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सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

उल्लाला, दोहा, यमक, सॉनेट, अशआर, नर्मदा नामावली, हिंदी आरती, नामवर, गीत, नवगीत,चित्रालंकार,तुम

गले मिले दोहा यमक
*
धमक यमक की जब सुने,
चमक-दमक हो शांत।
अटक-मटक मत मति कहे,
सटक न होना भ्रांत।।
*
नौ कर आप न चाहते,
पर नौकर की चाह।
हो न कलेजा चाक रब,
चाकर कर परवाह।।
*
हो बस अंत असंत का,
यही तंत है तात।
संत बसंत सजा सके,
सपनों की बारात।।
*
यम कब यमक समझ सके,
सोच यमी हैरान।
तमक बमक कर ले न ले,
लपक जान की जान।।
***
सॉनेट
शुभकामना
सुमन करते आपका स्वागत।
भाल पर शोभित तिलक चंदन।
सफलता है द्वार पर आगत।।
हृदय करते आपका वंदन।।
अनिल कर दे श्वास हर सुरभित।
जया दे जय, जयी हो हर आस।
अनल से पा तेज हों प्रमुदित।।
धरा-नभ दे धैर्य शौर्य हुलास।।
सलिल सिंचित माथ हो गर्वित।
वरद हों कर, हृदय करुणापूर्ण।
दिशाएँ वर दें रहो चर्चित।।
हर विपद कर कोशिशें दें चूर्ण।।
वह मिले जो चाहते हैं आप।
यश युगों तक सके जग में व्याप।।
२०-२-२०२२
•••
अशआर
*
अदीब खुदा की नेमत।
मिले न जिसको उसकी शामत।।
*
खुद खुदा हो सको अगर अपने।
पूरे होंगे तभी तेरे सपने।।
*
चाह ही चाह से निकलती है।
आह ही अश्क बन पिघलती है।।
*
साथ किसके हमेशा कौन रहा?
लब न बोले जवाब मौन रहा।।
२०-२-२०२१
***
नर्मदा नामावली
*
पुण्यतोया सदानीरा नर्मदा.
शैलजा गिरिजा अनिंद्या वर्मदा.
शैलपुत्री सोमतनया निर्मला.
अमरकंटी शांकरी शुभ शर्मदा.
आदिकन्या चिरकुमारी पावनी.
जलधिगामिनी चित्रकूटा पद्मजा.
विमलहृदया क्षमादात्री कौतुकी.
कमलनयनी जगज्जननि हर्म्यदा.
शाशिसुता रौद्रा विनोदिनी नीरजा.
मक्रवाहिनी ह्लादिनी सौंदर्यदा.
शारदा वरदा सुफलदा अन्नदा.
नेत्रवर्धिनि पापहारिणी धर्मदा.
सिन्धु सीता गौतमी सोमात्मजा.
रूपदा सौदामिनी सुख-सौख्यदा.
शिखरिणी नेत्रा तरंगिणी मेखला.
नीलवासिनी दिव्यरूपा कर्मदा.
बालुकावाहिनी दशार्णा रंजना.
विपाशा मन्दाकिनी चित्रोंत्पला.
रुद्रदेहा अनुसूया पय-अंबुजा.
सप्तगंगा समीरा जय-विजयदा.
अमृता कलकल निनादिनी निर्भरा.
शाम्भवी सोमोद्भवा स्वेदोद्भवा.
चन्दना शिव-आत्मजा सागर-प्रिया.
वायुवाहिनी कामिनी आनंददा.
मुरदला मुरला त्रिकूटा अंजना.
नंदना नाम्माडिअस भव मुक्तिदा.
शैलकन्या शैलजायी सुरूपा.
विपथगा विदशा सुकन्या भूषिता.
गतिमयी क्षिप्रा शिवा मेकलसुता.
मतिमयी मन्मथजयी लावण्यदा.
रतिमयी उन्मादिनी वैराग्यदा.
यतिमयी भवत्यागिनी शिववीर्यदा.
दिव्यरूपा तारिणी भयहांरिणी.
महार्णवा कमला निशंका मोक्षदा.
अम्ब रेवा करभ कालिंदी शुभा.
कृपा तमसा शिवज सुरसा मर्मदा.
तारिणी वरदायिनी नीलोत्पला.
क्षमा यमुना मेकला यश-कीर्तिदा.
साधना संजीवनी सुख-शांतिदा.
सलिल-इष्टा माँ भवानी नरमदा.
१२-१०-२०१४
***
हिंदी आरती
*
भारती भाषा प्यारी की।
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
वर्ण हिंदी के अति सोहें,
शब्द मानव मन को मोहें।
काव्य रचना सुडौल सुन्दर
वाक्य लेते सबका मन हर।
छंद-सुमनों की क्यारी की
आरती हिंदी न्यारी की।।
*
रखे ग्यारह-तेरह दोहा,
सुमात्रा-लय ने मन मोहा।
न भूलें गति-यति बंधन को-
न छोड़ें मुक्तक लेखन को।
छंद संख्या अति भारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
विश्व की भाषा है हिंदी,
हिंद की आशा है हिंदी।
करोड़ों जिव्हाओं-आसीन
न कोई सकता इसको छीन।
ब्रम्ह की, विष्णु-पुरारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
२०-२-२०२०
***
गीत
नामवर
*
लीक से हटकर चला चल
काम कर।
रोकता चाहे जमाना
नाम वर।।
*
जोड़ता जो, वह घटा है
तोड़ता जो, वह जुड़ा है
तना दिखता पर झुका है
पथ न सीधा हर मुड़ा है
श्वास साकी, आस प्याला
जाम भर
रोकता चाहे जमाना
नाम वर
*
जो न जैसा, दिखे वैसा
जो न बदला, वह सड़ा है
महत्तम की चाह मत कर
लघुत्तम सचमुच बड़ा है
कह न मरता कोई किंचित
चाम पर
रोकता चाहे जमाना
नाम वर
*
बात पूरी नहीं हो कह
'जो गलत, वे तोड़ मानक'
क्यों न करता पूर्ण कहकर
'जो सही, मत छोड़ मानक'
बन सिपाही, जान दे दे विहँस सच के
लाम पर
रोकता चाहे जमाना
नाम वर
२०-२-२०१९
***
चित्रालंकार पर्वत
सनम
गले लग।
नयन मिला
हो न विलग।
दो न रहें, एक हों
प्रिय! इरादे नेक हों
***
चित्रालंकार:पर्वत
गाएंगे
अनवरत
प्रणय गीत
सुर साधकर।
जी पाएंगे दूर हो
प्रिये! तुझे यादकर।
२०-२-२०१८
***
मुक्तक - वैलेंटाइन
बीत गईँ कितनी ऋतुएँ, बीते कितने साल
कोयल तजे न कूकना, हिरन न बदले चाल
पर्व बसंती हो गया, वैलेंटाइन आज
प्रेम फूल सा झट झरे, सात जन्म कंगाल
***
पुस्तक चर्चा -
नियति निसर्ग : दोहा दुनिया का नया रत्न
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- नियति निसर्ग, दोहा संग्रह, प्रो. श्यामलाल उपाध्याय, प्रथम संस्करण, २०१५, आकार २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १२६, मूल्य १३०/-, प्रकाशक भारतीय वांग्मय पीठ, लोकनाथ कुञ्ज, १२७/ए/८ ज्योतिष राय मार्ग, नया अलीपुर कोलकाता ७०००५३]
*
विश्व वाणी हिंदी के छंद कोष के सर्वाधिक प्रखर और मूल्यवान दोहा कक्ष को अलंकृत करते हुए श्रेष्ठ-ज्येष्ठ शारदा-सुत प्रो. श्यामलाल उपाध्याय ने अपने दोहा संकलन रूपी रत्न 'नियति निसर्ग' प्रदान किया है. नियति निसर्ग एक सामान्य दोहा संग्रह नहीं है, यह सोद्देश्य, सारगर्भित,सरस, लाक्षणिक अभिव्यन्जनात्मकता से सम्पन्न दोहों की ऐसी रसधार प्रवाहित का रहा है जिसका अपनी सामर्थ्य के अनुसार पान करने पर प्रगाढ़ रसानंद की अनुभूति होती है.
प्रो. उपाध्याय विश्ववाणी हिंदी के साहित्योद्यान में ऐसे वट-वृक्ष हैं जिनकी छाँव में गणित जिज्ञासु रचनाशील अपनी शंकाओं का संधान और सृजन हेतु मार्गदर्शन पाते हैं. वे ऐसी संजीवनी हैं जिनके दर्शन मात्र से माँ भारती के प्रति प्रगाढ़ अनुराग और समर्पण का भाव उत्पन्न होता है. वे ऐसे साहित्य-ऋषि हैं जिनके दर्शन मात्र से श्नाकों का संधान होने लगता है. उनकी ओजस्वी वाणी अज्ञान-तिमिर का भेदन कर ज्ञान सूर्य की रश्मियों से साक्षात् कराती है.
नियति निसर्ग का श्री गणेश माँ शारदा की सारस्वत वन्दना से होना स्वाभाविक है. इस वन्दना में सरस्वती जी के जिस उदात्त रूप की अवधारणा ही, वह अन्यत्र दुर्लभ है. यहाँ सरस्वती मानवीय ज्ञान की अधिष्ठात्री या कला-संगीत की आदि शक्ति इला ही नहीं हैं अपितु वे सकल विश्व, अंतरिक्ष, स्वर्ग और ब्रम्ह-लोक में भी व्याप्त ब्रम्हाणी हैं. कवि उन्हें अभिव्यक्ति की देवी कहकर नमन करता है.
'विश्वपटल पर है इला, अन्तरिक्ष में वाणि
