कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 13 मई 2022

सॉनेट, दोहा, जबलपुर, मुक्तक, नवगीत,लघुकथा,मुक्तिका,उर्दू ,

सॉनेट

हरि! जन को हरिजन मत करना
आम आदमी कोई तो हो
जिसकी राह अलग थोड़ी हो
भाव-ताव देखो मत डरना

अंतर में अंतर रख हँसना
कथनी-करनी एक न भाए
ठकुरसुहाती खूब सुहाए
ले अवतार न नाहक फँसना

मीठा भोग मिले हँस चखना
खट्टा कड़वा तीखा तजना
अन्य न तो खुद निज जय करना
पापी तार पार भव करना

अपने मन की रास न कसना
हर सुंदर तन के मन बसना
१३-५-२०२२
•••
दोहा सलिला
जबलपुर में शुभ प्रभात
*
रेवा जल में चमकतीं, रवि-किरणें हँस प्रात।
कहतीं गौरीघाट से, शुभ हो तुम्हें प्रभात।।१।।
*
सिद्धघाट पर तप करें, ध्यान लगाकर संत।
शुभप्रभात कर सूर्य ने, कहा साधना-तंत।।२।।
*
खारी घाट करा रहा, भवसागर से पार।
सुप्रभात परमात्म से, आत्मा कहे पुकार।।३।
*
साबुन बिना नहाइए, करें नर्मदा साफ़।
कचरा करना पाप है, मैया करें न माफ़।।४।।
*
मिलें लम्हेटा घाट में, अनगिन शिला-प्रकार।
देख, समझ पढ़िये विगत, आ आगत के द्वार।।५।।
*
है तिलवारा घाट पर, एक्वाडक्ट निहार।
नदी-पाट चीरे नहर, सेतु कराए पार।।६।।
*
शंकर उमा गणेश सँग, पवनपुत्र हनुमान।
देख न झुकना भूलना, हाथ जोड़ मति मान।।७।।
*
पोहा-गरम जलेबियाँ, दूध मलाईदार।
सुप्रभात कह खाइए, कवि हो साझीदार।।८।।
*
धुआँधार-सौन्दर्य को, देखें भाव-विभोर।
सावधान रहिए सतत, फिसल कटे भव-डोर।।९।।
*
गौरीशंकर पूजिए, चौंसठ योगिन सँग।
भोग-योग संयोग ने, कभी बिखेरे रंग।।१०।।
*
नौकायन कर देखिये, संगमरमरी रूप।
शिखर भुज भरे नदी को, है सौन्दर्य अनूप।११।।
*
बहुरंगी चट्टान में, हैं अगणित आकार।
भूलभुलैयाँ भुला दे, कहाँ गई जलधार?।१२।।
*
बंदरकूदनी देख हो, लघुता की अनुभूति।
जब गहराई हो अधिक, करिए शांति प्रतीति।।१३।।
*
कमल, मगर, गज, शेर भी, नहीं रहे अब शेष।
ध्वंस कर रहा है मनुज, सचमुच शोक अशेष।।१४।।
*
मदनमहल अवलोकिए, गा बम्बुलिया आप।
थके? करें विश्राम चल, सुख जाए मन-व्याप।।१५।।
१३-५-२०१७
***
मुक्तक सलिला:
दिल ही दिल
*
तुम्हें देखा, तुम्हें चाहा, दिया दिल हो गया बेदिल
कहो चाहूँगा अब कैसे, न होगा पास में जब दिल??
तुम्हें दिलवर कहूँ, तुम दिलरुबा, तुम दिलनशीं भी हो
सनम इंकार मत करना, मिले परचेज का जब बिल
*
न देना दिल, न लेना दिल, न दिलकी डील ही करना
न तोड़ोगे, न टूटेगा, नहीँ कुछ फ़ील ही करना
अभी फर्स्टहैंड है प्यारे, तुम सैकेंडहैंड मत करना
न दरवाज़ा खुला रखना, न कोई दे सके धऱना
*
न दिल बैठा, न दिल टूटा, न दहला दिल, कहूँ सच सुन
न पूछो कैसे दिल बहला?, न बोलूँ सच , न झूठा सुन,
रहे दिलमें अगर दिलकी, तो दर्दे-दिल नहीं होगा
कहो संगदिल भले ही तुम, ये दिल कातिल नहीँ होगा
*
लगाना दिल न चाहा, दिल लगा कब? कौन बतलाये??
सुनी दिल की, कही दिल से, न दिल तक बात जा पाये।
ये दिल भाया है जिसको, उसपे क्यों ये दिल नहीं आया?
ये दिल आया है जिस पे, हाय! उसको दिल नहीं भाया।
१३-५-२०१४
***
रही दिल की हमेशा दिल में, दिल सुनकर नहीं सुनता
नहीं दिल तोड़ता सपने अगरचे दिल नहीं बुनता
दिलों ने दिल ही तोड़े हैं न फेविकोल से जोड़े-
सुखाता दिल न दलहन सा, न दिल गम से अगर घुनता
*
न ए वी एम में है दिल, गनीमत आप यह मानें
जो होता फेल हो जाता, फजीहत आप हाथ ठानें
न बाई पास हो पाता, न बदला वाल्व ही जाता
मुसीबत दिल की दिल करता, केजरी-कपिल हो जाता
*
१३-५-२०१७
***
लघुकथा
कानून के रखवाले
*
'हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े तक ख़राब हो गये, बोलती बंद हो गयी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम किसी को अपना विरोध नहीं करने देंगे।' वक्ता की बात पूर्ण होने के पूर्व हो एक जागरूक श्रोता ने पूछा- ''आपका संविधान और कानून के जानकार है और अपने मुवक्किलों को उसके न्याय दिलाने का पेशा करते हैं। कृपया, बताइये संविधान के किस अनुच्छेद या किस कानून की किस कंडिका के तहत आपको एक सामान्य नागरिक होते हुए अन्य नागरिक विचाराभिव्यक्ति से रोकने और खुद दण्डित करने का अधिकार प्राप्त है? क्या आपसे असहमत अन्य नागरिक आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करे तो वह उचित होगा? यदि नागरिक विवेक के अनुसार एक-दूसरे को दण्ड देने के लिए स्वतंत्र हैं तो शासन, प्रशासन और न्यायालय किसलिए है? ऐसी स्थिति में आपका पेशा ही समाप्त हो जायेगा। आप क्या कहते हैं?
प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर-नतमस्तक खड़े थे कानून के तथाकथित रखवाले।
***
मुक्तिका
*
जितने चेहरे उतने रंग
सबकी अलग-अलग है जंग
*
ह्रदय एक का है उदार पर
दिल दूजे का बेहद तंग
*
यह जिसका हो रहा सहायक
वह इससे है बेहद तंग
*
चिथड़ों में भी लाज ढकी है
आधुनिका वस्त्रों में नंग
*
जंग लगी जिसके दिमाग में
वह औरों से छेड़े जंग
*
बेढंगे में छिपा न दिखता
खोज सको तो खोजो ढंग
*
नेह नर्मदा 'सलिल' स्वच्छ है
मलिन हो गयी सुरसरि गंग
***
१३.५.२०१६
***
नवगीत:
.
खून-पसीने की कमाई
कर में देते जो
उससे छपते विज्ञापन में
चहरे क्यों हों?
.
जिन्हें रात-दिन
काटा करता
सत्ता और कमाई कीड़ा
आँखें रहते
जिन्हें न दिखती
आम जनों को होती पीड़ा
सेवा भाव बिना
मेवा जी भर लेते हैं
जन के मन में ऐसे
लोलुप-बहरे क्यों हों?
.
देश प्रेम का सलिल
न चुल्लू भर
जो पीते
मतदाता को
भूल स्वार्थ दुनिया
में जीते
जन-जीवन है
बहती 'सलिला'
धार रोकते बाधा-पत्थर
तोड़ी-फेंको, ठहरे क्यों हों?
***
एक गीति रचना:
करो सामना
*
जब-जब कंपित भू हुई
हिली आस्था-नीव
आर्तनाद सुनते रहे
बेबस करुणासींव
न हारो करो सामना
पूर्ण हो तभी कामना
ध्वस्त हुए वे ही भवन
जो अशक्त-कमजोर
तोड़-बनायें फिर उन्हें
करें परिश्रम घोर
सुरक्षित रहे जिंदगी
प्रेम से करो बन्दगी
संरचना भूगर्भ की
प्लेट दानवाकार
ऊपर-नीचे चढ़-उतर
पैदा करें दरार
रगड़-टक्कर होती है
धरा धीरज खोती है
वर्तुल ऊर्जा के प्रबल
करें सतत आघात
तरु झुक बचते, पर भवन
अकड़ पा रहे मात
करें गिर घायल सबको
याद कर सको न रब को
बस्ती उजड़ मसान बन
हुईं प्रेत का वास
बसती पीड़ा श्वास में
त्रास ग्रस्त है आस
न लेकिन हारेंगे हम
मिटा देंगे सारे गम
कुर्सी, सिल, दीवार पर
बैंड बनायें तीन
ईंट-जोड़ मजबूत हो
कोने रहें न क्षीण
लचीली छड़ें लगाओ
बीम-कोलम बनवाओ
दीवारों में फंसायें
चौखट काफी दूर
ईंट-जुड़ाई तब टिके
जब सींचें भरपूर
रैक-अलमारी लायें
न पल्ले बिना लगायें
शीश किनारों से लगा
नहीं सोइए आप
दीवारें गिर दबा दें
आप न पायें भाँप
न घबरा भीड़ लगायें
सजग हो जान बचायें
मेज-पलंग नीचे छिपें
प्रथम बचाएं शीश
बच्चों को लें ढांक ज्यों
हुए सहायक ईश
वृद्ध को साथ लाइए
ईश-आशीष पाइए
***
गीति रचना:
करो सामना
*
जब-जब कंपित भू हुई
हिली आस्था-नीव
आर्तनाद सुनते रहे
बेबस करुणासींव
न हारो करो सामना
पूर्ण हो तभी कामना
ध्वस्त हुए वे ही भवन
जो अशक्त-कमजोर
तोड़-बनायें फिर उन्हें
करें परिश्रम घोर
सुरक्षित रहे जिंदगी
प्रेम से करो बन्दगी
संरचना भूगर्भ की
प्लेट दानवाकार
ऊपर-नीचे चढ़-उतर
पैदा करें दरार
रगड़-टक्कर होती है
