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सोमवार, 29 नवंबर 2021

विक्रमादित्य, नवरत्न और भोज



राजा विक्रमादित्य


  विक्रमादित्य उज्जैन के राजा थे, जो अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे। "विक्रमादित्य" की उपाधि भारतीय इतिहास में बाद के कई अन्य राजाओं ने प्राप्त की थी, जिनमें गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीयऔर सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य (जो हेमु के नाम से प्रसिद्ध थे) उल्लेखनीय हैं। राजा विक्रमादित्य नाम, 'विक्रम' और 'आदित्य' के समास से बना है जिसका अर्थ 'पराक्रम का सूर्य' या 'सूर्य के समान पराक्रमी' है।उन्हें विक्रमया विक्रमार्क (विक्रम + अर्क) भी कहा जाता है (संस्कृत में अर्क का अर्थ सूर्य है)। भविष्य पुराण व आईने अकबरी के अनुसार विक्रमादित्य पंवार (प्रमार) वंश के सम्राट थे जिनकी राजधानी उज्जयनी थी । अनुश्रुत विक्रमादित्य, संस्कृत और भारत के क्षेत्रीय भाषाओं, दोनों में एक लोकप्रिय व्यक्तित्व है। उनका नाम बड़ी आसानी से ऐसी किसी घटना या स्मारक के साथ जोड़ दिया जाता है, जिनके ऐतिहासिक विवरण अज्ञात हों, हालांकि उनके इर्द-गिर्द कहानियों का पूरा चक्र फला-फूला है। संस्कृत की सर्वाधिक लोकप्रिय दो कथा-श्रृंखलाएं हैं वेताल पंचविंशति या बेताल पच्चीसी ("पिशाच की २५ कहानियाँ") और सिंहासन-द्वात्रिंशिका ("सिंहासन की ३२ कहानियाँ" सिहांसन बत्तीसी )। इन दोनों के संस्कृत और क्षेत्रीय भाषाओं में कई रूपांतरण मिलते हैं।

हिन्दू शिशुओं में 'विक्रम' नामकरण के बढ़ते प्रचलन का श्रेय आंशिक रूप से विक्रमादित्य की लोकप्रियता और उनके जीवन के बारे में लोकप्रिय लोक कथाओं की दो श्रृंखलाओं को दिया जा सकता है। विक्रम संवत् भारत और नेपाल की हिंदू परंपरा में व्यापक रूप से प्रयुक्त प्राचीन पंचाग हैं विक्रम संवत् या विक्रम युग। कहा जाता है कि ईसा पूर्व ५६ में शकों पर अपनी जीत के बाद राजा ने इसकी शुरूआत की थी। राजा विक्रमादित्य के दरबार में मौजूद नवरत्नों में उच्च कोटि के कवि, विद्वान, गायक और गणित के प्रकांड पंडित शामिल थे, जिनकी योग्यता का डंका देश-विदेश में बजता था। 

१. धन्वन्तरि-
नवरत्नों में इनका स्थान गिनाया गया है। इनके रचित नौ ग्रंथ पाये जाते हैं। वे सभी आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र से सम्बन्धित हैं। चिकित्सा में ये बड़े सिद्धहस्त थे। आज भी किसी वैद्य की प्रशंसा करनी हो तो उसकी ‘धन्वन्तरि’ से उपमा दी जाती है। धनतेरस असल में 'धन्वंतरि' के ही नाम पर मनाया जाता था। जिसे 'चिकित्सक' दिवस के रूप में मनाया जाता था।कालांतर में यह कुछ विशेष सामानों की खरीदारी तक ही सीमित हो गया।

२–क्षपणक-
जैसा कि इनके नाम से प्रतीत होता है, ये बौद्ध संन्यासी थे।
इससे एक बात यह भी सिद्ध होती है कि प्राचीन काल में मन्त्रित्व आजीविका का साधन नहीं था अपितु जनकल्याण की भावना से मन्त्रिपरिषद का गठन किया जाता था। यही कारण है कि संन्यासी भी मन्त्रिमण्डल के सदस्य होते थे।
इन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे जिनमें ‘भिक्षाटन’ और ‘नानार्थकोश’ ही उपलब्ध बताये जाते हैं।

३–अमरसिंह-
ये प्रकाण्ड विद्वान थे। बोध-गया के वर्तमान बुद्ध-मन्दिर से प्राप्य एक शिलालेख के आधार पर इनको उस मन्दिर का निर्माता कहा जाता है। उनके अनेक ग्रन्थों में एक मात्र ‘अमरकोश’ ग्रन्थ ऐसा है कि उसके आधार पर उनका यश अखण्ड है। संस्कृतज्ञों में एक उक्ति चरितार्थ है जिसका अर्थ है ‘अष्टाध्यायी’ पण्डितों की माता है और ‘अमरकोश’ पण्डितों का पिता। अर्थात् यदि कोई इन दोनों ग्रंथों को पढ़ ले तो वह महान् पण्डित बन जाता है।

४–शंकु –
संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान 'शङ्कुक’ का काव्य-ग्रन्थ ‘भुवनाभ्युदयम्’ बहुत प्रसिद्ध रहा है किन्तु आज वह भी पुरातत्व का विषय बना हुआ है।

५–वेतालभट्ट –
 ‘वेताल पंचविंशति’ (‘वेताल-पच्चीसी’) के रचनाकार वेताल भट्ट  सम्राट विक्रम के वर्चस्व से प्रभावित थे। यही इनकी एक मात्र रचना उपलब्ध है।

७–घटखर्पर –
इनकी प्रतिज्ञा थी कि जो कवि अनुप्रास और यमक में इनको पराजित कर देगा उसके यहाँ वे फूटे घड़े से पानी भरेंगे।  तब से ही इनका नाम ‘घटखर्पर’ प्रसिद्ध हो गया। इनकी दो कृतियाँ ‘घटखर्पर काव्यम्’ (यमक और अनुप्रास का वह अनुपमेय ग्रन्थ) और  ‘नीतिसार’ हैं।