कहीं भारती स्वर्ग में, ब्रम्ह-लोक ब्रम्हाणि'
'घर की शोभा' धन से नहीं कर्म से होती है. 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' की विरासत नयी पीढ़ी के लिए श्लाघ्य है-
'लक्ष्मी बसती कर्म में, कर्म बनता भाग्य
भाग्य-कर्म संयोग से, बन जाता सौभाग्य'
माता-पिता के प्रति, शिशु के प्रति, बाल विकास, अवसर की खोज, पाठ के गुण विशेष, शिक्षक के गुण, नेता के गुण, व्यक्तित्व की परख जैसे शीर्षकों के अंतर्गत वर्णित दोहे आम आदमी विशेषकर युवा, तरुण, किशोर तथा बाल पाठकों को उनकी विशिष्टता और महत्त्व का भान कराने के साथ-साथ कर्तव्य और अधिकारों की प्रतीति भी कराते हैं. दोहाकार केवल मनोरंजन को साहित्य सृजन का लक्ष्य नहीं मानता अपितु कर्तव्य बोध और कर्म प्रेरणा देते साहित्य को सार्थक मानता है.
राष्ट्रीयता को साम्प्रदायिकता मानने के वर्तमान दौर में कवि-ऋषि राष्ट्र-चिंतन, राष्ट्र-धर्म, राष्ट्र की नियति, राष्ट्र देवो भव, राष्ट्रयता अखंडता, राष्ट्रभाषा हिंदी का वर्चस्व, देवनागरी लिपि आदि शीर्षकों से राष्ट्रीय की ओजस्वी भावधारा प्रवाहित कर पाठकों को अवगाहन करने का सुअवसर उपलब्ध कराते हैं. वे सकल संतापों का निवारण का एकमात्र मार्ग राष्ट्र की सुरक्षा में देखते हैं.
आदि-व्याधि विपदा बचें, रखें सुरक्षित आप
सदा सुरक्षा देश की, हरे सकल संताप
हिंदी की विशेषता को लक्षित करते हुए कवि-ऋषि कहते हैं-
हिंदी जैसे बोलते, वैसे लिखते आप
सहज रूप में जानते, मिटते मन के ताप
हिंदी के जो शब्द हैं, रखते अपने अर्थ
सहज अर्थ वे दे चलें, जिनसे हो न अनर्थ
बस हिंदी माध्यम बने, हिंदी का हो राज
हिंदी पथ-दर्शन करे, हिंदी हो अधिराज
हिंदी वैज्ञानिक सहज, लिपि वैज्ञानिक रूप
इसको सदा सहेजिए, सुंदर स्निग्ध स्वरूप
तकनीकी सम्पन्न हों, माध्यम हिंदी रंग
हिंदी पाठी कुशल हों, रंग न होए भंग
देवनागरी लिपि शीर्षक से दिए दोहे भारत के इतिहास में हिंदी के विकास को शब्दित करते हैं. इस अध्याय में हिंसी सेवियों के अवदान का स्मरण करते हुए ऐसे दोहे रचे गए हैं जो नयी पीढ़ी का विगत से साक्षात् कराते हैं.
संत कबीर, महाबली कर्ण, कविवर रहीम, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मौनी बाबा तथा श्रीकृष्ण पर केन्द्रित दोहे इन महान विभूतियों को स्मरण मात्र नहीं करते अपितु उनके अवदान का उल्लेख कर प्रेरणा जगाने का काम भी करते हैं.
कबीर का गुरु एक है, राम नाम से ख्यात
निराकार निर्गुण रहा, साई से प्रख्यात
जब तक स्थापित रश्मि है, गंगा जल है शांत
रश्मिरथी का यश रहे, जग में सदा प्रशांत
ऐसा कवि पायें विभो, हो रहीम सा धीर
ज्ञानी दानी वुगी हो, युद्ध क्षेत्र का वीर
महावीर आचार्य हैं, क्या द्विवेद प्रसाद
शेरश जागरण काल के, विषय रहा आल्हाद
मौनी बाबा धन्य हैं, धन्य आप वरदान
जनमानस सुख से रहे, यही बड़ा अवदान
भारत कर्म प्रधान देश है. यहाँ शक्ति की भक्ति का विधान सनातन काल से है. गीता का कर्मयोग भारत ही नहीं, सकल विश्व में हर काल में चर्चित और अर्चित रहा है. सकल कर्म प्रभु को अर्पित कर निष्काम भाव से संपादित करना ही श्लाघ्य है-
सौंपे सरे काज प्रभु, सहज हुए बस जान
सारे संकट हर लिए, रख मान तो मान
कर्म कराता धर्म है, धर्म दिलाता अर्थ
अर्थ चले बहु काम ले, यह जीवन का मर्म
जातीय छुआछूत ने देश की बहुत हानि की है. कविगुरु कर्माधारित वर्ण व्यवस्था के समर्थक हैं जिसका उद्घोष गीत में श्रीकृष्ण 'चातुर्वर्ण्य माया सृष्टं गुण-कर्म विभागश:' कहकर करते हैं.
वर्ण व्यवस्था थी बनी, गुणवत्ता के काज
कुलीनता के अहं ने, अपना किया अकाज
घृणा जन्म देती घृणा, प्रेम बढ़ाता प्रेम
इसीलिए तुम प्रेम से, करो प्रेम का नेम
सर्वधर्म समभाव के विचार की विवेचना करते हुए काव्य-ऋषि धर्म और संप्रदाय को सटीकता से परिभाषित करते हैं-
होता धर्म उदार है, संप्रदाय संकीर्ण
धर्म सदा अमृत सदृश, संप्रदाय विष-जीर्ण
कृषि प्रधान देश भारत में उद्योग्व्र्धक और कृषि विरोधी प्रशासनिक नीतियों का दुष्परिणाम किसानों को फसल का समुचित मूल्य न मिलने और किसानों द्वारा आत्म हत्या के रूप में सामने आ रहा है. कवी गुरु ने कृषकों की समस्या का जिम्मेदार शासन-प्रशासन को ही माना है-
नेता खेलें भूमि से, भूमिग्रहण व्यापार
रोके इसको संहिता, चाँद लगाये चार
रोटी के लाले पड़े, कृषक भूमि से हीन
तडपे रक्षा प्राण को, जल अभाव में मीन
दोहे गोशाला के भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और किसान की दुर्दशा को बताते हैं. कवी गौ और गोशाला की महत्ता प्रतिपादित करते हैं-
गो में बसते प्राण हैं, आशा औ' विश्वास
जहाँ कृष्ण गोपाल हैं, करनी किसकी आस
गोवध अनुचित सर्वथा, औ संस्कृति से दूर
कर्म त्याज्य अग्राह्य है, दुर्मत कुत्सित क्रूर
राष्ट्र के प्रति कर्तव्य, स्वाधीनता की नियति, मादक द्रव्यों के दुष्प्रभाव, चिंता, दुःख की निरंतरता, आत्मबोध तत्व, परमतत्व बोध, आशीर्वचन, संस्कार, रक्षाबंधन, शिवरात्रि, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी आदि शीर्षकों के अंतर्गत दिए गए दोहे पाठकों का पाठ प्रदर्शन करने क साथ शासन-प्रशासन को भी दिशा दिखाते हैं. पुस्तकांत में 'प्रबुद्ध भारत का प्रारूप' शीर्षक से कविगुरु ने अपने चिंतन का सार तत्व तथा भविष्य के प्रति चिंतन-मंथन क नवनीत प्रस्तुत किया है-
सत्य सदा विजयी रहा, सदा सत्य की जीत
नहीं सत्य सम कुछ जगत, सत्य देश का गीत
सभी पन्थ हैं एक सम, आत्म सन्निकट जान
आत्म सुगंध पसरते, ईश्वर अंश समान
बड़ी सोच औ काम से, बनता व्यक्ति महान
चिंतन औ आचार हैं, बस उनके मन जान
किसी कृति का मूल्याङ्कन विविध आधारों पर किया जाता है. काव्यकृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष उसका कथ्य होता है. विवेच्य ८६ वर्षीय कवि-चिन्तक के जीवनानुभवों का निचोड़ है. रचनाकार आरंभ में कटी के शिल्प के प्रति अत्यधिक सजग होता है क्योंकि शिल्पगत त्रुटियाँ उसे कमजोर रचनाकार सिद्ध करती हैं. जैसे-जैसे परिपक्वता आती है, भाषिक अलंकरण के प्रति मोह क्रमश: कम होता जाता है. अंतत: 'सहज पके सो मीठा होय' की उक्ति के अनुसार कवि कथ्य को सरलतम रूप में प्रस्तुत करने लगता है. शिल्प के प्रति असावधानता यत्र-तत्र दिखने पर भी कथ्य का महत्व, विचारों की मौलिकता और भाषिक प्रवाह की सरलता कविगुरु के संदेश को सीधे पाठक के मन-मस्तिष्क तक पहुँचाती है. यह कृति सामान्य पाठक, विद्वज्जनों, प्रशासकों, शासकों, नीति निर्धारकों तथा बच्चों के लिए समान रूप से उपयोगी है. यही इसका वैशिष्ट्य है.
२०-२-२०१७

