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शुक्रवार, 22 सितंबर 2023

दोहा, गाँधी, बेटी, मुक्तक, नवगीत, हास्य, विमर्श, ब्राह्मण


दोहा सलिला:
गाँधी के इस देश में...
संजीव 'सलिल'
गाँधी के इस देश में, गाँधी की जयकार.
सत्ता पकड़े गोडसे, रोज कर रहा यार..
गाँधी के इस देश में, गाँधी की सरकार.
हाय गोडसे बन गया, है उसका सरदार..
गाँधी के इस देश में, गाँधी की है मौत.
सत्य अहिंसा सिसकती, हुआ स्वदेशी फौत..
गाँधी के इस देश में, हिंसा की जय बोल.
बाहुबली नेता बने, जन को धन से तोल..
गाँधी के इस देश में, गाँधी की दरकार.
सिर्फ डाकुओं को रही, शेष कहें बेकार..
गाँधी के इस देश में, हुआ तमाशा खूब.
गाँधीवादी पी सुरा, राग अलापें खूब..
गाँधी के इस देश में, डंडे का है जोर.
खेल रहे हैं डांडिया, विहँस पुलिसिए-चोर..
गाँधी के इस देश में, अंग्रेजी का दौर.
किसको है फुर्सत करे, हिन्दी पर कुछ गौर..
गाँधी के इस देश में, बोझ हुआ कानून.
न्यायालय में हो रहा, नित्य सत्य का खून..
गाँधी के इस देश में, धनी-दरिद्र समान.
उनकी फैशन ये विवश, देह हुई दूकान..
गाँधी के इस देश में, 'सलिल 'न कुछ भी ठीक.
दुनिया का बाज़ार है, देश तोड़कर लीक..
*
नवगीत:
*
गाँधी को मारा
आरोप
गाँधी को भूले
आक्रोश
भूल सुधारी
गर वंदन कर
गाँधी को छीना
प्रतिरोध
गाँधी नहीं बपौती
मानो
गाँधी सद्विचार
सच जानो
बाँधो मत सीमा में
गाँधी
गाँधी परिवर्तन की
आँधी
स्वार्थ साधते रहे
अबोध
गाँधी की मत
नकल उतारो
गाँधी को मत
पूज बिसारो
गाँधी बैठे मन
मंदिर में
तन से गाँधी को
मनुहारो
कर्म करो सत
है अनुरोध
***
हास्य रचना:
सीता-राम
*
लालू से
कालू मिला,
खुश हो किया सलाम।
बोला-
"जोड़ी जँच रही
जैसे सीता-राम।
लालू बोला-
सच?
न क्यों, रावण हरता बोल?
समा न लेती भू कहो,
क्यों लाकर भूडोल??
२२.९.२०१८
***

एक रचना
*
अनसुनी रही अब तक पुकार
मन-प्राण रहे जिसको गुहार
वह आकर भी क्यों आ न सका?
जो नहीं सका पल भर बिसार
*
वह बाहर हो तब तो आए
मनबसिया भरमा पछताए
जो खुद परवश ही रहता है
वह कैसे निज सुर में गाए?
*
जब झुका दृष्टि मन में देखा
तब उसको नयनों ने लेखा
जग समझ रहा हम रोये हैं
सुधियाँ फैलीं कज्जल-रेखा
*
बिन बोले वह क्या बोल गया
प्राणों में मिसरी घोल गया
मैं रही रोकती लेकिन मन
पल भर न रुका झट डोल गया
*
जिसको जो कहना है कह ले
खुश हो यो गुपचुप छिप दह ले
बासंती पवन झकोरा आ
मेरी सुधियाँ गह ले, तह ले
*
कर वाह न भरना अरे! आह
मन की ले पाया कौन थाह?
जो गले मिले, भुज पाश बाँध
उनके उर में ही पली डाह
*
जो बने भक्त गह चरण कभी
कर रहे भस्म दे शाप अभी
वाणी में नहीं प्रभाव बचा
सर पीट रहे निज हाथ तभी
*
मन मीरा सा, तन राधा सा,
किसने किसको कब साधा सा?
कह कौन सकेगा करुण कथा
किसने किसको आराधा सा
*
मिट गया द्वैत, अंतर न रहा
अंतर में जो मंतर न रहा
नयनों ने पुनि मन को रोका
मत बोल की प्रत्यंतर न रहा
***
मुक्तक
खुद जलकर भी सदा उजाला ज्योति जगत को देती है
जीत निराशा तरणि नित्य नव आशा की वह खेती है
रश्मि बिम्ब से सलिल-लहर भी ज्योतिमयी हो जाती है
निबिड़ तिमिर में हँस ऊषा का बीज वपन कर आती है
*
हम चाहें तो सरकारों के किरदारों को झुकना होगा
हम चाहें तो आतंकों को पीठ दिखाकर मुडना होगा
कहे कारगिल हार न हिम्मत, टकरा जाना तूफानों से-
गोरखनाथ पुकार रहे हैं,अब दुश्मन को डरना होगा
*
मजा आता न गर तो कल्पना करता नहीं कोई
मजा आता न गर तो जगत में जीता नहीं कोई
मजे में कट गयी जो शुक्रिया उसका करों यारों-
मजा आता नहीं तो मौन हो मरता नहीं कोई
*
करो मत द्वंद, काटो फंद, रचकर छंद पल-पल में
न जो मति मंद, ले आनंद, सुनकर छंद पल-पल में
रसिक मन डूबकर रस में, बजाता बाँसुरी जब-जब
बने तन राधिका, सँग श्वास गोपी नाचें पल-पल में
*
पता है लापता जिसका उसे सब खोजते हैं क्यों?
खिली कलियाँ सवेरे बाग़ में जा नोचते हैं क्यों?
चढ़ें मन्दिर में जाती सूख, खुश हो देवता कैसे?
कहो तो हाथ को अपने नहीं तुम रोकते हो क्यों?
***
एक रचना
बातें हों अब खरी-खरी
*
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
जो न बात से बात मानता
लातें तबियत करें हरी
*
पाक करे नापाक हरकतें
बार-बार मत चेताओ
दहशतगर्दों को घर में घुस
मार-मार अब दफनाओ
लंका से आतंक मिटाया
राघव ने यह याद रहे
काश्मीर को बचा-मिलाया
भारत में, इतिहास कहे
बांगला देश बनाया हमने
मत भूले रावलपिडी
कीलर-सेखों की बहादुरी
देख सरहदें थीं सिहरी
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
*
करगिल से पिटकर भागे थे
भूल गए क्या लतखोरों?
सेंध लगा छिपकर घुसते हो
क्यों न लजाते हो चोरों?
पाले साँप, डँस रहे तुझको
आजा शरण बचा लेंगे
ज़हर उतार अजदहे से भी
तेरी कसम बचा लेंगे
है भारत का अंग एक तू
दुहराएगा फिर इतिहास
फिर बलूच-पख्तून बिरादर
के होंठों पर होगा हास
'जिए सिंध' के नारे खोदें
कब्र दुश्मनी की गहरी
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
२१-९-२०१६
***
विमर्श: श्रम और बुद्धि
ब्राम्हणों ने अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिये ग्रंथों में अनेक निराधार, अवैज्ञानिक, समाज के लिए हानिप्रद और सनातन धर्म के प्रतिकूल बातें लिखकर सबका कितना अहित किया? तो पढ़िए व्यास स्मृति विविध जातियों के बारे में क्या कहती है?
जानिए और बताइये क्या हमें व्यास का सम्मान कारण चाहिए???
व्यास स्मृति, अध्याय १
वर्द्धकी नापितो गोपः आशापः कुम्भकारकः
वीवक किरात कायस्थ मालाकर कुटिम्बिनः
एते चान्ये च वहवः शूद्रा भिन्नः स्वकर्मभिः -१०
चर्मकारः भटो भिल्लो रजकः पुष्ठकारो नट:
वरटो भेद चाण्डाल दासं स्वपच कोलकाः -११
एते अन्त्यज समाख्याता ये चान्ये च गवारान:
आशाम सम्भाषणाद स्नानं दशनादरक वीक्षणम् -१२
अर्थ: बढ़ई, नाई, अहीर, आशाप, कुम्हार, वीवक, किरात, कायस्थ, मालाकार कुटुम्बी हैं। ये भिन्न-भिन्न कर्मों के कारण शूद्र हैं. चमार, भाट, भील, धोबी, पुस्तक बांधनेवाले, नट, वरट, चाण्डालों, दास, कोल आदि माँसभक्षियों अन्त्यज (अछूत) हैं. इनसे बात करने के बाद स्नान तथा देख लेने पर सूर्य दर्शन करना चाहिए।
उल्लेख्य है कि मूलतः ब्राम्हण और कायस्थ दोनों की उत्पत्ति एक ही मूल ब्रम्ह या परब्रम्ह से है। दोनों बुद्धिजीवी रहे हैं. बुद्धि का प्रयोग कर समाज को व्यवस्थित और शासित करनेवाले अर्थात राज-काज को मानव की उन्नति का माध्यम माननेवाले कायस्थ (कार्यः स्थितः सह कायस्थः) तथा बुद्धि के विकास और ज्ञान-दान को मानवोन्नति का मूल माननेवाले ब्राम्हण (ब्रम्हं जानाति सः ब्राम्हणाः) हुए।
ये दोनों पथ एक-दूसरे के पूरक हैं किन्तु अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए ब्राम्हणों ने वैसे ही निराधार प्रावधान किये जैसे आजकल खाप के फैसले और फतवे कर रहे हैं. उक्त उद्धरण में व्यास ने ब्राम्हणों के समकक्ष कायस्थों को श्रमजीवी वर्ग के समतुल्य बताया और श्रमजीवी कर्ज को हीन कह दिया। फलतः, समाज विघटित हुआ। बल और बुद्धि दोनों में श्रेष्ठ कायस्थों का पराभव केवल भुज बल को प्रमुख माननेवाले क्षत्रियों के प्रभुत्व का कारण बना। श्रमजीवी वर्ग ने अपमानित होकर साथ न दिया तो विदेशी हमलावर जीते, देश गुलाम हुआ।
इस विमर्श का आशय यह कि अतीत से सबक लें। समाज के उन्नयन में हर वर्ग का महत्त्व समझें, श्रम को सम्मान देना सीखें। धर्म-कर्म पर केवल जन्मना ब्राम्हणों का वर्चस्व न हो। होटल में ५० रु. टिप देनेवाला रिक्शेवाले से ५-१० रु. का मोल-भाव न करे, श्रमजीवी को इतना पारिश्रमिक मिले कि वह सम्मान से परिवार पाल सके। पूंजी पे लाभ की दर से श्रम का मोल अधिक हो। आपके अभिमत की प्रतीक्षा है।
२२.९.२०१४
***
मुक्तक सलिला :
बेटियाँ
*
आस हैं, अरमान हैं, वरदान हैं ये बेटियाँ
सच कहूँ माता-पिता की शान हैं ये बेटियाँ
पैर पूजो या कलेजे से लगाकर धन्य हो-
एक क्या दो-दो कुलों की आन हैं ये बेटियाँ
*
शोरगुल में कोकिला का गान हैं ये बेटियाँ
नदी की कलकल सुरीली तान हैं ये बेटियाँ
माँ, सुता, भगिनी, सखी, अर्धांगिनी बन साथ दें-
फूँक देतीं जान देकर जान भी ये बेटियाँ
*
मत कहो घर में महज मेहमान हैं ये बेटियाँ
यह न सोचो सत्य से अनजान हैं ये बेटियाँ
लेते हक लड़ के हैं लड़के, फूँक भी देते 'सलिल'-
नर्मदा जल सी, गुणों की खान हैं ये बेटियाँ
*
ज़िन्दगी की बन्दगी, पहचान हैं ये बेटियाँ
लाज की चादर, हया का थान हैं ये बेटियाँ
चाहते तुमको मिले वरदान तो वर-दान दो
अब न कहना 'सलिल कन्या-दान हैं ये बेटियाँ
*
सभ्यता की फसल उर्वर, धान हैं ये बेटियाँ
महत्ता का, श्रेष्ठता का भान हैं ये बेटियाँ
धरा हैं पगतल की बेटे, बेटियाँ छत शीश की-
भेद मत करना, नहीं असमान हैं ये बेटियाँ
***
हास्य रचना:
चना जोर गरम
*
चना जोर गरम
बाबू ! मैं लाया मजेदार
चना जोर गरम…
*
ममो मुट्ठी भर चना चबाये
संसद को नित धता बताये
रूपया गिरा देख मुस्काये-
अमरीका को शीश नवाये
चना जोर गरम…
*
नमो ने खाकर चना डकारा
शनी मिमयाता रहा बिचारा
लाम का उतर गया है पारा
लाल सियापा कर कर हांरा
चना जोर गरम…
*
मुरा की नूरा-कुश्ती नकली
शामत रामदेव की असली
चना बापू ने नहीं चबाये-
चदरिया मैली ले पछताये
चना जोर गरम…
*
मेरा चना मसालेवाला
अन्ना को करता मतवाला
जनगण-मन जपता है माला-
मेहनतकश का यही निवाला
चना जोर गरम…
२२-९-२०१३
*
ममो = मनमोहन सिंह
नमो = नरेन्द्र मोदी,
शनी = शरद यादव-नीतीश कुमार
लाम = लालू यादव-ममता
लाल = लालकृष्ण अडवानी
मुरा = मुलायम सिंह-राहुल गाँधी बापू = आसाराम

