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मंगलवार, 18 अप्रैल 2023

नारी

नारी से पीड़ित है नारी 
स्मिता बाजपेयी 
*
आजादी के बहुत बहुत पहले गुलाम भारत के गुलामी के दिनों की यह कहानी है। सत्य घटना है! कल्पना का घालमेल लेशमात्र भी नहीं ।
••••••••
तो जिन दिनों अधन्नी में झोला भर सामान आ जाता था, जिन दिनों किसी पुरुष के देह पर नीचे धोती ऊपर मिर्जई (कुर्ता )भले ही चीकट ही हो। उसके होने मात्र से उसे चंपारण में बड़े आदमी का दर्जा प्राप्त हो जाता था। जिन दिनों ज्यादातर पुरुषों -महिलाओं के पैरों में जूते- चप्पल, खड़ाउंँ नहीं होते थे, जिन दिनों स्त्रियों पुरुषों के वस्त्रों का रंग ज्यादातर एक ही होता था -मटमैला धूसर ! जिन दिनों दूसरे वर्ग विशेष के लोगों में साफ - सफाई के लिए साबुन- सर्फ जैसी चीजें अय्याशी मानी जाती थीं।

जाड़े में लगातार महीनों नहीं नहाने और एक ही कपड़ा पहने रहने से मिर्जई, भगई (अधोवस्त्र -धोती, लंगोट जैसा कुछ भी ) में चीलर पड़ जाया करते थे। (चीलर -कपड़े का जूँ जैसा कीड़ा) उन चिलरों को सम भाव से अपना खून पिलाकर यह महान आत्माएं धूप में मिर्जई को उल्टा कर, सुखाकर उसे बैक्टीरिया रहित मानते हुए, मस्त होकर बच्चों से गीत सुनते थे...मुस्काते हुए-

छनन मनन पुआ पाकेला
चिल्लर खोईंचा नाचेला
चिलरा गयिल खेत खरिहान
ले आईल बसमतिया धान

और जिन दिनों समाज के तीन वर्गों में उच्च वर्ग को छोड़कर मध्यम और श्रमिक वर्ग में देखने से कोई खास अंतर नहीं दिखता था। यह वर्ग वैषम्य 'मानने' भर से होता था बस!

यह उन्हीं दिनों की बात है ..

जब ब्राह्मणों में शादियांँ सिर्फ और सिर्फ उच्च गोत्र देखकर हुआ करती थीं। ज्यादातर उच्च गोत्री कुलीन ब्राह्मण कर्मकांडी, वेद पाठी कहलाते थे। वैसा ही कुछ करते थे। कथा पूजा से जो मिल जाता था उसी में संतोख (संतोष) से रहते थे। खेती या कहीं और कोई पुरुषार्थ करना उनके लिए हेय था। जन्मना ब्राम्हण, उच्च गोत्री ब्राह्मण पुत्र आराम से कोई अमल (व्यसन- खैनी, सुर्ती )करते हुए किसी पेड़ की छांँव में पैरों की कैंची बनाए, पेड़ से टिक कर बेमौसम मल्हार गाते हुए दान की बछिया चराते हुए विवाह योग्य हो जाया करते थे।

ऐसे ही एक उच्च गोत्री पंडित जी के द्वितीय पुत्र का विवाह पास के तीन गांँव बाद वाले गांँव की कन्या से हुआ। धूमधाम क्या होनी थी। गाजा बाजा तो वैसे भी खर्चीलाा मामला था। साहिब लोग साजते थे बरियात। तो यहां से दस, बारह आदमी धोया - फींचा धोती मिर्जई पर गमछा डाले बर(वर) बाबू के साथ गए और वह ओहर से पीयरी पहने, चिउरा कसार के दउरा के साथ कनीया ( कन्या) को गौना कराके ले आए।

घर में सास- ससुर, जेठ- जेठानी थे। सास किसी नामी जिमेदार(जमींदार) की बेटी थीं- बहुत अनुशासित!

जेठानी ने कोहबर में ही हाथबोरउआ (एक रस्म ) का रसियाव (गुड़ की खीर) रोटी खिलाते हुये नवकी दुलहिन को अपनी हथेली का काला दाग दिखाते हुए सास का अनुशासन बता दिया था कि कैसे सात बरस की छोटकी ननद से अपने साथ आए मिठाई में से मांग लिया था। उसकी बारह बरस की जेठानी का इस तरह हाथ पसारना कितना बुरा लगा था कि सास ने उससे पूछ लिया था-

-"मिठाई मंगले ह ? (मिठाई माँगा है?)

- " जी"

- "गोदउरी पसार के ? ( हथेली पसार के)

- " जी"

वह तुरंत मुड़ी और वापस आईं चौका में से जलता अंगार लिए चिमटा में और कहा

" पसार त गदूरी" और उसके बाद ..

"कनिया, हमरा अन्हार हो गयील ..जोन्ही फुला गयील रहे आँख में "

जेठ की उस तपती दुपहरी में, उस फूस भीत के, माटी की डेहरी वाली कोठरी में जेठानी की यह बात सुनकर, हथेली देखकर नवकी दुलहिन की पियरी भींज गई लोर आ पसीना से। तब नवकी कनिया (बहू) तेरह बरस की थी..

सावन में बिना माई- बाप वाली नवकी दुलहिन के एक अकेले भाई सावनी लेकर आये। उनका गोड़ ध के रोने लगी कनिया। भीतर से आवाज सुनकर माई जी आईं, पूछा रोने का कारण। भाई ने कहा विदा कर दीजिए अगले आषाढ़ से पहले फिर पहुंँचा देंगे बहीन को ।

कनिया को भीतर भेजकर माई जी ने अपनी वाणी से भाई की आरती उतारी और बिना पानी पत्तर के वापस भेज दिया। भीतर आकर नवकी कनिया को कोला की तरफ यानी पिछवाड़े की तरफ खुलने वाले ओसारा में उसके पैरों में बेड़ी ठोक दी-" नईहर जईबू ?"