***
गीत
मन
*
मर रहा पल-पल
अमर मन
जी रहा है.
*
जो सुहाए
कह न पाता, भीत है मन.
जो निभाये
सह न पाता, रीत है मन.
सुन-सुनाये
जी न पाता, गीत है मन.
घुट रहा पल-पल
अधर मन
सी रहा है.
*
मिल गयी पर
मिल न पायी, जीत है मन.
दास सुविधा ने
ख़रीदा, क्रीत है मन.
आँख में
पानी न, पाती पीत है मन.
जी रहा पल-पल
न कुछ कह
मर रहा है.

२०-२-२०१६

***

श्रृंगार गीत:
.
चाहता मन
आपका होना
.
शशि ग्रहण से
घिर न जाए
मेघ दल में
छिप न जाए
चाह अजरा
बने तारा
रूपसी की
कीर्ति गाये
मिले मन में
एक तो कोना
.
द्वार पर
आ गया बौरा
चीन्ह भी लो
तनिक गौरा
कूक कोयल
गाए बन्ना
सुना बन्नी
आम बौरा
मार दो मंतर
करो टोना
.
माँग इतनी
माँग भर दूँ
आप का
वर-दान कर दूँ
मिले कन्या-
दान मुझको
जिंदगी को
गान कर दूँ
प्रणय का प्रण
तोड़ मत देना
२०-२-२०१५
***
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...
*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरि का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
वागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
***
उल्लाला मुक्तिका:
दिल पर दिल बलिहार है
*
दिल पर दिल बलिहार है,
हर सूं नवल निखार है..
प्यार चुकाया है नगद,
नफरत रखी उधार है..
कहीं हार में जीत है,
कहीं जीत में हार है..
आसों ने पल-पल किया
साँसों का सिंगार है..
सपना जीवन-ज्योत है,
अपनापन अंगार है..
कलशों से जाकर कहो,
जीवन गर्द-गुबार है..
स्नेह-'सलिल' कब थम सका,
बना नर्मदा धार है..
***
उल्लाला मुक्तक:'
*
उल्लाला है लहर सा,
किसी उनींदे शहर सा.
खुद को खुद दोहरा रहा-
दोपहरी के प्रहर सा.
*
झरते पीपल पात सा,
श्वेत कुमुदनी गात सा.
उल्लाला मन मोहता-
शरतचंद्र मय रात सा..
*
दीप तले अँधियार है,
ज्यों असार संसार है.
कोशिश प्रबल प्रहार है-
दीपशिखा उजियार है..
*
मौसम करवट बदलता,
ज्यों गुमसुम दिल मचलता.
प्रेमी की आहट सुने -
चुप प्रेयसी की विकलता..
*
दिल ने करी गुहार है,
दिल ने सुनी पुकार है.
दिल पर दिलकश वार या-
दिलवर की मनुहार है..
*
शीत सिसकती जा रही,
ग्रीष्म ठिठकती आ रही.
मन ही मन में नवोढ़ा-
संक्रांति कुछ गा रही..
*
श्वास-आस रसधार है,
हर प्रयास गुंजार है.
भ्रमरों की गुन्जार पर-
तितली हुई निसार है..
*
रचा पाँव में आलता,
कर-मेंहदी पूछे पता.
नाम लिखा छलिया हुआ-
कहो कहाँ-क्यों लापता?
*
वह प्रभु तारणहार है,
उस पर जग बलिहार है.
वह थामे पतवार है.
करता भव से पार है..
****
उल्लाला सलिला:
*
(छंद विधान १३-१३, १३-१३, चरणान्त में यति, सम चरण सम तुकांत, पदांत एक गुरु या दो लघु)
*
अभियंता निज सृष्टि रच, धारण करें तटस्थता।
भोग करें सब अनवरत, कैसी है भवितव्यता।।
*
मुँह न मोड़ते फ़र्ज़ से, करें कर्म की साधना।
जगत देखता है नहीं अभियंता की भावना।।
*
सूर सदृश शासन मुआ, करता अनदेखी सतत।
अभियंता योगी सदृश, कर्म करें निज अनवरत।।
*
भोगवाद हो गया है, सब जनगण को साध्य जब।
यंत्री कैसे हरिश्चंद्र, हो जी सकता कहें अब??
*
भृत्यों पर छापा पड़े, मिलें करोड़ों रुपये तो।
कुछ हजार वेतन मिले, अभियंता को क्यों कहें?
*
नेता अफसर प्रेस भी, सदा भयादोहन करें।
गुंडे ठेकेदार तो, अभियंता क्यों ना डरें??
*
समझौता जो ना करे, उसे तंग कर मारते।
यह कड़वी सच्चाई है, सरे आम दुत्कारते।।
*
हर अभियंता विवश हो, समझौते कर रहा है।
बुरे काम का दाम दे, बिन मारे मर रहा है।।
*
मिले निलम्बन-ट्रान्सफर, सख्ती से ले काम तो।
कोई न यंत्री का सगा, दोषारोपण सब करें।।
२०-२-२०१४
***
तेवरी
*
ताज़ा-ताज़ा दिल के घाव।
सस्ता हुआ नमक का भाव।।
मंझधारों-भंवरों को पार,
किया किनारे डूबी नाव।।
सौ चूहे खाने के बाद
सत्य-अहिंसा का है चाव।।
ताक़तवर के चूम कदम
निर्बल को दिखलाया ताव।।
ठण्ड भगाई नेता ने
जला झोपडी, बना अलाव।।
डाकू तस्कर चोर खड़े
मतदाता क्या करे चुनाव?
नेता रावण, जन सीता
कैसे होगा सलिल निभाव?
२०-२-२०१३

***

हास्य पद:

जाको प्रिय न घूस-घोटाला

*

जाको प्रिय न घूस-घोटाला...