धरा धीरज खोती है
वर्तुल ऊर्जा के प्रबल
करें सतत आघात
तरु झुक बचते, पर भवन
अकड़ पा रहे मात
करें गिर घायल सबको
याद कर सको न रब को
बस्ती उजड़ मसान बन
हुईं प्रेत का वास
बसती पीड़ा श्वास में
त्रास ग्रस्त है आस
न लेकिन हारेंगे हम
मिटा देंगे सारे गम
कुर्सी, सिल, दीवार पर
बैंड बनायें तीन
ईंट-जोड़ मजबूत हो
कोने रहें न क्षीण
लचीली छड़ें लगाओ
बीम-कोलम बनवाओ
दीवारों में फंसायें
चौखट काफी दूर
ईंट-जुड़ाई तब टिके
जब सींचें भरपूर
रैक-अलमारी लायें
न पल्ले बिना लगायें
शीश किनारों से लगा
नहीं सोइए आप
दीवारें गिर दबा दें
आप न पायें भाँप
न घबरा भीड़ लगायें
सजग हो जान बचायें
मेज-पलंग नीचे छिपें
प्रथम बचाएं शीश
बच्चों को लें ढांक ज्यों
हुए सहायक ईश
वृद्ध को साथ लाइए
ईश-आशीष पाइए
१३-५-२०१५
***
गीत:
छोड़ दें थोड़ा...
संजीव 'सलिल'
* *
जोड़ा बहुत,
छोड़ दें थोड़ा...
*
चार कमाना, एक बाँटना.
जो बेहतर हो वही छांटना-
मंझधारों-भँवरों से बचना-
छूट न जाए घाट-बाट ना.
यही सिखाया परंपरा ने
जुत तांगें में
बनकर घोड़ा...
*
जब-जब अंतर्मुखी हुए हो.
तब एकाकी दुखी हुए हो.
मायावी दुनिया का यह सच-
आध्यात्मिक कर त्याग सुखी हो.
पाठ पढ़ाया पराsपरा ने.
कुंभकार ने
रच-घट फोड़ा...
*
मेघाच्छादित आसमान सच.
सूर्य छिपा…
१३-५-२०१२
लेख-
भारत में उर्दू
*
भारत विभिन्न भाषाओँ का देश है जिनमें से एक उर्दू भी है. मुग़ल फौजों द्वारा आक्रमण में विजय पाने के बाद स्थानीय लोगों के कुचलने के लिये उनके संस्कार, आचार, विचार, भाषा तथा धर्म को नष्ट कर प्रचलित के सर्वथा विपरीत बलात लादा गया तथा अस्वीकारने पर सीधे मौत के घाट उतारा गया ताकि भारतवासियों का मनोबल समाप्त हो जाए और वे आक्रान्ताओं का प्रतिरोध न करें. यह एक ऐतिहासिक सत्य है जिसे कोई झुठला नहीं सकता. पराजित हतभाग्य जनों को मुगल सिपाहियों ने अरबी-फ़ारसी के दोषपूर्ण रूप (सिपाही शुद्ध भाषा नहीं जानते थे) को स्थानीय भाषा कौरवी के साथ मिलावट कर बोला. उनके गुलामों को भी वही भाषा बोलने के लिये विवश होना पड़ा.
भारतीयों को भ्रान्ति है कि उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्र या राजकीय भाषा है जबकि यह पूरी तरह गलत है. न्यूज़ इंटरनॅशनल के अनुसार लाहौर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ख्वाजा मुहम्मद शरीफ ने १३ अक्टूबर २०१० को एक परमादेश याचिका को इसलिए खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता सना उल्लाह और उसके वकील यह प्रमाणित करने में असफल हुए कि उर्दू पाकिस्तान की सरकारी काम-काज की भाषा है. याचिकाकर्ता ने दावा किया था कि १९४८ में पाकिस्तान के राष्ट्रपिता कायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ने ढाका में विद्यार्थियों को सम्बोधत करते हुए उर्दू को पाकिस्तान की सरकारी काम-काज की भाषा बताया था तथा संविधान में भी एक निर्धारित समयावधि में ऐसा किये जाने को कहा गया है लेकिन पाकिस्तान की आज़ादी के ६२ साल बाद तक ऐसा नहीं किया गया.
हरकादास वासन, लीड्स अमेरिका के अनुसार-- ''उर्दू संसार की सर्वाधिक खूबसूरत भाषा है जिसे बोलते समय आप खुद को दुनिया से ऊँचा अनुभव करते है तथा इसे भारत की सरकारी काम-काज की भाषा बनाया जाना चाहिए.वासन के अनुसार उर्दू अरबी-फारसी प्रभाव से हिन्दी का उन्नत रूप है. तुर्की मूल के शब्द 'उर्दू' का अर्थ सेना या तंबू है. उर्दू ने व्यावहारिक रूप से हिन्दी की शब्दावली को उसी तरह दोगुना किया है जैसे फ्रेंच ने अंग्रेजी को. उर्दू ने भारतीय कविता विशेषकर श्रंगारिक कविता में बहुत कुछ जोड़ा है. मेहरबानी तथा तशरीफ़ रखिए जैसे शब्द उर्दू के हैं.'' उर्दू की एक खास नजरिये से की जा रही इस पैरवी के पीछे छिपी भावना छिपाए नहीं छिपती. हिन्दी को कमतर और उर्दू को बेहतर बताने का ऐसा दुष्प्रयास उर्दूदां अक्सर करते रहे हैं और इसी कारण हिन्दी व्याकरण और पिंगल के आधार पर रची गयी गजलों को खारिज करते रहे हैं जबकि खुद हर्फ़ गिराकर लिखे गये दोषपूर्ण दोहे थोपते आये हैं.
वस्तुतः उर्दू एक गड्ड-मड्ड भाषा या यूँ कहें कि हिन्दी भाषा ही एक रूप है जो अरबी अक्षरों से लिखी जाती है. भाषा विज्ञान के अनुसार उर्दू वास्तव में एक भाषा है ही नहीं. फारस, अरब तथा तुर्की आदि देशों के सिपाहियों की मिश्रित बोली ही उर्दू है. किसी पराजित देश में विजेताओं की भाषा का प्रयोग करने की प्रवृत्ति होती है. इसी कारण भारत में पहले उर्दू तथा बाद में अंग्रेजी बोली गयी. उर्दू तथा अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार तथा हिन्दी की उपेक्षा के पीछे अखबारी समाचार माध्यम तथा प्रशासनिक अधिकारियों की महती भूमिका है.व्यक्ति चाहें भी तो भाषा को प्रचलन में नहीं ला सकते जब तक कि अख़बार तथा प्रशासन न चाहें.
उर्दू का सौन्दर्य विष कन्या के रूप की तरह मादक किन्तु घातक है. उर्दू अपने उद्भव से आज तक मुस्लिम आक्रमणकारियों और मुस्लिम आक्रामक प्रवृत्ति की भाषा है.८० से अधिक वर्षों तक उर्दू उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम भारत की सरकारी काम-काज की भाषा रही है किन्तु यह उत्तर तथा हैदराबाद के मुसलमानों को छोड़कर अन्य वर्गों (यहाँ तक कि सभी मुसलमानों में भी) में अपनी जड़ नहीं जमा सकी. अंग्रेजी राज्य में उत्तर भारत में उर्दू शिक्षण अनिवार्य किये जाने के कारण पुरुष वर्ग उर्दू जान गया था किन्तु घरेलू महिलाएँ हिन्दी ही बोलती रहीं.यहाँ तक कि केवल ५०% मुसलमान ही उर्दू को अपनी मातृभाषा कहते हैं. मुसलमानों की मातृभाषा बांगला देश में बंगाली, केरल मे मलयालम, तमिलनाडु में तमिल आदि हैं. यह भी सत्य है कि मुसलमानों की धार्मिक भाषा उर्दू नहीं अरबी है. आरम्भ में मुस्लिम लीग ने भी उर्दू को मुसलमानों की दूसरी भाषा ही कहा था.
मुस्लिम काल में उर्दू सरकारी काम-काज की भाषा थी इसलिए सरकारी काम-काज से प्रमुखतः जुड़े कायस्थों, ब्राम्हणों और क्षत्रियों को इसका प्रयोग करने के लिये बाध्य होना पड़ा. जो गरीब हिन्दू बलात मुसलमान बनाये गए वे किसान-सिपाही थे जिन्हें भाषिक विकास से कोई सीधा सरोकार नहीं था. उर्दू के विकास में सर्वाधिक प्रभावी भूमिका दिमाग से तेज और सरकारी बन्दोबस्त से जुड़े कायस्थों ने निभाई जिसका लाभ उन्हें राजस्व से जुड़े महकमों में पदस्थ होकर मिला. उर्दू कौरवी, संस्कृत, प्राकृत, अरबी, फ़ारसी तथा स्थानीय बोलिओं के शब्दों का सम्मिश्रण अर्थात चूँ-चूँ का मुरब्बा हो गई.
उर्दू का छंद शास्त्र यद्यपि अरबी-फारसी से उधार लिया गया किन्तु मूलतः वहाँ भी यह संस्कृत से ही गया था, इसलिए उर्दू के रुक्न और बहरें संस्कृत छंदों पर ही आधारित मिलती हैं. फारस और अरब की भौगोलिक परिस्थितियों और निवासियों को कुछ शब्दों के उच्चारण में अनुभूत कठिनाई के कारण वही प्रभाव उर्दू में आया. कवियों ने बहरों में कई जगहों पर भारतीय भाषाओँ के शब्दों के प्रयोग में बहर के अनुकूल नहीं पाया. फल यह हुआ कि शब्दों को तोड़-मरोड़कर या उसका कोई अक्षर अनदेखा-अन उच्चारित कर (हर्फ़ गिराकर) उपयोग करना और उसे सही साबित करने के लिये उसके अनुसार नियम बनाये गये. और के स्थान पर औ', मंदिर के स्थान पर मंदर, जान के स्थान पर जां, मकान के स्थान पर मकां, ब्राम्हण के स्थान पर बिरहमन आदि ऐसे ही प्रयोग हैं. इनसे कई जगह अर्थ के अनर्थ हो गये. मंदिर को मंदर करने पर उसका अर्थ देवालय से बदल कर गुफा हो गया.