पंडित जी कोई विरोध नहीं कर सके। यद्यपि पुरुष प्रधान समाज तब भी था पर घर का भोजन बस्तर पंडित जी के जजमनका से पूरा नहीं हो पाता था। उनकी ससुराल से आती थी मदद सो सत्ता जमींदार के बेटी के हाथ में थी।

बेड़ी में ठोकी नवकी दुलहिन से कोई बोल बतिया नहीं सकता था। उन्हें एक मिट्टी की परई दी गई थी। (परई- थाली नुमा चौड़ा मिट्टी का बर्तन) उन्हें उसी में एक समय बचा हुआ दाल- भात , माड़ - भात ,नून- भात डाल जाती थी कलौतिया की माई। खा लेने पर उसी में लोटे से पानी गिरा देती थी जो कनिया पी लेती थी। दिशा जंगल के लिए भी कलौतिया की माई ही आती थी माटी का पतुकी लिए। उन्हें उसके लिए भी नहीं खोला जाता था। बेड़ी का सिक्कड़ (लोहे की जंजीर) वहीं पास के ढेंकी के खूंटे से बांधा गया था।

बरखा बुन्नी का दिन था। ओसारे के ऊपर का फूस भी फरकोर (अलग-अलग) था। एक समय भोजन, एक ही जगह बंधी बेड़ी में और ऊपर से बारिश का पानी-बौछार कनिया बेराम यानी बीमार हो गयी।

कुछ दिनों बाद ये बात भाई को बता दी किसी गोतिया दयाद (खानदान )वाले ने। भाई आया ।गांँव के सीवान (सीमा )के बहुत दूर ही अपना घोड़ा बांध आया किसी के घर में छुपा के। इस गांव आया और छुप के रहा इन्हीं गोतिया दयाद के यहां चार दिन। कलौतिया की माई से सौदा किया पाँच रुपये में । पाँच रुपया !!

तब, जब अधन्नी में झोला भर सामान छहक( ओवरफ्लो ) जाता था।

एक पहर रात बीते दबे पांँव भाई आया। कलौतिया की माई के साथ। उसने ओसारा के बाहर वाली जीर्ण- शीर्ण टाटी ( छप्पर की दीवाल) को बीचो-बीच फाड़ दिया। बेड़ी खोल दी ।"भागीं बहुरिया!" (भागो बहू )

मगर महीनों से भूखी, बुखार में तपी देह हिली भी नहीं। भीतर कुछ आवाज आई तो कलौतिया की माई ने नवकी दुलहिन को पैरों से घसीटते हुए टाटी के बाहर कर दिया।

भाई ने तारों की रोशनी में बहन को देखा। पहचान नहीं पाया।

" भाग बबी ,हम तोर भईया!" (भाग गुड़िया, बहन मैं तुम्हारा भाई)

बहन ने रिरियाती आवाज में कहा- परनाम!

कोशिश की, पर खड़ी नहीं हो पा रही थी। भाई ने सहारे से खड़ा किया मगर वह धप्प से वहीं गिर गयी। समय कम था। कलौतिया की माई की सहायता से भाई ने बहन को गमछी से बाँध लिया और उस अँधेरी बरसाती रात में लगभग दौड़ते हुए गांव से दो कोस आगे तक भागता रहा..
घोड़ा जहांँ  बँधा था वह गांँव नदी के पार था और नदी की धार अपने दोनों पाटो पर ( किनारों पर) बराबर चल रही थी।

बहन को लिए-लिए ही भाई ने नदी पार किया तैरते हुये। घोड़े के पास पहुंचने तक दो पहर रात हो गई थी। बारिश अलग हो रही थी झमाझम। पर अब अपना गाँव नजदीक है, कहते हुए जब उसने बहन को उतारा पीठ से तो जैसे बिजली चमक के उसी पर गिरी। यह क्या! भाई ने बिजली के अंजोर में (उजाले में) देखा- बहन के सारे बाल खोप्पा सहित ही सिर से उतर गए हैं। मगर यह रोने का समय नहीं था ..

घोड़े पर बहन को लिए दिए भाई आखिर रात के तीसरे पहर अपने घर के पिछवाड़े पहुंच गया। उस खपरैल के पीछे का कोला बारी की ओर से बहन को भीतर किया। भऊजी ने ननद को ढिबरी के लौ में देख जैसे ही मुँह खोला कि भाई ने बढ़ के मुँह दबा दिया पत्नी का "अब्बे ना, दम धरा !"

फिर त्वरित गति से भौजाई ने अपनी इस रोगिणी, दुखियारी ननद को नहलाया। नई साड़ी पहनाई, नई चूड़ियाँ  पहनाईं, पैर में अपनी पाजेब पहना दिया अलता लगाया। उस गंजे सिर में पीला सिंदूर किया। माथे पर लाल टिकुली साट के ऊपर से पीला सिंदूर का बुन्ना (बिंदी) किया। साड़ी के अँचरा में खोईंचा भर के बांँध दिया। भाई ने तब तक दउरा में चिउरा और नदिया (मिट्टी का दही जमाने वाला बर्तन) का दही रखकर उसे कपड़े से बाँधकर बाहर के ओसारे में रख दिया।