गुरुवार, 21 सितंबर 2023

सॉनेट, राजू, हास्य, हाइकु गीत, दोहे, अनुप्रास,

रचना आमंत्रण 
चंद्र विजय अभियान पर शीघ्र प्रकाश्य अखिल भारतीय साझा काव्य संकलन हेतु लगभग २० पंक्ति की पद्य रचना, चित्र, परिचय (जन्म दिनांक माह वर्ष, माता-पिता-जीवन साथी, शिक्षा, संप्रति, प्रकाशित एकल पुस्तकें, डाक पता, ईमेल, चलभाष/वाट्सऐप) तथा ३००/- वाट्स ऐप ९४२५१८३२४४ पर तुरंत जमा कर सूचित करे। लक्ष्य १०८ रचनाकार, ७५ आ चुके हैं। 
***
सॉनेट
राजू भाई!
*
बहुत हँसाया राजू भाई!
संग हमेशा रहे ठहाके
झुका न पाए तुमको फाके
उन्हें झुकाया राजू भाई!
खुद को पाया राजू भाई!
आम आदमी के किस्से कह
जन गण-मन में तुम पाए रह
युग-सच पाया राजू भाई!
हो कठोर क्यों गया ईश्वर?
रहे अनसुने क्रंदन के स्वर
दूर धरा से गया गजोधर
चाहा-पाया राजू भाई!
किया पराया राजू भाई!
बहुत रुलाया राजू भाई!
२१-९-२०२२
***

त्रिपदिक (हाइकु) गीत
बात बेबात
संजीव 'सलिल'
*
बात बेबात
कहते कटी रात
हुआ प्रभात।
*
सूर्य रश्मियाँ
अलस सवेरे आ
नर्तित हुईं।
*
हो गया कक्ष
आलोकित ज्यों तुम
प्रगट हुईं।
*
कुसुम कली
परिमल बिखेरे
दस दिशा में -
*
मन अवाक
सृष्टि मोहती
छबीली मुई।
*
परदा हटा
बज उठी पायल
यादों की बारात।
*
दे पकौड़ियाँ
आँखें, आँखों में झाँक
कुछ शर्माईं ?
*
गाल गुलाबी
अकहा सुनकर
आप लजाईं।
*
अघट घटा
अखबार नीरस
लगने लगा-
*
हौले से लिया
हथेली को पकड़
छुड़ा मुस्काईं।
*
चितवन में
बही नेह नर्मदा
सिहरा गात
*
चहक रही
गौरैया मुंडेर पर
कुछ गा रही।
*
फुदक रही
चंचल गिलहरी
मन भा रही।
*
झोंका हवा का
उड़ा रहा आँचल
नाचतीं लटें-
*
खनकी चूड़ी
हाथ न आ, ललचा
इठला रही।
*
फ़िज़ा महकी
घटा घिटी-बरसी
गुँजा नग़मात
२१-९-२०२०
***
दोहा सलिला:
कुछ दोहे अनुप्रास के
*
अजर अमर अक्षर अमित, अजित असित अवनीश
अपराजित अनुपम अतुल, अभिनन्दन अमरीश
*
अंबर अवनि अनिल अनल, अम्बु अनाहद नाद
अम्बरीश अद्भुत अगम, अविनाशी आबाद
*
अथक अनवरत अपरिमित, अचल अटल अनुराग
अहिवातिन अंतर्मुखी, अन्तर्मन में आग
*
आलिंगन कर अवनि का, अरुण रश्मियाँ आप्त
आत्मिकता अध्याय रच, हैं अंतर में व्याप्त
*
अजब अनूठे अनसुने, अनसोचे अनजान
अनचीन्हें अनदिखे से,अद्भुत रस अनुमान
*
अरे अरे अ र र र अड़े, अड़म बड़म बम बूम
अपनापन अपवाद क्यों अहम्-वहम की धूम?
*
अकसर अवसर आ मिले, बिन आहट-आवाज़
अनबोले-अनजान पर, अलबेला अंदाज़
२१-९-२०१३
***
हाइकु गीत :
प्रात की बात
*
सूर्य रश्मियाँ
अलस सवेरे आ
नर्तित हुईं.
*
शयन कक्ष
आलोकित कर वे
कहतीं- 'जागो'.
*
कुसुम कली
लाई है परिमल
तुम क्यों सोए?
*
हूँ अवाक मैं
सृष्टि नई लगती
अब मुझको.
*
ताक-झाँक से
कुछ आह्ट हुई,
चाय आ गई.
*
चुस्की लेकर
ख़बर चटपटी
पढ़ूँ, कहाँ-क्या?
*
अघट घटा
या अनहोनी हुई?
बासी खबरें.
*
दुर्घटनाएँ,
रिश्वत, हत्या, चोरी,
पढ़ ऊबा हूँ.
*
चहक रही
गौरैया, समझूँ क्या
कहती वह?
*
चें-चें करती
नन्हीं चोचें दिखीं
ज़िन्दगी हँसी.
*
घुसा हवा का
ताज़ा झोंका, मुस्काया
मैं बाकी आशा.
*
मिटा न सब
कुछ अब भी बाकी
उठूँ-सहेजूँ.
२१.९.२०१०
***

बुधवार, 20 सितंबर 2023

गणेश, सॉनेट, मुक्तिका, मुक्तक, भक्ति गीत, नव गीत, शृंगार

गणपति
वरद विनायक मयूरेश्वरा, 16
गणधीश्वर विघ्न हरो। 12
गिरिजात्मजा बल्लारेश्वरा, 16
ओमकार पार्वति तनया नमो। 17

चिंतामणि ही सिद्धिविनायक, 16
गुणप्रदायका नमो नमो। 14
महा गणपतये विघ्नेश्वरा, 16
प्रथम पूज्य की जय बोलो। 14

प्रणव स्वरूपा गण नाथा, 14
अंबा भवानी कुमार शंभो। 17
कारूण्य लावण्य लंबोदरा, 17
शरणम् शरणम् प्रभो।11

महादेवादिदेव विनायका, 17
अष्ट विनायक श्री गणराया।। 16

सॉनेट की सभी 14 पंक्तियों का पदभार समान होना जरूरी है।
*
सॉनेट
गणपति
(16 मात्रिक)
*
वरद विनायक मयूरेश्वरा,
हे गणधीश्वर! विघ्न हरो प्रभु,
गिरिजात्मजा बल्लारेश्वरा,
हे ओंकार! पार्वती-तनय विभु।

चिंतामणि श्री सिद्धिविनायक,
गुणप्रदायका नमो नमो हे!
श्री गणपतये विघ्न ईश्वरा,
प्रथम पूज्य की जय बोलो रे!

प्रणव स्वरूपा हे गणनाथा!,
अंबा भवानी-शंभु कुमार,
शरणम् शरणम् हे जगनाथ!
क्षमा करें प्रभो! परम उदार।

श्री गणराया हे विनायका!
नमन नमन प्रभु वर प्रदायका।।
20-९-२०२३
*
सॉनेट
अरण्य वाणी
*
मनुज पुलक; सुन अरण्य वाणी
जीवन मधुवन बन जाएगा
कंकर शंकर बन गाएगा
श्वास-आस होगी कल्याणी
भुज भेंटे आलोक तिमिर से
बारी-बारी आए-जाए
शयन-जागरण चक्र चलाए
सीख समन्वय गिरि-निर्झर से
टिट्-टिट् करती विहँस टिटहरी
कुट-कुट कुतरे सुफल गिलहरी
गरज करे वनराज अफसरी
खेलें-खाएँ हिल-मिल प्राणी
मधुरस पूरित टपरी-ढाणी
दस दिश गुंजित अरण्य वाणी
२०-९-२०२२
***
मुक्तिका
निराला हो
*
जैसे हुए, न वैसा ही हो, अब यह साल निराला हो
मेंहनतकश ही हाथों में, अब लिये सफलता प्याला हो
*
उजले वसन और तन जिनके, उनकी अग्निपरीक्षा है
सावधान हों सत्ता-धन-बल, मन न तनिक भी काला हो
*
चित्र गुप्त जिस परम शक्ति का, उसके पुतले खड़े न कर
मंदिर-मस्जिद के झगड़ों में, देव न अल्लाताला हो
*
कल को देख कलम कल का निर्माण आज ही करती है
किलकिल तज कलकल वरता मन-मंदिर शांत शिवाला हो
*
माटी तन माटी का दीपक बनकर तिमिर पिये हर पल
आए-रहे-जाए जब भी तब चारों ओर उजाला हो
*
क्षर हो अक्षर को आराधें, शब्द-ब्रम्ह की जय बोलें
काव्य-कामिनी रसगगरी, कवि-आत्म छंद का प्याला हो
*
हाथ हथौड़ा कन्नी करछुल कलम थाम, आराम तजे
जब जैसा हो जहाँ 'सलिल' कुछ नया रचे, मतवाला हो
२०-९-२०१७
***
मुक्तक सलिला:
*
प्रभु ने हम पर किया भरोसा, दिया दर्द अनुपम उपहार
धैर्य सहित कर कद्र, न विचलित हों हम, सादर कर स्वीकार
जितनी पीड़ा में खिलता है, जीवन कमल सुरभि पाता-
'सलिल' गौरवान्वित होता है, अन्यों का सुख विहँस निहार
***
भक्ति गीत:
*
हे प्रभु दीनानाथ दयानिधि
कृपा करो, हर विघ्न हमारे.
जब-जब पथ में छायें अँधेरे
तब-तब आशा दीप जला रे….
*
हममें तुम हो, तुममें हम हों
अधर हँसें, नैन ना नम हों.
पीर अधीर करे जब देवा!
धीरज-संबल कहबी न कम हों.
आपद-विपदा, संकट में प्रभु!
दे विवेक जो हमें उबारे….
*
अहंकार तज सकें ज्ञान का
हो निशांत, उद्गम विहान का.
हम बेपर पर दिए तुम्हीं ने
साहस दो हरि! नव उड़ान का.
सत-शिव-सुंदर राह दिखाकर
सत-चित-आनंद दर्श दिखा रे ….
*
शब्द ब्रम्ह आराध्य हमारा
अक्षर, क्षर का बना सहारा.
चित्र गुप्त है जो अविनाशी
उसने हो साकार निहारा.
गुप्त चित्र तव अगम, गम्य हो
हो प्रतीत जो जन्म सँवारे ….
२०-९-२०१३
***
नव गीत :
उत्सव का मौसम.....
*
तुम मुस्काईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
*
लगे दिहाड़ी पर हम
जैसे कितने ही मजदूर.
गीत रच रहे मिलन-विरह के
आँखें रहते सूर..
नयन नयन से मिले झुके
उठ मिले मिट गया गम.
तुम शर्माईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
*
देखे फिर दिखलाये
एक दूजे को सपन सलोने.
बिना तुम्हारे छुए लग रहे
हर पकवान अलोने..
स्वेद-सिंधु में नहा लगी
हर नेह-नर्मदा नम.
तुम अकुलाईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
*
कंडे थाप हाथ गुबरीले
सुना रहे थे फगुआ.
नयन नशीले दीपित
मना रहे दीवाली अगुआ..
गाल गुलाबी 'वैलेंटाइन
डे' की गाते सरगम.
तुम भर्माईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
***
प्रार्थना
भक्ति-भाव की विमल नर्मदा में अवगाहन कर तर जाएँ.
प्रभु ऐसे रीझें, भू पर आ, भक्तों के संग नाचें-गाएँ..
हम आरती उतारें प्रभु की, उनके चरणों पर गिर जाएँ.
जय महेश! जय बम-बम भोले, सुन प्रभु हमको कंठ लगाएँ..
स्वप्न देख ले 'सलिल' सुनहरे, पूर्व जन्म के पुण्य भुनाएँ..
प्रभु को मन-मंदिर में पाकर, तन को हँसकर भेंट चढ़ाएँ..
२०-९-२०१०
***