7–कालिदास –
कालिदास को देवी ‘काली’ की कृपा से विद्या प्राप्त हुई थी इसीलिए इनका नाम ‘कालिदास’ हुआ। संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से यह कालीदास होना चाहिए था किन्तु अपवाद रूप में कालिदास की प्रतिभा को देखकर इसमें उसी प्रकार परिवर्तन नहीं किया गया जिस प्रकार कि ‘विश्वामित्र’ को उसी रूप में रखा गया। कालिदास की विद्वता और काव्य प्रतिभा के विषय में अब दो मत नहीं है।  आज तक भी उन जैसा अप्रितम साहित्यकार अन्य उत्पन्न नहीं हुआ है। उनके चार काव्य और तीन नाटक प्रसिद्ध हैं। शकुन्तला उनकी अन्यतम कृति है। कालिदास सम्राट विक्रमादित्य के प्राणप्रिय कवि थे। उन्होंने  अपने ग्रन्थों में विक्रम के व्यक्तित्व का उज्जवल स्वरूप निरूपित किया है। 


८–वराहमिहिर –
भारतीय ज्योतिष-शास्त्र इनसे गौरवास्पद हो गया है। इन्होंने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनमें-‘बृहज्जातक‘, सुर्यसिद्धांत, ‘बृहस्पति संहिता’, ‘पंचसिद्धान्ती’ मुख्य हैं। गणक तरंगिणी’, ‘लघु-जातक’, ‘समास संहिता’, ‘विवाह पटल’, ‘योग यात्रा’, आदि-आदि का भी इनके नाम से उल्लेख पाया जाता है।

९–वररुचि-
कालिदास की भांति ही वररुचि भी अन्यतम काव्यकर्ताओं में गिने जाते हैं। ‘सदुक्तिकर्णामृत’, ‘सुभाषितावलि’ तथा ‘शार्ङ्धर संहिता’, इनकी रचनाओं में गिनी जाती हैं।
इनके नाम पर मतभेद है। क्योंकि इस नाम के तीन व्यक्ति हुए हैं उनमें से-
१.पाणिनीय व्याकरण के वार्तिककार-वररुचि कात्यायन,
२.‘प्राकृत प्रकाश के प्रणेता-वररुचि
३.सूक्ति ग्रन्थों में प्राप्त कवि-वररुचि

राजा भोज

भोज परमार या पंवार वंश के नवें राजा थे। परमार वंशीय राजाओं ने मालवा की राजधानी धारानगरी (धार) से आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। भोज ने बहुत से युद्ध किए और अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की जिससे सिद्ध होता है कि उनमें असाधारण योग्यता थी। यद्यपि उनके जीवन का अधिकांश युद्धक्षेत्र में बीता तथापि उन्होंने अपने राज्य की उन्नति में किसी प्रकार की बाधा न उत्पन्न होने दी। उन्होंने मालवा के नगरों व ग्रामों में बहुत से मंदिर बनवाए, यद्यपि उनमें से अब बहुत कम का पता चलता है।


भोजपाल नगर (वर्तमान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल) को राजा भोज ने ही बसाया था तथा समीप ही  समुद्र के समान विशाल तालाब का निर्माण कराया था, जो पूर्व और दक्षिण में भोजपुर के विशाल शिव मंदिर तक जाता था। आज भी भोजपुर जाते समय , रास्ते में शिवमंदिर के पास उस तालाब की पत्थरों की बनी विशाल पाल दिखती है। उस समय उस तालाब का पानी बहुत पवित्र और बीमारियों को ठीक करने वाला माना जाता था। कहा जाता है कि राजा भोज को चर्म रोग हो गया था तब किसी ऋषि या वैद्य ने उन्हें इस तालाब के पानी में स्नान करने और उसे पीने की सलाह दी थी जिससे उनका चर्मरोग ठीक हो गया था। उस विशाल तालाब के पानी से शिवमंदिर में स्थापित विशाल शिवलिंग का अभिषेक भी किया जाता था। राजा भोज स्वयं बहुत बड़े विद्वान थे। उन्होंने धर्म, खगोल विद्या, कला, कोशरचना, भवननिर्माण, काव्य, औषधशास्त्र आदि विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखी हैं जो अब भी विद्यमान हैं। इनके समय में कवियों को राज्य से आश्रय मिला था। उन्होने सन् १००० ई. से १०५५  ई. तक राज्य किया। इनकी विद्वता के कारण जनमानस में एक कहावत प्रचलित हुई 'कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तैली'। भोज बहुत बड़े वीर, प्रतापी, और गुणग्राही थे। इन्होंने अनेक देशों पर विजय प्राप्त की थी और कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे।राजा भोज ने ज्ञान के सभी क्षेत्रों में  ८४ ग्रन्थों की रचना की है। उनमें से प्रमुख हैं- राजमार्तण्ड (पतंजलि के योगसूत्र की टीका), सरस्वतीकंठाभरण (व्याकरण), सरस्वतीकण्ठाभरण (काव्यशास्त्र), शृंगारप्रकाश (काव्यशास्त्र तथा नाट्यशास्त्र), तत्त्वप्रकाश (शैवागम पर), वृहद्राजमार्तण्ड (धर्मशास्त्र), राजमृगांक (चिकित्सा), विद्याविनोद, शृंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय, युक्तिकल्पतरु - यह ग्रन्थ राजा भोज के समस्त ग्रन्थों में अद्वितीय है। इस एक ग्रन्थ में अनेक विषयों का समाहार है। राजनीति, वास्तु, रत्नपरीक्षा, विभिन्न आयुध, अश्व, गज, वृषभ, महिष, मृग, अज-श्वान आदि पशु-परीक्षा, द्विपदयान, चतुष्पदयान, अष्टदोला, नौका-जहाज आदि के सारभूत तत्त्वों का भी इस ग्रन्थ में संक्षेप में सन्निवेश है। विभिन्न पालकियों और जहाजों का विवरण इस ग्रन्थ की अपनी विशेषता है। विभिन्न प्रकार के खड्गों का सर्वाधिक विवरण इस पुस्तक में ही प्राप्त होता है।  आदि अनेक ग्रंथ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। इनकी विदुषी पत्नी का नाम लीलावती था। जब भोज जीवित थे तो कहा जाता था-

अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती।
पण्डिताः मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवि स्थिते॥

(आज जब भोजराज धरती पर स्थित हैं तो धारा नगरी सदाधारा (अच्छे आधार वाली) है; सरस्वती को सदा आलम्ब मिला हुआ है; सभी पंडित आदृत हैं।)

जब उनका देहान्त हुआ तो कहा गया -

अद्य धारा निराधारा निरालंबा सरस्वती।
पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवंगते ॥

(आज भोजराज के दिवंगत हो जाने से धारा नगरी निराधार हो गयी है ; सरस्वती बिना आलम्ब की हो गयी हैं और सभी पंडित खंडित हैं।)