भाई भोज-भौजाई दोनों ने मिलकर फिर बहन को सहारा दे कर घर के भीतर मोढ़ा पर बिठाया और तब भउजी ने ननद को भेंट कर रोना शुरू किया। ननद रिरियाती आवाज में और भउजी तेज आवाज में। एक दूसरे को अंँकवार भर के गर भेंटती रहीं। रोती रहीं ननद भउजाई ..
भाई ने भोर में उठने वाले गांँव वालों को बताया कि -"बहिन के बिदा करा ले अईनी हँ, बेराम रहे। एहीजा भउजी ओकरा के देख भाल क लीहें" (बहन को विदा करा लाया हूँ । बीमार थी। यहांयहाँ उसकी भाभी उसकी देखभाल कर लेगी।)

दहला देने वाले ऐसे न जाने‌ कितने ही जीवन प्रसंग बचपन से सुनती आ रही हूँ। ये तथाकथित सम्मानजनक घरानों के सच्चे किस्से हैं, जिसकी पृष्ठभूमि में स्त्रियों के घुट कर खत्म हो गये जीवन की लंबी और त्रासद दास्तान दर्ज है।
आभार - कोरा 

सोमवार, 17 अप्रैल 2023

सॉनेट, भजन, नवगीत, मुक्तिका, चामर छंद, रेवा, मोहिनी अग्रवाल, मुक्तक

 


सॉनेट

कौन?
कौन है तू?, कौन जाने?
किसी ने तुझको न देखा।
कहीं तेरा नहीं लेखा।।
जो सुने जग सत्य माने।।
देह में है कौन रहता?
ज्ञात है क्या कुछ किसी को?
ईश कहते क्या इसी को?
श्वास में क्या वही बहता?
कौन है जो कुछ न बोले
उड़ सके पर बिना खोले
जगद्गुरु है आप भोले।।
कौन जो हर चित्र में है?
गुप्त वह हर मित्र में है।
बन सुरभि हर इत्र में है।।
१७-४-२०२२
•••
भजन
*
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
तू सर्वज्ञ व्याप्त कण-कण में
कोई न तुझको जाने।
अनजाने ही सारी दुनिया
इष्ट तुझी को माने।
तेरी दया दृष्टि का पाया
कहीं न पारावार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
हर दीपक में ज्योति तिहारी
हरती है अँधियारा।
कलुष-पतंगा जल-जल जाता
पा मन में उजियारा।
आये कहाँ से? जाएँ कहाँ हम?
जानें, हो उद्धार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
कण-कण में है बिम्ब तिहारा
चित्र गुप्त अनदेखा।
मूरत गढ़ते सच जाने बिन
खींच भेद की रेखा।
निराकार तुम,पूज रहा जग
कह तुझको साकार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
***
नवगीत:
बहुत समझ लो
सच, बतलाया
थोड़ा है
.
मार-मार
मनचाहा बुलावा लेते हो.
अजब-गजब
मनचाहा सच कह देते हो.
काम करो,
मत करो, तुम्हारी मर्जी है-
नजराना
हक, छीन-झपट ले लेते हो.
पीर बहुत है
दर्द दिखाया
थोड़ा है
.
सार-सार
गह लेते, थोथा देते हो.
स्वार्थ-सियासत में
हँस नैया खेते हो.
चोर-चोर
मौसेरे भाई संसद में-
खाई पटकनी
लेकिन तनिक न चेते हो.
धैर्य बहुत है
वैर्य दिखाया
थोड़ा है
.
भूमि छीन
तुम इसे सुधार बताते हो.
काला धन
लाने से अब कतराते हो.
आपस में
संतानों के तुम ब्याह करो-
जन-हित को
मिलकर ठेंगा दिखलाते हो.
धक्का तुमको
अभी लगाया
थोड़ा है

***

विरासत :

कोरोना काल में आराम करने के फायदे जानिए हास्यावतार गोपाल प्रसाद व्यास से
* जन्म १३ फ़रवरी १९१५
* निधन २८ मई २००५
*जन्म स्थान महमदपुर, जिला मथुरा, उ. प्र ।
विविध शलाका सम्मान से सम्मानित।
कविता
* आराम करो , आराम करो *
एक मित्र बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छटांक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो
क्या रक्खा माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।
आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है
आराम सुधा की एक बूँद, तन का दुबलापन खोती है
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।
यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ, है मज़ा मूर्ख कहलाने में
जीवन-जागृति में क्या रक्खा, जो रक्खा है सो जाने में।
मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ
दीप जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ
मेरी गीता में लिखा हुआ, सच्चे योगी जो होते हैं
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।
अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।
मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।

मुक्तिका
*
कबिरा जो देखे कहे
नदी नरमदा सम बहे
जो पाये वह बाँट दे
रमा राम में ही रहे
घरवाली का क्रोध भी
बोल न कुछ हँसकर सहे
देख पराई चूपड़ी
कभी नहीं किंचित् दहे
पल की खबर न है जरा
कल के लिये न कुछ गहे
राम नाम ओढ़े-बिछा
राम नाम चादर तहे
न तो उछलता हर्ष से
और न गम से घिर ढहे