स्वतंत्रता के बाद अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिये उर्दू प्रेमियों ने उर्दू को हिन्दी से अधिक प्राचीन और बेहतर बताने की जी तोड़ कोशिश की किन्तु आम भारतवासियों को अरबी-फ़ारसी शब्दों से बोझिल भाषा स्वीकार न हुई. फलतः, उर्दू के श्रेष्ठ कहे जा रहे शायरों का वह कलाम जिसे उन्होंने श्रेष्ठ माना जनता के दिल में घर नहीं कर सका और जिसे उन्होंने चलते-फिरते लिखा गया या सतही माना था वह लोकप्रिय हुआ. मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपनी जिन पद्य रचनाओं को पूरी विद्वता से लिखा वे आज किसी को याद नहीं हैं जबकि जिस गजल को 'तंग रास्ता' और 'कोल्हू का बैल' कहा गया था उसने उन्हें अमर कर दिया. ऐसा ही अन्यों के साथ हुआ. दाल न गलती देख मजबूरी में उर्दू लिपि के स्थान पर देवनागरी को अपनाकर हिन्दी के बाज़ार से लाभ कमाने की कोशिश की गयी जो सफल भी हुई.
उदार हिन्दीभाषियों ने उर्दू को गले लगाने में कोई कसर न छोड़ी किन्तु उर्दू दां हिन्दी के व्याकरण-पिंगल को नकारने के दुष्प्रयास में जुट गये. हिन्दी गजलों को खारिज करने का कोई अधिकार न होने पर भी उर्दूदां ऐसा करते रहे जबकि उर्दू में समालोचना शास्त्र का हिन्दी की तुलना में बहुत कम विकास हो सका. उर्दू गजल को इश्क-मुश्क की कैद से आज़ाद कर आम अवाम के दुःख-दर्द से जोड़ने का काम हिन्दी ने ही किया. उर्दू को आक्रान्ता मुसलमानों की भाषा से जन सामान्य की भाषा का रूप तभी मिला जब वह हिन्दी से गले मिली किन्तु हिन्दी की पीठ में छुरा भोंकने से उर्दूदां बाज़ न आये. वे हिन्दी के सर्वमान्य दुष्यंत कुमार की सर्वाधिक लोकप्रिय ग़ज़लों को भी खारिज करार देते रहे. आज भी हिन्दी कवि सम्मेलनों में उर्दू की रचनाओं को पूरी तरह न समझने के बावजूद सराहा ही जाता है किन्तु उर्दू के मुशायरों में हिन्दी कवि या तो बुलाये ही नहीं जाते या उन्हें दाद न देकर अपमानित किया जाता है. इसमें कोई शक नहीं कि इस बेहूदा हरकत में उर्दू भाषा का कोई दोष नहीं है किन्तु उर्दूभाषियों को हिन्दी को अपमानित करने की मनोवृत्ति तो उजागर होती ही है.
भारत में उर्दू का सीधा विरोध न होने पर भी स्वतंत्रता के वर्षों बाद मुस्लिम आतंकवाद ने एक बार फिर उर्दू को अपना औजार बनाने की कोशिश की है. भारत सरकार ने हिंदीभाषियों के धन से उर्दू विश्वविद्यालय स्थापित करने में संकोच नहीं किया. भारत के हिन्दी विश्व विद्यालयों में उर्दू के पठन-पाठन की व्यवस्था है किन्तु हिन्दी भाषियों के करों से हिन्दी भाषी सरकार द्वारा स्थापित किये गाये उर्दू मदरसों और विश्व विद्यालयों में हिन्दी-शिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है.
बांग्ला देश ने उर्दू के घातक सामाजिक दुष्प्रभाव को पहचानकर सांस्कृतिक आधार पर उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया. यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी पंजाबियों, सिंधियों बलूचों और पठानों ने भी उर्दू को अपनी सभ्यता-संस्कृति के लिये घातक पाया और अब उर्दू पाकिस्तान में भी सिर्फ मुहाजिरों (भारत से भाग कर पहुँचे मुसलमान) की भाषा है. अमेरिका, जापान, रूस, या चीन कहीं भी उर्दू मुसलमानों की भाषा नहीं है पर भारत में उर्दू पर यह ठप्पा लगाया जाता रहा है. क्या आपने किसी मौलवी, मौलाना को हिन्दी में बोलते सुना है? राम कथा और कृष्ण कथा के प्रवचनकार या हिन्दीभाषी राजनेता पूरी उदारता से संस्कृत और हिन्दी के उद्धरण होते हुई भी उर्दू के शे'र कहने में कोई संकोच नहीं करते किन्तु मजहबी या सियासी तकरीरों में आपको संस्कृत, हिन्दी ही नहीं किसी भी भारतीय भाषा के उद्धरण नहीं मिलते. अपनी इस संकीर्णता के लिये शर्मिंदा होने और सुधारने / बदलने की बजाय उर्दूदां इसे अपनी जीत और उर्दू की ताकत बताते हैं. उर्दू के पीछे छिपी इस संकीर्ण, आक्रामक और बहुत हद तक सांप्रदायिक मनोवृत्ति ने उर्दू का बहुत नुक्सान भी किया है.
भारत में जन्म लेने ओर पोसी जाने के बाद भी उर्दू अवधी, भोजपुरी, बृज, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, मेवाड़ी, मारवाड़ी और ऐसी ही अन्य भाषाओँ की तरह आम आदमी की भाषा नहीं बन सक़ी और आज भी यह अधिकांश लोगों के लिये पराई भाषा है बावजूद इसके कि इसके कुछ शब्द प्रेस द्वारा लगातार उपयोग में लाये जाते हैं तथा इसे देवनागरी में लिखा जाता है जिससे इसके हिन्दी होने का भ्रम होता है. वस्तुतः उर्दू के पीछे सांप्रदायिक हिन्दी द्रोही मानसिकता को देखते हुए इसे हिन्दी से इतर पहचान दिया जाना बंद कर हिन्दी में ही समाहित होने दिया जाना चाहिए अन्यथा व्यावसायिक तथा तकनीकी बाध्यताओं के तहत अंग्रेजीभाषी बनती जा रही नई पीढ़ी इससे पूरी तरह दूर हो जाएगी. आज मैं अपने पूर्वजों के पुराने कागज़ नहीं पढ़ पाता चुकी वे उर्दू लिपि में लिखे गये हैं. उर्दू जाननेवालों से पढवाए तो उनमें इस्तेमाल किये गये शब्द ही समझ में नहीं आये.
तकनीकी कामों में रोजगार पाये नवयुवक गैर अंग्रेजी बहुत कम और सिर्फ मनोरंजन के लिये पढ़ते हैं... उनके बच्चों और परिवारजनों की भी यही स्थिति है. दिन-ब-दिन इनकी तादाद बढ़ती जा रही है. इन्हें भारतीयता से जोड़े रखने में सिर्फ हिन्दी ही समर्थ है. इस वर्ग में विविध प्रान्तों के रहवासियों जिनकी मूल भाषाएँ अलग-अलग हैं विवाह कर रहे हैं... इनकी भाषा क्यों हो? एक प्रान्त की भाषा दूसरे को नहीं आती... विकल्प मात्र यह कि वे अंग्रेजी बोलें या हिन्दी. वे बच्चों को भारतीयत से जोड़े रखना चाहते हैं. भोजपुरी पति की तमिल पत्नी भोजपुरी बोल सकेगी क्या? बंगाली पति अपनी अवधी पत्नी की भाषा समझ सकेगा क्या? पश्तो, डोगरी, मेवाड़ी, मारवाड़ी, बुन्देली, मैथिली, अंगिका, बज्जिका, मालवी, निमाड़ी, हल्बी, गोंडी, कैथी, कोरकू, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि हर भाषा पूज्य है किन्तु अपने मूल रूप में सभी उसे अपना नहीं सकते. एक सीमा तक अंग्रेजी या हिन्दी ने अन्य भाषाओँ से अधिक अपनी पहुँच बनाई है. अंग्रेजी के विदेशी मूल तथा भारतीय सामान्य जनों से दूरी के कारण हिन्दी एकमात्र भाषा है जो आम भारतीयों, अनिवासी भारतीयों, आप्रवासी भारतीयों तथा विदेशियों को एक सूत्र में जोड़कर संवाद का माध्यम बन सकती है.
हमें सत्य से साक्षात करन ही होगा अन्यथा हम अपने ही वंशजों से दूर हो जायेंगे या वे ही हमें समझ नहीं सकेंगे. उर्दूभाषियों तथा उर्दूप्रेमियों को भी इस परिदृश्य में अपनी संकीर्ण भावना छोड़कर हिन्दी के साथ गंगा-यमुना की तरह मिलना होगा अन्यथा हिन्दीभाषी भले ही मौन रहें समय हिन्दी से गैरियत और दूरी रखने की मानसिकता को उसके अंजाम तक पहुँचा ही देगा.
***
१८-१०-२०१०