भोज, धारा नगरी के 'सिन्धुल' नामक राजा के पुत्र थे और इनकी माता का नाम सावित्री था । जब ये पाँच वर्ष के थे, तभी इनके पिता अपना राज्य और इनके पालन-पोषण का भार अपने भाई मुंज पर छोड़कर स्वर्गवासी हुए थे । मुंज इनकी हत्या करना चाहता था, इसलिये उसने बंगाल के वत्सराज को बुलाकर उसको इनकी हत्या का भार सौंपा । वत्सराज इन्हें बहाने से देवी के सामने बलि देने के लिये ले गया । व्हाँ पहुँचने पर जब भोज को मालूम हुआ कि यहाँ मैं बलि चढ़ाया जाऊँगा, तब उन्होंने अपनी जाँघ चीरकर उसके रक्त से बड़ के एक पत्ते पर दो श्लोक लिखकर वत्सराज को दिए और कहा कि थे मुंज को दे देना । उस समय वत्सराज को इनकी हत्या करने का साहस न हुआ और उसने इन्हें अपने यहाँ ले जाकर छिपा रखा । जब वत्सराज भोज का कृत्रिम कटा हुआ सिर लेकर मुंज के पास गया और भोज के श्लोक उसने उन्हें दिए, तब मुंज को बहुत पश्चाताप हुआ । मुंज को बहुत विलाप करते देखकर वत्सराज ने उन्हें असल हाल बतला दिया और भोज को लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया । मुंज ने सारा राज्य भोज को दे दिया और आप सपत्नीक वन को चले गए ।

भोज ने प्रधानमंत्री रोहक, मंत्री भुवनपाल तथा सेनापतियों कुलचंद्र, साढ़ तथा तारादित्य की सहायता से राज्य संचालन सुचारु रूप से किया। अपने चाचा मुंज की ही भाँति यह भी पश्चिमी भारत में एक साम्राज्य स्थापित करना चाहते थे।  इसलिये इन्हें अपने पड़ोसी राज्यों से हर दिशा में युद्ध करना पड़ा। मुंज की मृत्यु शोकजनक परिस्थिति में हो जाने से परमारों ने  उत्तेजित थे होकर चालुक्यों से बदला लेने हेतु दक्षिण की ओर सेना लेकर चढ़ाई की। उन्होंने ने दाहल के कलचुरी गांगेयदेव तथा तंजौर (तंच्यावूर) के राजेन्द्र चोल से संधि की ओर साथ ही साथ दक्षिण पर आक्रमण कर दिया। तत्कालीन राजा चालुक्य जयसिंह द्वितीय [सोलंकी] ने बहादुरी से सामना किया और अपना राज्य बचा लिया। सन् १०४४ ई. के कुछ समय बाद जयसिंह के पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने परमारों से फिर शत्रुता कर ली और मालवा राज्य पर आक्रमण कर भोज को भागने के लिये बाध्य कर दिया। धारानगरी पर अधिकार कर लेने के बाद उसने आग लगा दी। कुछ दिनों बाद सोमेश्वर ने मालव छोड़ दिया और भोज ने राजधानी में लोटकर फिर सत्ताधिकार प्राप्त कर लिया। सन् १०१८ ई. के कुछ ही पहले भोज ने इंद्ररथ नामक एक व्यक्ति को, जो संभवत: कलिंग के गांग राजाओं का सामंत था, हराया था। 

जयसिंह द्वितीय तथा इंद्ररथ के साथ युद्ध समाप्त कर लेने पर भोज ने अपनी सेना भारत की पश्चिमी सीमा से लगे हुए देशों की ओर बढ़ाकर  दक्षिण में बंबई राज्य के अंतर्गत सूरत लाट राज्य पर आक्रमण कर दिया। वहाँ के राजा चालुक्य कीर्तिराज ने आत्मसमर्पण कर दिया। भोज ने कुछ समय तक उस पर अधिकार रखा।  सन् १०२० ई. में भोज ने लाट के दक्षिण में स्थित तथा थाना जिले से लेकर मालागार समुद्रतट तक विस्तृत कोंकण पर आक्रमण किया और शिलाहारों के अरिकेशरी नामक राजा को हराया। कोंकण को परमारों के राज्य में मिला लिया गया और उनके सामंतों के रूप में शिलाहारों ने यहाँ कुछ समय तक राज्य किया। सन् १००८ ई. में जब महमूद गज़नबी ने पंजाबे शाही नामक राज्य पर आक्रमण किया, भोज ने भारत के अन्य राज्यों के साथ अपनी सेना भी आक्रमणकारी का विरोध करने तथा शाही आनंदपाल की सहायता करने के हेतु भेजी परंतु हिंदू राजाओं की हार हो गई। सन् १०४३ ई. में भोज ने अपने भृतिभोगी सिपाहियों को पंजाब के मुसलमानों के विरुद्ध लड़ने के लिए दिल्ली के राजा के पास भेजा। उस समय पंजाब गज़नी साम्राज्य का एक भाग था और महमूद के वंशज  वहाँ राज्य कर रहे थे। दिल्ली के राजा को भारत के अन्य भागों की सहायता मिली और उसने पंजाब की ओर कूच करके मुसलमानों को हराया और कुछ दिनों तक उस देश के कुछ भाग पर अधिकार रखा परंतु अंत में गज़नी के राजा ने उसे हराकर खोया हुआ भाग पुन: अपने साम्राज्य में मिला लिया।

भोज ने एक बार दाहल के कलचुरी गांगेयदेव के विरुद्ध भी चढ़ाई कर दी जिसने दक्षिण पर आक्रमण करने के समय उसका साथ दिया था। गांगेयदेव हार गया परंतु उसे आत्मसमर्पण नहीं करना पड़ा।  उत्तर में भोज ने चंदेलों के देश पर भी आक्रमण किया था जहाँ विद्याधर नामक राजा राज्य करता था परंतु उससे कोई लाभ न हुआ। भोज के ग्वालियर पर विजय प्राप्त करने के प्रयत्न का भी कोई अच्छा फल न हुआ क्योंकि वहाँ के राजा कच्छपघाट कीर्तिराज ने उसके आक्रमण का डटकर सामना किया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि भोज ने कुछ समय के लिए कन्नौज पर भी विजय पा ली थी जो उस समय प्रतिहारों के पतन के बादवाले परिवर्तन काल में था।