*

मुक्तक

*
है प्राची स्वर्णाभित हे राधेमाधव
दस दिश कलरव गुंजित है राधेमाधव
कोविद का अभिशाप बना वरदान 'सलिल'
देश शांत अनुशासित है राधेमाधव
*
तबलीगी जमात मजलिस को बैन करो
आँखें रहते देखो बंद न नैन करो
जो कानून तोड़ते उनको मरने दो
मत इलाज दो, जीवन काली रैन करो
*
मतभेदों को सब हँसकर स्वीकार करें
मनभेदों की ध्वस्त हरेक दीवार करें
ये जय जय वे हाय हाय अब बंद करें
देश सभी का, सब इसके उद्धार करें
*
जीवन कैसे जिएँ मिला अधिकार हमें
हानि न औरों को हो पथ स्वीकार हमें
जो न चिकित्सा चाहें, वे सब साथ रहें
नहीं शेष से मिलें, न दें दीदार हमें
*
कोरोना कम; ज्यादा घातक मानव बम
सोच प्रदूषित ये सारे हैं दानव बम
बिन इलाज रह, आएँ-जाएँ कहीं नहीं
मर जाएँ तो जला, कहो बम बम बम बम
१७-४-२०२०
***
नव गीत
आओ भौंकें
*
आओ भौंकें
लोकतंत्र का महापर्व है
हमको खुद पर बहुत गर्व है
चूक न जाए अवसर भौंकें
आओ भौंकें
*
क्यों सोचें क्या कहाँ ठीक है?
गलत बनाई यार लीक है
पान मान का नहीं सुहाता
दुर्वचनों का अधर-पीक है
मतलब तज, बेमतलब टोंकें
आओ भौंकें
*
दो दूनी हम चार न मानें
तीन-पाँच की छेड़ें तानें
गाली सुभाषितों सी भाए
बैर अकल से पल-पल ठानें
देख श्वान भी डरकर चौंकें
आओ भौंकें
*
बिल्ला काट रास्ता जाए
हमको नानी याद कराए
गुंडों के सम्मुख नतमस्तक
हमें न नियम-कायदे भाए
दुश्मन देखें झट से पौंकें
आओ भौंकें
*
हम क्या जानें इज्जत देना
हमें सभ्यता से क्या लेना?
ईश्वर को भी बीच घसीटे-
पालेे हैं चमचों की सेना।
शिष्टाचार भाड़ में झौंकें
आओ भौंकें
१७-४-२०१९
*
इज्जत के सौदागर हैं हम
छंद बहर का मूल है: ५
चामर छंद
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS ISI SIS ISI SIS
सूत्र: रजरजर।
पन्द्रह वार्णिक अतिशर्करी जातीय चामर छंद।
तेईस मात्रिक रौद्राक जातीय छंद।
बहर: फ़ाइलुं मुफ़ाइलुं मुफ़ाइलुं मुफ़ाइलुं।
*
देश का सवाल है न राजनीति खेलिए
लोक को रहे न शोक लोकनीति कीजिए
*
भेद-भाव भूल स्नेह-प्रीत खूब बाँटिए
नेह नर्मदा नहा, न रीति-प्रीति भूलिए
*
नीर के बिना न जिंदगी बिता सको कभी
साफ़ हों नदी-कुएँ सभी प्रयास कीजिए
*
घूस का न कायदा, न फायदा उठाइये
काम-काज जो करें, न वक्त आप चूकिए
*
ज्यादती न कीजिए, न ज्यादती सहें कभी
कामयाब हों, प्रयास बार-बार कीजिए
*
पीढ़ियाँ न एक सी रहीं, न हो सकें कभी
हाथ थाम लें गले लगा, न आप जूझिए
*
घालमेल छोड़, ताल-मेल से रहें सुखी
सौख्य पालिए, न राग-द्वेष आप घोलिए
*
१७.४.२०१७
***
***
रेवा मैया
*
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
जग-जीवन की नाव खिवैया
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
भाव सागर से पार लगैया
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
रोग-शोक भव-बाधा टारें
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
सब जनगण मिल जय उच्चारें
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
अमृत जल है जीवनदाता
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
पुण्य अनंत भक्त पा जाता
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
ब्रम्हा-शिव-हरि तव गुण गायें
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
संत असुर सुर नर तर जाएँ
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
विन्ध्य, सतपुड़ा, मेकल हर्षित
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
निंगादेव हुए जन पूजित
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
नरसिंह कनककशिपु संहारे
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
परशुराम ने क्षत्रिय मारे
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
राम-सिया तव तीरे आये
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
हनुमत-जामवंत मिल पाए
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
बाणासुर ने रावण पकड़ा
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
काराग्रह में जमकर जकड़ा
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
पांडवगण वनवास बिताएँ
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
गुप्तेश्वर के यश जन गायें
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
गौरी घाट तीर्थ अतिसुन्दर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
घाट लम्हेटा परम मनोहर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
तिलवारा बैठे तिल ईश्वर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
गौरी-गौरा भेड़े तप कर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
धुआंधार में कूद लगाई
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
चौंसठ योगिनी नाचें माई
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
संगमरमरी छटा सुहाई
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
नौकायन सुख-शांति प्रदाई
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
बंदर कूदनी कूदे हनुमत
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
महर्षि-ओशो पूजें विद्वत
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
कलकल लहर निनाद मनोहर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
हो संजीव हरो विपदा हर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
१७-४-२०१७
***
कृति परिचय:
आधुनिक अर्थशास्त्र: एक बहुउपयोगी कृति