सॉनेट

सॉनेट 

हरि! जन को हरिजन मत करना
आम आदमी कोई तो हो
जिसकी राह अलग थोड़ी हो
भाव-ताव देखो मत डरना

अंतर में अंतर रख हँसना
कथनी-करनी एक न भाए
ठकुरसुहाती खूब सुहाए
ले अवतार न नाहक फँसना

मीठा भोग मिले हँस चखना
खट्टा कड़वा तीखा तजना
अन्य न तो खुद निज जय करना
पापी तार पार भव करना

अपने मन की रास न कसना 
हर सुंदर तन के मन बसना
१३-५-२०२२
•••

गुरुवार, 12 मई 2022

छंद निश्छल, मुक्तक, मुक्तिका, दोहा , नवगीत, सॉनेट

सॉनेट 
विश्वास 
• 
मन में जब विश्वास जगा है 
कलम कह रही उठो लिखो कुछ 
तुम औरों से अलग दिखो कुछ 
नाता लगता प्रेम पगा है 

मन भाती है उषा-लालिमा 
अँगना में गौरैया चहके 
नीम तले गिलहरिया फुदके 
संध्या सोहे लिए कालिमा 

छंद कह रहा मुझे गुनगुना 
भजन कह रहा भज, न भुनभुना 
कथा कह रही कर न अनसुना 
मंजुल मति कर सलिल आचमन 

सजा रही हँस सृजन अंजुमन 
हो संजीव नृत्य रत कन-कन 
१२-५-२०२२ 
•••
सॉनेट 
कृपा 
• 
किस पर नहीं प्रभु की कृपा 
वह सभी को करता क्षमा, 
मन ईश में किसका रमा 
कितना कहीं कोई खपा। 

जो बो रहे; वह पा रहे 
जो सो रहे; वे खो रहे, 
क्यों शीश धुनकर रो रहे 
सब हाथ खाली जा रहे। 

जो जा रहे फिर आ रहे 
रच गीत अपने गा रहे 
जो बाँटते वह पा रहे। 

जोड़ा न आता काम है 
दामी मिला बेदाम है 
कर काम जो निष्काम है। 
१२-५-२०२२ 
•••
सॉनेट सरल 
वही तरता जो सरल है 
सदा रुचता जो विमल है 
कंठ अटके जो गरल है 
खिले खिलखिलकर कमल है। 

कौन कहिए नित नवल है 
सचल भी है; है अचल भी 
मलिन भी है, धवल भी है 
अजल भी है; है सजल भी। 

