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सोमवार, 14 मार्च 2022

माण्डूक्योपनिषद

माण्डूक्योपनिषद (हिंदी काव्यानुवाद)

ॐ शुभ वचन कान सुनें नित, देव! शुभ लखें ईश-यजन कर।
पुष्ट अंगों एवं शरीर से, दीर्घ आयु हों; देव-हितों हित।।
यशी इंद्र कल्याण करें प्रभु!, ज्ञानवान पूषा शुभ करिए। 
मंगल करें गरुड़ न अशुभ हो, मम कल्याण बृहस्पति करिए।।
।। ॐ शांति: शांति: शांति: ।।

ॐ नाम है परमेश्वर का, है सारा व्याख्यान उसी का। 
कल-अब-कल सब ओंकार है, शेष सभी कुछ भी परमेश्वर।१।

यह सब का सब है ब्रह्मात्मा, वह आत्मा है चार चरणमय।२। 

बाह्य जगत यह है जिसका तन, सात अंग; उन्निस मुख जिसके। 
स्थूल भोक्ता जग का है जो, वैश्वानर का प्रथम चरण है।३। 

महत् आत्मा चार चरणमय, है जागृति ही प्रथम अवस्था। 
ईश; जीव; गुण तीन; तेज अरु, कर्मों का फल सात अंग हैं। 
सतरंगा उन्नीस मुखी जो, वैश्वानर है; इनको खाए।। 

अंत:प्रज्ञा 'वास स्वप्नवत, सप्तांगी उन्नीस मुखी जो। 
सूक्ष्म जगत् का भोक्ता तेजस, परम ब्रह्म का चरण दूसरा।४। 

शयनित करे न भोग-कामना, स्वप्न न देखे; वह सुषुप्ति तन। 
एकरूप जो प्रज्ञानंदी, मुख प्रकाशमय चरण तीसरा।५।  

सर्वेश्वर सर्वज्ञ मन-बसा, जीवन-जन्म-मरण का कारण। ६। 

अंत:-बाह्य; न दोनों प्रज्ञा, नहिं प्रज्ञानि या अज्ञानी। 
नहिं अदृष्ट; लक्षण-चिंतन बिन, सार आत्मसत्ता है जिसकी।।
है प्रपंच बिन; शांत परम शुभ, अद्वितीय पद चौथा जिसका। 
योग्य जानने के वह आत्मा, सभी ब्रह्मज्ञानी यह मानें।७। 

वह यह आत्मा अध्यक्षर है, है ओंकार वही अधिमात्री। 
'अ' 'उ' 'म' मात्राएँ तीनों, तीन चरण हैं उसी ब्रह्म के। ८। 

प्रथम 'अकार' व्याप्त सब जग में, वैश्वानर का प्रथम चरण है। 
जो जाने यह; भोग भोगकर, सबका मुखिया हो जाता है।९।  

दूजी 'उ' उत्कृष्ट उभय भी, तेज स्वप्नवत दूजा पद है। 
जाने उन्नत-सम भावी हो, हो न वंश में अज्ञानी फिर।१०। 

जाने जग को; हो विलीन जग, जिसमें वही तीसरी मात्रा। 
जो जाने ले जान जगत को,  करे विलीन सभी को खुद में।११।    

बिन मात्रा ओंकार प्रणव ही, अव्यवहारी; बिन प्रपंच के। 
अद्वितीय शुभ चौथा पग है, जो जाने हो लीन ब्रह्म में।१२। 

ॐ शुभ वचन कान सुनें नित, देव! शुभ लखें ईश-यजन कर।
पुष्ट अंगों एवं शरीर से, दीर्घ आयु हों; देव-हितों हित।।
यशी इंद्र कल्याण करें प्रभु!, ज्ञानवान पूषा शुभ करिए। 
मंगल करें गरुड़ न अशुभ हो, मम कल्याण बृहस्पति करिए।।
।। ॐ शांति: शांति: शांति: ।।
***

माण्डूक्योपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित, अथर्ववेदीय शाखा के अन्तर्गत है। इसके रचयिता वैदिक काल के ऋषि हैं। इसमें आत्मा या चेतना की चार अवस्थाओं का वर्णन मिलता है - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय।

प्रथम दस उपनिषदों में समाविष्ट केवल बारह मंत्रों का यह उपनिषद् आकार की दृष्टि से सबसे छोटा है किंतु महत्त्व के विचार से इसका स्थान ऊँचा है, क्योंकि बिना वाग्विस्तार के आध्यात्मिक विद्या का नवनीत सूत्र रूप में इन मंत्रों में भर दिया गया है।

इस उपनिषद् में ऊँ की मात्राओं की विलक्षण व्याख्या करके जीव और विश्व की ब्रह्म से उत्पत्ति और लय एवं तीनों का तादात्म्य अथवा अभेद प्रतिपादित होने के अतिरिक्त 'वैश्वानर' शब्द का विवरण मिलता है जो अन्य ग्रंथों में भी प्रयुक्त है।

इस उपनिषद में कहा गया है कि विश्व में एवं भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालों में तथा इनके परे भी जो नित्य तत्त्व सर्वत्र व्याप्त है वह ॐ है। यह सब ब्रह्म है और यह आत्मा भी ब्रह्म है।

मांडूक्योपनिषद अथर्ववेद के ब्राह्मण भाग से लिया गया है

शंकराचार्य जी ने इस पर भाष्य लिखा है और गौड पादाचार्य जी ने कारिकाऐं लिखी हैं

आत्मा चतुष्पाद है अर्थात् उसकी अभिव्यक्ति की चार अवस्थाएँ हैं जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय।

१. जाग्रत अवस्था की आत्मा को वैश्वानर कहते हैं, इसलिये कि इस रूप में सब नर एक योनि से दूसरी में जाते रहते हैं। इस अवस्था का जीवात्मा बहिर्मुखी होकर "सप्तांगों" तथा इंद्रियादि १९ मुखों से स्थूल अर्थात् इंद्रियग्राह्य विषयों का रस लेता है। अत: वह बहिष्प्रज्ञ है।

२. दूसरी तेजस नामक स्वप्नावस्था है जिसमें जीव अंत:प्रज्ञ होकर सप्तांगों और १९ मुखों से जाग्रत अवस्था की अनुभूतियों का मन के स्फुरण द्वारा बुद्धि पर पड़े हुए विभिन्न संस्कारों का शरीर के भीतर भोग करता है।

३.तीसरी अवस्था सुषुप्ति अर्थात् प्रगाढ़ निद्रा का लय हो जाता है और जीवात्मा क स्थिति आनंदमय ज्ञान स्वरूप हो जाती है। इस कारण अवस्थिति में वह सर्वेश्वर, सर्वज्ञ और अंतर्यामी एवं समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और लय का कारण है।

४ परंतु इन तीनों अवस्थाओं के परे आत्मा का चतुर्थ पाद अर्थात् तुरीय अवस्था ही उसक सच्चा और अंतिम स्वरूप है जिसमें वह ने अंत: प्रज्ञ है, न बहिष्प्रज्ञ और न इन दोनों क संघात है, न प्रज्ञानघन है, न प्रज्ञ और न अप्रज्ञ, वरन अदृष्ट, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिंत्य, अव्यपदेश्य, एकात्मप्रत्ययसार, शांत, शिव और अद्वैत है जहाँ जगत्, जीव और ब्रह्म के भेद रूपी प्रपंच का अस्तित्व नहीं है (मंत्र ७)

ओंकार रूपी आत्मा का जो स्वरूप उसके चतुष्पाद की दृष्टि से इस प्रकार निष्पन्न होता है उसे ही ऊँकार की मात्राओं के विचार से इस प्रकार व्यक्त किया गया है कि ऊँ की अकार मात्रा से वाणी का आरंभ होता है और अकार वाणी में व्याप्त भी है। सुषुप्ति स्थानीय प्राज्ञ ऊँ कार की कार मात्रा है जिसमें विश्व और तेजस के प्राज्ञ में लय होने की तरह अकार और उकार का लय होता है, एवं ऊँ का उच्चारण दुहराते समय मकार के अकार उकार निकलते से प्रतीत होते है। तात्पर्य यह कि ऊँकार जगत् की उत्पत्ति और लय का कारण है।

वैश्वानर, तेजस और प्राज्ञ अवस्थाओं के सदृश त्रैमात्रिक ओंकार प्रपंच तथा पुनर्जन्म से आबद्ध है किंतु तुरीय की तरह अ मात्र ऊँ अव्यवहार्य आत्मा है जहाँ जीव, जगत् और आत्मा (ब्रह्म) के भेद का प्रपंच नहीं है और केवल अद्वैत शिव ही शिव रह जाता है।

उपनिषदों के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। कुछ उपनिषदों को वेदों की मूल संहिताओं का अंश माना गया है। ये सर्वाधिक प्राचीन हैं। कुछ उपनिषद ब्राह्मण और आरण्यक ग्रन्थों के अंश माने गये हैं। इनका रचनाकाल संहिताओं के बाद का है। उपनिषदों के काल के विषय में निश्चित मत नहीं है समान्यत उपनिषदो का काल रचनाकाल ३००० ईसा पूर्व से ५०० ईसा पूर्व माना गया है। उपनिषदों के काल-निर्णय के लिए निम्न मुख्य तथ्यों को आधार माना गया है—

  1. पुरातत्व एवं भौगोलिक परिस्थितियां
  2. पौराणिक अथवा वैदिक ॠषियों के नाम
  3. सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी राजाओं के समयकाल
  4. उपनिषदों में वर्णित खगोलीय विवरण