चर्चाकार- डॉ. साधना वर्मा
सहायक प्रध्यापक अर्थशास्त्र
शासकीय महाकौसल स्वशासी अर्थ-वाणिज्य महाविद्यालय जबलपुर
*
[कृति विवरण: आधुनिक अर्थशास्त्र, डॉ. मोहिनी अग्रवाल, अकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द, लेमिनेटेड, जेकेट सहित, पृष्ठ २१५, मूल्य ५५०/-, कृतिकार संपर्क: एसो. प्रोफेसर, अर्थशास्त्र विभाग, महिला महाविद्यालय, किदवई नगर कानपुर, रौशनी पब्लिकेशन ११०/१३८ मिश्र पैलेस, जवाहर नगर कानपूर २०८०१२ ISBN ९७८-९३-८३४००-९-६]
अर्थशास्त्र मानव मानव के सामान्य दैनंदिन जीवन के अभिन्न क्रिया-कलापों से जुड़ा विषय है. व्यक्ति, देश, समाज तथा विश्व हर स्तर पर आर्थिक क्रियाओं की निरन्तरता बनी रहती है. यह भी कह सकते हैं कि अर्थशास्त्र जिंदगी का शास्त्र है क्योंकि जन्म से मरण तक हर पल जीव किसी न किसी आर्थिक क्रिया से संलग्न अथवा उसमें निमग्न रहा आता है. संभवतः इसीलिए अर्थशास्त्र सर्वाधिक लोकप्रिय विषय है. कला-वाणिज्य संकायों में अर्थशास्त्र विषय का चयन करनेवाले विद्यार्थी सर्वाधिक तथा अनुत्तीर्ण होनेवाले न्यूनतम होते हैं. कला महाविद्यालयों की कल्पना अर्थशास्त्र विभाग के बिना करना कठिन है. यही नहीं अर्थशास्त्र विषय प्रतियोगिता परीक्षाओं की दृष्टि से भी बहुत उपयोगी है. उच्च अंक प्रतिशत के लिये तथा साक्षात्कार में सफलता के लिए इसकी उपादेयता असिंदिग्ध है. देश के प्रशासनिक अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों में अनेक अर्थशास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं.
आधुनिक जीवन प्रणाली तथा शिक्षा प्रणाली के महत्वपूर्ण अंग उत्पादन, श्रम, पूँजी, कौशल, लगत, मूल्य विक्रय, पारिश्रमिक, माँग, पूर्ति, मुद्रा, बैंकिंग, वित्त, विनियोग, नियोजन, खपत आदि अर्थशास्त्र की पाठ्य सामग्री में समाहित होते हैं. इनका समुचित-सम्यक अध्ययन किये बिना परिवार, देश या विश्व की अर्थनीति नहीं बनाई जा सकती.
डॉ. मोहिनी अग्रवाल लिखित विवेच्य कृति 'आधुनिक अर्थशास्त्र' एस विषय के अध्यापकों, विद्यार्थियों तथा जनसामान्य हेतु सामान रूप से उपयोगी है. विषय बोध, सूक्ष्म अर्थशास्त्र, वृहद् अर्थशास्त्र, मूल्य निर्धारण के सिद्धांत, मजदूरी निर्धारण के सिद्धांत, मांग एवं पूर्ति तथा वित्त एवं विनियोग शीर्षक ७ अध्यायों में विभक्त यह करती विषय-वस्ती के साथ पूरी तरह न्याय करती है. लेखिका ने भारतीय तथा पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों के मताभिमतों की सरल-सुबोध हिंदी में व्याख्या करते हुए विषय की स्पष्ट विवेचना इस तरह की है कि प्राध्यापकों, शिक्षकों तथा विद्यार्थियों को विषय-वस्तु समझने में कठिनाई न हो.आमजीवन में प्रचलित सामान्य शब्दावली, छोटे-छोटे वाक्य, यथोचित उदाहरण, यथावश्यक व्याख्याएँ, इस कृति की विशेषता है. विषयानुकूल रेखाचित्र तथा सारणियाँ विषय-वास्तु को ग्रहणीय बनाते हैं.
विषय से संबंधित अधिनियमों के प्रावधानों, प्रमुख वाद-निर्णयों, दंड के प्रावधानों आदि की उपयोगी जानकारी ने इसे अधिक उपयोगी बनाया है. कृति के अंत में परिशिष्टों में शब्द सूची, सन्दर्भ ग्रन्थ सूचि तथा प्रमुख वाद प्रकरणों की सूची जोड़ी जा सकती तो पुस्तक को मानल स्वरुप मिल जाता. प्रख्यात अर्थशास्त्रियों के अभिमतों के साथ उनके चित्र तथा जन्म-निधन तिथियाँ देकर विद्यार्थियों की ज्ञानवृद्धि की जा सकती थी. संभवतः पृष्ठ संख्या तथा मूल्य वृद्धि की सम्भावना को देखते हुए यह सामग्री न जोड़ी जा सकी हो. पुस्तक का मूल्य विद्यार्थियों की दृष्टि से अधिक प्रतीत होता है. अत: अल्पमोली पेपरबैक संस्करण उपलब्ध कराया जाना चाहिए.
सारत: डॉ. मोहिनी अग्रवाल की यह कृति उपयोगी है तथा इस सारस्वत अनुष्ठान के लिए वे साधुवाद की पात्र हैं.
१७-४-२०१५
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मुक्तक
सूर्य छेडता उषा को हुई लाल बेहाल
क्रोधित भैया मेघ ने दंड दिया तत्काल
वसुधा माँ ने बताया पलटा चिर अनुराग-
गगन पिता ने छुड़ाया आ न जाए भूचाल
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वन काटे, पर्वत मिटा, भोग रहे अभिशाप
उफ़न-सूख नदिया कहे, बंद करो यह पाप
रूठे प्रभु केदार तो मनुज हुआ बेज़ार-
सुधर न पाया तो असह्य, होगा भू का ताप
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मोहन हो गोपाल भी, हे जसुदा के लाल!
तुम्हीं वेणुधर श्याम हो, बाल तुम्हीं जगपाल
कमलनयन श्यामलवदन, माखनचोर मुरार-
गिरिधर हो रणछोड़ भी, कृष्ण कान्ह इन्द्रारि।
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श्वास तुला है आस दण्डिका, दोनों पल्लों पर हैं श्याम
जड़ में वही समाये हैं जो खुद चैतन्य परम अभिराम
कंकर कंकर में शंकर वे, वे ही कण-कण में भगवान-
नयन मूँद, कर जोड़ कर 'सलिल', आत्मलीन हो नम्र प्रणाम
*
व्यथा--कथा यह है विचित्र हरि!, नहीं कथा सुन-समझ सके
इसीलिए तो नेता-अफसर सेठ-आमजन भटक रहे
स्वयं संतगण भी माया से मुक्त नहीं, कलिकाल-प्रभाव-
प्रभु से नहीं कहें तो कहिये व्यथा ह्रदय की कहाँ कहें?
१७-४-२०१४
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विमर्श
भारत में प्रजातंत्र, गणतंत्र और जनतंत्र की अवधारणा और शासन व्यवस्था वैदिक काल में भी थी. पश्चिम में यह बहुत बाद में विकसित हुई, वह भी आधी-अधूरी. पश्चिम की डेमोक्रेसी ग्रीस में 'डेमोस' आधारित शासन व्यवस्था की भौंडी नकल है, जो बिना डेमोस के बिना ही खड़ी की गई है.
१७-४-२०१०