ठोस भी है; तरल भी है 
यही असली है, नकल भी 
अमिय भी है; गर्ल भी है 
बेशकल पर हर शकल भी। 

नित्य ढलता पर अटल है 
काट उगता, वह फसल है। 
१२-५-२०२२ 
•••
दोहा सलिला 
चाँद-चाँदनी भूलकर, देखें केवल दाग? 
हलुआ तज शूकर करे, विद्या से अनुराग।। 

खाल बाल की निकालें, नहीं आदतन मीत। 
अच्छे की तारीफ कर, दिल हारें दिल जीत।। 

ठकुरसुहाती मत कहें, तजिए कड़वा बोल। 
सत्य मधुरता से कहें, नहीं पीटने ढोल।। 

शो भा सके तभी सलिल, जब शोभा शालीन। 
अतिशय सज्जा-सादगी, कर मनु लगता दीन।। 

खूबी-खामी देखकर, निज मत करिए व्यक्त। 
एकांगी बातें करे, जो हो वह परित्यक्त।। 
१२-५-२०२२
○○○
शोकांजलि
महेश किशोर शर्मा जी के महाप्रस्थान पर
*
भोला था स्वभाव जिनका वे श्री महेश जी नहीं रहे
व्यथा कथा लक्ष्मी भौजी के मन की बोलो कौन कहे
कोरोना मैया क्या कर रईं?, कितनों को ले जाओगी?
शांत शीतला हुईं, आप भी शीघ्र शांत हो, सुत न दहे
अग्रज जाते, हमको कहिए कौन मार्ग दिखलाएगा
अनुज जा रहे, कंधों पर फिर हमको कौन उठाएगा?
परेशान यम गण बेचारे, निश-दिन करते काम थके-
कुछ अवकाश उन्हें दो, मानव भी कुछ राहत पाएगा
अश्रु पोंछने कैसे जाएँ?, रोक लगी है मत निकलो
घर में बैठ बहाओ आँसू, व्यथा-ताप पाकर पिघलो
कठिन परीक्षा की बेला है, भौजी मन में धैर्य धरें -
बच्चे-बहुएँ, नाती-पोते, गहो विरासत झट सम्हलो
१२-५-२०२१
***
दोहा सलिला
*
मंगल है मंगल करें, विनती मंगलनाथ
जंगल में मंगल रहे, अब हर पल रघुनाथ
सभ्य मनुज ने कर दिया, सर्वनाश सब ओर
फिर हो थोड़ा जंगली, हो उज्जवल हर भोर
संपद की चिंता करें, पल-पल सब श्रीमंत
अवमूल्यित हैं मूल्य पर, बढ़ते मूल्य अनंत
नया एक पल पुराना, आजीवन दे साथ
साथ न दे पग तो रहे, कैसे उन्नत माथ?
रह मस्ती में मस्त मन, कभी न होगा पस्त
तज न दस्तकारी मनुज, दो-दो पाकर दस्त
१२-५-२०२०
***
छंद सलिला:
निश्चल छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १६-७, चरणांत गुरु लघु (तगण, जगण)
लक्षण छंद:
कर सोलह सिंगार, केकसी / पाने जीत
सात सुरों को साध, सुनाये / मोहक गीत
निश्चल ऋषि तप छोड़, ऱूप पर / रीझे आप
संत आसुरी मिलन, पुण्य कम / ज्यादा पाप
उदाहरण:
१. अक्षर-अक्षर जोड़ शब्द हो / लय मिल छंद
अलंकार रस बिम्ब भाव मिल / दें आनंद
काव्य सारगर्भित पाठक को / मोहे खूब
वक्ता-श्रोता कह-सुन पाते / सुख में डूब
२. माँ को करिए नमन, रही माँ / पूज्य सदैव
मरुथल में आँचल की छैंया / बगिया दैव
पाने माँ की गोद तरसते / खुद भगवान
एक दिवस क्या, कर जीवन भर / माँ का गान
३. मलिन हवा-पानी, धरती पर / नाचे मौत
शोर प्रदूषण अमन-चैन हर / जीवन-सौत
सर्वाधिक घातक चारित्रिक / पतन न भूल
स्वार्थ-द्वेष जीवन-बगिया में / चुभते शूल

***

दोहा
जब चाहा संवाद हो, तब हो गया विवाद
निर्विवाद में भी मिला, हमको छिपा विवाद.
***

मुक्तक:
.
कलकल बहते निर्झर गाते
पंछी कलरव गान सुनाते गान
मेरा भारत अनुपम अतुलित
लेने जन्म देवता आते
.
ऊषा-सूरज भोर उगाते
दिन सपने साकार कराते
सतरंगी संध्या मन मोहे
चंदा-तारे स्वप्न सजाते
.
एक साथ मिल बढ़ते जाते
गिरि-शिखरों पर चढ़ते जाते
सागर की गहराई नापें
आसमान पर उड़ मुस्काते
.
द्वार-द्वार अल्पना सजाते
रांगोली के रंग मन भाते
चौक पूरते करते पूजा
हर को हर दिन भजन सुनाते
.
शब्द-ब्रम्ह को शीश झुकाते
राष्ट्रदेव पर बलि-बलि जाते
धरती माँ की गोदी खेले
रेवा माँ में डूब नहाते
***
मुक्तिका:
*
चाह के चलन तो भ्रमर से हैं
श्वास औ' आस के समर से हैं
आपको समय की खबर ही नहीं
हमको पल भी हुए पहर से हैं
आपके रूप पे फ़िदा दुनिया
हम तो मन में बसे, नजर से हैं
मौन हैं आप, बोलते हैं नयन
मन्दिरों में बजे गजर से हैं
प्यार में हार हमें जीत हुई
आपके धार में लहर से हैं
भाते नाते नहीं हमें किंचित
प्यार के शत्रु हैं, कहर से हैं
गाँव सा दिल हमारा ले भी लो
क्या हुआ आप गर शहर से हैं.
***
मातृ-वन्दना:
.
भारती के गीत गाना चाहिए
देश हित मस्तक कटाना चाहिए
.
मातृ भू भाषा जननि को कर नमन
गौ नदी हैं मातृ सम बिसरा न मन
प्रकृति मैया को न मैला कर कभी
शारदा माँ के चरण पर धर सुमन
लक्ष्मी माँ उसे ही मनुहारती
शक्ति माँ की जो उतारे आरती
स्वर्ग इस भू पर बसाना चाहिए
भारती के गीत गाना चाहिए
देश हित मस्तक कटाना चाहिए
.
प्यार माँ करती है हर संतान से
शीश उठता हर्ष सुख सम्मान से
अश्रु बरबस नयन में आते झलक
सुत शहीदों के अमर बलिदान से
शहादत है प्राण पूजा जो करें
वे अमरता का सनातन पथ वरें
शहीदों-प्रति सर झुकाना चाहिए
भारती के गीत गाना चाहिए
देश हित मस्तक कटाना चाहिए
.
देश-रक्षा हर मनुज का धर्म है
देश सेवा से न बढ़कर कर्म है
कहा गीता, बाइबिल, कुरआन ने
देश सेवा जिन्दगी का मर्म है
जब जहाँ जितना बने उतना करें
देश-रक्षा हित मरण भी हँस वरें
जियें जब तक मुस्कुराना चाहिए
भारती के गीत गाना चाहिए
देश हित मस्तक कटाना चाहिए
१२-५-२०१५
***

नवगीत

कब होंगे आज़ाद???...

*

कब होंगे आजाद?

कहो हम

कब होंगे आजाद?



गए विदेशी पर देशी

अंग्रेज कर रहे शासन

भाषण देतीं सरकारें पर दे

न सकीं हैं राशन

मंत्री से संतरी तक कुटिल

कुतंत्री बनकर गिद्ध-

नोच-खा रहे

भारत माँ को

ले चटखारे स्वाद

कब होंगे आजाद?

कहो हम

कब होंगे आजाद?



नेता-अफसर दुर्योधन हैं,

जज-वकील धृतराष्ट्र

धमकी देता सकल राष्ट्र

को खुले आम महाराष्ट्र

आँख दिखाते सभी

पड़ोसी, देख हमारी फूट-

अपने ही हाथों

अपना घर

करते हम बर्बाद

कब होंगे आजाद?