निम्न विद्वानों द्वारा विभिन्न उपनिषदों का रचना काल निम्न क्रम में माना गया है-

विभिन्न विद्वानों द्वारा वैदिक या उपनिषद काल के लिये विभिन्न निर्धारित समयावधि
लेखकआरंभ (ई.पू.)समापन (ई.पू.) विधि
लोकमान्य तिलक, विंटरनित्ज़ 
६०००
२०० 
खगोलिय विधि
बी. वी. कामेश्वर
२३००
२००० 
खगोलिय विधि
मैक्स मूलर
१००० 
८०० 
भाषाई विश्लेषण
रनाडे
१२०० 
६०० 
भाषाई विश्लेषण, वैचारिक सिद्धांत
राधा कृष्णन
८०० 
६०० 
वैचारिक सिद्धांत 
मुख्य उपनिषदों का रचनाकाल
डयुसेन (१००० या ८०० – ५००) (ई.पू.)  )रनाडे (१२०० – ६००)  (ई.पू.)राधा कृष्णन (८०० – ६००) (ई.पू.)
अत्यंत प्राचीन उपनिषद गद्य शैली में: बृहदारण्यक, छान्दोग्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, कौषीतकि, केन
कविता शैली में: केन, कठ, ईश, श्वेताश्वतर, मुण्डक
बाद के उपनिषद गद्य शैली में: प्रश्न, मैत्री, मांडूक्य
समूह I: बृहदारण्यक, छान्दोग्य
समूह II: ईश, केन
समूह III: ऐतरेय, तैत्तिरीय, कौषीतकि
समूह IV: कठ, मुण्डक, श्वेताश्वतर
समूह V: प्रश्न, मांडूक्य, मैत्राणयी
बुद्ध काल से पूर्व के:' ऐतरेय, कौषीतकि, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, केन
मध्यकालीन: केन (१-३), बृहदारण्यक (IV ८–२१), कठ, मांडूक्य
सांख्य एवं योग पर अधारित: मैत्री, श्वेताश्वत


कहमुकरी, घनाक्षरी, गीत, दोहा, होली,

कहमुकरी
मन की बात अनकही कहती
मधुर सरस सुधियाँ हँस तहती
प्यास बुझाती जैसे सरिता

क्या सखि वनिता?
ना सखि कविता।
लहर-लहर पर लहराती है।
कलकल सुनकर सुख पाती है।।
मनभाती सुंदर मन हरती

क्या सखि सजनी?
ना सखि नलिनी।
नाप न कोई पा रहा।
सके न कोई माप।।
श्वास-श्वास में रमे यह
बढ़ा रहा है ताप।।
  
क्या प्रिय बीमा?
नहिं  प्रिये, सीमा।
१०-३-२०२२ 
••
देवर आये खेलने, भौजी से रंग आज
भाई ने दे वर रंगा, भागे बिगड़ा काज
***
होली पर चढ़ाए भाँग, लबों से चुआए पान, झूम-झूम लूट रहे रोज ही मुशायरा
शायरी हसीन करें, तालियाँ बटोर चलें, हाय-हाय करती जलें-भुनेंगी शायरा
फख्र इरफान पै है, फन उन्वान पै है, बढ़ता ही जाए रोज आशिकों का दायरा
कत्ल मुस्कान करे, कैंची सी जुबान चले, माइक से यारी है प्यारा जैसे मायरा
१०-३-२०२०
*
नैन पिचकारी तान-तान बान मार रही, देख पिचकारी ​मोहे ​बरजो न राधिका
​आस-प्यास रास की न फागुन में पूरी हो तो, मुँह ही न फेर ले साँसों की साधिका
गोरी-गोरी देह लाल-लाल हो गुलाल सी, बाँवरे से ​साँवरे की कामना भी बाँवरी-
बैन​ से मना करे, सैन से न ना कहे, नायक के आस-पास घूम-घूम नायिका ​
१०-३-२०१७
***
गीत:
ओ! मेरे प्यारे अरमानों,
आओ, तुम पर जान लुटाऊँ.
ओ! मेरे सपनों अनजानों-
तुमको मैं साकार बनाऊँ...


मैं हूँ पंख उड़ान तुम्हीं हो,
मैं हूँ खेत, मचान तुम्हीं हो.
मैं हूँ स्वर, सरगम हो तुम ही-
मैं अक्षर हूँ गान तुम्हीं हो.
ओ मेरी निश्छल मुस्कानों
आओ, लब पर तुम्हें सजाऊँ..


मैं हूँ मधु, मधु गान तुम्हीं हो.
मैं हूँ शर संधान तुम्हीं हो.
जनम-जनम का अपना नाता-
मैं हूँ रस रसखान तुम्हीं हो.
ओ! मेरे निर्धन धनवानों
आओ! श्रम का पाठ पढाऊँ...

मैं हूँ तुच्छ, महान तुम्हीं हो.

मैं हूँ धरा, वितान तुम्हीं हो.

मैं हूँ षडरसमधुमय व्यंजन.

'सलिल' मान का पान तुम्हीं हो.

ओ! मेरी रचना संतानों
आओ! दस दिश तुम्हें गुंजाऊँ...
***
दोहा
आँखमिचौली खेलते, बादल सूरज संग.
यह भागा वह पकड़ता, देखे धरती दंग..
*
पवन सबल निर्बल लता, वह चलता है दाँव .
यह थर-थर-थर काँपती, रहे डगमगा पाँव ..
१०-३-२०१०
***

रविवार, 13 मार्च 2022

शहीद नीरा आर्य, गणितज्ञ लीलावती। छंद भव, नवगीत, कुंडलिनी, तुम, शिव, होली

अमर शहीद नीरा आर्य

 ( ०५-०३-१९०२ / २६-०७-१९९८) 



नीरा आर्य एक सच्ची राष्ट्रवादी थीं, उनके पति एक सच्चे ब्रिटिश नौकर थे। देशभक्त होने के नाते नीरा सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व वाली भारतीय राष्ट्रीय सेना की झांसी रेजिमेंट में शामिल हुईं। नीरा आर्य के पति इंस्पेक्टर श्रीकांत जोइरोंजोन दास सुभाषचंद्र बोस की जासूसी कर रहे थे और जोइरोंजोन दास ने एक बार सुभाषचंद बोस पर गोलियाँ चला दीं लेकिन सौभाग्य से सुभाष चंद जी बाल-बाल बच गए। सुभाष चंद बोस को बचाने के लिए नीरा आर्य ने अपने पति की चाकू मार कर हत्या कर दी थी।

I.N.A के आत्म समर्पण के बाद लाल किले में फ़ौज के सैनिकों पर एक मुकदमा नवंबर-१९४५ से मई-१९४६ तक चला। नीरा आर्य को छोड़कर सभी कैदियों को रिहा कर दिया गया । वहीं उसे सेलूर जेल, अंडमान ले जाया गया, जहाँ उसे हर दिन प्रताड़ित किया जाता था। एक लोहार लोहे की जंजीरें और बेड़ियाँ हटाने आया। उसने जान बूझकर बेड़ियाँ हटाने के बहाने उनकी त्वचा का थोड़ा सा हिस्सा भी काट दिया और उनके पैरों को हथौड़े से कई बार जानबूझ चोट पहुँचाई। नीरा आर्य ने असहनीय दर्द को असाधारण धैर्य रखकर सहा। जेलर, जो इस पर पीड़ा का आनंद ले रहा था, जेलर ने नीरा को रिहा करने की पेशकश इस शर्त के साथ की कि वह सुभाष चंद बोस के ठिकाने का भेद बता दें। नीरा आर्य ने जवाब दिया कि बोस की मृत्यु एक विमान दुर्घटना में हुई थी और पूरी दुनिया इसके बारे में जानती है।

जेलर ने विश्वास करने से इनकार कर दिया और जवाब दिया, तुम झूठ बोल रही हो, सुभाष चंद बोस अभी भी जीवित हैं। तब नीरा आर्य ने कहा "हाँ, वो ज़िंदा हैं, वो मेरे दिल में रहते हैं ! जेलर ने गुस्से में आकर कहा, "फिर हम सुभाष चंद बोस को तुम्हारे दिल से निकाल देंगे" जेलर ने उनको गलत तरीके से छुआ और कपड़ों को फाड़ दिया। कपड़े अलग किए और लोहार को उनके स्तन काटने का आदेश दिया। लोहार ने तुरंत ब्रेस्ट रिपर लिया और उसके दाहिने शरीर को कुचलने लगा। बर्बरता यहीं नहीं रुकी, जेलर ने उनकी गर्दन पकड़ ली और कहा कि मैं आपके दोनों 'हिस्सों" को उनके स्थान से अलग कर दूँगा।

उन्होंने आगे बर्बर मुस्कान के साथ कहा गनीमत है "ये ब्रेस्ट रिपर गर्म नहीं हुआ है वरना आपके ब्रेस्ट पहले ही कट चुके होते"। नीरा आर्य ने अपने जीवन के अंतिम दिन फूल बेचने में बिताए और वह फलकनुमा, भाग्य नगरम में एक छोटी सी झोपड़ी में रहती थीं। सरकार ने उनकी झोपड़ी को सरकारी जमीन पर बनाने का आरोप लगाते हुए गिरा दिया।

नीरा आर्य की मृत्यु २६-०७- १९९८ को एक बेसहारा, लावारिस, अनजानी के रूप में हुई, जिसके लिए पूरी पृथ्वी पर कोई रोने वाला तक नहीं था।