मंगलवार, 19 सितंबर 2023

गणेश जी

 बधावा- 

भोले घर बाजे बधाई
स्व. शांति देवी वर्मा
*
मंगल बेला आयी, भोले घर बाजे बधाई ...

गौरा मैया ने लालन जनमे,
गणपति नाम धराई.
भोले घर बाजे बधाई ...

द्वारे बन्दनवार सजे हैं,
कदली खम्ब लगाई.
भोले घर बाजे बधाई ...

हरे-हरे गोबर इन्द्राणी अंगना लीपें,
मोतियन चौक पुराई.
भोले घर बाजे बधाई ...

स्वर्ण कलश ब्रम्हाणी लिए हैं,
चौमुख दिया जलाई.
भोले घर बाजे बधाई ...

लक्ष्मी जी पालना झुलावें,
झूलें गणेश सुखदायी.
भोले घर बाजे बधाई ...
***
श्री गणेश - आमंत्रण
*
श्री गणेश! ऋद्धि-सिद्धिदाता!! घर आओ सुनाथ!
शीश झुका,माथ हूँ नवाता, मत छोड़ो अनाथ.
देव! घिरा देश संकटों से, रिपुओं का विनाश
नाथ! करो, प्रजा मुक्ति पाए, शुभ का हो प्रकाश.
(कामरूप छंद:)
***
प्रभाती
जागिए गणराज होती भोर
कर रहे पंछी निरंतर शोर
धोइए मुख, कीजिए झट स्नान
जोड़कर कर कर शिवा-शिव ध्यान
योग करिए दूर होंगे रोग
पाइए मोदक लगाएँ भोग
प्रभु! सिखाएँ कोई नूतन छंद
भर सके जग में नवल मकरंद
मातु शारद से कृपा-आशीष
पा सलिल सा मूर्ख बने मनीष

***
श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शिव-नंदन वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
*
प्रातस्मरण स्तोत्र (दोहानुवाद सहित) -संजीव 'सलिल'
II ॐ श्री गणधिपतये नमः II
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प्रात:स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं सिंदूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मं
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमाखण्डलादि सुरनायक वृन्दवन्द्यं
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प्रात सुमिर गणनाथ नित, दीनस्वामि नत माथ.
शोभित गात सिंदूर से, रखिये सिर पर हाथ..
विघ्न-निवारण हेतु हों, देव दयालु प्रचण्ड.
सुर-सुरेश वन्दित प्रभो!, दें पापी को दण्ड..
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प्रातर्नमामि चतुराननवन्द्यमान मिच्छानुकूलमखिलं च वरं ददानं.
तं तुन्दिलंद्विरसनाधिप यज्ञसूत्रं पुत्रं विलासचतुरं शिवयो:शिवाय.
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ब्रम्ह चतुर्मुखप्रात ही, करें वन्दना नित्य.
मनचाहा वर दास को, देवें देव अनित्य..
उदर विशाल- जनेऊ है, सर्प महाविकराल.
क्रीड़ाप्रिय शिव-शिवासुत, नमन करूँ हर काल..
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प्रातर्भजाम्यभयदं खलु भक्त शोक दावानलं गणविभुंवर कुंजरास्यम.
अज्ञानकाननविनाशनहव्यवाह मुत्साहवर्धनमहं सुतमीश्वरस्यं..
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जला शोक-दावाग्नि मम, अभय प्रदायक दैव.
गणनायक गजवदन प्रभु!, रहिए सदय सदैव..
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जड़-जंगल अज्ञान का, करें अग्नि बन नष्ट.
शंकर-सुत वंदन नमन, दें उत्साह विशिष्ट..
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श्लोकत्रयमिदं पुण्यं, सदा साम्राज्यदायकं.
प्रातरुत्थाय सततं यः, पठेत प्रयाते पुमान..
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नित्य प्रात उठकर पढ़े, त्रय पवित्र श्लोक.
सुख-समृद्धि पायें 'सलिल', वसुधा हो सुरलोक..
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छंद: महापौराणिक जातीय पीयूषवर्ष
मापनी: २१२२ २१२२ २१२
बह्र: फ़ायलातुन् फ़ायलातुन् फायलुन्
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卐 ॐ 卐
हे गणपति विघ्नेश्वर जय जय
मंगल काज करें हम निर्भय
अक्षय-सुरभि सुयश दस दिश में
गुंजित हो प्रभु! यही है विनय
हों अशोक हम करें वंदना
सफल साधना करें दें विजय
संगीता हो श्वास श्वास हर
सविता तम हर, दे सुख जय जय
श्याम रामरति कभी न बिसरे
संजीवित आशा सुषमामय
रांगोली-अल्पना द्वार पर
मंगल गीत बजे शिव शुभमय
१२-११-२०२१
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बघेली मुक्तिका
गणपति बब्बा
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रात-रात भर भजन सुनाएन गणपति बब्बा
मंदिर जाएन, दरसन पाएन गणपति बब्बा
कोरोना राच्छस के मारे, बंदी घर मा
खम्हा-दुअरा लड़ दुबराएन गणपति बब्बा
भूख-गरीबी बेकारी बरखा के मारे
देहरी-चौखट छत बिदराएन गणपति बब्बा
छुटकी पोथी अउर पहाड़ा घोट्टा मारिन
फीस बिना रो नाम कटाएन गणपति बब्बा
एक-दूसरे का मुँह देखि, चुरा रए अँखियाँ
कुठला-कुठली गाल फुलाएन गणपति बब्बा
माटी रांध बनाएन मूरत फूल न बाती
आँसू मोदक भोग लगाएन गणपति बब्बा
चुटकी भर परसाद मिलिस बबुआ मुसकाएन
केतना मीठ सपन दिखराएन गणपति बब्बा
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लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश : संजीव 'सलिल'
लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश :


संजीव 'सलिल'
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पारंपरिक ब्याहुलों (विवाह गीत) से दोहा : संकलित

पूरब की पारबती, पच्छिम के जय गनेस.
दक्खिन के षडानन, उत्तर के जय महेस..
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बुन्देली पारंपरिक तर्ज:

मँड़वा भीतर लगी अथाई के बोल मेरे भाई.
रिद्धि-सिद्धि ने मेंदी रचाई के बोल मेरे भाई.
बैठे गनेश जी सूरत सुहाई के बोल मेरे भाई.
ब्याव लाओ बहुएँ कहें मताई के बोल मेरे भाई.
दुलहन दुलहां खों देख सरमाई के बोल मेरे भाई.
'सलिल' झूमकर गम्मत गाई के बोल मेरे भाई.
नेह नर्मदा झूम नहाई के बोल मेरे भाई.
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अवधी मुक्तक:

गणपति कै जनम भवा जबहीं, अमरावति सूनि परी तबहीं.
सुर-सिद्ध कैलास सुवास करें, अनुराग-उछाह भरे सबहीं..
गौर की गोद मा लाल लगैं, जनु मोती 'सलिल' उर मा बसही.
जग-छेम नरमदा-'सलिल' बहा, कछु सेस असेस न जात कही..
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भजन:
सुन लो विनय गजानन
जय गणेश विघ्नेश उमासुत, ऋद्धि-सिद्धि के नाथ.
हर बाधा हर हर शुभ करें, विनत नवाऊँ माथ..
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सुन लो विनय गजानन मोरी
सुन लो विनय गजानन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
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करो कृपा आया हूँ देवा, स्वीकारो शत वंदन.
भावों की अंजलि अर्पित है, श्रृद्धा-निष्ठा चंदन..
जनवाणी-हिंदी जगवाणी
हो, वर दो मनभावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
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नेह नर्मदा में अवगाहन, कर हम भारतवासी.
सफल साधन कर पायें,वर दो हे घट-घटवासी.
भारत माता का हर घर हो,
शिवसुत! तीरथ पावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
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प्रकृति-पुत्र बनकर हम मानव, सबकी खुशी मनायें.
पर्यावरण प्रदूषण हरकर, भू पर स्वर्ग बसायें.
रहे 'सलिल' के मन में प्रभुवर
श्री गणेश तव आसन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन...
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गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।
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ताक् धिना धिन् तबला बाजे, कान दे रहे ताल।
लहर लहरकर शुण्ड चढ़ाती जननी को गलमाल।।
नंदी सिंह के निकट विराजे हो प्रसन्न सुनते निर्भय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
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कार्तिकेय ले मोर पंख, पंखा झलते हर्षित।
मनसा मन का मनका फेरें, फिरती मग्न मुदित।।
वीणा का हर तार नाचता, सुन अपने ही शुभ सुर मधुमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
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ढोलक मौन न ता ता थैया, सुन गौरैया आई।
नेह नर्मदा की कलकल में, कलरव
ज्यों शहनाई।।
बजा मँजीरा नर्तित मूषक सर्प, सदाशिव पग हों गतिमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
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दशकंधर स्त्रोत कहे रच, उमा उमेश सराहें।
आत्मरूप शिवलिंग तुरत दे, शंकर रीत निबाहें।।
मति फेरें शारदा भवानी, मुग्ध दनुज माँ पर झट हो क्षय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
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विमर्श - गणेश चतुर्थी और शिव परिवार
क्या एक पति विवाह पश्चात अपनी पत्नी के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगा?
क्या एक पत्नी अपने पति के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगी?
सामान्यत: उत्तर होगा नहीं।
अगर कर लें तो क्या चारों साथ-साथ सहज और प्रसन्न रह सकेंगे, एक दूसरे पर विश्वास कर सकेंगे?
इस प्रश्न का उत्तर है शिव परिवार। शिव-पार्वती विवाह पश्चात उनके जीवन में आए कार्तिकेय शिवपुत्र हैं, पार्वती पुत्र नहीं हैं। गणेश पार्वती पुत्र हैं, शिव पुत्र नहीं। क्या इससे शिव-पार्वती का दांपत्य प्रभावित हुआ? नहीं।
वे एक दूसरे की संतानों को अपना मानकर जगत्कर्ता और जगज्जननी हो गए। अद्वैत में द्वैत के लिए स्थान नहीं होता। पति-पत्नी एक हो गए तो दूरी, निजता या गैरियत क्यों?
कौन किसका पोषण या शोषण कर सकता है?
किसका त्याग कम, किसका अधिक? ऐसे प्रश्न ही बेमानी हैं।
छोटी-छोटी बातों के अहं को चश्मे से बड़ा बनाकर विलग हो रहे दंपति देखें कि क्या उनके जीवन की समस्या शिव-पार्वती के जीवन की समस्याओं से अधिक बड़ी हैं?
विषमताओं का हलाहल कंठ में धारण करनेवाला ही, शंकाओं को जयकर शंकर बनता है।
पर्वत की तरह बड़ी समस्याओं से अहं की लड़ाई न लड़कर, पुत्री की तरह स्नेहभाव से सुलझानेवाली ही पार्वती हो सकती है।
प्रकृति प्रदत्त विषमता को समभाव से ग्रहण कर, एक दूसरे पर बदलने का दबाव बनाए बिना सहयोग करने पर अरिहंता कार्तिकेय ही नहीं, विघ्नहर्ता गणेश भी पुत्र बनकर पूर्णता तक ले जाते हैं, यही नहीं ऋद्धि-सिद्धि भी पुत्रवधुओं के रूप में सुख-समृद्धि की वर्षा करती हैं।
गणेश चतुर्थी का पर्व सहिष्णुता, समन्वय और सद्भाव का महापर्व है।
आइए! हम सब ऐक्य-सूत्र में बँधकर, जमीन में जड़ जमानेवाली दूर्वा से प्रेरणा ग्रहणकर गणपति गणनायक को प्रणाम करने की पात्रता अर्जित करें।
हम शिव परिवार की तरह भिन्न होकर अभिन्न हों, अनेकता को पचाकर एक हो सकें।
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विमर्श :
गणेशोत्सव, गणपति और गणतंत्र
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भाद्रपद मास पर्वों का मास है। आजकल जनगण गणपति, गणेश या गणनायक की पूजाराधना करने में निमग्न है।