कहो हम

कब होगे आजाद?



खाप और फतवे हैं अपने

मेल-जोल में रोड़ा

भष्टाचारी चौराहे पर खाए

न जब तक कोड़ा

तब तक वीर शहीदों के

हम बन न सकेंगे वारिस-

श्रम की पूजा हो

समाज में

ध्वस्त न हो मर्याद

कब होंगे आजाद?

कहो हम

कब होंगे आजाद?



पनघट फिर आबाद हो

सकें, चौपालें जीवंत

अमराई में कोयल कूके,

काग न हो श्रीमंत

बौरा-गौरा साथ कर सकें

नवभारत निर्माण-

जन न्यायालय पहुँच

गाँव में

विनत सुनें फ़रियाद-

कब होंगे आजाद?

कहो हम

कब होंगे आजाद?



रीति-नीति, आचार-विचारों

भाषा का हो ज्ञान

समझ बढ़े तो सीखें

रुचिकर धर्म प्रीति

विज्ञान

सुर न असुर, हम आदम

यदि बन पायेंगे इंसान-

स्वर्ग तभी तो

हो पायेगा

धरती पर आबाद

कब होंगे आजाद?

कहो हम

कब होंगे आजाद?

१२-५-२०११

***

बुधवार, 11 मई 2022

क्षणिका, लेबर डे, हास्य, चित्रगुप्त,मुक्तिका राजस्थानी, गीत, घनाक्षरी, दोहे दो दुमी, गर्मी, नवगीत, हाइकु मुक्तक, समीक्षा,

सॉनेट
शारदा स्तुति
*
शारद! वीणा मधुर बजाओ
कुमति नाश कर सुमति मुझे दो
कर्म धर्ममय करूँ सुगति हो
मैया! मन मंदिर में आओ।

अपरा सीखी, सत्य न पाया
माया मोह भुला भटकाते
नाते राह रोक अटकाते
माता! परा ज्ञान दो, आओ

जन्म जन्म संबंध निभाओ
सुत को अपनी गोद बिठाओ
अंबे! नाता मत बिसराओ

कान खींच लो हँस मुस्काओ
झट से रीझो पुलक रिझाओ
जननी! मुझको आप बनाओ
२-५-२०२२
•••
सॉनेट
सपने
अनजाने ही दिखते सपने
कब क्या कैसे क्यों होता है?
क्यों हँसता है, क्यों रोता है?
लागू कहीं न कोई नपने

आँख खुले तो गायब सपने
क्या पाता है, क्या खोता है?
नाहक ही चिंता ढोता है
कहीं नहीं जो रहे न अपने

बेसिरपैर घटें घटनाएँ
मरुथल में भी नव चलाएँ
जुमला कह सरकार बनाएँ

सपनों का घर-घाट न होता
कहीं न पिंजरा, कहीं न तोता
बिन साबुन-पानी मन धोता
३-५-२०२२
***
कृति चर्चा:
'सच्ची बात' लघुकथाओं की ज़िंदगी से मुलाकात
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: सच्ची बात, लघुकथा संग्रह, चंद्रकांता अग्निहोत्री, प्रथम संस्करण २०१५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २२५/-, विश्वास प्रकाशन, अम्बाला शहर, हरयाणा, चलभाष ०९८९६१००५५७, लघुकथाकार संपर्क: कोठी ४०४, सेक्टर ६, पंचकुला, हरयाणा, चलभाष: ०९८७६६५०२४८, ईमेल: अग्निहोत्री.chandra@gmail.com]
*
लघुकथा गागर में गागर की तरह कम शब्दों में अधिक ही नहीं अधिक से अधिक कहने की कला है. सामान्यत: लघुकथा किसी क्षण विशेष में घटित घटनाजनित प्रभावों का मूल्यांकन होती है. लघुकथा में उपन्यास की तरह सुदीर्घ और सुचिंतित घटनाओं और चरित्रों का विस्तार और या कहानी की तरह किसी कालखंड विशेष या घटनाक्रम विशेष का विश्लेषण न होकर किसी घटना विशेष को केंद्र में रखकर उसके प्रभाव को इंगित मात्र किया जाता है. अब तो पर-लेखन की परंपरा को ही चलभाष ने काल-बाह्य सा कर दिया है किन्तु जब पत्र-लेखन ही अनुभूतियों, संवेदनाओं आयर परिस्थितियों को संप्रेषित करने का एक मात्र सुलभ-सस्ता साधन था तब
ग्रामीण बालाएँ सुदूर बसे प्रयतम को पत्र लिखते समय समयाभाव, शब्दाभाव, संकोच या प्रापक को मानसिक कष्ट से बचने के लिए के कारण अंत में 'कम लिखे से अधिक समझना' लिखकर मकुट हो लेती थीं. लघुकथा यही 'कम लिखे से अधिक समझाने' की कला है. लघुकथाकार घट्न या पात्रों का चित्रं नहीं संकेतन मात्र करता है, अनुभूत को संक्षेप में भिव्यत कर शेष पाठक के अनुमान पर छोड़ दिया जाता है. इसी लिए लघ्कथा लेखन जितना सरल दीखता है, उतना सरल होता नहीं.
***
हाइकु मुक्तक:
*
चंचला निशा, चाँदनी को चिढ़ाती, तारे हैं दंग.
पूर्णिमा भौजी, अमावस ननद, होनी है जंग.
चन्द्रमा भैया, चक्की-पाटों के बीच, बेबस पिसा
सूर्य ससुर, सास धूप नाराज, उतरा रंग
*
रवि फेंकता, मोहपाश गुलाबी, सैकड़ों कर
उषा भागती, मन-मन मुस्काती, बेताबी पर
नभ ठगा सा, दिशाएँ बतियातीं, वसुधा मौन-
चूं चूं गौरैया, शहनाई बजाती, हँसता घर
*
श्री वास्तव में, महिमामय कर, कीर्ति बढ़ाती.
करे अर्चना, ऋता सतत यश, सुषमा गाती.
मीनाक्षी सवि, करे लहर सँग, शत क्रीड़ाएँ
वर सुनीति, पथ बाधा से झट, जा टकराती..
***
दो दुम का दोहा
*
एक दूसरे को चलो, दें हम दोनों दोष.
मिल-जुल लूटें देश को, दिखला झूठा रोष.
लोग संतोष करेंगे
हमारा कोष भरेंगे

मन में क्या किससे कहें?, कौन सुनेगा बात?
सुनकर समझेगा 'सलिल', अब न रहे हालात
दोष दूजे को देंगे
श्रेय सब खुद ले लेंगे