***
लीलावती 
गणितज्ञ लीलावती का नाम हममें से अधिकांश लोगों ने नहीं सुना है। उनके बारे में कहा जाता है कि वो पेड़ के पत्ते तक गिन लेती थी। आज यूरोप सहित विश्व के सैंकड़ो देश जिस गणित की पुस्तक से गणित को पढ़ा रहे हैं, उसकी रचयिता भारत की एक महान गणितज्ञ महर्षि भास्कराचार्य की पुत्री “लीलावती” है।

दसवीं सदी की बात है, दक्षिण भारत में भास्कराचार्य नामक गणित और ज्योतिष विद्या के एक बहुत बड़े पंडित थे। उनकी कन्या का नाम लीलावती था। वही उनकी एकमात्र संतान थी। उन्होंने ज्यो‍तिष की गणना से जान लिया कि वह विवाह के थोड़े दिनों के ही बाद विधवा हो जाएगी। उन्होंने बहुत कुछ सोचने के बाद ऐसा लग्न खोज निकाला, जिसमें विवाह होने पर कन्या विधवा न हो। विवाह की तिथि निश्चित हो गई। जलघड़ी से ही समय देखने का काम लिया जाता था।

एक बड़े कटोरे में छोटा-सा छेद कर पानी के घड़े में छोड़ दिया जाता था। सूराख के पानी से जब कटोरा भर जाता और पानी में डूब जाता था, तब एक घड़ी होती थी। कहते हैं अपने मन कुछ और है, कर्ता के कुछ और, होनी होकर ही रहती है। लीलावती सोलह श्रृंगार किए सजकर बैठी थी, सब लोग उस शुभ लग्न की प्रतीक्षा कर रहे थे कि एक मोती लीलावती के आभूषण से टूटकर कटोरे में गिर पड़ा और सूराख बंद हो गया; शुभ लग्न बीत गया और किसी को पता तक न चला।

विवाह दूसरे लग्न पर ही करना पड़ा। लीलावती विधवा हो गई, पिता और पुत्री के धैर्य का बांध टूट गया। लीलावती अपने पिता के घर में ही रहने लगी। पुत्री का वैधव्य-दु:ख दूर करने के लिए भास्कराचार्य ने उसे गणित पढ़ाना आरंभ किया। उसने भी गणित के अध्ययन में ही शेष जीवन की उपयोगिता समझी। थोड़े ही दिनों में वह उक्त विषय में पूर्ण पंडिता हो गई। पाटी-गणित, बीजगणित और ज्योतिष विषय का एक ग्रंथ ‘सिद्धांतशिरोमणि’ भास्कराचार्य ने बनाया है। इसमें गणित का अधिकांश भाग लीलावती की रचना है।

पाटीगणित के अंश का नाम ही भास्कराचार्य ने अपनी कन्या को अमर कर देने के लिए ‘लीलावती’ रखा है। भास्कराचार्य ने अपनी बेटी लीलावती को गणित सिखाने के लिए गणित के ऐसे सूत्र निकाले थे जो काव्य में होते थे। वे सूत्र कंठस्थ करना होते थे। उसके बाद उन सूत्रों का उपयोग करके गणित के प्रश्न हल करवाए जाते थे। कंठस्थ करने के पहले भास्कराचार्य लीलावती को सरल भाषा में, धीरे-धीरे समझा देते थे। वे बच्ची को प्यार से संबोधित करते चलते थे, “हिरन जैसे नयनों वाली प्यारी बिटिया लीलावती, ये जो सूत्र हैं…।” बेटी को पढ़ाने की इसी शैली का उपयोग करके भास्कराचार्य ने गणित का एक महान ग्रंथ लिखा, उस ग्रंथ का नाम ही उन्होंने “लीलावती” रख दिया।

आजकल गणित एक शुष्क विषय माना जाता है पर भास्कराचार्य का ग्रंथ ‘लीलावती‘ गणित को भी आनंद के साथ मनोरंजन, जिज्ञासा आदि का सम्मिश्रण करते हुए कैसे पढ़ाया जा सकता है। लीलावती का एक उदाहरण देखें- ‘निर्मल कमलों के एक समूह के तृतीयांश, पंचमांश तथा षष्ठमांश से क्रमश: शिव, विष्णु और सूर्य की पूजा की, चतुर्थांश से पार्वती की और शेष छ: कमलों से गुरु चरणों की पूजा की गई।

अये, बाले लीलावती, शीघ्र बता कि उस कमल समूह में कुल कितने फूल थे..?‘

उत्तर-कमल के १२० फूल।

वर्ग और घन को समझाते हुए भास्कराचार्य कहते हैं ‘अये बाले,लीलावती, वर्गाकार क्षेत्र और उसका क्षेत्रफल वर्ग कहलाता है। दो समान संख्याओं का गुणन भी वर्ग कहलाता है। इसी प्रकार तीन समान संख्याओं का गुणनफल घन है और बारह कोष्ठों और समान भुजाओं वाला ठोस भी घन है।‘

‘मूल” शब्द संस्कृत में पेड़ या पौधे की जड़ के अर्थ में या व्यापक रूप में किसी वस्तु के कारण, उद्गम अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसलिए प्राचीन गणित में वर्ग मूल का अर्थ था ‘वर्ग का कारण या उद्गम अर्थात् वर्ग एक भुजा‘।

इसी प्रकार घनमूल का अर्थ भी समझा जा सकता है। वर्ग तथा घनमूल निकालने की अनेक विधियां प्रचलित थीं।

लीलावती के प्रश्नों का जबाब देने के क्रम में ही “सिद्धान्त शिरोमणि” नामक एक विशाल ग्रन्थ लिखा गया, जिसके चार भाग हैं- (१) लीलावती (२) बीजगणित (३) ग्रह गणिताध्याय और (४) गोलाध्याय।

‘लीलावती’ में बड़े ही सरल और काव्यात्मक तरीके से गणित और खगोल शास्त्र के सूत्रों को समझाया गया है।

बादशाह अकबर के दरबार के विद्वान फैजी ने सन् १५६७ में “लीलावती” का फारसी भाषा में अनुवाद किया। अंग्रेजी में “लीलावती” का पहला अनुवाद जे. वेलर ने सन् १७१६ में किया। कुछ समय पहले तक भी भारत में कई शिक्षक गणित को दोहों में पढ़ाते थे। जैसे कि पन्द्रह का पहाड़ा…तिया पैंतालीस, चौके साठ, छक्के नब्बे… अट्ठ बीसा, नौ पैंतीसा…।

इसी तरह कैलेंडर याद करवाने का तरीका भी पद्यमय सूत्र में था-

सित अप जू नव तीस के, बाकी के इकतीस।

अट्ठाइस की फरवरी चौथे सन उनतीस।।

गणित अपने पिता से सीखने के बाद लीलावती भी एक महान गणितज्ञ एवं खगोल शास्त्री के रूप में जानी गयी। मनुष्य के मरने पर उसकी कीर्ति ही रह जाती है। आज गणितज्ञो को गणित के प्रचार और प्रसार के क्षेत्र में "लीलावती पुरूस्कार" से सम्मानित किया जाता है।
***
शिव पूजन 
शिवलिंग पर बेलपत्र, धतूरा, चंदन और अक्षत चढ़ाने से शंकर भगवान जल्दी प्रसन्न होते हैं।शिव पुराण के अनुसार किस द्रव्य से अभिषेक करने से क्या फल मिलता है? जानिए-

जल से रुद्राभिषेक करने पर वृष्टि होती है।

- कुशा जल से अभिषेक करने पर रोग व दु:ख से छुटकारा मिलता है।

- दही से अभिषेक करने पर पशु, भवन तथा वाहन की प्राप्ति होती है।

- गन्ने के रस से अभिषेक करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।

- मधुयुक्त जल से अभिषेक करने पर धनवृद्धि होती है।

- तीर्थ जल से अभिषेक करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।

- इत्र मिले जल से अभिषेक करने से रोग नष्ट होते हैं।

- दूध से अभिषेक करने से पुत्र प्राप्ति होगी। प्रमेह रोग की शांति तथा मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

- गंगा जल से अभिषेक करने से ज्वर ठीक हो जाता है।

- दूध-शर्करा मिश्रित अभिषेक करने से सद्बुद्धि की प्राप्ति होती है।

- घी से अभिषेक करने से वंश विस्तार होता है।

***
: होली के रंग छंदों के संग :
*
हुरियारों पे शारद मात सदय हों, जाग्रत सदा विवेक रहे
हैं चित्र जो गुप्त रहे मन में, साकार हों कवि की टेक रहे
हर भाल पे, गाल पे लाल गुलाल हो शोभित अंग अनंग बसे
मुॅंह काला हो नापाकों का, जो राहें खुशी की छेंक रहे
0
चले आओ गले मिल लो, पुलक इस साल होली में
भुला शिकवे-शिकायत, लाल कर दें गाल होली में
बहाकर छंद की सलिला, भिगा दें स्नेह से तुमको
खिला लें मन कमल अपने, हुलस इस साल होली में
0
करो जब कल्पना कवि जी रॅंगीली ध्यान यह रखना
पियो ठंडाई, खा गुझिया नशीली होश मत तजना
सखी, साली, सहेली या कि कवयित्री सुना कविता
बुलाती लाख हो, सॅंग सजनि के साजन सदा सजना
0
नहीं माया की गल पाई है अबकी दाल होली में
नहीं अखिलेश-राहुल का सजा है भाल होली में
अमित पा जन-समर्थन, ले कमल खिल रहे हैं मोदी
लिखो कविता बने जो प्रेम की टकसाल होली में
0
ईंट पर ईंट हो सहयोग की इस बार होली में
लगा सरिए सुदृढ़ कुछ स्नेह के मिल यार होली में
मिला सीमेंट सद्भावों की, बिजली प्रीत की देना
रचे निर्माण हर सुख का नया संसार होली में
0
न छीनो चैन मन का ऐ मेरी सरकार होली में
न रूठो यार लगने दो कवित-दरबार होली मे
मिलाकर नैन सारी रैन मन बेचैन फागुन में
गले मिल, बाॅंह में भरकर करो सत्कार होली में
0
नैन पिचकारी तान-तान बान मार रही, देख पिचकारी मोहे बरजो न राधिका
आस-प्यास रास की न फागुन में पूरी हो तो मुॅंह ही न फेर ले साॅंसों की साधिका
गोरी-गोरी देह लाल-लाल हो गुलाल सी, बाॅंवरे से साॅंवरे की कामना भी बाॅंवरी
बैन से मना करे, सैन से न ना कहे, नायक के आस-पास घूम-घूम नायिका