वाको तजो एक ही पल में, मातु, पिता, सुत, साला.

ईमां की नर्मदा त्यागयो, न्हाओ रिश्वत नाला..

नहीं चूकियो कोऊ औसर, कहियो लाला ला-ला.

शक्कर, चारा, तोप, खाद हर सौदा करियो काला..

नेता, अफसर, व्यापारी, वकील, संत वह आला.

जिसने लियो डकार रुपैया, डाल सत्य पर ताला..

'रिश्वतरत्न' गिनी-बुक में भी नाम दर्ज कर डाला.

मंदिर, मस्जिद, गिरिजा, मठ तज, शरण देत मधुशाला..

वही सफल जिसने हक छीना,भुला फ़र्ज़ को टाला.

सत्ता खातिर गिरगिट बन, नित रहो बदलते पाला..

वह गर्दभ भी शेर कहाता बिल्ली जिसकी खाला.

अख़बारों में चित्र छपा, नित करके गड़बड़ झाला..

निकट चुनाव, बाँट बन नेता फरसा, लाठी, भाला.

हाथ ताप झुलसा पड़ोस का घर धधकाकर ज्वाला..

सौ चूहे खा हज यात्रा कर, हाथ थाम ले माला.

बेईमानी ईमान से करना, 'सलिल' पान कर हाला..

है आराम ही राम, मिले जब चैन से बैठा-ठाला.

परमानंद तभी पाये जब 'सलिल' हाथ ले प्याला..

***

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' व अन्य लघुकथाकार सम्मानित हुए

जबलपुर. लघुकथा के क्षेत्र में सतत सक्रिय रचनाकारों कर अवदान को प्रति वर्ष सम्मानित करने हेतु प्रसिद्ध संस्था मध्य प्रदेश लघु कथाकार परिषद् का २६ वाँ वार्षिक सम्मेलन अरिहंत होटल, रसल चौक, जबलपुर में २०-२-२०११ को अपरान्ह १ बजे से संपन्न हुआ. परिषद् के अध्यक्ष मो. मोइनुद्दीन 'अतहर' तथा सचिव कुँवर प्रेमिल द्वारा प्रसरित विज्ञप्ति के अनुसार इस वर्ष ७ लघुकथाकारों को उनके उल्लेखनीय अवदान हेतु सम्मानित किया गया।

बृजबिहारीलाल श्रीवास्तव सम्मान - श्री संजीव वर्मा 'सलिल', जबलपुर.
सरस्वती पुत्र सम्मान - श्री पारस दासोत जयपुर.
रासबिहारी पाण्डेय सम्मान - श्री अनिल अनवर, जोधपुर.
डॉ. श्रीराम ठाकुर दादा सम्मान - श्री अशफाक कादरी बीकानेर.
जगन्नाथ कुमार दास सम्मान- श्री डॉ. वीरेन्द्र कुमार दुबे, जबलपुर.
गोपालदास सम्मान - डॉ. राजकुमारी शर्मा 'राज', गाज़ियाबाद.
आनंदमोहन अवस्थी सम्मान- डॉ. के बी. श्रीवास्तव, मुजफ्फरपुर- मो. मोइनुद्दीन 'अतहर', जबलपुर.

कार्यक्रम प्रो. डॉ. हरिराज सिंह 'नूर' पूर्व कुलपति इलाहाबाद विश्वविद्यालय की अध्यक्षता, प्रो. डॉ. जे. पी. शुक्ल पूर्व कुलपति रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के मुख्यातिथ्य तथा श्री राकेश 'भ्रमर', श्री अंशलाल पंद्रे व श्री निशिकांत चौधरी के विशेषातिथ्य में संपन्न हुआ. इस अवसर पर मो. मोइनुद्दीन 'अतहर' द्वारा सम्पादित परिषद् की लघुकथा केन्द्रित पत्रिका अभिव्यक्ति के जनवरी-मार्च २०११ अंक, श्री कुँवर प्रेमिल द्वारा सम्पादित प्रतिनिधि लघुकथाएँ २०११ तथा श्री मनोहर शर्मा 'माया' लिखित लघुकथाओं के संग्रह मकड़जाल का विमोचन हुआ. द्वितीय सत्र में डॉ. तनूजा चौधरी व डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र' ने लघु कथा के अवदान, चुनौती और भविष्य विषय पर विचार अभिव्यक्ति की.

२०-२-२०११

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आदि शक्ति वंदना:

*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण हैं, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..
परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम रिद्धि-सिद्धि शत रूप.
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..

जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.
चरण-शरण हैं, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
परापरा तुम, रिद्धि-सिद्धि तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, ताल,ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..
दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.

प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीं सभी आकार.
चरण-शरण हैं, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया , करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..
मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.
चरण-शरण हैं, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
२०-२-२०१०
***

शनिवार, 18 फ़रवरी 2023

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'                                                                                   ४०१ विजय अपार्टमेंट 

संस्थापक विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर                                                              नेपियर टाउन 

संपादक कृष्णप्रज्ञा द्वैभाषिक मासिकी                                                                      जबलपुर ४८२००१ 

अध्यक्ष इंडियन जिप्टेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर                                              चलभाष ९४२५१८३२४४ 


सम्मति 


                                   सनातन भारतीय संस्कृति में 'सत्य-शिव-सुंदर' को 'सत-चित-आनंद' प्राप्ति का माध्यम बताया गया है। सर्वकल्याण की राह को जीवन का लक्ष्य बनाकर, इष्ट-भक्ति के माध्यम से लोक देवता की आराधना करनेवाले समयजयी व्यक्तित्वों में संत तुलसीदास का स्थान अग्रगण्य है। मुगल काल में जब जनगण नैराश्य से ग्रसित और अत्याचारों से संत्रस्त था तब तुलसी ने रामचरितमानस और अन्य ग्रंथों के माध्यम से लोक चेतना को न केवल जाग्रत किया अपितु उसे उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त भी किया। शिव, पार्वती, गणेश, राम, सीता, लक्ष्मण, भरत, हनुमान आदि के चरित्रों का सर्वांग सुंदर वर्णन कर तुलसी ने जन मन में आशा, विश्वास, आस्था, निष्ठा के अनगिन दीपक प्रज्ज्वलित किए। गीताप्रेस गोरखपुर के माध्यम से जयदयाल गोयन्दका तथा हनुमान प्रसाद पोद्दार ने लगत से भी कम नाम मात्र के मूल्य पर तुलसी साहित्य की करोड़ों प्रतियाँ देश के कोने-कोने में जन सामान्य को उपलब्ध कराकर आदर्शों तथा जीवन मूल्यों को प्रतिष्ठित किया। 

''तुलसीदास : प्रासंगिकता व नीति वचन''

                                   बाबा गोरखनाथ की साधनास्थली गोरखपुर में जन्मी और श्री राम की लीलाभूमि अवध (लखनऊ) में कार्यरत सुनीता सिंह ने ''तुलसीदास : प्रासंगिकता व नीति वचन'' की रचना कर असंख्य विद्वानों द्वारा जनहितकारी साहित्य सृजन की श्रृंखला को आगे बढ़ाया है। कलिकाल के प्रभाव वश समाज और व्यक्ति के जीवन से लुप्त होते मानव मूल्यों, दिनानुदिन बढ़ती भोग और लोभ वृत्ति ने प्रकृति और पर्यावरण को विनाश की कगार पर ला खड़ा किया है। तुलसी का जीवन और साहित्य मूल्यहीनता घटाटोप अन्धकार को चीरकर नवमूल्यों का भुवन भास्कर उगाने में समर्थ है। सुनीता सिंह ने संत तुलसी के दुर्भाग्य, जीवन संघर्ष, जीवट, गुरु और ईश कृपा, साहित्य के विविध पहलुओं, जीवनादर्श, अवदान आदि का छंद मुक्त काव्य में सहज बोधगम्य भाषा में शब्दांकन कर किशोरों और युवाओं के लिए उपलब्ध कराया है। ११२ शीर्षकों के अन्तर्गत यह १४८ पृष्ठीय पुस्तक आद्योपांत पठनीय तथा मननीय है। 