३-५-२०१८
***
सामयिक लेख
विवाह, हम और समाज
*
अत्यंत तेज परिवर्तनों के इस समय में विवाह हेतु सुयोग्य जीवनसाथी खोजना पहले की तुलना में अधिक कठिन होता जा रहा है. हर व्यक्ति को समय का अभाव है. कठिनाई का सबसे बड़ा कारन अपनी योग्यता से बेहतर जीवन साथी की कामना है. पहले वर और वरपक्ष को कन्या पसंद आते ही विवाह निश्चित हो जाता था. अब ऐसा नहीं है. अधिकाँश लडकियाँ सुशिक्षित और कुछ नौकरीपेशा भी हैं. शिक्षा के साथ उनमें स्वतंत्र सोच भी होती है. इसलिए अब लड़के की पसंद के समान लडकी की पसंद भी महत्वपूर्ण है.
नारी अधिकारों के समर्थक इससे प्रसन्न हो सकते हैं किन्तु वैवाहिक सम्बन्ध तय होने में इससे कठिनाई बढ़ी है, यह भी सत्य है. अब यह आवश्यक है की अनावश्यक पत्राचार और समय बचाने के लिए विवाह सम्बन्धी सभी आवश्यक सूचनाएं एक साथ दी जाएँ ताकि प्रस्ताव पर शीघ्र निर्णय लेना संभव हो.
१. जन्म- जन्म तारीख, समय और स्थान स्पष्ट लिखें, यह भी कि कुंडली में विश्वास करते हैं या नहीं? केवल उम्र लिखना पर्याप्त नहीं होता है.
२. शिक्षा- महत्वपूर्ण उपाधियाँ, डिप्लोमा, शोध, प्रशिक्षण आदि की पूर्ण विषय, शाखा, प्राप्ति का वर्ष तथा संस्था का नाम भी दें. यदि आप किसी विशेष उपाधि या विषय में शिक्षित जीवन साथ चाहते हैं तो स्पष्ट लिखें.
३. शारीरिक गठन- अपनी ऊँचाई, वजन, रंग, चश्मा लगते हैं या नहीं, रक्त समूह, कोई रोग (मधुमेह, रक्तचाप, दमा आदि) हो तो उसका नाम आदि जानकारी दें. आरम्भ में जानकारी छिपा कर विवाह के बाद सम्बन्ध खराब होने से बेहतर है पहले जानकारी देकर उसी से सम्बन्ध हो जो सत्य को स्वीकार सके.
४. आजीविका- अपने व्यवसाय या नौकरी के सम्बन्ध में पूरी जानकारी दें. कहाँ, किस तरह का कार्य है, वेतन-भत्ते आदि कुल वार्षिक आय कितनी है? कोई ऋण लिया हो और उसकी क़िस्त आदि कट रही हो तो छिपाइए मत. अचल संपत्ति, वाहन आदि वही बताइये जो वास्तव में आपका हो. सम्बन्ध स्वीकारने वाला पक्ष आपकी जानकारी को सत्य मानता है. बाद में पाता चले की आपके द्वारा बाते मकान आपका नहीं पिताजी का है, वाहन भाई का है, दूकान सांझा कई तो वह ठगा सा अनुभव करता है. इसलिए जो भी हो स्थिति हो स्पष्ट कर दें
५. पसंद- यदि जीवन साथी के समबन्ध में आपकी कोई खास पसंद हो तो बता दें ताकि अनुकूल प्रस्ताव पर ही बात आगे बढ़े.
६. दहेज- दहेज़ की माँग क़ानूनी अपराध, सामाजिक बुराई और व्यक्तिगत कमजोरी है. याद रखें दुल्हन ही सच्चा दहेज है. दहेज़ न लेने पर नए सम्बन्धियों में आपकी मान-प्रतिष्ठा बढ़ जाती है. यदि आप अपनी प्रतिष्ठा गंवा कर भी पराये धन की कामना करते है तो इसका अर्थ है कि आपको खुद पर विश्वास नहीं है. ऐसी स्थिति में पहले ही अपनी माँग बता दें ताकि वह सामर्थ्य होने पर ही बात बढ़े. सम्बन्ध तय होने के बाद किसी बहाने से कोई माँग करना बहुत गलत है. ऐसा हो तो समबन्ध ही नहीं करें.
७. चित्र- आजकल लडकियों के चित्र प्रस्ताव के साथ ही भेजने का चलन है. चित्र भेजते समय शालीनता का ध्यान रखें. चश्मा पहनते हैं तो पहने रहें. विग लगाते हों तो बता दें. बहुत तडक-भड़क वाली पोशाक न हो बेहतर.
८. भेंट- बात अनुकूल प्रतीत हो और दुसरे पक्ष की सहमती हो तो प्रत्यक्ष भेंट का कार्यक्रम बनाने के पूर्व दूरभाष या चलभाष पर बातचीत कर एक दुसरे के विचार जान लें. अनुकूल होने पर ही भेंट हेतु जाएँ या बुलाएँ. वैचारिक ताल-मेल के बिना जाने पर धन और समय के अपव्यय के बाद भी परिणाम अनुकूल नहीं होता.
९. आयोजन- सम्बन्ध तय हो जाने पर 'चाट मंगनी पट ब्याह' की कहावत के अनुसार 'शुभस्य शीघ्रं' दोनों परिवारों के अनुकूल गरिमापूर्ण आयोजन करें. आयोजन में अपव्यय न करें. सुरापान, मांसाहार, बंदूक दागना आदि न हो तो बेहतर. विवाह एक सामाजिक, पारिवारिक तथा धार्मिक आयोजन होता है जिससे दो व्यक्ति ही नहीं दो परिवार, कुल और खानदान भी एक होते हैं. अत: एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुए आयोजन को सादगी, पवित्रता और उल्लास के वातावरण में पूर्ण करें
***
नवगीत
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
दरक रए मैदान-खेत सब
मुरझा रए खलिहान।
माँगे सीतल पेय भिखारी
ले न रुपैया दान।
संझा ने अधरों पे बहिना
लगा रखो है खून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
धोंय, निचोरें सूखें कपरा
पहने गीले होंय।
चलत-चलत कूलर, हीटर भओ
पंखें चल-थक रोंय।
आँख-मिचौरी खेरे बिजुरी
मलमल लग रओ ऊन।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
गरमा-गरम नें कोऊ चाहे
रोएँ चूल्हा-भट्टी।
सब खों लगे तरावट नीकी
पनहा, अमिया खट्टी।
धारें झरें नई नैनन सें
बहें बदन सें दून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
लिखो तजुरबा, पढ़ तरबूजा
चक्कर खांय दिमाग।
मृगनैनी खों लू खें झोंकें
लगे लगा रए आग।
अब नें सरक पे घूमें रसिया
चौक परे रे! सून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
अंधड़ रेत-बगूले घेरे
लगी सहर में आग।
कितै गए पनघट, अमराई
कोयल गाए नें राग।
आँखों मिर्ची झौंके मौसम
लगा र ओ रे चून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
***
दोहे गरमागरम :
*
जेठ जेठ में हो रहे, गर्मी से बदहाल
जेठी की हेठी हुई, थक हो रहीं निढाल
*
चढ़ा करेला नीम पर, लू पर धूप सवार
जान निकाले ले रही, उमस हुई हथियार
*
चुआ पसीना तर-बतर, हलाकान हैं लोग
पोंछे टेसू हवा से, तनिक न करता सोग
*
नीम-डाल में डाल दे, झूला ठंडी छाँव
पकी निम्बोली चूस कर, भूल न जाना गाँव
*
मदिर गंध मन मोहती, महुआ चुआ बटोर
ओली में भर स्वाद लूँ, पवन न करना शोर
*
कूल न कूलर रह गया, हीट कर रही तंग
फैन न कोई फैन का, हारा बेबस जंग
*
एसी टसुए बहाता, बिजली होती गोल
पीट रही है ढोल लू, जय सूरज की बोल
*
दोहे गरमागरम सुन, उड़ा जा रहा रंग
मेकप सारा धुल गया, हुई गजल बदरंग
३-५-२०१७
***
घनाक्षरी:
*
हिंदी के मुक्तक छंदों में घनाक्षरी सर्वाधिक लोकप्रिय, सरस और प्रभावी छंदों में से एक है. घनाक्षरी की पंक्तियों में वर्ण-संख्या निश्चित (३१, ३२, या ३३) होती है किन्तु मात्रा गणना नहीं की जाती. अतः, घनाक्षरी की पंक्तियाँ समान वर्णिक किन्तु विविध मात्रिक पदभार की होती हैं जिन्हें पढ़ते समय कभी लघु का दीर्घवत् उच्चारण और कभी दीर्घ का लघुवत् उच्चारण करना पड़ सकता है. इससे घनाक्षरी में लालित्य और बाधा दोनों हो सकती हैं. वर्णिक छंदों में गण नियम प्रभावी नहीं होते. इसलिए घनाक्षरीकार को लय और शब्द-प्रवाह के प्रति अधिक सजग होना होता है. समान पदभार के शब्द, समान उच्चार के शब्द, आनुप्रासिक शब्द आदि के प्रयोग से घनाक्षरी का लावण्य निखरता है. वर्ण गणना करते समय लघु वर्ण, दीर्घ वर्ण तथा संयुक्ताक्षरों को एक ही गिना जाता है अर्थात अर्ध ध्वनि की गणना नहीं की जाती है।
२ वर्ण = कल, प्राण, आप्त, ईर्ष्या, योग्य, मूर्त, वैश्य आदि.
३ वर्ण = सजल,प्रवक्ता, आभासी, वायव्य, प्रवक्ता आदि.
४ वर्ण = ऊर्जस्वित, अधिवक्ता, अधिशासी आदि.
५ वर्ण. = वातानुकूलित, पर्यावरण आदि.
घनाक्षरी के ९ प्रकार होते हैं;
१. मनहर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु अथवा लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-७ वर्ण।
२. जनहरण: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु शेष सब वर्ण लघु।
३. कलाधर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-७ वर्ण ।
४. रूप: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
५. जलहरण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
६. डमरू: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत बंधन नहीं, चार चरण ८-८-८-८ सभी लघु वर्ण।
७. कृपाण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण, प्रथम ३ चरणों में समान अंतर तुकांतता, ८-८-८-८ वर्ण।
८. विजया: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
९. देव: कुल वर्ण संख्या ३३. समान पदभार, समतुकांत, पदांत ३ लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-९ वर्ण।
२.५.२०१५
***
गीत: हमें जरूरत है...
*
हमें जरूरत है लालू की...
*
हम बिन पेंदी के लोटे हैं.
दिखते खरे मगर खोटे हैं.
जिसने जमकर लात लगाई
उसके चरणों में लोटे हैं.
लगा मुखौटा हर चेहरे पर
भाए आरक्षण कोटे हैं.
देख समस्या आँख मूँद ले
हमें जरूरत है टालू की...
*
औरों पर उँगलियाँ उठाते.
लेकिन खुद के दोष छिपाते.
नहीं सराहे यदि दुनिया तो
खुद ही खुद की कीरति गाते.
तन को तन की चाह हमेशा
मन को मन से मिला न पाते.
सहज सभी सँग जो खप जाए
हमें जरूरत है आलू की...
***
राजस्थानी मुक्तिका :
... तैर भायला
*
लार नर्मदा तैर भायला.
बह जावैगो बैर भायला..