भोज ने राजस्थान में शाकंभरी के चाहमनों के विरुद्ध भी युद्ध की घोषणा की और तत्कालीन राजा चाहमान वीर्यराम को हराया। इसके बाद उसने चाहमानों के ही कुल के अनहिल द्वारा शालित नदुल नामक राज्य को जीतने की धमकी दी, परंतु युद्ध में परमार हार गए और उनके प्रधान सेनापति साढ़ को जीवन से हाथ धोना पड़ा। भोज ने गुजरात के चौलुक्यों [सोलंकी ] से भी, जिन्होंने अपनी राजधानी अनहिलपट्टण में बनाई थी, बहुत दिनों तक युद्ध किया। चालुक्य सोलंकी नरेश मूलराज प्रथम के पुत्र चामुंडराज को वाराणसी जाते समय मालवा में परमार भोज के हाँथों अपमानित होना पड़ा था। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी बल्लभराज को बहुत क्रोध आया और उसने इस अपमान का बदला लेने हेतु एक बड़ी सेना तैयार कर भोज पर आक्रमण कर दिया, परंतु दुर्भाग्यवश रास्ते में ही चेचक से उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद वल्लभराज के छोटे भाई दुर्लभराज ने सत्ता की बागडोर अपन हाथों में ली। कुछ समय बाद भोज ने उसे भी युद्ध में हराया। दुर्लभराज के उत्तराधिकारी भीम के राज्यकाल में भोज ने अपने सेनापति कुलचंद्र को गुजरात के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा। कुलचंद्र ने पूरे प्रदेश पर विजय प्राप्त की तथा उसकी राजधानी अनहिलपट्टण को लूटा। भीम ने एक बार आबू पर आक्रमण कर उसके राजा परमार ढंडु को हराया था, जब उसे भागकर चित्रकूट में भोज की शरण लेनी पड़ी थी। सन् १०५५ ई. के कुछ ही पहले गांगेय के पुत्र कर्ण ने गुजरात के चौलुक्य भीम प्रथम के साथ एक संधि कर ली और मालव पर पूर्व तथा पश्चिम की ओर से आक्रमण कर दिया। भोज अपना राज्य बचाने का प्रबंध कर ही रहा था कि बीमारी से उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई और राज्य सुगमता से आक्रमणकारियों के अधिकार में चला गया।

डॉ महेश सिंह ने उनकी रचनाओं को विभिन्न विषयों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया है-
संकलन : सुभाषितप्रबन्ध
शिल्प : समरांगणसूत्रधार
खगोल एवं ज्योतिष : आदित्यप्रतापसिद्धान्त, राजमार्तण्ड, राजमृगांक, विद्वज्ञानवल्लभ (प्रश्नविज्ञान)
धर्मशास्त्र, राजधर्म तथा राजनीति : भुजबुल (निबन्ध) , भुपालपद्धति, भुपालसमुच्चय या कृत्यसमुच्चय
चाणक्यनीति या दण्डनीति : व्यवहारसमुच्चय, युक्तिकल्पतरु, पुर्तमार्तण्ड, राजमार्तण्ड, राजनीतिः
व्याकरण : शब्दानुशासन
कोश : नाममालिका
चिकित्साविज्ञान : आयुर्वेदसर्वस्व, राजमार्तण्ड या योगसारसंग्रह राजमृगारिका, शालिहोत्र, विश्रान्त विद्याविनोद
संगीत : संगीतप्रकाश
दर्शन : राजमार्तण्ड (योगसूत्र की टीका), राजमार्तण्ड (वेदान्त), सिद्धान्तसंग्रह, सिद्धान्तसारपद्धति, शिवतत्त्व या शिवतत्त्वप्रकाशिका
प्राकृत काव्य : कुर्माष्टक
संस्कृत काव्य एवं गद्य : चम्पूरामायण, महाकालीविजय, शृंगारमंजरी, विद्याविनोद

भोज के समय में भारतीय विज्ञान

समराङ्गणसूत्रधार का ३१वाँ अध्याय ‘यंत्रविज्ञान’ से सम्बन्धित है। इस अध्याय में यंत्र, उसके भेद और विविध यंत्रनिर्माण-पद्धति पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यंत्र उसे कहा गया है जो स्वेच्छा से चलते हुए (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि) भूतों को नियम से बांधकर अपनी इच्छानुसार चलाया जाय ।

स्वयं वाहकमेकं स्यात्सकृत्प्रेर्यं तथा परम् ।
अन्यदन्तरितं बाह्यं बाह्यमन्यत्वदूरत: ॥

इन तत्वों से निर्मित यंत्रों के विविध भेद हैं, जैसे :- (१) स्वयं चलने वाला, (२) एक बार चला देने पर निरंतर चलता रहने वाला, (३) दूर से गुप्त शक्ति से चलाया जाने वाला तथा (४) समीपस्थ होकर चलाया जाने वाला।

राजा भोज के भोजप्रबन्ध में लिखा है –

घटयेकया कोशदशैकमश्व: सुकृत्रिमो गच्छति चारुगत्या ।
वायुं ददाति व्यजनं सुपुष्कलं विना मनुष्येण चलत्यजस्त्रम ॥

भोज ने यंत्रनिर्मित कुछ वस्तुओं का विवरण भी दिया है। यंत्रयुक्त हाथी चिंघाड़ता तथा चलता हुआ प्रतीत होता है। शुक आदि पक्षी भी ताल के अनुसार नृत्य करते हैं तथा पाठ करते है। पुतली, हाथी, घोडा, बन्दर आदि भी अंगसंचालन करते हुए ताल के अनुसार नृत्य करते मनोहर लगते है। उस समय बना एक यंत्रनिर्मित पुतला नियुक्त किया था। वह पुतला वह बात कह देता था जो राजा भोज कहना चाहते थे ।।
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आलेख: गीति-काव्य में छंदों की उपयोगिता और प्रासंगिकता