''भक्ति काल के रंग'' 

                                   भारतीय भक्ति साहित्य समूचे विश्व इतिहास में अपने ढंग का अकेला है। भक्तिकाल हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल है। आचार्य  द्विवेदी के शब्दों में “जितनी सरलता और सहजता से इस साहित्य ने जन-जीवन का स्पर्श किया, उतनी सहजता से अन्य कोई भी साहित्य नहीं कर सका। इस साहित्य ने भ्रमित और हताशजनता को उल्लासमय जीने की प्रेरणा दी, उन्हें एक अलौकिक संतोष प्रदान किया।'' 

                                   भक्ति काल ने वीरगाथाकाल के पारस्परिक टकरावों से उपजे वैमनस्य का शमन कर विविध विचारधाराओं, जीवनमूल्यों, आदर्शों और जीवनपद्धतियों में समन्वय स्थापना का महत्वपूर्ण कार्य किया। सूर, कबीर, नानक, तुलसी, रैदास आदि संत कवियों ने कुरीति निवारण, जन जागरण, समाज सुधार की प्रेरणा देता साहित्य रचकर सामाजिक दायित्व चेतना जागरण करने के साथ कर्म और फल को जोड़कर नैतिक मूल्यों के प्रति जन मानस को आकृष्ट किया। वर्तमान पाश्चात्य शिक्षाप्रणाली जनित आर्थिक दुष्चक्र ने भारतीय युवाओं को पश्चिम की श्रेष्ठता के प्रति मोहांधित कर, परम्पराओं और विरासत के प्रति उदासीन किया है। ऐसी विषम स्थिति में भक्तिकाल के सम्यक मूल्यांकन  कर युवा लेखिका सुनीता सिंह ने सराहनीय कार्य किया है। उच्च प्रशासनिक पद के जटिल कार्य दायित्वों का सम्यक निर्वहन करते हुए भी सतत साहित्य साधना करना सुनीता को सामान्य से विशिष्ट बनाता है। 

                                   ''भक्ति काल के रंग'' ग्यारह अध्यायों में विभाजित सुगेय काव्य संग्रह है। सर्वाधिक लोकप्रिय अर्धसम मात्रिक दोहा छंद और सम मात्रिक चौपाई छंद  में रचित यह कृति लालित्यमयी है। सगुण भक्ति की रामाश्रयी व कृष्णाश्रयी शाखाओं तथा निर्गुण भक्ति की ज्ञानाश्रयी व प्रेमाश्रयी शाखाओं पर केंद्रीय अध्याय पठनीय हैं। संबंधित चित्रों का यथास्थान प्रयोग कृति का सौंदर्य बढ़ाता है। आरभ में भक्तिकाल की पृष्भूमि, शाखाओं व् विशेषताओं पर सम्यक प्रकाश डाला गया है। कृति सर्वोपयोगी है। 

''तुलसी का रचना संसार''

                                   संत तुलसीदास विश्व साहित्य की अमर विभूति हैं। रामाश्रयी शाखा के प्रमुख हस्ताक्षर होने का साथ-साथ वे भक्तिकाल के प्रतिनिधि कवि ही नहीं हिंदी, बुंदेली, बृज, भोजपुरी, बघेली आदि के भी प्रतिनिधि कवि के रूप में अग्रगण्य हैं। तुलसी के जीवन तथा रचनाओं को केंद्र में रची गयी यह कृति वस्तुत: तुलसी पर महाकाव्य / खंड काव्य के रूप में परिगणित किया जा सकता था यदि इसकी सामग्री को यथोचित अध्यायों में वर्गीकृत तथा सुव्यवस्थित किया जाता।  कवयित्री सुनीता सिंह ने इसे लंबी कविता के रूप में प्रस्तुत किया है। सामान्यत: युद्ध काव्यों को लंबी कविता के रूप में प्रस्तुत करने की परंपरा अंग्रेजी, फ़ारसी आदि में रही है। भारत में 'रासो' महाकाव्य के रूप में रचे गए।  

                                   ''तुलसी का रचना संसार'' सामान्य लीक से हटकर प्रसाद गुण संपन्न भाषा में रचित ऐसी काव्य कृति है जिसे सामान्य और विशिष्ट दोनों तरह के पाठक आत्मार्पित का सराहेंगे। प्रयुक्त भाषा सहज बोधगम्य है। 

                                   ''तुलसीदास : प्रासंगिकता व नीति वचन'', ''भक्ति काल के रंग'' तथा  ''तुलसी का रचना संसार'' तीनों कृतियाँ रचनकर्त्री सुनीता सिंह के सात्विक चितन और सृजन का सुपरिणाम हैं। ये कृतियाँ केवल विसंगति, वैषम्य, टकराव, बिखराव से प्रदूषित अथवा अंधश्रद्धा, तर्कहीनता और असंस्कारी भाषा में लिखे जा रहे साहित्य के कारण जन-रूचि के ह्रास को दूर कर सद्प्रवृत्ति व सुसंस्कारी पाठकों में साहित्य-पठन के प्रति रुझान बढ़ाएँगी। सुनीता जी इस सारस्वत रचना-यज्ञ हेतु सधिवाद की पात्र हैं। मुझे विश्व है कि कृतियों का विद्वज्जन, समीक्षकों और सामान्य जन में समादर होगा।

''अस्तिबोध : भक्तिकाव्य की क्रांतिधर्मिता''

                                   इस संक्रमण काल में नकारात्मकता का प्रभाव दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। 'सर्वजन हिताय ,सर्वजन सुखाय' रचे जाने वाले साहित्य की विधाओं से भी ''सत-शिव-सुंदर'' ओझल होता जा रहा है। नवगीत, लघुकथा और व्यंग्य लेख आदि विधाएँ केवल और केवल विसंगतियों, विडंबनाओं और टकरावों को उभाड़कर द्वेष भाव का प्रसार कर रही हैं। फलत:, 'विवाह' और 'परिवार' खतरे में हैं। मनुष्य- जीवन में लोभ, वासना और असंतोष ने मनुष्य से सुख-चैन छीन लिया है। ऐसे समय में सकारात्मक मूल्यपरक चिंतन अपरिहार्य हो गया है। 

                                   ''अस्तिबोध : भक्तिकाव्य की क्रांतिधर्मिता'' ' शीर्षक कृति की रचनाकर श्रीमती सुनीता सिंह ने अमावसी घटाटोप में शरतचंद्र की ज्योत्सना फ़ैलाने का अपरिहार्य और मांगलिक कार्य किया है। वे साधुवाद की पात्र हैं। 

                                   तीन भागों (अस्तिबोध : अर्थ और आयाम, भक्ति काव्य में अस्ति  बोध तथा आधुनिक साहित्य में अस्तिबोध) में विभक्त यह कृति त्रिकालिक (विगत, वर्तमान और भावी) साहित्य के मध्य सकारात्मक चिन्तन का सेतु स्थापित करता है। तीन का मनुष्य जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। त्रिदेव (विधि-हरी-हर), त्रिकाल (कल-आज-कल), त्रिऋण (देव-पितृ-ऋषि), त्रिअग्नि (पापाग्नि-जठराग्नि-कालाग्नि), त्रिदोष (वात-पित्त-कफ), त्रिलोक (स्वर्ग-धरती-पाताल), त्रिवेणी (गंगा-यमुना-सरस्वती), त्रिताप (दैहिक-दैविक-भौतिक), त्रिऋतु (पावस-शीत-ग्रीष्म), त्रिराम (परशुराम-श्रीराम-बलराम) तथा त्रिमातुल (कंस-शकुनि-माहुल) ही नहीं त्रिपुर, त्रिनेत्र, त्रिशूल, त्रिदल, तीज, तिराहा और त्रिभुज भी तीन का महत्व प्रतिपादित करते हैं।  