गेलो आपून आप मलैगो.
मंजिल की सुण टेर भायला..


मुसकल है हरदां सूँ खडनो.
तू आवैगो फेर भायला..


घणू कठिन है कविता करनो.
आकासां की सैर भायला..


सूल गैल पै यार 'सलिल' तूं.
चाल मेलतो पैर भायला..
३-५-२०१२
***
आरती:
हे चित्रगुप्त भगवान्...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हे चित्रगुप्त भगवान!
करूँ गुणगान
दया प्रभु कीजै, विनती
मोरी सुन लीजै...
*
जनम-जनम से भटक रहे हम,
चमक-दमक में अटक रहे हम.
भवसागर में भोगें दुःख,
उद्धार हमारा कीजै...
*
हम है याचक, तुम हो दाता,
भक्ति अटल दो भाग्य विधाता.
मुक्ति पा सकें जन्म-चक्र से,
युक्ति बता वह दीजै...
*
लिपि-लेखनी के आविष्कारक,
वर्ण व्यवस्था के उद्धारक.
हे जन-गण-मन के अधिनायक!,
सब जग तुम पर रीझै...
*
ब्रम्हा-विष्णु-महेश तुम्हीं हो,
भक्त तुम्हीं भक्तेश तुम्हीं हो.
शब्द ब्रम्हमय तन-मन कर दो,
चरण-शरण प्रभु दीजै...
*
करो कृपा हे देव दयालु,
लक्ष्मी-शारद-शक्ति कृपालु.
'सलिल' शरण है जनम-जनम से,
सफल साधना कीजै...
३-५-२०११
***
क्षणिका:
लेबर डे
*
वे,
लेबर डे मना रहे हैं.
बिना नागा
हर वर्ष
अपनी पत्नि को
लेबर रूम में
भिजवा रहे हैं.
३-५-२०१०
***

मुक्तक, गीत, बाल गीत, सॉनेट

सॉनेट
भूख
पाया, खाया, मिटी न भूख
तन की, मन की, भूमि-रतन की
कही कहानी लाख जतन की
भीख मिली तो बढ़ा रसूख

मन मनमानी करता रहता
गुन गुमनामी सहता रहता
तन तन्मय दिख, उन्मन रहता
धन जीवन भर तहता रहता

माटी का पुतला रे मानव!
माटी में ही मिल जाएगा
मिट-मिटकर फिर-फिर आएगा
जीवन की जय गुंजाएगा

फिर चाहेगा बढ़े रसूख
तृप्त न होगी तेरी भूख
११-५-२०२२
•••
बाल गीत:
लंगड़ी खेलें.....
*
आओ! हम मिल
लंगड़ी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगड़ी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगड़ी खेलें.....
*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगड़ी खेलें.....
***
बाल कविता
मुहावरा कौआ स्नान
*
कौआ पहुँचा नदी किनारे, शीतल जल से काँप-डरा रे!
कौवी ने ला कहाँ फँसाया, राम बचाओ फँसा बुरा रे!!
*
पानी में जाकर फिर सोचे, व्यर्थ नहाकर ही क्या होगा?
रहना काले का काला है, मेकप से मुँह गोरा होगा। .
*
पूछा पत्नी से 'न नहाऊँ, क्यों कहती हो बहुत जरूरी?'
पत्नी बोली आँख दिखाकर 'नहीं चलेगी अब मगरूरी।।'
*
नहा रहे या बेलन, चिमटा, झाड़ू लाऊँ सबक सिखाने
कौआ कहे 'न रूठो रानी! मैं बेबस हो चला नहाने'
*
निकट नदी के जाकर देखा पानी लगा जान का दुश्मन
शीतल जल है, करूँ किस तरह बम भोले! मैं कहो आचमन?
*
घूर रही कौवी को देखा पैर भिगाये साहस करके
जान न ले ले जान!, मुझे जीना ही होगा अब मर-मर के
*
जा पानी के निकट फड़फड़ा पंख दूर पल भर में भागा
'नहा लिया मैं, नहा लिया' चिल्लाया बहुत जोर से कागा
*
पानी में परछाईं दिखाकर बोला 'डुबकी आज लगाई
अब तो मेरा पीछा छोडो, ओ मेरे बच्चों की माई!'
*
रोनी सूरत देख दयाकर कौवी बोली 'धूप ताप लो
कहो नर्मदा मैया की जय, नाहक मुझको नहीं शाप दो'
*
गाय नर्मदा हिंदी भारत भू पाँचों माताओं की जय
भागवान! अब दया करो चैया दो तो हो पाऊँ निर्भय
*
उसे चिढ़ाने कौवी बोली' आओ! संग नहा लो-तैर'
कर ''कौआ स्नान'' उड़ा फुर, अब न निभाओ मुझसे बैर
*
बच्चों! नित्य नहाओ लेकिन मत करना कौआ स्नान
रहो स्वच्छ, मिल खेलो-कूदो, पढ़ो-बढ़ो बनकर मतिमान
***
गीत:
ओ मेरे मन... संजीव 'सलिल'
*
धूप-छाँव सम सुख-दुःख आते-जाते रहते.
समय-नदी में लहर-भँवर प्रति पल हैं बहते.
राग-द्वेष से बच, शुभ का कर चिंतन.
ओ मेरे मन...
*
पुलक मिलन में, विकल विरह में तपना-दहना.
ऊँच-नीच को मौन भाव से चुप हो सहना.
बात दूसरों की सुन, खुद भी कर मन-मंथन.
ओ मेरे मन...
*
पीर-व्यथा अपने मन की मत जगसे कहना?
यादों की उजली चादर को फिर-फिर तहना.
दुनियावालों! दुनियादारी करती उन्मन.
ओ मन…
११-५-२०१२

***
मुक्तक
भारत का धन जो विदेश में उसको भारत लायेंगे.
रामदेव बाबा के संग हम सच की अलख जगायेंगे..
'सलिल'-साधना पूरी हो संकल्प सभी जन-गण ले अब-
राजनीति हो लोकनीति, हम नया सवेरा लायेंगे..
११-५-२०११