महादेव प्रसाद 'सामी'

चलते-फिरते विश्वविद्यालय महादेव प्रसाद 'सामी' 


मन्वन्तर वर्मा 'मनु' 

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                   प्रोफेसर महादेव प्रसाद 'सामी' एक ऐसी शख्सियत का नाम जो आदमी के चोले में चलता-फिरता विश्वविद्यालय था। बीसवीं सदी के चंद चुनिंदा शायरों की फहरिस्त में सामी जी का नाम अव्वल हो सकता है। सामी साहब का जन्म बाबू देवीप्रसाद (सुपरिन्टेन्डेन्ट कमिश्नर ऑफिस लखनऊ) के घर में २० जुलाई १८९५ को कस्बा जैदपुर, हरदोई उत्तर प्रदेश में तथा निधन २ अक्टूबर १९७१ को जबलपुर मध्य प्रदेश में हुआ। वे गोमती और नर्मदा के बीच की ऐसी अदबी कड़ी थे जो शायरी को पूजा की तरह मुकद्द्स मानते थे। उनका एक मात्र दीवान 'कलामे सामी' उनके  इंतकाल के २ साल बाद साल १९७३ में अंजुमन तरक्किये उर्दू ने साया किया। इसका संपादन मशहूर शायर, वकील जनाब पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर' (मेयर जबलपुर) और भगवान दयाल डग ने किया। दीवान की शुरुआत में 'दो शब्द' लिखते हुए हिंदी-संस्कृत-अंग्रेजी के विद्वान् कृष्णायनकार द्वारका प्रसाद मिश्र (मुख्य मंत्री मध्य प्रदेश, कुलपति सागर विश्वविद्यालय) ने लिखा - 'प्रोफेसर सामी में काव्य प्रतिभा एवं आचार्यत्व का सुंदर समागम था। आजीवन आत्म प्रकाशन से दूर रहकर उनहोंने काव्य रचना की थी..... उनकी रचनाओं में उनके भाषा पर असाधारण अधिकार के साथ ही उनकी मौलिक सूझ-बूझ एवं हृदयानुभूति के भी दर्शन होते हैं। यत्र-तत्र उनके कलाम में दार्शनिकता की भी झलक है जो किसी भी भारतीय कवि के लिए, चाहे वह किसी भी भाषा का कवि हो सर्वथा स्वाभाविक है। ग़ज़लों के विषय प्राय: परंपरागतबपरंपरागत तो होते ही हैं फिर भी 'सामी' के काव्य में अनेक नवीन उद्भावनाएँ हैं। भाषा में अभिव्यंजन कौशल के साथ प्रवाह है और अर्थ गांभीर्य के साथ सरलता। कल्पना की उड़ान के साथ पार्थिव जीवन की सच्चाई उनके काव्य को उनकी निजी विशेषता प्रदान करती है।'

                   सामीजी ने शाने अवध कहे जानेवाले शहर लखनऊ में मैट्रिक तक उर्दू-फ़ारसी का अध्ययन किया। आपने स्वध्याय से दोनों भाषाओँ का इतना गहन एवं व्यापक ज्ञान अर्जित किया कि आपकी गिनती 'उस्तादों' में होने लगी। विद्यार्थी काल में पढ़ने के साथ साथ अपने ट्यूशन भी लीं। आपके विद्यार्थियों में मशहूर शायर जोश मलीहाबादी भी थे। जोश ने आपने शायरी कफ़न नहीं विज्ञान सीखा। वे ऐसी शख्सियत थे की सिर्फ मैट्रिक होते हुए भी सागर विश्वविद्यालय द्वारा विशेष अनुमति से  हितकारिणी सिटी कॉलेज जबलपुर में उर्दू-फ़ारसी' के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष बनाए गए। उर्दू अदब में 'उस्ताद परंपरा' है मगर सामी जी अपने उस्ताद आप ही थे। रायबरेली उत्तर प्रदेश निवासी मुंशी नर्मदा प्रसाद वर्मा (इंस्पेक्टररजिस्ट्रेशन विभाग जबलपुर) की पुत्री लक्ष्मी देवी के साथ ८ मई १९१८ को आपका विवाह संपन्न हुआ। १९२१ में आप नार्मल  स्कूल बिलासपुर में गणित तथा विज्ञान के शिक्षक होकर आए।  पहले साल में ही इनकी विद्वता, योगयता और कुशलता की धाक ऐसी जमी की आपको टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज जबलपुर में चुन लिया गया और आप ट्रेनिंग का २ वर्ष का कोर्स एक वर्ष में पूर्ण कर परीक्षा में अव्वल आए। आपको मॉडल हाई स्कूल जबलपुर में नियुक्त कर दिया गया। आप १९४० तक लगभग २० वर्ष मॉडल हाई स्कूल में ही रहे। विज्ञान और गणित पढ़ाने में आपका सानी नहीं था।  आपने शृंगारिक ग़ज़लों के साथ देश हुए समाज की गिरी हुई हालत को सुधारने के नज़रिए से नैतिकता और दार्शनिकता से भरपूर ग़ज़लें लिखकर नाम कमाया। इसके अलावा आपने अरबी-फ़ारसी व संस्कृत सीखकर उसके साहित्य का गहराई से अध्ययन किया। आप अपनी विद्वता  गणित, विज्ञान के अतिरिक्त अरबी-फ़ारसी-उर्दू  विषयों के लिए भी बोर्ड तथा विश्वविद्यालय की कमेटियों में परीक्षक बनाए जाते थे। वे अलस्सुबह उठाकर पढ़ना शुरू कर देते हुए देर रात तक पढ़ते-पढ़ाते रहते थे। उनके घर पर दिन भर किसी स्कूल की तरह पढ़नेवाले आते रहते। वे किसी को खाली हाथ लौटाते नहीं थे। 