शिव पुराण में वर्णित आख्यान के अनुसार गृहस्वामिनी पार्वती ने स्नान करने जाते समय, अपनी और गृह की सुरक्षा तथा किसी अवांछित का प्रवेश रोकने के लिए अपने उबटन (अंश) से पुतला बनाकर उसमें प्राण डाले और उसे रक्षक के रूप में नियुक्त किया। पार्वती स्नान कर पातीं इसके पूर्व ही गृहपति शिव वापिस लौटे। रक्षक ने उन्हें प्रवेश करने से रोका। शिव ने बलात प्रवेश का प्रयास किया, द्व्न्द हुआ, अंतत: क्रुद्ध शिव ने रक्षक का मस्तक काट कर गृह में प्रवेश किया। पार्वती स्नान कर बाहर आईं तो शिव के क्रोध कारण जानना चाहा और सकल वृत्तांत जानकार अपनी संरचना के अकाल काल के गाल में सामने पर शोक संतप्त हो गईं। शिव ने गणों (सेवकों) को आदेश दिया की जो माता अपनी नवजात शिशु से मुँह फेरकर शयन कर रही हो उसके शिशु का मस्तक काट कर ले आएँ। गण एक गजशिशु का मस्तक ले आए जिसे शिव ने पार्वती-पुत्र के धड़ से संयुक्त कर उसे पुनर्जीवित कर दिया। दोनों ने इसे अनेक शक्तियों से संपन्न होने का वर दिया।


शिव-पार्वती कौन हैं? वे पुतले और निर्जीव में प्राण कैसे डाल देते हैं? इन कथाओं का मर्म क्या है? क्या मात्र वही जो इस कथाओं को रूढ़ रूप में लेने पर ज्ञात होता है या इनमें कुछ और कथ्य प्रतीक रूप में कहा गया है, जिसे सामान्यत: हम ग्रहण नहीं कर पाते।


शिव-पार्वती जगतपिता और जगतजननी हैं। तुलसी अधिक स्पष्ट करते हैं- 'भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा-विश्वास रुपिणौ'। श्रद्धा और विश्वास साथ-साथ हों तो ही शुभ होता है। जब-जब विश्वास पर विश्वास न कर श्रद्धा भिन्न पथ अपनाती है तब अनिष्ट होता है। सती द्वारा राम की परीक्षा लेने और शिव-वर्जना की अनदेखी कर दक्ष यज्ञ में भाग लेने के दुष्परिणाम इस निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं। जब विश्वास श्रद्धा को छोड़कर अलग जाता है तब भी अनिष्ट ही होता है, यह गजानन-कथा से विदित होता है। यह निर्विवाद है कि श्रद्धा और विश्वास अभिन्न हों तभी कल्याण है। पति-पत्नी दैनंदिन जीवन में श्रद्धा-विश्वास हों तो कुछ अशुभ घट ही नहीं सकता। नागरिक और सरकार (शासन-प्रशासन) के मध्य श्रद्धा-विश्वास का संबंध हो तो इससे अधिक मंगलमय कुछ और नहीं हो सकता। ऐसा क्यों नहीं होता?, कैसे हो सकता है?, यह चिंतन करने का अवसर ही गणेश जन्मोत्सव है।

यह प्रसंग जीवन के कई रहस्य उद्घाटित करता है। श्रद्धा की संतान पर विश्वास को विश्वास करना ही चाहिए अन्यथा विश्वास 'विष-वास' हो जाएगा, जीवन से सुख-समृद्धि दूर हो जाएगी। इसके विपरीत यदि विश्वास की आत्मा (आत्मज) पर श्रद्धा न कर, श्रद्धा स्वयं अश्रद्धा जाएगी। सांसारिक जीवन में श्रद्धा पर श्रद्धा होने और विश्वास विश्वास खोने के कारण कितनी ही गृहस्थियाँ नष्ट होने के समाचार छपते हैं। तिनका आँख के अति निकट हो तो उसके पीछे सूर्य भी छिप जाता है। शंका का डंका बजते ही श्रद्धा-विश्वास दोनों मौन हो जाते हैं, संवाद बंद हो जाता है और शेष रह जाता है केवल विवाद। संसद और विधान सभाओं में पक्ष-विपक्ष, श्रद्धा-विश्वास कर एक-दूसरे के पूरक हों तो ही सार्थक विमर्श सहमतिकारक नीतियाँ बनाकर जन-हित और देश हित साधा जा सकता है। श्रद्धा-विश्वास के अभाव में संसद, विधान सभा ही नहीं, संयुक्त राष्ट्र संघ भी परस्पर दाँव-पेंच का अखाड़ा मात्र होकर रह गया है।

एक अन्य आख्यान के अनुसार शिव-संतान कार्तिकेय और पार्वती-तनय तनय गजानन के मध्य श्रेष्ठता संबंधी विवाद होने पर सृष्टि परिक्रमा करने की कसौटी पर सकल ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करने गए कार्तिकेय पराजित होते हैं जबकि अपने जनक-जननी शिव-पार्वती की परिक्रमा का गजानन विजयी होकर प्रथम पूज्य होने का वरदान पाकर गणेश, गजानन या गणनायक हो जाते हैं।

यहाँ भी बात श्रद्धा-विश्वास की ही है। गजानन के लिए जन्मदात्री और प्राणदाता समूचा संसार हैं, उनके बिना सकल सृष्टि का कुछ अर्थ नहीं है। इसीलिए वे श्रद्धा और विश्वास परिक्रमा कर समझते हैं कि सृष्टि परिक्रमा हो गई। उनका जन्म ही श्रद्धा है इसलिए श्रद्धा (पार्वती) पर श्रद्धा हो यह स्वाभाविक है किन्तु वे अपने प्राणहर्ता विश्वास (शिव) में विष का वास (नीलकंठ, सर्प) होने पर भी उन पर अखंड विश्वास कर पाते हैं, यही उनका वैशिष्ट्य है। दूसरी ओर कार्तिकेय मूलत: विश्वास (शिव) की संतान हैं वे विश्वास पर विश्वास न कर, श्रद्धा पर श्रद्धा खो देते हैं और अपना बल आजमाने निकल पड़ते हैं। यही नहीं वे जीवन की सबसे अधिक कठिन परीक्षा को सबसे अधिक सरल परीक्षा मानकर जाते समय श्रद्धा और विश्वास का शुभाशीष भी नहीं प्राप्त करते जबकि गजानन आरंभ और अंत दोनों समय यह करते हैं।

गजानन और कार्तिकेय की वृत्ति का यह अंतर उनके द्वारा वाहन चयन में भी दृष्टव्य है। गजानन मंदगामी मूषक को वाहन चुनते हैं जो शिव के कंठहार सर्प का भोज्य है, उन्हें विश्वास है कि शिव सदय हैं तो कुछ अनिष्ट नहीं सकता। दूसरी ओर कार्तिकेय क्षिप्रगति मयूर का चयन करते हैं जो शिव के कंठहार सर्प का शिकार करता है। कार्तिकेय शंका करते हैं, गजानन विश्वास। 'विश्वासं फलदायकं' इसलिए गजानन प्राप्ति होती है। 'श्रद्धावान लभते ज्ञानं' इसीलिए गजानन को ज्ञान और ज्ञान से रिद्धि-सिद्धि प्राप्त होती हैं। लोकोक्ति है 'जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तरवार'। कार्तिकेय बल (तरवार) पर भरोसा करते हैं, गजानन बुद्धि (सुई पर)। जीवन में बुद्धि और बल दोनों आवश्यक हैं। 'जो जस करहिं सो तस फल चाखा', बल के बल पर कार्तिकेय देवताओं के बलाध्यक्ष (सेनापति) बन पाते हैं जबकि बुद्धि पर श्रद्धा-विश्वास करनेवाले गजानन देवों में प्रथम पूज्य बन जाते हैं। बुद्धि की श्रेष्ठता बल से अधिक है यह जानने के बाद भी दैनिक लोक व्यवहार में सर्वत्र बल प्रयोग की चाह और राह ही सकल क्लेश का कारण है। प्रथम पूज्य होने पर गजानन गणेश, गणपति, गणनायक आदि विरुदों से विभूषित किए जाते हैं। रिद्धि-सिद्धि उन्हें विघ्नेश्वर बनाती हैं।