१२-३-२०१७
***
नवगीत:
सरहद
*
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, सरहद पार
गया मैं लेने।
*
उठा हुआ सर
हद के पार
चला आया तब
अनजाने का
हाथ थाम कर।
मैं बहुतों के
साथ गया था
तुम आईं थीं
निपट अकेली।
किन्तु अकेली
कभी नहीं थीं,
सँग आईं
बचपन-यौवन की
यादें अनगिन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, पहुँच गया
मैं खुद को देने।
*
था दहेज भी
मैके की
शुभ परम्पराओं
शिक्षा, सद्गुण,
संस्कार का।
ले पतवारें
अपनेपन की
नाव हमें थी
मिलकर खेनी।
मतभेदों की
खाई, अंतरों के
पर्वत लँघ
मधुर मिलन के
सपने बुन-बुन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, संग हुए हम
अंतर खोने।
*
खुद को खोकर
खुद को पाकर
कही कहानी
मन से मन ने,
नित मन ही मन।
खन-खन कंगन
रुनझुन पायल
केश मोगरा
लटें चमेली।
शंख-प्रार्थना
दीप्ति-आरती
सांध्य-वंदना ,
भुवन भारती
हँसी कीर्ति बन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, मिली राजश्री
सार्थक होने।
*
भवसागर की
बाधाओं को
मिल-जुलकर
था हमने झेला
धैर्य धारकर।
सावन-फागुन
खुशियाँ लाये
सोहर गूँजे
बजी ढोलकी।
किलकारी
पट्टी पूजन कर,
धरा नापने
नभ को छूने
बढ़ी कदम बन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, अँगना खेले
मूर्त खिलौने।
*
देख आँख पर
चश्मे की
मोहिनी हँसे हम,
धवल केश की
आभा देखें।
नव पीढ़ी
दौड़े, हम थकते
शांति अंजुला
हुई सहेली।
अन्नपूर्णा
कम साधन से
अधिक लक्ष्य पा
अर्थशास्त्र को
करतीं सार्थक।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, सपने देखे
संग सलोने।
१२-३-२०१६
***
छंद सलिला: भव छंद
* लक्षण: जाति रौद्र, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ११, चरणान्त लघु गुरु गुरु या गुरु
लक्षण छंद:
एकादश पग रखो, भवसिंधु पार करो
चरण आदि मन चाहा, चरण अंत गुरु से हो
उदाहरण:
१. आशा का बीज बो, कोशिश से फसल लो
श्रम सीकर नर्मदा, भव तारें वर्मदा
२. सूर्य चन्द्र सितारा, सकल जगत निखारा
भव को जब निहारा, खुद को भी बिसारा
रूप-रंग सँवारा, असुंदर न गवारा
सच जिसने बिसारा, रण न लड़ रण हारा
३. समय शिला पर लिखो, सबसे आगे दिखो
शब्द नये उकेरो, नव उजास बिखेरो

४. नित्य हरि गुण गाओ, मन में शांति पाओ
छन्दों में मन रमा, कष्टों को दो भुला
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
१२-३-२०१४
***
नव गीत:
ऊषा को लिए बाँह में
*
ऊषा को लिए बाँह में,
संध्या को चाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
पानी के बुलबुलों सी
आशाएँ पल रहीं.
इच्छाएँ हौसलों को
दिन-रात छल रहीं.
पग थक रहे, मंजिल
कहीं पाई न राह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
तृष्णाएँ खुद ही अपने
हैं हाथ मल रहीं.
छायाएँ तज आधार को
चुपचाप ढल रहीं.
मोती को रहे खोजते
पाया न थाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
शिशु शशि शशीश शीश पर
शशिमुखी विलोकती.
रति-मति रतीश-नाश को
किस तरह रोकती?
महाकाल ही रक्षा करें
लेकर पनाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...

***
कुण्डलिनी
संजीव 'सलिल'
हिंदी की जय बोलिए, हो हिंदीमय आप.
हिंदी में नित कार्य कर, सकें विश्व में व्याप..
सकें विश्व में व्याप, नाप लें सकल ज्ञान का.
नहीं व्यक्ति का, बिंदु 'सलिल' राष्ट्रीय आन का..
नेह-नरमदा नहा बोलिए होकर निर्भय.
दिग्दिगंत में गूज उठे, फिर हिंदी की जय..
१२-२-२०१०
*

सॉनेट

सॉनेट
कठपुतली
कठपुतली हैं हम सब प्यारे!
नटवर तू नित हमें नचाता।
तू नटराज न नृत्य दिखाता।।
नाच नचा जग को मुस्का रे!!

छलिया! छिपा हुआ अंतर में।
थके खोज वह नजर न आता।
निर्बल का संबल बन जाता।।
महल मिला माटी-कंकर में।।

कठपुतली क्या पाए-खोए?
सपने अनगिन नयन सँजोए।
नाहक लड़-मर, नयन भिगोए।।

दर्शक झूम बजाए ताली।
रुचे न खेला, झट दे गाली।
कठपुतली खाली की खाली।।
१३-३-२०२२
•••
सॉनेट 
श्रद्धानन्द 
'श्रद्धा' रहे सत्य में जिसकी।
वह 'आनंद' अनंतिम पाता। 
पाखंडों से हँस टकराता।।
मृत्यु वीर जैसी हो उसकी।। 

'दया' और 'आनंद' राह गह। 
'सरस वती' जीवन-सुंदरता। 
'शिवा' आ मिलीं लेकर शिवता।।
शिक्षा-शुद्धि-जागरण शुभ तह।।

गुरुकुल में पनपाई समता। 
दीन-निबल प्रति मन में ममता। 
आर्य धर्म से पा-दी क्षमता।।

किया आत्म बलिदान विहँसकर। 
थे  विषपायी, हैं अजरामर। 
धन्य हुए हम उन्हें सुमिरकर।।
•••

स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती


स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती (२२ फरवरी, १८५६ - २३ दिसम्बर, १९२६) भारत के शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के संन्यासी थे।  उन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं का प्रसार किया। वे भारत के उन महान राष्ट्रभक्त सन्यासियों में अग्रणी थे जिन्होंने अपना जीवन स्वाधीनता, स्वराज्य, शिक्षा तथा वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया था। उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय आदि शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की और हिन्दू समाज व भारत को संगठित करने तथा १९२० के दशक में शुद्धि आन्दोलन चलाने में महती भूमिका अदा की। डॉ भीमराव आम्बेडकर ने सन १९२२ में कहा था कि श्रद्धानन्द अछूतों के "महानतम और सबसे सच्चे हितैषी" हैं।

स्वामी श्रद्धानन्द (मुंशीराम विज) का जन्म २२ फरवरी सन् १८५६ (फाल्गुन कृष्ण त्र्योदशी, विक्रम संवत् १९१३) को पंजाब प्रान्त के जालन्धर जिले के तलवान (तलवण) ग्राम में एक कायस्थ (खत्री) परिवार परिवार में हुआ था। आपके दादा सुखानंद जी राजा रणजीत सिंह के निकट थे। उन्होंने रणजीत सिंह से प्राप्त धन से शिवमंदिर बजवाया। गृह-नक्षत्र के आधार पर पंडित ने उनमें असाधारण मेधा होने की भविष्यवाणी कर 'बृहस्पति' नाम दिया। उस समय हर दफ्तर में 'मुंशी' होते थे जो जन सामान्य और प्रशासनिक उच्चाधिकारियों के बीच की कड़ी होते थे। उनके होशियार होने की भविष्यवाणी सुन बच्चे को घर में लाड़ से 'मुंशीराम' कहा जाने लगा। उनके पिता श्री नानकचन्द विज ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में कोतवाल (पुलिस अधिकारी) थे। 

पिता का स्थानान्तरण अलग-अलग स्थानों पर होने के कारण उनकी आरम्भिक शिक्षा अच्छी प्रकार नहीं हो सकी। लाहौर और जालंधर उनके मुख्य कार्यस्थल रहे। संवत १९३६ वि. में स्वामी दयानन्द सरस्वती का बरेली आगमन हुआ। पिता को तो शान्ति-व्यवस्था बनाए रखने के नाते स्वामी जी के व्याख्यान सुनने थे। उन्होंने आग्रह पूर्व मुंशीराम को स्वामी के सत्संग में सम्मिलित होने की प्रेरणा दी। न चाहते हुए भी मुंशीराम ने स्वामी दयानन्द जी का प्रवचन सुना। आदित्यमूर्ति दयानन्द के महान व्यक्तित्व के दर्शन कर तथा सभा में पादरी स्काट एवं अन्य यूरोपियनो को बैठा देखकर इनके मन में श्रद्धा का उत्स प्रस्फुटित हो उठा।

