा हमारी अंतरात्मा को जागृत करे तथा ज्योति के प्रकाश से हमारा चेहरा दमकता रहे।
सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।
कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।
यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।
जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।
दीपमालिका का हर दीपक,अमल-विमल यश-कीर्ति धवल दे
शक्ति-शारदा-लक्ष्मी मैया, 'सलिल' सौख्य-संतोष नवल दे
***
- :: शब्द साधना साहित्यिकी :: -
: महीयसी इला घोष विशेषांक :
विमोचन समारोह १५ अक्टूबर २०२०
*
शारद रमा उमा नमन, वंदन श्री विघ्नेश
जय-जय भारत-भारती, जय रेवा सलिलेश
*
तारापद आशीष दें, तारासुंदरी संग
सुव्रत सुनीति न छोड़िए, सपन भरे नव रंग
*
इशिता संग ईशान आ, सुमिरें त्रिभुवन नाथ
भक्ति अनन्या कर उमा, रंजू हो नत माथ
*
नारायण अमरेंद्र सह, हँस विदग्ध परमेश
राधावल्लभ शांति दें, कृष्णकांत हर क्लेश
*
सृजन साधना कर बनें, मनु सुमित्र संजीव
ललिता जयश्री उर्मिला, सुमन सु-मन राजीव
*
रहसबिहारी सुभद्रा, सुमन नवलता साथ
आभा सुषमा लक्ष्मी, जयश्री शोभित माथ
*
अन्नपूर्णा हों सदय, दें अनामिका कांति
अरुणा-उषा तिमिर हरें, अपरा दे सुख-शांति
*
अनामिका छाया स्मृति, दे आशा संतोष
कर विवेक रंजन सके, हो सत का जयघोष
*
चित्रा माला माधुरी, विनय सुमिर योगेश
राधाकृष्ण कमलनयन, मना रहे कर्मेश
*
'तमसा तीरे' पूर्णिमा, विचर रहे हरि राम
'ऋग्वैदिक ऋषिका' करें, दर्शन दिव्य ललाम
*
'काव्य पुरुष- साहित्य वधु', सुमिर रहे मिथलेश
संत बसंत दिगंत तक, लेख रहे शब्देश
*
'शिल्पकलाएँ संस्कृत वांग्मय' में' शुभ श्रेष्ठ
'वैदिक संस्कृति' फिर रचें, पंचम वेद सुश्रेष्ठ
*
'हुए अवतरित राम क्यों', 'महीयसी' वनवास
कैसे न्यायोचित कहें, सीता का संत्रास
*
'कृषि विज्ञान' समझ सकें, ग्रंथ संस्कृत देख
आंजनेय चरितम्' पढ़ें, 'सूत्र सफलता' रेख
*
'चिंतन योग्य प्रसंग' माँ-परमहंस के दिव्य
स्वामी विवेकानंद हो, युवा नरेंद्र अनिंद्य
*
पढ़ 'पुराण गणिका' रुचिर, मैं करें रह मौन
'अन्वेषी यायावरी', कर पाया कब कौन?
*
'तस्यै नम:' दिला सके, शारद का आशीष
शब्द साधना सफल हो, मनु हो सके मनीष
२४-१०-२०२०
***
मुक्तक
दीपावली तो दीप का जय गान है
अमर माटी और श्रम का मान है
जन्म माटी से हुआ, माटी-मिलें
काम हो निष्काम तभी महान है
२४-१०-२०१६
***
लघुकथा:
रिश्ते
*
लंबे विदेश प्रवास के बीच पति के किसी अन्य महिला से जुड़ने का समाचार पाकर बिखर गयी थी वह। पति का फोन सुनना भी बंद कर दिया। विश्वास और संदेह में डूबते-उतराते उसने अपना कार्य निबटाया और स्वदेश लौट आयी।
जितने मुँह उतनी बातें, सत्य की तलाश में एक दिन किसी को कुछ बताये बिना मन कड़ा कर वह पहुँच गयी पति के दरवाज़े पर।
दरवाज़ा खटकाने को थी कि अंदर से किसी को डाँटते हुए महिला स्वर सुनाई पड़ा 'कितनी बार कहा है अपना ध्यान रखा करिए लेकिन सुनते ही नहीं हो, भाभी का नंबर दो तो उनसे ऐसी शिकायत करूँ कि आपकी खटिया खड़ी कर दें।'
'किससे शिकायत करोगी और क्या वह न तो अपनी खबर देती है, न कोई फोन उठाती है। हमारे घरवाले पहले ही इस विवाह के खिलाफ थे। तुम्हें मना करता करता हूँ फिर भी रोज चली आती हो, लोग पीठ पीछे बातें बनायेंगे।'
'बनाने दो बातें, भाई को बीमार कैसे छोड़ दूँ?.... उसका धैर्य जवाब दे गया। भरभराती दीवार सी ढह पड़ी.… आहट सुनते ही दरवाज़ा खुला, दो जोड़ी आँखें पड़ीं उसके चेहरे पर गड़ी की गड़ी रह गयीं। तुम-आप? चार हाथ सहारा देकर उसे उठाने लगे। उसे लगा धरती फट जाए वह समा जाए उसमें, इतना कमजोर क्यों था उसका विश्वास? उसकी आँखों से बह रहे थे आँसू पर मुस्कुरा रहे थे रिश्ते।
***
त्रिपदी
जो उठता बढ़ता गिरता है.
उठ कर फिर आगे चलता है,
वही कदम मंज़िल वरता है।
मुक्तक
डगमगाकर सम्हल जाए जो वही विश्वास है
एक पल में बिखर जाए व्यर्थ वह अहसास है
प्यास ही तो तृप्ति का पथ दिखाती सबको 'सलिल'
तृप्ति क्षण-भंगुर कहें क्यों लोग उसको खास है
*
गीत-
*
तन के प्रति मन का आकर्षण
मन में तन के लिये विकर्षण
कितना उचित?
कौन बतलाये?
*
मृण्मय मन ने तन्मय तन को
जब ठुकराया तब यह जाना
एक वही जिसने लांछित हो
श्वासों में रस घोल दिया है
यश के वश कोशिश-संघर्षण
नियम संग संयम का तर्पण
क्यों अनुचित है?
कौन सिखाये??
कितना उचित?
कौन बतलाये?
तन के प्रति मन का आकर्षण
मन में तन के लिये विकर्षण
*
नंदन वन में चंदन-वंदन
महुआ मादक अप्रतिम गन्धन
लाल पलाश नटेरे नैना
सती-दाह लख जला हिया है
सुधि-पावस का अमृत वर्षण
इसका उसको सब कुछ अर्पण
क्यों प्रमुदित पल ?
मौन बिताये??
कितना उचित?
कौन बतलाये?
तन के प्रति मन का आकर्षण
मन में तन के लिये विकर्षण
*
यह-वह दोनों लीन हुए जब
तनिक न तिल भर दीन हुए तब
मैंने, तूने या किस-किसने
उस पल को खो आत्म, जिया है?
है असार संसार विलक्षण
करे आक्रमण किन्तु न रक्षण
क्या-क्यों अनुमित?
कौन बनाये??
कितना उचित?
कौन बतलाये?
तन के प्रति मन का आकर्षण
मन में तन के लिये विकर्षण
२४-१०-२०१५
***