गण द्वारा संचालित गणतंत्र को गणनायक पूजक भारत अपनाए यह सहज-स्वाभाविक है। विसंगति यह हो गई है कि गण पर तंत्र हावी हो गया है। गण प्रतिनिधि ही गण से दूर हैं।चयन का कार्य गण नहीं दल कर रहे हैं। फलत:, मतभेदों के दलदल, दल बदल के कंटक और सदल बल जनआकांक्षों पर दलीय हितों को वरीयता देने के कारण प्रतिनिधि जनगण पर श्रद्धा और जनगण प्रतिनिधयों पर विश्वास खो चुके हैं। इस दुष्चक्र का लाभ उठाकर जनसेवक गणस्वामी बनकर पद के मद में मस्त है। गण स्वामी कहा जाता है पर वास्तव में सेवक मात्र है। तंत्र गण के काम न आकर गण से काम ले रहा है। विधि-विधान बनानेवाले ही विधि-विधान की हत्या कर रहे हैं। पंच ज्ञानेन्द्रियों और पंच कर्मेन्द्रियों के साथ बुद्धि-विवेक कर न्याय दिए जाने के स्थान पर, आँखों पर पट्टी बाँधकर न्याय को तौला जा रहा है। इस संक्रमणकाल लोक को आराध्य माननेवाले कृष्ण के जन्मोत्सव के तुरंत बाद गणदेवता जन्मोत्सव मनाया जाना पूरी तरह सामयिक और समीचीन है। जनगण परंपरा-पालन के साथ-साथ उनका वास्तविक मर्म भी ग्रहण कर सके तो लोक, जन, गण और प्रजा पर तंत्र हावी न होकर उसका सेवक होगा, तभी वास्तविक लोकतंत्र, जनतंत्र, गणतंत्र और प्रजातंत्र मूर्त हो सकेगा।
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श्री गणेश
श्री गणेश गिनती गणित, गणना में हैं लीन
जो समझे मतिमान वह, बिन समझे नर दीन. बिंदु शिव
___ रेखा पार्वती
o वृत्त गणेश
१. ॐ
२. मति, गति, यति, बल, सुख, जय, यश।
३. अमित, कपिल, गुणिन, भीम, कीर्ति, बुद्धि।
४. गणपति, गणेश, भूपति, कवीश, गजाक्ष, हरिद्र, दूर्जा, शिवसुत, हरसुत, हरात्मज।
५. गजवदन, गजवक्र, गजकर्ण, गजदंत, गजानन, प्रथमेश, भुवनपति, शिवतनय, उमासुत, निदीश्वर, हेरंब, शिवासुत, विनायक, अखूरथ, गणाधिप, विघ्नेश, रूद्रप्रिय।
६. गण-अधिपति, गणाध्यक्ष, एकदंत, उमातनय, विघ्नेश्वर, गजवक्त्र, गौरीसुत, लंबोदर, प्रथमेश्वर, शूपकर्ण, वक्रतुंड, गिरिजात्मज, शिवात्मज, सिद्धिसदन, गणाधिपति, स्कन्दपूर्व, विघ्नेंद्र, द्वैमातुर, धूम्रकेतु, शंकरप्रिय।
७. गिरिजासुवन, पार्वतीसुत, विघ्नहर्ता, मंगलमूर्ति, मूषकनाथ, गणदेवता, शंकर-सुवन, करिवर वदन, ज्ञान निधान, विघ्ननाशक, विघ्नहर्ता, गिरिजातनय।
८. गौरीनंदन, ऋद्धि-सिद्धिपति, विद्यावारिधि, विघ्नविनाशक, पार्वती तनय, बुद्धिविधाता, मूषक सवार, शुभ-लाभ जनक, मोदकदाता. मंगलदाता, मंगलकर्ता, सिद्धिविनायक, देवाधिदेव, कृष्णपिंगाक्ष।
९. ऋद्धि-सिद्धिनाथ, शुभ-लाभप्रदाता, गजासुरहंता, पार्वतीनंदन, गजासुरदंडक।
१०. ऋद्धि-सिद्धि दाता, विघ्नहरणकर्ता।
११. गिरितनयातनय। ९३
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गजवदन = गति, जय, वर, दम, नमी।
गजानन = गरिमामय, जानकार, नवीनता प्रेमी, निरंतरता।
विनायक = विवेक, नायकत्व, यमेश, कर्मप्रिय।
*
Ganesha = gentle, active, noble, energetic, systematic, highness, alert.
Gajanana = generous, advance, judge, accuracy, novelty, actuality, non ego, ambitious.
Vinayaka = victorious, ideal, neutrality, attentive, youthful, administrator, kind hearted, attentive.
*
Nuerological auspect
[a 1, b 2, c 3, d 4, e 5, f 6, g 7, h 8, i 9, j 10, k 11, l 12, m 13, n 14, o 15, p 16, q 17, r 18, s 19, t 20, u 21, v 22, w 23, x 24, y 25, z 16]

1. Ganesha = 7 +1 + 14 + 5 + 19 + 8 + 1 = 55 = 10 = 1.
Gati = 7 + 1 + 20 + 9 = 37 = 10 = 1.
Ganadhyaksha = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 8 + 25 + 1 + 11 + 19 + 8 + 1 = 100 = 1.

Jaya = 10 + 1 + 25 + 1 = 37 = 10 = 1.
2. Ekdanta = 5 + 11 + 4 + 1 + 14 + 20 + 1 = 56 = 11 = 2.
3. Vinayaka = 22 + 9 + 14 + 1 + 25 + 1 + 11 + 1 = 84 = 12 = 3.
Heramba = 8 + 5 + 18 + 1 + 13 + 2 + 1 = 48 = 12= 3.
Buddhi = 2 + 21 + 4 + 4 + 8 + 9 = 48 = 12 = 3.
4. Ganadevata = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 5 + 22 + 1 + 20 + 1 = 76 = 13 = 4.
Gajanana = 7 + 1 + 10 + 1 + 14 + 1 + 14 + 1 = 49 = 13 = 4.
5. Vakratunda = 22 + 1 + 11 + 18 + 1 + 20 + 21 + 14 + 4 + 1 = 113 = 5.
Bhoopati = 2 + 8 + 15 + 15 + 16 + 1 + 20 + 9 = 86 = 14 = 5.
Kapila = 11 + 1 + 16 + 9 + 12 + 1 = 50 = 5.
6. Ganapati = 7 + 1 + 14 + 1 + 16 + 1 + 20 + 9 = 69 = 15 = 6.
7. Mahakaya = 13 + 1 + 8 + 1 + 11 + 1 + 25 + 1 = 61 = 7.
8. Gajavadana = 7 + 1 + 10 + 1+ 22 + 1 + 4 + 1 + 14 + 1 = 62 = 8.
Vighneshvara = 22 + 9 + 7 + 8 + 14 + 5 + 19 + 8 + 22 + 1 + 18 + 1 = 134 = 8.
Amita = 1 + 13 + 9 + 20 + 1 = 44 = 8.
9. Ganadhipati = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 8 + 9 + 16 + 1 + 20 + 9 = 90 = 9.

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हिंदी, साधना, नवगीत, बाल गीत, निशा तिवारी, आचार्य धर्मेंद्र,