एक दिन उनके किशोर हृदय को ऐसी ठेस लगी कि इनकी समस्त रुढ़िवादी धार्मिक कट्टरता, तिरोहित हो गयी। हुआ यह कि काशी के विश्वनाथ के दर्शनार्थ गये तो उन्हें बाहर ही रोक दिया गया क्योंकि मन्दिर में रींवा की महारानी दर्शन कर रही थी। भगवान के दरबार में भी ऊँच-नीच देखकर उन्हें मूर्ति-पूजा से विरक्ति हो गयी। ऐसी ही कुछ अन्य घटनाओं के कारण मुंशीराम के मन में उथल-पुथल मच गयी।

मुंशीराम में स्वाध्याय की प्रवृत्ति ने बचपन से ही थी। उन्होंने ब्रह्मसमाज का साहित्य भी पढ़ा। पुस्तकें पढ़ते तो मन में अनेक प्रश्न उठते जिनका सम्यक समाधान न मिलता।उन्होंने उत्तरों की तलाश में विद्वज्जनों से भेंट की, ब्रह्म समाज का साहित्य भी पढ़ा। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का दैदीप्यमान मुख मंडल जब-तब उनके सामने आ जाता।

यायावर वृत्ति के मुंशीराम ने संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू का ज्ञान प्राप्त किया। युवावस्था तक मुंशीराम विज ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे। मुंशीराम को चलचित्र देखने का शौक हो गया। फ़िल्मी तारिका की तरह जीवन संगिनी की कल्पना मन में होने लगी। मुंशीराम का विवाह शिवा देवी हे करा दिया गया। शिवा न तो विदुषी थीं, न सुंदरी। मुंशीराम यार-दोस्तों के साथ मांस भक्षण, सुरापान कर कोठों पर जाने लगे। एक रात अत्यधिक सुरापान के कारण वमन करते हुए बेसुध हो गए तो मित्रों ने लाद कर घर पहुँचाया। सुबह नींद खुली तो मुंशीराम ने देखा कि शरीर स्वच्छ है, वस्त्र बदल दिए गए हैं, बगल में भोजन की थाली देख पत्नी से पूछा कि उसने खाना क्यों नहीं खाया? उत्तर मिला 'आपने नहीं खाया तो मैं कैसे खाती? मुंशीराम को आत्मग्लानि हुई। 

एक दिन मांसाहार हेतु काटे गए जीवों के अंग और रक्तादि देखा, मन विचलित हुआ। मांसाहार परोसा जाने पर वही दृश्य आँखों के सामने आ गया और मुंशीराम ने थाली उठाकर फेंक दी। 

मुंशीराम का दाम्पत्य जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो रहा था। उन्हें दो पुत्र और दो पुत्रियाँ प्राप्त हुईं। वे ३५ वर्ष के थे, तभी शिवा देवी स्वर्ग सिधार गईं।   इन्द्र विद्यावाचस्पति उनके ही पुत्र थे।

इन्होंने तीन अवसरों पर स्वामी जी के समक्ष इश्वर के अस्तित्व पर शंका प्रकट की।  कालांतर में स्वामी दयानन्द जी के तर्कों और आशीर्वाद ने मुंशीराम विज को दृढ़ ईश्वर विश्वासी तथा वैदिक धर्म का अनन्य भक्त बना दिया। वे एक सफल वकील बने, नाम और प्रसिद्धि अर्जित की। वकालत के साथ आर्य समाज जालंधर के जिला-अध्यक्ष के पद से उनका सार्वजनिक जीवन प्रारम्भ हुआ। वे आर्य समाज में निरंतर सक्रिय रहते थे। महर्षि दयानन्द के महाप्रयाण (३०-१०-१८८३) के बाद उन्होने स्वयं को स्व-देश, स्व-संस्कृति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, स्वदेशी प्रचार, वेदोत्थान, पाखण्ड खण्डन, अन्धविश्‍वास-उन्मूलन और धर्मोत्थान के कार्यों को आगे बढ़ाने में पूर्णतः समर्पित कर दिया। १३ अप्रैल सन् १९१७ को मुन्शीराम ने  सन्यास धारण कर लिया और स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए। आर्यसमाज के सिद्धान्तों का समर्थक होने के कारण उन्होंने इसका बहुत तेजी से प्रचार-प्रसार किया । वे नरम दल के समर्थक होते हुए भी, ब्रिटिश उदारता के समर्थक नहीं थे । 

स्वामी श्रद्धानन्द जी ने गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना, अछूतोद्धार, शुद्धि, सद्धर्म प्रचार, पत्रिका द्वारा धर्म प्रचार, सत्य धर्म के आधार पर साहित्य रचना, वेद पढ़ने व पढ़ाने की व्यवस्था करना, धर्म के पथ पर अडिग रहना, आर्य भाषा के प्रचार तथा उसे जीवीकोपार्जन की भाषा बनाने का सफल प्रयास, आर्य जाति के उन्नति के लिए हर प्रकार से प्रयास करस्वामी श्रद्धानन्द अनन्त काल के लिए अमर हो गए। ‘दलितों को धार्मिक स्थलों में प्रवेश नहीं दिए जाने से वह बहुत आहत थे। मनुष्य का मनुष्य से ऐसा बरताव उन्हें कचोटता था। स्वामीजी ने दलितों के साथ हो रहे छूआछूत का मुखर विरोध किया और हवन यज्ञ में साथ बिठाकर सदियों से चली रही असमानता को खत्म करने का काम किया। उस समय कट्टरवादियों ने उनका विरोध भी किया लेकिन वह सामाजिक असमानता के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहे।

सृजन :
(१) स्वामी दयानन्द सम्बन्धित साहित्य- स्वामी जी ने 'पूना प्रवचन' अर्थात् 'उपदेश मञ्जरी' का मराठी से अनुवाद करवाकर उर्दू में प्रकाशित किया था। स्वामी दयानन्द के पत्र-व्यवहार को १९१० में सर्वप्रथम प्रकाशित किया था। ‘आदिम सत्यार्थ प्रकाश’ और ‘आर्यसमाज के सिद्धान्त’ को सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम संस्करण की समीक्षा के अंतर्गत प्रकाशित किया था। इसके अलावा स्वामी दयानन्द की संक्षिप्त जीवनी ‘युग-विधाता तत्त्ववेता दयानन्द’, ‘शास्त्रार्थ बरेली’ के लेखन में सहयोग, उर्दू ‘ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका’ की भूमिका, पं. लेखराम लिखित एवं मास्टर आत्माराम अमृतसरी लिखित ‘महर्षि दयानन्द जीवन चरित’ की भूमिका का लेखन किया।

(२) पण्डित लेखराम संबंधित साहित्य- स्वामी जी ने पं. लेखराम के बलिदान के पश्चात् उनका जीवन चरित ‘आर्य पथिक लेखराम का जीवन वृत्तांत’ के नाम से लिखा। उनके लेखों का संग्रह उर्दू में ‘कुल्यात आर्य मुसाफिर’ के नाम से प्रकाशित करवाया।

(३) आर्यसिद्धान्त सम्बन्धी साहित्य- स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा वैदिक सिद्धांतों से सम्बंधित अनेक छोटे-बड़े ट्रैक्ट्स और पुस्तकें लिखी गई थीं, जैसे आर्य संगीतमाला, वर्ण व्यवस्था, पुराणों की नापाक तालीम से बचो, क्षात्र धर्म पालन का गैर-मामूली मौका, वेदानुकूल संक्षिप्त मनुस्मृति, पारसी मत और वैदिक धर्म, वेद और आर्यसमाज, पंच महायज्ञों की विधि, विस्तारपूर्वक संध्या विधि, आर्यों की नित्यकर्म विधि, मानव धर्म शास्त्र तथा शासन पद्धति, यज्ञ का पहला अंग, मुक्ति-सोपान, ‘सुबहे उम्मीद’ उर्दू (इसका हिंदी अनुवाद ‘आशा की उषा’ के नाम से प्राध्यापक राजेन्द्र जिज्ञासु द्वारा किया गया था।) इस पुस्तक में स्वामीजी ने मैक्समूलर के वेद मन्त्रों की व्याख्या की स्वामी दयानन्द के वेद भाष्य से तुलना कर महर्षि के भाष्य को श्रेष्ठ सिद्ध किया था। द फ्यूचर ऑफ आर्यसमाज - ए फोरकास्ट (अंग्रेजी) में आर्यसमाज के भविष्य की योजनाओं पर दिये गये विचार हैं।

(४) संपादन : स्वामी जी द्वारा उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी में पत्र-पत्रिकाएँ निकाली गईं, जिनके नाम हैं- सद्धर्म प्रचारक, श्रद्धा, तेज (उर्दू), लिबरेटर (अंग्रेजी) बहुत लोकप्रिय हुए।

(५) ईसाई-इस्लाम मत सम्बंधित : ईसाई पक्षपात और आर्यसमाज, खतरे का घंटा अर्थात मुहम्मदी षडयंत्र का रहस्यभेद, हिन्दू संगठन, हिन्दू मुस्लिम इत्तहाद की कहानी, मेरा आखिरी मश्वरा, हिन्दुओं सावधान, तुम्हारे धर्म-दुर्ग पर रात्रि में छिपकर धावा बोला गया, अंधा इतिकाद और खुफिया जिहाद, ‘द हिस्ट्री ऑफ असैसिन्स’ (अंग्रेजी में इस्लाम के इतिहास से सम्बंधित पुस्तक) का अनुवाद स्वामी जी द्वारा प्रकाशित किया गया था।