आलेख:
गीति-काव्य में छंदों की उपयोगिता और प्रासंगिकता
आचार्य ​संजीव​ वर्मा​ 'सलिल'
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भूमिका: ध्वनि और भाषा
​आध्यात्म, धर्म और विज्ञान तीनों सृष्टि की उत्पत्ति नाद अथवा ध्वनि से मानते हैं। सदियों पूर्व वैदिक ऋषियों ने ॐ से सृष्टि की उत्पत्ति बताई, अब विज्ञान नवीनतम खोज के अनुसार सूर्य से नि:सृत ध्वनि तरंगों का रेखांकन कर उसे ॐ के आकार का पा रहे हैं। ऋषि परंपरा ने इस सत्य की प्रतीति कर सर्व ​सामान्य को बताया कि धार्मिक अनुष्ठानों में ध्वनि पर आधारित मंत्रपाठ या जप ॐ से आरम्भ करने पर ही फलता है। यह ॐ परब्रम्ह है, जिसका अंश हर जीव में जीवात्मा के रूप में है। नव जन्मे जातक की रुदन-ध्वनि बताती है कि नया प्राणी आ गया है जो आजीवन अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्ति ध्वनि के माध्यम से करेगा। आदि मानव वर्तमान में प्रचलित भाषाओँ तथा लिपियों से अपरिचित था। प्राकृतिक घटनाओं तथा पशु-पक्षियों के माध्यम से सुनी ध्वनियों ने उसमें हर्ष, भय, शोक आदि भावों का संचार किया। शांत सलिल-प्रवाह की कलकल, कोयल की कूक, पंछियों की चहचहाहट, शांत समीरण, धीमी जलवृष्टि आदि ने सुख तथा मेघ व तङित्पात की गड़गड़ाहट, शेर आदि की गर्जना, तूफानी हवाओं व मूसलाधार वर्ष के स्वर ने उसमें भय का संचार किया। इन ध्वनियों को स्मृति में संचित कर, उनका दोहराव कर उसने अपने साथियों तक अपनी​ ​अनुभूतियाँ सम्प्रेषित कीं। यही आदिम भाषा का जन्म था। वर्षों पूर्व पकड़ा गया भेड़िया बालक भी ऐसी ही ध्वनियों से शांत, भयभीत, क्रोधित होता देखा गया था।
कालांतर में सभ्यता के बढ़ते चरणों के साथ करोड़ों वर्षों में ध्वनियों को सुनने-समझने, व्यक्त करने का कोष संपन्न होता गया। विविध भौगोलिक कारणों से मनुष्य समूह पृथ्वी के विभिन्न भागों में गये और उनमें अलग-अलग ध्वनि संकेत विकसित और प्रचलित हुए जिनसे विविध भाषाओँ तथा बोलिओं का विकास हुआ। सुनने-कहने की यह परंपरा ही श्रुति-स्मृति के रूप में सहस्त्रों वर्षों तक भारत में फली-फूली। भारत में मानव कंठ में ध्वनि के उच्चारण स्थानों की पहचान कर उनसे उच्चरित हो सकनेवाली ध्वनियों को वर्गीकृत कर शुद्ध ध्वनि पर विशेष ध्यान दिया गया। इन्हें हम स्वर के तीन वर्ग हृस्व, दीर्घ व् संयुक्त तथा व्यंजन के ६ वर्गों क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग, य वर्ग आदि के रूप में जानते हैं। अब समस्या इस मौखिक ज्ञान को सुरक्षित रखने की थी ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी उसे सही तरीके से पढ़ा-सुना तथा सही अर्थों में समझा-समझाया जा सके। निराकार ध्वनियों का आकार या चित्र नहीं था, जिस शक्ति के माध्यम से इन ध्वनियों के लिये अलग-अलग संकेत मिले उसे आकार या चित्र से परे मानते हुए चित्र​ ​गुप्त संज्ञा दी जाकर ॐ से अभिव्यक्त कर ध्वन्यांकन के अपरिहार्य उपादानों असि-मसि तथा लिपि का अधिष्ठाता कहा गया। इसीलिए वैदिक काल से मुग़ल काल तक धर्म ग्रंथों में चित्रगुप्त का उल्लेख होने पर भी उनका कोई मंदिर, पुराण, उपनिषद, व्रत, कथा, चालीसा, त्यौहार आदि नहीं बनाये गये।
निराकार का साकार होना, अव्यक्त का व्यक्त होना, ध्वनि का लिपि, लेखनी, शिलापट के माध्यम से ​स्थायित्व पाना और सर्व साधारण तक पहुँचना मानव सभ्यता ​का ​सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है। किसी भी नयी पद्धति का परंपरावादियों द्वारा विरोध किया ही जाता है। लिपि द्वारा ज्ञान को संचित करने का विरोध हुआ ही होगा और तब ऐसी-मसि-लिपि के अधिष्ठाता को कर्म देवता कहकर विरोध का शमन किया गया। लिपि का विरोध अर्थात अंत समय में पाप-पुण्य का ले​खा रखनेवाले का विरोध कौन करता? आरम्भ में वनस्पतियों की टहनियों को पैना कर वनस्पतियों के रस में डुबाकर शिलाओं पर संकेत अंकित-चित्रित किये गये। ये शैल-चित्र तत्कालीन मनुष्य की शिकारादि क्रियाओं, पशु-पक्षी​, सहचरों ​आदि ​से संबंधित हैं। इनमें प्रयुक्त संकेत क्रमश: रुढ़, सर्वमान्य और सर्वज्ञात हुए। इस प्रकार भाषा के लिखित रूप लिपि (स्क्रिप्ट) का उद्भव हुआ। लिप्यांकन में प्रवीणता प्राप्त कायस्थ वर्ग को समाज, शासन तथा प्रशासन में सर्वोच्च स्थान सहस्त्रों वर्षों तक प्राप्त ​होता रहा जबकि ब्राम्हण वर्ग शिक्षा प्रदाय हेतु जिम्मेदार था। ध्वनि के उच्चारण तथा अंकन का ​शास्त्र विकसित होने से शब्द-भंडार का समृद्ध होना, शब्दों से भावों की अभिव्यक्ति कर सकना तथा इसके समानांतर लिपि का विकास होने से ज्ञान का आदान-प्रदान, नव शोध और सकल मानव जीवन व संस्कृति का विकास संभव हो सका।