                   खुद केवल मैट्रिक तक पढ़ाई करने के बाद भी वे बी.ए,. एम. ए. के विद्यार्थियों को गणित, विज्ञान, भौतिकी, उर्दू तथा फारसी आदि पढ़ाते थे। और तो और की बार खुद प्रफेसर आदि भी अपनी मुश्किलात आपसे हल कराते थे। हिंदी साहित्य और हिंदी साहित्यकारों को भी आपसे लगातार मदद मिलती रहती थी। आपने अपना एक भी दीवान साया नहीं कराया। पूछने पर कहते 'पढ़ने-पढ़ाने-सोचने से ही फुरसत नहीं मिलती'। आपके मार्गदर्शन में केशव प्रसाद पाठक ने उमर खय्याम के साहित्य का हिंदी अनुवाद किया। आपने पत्रिका प्रेमा के संपादक रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी' का  महाकवि अनीस और महाकवि ग़ालिब की टीका करने में मार्गदर्शन किया। आप हिंदी छंद शास्त्र के विद्वान् थे। सेठ गोविंददास और सुभद्रा कुमारी चौहान  आदि आपके प्रशंसक थे। 

                   भारत की लालफीताशाही की ताकत का पार नहीं है। सामी जी भी इसके शिकार हुए। एक तरफ जहाँ आपकी विद्वता की धाक पूरे प्रान्त में थी, दूसरी और १८ साल नौकरी करते हुए अपने पद और वेतन से ऊपर का काम करने पर भी आप को कोई पदोन्नति नहीं गई। गज़ब तो यह की १९४० में जबलपुर में पहला कॉलेज हितकारिणी सिटी कॉलेज स्थापित होने पर विश्वविद्यालय से विशेष अनुमति लेकर आपको उर्दू-फारसी का प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष बनाया गया, दूसरी और समय से पूर्व शालेय शिक्षा विभाग से सेवा निवृत्ति के कारन आपको पेंशन नहीं दी गई। उन्हें अपने घर का खर्च चलने के लिए ट्यूशन करनी पड़ी। तब बिजली नहीं थी। जमीन पर बैठकर लगातार झुककर पढ़ने के कारण आपकी कमर झुक गई और आप को लकड़ी का सहर लेना पड़ा। कॉलेज से आप १०७० में सेवा मुक्त हुए। अपनी खुद के संतान न होने पर भी आपने दिवंगत बड़े भाई के ३ पुत्रों तथा १ पुत्र की पूरी जिम्मेदारी उठाई। उन्हें पढ़ा-लिखकर, विवाहादि कराए। 

                   निरंतर कमजोर होती विवाह और परिवार संस्थाओं के इस संक्रमण काल में सामी जी का जीवन एक उदाहरण है की किस तरह अपना जीवन खुद की सुख-सुविधा तक सीमित ना रखकर सूर्य की तरह सबको प्रकाशित कार जिया जाता है। वैदुष्य, समर्पण, निष्ठा, मेधा, और वीतरागता के पर्याय महादेव प्रसाद सामी जी दर्शन शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, धर्म शास्त्र, तर्क शास्त्र, इतिहास आदि में अपनी विद्वत के लिए सर्वत्र समादृत थे। 
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संपर्क - ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१   
 























पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर'

 
कायस्थ कर्म नैपुण्यता के पर्याय 'नूर' चाचा 

प्रो. किरण श्रीवास्तव, रायपुर 


                  इतिहास में कायस्थ अपनी बहुमुखी प्रतिभा, कार्य कुशलता, विद्वता तथा समर्पण के पर्याय रहे हैं। कायस्थ वैशिष्ट्य के प्रतीक पुरुषों में मुझे नूर चाचा याद आते हैं। मेरे पिताश्री स्मृतिशेष राजबहादुर वर्मा जी जेल अधीक्षक को जिन कुछ लोगों को ह्रदय से आदर देते देखा उनमें नूर चाचा अग्रगण्य थे। नूर चाचा जब आते तो पहली बार मिलनेवालों पर उनका व्यक्तित्व अपनी छाप छोड़ता। गोरे, छरहरे, लंबे, सौम्य और शालीन पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर' को पिताजी अग्रज मानते थे, चूँकि वे मेरे ताऊजी स्मृतिशेष धर्म नारायण वर्मा, आयकर वकील के निकटतम मित्रों में थे।  