(६) समाज सुधार सम्बन्धी साहित्य : ‘आचार, अनाचार और छूतछात’, उत्तराखण्ड की महिमा, जाति के दीनों को मत त्यागो, वर्तमान मुख्य समस्या-अछूतपन के कलंक को दूर करो, गढ़वाल में १९७५ (सं0) का दुर्भिक्ष और उसके निवारणार्थ गुरुकुल-दल का कार्य। वर्तमान मुख्य समस्या अछूतपन के कलंक को दूर करो।

(७) आन्दोलन सम्बन्धी साहित्य : बन्दीघर के विचित्र अनुभव (गुरु का बाग मोर्चे में जेल के अनुभव), आर्यसमाज एंड इट्स डेट्रक्टर्स: अ विंडीकेशन ( पटियाला अभियोग सम्बंद्दी) एक मांस प्रचारक महापुरुष की गुप्त लीला का प्रकाश, आर्यसमाज के खानाजाद दुश्मन, सद्धर्म प्रचारक का पहला लायबल केस।

(८) आप-बीती : दुःखी दिल की पुरदर्द दास्ताँ।

(९) स्वामी जी द्वारा सद्धर्म प्रचारक में प्रकाशित वेद मन्त्रों की व्याख्या को लब्भु राम नैय्यड़ ने संकलित कर धर्मोपदेश के नाम से प्रकाशित किया था।

(१०) ‘इनसाइड द कांग्रेस’ उनके राजनीतिक जीवन से सम्बंधित महत्त्वपूर्ण लेखों का संग्रह है, जो लिबरेटर अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित हुए थे, जिन्हें देशबंधु गुप्ता ने संकलित कर प्रकाशित किया था।

(११) गुरुकुल कांगड़ी से स्वामी श्रद्धानन्द सम्बंधित साहित्य को डाॅ. विष्णुदत्त राकेश एवं डाॅ. जगदीश विद्यालंकार द्वारा संकलित कर प्रकाशित किया गया है। जैसे ‘श्रुति विचार सप्तक’ (वैदिक चिंतन तथा भारतीय साहित्य से सम्बंधित सात विनिबंध हैं।) महात्मा गाँधी और गुरुकुल (स्वामी श्रद्धानन्द, गुरुकुल कांगड़ी और महात्मा गाँधी के संबंधों का वर्णन है। स्वामी श्रद्धानन्द की सम्पादकीय टिप्पणियाँ (स्वामी जी द्वारा सद्धर्म प्रचारक और श्रद्धा में लिखे गए सम्पादकीयों का संग्रह है।) दीक्षालोक (गुरुकुल कांगड़ी में प्रदत्त दीक्षांत भाषणों एवं सारस्वत व्याख्यानों का संग्रह है।) कुलपुत्र सुनें (समय समय पर गुरुकुल कांगड़ी में दिए गए भाषण और प्रकाशित लेखों का संग्रह है।) स्वामी श्रद्धानन्द और उनका पत्रकार कुल (डाॅ.) विष्णुदत्त राकेश द्वारा प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित स्वामी श्रद्धानन्द और गुरुकुल कांगड़ी के पत्रकार स्नातकों के पत्रकार रूप में कार्यों का वर्णन है।

गुरुकुल की स्थापना

जब उन्होंने अपनी ही बेटी को मिशनरी-संचालित स्कूल में पढ़ते हुए ईसाई धर्म के प्रभाव में आते हुए देखा, तो भारतीय आदर्शों में निहित शिक्षा प्रदान करने का मन बनाया और अपने प्रयासों से जालंधर में पहला कन्या महाविद्यालय की स्थापना कर दी। सन् १९०१ में मुंशीराम विज ने अंग्रेजों द्वारा जारी शिक्षा पद्धति के स्थान पर वैदिक धर्म तथा भारतीयता की शिक्षा देने वाले संस्थान "गुरुकुल" की स्थापना की। स्वामीजी गुरुकुल खोलना चाहते थे। गाँव-गाँव जाकर चंदा मांगा लेकिन किसी ने सहयोग नहीं दिया। जालंधर में उनके पुरखों की खूब जमीन जायजाद थी, जिसकी मलकियत स्वामीजी के नाम थी। अपने बेटों से विमर्श के बाद अपनी कोठी और सारी जमीन आर्य समाज को दान दे दी। 

महर्षि दयानंद (१८२४-१८८३ ई.) के सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' में प्रतिपादित शिक्षा संबंधी विचारों से श्रद्धानन्द जी बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने १८९७ में अपने पत्र 'सद्धर्म प्रचारक' द्वारा गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के पुनरुद्वार का प्रबल आन्दोलन आरम्भ किया। ३० अक्टूबर १८९८ को उन्होंने इसकी विस्तृत योजना रखी। नवंबर, १८९८ ई. में पंजाब के आर्य समाजों के केंद्रीय संगठन आर्य प्रतिनिधि सभा ने गुरुकुल खोलने का प्रस्ताव स्वीकार किया। महात्मा मुंशीराम ने यह प्रतिज्ञा की कि वे इस कार्य के लिए, जब तक ३० हजार रुपया एकत्र नहीं कर लेंगे, तब तक अपने घर में पैर नहीं रखेंगे। तत्कालीन परिस्थितियों में इस दुस्साध्य कार्य को अपने अनवरत उद्योग और निष्ठा से उन्होंने आठ मास में पूरा कर लिया। १६ मई १९००  को पंजाब के गुजराँवाला स्थान पर एक वैदिक पाठशाला के साथ गुरुकुल की स्थापना कर दी गई। श्रद्धानन्द जी को यह स्थान उपयुक्त प्रतीत नहीं हुआ। वे शुक्ल यजुर्वेद के एक मंत्र 'उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनां धिया विप्रो अजायत' (२६.१५)  के अनुसार नदी और पर्वत के निकट कोई स्थान चाहते थे। वे हरिद्वार में गंगा किनारे गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना करना चाहते थे। इसी समय बिजनौर के रईस मुंशी अमनसिंह जी ने इस कार्य के लिए महात्मा मुंशीराम जी को १२०० बीघे का अपना कांगड़ी ग्राम और ११ हजार रुपये दान दिया। हिमालय की उपत्यका में गंगा के तट पर सघन रमणीक वनों से घिरी कांगड़ी की भूमि गुरुकुल के लिए आदर्श थी। अत: यहाँ घने जंगल साफ कर कुछ छप्पर बनाए गए। होली के दिन सोमवार, चार मार्च १९०२  को गुरुकुल गुजराँवाला से कांगड़ी लाया गया। गुरुकुल का आरम्भ ३४ विद्यार्थियों के साथ कुछ फूंस की झोपड़ियों में किया गया। पंजाब की आर्य जनता के उदार दान और सहयोग से इसका विकास तेजी से होने लगा। १९०७ में महाविद्यालय विभाग आरंभ हुआ। १९१२ में गुरुकुल कांगड़ी से शिक्षा समाप्त कर निकलने वाले स्नातकों का पहला दीक्षान्त समारोह हुआ। सन १९१६ में गुरुकुल काँगड़ी फार्मेसी की स्थापना हुई। १९२१ में आर्य प्रतिनिधि सभा ने इसका विस्तार करने के लिए वेद, आयुर्वेद, कृषि और साधारण (आर्ट्‌स) महाविद्यालय बनाने का निश्चय किया। १९२३ में महाविद्यालय की शिक्षा और परीक्षा विषयक व्यवस्था के लिए एक शिक्षापटल बनाया गया। कांगड़ी के सरपंच ने अपनी सारी जमीन स्वामी जी को दान कर दी। आज उसी जगह विश्व का सबसे बड़ा गुरुकुल स्थापित है। इस समय यह मानद विश्वविद्यालय है जिसका नाम गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय है। २४ सितंबर १९२४ को गुरुकुल पर भीषण दैवी विपत्ति आई। गंगा की असाधारण बाढ़ ने गंगातट पर बनी इमारतों को भयंकर क्षति पहुँचाई। भविष्य में बाढ़ के प्रकोप से सुरक्षा के लिए एक मई १९३० को गुरुकुल गंगा के पूर्वी तट से हटाकर पश्चिमी तट पर गंगा की नहर पर हरिद्वार के समीप वर्तमान स्थान में लाया गया।

गाँधी जी जी उन दिनों अफ्रीका में संघर्षरत थे। श्रद्धानन्द जी ने गुरुकुल के छात्रों के श्रमदान कराकर १५०० रुपए एकत्रित कर गाँधी जी को भेजे। गाँधी जी जब अफ्रीका से भारत लौटे तो वे गुरुकुल पहुँचे तथा श्रद्धानन्द जी तथा राष्ट्रभक्त छात्रों के समक्ष नतमस्तक हो उठे। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने ही सबसे पहले गांधी जी को 'महात्मा' की उपाधि से विभूषित किया और भविष्यवाणी कर दी थी कि वे आगे चलकर बहुत महान बनेंगे।