रोचक तथ्य यह भी है कि मौसम, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, तथा वनस्पति ने भी भाषा और लिपि के विकास में योगदान किया। जिस अंचल में पत्तों से भोजपत्र और टहनियों या पक्षियों के पंखों कलम बनायीं जा सकी वहाँ मुड्ढे (अक्षर पर आड़ी रेखा) युक्त लिपि विकसित हुई जबकि जहाँ ताड़पत्र पर लिखा जाता था वहाँ मुड्ढा खींचने पर उसके चिर जाने के कारण बिना मुड्ढे वाली लिपियाँ विकसित हुईं। क्रमश: उत्तर व दक्षिण भारत में इस तरह की लिपियों का अस्तित्व आज भी है। मुड्ढे हीन लिपियों के अनेक प्रकार कागज़ और कलम की किस्म तथा लिखनेवालों की अँगुलियों क्षमता के आधार पर बने। जिन क्षेत्रों के निवासी वृत्ताकार बनाने में निपुण थे वहाँ की लिपियाँ तेलुगु, कन्नड़ , बांग्ला, उड़िया आदि की तरह हैं जिनके अक्षर किसी बच्चे को जलेबी-इमरती की तरह लग सकते हैं। यहाँ बनायी जानेवाली अल्पना, रंगोली, चौक आदि में भी गोलाकृतियाँ अधिक हैं। यहाँ के बर्तन थाली, परात, कटोरी, तवा, बटलोई आदि और खाद्य रोटी, पूड़ी, डोसा, इडली, रसगुल्ला आदि भी वृत्त या गोल आकार के हैं।
रेगिस्तानों में पत्तों का उपचार कर उन पर लिखने की मजबूरी थी इसलिए छोटी-छोटी रेखाओं से निर्मित अरबी, फ़ारसी जैसी लिपियाँ विकसित हुईं। बर्फ, ठंड और नमी वाले क्षेत्रों में रोमन लिपि का विकास हुआ। चित्र अंकन करने की रूचि ने चित्रात्मक लिपि​यों​ के विकास का पथ प्रशस्त किया। इसी तरह ​ वातावरण तथा ​खान-पान के कारण विविध अंचल के निवासियों में विविध ध्वनियों के उच्चारण की क्षमता भी अलग-अलग होने से वहाँ विकसित भाषाओँ में वैसी ध्वनियुक्त शब्द बने। जिन अंचलों में जीवन संघर्ष कड़ा था वहाँ की भाषाओँ में कठोर ध्वनियाँ अधिक हैं, जबकि अपेक्षाकृत शांत और सरल जीवन वाले क्षेत्रों की भाषाओँ में कोमल ध्वनियाँ अधिक हैं। यह अंतर हरयाणवी, राजस्थानी, काठियावाड़ी और बांग्ला, बृज, अव​धी भाषाओँ में अनुभव किया जा सकता है।
सार यह कि भाषा और लिपि के विकास में ध्वनि का योगदान सर्वाधिक है। भावनाओं और अनुभूतियों को व्यक्त करने में सक्षम मानव ने गद्य और पद्य दो शैलियों का विकास किया। इसका उत्स पशु-पक्षियों और प्रकृति से प्राप्त ध्वनियाँ ही बनीं। अलग-अलग रुक-रुक कर हुई ध्वनियों ने गद्य विधा को जन्म दिया जबकि नदी के कलकल प्रवाह या निरंतर कूकती कोयल की सी ध्वनियों से पद्य का जन्म हुआ। पद्य के सतत विकास ने गीति काव्य का रूप लिया जिसे गाया जा सके। गीतिकाव्य के मूल तत्व ध्वनियों का नियमित अंतराल पर दुहराव, बीच-बीच में ठहराव और किसी अन्य ध्वनि खंड के प्रवेश से हुआ। किसी नदी तट के किनारे कलकल प्रवाह के साथ निरंतर कूकती कोयल को सुनें तो एक ध्वनि आदि से अंत तक, दूसरी के बीच-बीच में प्रवेश से गीत के मुखड़े और अँतरे की प्रतीति होगी। मैथुनरत क्रौंच युगल में से ​व्याध द्वारा ​​नर का ​वध, मादा का आर्तनाद और आदिकवि वाल्मिकी के मुख से प्रथम कविता का प्रागट्य इसी सत्य की पुष्टि करता है​​। ​हो इस प्रसंग से प्रेरित होकर​​ ​हिरण शावक के वध के पश्चात अश्रुपात करती हिरणी के रोदन से ग़ज़ल की उत्पत्ति ​जैसी मान्यताएँ गीति काव्य की उत्पत्ति में प्रकृति​-पर्यावरण का योगदान इंगित करते हैं​।
व्याकरण और पिंगल का विकास-
भारत में गुरुकुल परम्परा में साहित्य की सारस्वत आराधना का जैसा वातावरण रहा वैसा अन्यत्र कहीं नहीं रह सका​​।​​ इसलिये भारत में कविता का जन्म ही नहीं हुआ पाणिनि व पिंगल ने विश्व के सर्वाधिक व्यवस्थित, विस्तृत और समृद्ध व्याकरण और पिंगल शास्त्रों का सृजन किया जिनका कमोबेश अनुकरण और प्रयोग विश्व की अधिकांश भाषाओँ में हुआ। जिस तरह व्याकरण के अंतर्गत स्वर-व्यंजन का अध्ययन ध्वनि विज्ञान के आधारभूत तत्वों के आधार पर हुआ वैसे ही ​ छंद शास्त्र के अंतर्गत छंदों का निर्माण ध्वनि खण्डों की आवृत्तिकाल के आधार पर हुआ। पिंगल ने लय या गीतात्मकता के दो मूल तत्वों गति-यति को पहचान कर उनके मध्य प्रयुक्त की जा रही लघु-दीर्घ ध्वनियों को वर्ण या अक्षर ​मात्रा ​के माध्यम से पहचाना तथा उन्हें क्रमश: १-२ मात्रा भार देकर उनके उच्चारण काल की गणना बिना किसी यंत्र या विधि न विशेष का प्रयोग किये संभव बना दी। ध्वनि खंड विशेष के प्रयोग और आवृत्ति के आधार पर छंद पहचाने गये। छंद में प्रयुक्त वर्ण तथा मात्रा के आधार पर छंद के दो वर्ग वर्णिक तथा मात्रिक बनाये गये। मात्रिक छंदों के अध्ययन को सरल करने के लिये ८ लयखंड (गण) प्रयोग में लाये गये सहज बनाने के लिए एक सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' बनाया गया।