                  नूर चाचा का जन्म ५ दिसंबर १९१५ को हुआ था। उनके पिताश्री का नाम श्री गया प्रसाद श्रीवास्तव था। उनहोंने बी.ए., एल-एल.बी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं तथा वकालत को आजीविका का साधन बनाया। वे १९६४ में हितकारिणी विधि महाविद्यालय के प्राचार्य बनाए गए और लंबे समय तक उनहोंने महाविद्यालय को अग्रिम पंक्ति में बनाए रखा। उनकी अभिरुचि साहित्य सृजन और समाज सेवा के क्षेत्र में भी थी। १९६४ में ही वे महापौर निर्वाचित हुए। नूर साहब प्रजा समाजवादी पार्टी (पीएसपी) के समर्पित कार्यकर्ता थे। वर्ष १९५२ से  वर्ष १९७७  तक वे नगर निगम के सदस्य रहे। पीएसपी की ओर से नूर साहब जबलपुर नगर निगम में वर्ष १९६४ में महापौर के रूप में चुने गए। उनके महापौर कार्यकाल में जबलपुर में साह‍ित्यि‍क व सांस्कृतिक वातावरण का विस्तार हुआ। नूर जी ने जबलपुर में आल इंड‍िया मुशायरा की शुरूआत करवाई। उर्दू में उनकी महारत को देखते हुए उन्हें मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी के गठन के समय सदस्य मनोनीत किया गया।

                  संस्कारधानी जबलपुर के महापौर के रूप में उनका कार्यकाल निष्पक्षता, निर्वैर्यता तथा कर्म नैपुण्य की मिसाल रहा। वे राजनीति में अजातशत्रु थे। उनसे असहमार विपक्षी भी उनकी विद्वता, मिलनसारिता और परोपकारिता का सम्मान करते थे। वे गाँधीवादी-समाजवादी विचारधारा के पक्षधसर थे किन्तु साम्यवादी अथवा दक्षिणपंथियों के साथ भी उनके व्यक्तिगत संबंध मधुर थे। उनको जहांजहाँ कहीं कोई बात अपने उसूलों के ख‍िलाफ़ नज़र आती, वे उसका इज़हार फौरनकरते किन्तु मनोमालिन्य से कोसों दूर थे।

                  हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और फारसी भाषा में गहन अध्ययन नूर जी की विशेषता थी। उनकी यह विरासत उनके ज्येष्ठ पुत्र प्रो. डॉ. आशुतोष श्रीवास्तव ने ग्रहण की, जो तत्कालीन जबलपुर विश्वविद्यालय (अब रानीदुर्गावती विश्वविद्यालय) रसायन शास्त्र के प्राध्यापक थे। ‘नूर’ जी को न्यायलय में बहस के बाद बार रूम में आ कर आराम कुर्सी में आँख मूँदकर ध्यानस्थ रहने में बहुत आनंद आता था। गोविंदराम सेकसरिया महाविद्यालय के प्राचार्य, मशहूर शायर प्रेमचंद श्रीवास्तव 'मज़हर' पन्नालाल श्रीवास्तव के अभ‍िन्न मित्र थे। नूर जी  ने जबलपुर में उर्दू की एक प्रतिष्ठित संस्था अंजुमन तरक्कीये की स्थापना की थी। जनाब आग़ा जब्बार खां साहेब के निवास स्थान में नियमित रूप से मुशायारे का आयोजन होता था। नूर जी जान-बूझकर सबसे आखिर में कलाम पेश करते ताकि उनको सुनने के लिए श्रोता बैठे रहें। इन महफिलों में 
हाईकोर्ट के जज, डाक्टर, वकील-बैरिस्टर, प्रोफेसर, प्रतिष्ठ‍ित व्यवसायी, उच्च सरकारी व सैनिक अध‍िकारी शामिल होते थे। 

                  नूर जी मधुर गीतकार भी थे।  उनके गज़लकार उनके गीतकार पर हावी हो गया था। उनका पहला दीवान मंज़िल-मंज़िल १९७२ में, दूसरी कृति गीत संग्रह लहरें और तिनके १९८९ में तथा तीसरी और अंतिम पुस्तक रुबाइयाते खय्याम व ग़ज़लियाते हाफ़िज़ १९९० में प्रकाशित हुई थी। १७ सितंबर १९७२ को फ़‍िराक़ गोरखपुरी ने लिखा-‘’जनाब ‘नूर’ को उर्दू से अच्छी खासी वाक़फ़‍ियत है, और वह रवां दवां तौर पर अपने ख़यालात को सफ़ाई के साथ मौज़ूं अश्आर के सांचे में ढाल देते हैं। उनका अन्दाज़े-बयान शुस्त: है, और उनके कलाम में जो ज़बान की चाश्नी है उसका रह रह कर अन्दाज़ हो जाता है।‘’

                  बकौल पत्रकार पंकज परिमल -‘नूर’ साहब का असल जौहर उनकी इंसानियत और इंसान दोस्ती रही। इस में मेहनत तो ज्यादा पड़ती है मगर सच यही है कि फ़र‍िश्ता से इंसान बनना बेहतर है। पन्नालाल श्रीवास्तव ‘नूर’ सही मानों में इंसान थे और बकौल रशीद अहमद सिद्दीकी अच्छे शायर की असल पहचान भी यही है।' मध्य प्रदेश उर्दू साहित्य अकादमी प्रतिवर्ष प्रादेशिक स्तर पर पन्नालाल श्रीवास्तव नूर पुरस्कार (आत्मकथा, संस्मरण विधा में) प्रदान कर नूर जी को खिराजे-अकीदत पेश करती है। कदमी ने मानकुंवर बाई महिका स्वाशाही महाविद्यालय जबलपुर में उर्दू विभाग के अध्यक्ष डॉ. एम. ए. आरिफ द्वारा लिखित मोनोग्राफ २०२० में प्रकाशित किया। 
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संपर्क : प्रो। किरण श्रीवास्तव, डी १०५ शैलेन्द्र नगर, रतन पैलेस के सामने, समीप कटोरा तालाब, रायपुर छत्तीसगढ़।