पत्रकारिता एवं हिन्दी-सेवा

श्रद्धानन्द जीने पत्रकारिता में भी कदम रखा। वे उर्दू और हिन्दी भाषाओं में धार्मिक व सामाजिक विषयों पर लिखते थे किन्तु बाद में स्वामी दयानन्द सरस्वती का अनुसरण करते हुए देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी को प्राथमिकता दी। उनका पत्र सद्धर्म प्रचारक पहले उर्दू में प्रकाशित होता था और बहुत लोकप्रिय हो गया था, किन्तु बाद में उनने इसको उर्दू के बजाय देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी में निकालना आरम्भ किया। इससे श्रद्धानन्द जी को आर्थिक नुकसान भी हुआ। उन्होने दो पत्र भी प्रकाशित किये, हिन्दी में अर्जुन तथा उर्दू में तेज। जलियांवाला काण्ड के बाद अमृतसर में कांग्रेस का ३४वां अधिवेशन( दिस्म्बर १९१९) हुआ। स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में अपना भाषण हिन्दी में दिया और हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किए जाने का मार्ग प्रशस्त किया।

स्वतन्त्रता आन्दोलन

उन्होने स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। गरीबों और दीन-दुखियों के उद्धार के लिये काम किया। स्त्री-शिक्षा का प्रचार किया। सन् १९१९ में स्वामी जी ने दिल्ली में जामा मस्जिद क्षेत्र में आयोजित एक विशाल सभा में भारत की स्वाधीनता के लिए प्रत्येक नागरिक को पांथिक मतभेद भुलाकर एकजुट होने का आह्वान किया था।

शुद्धि आंदोलन

स्वामी श्रद्धानन्द ने जब कांग्रेस के कुछ प्रमुख नेताओं को "मुस्लिम तुष्टीकरण की घातक नीति" अपनाते देखा तो उन्हें लगा कि यह नीति आगे चलकर राष्ट्र के लिए विघटनकारी सिद्ध होगी। इसके बाद कांग्रेस से उनका मोहभंग हो गया। दूसरी ओर कट्टरपंथी मुस्लिम तथा ईसाई हिन्दुओं का मतान्तरण कराने में लगे हुए थे। स्वामी जी ने असंख्य व्यक्तियों को आर्य समाज के माध्यम से पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित कराया। उनने गैर-हिन्दुओं को पुनः अपने मूल धर्म में लाने के लिये शुद्धि नामक आन्दोलन चलाया और बहुत से लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित किया। स्वामी श्रद्धानन्द पक्के आर्यसमाजी थे, किन्तु सनातन धर्म के प्रति दृढ़ आस्थावान पंडित मदनमोहन मालवीय तथा पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ को गुरुकुल में आमंत्रित कर छात्रों के बीच उनका प्रवचन कराया था। स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वेच्छा एवं सहमति के पश्चात पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मलकान राजपूतों को शुद्धि कार्यक्रम के माध्यम से हिन्दू धर्म में वापसी कराई। शासन की तरफ से कोई रोक नहीं लगाई गई थी जबकि ब्रिटिश काल था।

राजनैतिक व सामाजिक जीवन:

उनका राजनैतिक जीवन रोलेट एक्ट का विरोध करते हुए एक स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में प्रारम्भ हुआ । अच्छी-खासी वकालत की कमाई छोड़कर स्वामीजी ने ”दैनिक विजय” नामक समाचार-पत्र में ”छाती पर पिस्तौल” नामक क्रान्तिकारी लेख लिखे । स्वामीजी महात्मा गाँधी के सत्याग्रह से प्रभावित थे । जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड तथा रोलेट एक्ट का विरोध वे हिंसा से करने में कोई बुराई नहीं समझते थे। वे इतने निर्भीक थे कि जनसभा करते समय अंग्रेजी फौज व अधिकारियों को वे ऐसा साहसपूर्ण जवाब देते थे कि अंग्रेज भी उनसे डरा करते थे । 

स्वतंत्रता के लिए चल रहे आन्दोलन और सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेने के साथ स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कथित अछूत माने जाने वाले समाज के मुद्दों को उठाते हुए १९१९ में अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष के रूप में अपने संबोधन में कहा था कि “सामाजिक भेदभाव के कारण आज हमारे करोड़ भाइयों के दिल टूटे हुए हैं, जातिवाद के कारण इन्हें काट कर फेंक दिया हैं, भारत माँ के ये लाखों बच्चे विदेशी सरकार के जहाज का लंगर बन सकते है, लेकिन हमारे भाई नहीं क्यों? मैं आप सभी भाइयों और बहनों से यह अपील करता हूँ कि इस राष्ट्रीय मंदिर में मातृभूमि के प्रेम के पानी के साथ अपने दिलों को शुद्ध करें, और वादा करें कि ये लाखों करोड़ों अब हमारे लिए अछूत नहीं रहेंगे, बल्कि भाई-बहन बनेंगे, अब उनके बेटे और बेटियाँ हमारे स्कूलों में पढ़ेंगे, उनके पुरुष और महिलाएँ हमारे समाजों में भाग लेंगे, आजादी की हमारी लड़ाई में वे हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होंगे और हम सभी अपने राष्ट्र की पूर्णता का एहसास करने के लिए हाथ मिलाएँगे।”

अछूतों की मदद करने और कई मुद्दों पर गाँधी जी असहमति होने के पश्चात स्वामी श्रद्धानंद ने कांग्रेस की उप-समिति से इस्तीफा दे दिया। हिंदू महासभा में शामिल होकर अछूत और दलित माने जाने वाली जातियों के कल्याण के लिए शुद्धि का कार्य शुरू किया। शुद्धि-आन्दोलन के द्वारा सोया हुआ भारत जागने लगा! कहते हैं जिस देश का नौजवान खड़ा हो जाता है वह देश दौड़ने लगता है! सच ही स्वामी जी ने हजारों देशभक्त नौजवानों को खड़ा कर दिया था। स्वामी श्रद्धानंद ने वर्ष १९२२ में दिल्ली की जामा मस्जिद में भाषण दिया था। उन्होंने पहले वेद मंत्र पढ़े और एक प्रेरणादायक भाषण दिया। मस्जिद में वेद मंत्रों का उच्चारण करने वाले भाषण देने वाले स्वामी श्रद्धानंद एकमात्र व्यक्ति थे। दुनिया के इतिहास में यह एक असाधारण क्षण था। स्वामी जी ने १९२२ में गुरु का बाग सत्याग्रह के समय अमृतसर में एक प्रभावशाली भाषण दिया । हिन्दू महासभा उनके विचारों को सुनकर उन्हें प्रभावशाली पद देना चाहती थी, किन्तु उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया ।

स्वामी श्रद्धानंद जी ने बलात् हिन्दू से मुसलमान बने लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में शामिल कर आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के द्वारा शुरू की परंपरा को पुनर्जीवित किया और समाज में यह विश्वास पैदा किया कि जो किसी भी कारण अपने धर्म से पतित हुए हुए हैं वे सभी वापस अपने हिन्दू धर्म में आ सकते हैं। फलस्वरूप देश में हिन्दू धर्म में वापसी के वातावरण बनने से लहर सी आ गयी। सिद्धान्तों पर आधारित सांस्कृतिक धरातल पर उन्हें कोई पराजित नहीं कर सका। स्वामी जी ने राजस्थान के मलकाना क्षेत्र के हिन्दू से मुसलमान बनाए गए हजारों राजपूतों की सनातन धर्म में वापसी कराई। इससे शंकित मुस्लिम संप्रदायवादियों ने गुप्त बैठकें कर स्वामी जी के विरुद्ध षड्यंत्र रचना आरंभ कर दिया। 

शहादत 

२३ दिसम्बर १९२६ को नया बाजार, चाँदनी चौक दिल्ली स्थित उनके निवास स्थान पर अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी धर्म-चर्चा के बहाने उनके कक्ष में प्रवेश कर, लोई में छिपाकर लाई पिस्तौल से गोली मारकर इस महान विभूति की हत्या कर दी। उसे बाद में फांसी की सजा हुई। उनकी हत्या के दो दिन बाद अर्थात २५ दिसम्बर, १९२६ को गुवाहाटी में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में जारी शोक प्रस्ताव में मुसलमानों की शंका के शमनार्थ गाँधी जी ने कहा - “मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा और मैं इसे दोहराता हूँ। मैं यहाँ तक कि उसे स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूँ। वास्तव में दोषी वे लोग (मुस्लिम कट्टरपंथी) हैं जिन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध घृणा की भावना को पैदा किया। इसलिए यह अवसर दुख प्रकट करने या आँसू बहाने का नहीं है।'' गाँधी जी ने अपने भाषण में यह भी कहा- ”… मैं इसलिए स्वामी जी की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता। हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए। मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूँ।'' उन्होंने आगे कहा कि “समाज सुधारक को तो ऐसी कीमत चुकानी ही पढ़ती है। स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या में कुछ भी अनुपयुक्त नहीं है …ये हम पढ़े, अध-पढ़े लोग हैं जिन्होंने अब्दुल रशीद को उन्मादी बनाया। स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमें आशा है कि उनका खून हमारे दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल करेगा।'' (यंग इण्डिया, १९२६)।

गाँधी जी ने अब्दुल रशीद जैसे युवा को भड़कानेवाले मुस्लिम कट्टरपंथियों को श्रद्धानन्द जी की हत्या का वास्तविक गुनहगार कहा था, अब्दुल रशीद को नहीं। सनातन धर्म में अकाल मृत्यु को शोचनीय मृत्यु कहा गया है। स्वामी जी जैसे दिव्य व्यक्ति अपनी लीला संवरण किसी न किसी बहाने से करते हैं। श्रीकृष्ण पर तीर चलनेवाले बहेलिए को उनका हत्यारा न कहे जीने की पृष्ठभूमि यही है। इस कारण गाँधी जी ने कहा ''मैं स्वामीजी की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता हूँ।'' गांधी जी ने यह भी कहा कि समाज सुधारक को तो ऐसी कीमत चुकानी ही पड़ती है। कालांतर में स्वयं गाँधी जी को भी यह कीमत चुकानी पड़ी जब वैचारिक मत वैभिन्न्य रखनेवाले अन्य सम्प्रदाय के कट्टर पंथियों के वैचारिक प्रभाव में आए युवक ने गाँधी जी पर गोली दागकर उन्हें भूलोक से बिदा कर दिया। 