गीति काव्य में छंद-
गणित के समुच्चय सिद्धांत (सेट थ्योरी) तथा क्रमचय और समुच्चय (परमुटेशन-कॉम्बिनेशन) का प्रयोग कर दोनों वर्गों में छंदों की संख्या का निर्धारण किया गया। वर्ण तथा मात्रा संख्या के आधार पर छंदों का नामकरण गणितीय आधार पर किया गया। मात्रिक छंद के लगभग एक करोड़ तथा वर्णिक छंदों के लगभग डेढ़ करोड़ प्रकार गणितीय आधार पर ही बताये गये हैं। इसका परोक्षार्थ यह है कि वर्णों या मात्राओं का उपयोग कर जब भी कुछ कहा जाता है वह किसी न किसी ज्ञात या अज्ञात छंद का छोटा-बड़ा अंश होता है।इसे इस तरह समझें कि जब भी कुछ कहा जाता है वह अक्षर होता है। संस्कृत के अतिरिक्त विश्व की किसी अन्य भाषा में गीति काव्य का इतना विशद और व्यवस्थित अध्ययन नहीं हो सका। संस्कृत से यह विरासत हिंदी को प्राप्त हुई तथा संस्कृत से कुछ अंश अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी , चीनी, जापानी आदि तक भी गयी। यह अलग बात है कि व्यावहारिक दृष्टि से हिंदी में भी वर्णिक और मात्रिक दोनों वर्गों के लगभग पचास छंद ही मुख्यतः: प्रयोग हो रहे हैं। रचनाओं के गेय और अगेय वर्गों का अंतर लय होने और न होने पर ही है। गद्य गीत और अगीत ऐसे वर्ग हैं जो दोनों वर्गों की सीमा रेखा पर हैं अर्थात जिनमें भाषिक प्रवाह यत्किंचित गेयता की प्रतीति कराता है। यह निर्विवाद है कि समस्त गीति काव्य ऋचा, मन्त्र, श्लोक, लोक गीत, भजन, आरती आदि किसी भी देश रची गयी हों छंदाधारित है। यह हो सकता है कि उस छंद से अपरिचय, छंद के आंशिक प्रयोग अथवा एकाधिक छंदों के मिश्रण के कारण छंद की पहचान न की जा सके।
वैदिक साहित्य में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएँ गीत का आदि रूप हैं। गीत की दो अनिवार्य शर्तें विशिष्ट सांगीतिक लय तथा आरोह-अवरोह अथवा गायन शैली हैं। कालांतर में 'लय' के निर्वहन हेतु छंद विधान और अंत्यानुप्रास (तुकांत-पदांत) का अनुपालन संस्कृत काव्य की वार्णिक छंद परंपरा तक किया जाता रहा। संस्कृत काव्य के समान्तर प्राकृत, अपभ्रंश आदि में भी 'लय' का महत्व यथावत रहा। सधुक्कड़ी में शब्दों के सामान्य रूप का विरूपण सहज स्वीकार्य हुआ किन्तु 'लय' का नहीं। शब्दों के रूप विरूपण और प्रचलित से हटकर भिन्नार्थ में प्रयोग करने पर कबीर को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'भाषा का डिक्टेटर' कहा।
अंग्रेजों और अंगरेजी के आगमन और प्रभुत्व-स्थापन की प्रतिक्रिया स्वरूप सामान्य जन अंग्रेजी साहित्य से जुड़ नहीं सका और स्थानीय देशज साहित्य की सृजन धारा क्रमशः खड़ी हिंदी का बाना धारण करती गयी जिसकी शैलियाँ उससे अधिक पुरानी होते हुए भी उससे जुड़ती गयीं। छंद, तुकांत और लय आधृत काव्य रचनाएँ और महाकाव्य लोक में प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हुए। आल्हा, रासो, राई, कजरी, होरी, कबीर आदि गीत रूपों में लय तथा तुकांत-पदांत सहज साध्य रहे। यह अवश्य हुआ कि सीमित शिक्षा तथा शब्द-भण्डार के कारण शब्दों के संकुचन या दीर्घता से लय बनाये रखा गया या शब्दों के देशज भदेसी रूप का व्यवहार किया गया। विविध छंद प्रकारों यथा छप्पय, घनाक्षरी, सवैया आदि में यह समन्वय सहज दृष्टव्य है।खड़ी हिंदी जैसे-जैसे वर्तमान रूप में आती गयी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ कवियों में छंद-शुद्धता के समर्थन या विरोध की प्रवृत्ति बढ़ी जो पारम्परिक और प्रगतिवादी दो खेमों में बँट गयी।
छंदमुक्तता और छंद हीनता-
लम्बे काल खंड के पश्चात हिंदी पिंगल को महाप्राण निराला ने कालजयी अवदान छंदमुक्त गीति रचनाओं के रूप में दिया। उत्तर भारत के लोककाव्य व संगीत तथा रवींद्र संगीत में असाधारण पैठ के कारण निराला की छंद पर पकड़ समय से आगे की थी। उनकी प्रयोगधर्मिता ने पारम्परिक छंदों के स्थान पर सांगीतिक राग-ताल को वरीयता देते हुए जो रचनाएँ उन्हें प्रस्तुत कीं उन्हें भ्रम-वश छंद विहीन समझ लिया गया, जबकि उनकी गेयता ही इस बात का प्रमाण है कि उनमें लय अर्थात छंद अन्तर्निहित है। निराला की रचनाओं और तथाकथित प्रगतिशील कवियों की रचनाओं के सस्वर पाठ से छंदमुक्तता और छंदहीनता के अंतर को सहज ही समझा जा सकता है।