महाप्रस्थान : आचार्य धर्मेंद्र

विश्व हिन्दू परिषद के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल में शामिल रहे, राम मंदिर आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभानेवाले हिंदू नेता व संत आचार्य धर्मेंद्र का आज निधन हो गया है। उन्होंने जयपुर के एसएमएस हॉस्पिटल के आईसीयू में इलाज के दौरान अंतिम सांस ली। गौरतलब है कि बीते एक माह से खराब स्वास्थ्य के कारण जयपुर के इस अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। आचार्य धर्मंद्र आंत की बीमारी से पीड़ित थे।
श्रीपंचखण्ड पीठाधीश्वर आचार्य स्वामी धर्मेंद्र महाराज सनातन धर्म के अद्वितीय व्याख्याकार, प्रखर वक्ता और ओजस्वी वाणी के रामानंदी संत थे। हुतात्मा रामचन्द्र शर्मा 'वीर' महाराज के पुत्र आचार्य धर्मेंद्र ने राम मंदिर आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई थी। आचार्य के पिता महात्मा रामचन्द्र वीर ने लगातार अनशन करके स्वयं को नरकंकाल जैसा बनाकर अनशनों के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए। उन्होंने शपथ ली थी की जब तक लाहौर से ढाका तक अखंड हिन्दू राष्ट्र स्थापित नहीं होगा वे अन्न और लवण (नमक) का सेवन नहीं करेंगे और इस शपथ का आजीवन पालन किया। हिन्दू मंदिरों में गौ हत्या और पशुबलि बंद करने के लिए महात्मा वीर ने पूरे भारत में अनशन किए। वे पशुओं के स्थान पर खुद को बलि हेतु प्रस्तुत कर कहते थे कि माँ (काली) यदि संतान की बलि से प्रसन्न होती है तो पशु क्यों मेंरी बलि दो। आचार्य धर्मेंद्र अपने पिता के साथ बचपन से ऐसे आंदोलनों का हिस्सा रहे। आचार्य धर्मेंद्र ने अपनी कैशोर्यावस्था में ही वज्रांग वंदना और गौशाला जैसी उत्कृष्ट कृतियों की रचना की थी। १९५८-५९ में मेरे पिताश्री राजबहादुर वर्मा जी छिंदवाड़ा में जेलर थे। तब हुतात्मा स्वामी रामचंद्र शर्मा 'वीर' ने गौ हत्या के विरुद्ध अनशन किया था और उन्हें गिरफ्तार कर जेल में रखा गया था। उनके साथ किशोर धर्मेंद्र भी थे। स्वामी जी नैष्ठिक और दृश्य संकल्पित संत थे। उनका आहार आदि पूरी तरह सात्विक था। जेल में उन्हें पूजन सामग्री और आहार सुलभ करने का पिताश्री पूरी तरह ध्यान रखते थे। कभी-कभी घर से भी भिजवा दिया करते थे। स्वामी जी ने उन्हें अपनी पुस्तकें विकट यात्रा, विजय पताका, हिन्दू नारी तथा धर्मेंद्र जी रचित गोशाला भेंट की थी, जो मेरे पास अब तक सुरक्षित है। वज्रांग वंदना कहीं खो गई।
आचार्य धर्मेन्द्र का पहली धर्म संसद अप्रैल १९८४ में विश्व हिन्दू परिषद् की ओर से धर्म संसद में राम जन्मभूमि के द्वार से ताला खुलवाने के लिए जनजागरण यात्राएँ करने का प्रस्ताव पारित करने और राम जानकी रथ यात्रा और विश्व हिन्दू परिषद की ओर से अक्तूबर १९८४ में जनजागरण के लिए की गई सीतामढ़ी से दिल्ली तक राम जानकी रथ यात्रा में अहम योगदान रहा। आचार्य धर्मेंद्र ने जयपुर के तीर्थ विराट नगर के पार्श्व पवित्र वाणगंगा के तट पर मैड गाँव में अपना जीवन व्यतीत किया। गृहस्थ होते हुए भी उन्हें साधु-संतों के समान आदर और सम्मान प्राप्त था।
जगद्गुरु शंकराचार्य निरंजनदेव तीर्थ ने ७२ दिन,संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने ६५ दिन आचार्य धर्मेन्द्र ने ५२ दिन और जैन मुनि सुशील कुमार ने ४ दिन अनशन किया। आन्दोलन में पहली महिला सत्याग्रह का नेतृत्व प्रतिभा धर्मेन्द्र ने किया और अपने तीन शिशुओ के साथ जेल गई। साथ ही विश्व हिंदू परिषद से लंबे समय तक जुड़े रहने के दौरान चर्चा में रहे थे। वे राममंदिर मुद्दे पर बड़ी ही बेबाकी से बोलते थे। बाबरी विध्वंस मामले में जब फैसला आने वाला था तब आचार्य धर्मेंद्र ने कहा था कि मैं आरोपी नंबर वन हूं। सजा से डरना क्या? जो किया सबके सामने किया। आचार्य का जन्म ९ जनवरी १९४२ को गुजरात के मालवाडा में हुआ। बाबरी विध्वंस मामले में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, उमा भारती सहित आचार्य धर्मेंद्र को भी आरोपी माना गया था।
आचार्य धर्मेंद्र के परिवार में दो पुत्र सोमेन्द्र शर्मा और प्रणवेन्द्र शर्मा है। सोमेन्द्र की पत्नी और आचार्य की पुत्रवधू अर्चना शर्मा वर्तमान में गहलोत सरकार में समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्ष हैं। राजस्थान के विराटनगर में उनका मठ और पावनधाम आश्रम है, जहां उनका विधी-विधान पूर्वक उनके शिष्यों और अनुयायियों के बीच अंतिम संस्कार किया जाएगा।
बाल गीत
पानी दो, अब पानी दो
मौला धरती धानी दो, पानी दो...
*
तप-तप धरती सूख गयी
बहा पसीना, भूख गई.
बहुत सयानी है दुनिया
प्रभु! थोड़ी नादानी दो, पानी दो...
*
टप-टप-टप बूँदें बरसें
छप-छपाक-छप मन हरषे
टर्र-टर्र बोले दादुर
मेघा-बिजुरी दानी दो, पानी दो...
*
रोको कारें, आ नीचे
नहा-नाच हम-तुम भीगे
ता-ता-थैया खेलेंगे
सखी एक भूटानी दो, पानी दो...
*
सड़कों पर बहता पानी
याद आ रही क्या नानी?
जहाँ-तहाँ लुक-छिपते क्यों?
कर थोड़ी मनमानी लो, पानी दो... *
छलकी बादल की गागर
नचे झाड़ ज्यों नटनागर
हर पत्ती गोपी-ग्वालन
करें रास रसखानी दो, पानी दो...
१९-९-२०१७ *
***
पुस्तक चर्चा -
वर्तमान युग का नया चेहरा: 'काल है संक्रांति का'
समीक्षक: डॉ. निशा तिवारी
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', वर्ष २०१६, आवरण बहुरँगी, आकार डिमाई, पृष्ठ १२८, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैक २००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ०७६१२४१११३१, गीतकार संपर्क- ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
*
'काल है संक्रांति का' संजीव वर्मा 'सलिल' का २०१६ में प्रकाशित नवीन काव्य संग्रह है। वे पेशे से अभियंता रहे हैं। किन्तु उनकी सर्जक प्रतिभा उर्वर रही है। सर्जना कभी किसी अनुशासन में आबद्ध नहीं रह सकती। सर्जक की अंत:प्रज्ञा (भारतीय काव्य शास्त्र में 'प्रतिभा' काव्य शास्त्र हेतु), संवेदनशीलता, भावाकुलता और कल्पना किसी विशिष्ट अनुशासन में बद्ध न होकर उन्मुक्त उड़ान भरती हुई कविता में निःसृत होती है। यही 'सलिल जी' की सर्जन-धर्मिता है। यद्यपि उनके मूल अनुशासन का प्रतिबिम्ब भी कहीं-कहीं झलककर कविता को एक नया ही रूप प्रदान करता है। भौतिकी की 'नैनो-पीको' सिद्धांतिकी जिस सूक्ष्मता से समूह-क्रिया को संपादित करती है, वह सलिल जी के गीतों में दिखाई देती है। उत्तर आधुनिक वैचारिकी के अन्तर्गत जिस झंडी-खण्ड चेतना का रूपायन सम-सामयिक साहित्य में हो रहा है वही चिन्तना सलिल जी के गीतों में सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, साहित्यिक विसंगतियों के रूप में ढलकर आई है- रचनाकार की दृष्टि में यही संक्रांति का काल है। संप्रति नवलेखन में 'काल' नहीं वरन 'स्पेस' को प्रमुखता मिली है।
शब्दों की परंपरा अथवा उसके इतिहास के बदले व्यंजकों के स्थगन की परिपाटी चल पड़ी है। सलिल जी भी कतिपय गीतों में पुराने व्यंजकों को विखण्डित कर नए व्यंजकों की तलाश करते हैं। उनका सबसे प्रिय 'व्यंजक' सूर्य है। उनहोंने सूर्य के 'आलोक' के परंपरागत अर्थ 'जागरण' को ग्रहण करते हुए भी उसे नए व्यंजक का रूप प्रदान किया है। 'उठो सूरज' गीत में उसे साँझ के लौटने के संदर्भ में 'झुको सूरज! विदा देकर / हम करें स्वागत तुम्हारा' तथा 'हँसों सूर्य भाता है / खेकर अच्छे दिन', 'आओ भी सूरज! / छँट गए हैं फुट के बदल / पतंगें एकता की मिल उड़ाओ। / गाओ भी सूरज!', 'सूरज बबुआ! / चल स्कूल। ', 'हनु हुआ घायल मगर / वरदान तुमने दिए सूरज!', 'खों-खों करते / बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी' इत्यादि व्यंजक सूरज को नव्यता प्रदान करते हैं, यद्यपि कवि का परंपरागत मन सूरज को 'तिमिर-विनाशक' के रूप में ही ग्रहण करता है।
कवि का परंपरागत मन अपने गीतों में शास्त्रीय लक्षण ग्रन्थों के मंगलाचरण के अभियोजन को भी विस्मृत नहीं कर पाता। मंगलाचरण के रूप में वह सर्वप्रथम हिंदी जाति की उपजाति 'कायसिहों' के आराध्य 'चित्रगुप्त जी' की वंदना करता है। यों भी चित्रगुप्त जी मनुष्य जाति के कर्मों का लेखा-जोखा रखनेवाले देवता हैं। ऐसा माना जाता है कि उत्तर आधुनिक युग में धर्मनिरपेक्षता का तत्व प्रबल है- कवि की इस वन्दना में चित्रगुप्त जी को शिव, ब्रम्हा, कृष्ण, पैग़ंबर, ईसा, गुरु नानक इत्यादि विभिन्न धर्मों के ईश्वर का रूप देकर सर्वधर्म समभाव का परिचय दिया गया है। चित्रगुप्त जी की वन्दना में भी कवि का प्रिय व्यंजक सूर्य उभरकर आया है - 'तिमिर मिटाने / अरुणागत हम / द्वार तिहरे आए।'
कला-साहित्य की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की अभ्यर्थना में कवि ने एक नवीन व्यंजना करते हुए ज्ञान-विज्ञान-संगीत के अतिरिक्त काव्यशास्त्र के समस्त उपादानों की याचना की है और सरस्वती माँ की कृपा प्राप्त प्राप्त करने हेतु एक नए और प्रासंगिक व्यंजक की कल्पना की है- 'हिंदी हो भावी जगवाणी / जय-जय वीणापाणी।' विश्वभाषा के रूप में हिंदी भाषा की यह कल्पना हिंदी भाषा के प्रति अपूर्व सम्मान की द्योतक है।
हिन्दू धर्म में प्रत्येक मांगलिक कार्य के पूर्व अपने पुरखों का आशिर्वाद लिया जाता है। पितृ पक्ष में तो पितरों के तर्पण द्वारा उनके प्रति श्रद्धा प्रगट की जाती है। गीत-सृजन को अत्यंत शुभ एवं मांगलिक कर्म मानते हुए कवि ने पुरखों के प्रति यही श्रद्धा व्यक्त की है। इस श्रद्धा भाव में भी एक नवीन संयोजन है- 'गीत, अगीत, प्रगीत न जानें / अशुभ भुला, शुभ को पहचानें / मिटा दूरियाँ, गले लगाना / नव रचनाकारों को ठानें कलश नहीं, आधार बन सकें / भू हो हिंदी-धाम। / सुमिर लें पुरखों को हम / आओ! करें प्रणाम।' कवि अपनी सीमाओं को पहचानता है, सर्जना का दंभ उसमें नहीं है और न ही कोई दैन्य है। वह तो पुरखों का आशीर्वाद प्राप्त कर केवल हिंदी को विश्व भाषा बनाने का स्वप्न पूरा करना चाहता है। यदि चित्रगुप्त भगवान की, देवी सरस्वती की और पुरखों की कृपा रही तो हिंदी राष्ट्रभाषा तो क्या, विश्व भाषा बनकर रहेगी। सलिल जी के निज भाषा-प्रेम उनके मंगलाचरण अथवा अभ्यर्थना का चरम परिपाक है।
उनकी समर्पण कविता इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि उनहोंने उसमें रक्षाबन्धन पर्व की एक सामान्यीकृत अभिव्यंजना की है। बहिनों के प्रत्येक नाम संज्ञा से विशेषण में परिवर्तित हो गए हैं और रक्षासूत्र बाँधने की प्रत्येक प्रक्रिया, आशाओं का मधुवन बन गयी है। मनुष्य और प्रकृति का यह एकीकरण पर्यावरणीय सौंदर्य को इंगित करता है। 'उठो पाखी' कविता में भी राखी बाँधने की प्रक्रिया प्रकृति से तदाकार हो गयी है।
कविता मात्र वैयक्तिक भावोद्गार नहीं है, उसका सामाजिक सरोकार भी होता है। कभी-कभी कवि की चेतना सामाजिक विसंगति से पीड़ित और क्षुब्ध होकर सामाजिक हस्तक्षेपभी करती है। श्री कान्त वर्मा ने आलोचना को 'सामाजिक हस्तक्षेप' कहा है। मेरी दृष्टि में कविता भी यदा-कदा सामाजिक हस्तक्षेप हुआ करती है। प्रतिबद्ध कवि में तो यह हस्तक्षेप निरन्तर बना रहता है। कवि सलिल ने राजनैतिक गुटबाजी, नेताओं अफसरों की अर्थ-लोलुपता, पेशावर के न्र पिशाचों की दहशतगर्दी, आतंकवाद का घिनौना कृत्य, पाक की नापाकी, लोकतंत्र का स्वार्थतंत्र में परिवर्तन, अत्याचार और अनाचार के प्रति जनता का मौन,नेताओं की गैर जिम्मेदारी, स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी राजनीतिक कुतंत्र में वास्तविक आज़ादी प्राप्त न कर पाना इत्यादि कुचक्रों पर गीत लिखकर अपनी कृति को 'काल है संक्रांति का' नाम दिया है। वास्तव में देश की ये विसंगतियाँ संक्रमण को सार्थक बनाती हैं किन्तु उनके गीत 'संक्रांति काल है' -में संक्रांति का संकेत भर है तथा उससे निबटने के लिए कवी ने प्रेरित भी किया है। यों भी छोटे से गीत के लघु कलेवर में विसंगति के विस्तार को वाणी नहीं दी जा सकती। कवि तो विशालता में से एक चरम और मार्मिक क्षण को ही चुनता है। सलिल ने भी इस कविता में एक प्रभावी क्षण को चुना है। वह क्षण प्रभावोत्पादक है या नहीं, उसकी चिंता वे नहीं करते। वे प्रतिबद्ध कवु न होकर भी एक सजग औए सचेत कवि हैं।
सलिल जी ने काव्य की अपनी इस विधा को गीत-नवगीत कहा है। एक समय निराला ने छंदात्मक रचना के प्रति विद्रोह करते हुए मुक्त छंद की वकालत की थी लेकिन उनका मुक्त छंद लय और प्रवाह से एक मनोरम गीत-सृष्टि करता था। संप्रति कविताएँ मुक्त छंद में लिखी जा रही हैं किन्तु उनमें वह लयात्मकता नहीं है जो जो उसे संगीतात्मक बना सके। ऐसी कवितायेँ बमुश्किल कण्ठस्थ होती हैं। सलिल जी ने वर्तमान लीक से हटकर छंदात्मक गीत लिखे हैं तथा सुविधा के लिए टीप में उन छंदों के नाम भी बताए हैं। यह टीप रचनाकार की दृष्टि से भले ही औचित्यपूर्ण न हो किन्तु पाठक-समीक्षक के लिए सुगम अवश्य है। 'हरिगीतिका' उनका प्रिय छंद है।
सलिल जी ने कतिपय अभिनव प्रयोग भी किये हैं। कुछ गीत उनहोंने बुन्देली भाषा में लिखे हैं। जैसे- 'जब लौं आग' (ईसुरी की चौकड़िया फाग की तर्ज पर), मिलती कांय नें (ईसुरी की चौकड़िया फाग पर आधारित) इत्यादि तथा पंजाबी एवं सोहर लोकगीत की तर्ज पर गीत लिखकर नवीन प्रयोग किये हैं।
कवि संक्रांति-काल से भयभीत नहीं है। वह नया इतिहास लिखना चाहता है- 'कठिनाई में / संकल्पों का / नव है लिखें हम / आज नया इतिहास लिखें हम।'' साथ ही संघर्षों से घबराकर वह पलायन नहीं करता वरन संघर्ष के लिए प्रेरित करता है- 'पेशावर में जब एक विद्यालय के विद्यार्थियों को आतंकवादियों ने गोलियों से भून दिया था तो उसकी मर्मान्तक पीड़ा कवि को अंतस तक मठ गई थी किंतु इस पीड़ा से कवि जड़ीभूत नहीं हुआ। उसमें एक अद्भुत शक्ति जाग्रत हुई और कवि हुंकार उठा-
आसमां गर स्याह है
तो क्या हुआ?
हवा बनकर मैं बहूँगा।
दहशतों के
बादलों को उदा दूँगा।
मैं बनूँगा सूर्य
तुम रण हार रोओ
वक़्त लिक्खेगा कहानी
फाड़ पत्थर मैं उगूँगा।
मैं लिखूँगा।
मैं लड़ूँगा।।
*
संपर्क समीक्षा: डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भंवरताल पानी की टँकी के सामने, जबलपुर ४८२००१
चलभाष; ९४२५३८६२३४, दूरलेख: pawanknisha@gmail.com
***
नव गीत
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
*
लोकतंत्र का अजब तकाज़ा
दुनिया देखे ठठा तमाशा
अपना हाथ
गाल भी अपना
जमकर मारें खुदी तमाचा
आज़ादी कुछ भी कहने की?
हुए विधाता वाम जी!
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
*
जन का निर्णय पचा न पाते
संसद में बैठे गुर्राते
न्यायालय का
कहा न मानें
झूठे, प्रगतिशील कहलाते
'ख़ास' बुद्धिजीवी पथ भूले
इन्हें न कहना 'आम' जी
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
*
कहाँ मानते हैं बातों से
कहो, देवता जो लातों के?
जैसे प्रभु
वैसी हो पूजा
उत्तर दो सब आघातों के
अवसर एक न पाएं वे
जो करें देश बदनाम जी
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
***
गीत -
हम
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*
हमारे दिल में पली थी
सरफरोशी की तमन्ना।
हमारी गर्दन कटी थी
किंतु
किंचित भी झुकी ना।
काँपते थे शत्रु सुनकर
नाम जिनका
हम वही हैं।
कारगिल देता गवाही
मर अमर
होते हमीं हैं।
*
इंकलाबों की करी जयकार
हमने फेंककर बम।
झूल फाँसी पर गये
लेकिन
न झुकने दिया परचम।
नाम कह 'आज़ाद', कोड़े
खाये हँसकर
हर कहीं हैं।
नहीं धरती मात्र
देवोपरि हमें
मातामही हैं।
*
पैर में बंदूक बाँधे,
डाल घूँघट चल पड़ी जो।
भवानी साकार दुर्गा
भगत के
के संग थी खड़ी वो।
विश्व में ऐसी मिसालें
सत्य कहता हूँ
नहीं हैं।
ज़िन्दगी थीं या मशालें
अँधेरा पीती रही
रही हैं।
*
'नहीं दूँगी कभी झाँसी'
सुनो, मैंने ही कहा था।
लहू मेरा
शिवा, राणा, हेमू की
रग में बहा था।
पराजित कर हूण-शक को
मर, जनम लेते
यहीं हैं।
युद्ध करते, बुद्ध बनते
हमीं विक्रम, 'जिन'
हमीं हैं।
*
विश्व मित्र, वशिष्ठ, कुंभज
लोपामुद्रा, कैकयी, मय ।
ऋषभ, वानर, शेष, तक्षक
गार्गी-मैत्रेयी
निर्भय?
नाग पिंगल, पतंजलि,
नारद, चरक, सुश्रुत
हमीं हैं।
ओढ़ चादर रखी ज्यों की त्यों
अमल हमने
तही हैं।
*
देवव्रत, कौंतेय, राघव
परशु, शंकर अगम लाघव।
शक्ति पूजित, शक्ति पूजी
सिय-सती बन
जय किया भव।
शून्य से गुंजित हुए स्वर
जो सनातन
हम सभी हैं।
नाद अनहद हम पुरातन
लय-धुनें हम
नित नयी हैं।
*
हमीं भगवा, हम तिरंगा
जगत-जीवन रंग-बिरंगा।
द्वैत भी, अद्वैत भी हम
हमीं सागर,
शिखर, गंगा।
ध्यान-धारी, धर्म-धर्ता
कम-कर्ता
हम गुणी हैं।
वृत्ति सत-रज-तम न बाहर
कहीं खोजो,
त्रय हमीं हैं।
*
भूलकर मत हमें घेरो
काल को नाहक न टेरो।
अपावन आक्रांताओं
कदम पीछे
हटा फेरो।
बर्फ पर जब-जब
लहू की धार
सरहद पर बही हैं।
कहानी तब शौर्य की
अगणित, समय ने
खुद कहीं हैं।
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*
जय हिंद
जय भारत
वन्दे मातरम्
भारत माता की जय
१९-९-२०१६
***
डॉ. साधना वर्मा की जन्म तिथि १२ सितंबर पर :
वर्षगाँठ यह मंगलमय हो...
*
जो भी चाहे अंतर्मन,
पाने का नित करो जतन.
विनय दैव से है इतनी-
मिलें सफलताएँ अनगिन..
जीवन-पथ पर पग निर्भय हो,
वर्षगाँठ यह मंगलमय हो...
*
अधरों पर सोहे मुस्कान.
पाओ सब जग से सम्मान.
शतजीवी हो, स्वस्थ्य रहो-
पूरा हो मन का अरमान..
श्वास-श्वास सरगम सुरमय हो
वर्षगाँठ यह मंगलमय हो...
*
मिले कीर्ति, यश, अभिनन्दन,
मस्तक पर रोली-चन्दन.
घर-आँगन में खुशियाँ हों-
स्नेहिल नातों का वन्दन..
आस-हास की निधि अक्षय हो,
वर्षगाँठ यह मंगलमय हो...
***
नवगीत:
मेघ बजे
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे, बिजुरिया बिना लजे...
*
दादुर देते ताल,
पपीहा-प्यास बुझी.
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी...
तोड़ कूल-मरजाद नदी उफनाई तो-
बाबुल पर्वत रूठे, तनया तुरत तजे...
*
पल्लव की करताल,
बजाती नीम मुई.
खेत कजलियाँ लिये,
मेड़ छुईमुई हुई..
जन्मे माखनचोर, हरीरा भक्त पिए
गणपति बप्पा, लाये मोदक हुए मजे...
*
टप-टप टपके टीन,
चू गयी है बाखर.
डूबी शाला हाय!,
पढ़ाये को आखर?
डूबी गैल, बके गाली अभियंता को.
डुकरो काँपें, 'सलिल' जोड़ कर राम भजे...
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे बिजुरिया, बिना लजे...
***
बाल गीत:
लंगडी खेलें.....
**
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
***
गीत:
मनुज से...
*
न आये यहाँ हम बुलाये गये हैं.
तुम्हारे ही हाथों बनाये गये हैं.
ये सच है कि निर्मम हैं, बेजान हैं हम,
कलेजे से तुमको लगाये गये हैं.
नहीं हमने काटा कभी कोई जंगल
तुम्हीं कर रहे थे धरा का अमंगल.
तुमने ही खोदे थे पर्वत और टीले-
तुम्हीं ने किया पाट तालाब दंगल..
तुम्हीं ने बनाये ये कल-कारखाने.
तुम्हीं जुट गये थे भवन निज बनाने.
तुम्हारी हवस का न है अंत लोगों-
छोड़ा न अवसर लगे जब भुनाने..
कोयल की छोड़ो, न कागा को छोड़ा.
कलियों के संग फूल कांटा भी तोड़ा.
तुलसी को तज, कैक्टस शत उगाये-
चुभे आज काँटे हुआ दर्द थोड़ा..
मलिन नेह की नर्मदा तुमने की है.
अहम् के वहम की सुरा तुमने पी है.
न सम्हले अगर तो मिटोगे ये सुन लो-
घुटन, फ़िक्र खुद को तुम्हीं ने तो दी है..
हूँ रचना तुम्हारी, तुम्हें जानती हूँ.
बचाऊँगी तुमको ये हाथ ठानती हूँ.
हो जैसे भी मेरे हो, मेरे रहोगे-
इरादे तुम्हारे मैं पहचानती हूँ..
नियति का इशारा समझना ही होगा.
प्रकृति के मुताबिक ही चलना भी होगा.
मुझे दोष देते हो नादां हो तुम-
गिरे हो तो उठकर सम्हलना भी होगा..
ये कोंक्रीटी जंगल न ज्यादा उगाओ.
धरा-पुत्र थे, फिर धरा-सुत कहाओ..
धरती को सींचो, पुनः वन उगाओ-
'सलिल'-धार संग फिर हँसो-मुस्कुराओ..
नहीं है पराया कोई, सब हैं अपने.
अगर मान पाये, हों साकार सपने.
बिना स्वर्गवासी हुए स्वर्ग पाओ-
न मंगल पे जा, भू का मंगल मनाओ..
***
नव गीत:
क्या?, कैसा है?...
*
*क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
सड़ता-फिंकता
अन्न देखकर
खेत, कृषक,
खलिहान रुआँसा.
है गरीब की
किस्मत, बेबस
भूखा मरना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
चूहा खोजे
मिले न दाना.
सूखी चमड़ी
तन पर बाना.
कहता: 'भूख
नहीं बीमारी'.
अफसर-मंत्री
सेठ मुटाना.
न्यायालय भी
छलिया लगता.
माला जपना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
काटे जंगल,
भू की बंजर.
पर्वत खोदे,
पूरे सरवर.
नदियों में भी
शेष न पानी.
न्यौता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
देख-समझना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
***
नवगीत:
अपना हर पल
है हिन्दीमय
*
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.
घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.
ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...
*
हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.
जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?
इन जयचंदों
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...
*
ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में
माने जाते.
कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...
*
अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी
भाषा में मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.
देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...
*
अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.
हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...
१९-९-२०१०
***