                                कृति में चौदह अध्याय हैं। इनमें अस्तिबोध की अवधारण, महत्त्व, प्रकृति, विज्ञान, अस्तबोध के साथ संबंध, काव्य में स्थान, भक्ति काल में स्थान, सगुण-निर्गुण भक्ति धरा में स्थान, सामाजिकता, प्रासंगिकता, समाधान, रचनाकार तथा क्रांतिधर्मिता जैसे आवश्यक बिंदुओं की सम्यक विवेचना की गई है। चौदह इंद्र, चौदह मनु, चौदह विद्या और चौदह रत्नों की तरह ये चौदह अध्याय पाठक के ज्ञान चक्षुओं को खोलकर उसे नव चिंतन हेतु प्रवृत्त करते हैं।  

 
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शिवलिंग अमरकंटक और कैलाश

   
विमर्श : शिवलिंग
*
शिवलिंग की रचना स्वयं ईश्वर ने की है, और यह तब की है जब धरती पर मनुष्य नही थे। मनुष्य ने इस शिवलिंग को बाद में जाना की यह ईश्वर का निवास स्थान है, और उस आधार पर इसकी बनावट तय की गई। यह रही उस शिवलिंग की तस्वीर-  कांगृंबोक पीक या कैलाश पर्वत  ।

शिवलिंग का लंबवत भाग होता है जहाँ से पानी की निकासी होती है, वह तस्वीर में आपकी तरफ है। बीच में गुंबज या कैलाश शिखर, और उसके आजू-बाजू से पानी की धाराएँ। कैलाश शिखर शिवलिंग है, पानी की निकासी दोनों तरफ नदियों की जलधारा के रूप में दिख रही हैजो कैलाश के ग्लेशियर यानी बर्फ से निकलती हैं। कैलाश पर्वत से भारत की चार प्रमुख नदियों (सिंधु, सतलज, ब्रह्मपुत्र और करनाली (नेपाल की और)) का उद्गम होता है। भारत उपमहाद्वीप के लिए पानी का बहुत बड़ा स्रोत कैलाश पर्वत सबसे अधिक ऊँचा है जिसके आसपास कोई भी बर्फ से आच्छादित पर्वत शिखर नही है

शिवलिंग पर पानी डाला जाता है। ईश्वर हमें जो देते है, वही हम ईश्वर को श्रद्धापूर्वक समर्पित करते हैं। कैलाश पर्वत पानी देता है जिससे धरती पर जीवन की उत्पत्ति हुई है, और जो हर प्रकार के जीवन के लिए अतिआवश्यक है। यही इसकी महत्ता या महत्व है। शिवलिंग ईश्वर, शिव-शक्ति (शंकर-पार्वती ) का प्रतीक अर्थात चिन्ह है। इसलिए जब भी आप शिवलिंग की पूजा करें तो अपनी ईश्वरीय माँ को शिव के साथ रखना न भूले। 

कैलाश से जुड़ी बहुत सारे रोचक तथ्य हैं। कई ईश्वरतुल्य महामानवों को यहाँ मोक्ष प्राप्ति हुई है। कैलाश के आस-पास आपकी उम्र बढ़ने की निशानियों में तेजी से वृद्धि होती है, जैसे बालों और नाखूनों का तेजी से बढ़ना वगैरह। कैलाश से उत्तरी ध्रुव की दूरी जो की ६६६६ किलोमीटर है, और दक्षिणी ध्रुव की दूरी जो की इससे ठीक दोगुनी, यानी १३३३२ किलोमीटर है। कैलाश पर्वत से बहुत से धरती के प्राचीन स्मारकों की दूरी ६६६६ किलोमीटर है, जिसे अंग्रेजी में एनर्जी ग्रिड माना जाता है, और वह भी बहुत प्राचीन काल से। कैलाश से जुड़े ऐसे बहुत सारे तथ्य है, जो इसे विशेष दर्जा देते है, और जो प्रकृति ने खुद बनाए है, इंसान ने नही बनाए। जैसे कैलाश अभी जहाँ स्थिति है, वहाँ वह पहले नही था, बल्कि जब भारतीय उपमहाद्वीप की प्लेट यूरेशिया प्लेट से टकराई और हिमालय की निर्मित हुई, तब कैलाश बना है।


      



पहले भारत खंड एशिया महाद्वीप से अलग था। जब भारत खंड एशिया महाद्वीप से टकराया, तब हिमालय की निर्मित हुई, और तभी कैलाश पर्वत अपनी स्थिति में आया। इसके अपनी स्थिति में आने के बाद ही मनुष्य की उत्पत्ति हुई। कैलाश पर्वत की पिरामिड जैसी आकृति  कई लोगों को आश्चर्यचकित करती है।


    

इसी कैलाश पर्वत से शिवलिंग की बनावट तय हुई है। शिव और शक्ति, पदार्थ और ऊर्जा हैं, जिससे पूरे ब्रह्मांड का निर्माण हुआ है। पदार्थ एवं ऊर्जा केबिना किसी भी चीज़ का अस्तित्व वैज्ञानिक रूप से असंभव है, और पदार्थ एवं ऊर्जा केवल दो ही चीज़ें ऐसी है जो ब्रम्हांड में शाश्वत है। चाहे कोई ईश्वर ही क्यों न हो, पदार्थ एवं ऊर्जा के बगैर उसका अस्तित्व हो ही नही सकता, और पदार्थ और ऊर्जा के बगैर उसका अस्तित्व मिट सकता है। यहां तक कि सत्य और समय, जो की केवल एक विचार है, वह भी पदार्थ और ऊर्जा के बगैर नहीं हो सकते, बल्कि सत्य और समय स्वयं शिव और शक्ति का स्वरूप है। इनका धरती में मनुष्य रूप शंकर एवं पार्वती है, जिनका निवास स्थान कैलाश है।

  

शिवलिंग का नाम वास्तव में शिव-शक्तिलिंग होना चाहिए। शिवलिंग शिव का लिंग और शक्ति की योनि नहीं है। वास्तव में शिवलिंग केवल कैलाश का प्रतीक है। लिंग का अर्थ प्रतीक होता है। जैसे रामलिंगम, चतुर्लिंगम, में अर्थ राम का प्रतीक या चार प्रतीक होता है, राम का लिंग या चार लिंग नहीं। 
***

चंडिका छंद, बासंत, दोहा ग़ज़ल, सॉनेट, आत्मदीप, नवगीत, कुण्डलिया, चित्रालंकार, तुम, मावठा


सॉनेट
शिव
*
कंकर कंकर में शंकर हैं।  
शक्ति भक्ति अनुरक्ति वही हैं। 
रौद्र रूप में प्रलयंकर हैं।।
भुक्ति-युक्ति, भव-मुक्ति यही हैं।।
.
प्रेम-क्षेम हैं, शत्रु काम के। 
नीलकंठ; नटराज; जगत्पति। 
इष्ट यही हैं राम-श्याम के।। 
चरण-शरण दें तब हो सद्गति।।
.

मारें तारक असुर जलंधर।
गङ्गाधर; शशिधर; त्रिपुरारी।
विश्वनाथ; नंदीश; महेश्वर।
शुभ करते भोले भंडारी।। 
 .
राग-विराग समान जानिए। 
नर्मदेश्वर इष्ट मानिए।।
***
टीप- सॉनेट आंग्ल काव्य विधा है। इसके दो प्रकार शेक्सपीरियन सॉनेट और मिल्टनियन सॉनेट हैं। दोनोंमें १४ पंक्ति अनिवार्य होती हैं पर पदांत नियम भिन्न होते हैं। 
सॉनेट
धतूरा
*
सदाशिव को है 'धतूरा' प्रिय।
'कनक' कहते हैं चरक इसको।
अमिय चाहक को हुआ अप्रिय।।
'उन्मत्त' सुश्रुत कहें; मत फेंको।।
.
तेल में रस मिला मलिए आप।
शांत हो गठिया जनित जो दर्द।
कुष्ठ का भी हर सके यह शाप।।
मिटाता है चर्म रोग सहर्ष।।
.
'स्ट्रामोनिअम' खाइए मत आप।
सकारात्मक ऊर्जा धन हेतु।
चढ़ा शिव को, मंत्र का कर जाप।
पार भव जाने बनाएँ सेतु।।
.
'धुस्तूर' 'धत्तूरक' उगाता बाल।
फूल, पत्ते, बीज,जड़ अव्याल।।
१७-२-२०२३ 
...