श्रद्धानन्द जी और गाँधी जी दोनों ने बचपन और कैशोर्य में सामान्य जनों की तरह ऐसे कई कार्य किये जो उचित नहीं कहे जा सकते किन्तु बुद्धि का विकास होने पर दोनों ने आत्मावलोकन और आत्मालोचन कर आत्मोन्नयन के पथ पर पग रखा और देश तथा मानव मात्र की महती सेवा कर वीरोचित मृत्यु पाई। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने गांधी जी को सदा आशीर्वाद और समर्थन दिया। गांधी जी ने कहा-  स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमें आशा है कि उनका खून हमारे दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल करेगा।'' गाँधी जी ने भी मत वैभिन्नता के बावजूद श्रद्धानन्द जी ऐसा हुतात्मा स्वीकार किया जिसका रक्त शेष जनों के दोष धोने की पात्रता रखता है। स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही हो सकती है कि हर भारतीय स्वदेशी शिक्षा पद्धति में अपने बच्चों को शिक्षित कराए और पश्चिमी संस्कृति से प्रभावी निजी अंग्रेजी विद्यालयों का बहिष्कार कर, सरकारों को सभी सरकारी विद्यालयों एक गुरूकुलीकरण करने की प्रेरणा दे।  

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स्वामी विरजानन्द(1778-1868), एक संस्कृत विद्वान, वैदिक गुरु और आर्य समाज संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती के गुरु थे। इनको मथुरा के अंधे गुरु के नाम से भी जाना जाता था।

इनका जन्म मोह्याल दत्त परिवार में पंजाब के करतारपुर में 1778 इस्वी में हुआ। इनका बचपन का नाम - वृज लाल था। पाँच साल की उम्र में चेचक के कारण ये पूर्ण अंधे हो गए। 12वें साल में माँ-बाप चल बसे और भाई-भाभी के संरक्षण में कुछ दिन गुजारने के बाद ये घर से विद्याध्ययन के लिए निकल पड़े। कुछ काल तक इधर भटकने के उपरांत ये आध्यात्मिक नगरी के रूप में विख्यात ऋषिकेश आए और कुछ काल ऋषिकेश में रहने के बाद किसी की प्रेरणा से ये हरिद्वार किसी आश्रम में रहने लगे। वहाँ ये स्वामी पूर्णानन्द से मिले। पूर्णानन्द ने इन्हें वैदिक व्याकरण और आर्ष शास्त्रों से अवगत कराया। इसके बाद वे संस्कृत विद्वानों के लिए प्रसिद्ध काशी (बनारस) आए जहाँ 10 सालों तक उन्होंने 6 दर्शनों (वेदान्त, मीमांसा, न्यायादि)तथा आयुर्वेदादि ग्रंथों का अध्ययन किया। इसके बाद गया आए जहाँ उपनिषदों के तुलनात्मक अध्ययन का काम जारी रखा। यहाँ से वे कलकत्ता गए जहाँ अपने संस्कृत ज्ञान के लिए उन्हे प्रशंसा मिली। इसके बाद ये निमंत्रण पर अलवर आए और यहाँ उन्होंने शब्द-बोध ग्रंथ की रचना की। इसकी मूल प्रति अब भी वहाँ के संग्रहालय में रखी है। इसके बाद वे मथुरा में रहे जहाँ उन्होंने पाठशाला स्थापित की। इसमें देश भर से संस्कृत जिज्ञासु आए और राजपूतों की तरफ से दान भी मिले।

लगभग इसी समय स्वामी दयानन्द सरस्वती जी सत्य को जानने की अभिलाषा से घर परिवार त्यागकर सच्चे गुरू की खोज में निकल पड़े थे। भारत के अनेक स्थानों का भ्रमण करते हुए वे सन् १८६० में गुरूवर स्वामी विरजानन्द के आश्रम में पहुंचे। जहां उन्हें नई दृष्टि, सद्प्रेरणा और आत्मबल मिला। वर्षों तक भ्रमण करने के बाद जब वे भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली मथुरा में गुरू विरजानन्द जी की कुटिया पर पहुंचे तो गुरू विरजानन्द ने उनसे पूछा कि वे कौन हैं। तब स्वामी दयानन्द ने कहा, गुरूवर यही तो जानना चाहता हूं कि वास्तव में, मैं कौन हूं? प्रश्न के उत्तर से संतुष्ट होकर गुरूवर ने दयानन्द को अपना शिष्य बनाया।

आदर्श मनुष्य का निर्माण आदर्श माता, पिता और आचार्य करते हैं। ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि वह सन्तान भाग्यशाली होती है जिसके माता, पिता और आचार्य धार्मिक होते हैं। धार्मिक होने का अर्थ है कि जिन्हें वेद व वेद परम्पराओं का ज्ञान होता है। ऋषि दयानन्द भाग्यशाली थे कि उन्हें धार्मिक माता-पिता मिले। उनके जन्म व उसके बाद माता-पिता ने उन्हें धार्मिक संस्कार दिये। पिता कर्षनजी तिवारी पौराणिक ब्राह्मण थे अतः वह उन्हें पौराणिक कृत्य मूर्तिपूजा आदि करने के लिए प्रेरित करते थे। स्वामी दयानन्द जी की आयु का चौहहवां वर्ष था। शिवरात्रि के पर्व पर पिता ने अपने पुत्र को शिव जी की पौराणिक कथा सुनाई और उन्हें शिवरात्रि का व्रत रखने के लिए प्रेरित किया। कथा के प्रभाव से बालक मूलशंकर वा स्वामी दयानन्द व्रत उपवास रखने को सहमत हो गये। उन्होंने व्रत रखा परन्तु रात्रि को शिव मन्दिर में जागरण करते हुए मन्दिर में बिलों से कुछ चूहे बाहर निकले और शिव की पिण्डी के निकट आकर उस पर भक्तों द्वारा चढ़ाये गये अन्न आदि पदार्थो को खाने लगे। यह देखकर स्वामी दयानन्द का बाल मन आहत हुआ। उन्हें विचार आया कि शिव तो सर्व शक्तिमान हैं। वह ऐसा क्यों हो दे रहे हैं। वह अपने ऊपर से उन चूहों को भगा क्यों नहीं रहे हैं। मनुष्य के शरीर पर मक्खी या मच्छर भी बैठे तो वह उसे उड़ाकर भगा देता है। शिव तो मनुष्यों से कहीं अधिक शक्तिशाली हैं फिर वह असमर्थता का परिचय क्यों दे रहे हैं। वास्तविकता यह है कि मनुष्य में जो थोड़ी बहुत शक्ति है वह भी परमात्मारूपी शिव की ही दी हुई होती है। इस घटना से मूर्तिपूजा पर उनका विश्वास जाता रहा। पिता व मन्दिर के पुजारी कोई उनकी शंका व जिज्ञासा को दूर न कर सका। इसके बाद घर पर बहिन व चाचा की मृत्यु से उनको वैराग्य हो गया। माता-पिता को जब इन बातों का ज्ञान हुआ तो वह उनका विवाह करने लगे। स्वामी दयानन्द की विचार शक्ति असाधारण थी। वह बन्धनों में बन्धना नहीं चाहते थे। यदि वह बन्धनों में फसते तो वह ईश्वर साक्षात्कार और मोक्ष के साधनों का पालन न कर पाते। अतः सच्चे शिव की खोज व ज्ञान प्राप्ति जिससे जन्म मरण के बन्धन कटते हैं व मोक्ष प्राप्त होता है, उस अमृतत्व की खोज व प्राप्ति के लिए वह अपने जीवन के बाईसवें वर्ष में अपने माता-पिता व भाई बन्धुओं को छोड़ कर चले गये थे।

स्वामी विरजानन्द उच्च कोटि के विद्वान थे, उन्होंने वेद मंत्रों को नई दृष्टि से देखा था और वेदों को एक नवीन व्यवस्था प्रदान की थी। उन्होंने दयानन्द जी को वेद शास्त्रों का अभ्यास कराया।

अध्ययन पूरा होने के बाद जब दयानन्द जी गुरू विरजानन्द जी को गुरू दक्षिणा के रूप में थोडी से लौंग, जो गुरू जी को बहुत पसन्द थी लेकर गये तो गुरू जी ने ऐसी दक्षिणा लेने से मना कर दिया। उन्होंने दयानन्द से कहा कि गुरू दक्षिणा के रूप में, मैं यह चाहता हूं कि समाज में फैले अन्ध विश्वास और कुरीतियों को समाप्त करो। गुरू जी के आदेश के अनुसार स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक उत्थान में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

इनका स्मृति में करतारपुर के ग्रैंड ट्रंक रोड पर एक स्मारक बनवाया गया जिसकी आधारशिला श्री बद्रीनाथ आर्य ने रखी (उन्होंने बाद में आर्य समाज नैरोबी की स्थापना भी की)। 14 सितम्बर 1971 को डाक विभाग ने इनकी स्मृति में एक टिकट भी जारी किया।