रविवार, 17 सितंबर 2023

महाकाव्य तुलसी - सुनीता सिंह

पुरोवाक्
महाकाव्य तुलसी - सुनीता सिंह
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
विश्ववाणी हिंदी में इस समय विपुल साहित्य सृजन प्रति दिन हो रहा है। असंख्य रचनाकार अहर्निश विविध विधाओं में निरंतर लेखन कर रहे हैं। निश्चय ही काल-प्रवाह में इसमें से ९९% शीघ्र ही विलुप्त हो जाएगा। जो १ % लेखन शेष रहने की आशा की जा सकती है वह वही होगा जो व्यष्टि पर समष्टि को वरीयता देते हुए सत-शिव-सुंदर की स्थापनाकर क्षणभंगुर जीव को सनातन सत्-चित्-आनंद की प्राप्ति में सहायक होगा। समयाभाव के इस समय में हिंदी में महाकाव्य लेखन परंपरा का न केवल जीवित रहना अपितु अनवरत संपन्न-समृद्ध होते जाना प्रमाणित करता है कि उदात्तता, श्रेष्ठता और अलौकिकता को साध्य मानकर तदनुसार हो पाने की जिजीविषा नि:शेष नहीं हुई है। मानव सभ्यता के चिरजीवी होने में आदर्श के प्रति आकर्षित होने की इस आदिम वृत्ति का योगदान अचीन्हा किंतु अप्रतिम है। इस अनुकरणीय प्रवृत्ति की युवा प्रतिनिधि हैं सुनीता सिंह जो महाकवि ही नहीं युग प्रवर्तक संत तुलसीदास पर महाकाव्य का सृजनकर अपनी असाधारण लेखन सामर्थ्य को प्रस्तुत या प्रमाणित ही नहीं प्रतिष्ठित भी कर पा रही हैं। गुरुतर प्रशासकीय दायित्व का दक्षता के साथ निर्वहन करते हुए, भारतीय परिवार की गृहलक्ष्मी की बहुआयामी भूमिका को निपुणता के साथ जीते हुए सुनीता जी रुक्षता और मृदुता के कठोर-मृदुल दायित्वों को सहजता के साथ जीकर सच्ची सारस्वत साधना को विविध विधाओं में सतत सृजन कर साकार कर पाती हैं। यह असाधारण प्रतिभा, परिश्रम, लगन और समर्पण के बिना संभव नहीं हो सकता।  

महाकाव्य - क्या और क्यों?