सॉनेट
शुभेच्छा
नहीं अन्य की, निज त्रुटि लेखें।
दोष मुक्त हो सकें ईश! हम।
सद्गुण औरों से नित सीखें।।
काम करें निष्काम सदा हम।।
नहीं सफलता पा खुश ज्यादा।
नहीं विफल हो वरें हताशा।
फिर फिर कोशिश खुद से वादा।।
पल पल मन में पले नवाशा।।
श्रम सीकर से नित्य नहाएँ।
बाधा से लड़ कदम बढ़ाएँ।
कर संतोष सदा सुख पाएँ।।
प्रभु के प्रति आभार जताएँ।।
आत्मदीप जल सब तम हर ले।
जग जग में उजियारा कर दे।।
१८-२-२०२२
•••
***
कार्यशाला
दोहा से कुंडलिया
*
पुष्पाता परिमल लुटा, सुमन सु मन बेनाम।
प्रभु पग पर चढ़ धन्य हो, कण्ठ वरे निष्काम।।
.
चढ़े सुंदरी शीश पर, कहे न कर अभिमान।
हृदय भंग मत कर प्रिये!, ले-दे दिल का दान।।
नयन नयन से लड़े, झुके मिल मुस्काता।
प्रणयी पल पल लुटा, प्रणय परिमल पुष्पाता।।
१८-२-२०२०
***
नवगीत:
अंदाज अपना-अपना
आओ! तोड़ दें नपना
*
चोर लूट खाएंगे
देश की तिजोरी पर
पहला ऐसा देंगे
अच्छे दिन आएंगे
.
भूखे मर जाएंगे
अन्नदाता किसान
आवारा फिरें युवा
रोजी ना पाएंगे
तोड़ रहे हर सपना
अंदाज अपना-अपना
*
निज यश खुद गाएंगे
हमीं विश्व के नेता
वायदों को जुमला कह
ठेंगा दिखलाएंगे
.
खूब जुल्म ढाएंगे
सांस, आस, कविता पर
आय घटा, टैक्स बढ़ा
बांसुरी बजाएंगे
कवि! चुप माला जपना
अंदाज अपना-अपना
***
१८.२.२०१८
***
चित्रालंकार:पर्वत
गाएंगे
अनवरत
प्रणय गीत
सुर साधकर।
जी पाएंगे दूर हो
प्रिये! तुझे यादकर।
१८-२-२०१८
***
नवगीत-
पड़ा मावठा
*
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
सिकुड़-घुसड़कर बैठ बावले
थर-थर मत कँप, गरम चाय ले
सुट्टा मार चिलम का जी भर
उठा टिमकिया, दे दे थाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया
टेर जोर से,भगा लड़ैया
गारे राई,सुना सवैया
घाघ-भड्डरी
बन जा आप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
कुछ अपनी, कुछ जग की कह ले
ढाई आखर चादर तह ले
सुख-दुःख, हँस-मसोस जी सह ले
चिंता-फिकिर
बना दे भाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
बाप न भैया, भला रुपैया
मेरा-तेरा करें न लगैया
सींग मारती मरखन गैया
उठ, नुक्कड़ का
रस्ता नाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
जाकी मोंड़ी, बाका मोंड़ा
नैन मटक्का थोडा-थोडा
हम-तुम ने नाहक सर फोड़ा
पर निंदा का
मर कर पाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
***
दोहा दुनिया
*
राजनीति है बेरहम, सगा न कोई गैर
कुर्सी जिसके हाथ में, मात्र उसी की खैर
*
कुर्सी पर काबिज़ हुए, चेन्नम्मा के खास
चारों खाने चित हुए, अम्मा जी के दास
*
दोहा देहरादून में, मिला मचाता धूम
जितने मतदाता बने, सब है अफलातून
*
वाह वाह क्या बात है?, केर-बेर का संग
खाट नहीं बाकी बची, हुई साइकिल तंग
*
आया भाषणवीर है, छाया भाषणवीर
किसी काम का है नहीं, छोड़े भाषण-तीर
*
मत मत का सौदा करो, मत हो मत नीलाम
कीमत मत की समझ लो, तभी बनेगा काम
*
एक मरा दूजा बना, तीजा था तैयार
जेल हुई चौथा बढ़ा, दो कुर्सी-गल हार
*
१८-२- २०१७
***
नवगीत:
तुमसे सीखा
*
जीवन को
जीवन सा जीना
तुमसे सीखा।
*
गिरता-उठता
पहले भी था
रोता-हँसता
पहले भी था
आँसू को
अमृत सा पीना
तुमसे सीखा।
*
खिलता-झरता
पहले भी था
रुकता-बढ़ता
पहले भी था
श्वासों में
आसों को जीना
तुमसे सीखा।
*
सोता-जगता
पहले भी था
उगता-ढलता
पहले भी था
घर ही
काशी और मदीना
तुमसे सीखा
*
थकता-थमता
पहले भी था
श्रोता-वक्ता
पहले भी था
देव
परिश्रम और पसीना
तुमसे सीखा
***
नवगीत:
हो मेरी तुम!
*
श्वास-आस में मुखरित
निर्मल नेह-नर्मदा
ओ मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
प्रवहित-लहरित
घहरित-हहरित
बूँद-बूँद में मुखरित
चंचल-चपल शर्मदा
ओ मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
प्रमुदित-मुकुलित
हर्षित-कुसुमित
कुंद इंदु सम अर्चित
अर्पित अचल वर्मदा
ओ मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
कर्षित-वर्षित
चर्चित-तर्पित
शब्द-शब्द में छंदित
वन्दित विमल धर्मदा
ओ मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
१८-२-२०१६
***
प्रेम गीत में संगीत चेतना
*
साहित्य और संगीत की स्वतंत्र सत्ता और अस्तित्व असंदिग्ध है किन्तु दोनों के समन्वय और सम्मिलन से अलौकिक सौंदर्य सृष्टि-वृष्टि होती है जो मानव मन को सच्चिदानंद की अनुभूति और सत-शिव-सुन्दर की प्रतीति कराती है. साहित्य जिसमें सबका हित समाहित हो और संगीत जिसे अनेक कंठों द्वारा सम्मिलित-समन्वित गायन१।
वाराहोपनिषद में अनुसार संगीत 'सम्यक गीत' है. भागवत पुराण 'नृत्य तथा वाद्य यंत्रों के साथ प्रस्तुत गायन' को संगीत कहता है तथा संगीत का लक्ष्य 'आनंद प्रदान करना' मानता है, यही उद्देश्य साहित्य का भी होता है.
संगीत के लिये आवश्यक है गीत, गीत के लिये छंद. छंद के लिये शब्द समूह की आवृत्ति चाहिए जबकि संगीत में भी लयखंड की आवृत्ति चाहिए। वैदिक तालीय छंद साहित्य और संगीत के समन्वय का ही उदाहरण है.
अक्षर ब्रम्ह और शब्द ब्रम्ह से साक्षात् साहित्य करता है तो नाद ब्रम्ह और ताल ब्रम्ह से संगीत। ब्रम्ह की
मतंग के अनुसार सकल सृष्टि नादात्मक है. साहित्य के छंद और संगीत के राग दोनों ब्रम्ह के दो रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
साहित्य और संगीत का साथ चोली-दामन का सा है. 'वीणा-पुस्तक धारिणीं भगवतीं जाड्यंधकारापहाम्' - वीणापाणी शारदा के कर में पुस्तक भी है.
'संगीत साहित्य कलाविहीन: साक्षात पशु: पुच्छ विषाणहीनः' में भी साहित्य और संगीत के सह अस्तित्व को स्वीकार किया गया है.
स्वर के बिना शब्द और शब्द के बिना स्वर अपूर्ण है, दोनों का सम्मिलन ही उन्हें पूर्ण करता है.
ग्रीक चिंतक और गणितज्ञ पायथागोरस के अनुसार 'संगीत विश्व की अणु-रेणु में परिव्याप्त है. प्लेटो के अनुसार 'संगीत समस्त विज्ञानों का मूल है जिसका निर्माण ईश्वर द्वारा सृष्टि की विसंवादी प्रवृत्तियों के निराकरण हेतु किया गया है. हर्मीस के अनुसार 'प्राकृतिक रचनाक्रम का प्रतिफलन ही संगीत है.
नाट्य शास्त्र के जनक भरत मुनि के अनुसार 'संगीत की सार्थकता गीत की प्रधानता में है. गीत, वाद्य तथा नृत्य में गीत ही अग्रगामी है, शेष अनुगामी.
गीत के एक रूप प्रगीत (लिरिक) का नामकरण यूनानी वाद्य ल्यूरा के साथ गाये जाने के अधर पर ही हुआ है. हिंदी साहित्य की दृष्टि से गीत और प्रगीत का अंतर आकारगत व्यापकता तथा संक्षिप्तता ही है.
गीत शब्दप्रधान संगीत और संगीत नाद प्रधान गीत है. अरस्तू ने ध्वनि और लय को काव्य का संगीत कहा है. गीत में शब्द साधना (वर्ण अथवा मात्रा की गणना) होती है, संगीत में स्वर और ताल की साधना श्लाघ्य है. गीत को शब्द रूप में संगीत और संगीत को स्वर रूप में गीत कहा जा सकता है.
प्रेम के दो रूप संयोग तथा वियोग श्रृंगार तथा करुण रस के कारक हैं.
प्रेम गीत इन दोनों रूपों की प्रस्तुति करते हैं. आदिकवि वाल्मीकि के कंठ से नि:सृत प्रथम काव्य क्रौंचवध की प्रतिक्रिया था. पंत जी के नौसर: 'वियोगी होगा पहला कवि / आह से उपजा होगा गान'
लव-कुश द्वारा रामायण का सस्वर पाठ सम्भवतः गीति काव्य और संगीत की प्रथम सार्वजनिक समन्वित प्रस्तुति थी.
लालित्य सम्राट जयदेव, मैथिलकोकिल विद्यापति, वात्सल्य शिरोमणि सूरदास, चैतन्य महाप्रभु, प्रेमदीवानी मीरा आदि ने प्रेमगीत और संगीत को श्वास-श्वास जिया, भले ही उनका प्रेम सांसारिक न होकर दिव्य आध्यात्मिक रहा हो.
आधुनिक हिंदी साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', हरिवंश राय बच्चन आदि कवियों की दृष्टि और सृष्टि में सकल सृष्टि संगीतमय होने की अनुभूति और प्रतीति उनकी रचनाओं की भाषा में अन्तर्निहित संगीतात्मकता व्यक्त करती है.
निराला कहते हैं- "मैंने अपनी शब्दावली को छोड़कर अन्यत्र सभी जगह संगीत के छंदशास्त्र की अनुवर्तिता की है.… जो संगीत कोमल, मधुर और उच्च भाव तदनुकूल भाषा और प्रकाशन से व्यक्त होता है, उसके साफल्य की मैंने कोशिश की है.''
पंत के अनुसार- "संस्कृत का संगीत जिस तरह हिल्लोलाकार मालोपमा से प्रवाहित होता है, उस तरह हिंदी का नहीं। वह लोल लहरों का चंचल कलरव, बाल झंकारों का छेकानुप्रास है.''
लोक में आल्हा, रासो, रास, कबीर, राई आदि परम्पराएं गीत और संगीत को समन्वित कर आत्मसात करती रहीं और कालजयी हो गयीं।
गीत और संगीत में प्रेम सर्वदा अन्तर्निहित रहा. नव गति, नव लय, ताल छंद नव (निराला), विमल वाणी ने वीणा ली (प्रसाद), बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ (महादेवी), स्वर्ण भृंग तारावलि वेष्ठित / गुंजित पुंजित तरल रसाल (पंत) से प्रेरित समकालीन और पश्चात्वर्ती रचनाकारों की रचनाओं में यह सर्वत्र देखा जा सकता है.
छायावादोत्तर काल में गोपालदास सक्सेना 'नीरज', सोम ठाकुर, भारत भूषण, कुंवर बेचैन आदि के गीतों और मुक्तिकाओं (गज़लों) में प्रेम के दोनों रूपों की सरस सांगीतिक प्रस्तुति की परंपरा अब भी जीवित है.
१८-२-२०१५
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द्विपदी
मिलाकर हाथ खासों ने, किया है आम को बाहर
नहीं लेना न देना ख़ास से, हम आम इन्सां हैं
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विमर्श
झाड़ू
* ज्योतिष-वास्तु एवं पौराणिक मान्यताओं के अनुसार झाड़ू सिर्फ हमारे घर की गंदगी को दूर नहीं करती है, बल्कि हमारे * जीवन में आ रही दरिद्रता को भी घर से बाहर निकालने का कार्य करती है। झाड़ू हमारे घर-परिवार में सुख-समृद्घि लाती है। जिस घर में झाड़ू का अपमान होता है, वहाँ धन हानि होती है।
* झाड़ू में महालक्ष्मी का वास माना गया है। झाड़ू घर से बाहर अथवा छत पर न रखें। इससे चोरी का भय होता है।
* झाड़ू छिपाकर ऐसी जगह पर रखना चाहिए जहाँ से झाड़ू हमें, घर या बाहर के सदस्यों को दिखाई नहीं दें।
* गौ माता या अन्य किसी भी जानवर को झाड़ू से मारकर कभी भी नहीं भगाना चाहिए।
* गलती से भी कभी झाड़ू को लात न मारें अन्यथा लक्ष्मी रुष्ट होकर घर से चली जाती है।
* घर-परिवार के सदस्य अगर खास कार्य से घर से जाएँ तो उनके जाने के उपरांत तुरंत झाड़ू नहीं लगाना चाहिए। यह अपशकुन है। ऐसा करने से बाहर गए व्यक्ति को अपने कार्य में असफलता का मुंह देखना पड़ सकता है।
* झाड़ू को आदर-सत्कार से रखें तो हमारे घर में कभी भी धन-संपन्नता की कमी महसूस नहीं होगी।
* झाड़ू के सम्मान का परिणाम आप दल को सत्ता के रूप में मिल रहा है।
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छंद सलिला:
चंडिका छंद
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दो पदी, चार चरणीय, १३ मात्राओं के मात्रिक चंडिका छंद में चरणान्त में गुरु-लघु-गुरु का विधान है.
लक्षण छंद:
१. तेरह मात्री चंडिका, वसु-गति सम जगवन्दिता
गुरु लघु गुरु चरणान्त हो, श्वास-श्वास हो नंदिता
२. वसु-गति आठ व पाँच हो, रगण चरण के अंत में
रखें चंडिका छंद में, ज्ञान रहे ज्यों संत में
उदाहरण:
१. त्रयोदशी! हर आपदा, देती राहत संपदा
श्रम करिये बिन धैर्य खो, नव आशा की फस्ल बो
२. जगवाणी है भारती, विश्व उतारे आरती
ज्ञान-दान जो भी करे, शारद भव से तारती
३. नेह नर्मदा में नहा, राग द्वेष दुःख दें बहा
विनत नमन कर मात को, तम तज वरो उजास को
४. तीन न तेरह में रहे, जो मिथ्या चुगली कहे
मौन भाव सुख-दुःख सहे, कमल पुष्प सम हँस बहे
१८-२-२०१४
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बासंती दोहा ग़ज़ल
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स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित शत कचनार.
किंशुक कुसुम विहँस रहे, या दहके अंगार..

पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री श्रृंगार..

महुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार.
मधुशाला में बिन पिए, सिर पर नशा सवार..

नहीं निशाना चूकती, पंचशरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..

नैन मिले लड़ मिल झुके, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..

मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.
फागुन में सब पर चढ़ा, मिलने गले खुमार..

ढोलक, टिमकी, मँजीरा, करें ठुमक इसरार.
फगुनौटी चिंता भुला. नाचो-गाओ यार..

घर-आँगन, तन धो लिया, अनुपम रूप निखार.
अपने मन का मैल भी, किंचित 'सलिल' बुहार..

बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार..
१८-२-२०११
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