महाकाव्य किसी असाधारण व्यक्तित्व के कालजयी अवदान का ऐसा आकलन है जिसमें नायक के व्यक्तित्व-कृतित्व का नीर-क्षीर विवेचन करते हुए नवाचारी दृष्टि रही हो। महाकाव्य में पिष्टपेषण के लिए स्थान नहीं होता। महाकाव्यकार को तर्क की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरी नवता का वरण करना होता है। यही दुष्कर है। महाकाव्य का नायक ख्यात, आदरेय, महाकाव्यकार की श्रद्धा का पात्र होता है तभी तो उसका चयन किया जाता है। अपने श्रद्धेय के व्यक्तित्व-कृतित्व का समालोचकीय दृष्टि से निरीक्षण-परीक्षण करना और तब नवल प्रतिमानों पर उसकी उत्तमता प्रतिपादित कर पाना गहन अध्ययन-मनन-चिंतन पश्चात ही संभव हो पाता है। 

भविष्य को प्रभावित करनेवाले किसी व्यक्तित्व या घटना का श्रेष्ठ काव्य शास्त्र के मानकों पर नवल मौलिक अवधारणा प्रतिपादित करते हुए सांगोपांग विवेचन करती कृति ही महाकाव्य है। महाकाव्य का आकार बड़ा होना आवश्यक नहीं है। महाकाव्य लेखन में अंतर्निहित दृष्टि का व्यापक होना आवश्यक है। महाकाव्य वह श्रेष्ठ काव्यकृति है जिससे असंख्य जनमानस दीर्घकाल तक गहन प्रभावित रहे। महाकाव्य में यथार्थ और कल्पना का स्वाभाविक मिश्रण होता है जो सहज ही जन सामान्य को स्वीकार्य हो सके। 

महाकाव्य लेखन का उद्देश्य 'कल' (गत) का मूल्यांकन आज करते हुए 'कल' (आगत) के लिए अनुकरणीय नायक (व्यक्ति, घटना, जीव आदि) के माध्यम से उचित-अनुचित आचरण का विश्लेषणकर आदर्श का प्रतिपादन करना है ताकि भविष्य बेहतर हो सके। 

महाकाव्य के लक्षण   

अग्नि पुराण के अनुसार 'सर्गबंधो महाकाव्यं ' अर्थात महाकाव्य सर्गबंध होता है। 

साहित्यदर्पणकार संस्कृत आचार्य विश्वनाथ के अनुसार सर्ग निबंधन, धीरोदात्त नायक, एक रस की प्रधानता, नाटक संधियाँ, ऐतिहासिक कथा, एक चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) का प्रतिपादन, अष्टाधिक सर्ग, आदि  महाकाव्य के लक्षण हैं। आरम्भ में नमस्कार, आशीर्वाद, वर्ण्यवस्तुनिर्देश, खल-निंदा या सज्जन माहात्म्य अभीष्ट है। हर सर्ग में से एक मुख्य छंद, सर्गांत में छंद-परिवर्तन व आगामी कथा-सूचना, प्रकृति, वातावरण, रस, भाव आदि  होना चाहिए (परिच्छेद 6,315-324)।

आचार्य भामह ने आलंकारिक शिष्ट नागर भाषा को महाकाव्य हेतु उपयुक्त कहा है। महाकाव्य की शैली नानावर्णन क्षमा, विस्तारगर्भा, श्रव्य वृत्तों से अलंकृत, महाप्राण होनी चाहिए।

महाकाव्य के सम्बन्ध में पश्चिमी मत

महाकाव्य के जिन लक्षणों का निरूपण भारतीय आचार्यों ने किया, शब्दभेद से उन्हीं से मिलती-जुलती विशेषताओं का उल्लेख पश्चिम के आचार्यों ने भी किया है। अरस्तू ने त्रासदी (ट्रेजेडी) से महाकाव्य की तुलना करते हुए कहा है कि "गीत एवं दृश्यविघान के अतिरिक्त (महाकाव्य और त्रासदी) दोनों के अंग भी समान ही हैं।" अर्थात् महाकाव्य के मूल तत्त्व चार हैं - कथावस्तु, चरित्र, विचारतत्व और पदावली (भाषा)।
कथावस्तु

कथावस्तु के संबंध में उनका मत है कि(1) महाकाव्य की कथावस्तु एक ओर शुद्ध ऐतिहासिक यथार्थ से भिन्न होती है ओर दूसरी ओर सर्वथा काल्पनिक भी नहीं होती। वह प्रख्यात (जातीय दंतकथाओं पर आश्रित) होनी चाहिए और उसमें यथार्थ से भव्यतर जीवन का अंकन होना चाहिए।(2) उसका आयाम विस्तृत होना चाहिए जिसके अंतर्गत विविध उपाख्यानों का समावेश हो सके। "उसमें अपनी सीमाओं का विस्तार करने की बड़ी क्षमता होती है" क्योंकि त्रासदी की भांति वह रंगमंच की देशकाल संबंधी सीमाओं में परिबद्ध नहीं होता। उसमें अनेक घटनाओं का सहज समावेश हो सकता है जिससे एक ओर काव्य को घनत्व और गरिमा प्राप्त होती है और दूसरी ओर अनेक उपाख्यानों के नियोजन के कारण रोचक वैविध्य उत्पन्न हो जाता है।(3) किंतु कथानक का यह विस्तार अनियंत्रित नहीं होना चाहिए। उसमें एक ही कार्य होना चाहिए जो आदि मध्य अवसान से युक्त एवं स्वत: पूर्ण हो। समस्त उपाख्यान इसी प्रमुख कार्य के साथ संबंद्ध और इस प्रकार से गुंफित हों कि उनका परिणाम एक ही हो।(4) इसके अतिरिक्त त्रासदी के वस्तुसंगठन के अन्य गुण -- पूर्वापरक्रम, संभाव्यता तथा कुतूहल—भी महाकाव्य में यथावत् विद्यमान रहते हैं। उसकी परिधि में अद्भुत एवं अतिप्राकृत तत्त्व के लिये अधिक अवकाश रहता है और कुतूहल की संभावना भी महाकाव्य में अपेक्षाकृत अधिक रहती है। कथानक के सभी कुतूहलवर्धक अंग, जैसे स्थितिविपर्यय, अभिज्ञान, संवृति और विवृति, महाकाव्य का भी उत्कर्ष करते हैं।
पात्र

महाकाव्य के पात्रों के सम्बंध में अरस्तू ने केवल इतना कहा है कि "महाकाव्य और त्रासदी में यह समानता है कि उसमें भी उच्चतर कोटि के पात्रों की पद्यबद्ध अनुकृति रहती है।" त्रासदी के पात्रों से समानता के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं कि महाकाव्य के पात्र भी प्राय: त्रासदी के समान - भद्र, वैभवशाली, कुलीन और यशस्वी होने चाहिए। रुद्रट के अनुसार महाकाव्य में प्रतिनायक और उसके कुल का भी वर्णन होता है।
प्रयोजन और प्रभाव

अरस्तू के अनुसार महाकाव्य का प्रभाव और प्रयोजन भी त्रासदी के समान होना चाहिए, अर्थात् मनोवेगों का विरेचन, उसका प्रयोजन और तज्जन्य मन:शांति उसका प्रभाव होना चाहिए। यह प्रभाव नैतिक अथवा रागात्मक अथवा दोनों प्रकार का हो सकता है।
भाषा, शैली और छंद

अरस्तू के शब्दों में महाकाव्य की शैली का भी "पूर्ण उत्कर्ष यह है कि वह प्रसन्न (प्रसादगुण युक्त) हो किंतु क्षुद्र न हो।" अर्थात् गरिमा तथा प्रसादगुण महाकाव्य की शैली के मूल तत्त्व हैं और गरिमा का आधार है असाधारणता। उनके मतानुसार महाकाव्य की भाषाशैली त्रासदी की करुणमधुर अलंकृत शैली से भिन्न, लोकातिक्रांत प्रयोगों से कलात्मक, उदात्त एवं गरिमावरिष्ठ होनी चाहिए।

महाकाव्य की रचना के लिये वे आदि से अंत तक एक ही छंद - वीर छंद - के प्रयोग पर बल देते हैं क्योंकि उसका रूप अन्य वृत्तों की अपेक्षा अधिक भव्य एवं गरिमामय होता है जिसमें अप्रचलित एवं लाक्षणिक शब्द बड़ी सरलता से अंतर्भुक्त हो जाते हैं। परवर्ती विद्वानों ने भी महाकाव्य के विभिन्न तत्वों के संदर्भ में उन्हीं विशेषताओं का पुनराख्यान किया है जिनका उल्लेख आचार्य अरस्तू कर चुके थे। वीरकाव्य (महाकाव्य) का आधार सभी ने जातीय गौरव की पुराकथाओं को स्वीकार किया है। जॉन हेरिंगटन वीरकाव्य के लिये ऐतिहासिक आधारभूमि की आवश्यकता पर बल देते हैं और स्पेंसर वीरकाव्य के लिये वैभव और गरिमा को आधारभूत तत्त्व मानते हैं। फ्रांस के कवि आलोचकों पैलेतिए, वोकलें और रोनसार आदि ने भी महाकाव्य की कथावस्तु को सर्वाधिक गरिमायम, भव्य और उदात्त करते हुए उसके अंतर्गत ऐसे वातावरण के निर्माण का आग्रह किया है जो क्षुद्र घटनाओं से मुक्त एवं भव्य हो।

हिंदी के महाकाव्य 

1. चंदबरदाईकृत पृथ्वीराज रासो को हिंदी का प्रथम महाकाव्य कहा जाता है।
2. मलिक मुहम्मद जायसी - पद्मावत
3. तुलसीदास - रामचरितमानस
4. आचार्य केशवदास - रामचंद्रिका
5. मैथिलीशरण गुप्त - साकेत
6. अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' - प्रियप्रवास
7. द्वारका प्रसाद मिश्र - कृष्णायन
8. जयशंकर प्रसाद - कामायनी
9. रामधारी सिंह 'दिनकर' - उर्वशी
10. रामकुमार वर्मा - एकलव्य
11. बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' - उर्मिला
12. गुरुभक्त सिंह - नूरजहां, विक्रमादित्य
13. अनूप शर्मा - सिद्धार्थ, वर्द्धमान
14. रामानंद तिवारी - पार्वती
15. गिरिजा दत्त शुक्ल 'गिरीश' - तारक वध
16. नन्दलाल सिंह 'कांतिपति' - श्रीमान मानव की विकास यात्रा