दूसरी ओर पारम्परिक काव्यधारा के पक्षधर रचनाकार छंदविधान की पूर्ण जानकारी और उस पर अधिकार न होने के कारण उर्दू काव्यरूपों के प्रति आकृष्ट हुए अथवा मात्रिक-वार्णिक छंद के रूढ़ रूपों को साधने के प्रयास में लालित्य, चारुत्व आदि काव्य गुणों को नहीं साध सके। इस खींच-तान और ऊहापोह के वातावरण में हिंदी काव्य विशेषकर गीत 'रस' तथा 'लय' से दूर होकर जिन्दा तो रहा किन्तु जीवनशक्ति गँवा बैठा। निराला के बाद प्रगतिवादी धारा के कवि छंद को कथ्य की सटीक अभिव्यक्ति में बाधक मानते हुए छंदहीनता के पक्षधर हो गये। इनमें से कुछ समर्थ कवि छंद के पारम्परिक ढाँचे को परिवर्तित कर या छोड़कर 'लय' तथा 'रस' आधारित रचनाओं से सार्थक रचना कर्मकार सके किन्तु अधिकांश कविगण नीरस-क्लिष्ट प्रयोगवादी कवितायेँ रचकर जनमानस में काव्य के प्रति वितृष्णा उत्पन्न करने का कारण बने। विश्वविद्यालयों में हिंदी को शोधोपाधियां प्राप्त किन्तु छंद रचना हेतु आवश्यक प्रतिभा से हीं प्राध्यापकों का एक नया वर्ग पैदा हो गया जिसने अमरता की चाह ने अगीत, प्रगीत, गद्यगीत, अनुगीत, प्रलंब गीत जैसे न जाने कितने प्रयोग किये पर बात नहीं बनी। प्रारंभिक आकर्षण, सत्तासीन राजनेताओं और शिक्षा संस्थानों, पत्रिकाओं और समीक्षकों के समर्थन के बाद भी नयी कविता अपनी नीरसता और जटिलता के कारण जन-मन से दूर होती गयी। गीत के मरने की घोषणा करनेवाले प्रगतिवादी कवि और समीक्षक स्वयं काल के गाल में समा गये पर गीत लोक मानस में जीवित रहा। हिंदी छंदों को कालातीत अथवा अप्रासंगिक मानने की मिथ्या अवधारणा पाल रहे रचनाकार जाने-अनजाने में उन्हीं छंदों का प्रयोग बहर में करते हैं।
उर्दू काव्य विधाओं में छंद-
भारत के विविध भागों में विविध भाषाएँ तथा हिंदी के विविध रूप (शैलियाँ) प्रचलित हैं। उर्दू हिंदी का वह भाषिक रूप है जिसमें अरबी-फ़ारसी शब्दों के साथ-साथ मात्र गणना की पद्धति (तक़्ती) का प्रयोग किया जाता है जो अरबी लोगों द्वारा शब्द उच्चारण के समय पर आधारित हैं। पंक्ति भार गणना की भिन्न पद्धतियाँ, नुक्ते का प्रयोग, काफ़िया-रदीफ़ संबंधी नियम आदि ही हिंदी-उर्दू रचनाओं को वर्गीकृत करते हैं। हिंदी में मात्रिक छंद-लेखन को व्यवस्थित करने के लिये प्रयुक्त गण के समान, उर्दू बहर में रुक्न का प्रयोग किया जाता है। उर्दू गीतिकाव्य की विधा ग़ज़ल की ७ मुफ़र्रद (शुद्ध) तथा १२ मुरक्कब (मिश्रित) कुल १९ बहरें मूलत: २ पंच हर्फ़ी (फ़ऊलुन = यगण यमाता तथा फ़ाइलुन = रगण राजभा ) + ५ सात हर्फ़ी (मुस्तफ़इलुन = भगणनगण = भानसनसल, मफ़ाईलुन = जगणनगण = जभानसलगा, फ़ाइलातुन = भगणनगण = भानसनसल, मुतफ़ाइलुन = सगणनगण = सलगानसल तथा मफऊलात = नगणजगण = नसलजभान) कुल ७ रुक्न (बहुवचन इरकॉन) पर ही आधारित हैं जो गण का ही भिन्न रूप है। दृष्टव्य है कि हिंदी के गण त्रिअक्षरी होने के कारण उनका अधिकतम मात्र भार ६ है जबकि सप्तमात्रिक रुक्न दो गानों का योग कर बनाये गये हैं। संधिस्थल के दो लघु मिलाकर दीर्घ अक्षर लिखा जाता है। इसे गण का विकास कहा जा सकता है।
वर्णिक छंद मुनिशेखर - २० वर्ण = सगण जगण जगण भगण रगण सगण लघु गुरु
चल आज हम करते सुलह मिल बैर भाव भुला सकें
बहरे कामिल - मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
पसे मर्ग मेरे मज़ार परजो दिया किसी ने जला दिया
उसे आह दामने-बाद ने सरे-शाम से ही बुझा दिया
उक्त वर्णित मुनिशेखर वर्णिक छंद और बहरे कामिल वस्तुत: एक ही हैं।
अट्ठाईस मात्रिक यौगिक जातीय विधाता (शुद्धगा) छंद में पहली, आठवीं और पंद्रहवीं मात्रा लघु तथा पंक्त्यांत में गुरु रखने का विधान है।
कहें हिंदी, लिखें हिंदी, पढ़ें हिंदी, गुनें हिंदी
न भूले थे, न भूलें हैं, न भूलेंगे, कभी हिंदी
हमारी थी, हमारी है, हमारी हो, सदा हिंदी
कभी सोहर, कभी गारी, बहुत प्यारी, लगे हिंदी - सलिल
*
हमें अपने वतन में आजकल अच्छा नहीं लगता
हमारा देश जैसा था हमें वैसा नहीं लगता
दिया विश्वास ने धोखा, भरोसा घात कर बैठा
हमारा खून भी 'सागर', हमने अपना नहीं लगता -रसूल अहमद 'सागर'
अरकान मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन से बनी उर्दू बहर हज़ज मुसम्मन सालिम, विधाता छंद ही है। इसी तरह अन्य बहरें भी मूलत: छंद पर ही आधारित हैं।
रुबाई के २४ औज़ान जिन ४ मूल औज़ानों (१. मफ़ऊलु मफ़ाईलु मफ़ाईलु फ़अल, २. मफ़ऊलु मफ़ाइलुन् मफ़ाईलु फ़अल, ३. मफ़ऊलु मफ़ाईलु मफ़ाईलु फ़ऊल तथा ४. मफ़ऊलु मफ़ाइलुन् मफ़ाईलु फ़ऊल) से बने हैं उनमें ५ लय खण्डों (मफ़ऊलु, मफ़ाईलु, मफ़ाइलुन् , फ़अल तथा फ़ऊल) के विविध समायोजन हैं जो क्रमश: सगण लघु, यगण लघु, जगण २ लघु / जगण गुरु, नगण तथा जगण ही हैं। रुक्न और औज़ान का मूल आधार गण हैं जिनसे मात्रिक छंद बने हैं तो इनमें यत्किंचित परिवर्तन कर बनाये गये (रुक्नों) अरकान से निर्मित बहर और औज़ान छंदहीन कैसे हो सकती हैं?
औज़ान- मफ़ऊलु मफ़ाईलुन् मफ़ऊलु फ़अल
सगण लघु जगण २ लघु सगण लघु नगण
सलगा ल जभान ल ल सलगा ल नसल
इंसान बने मनुज भगवान नहीं
भगवान बने मनुज शैवान नहीं
धरती न करे मना, पाले सबको-
दूषित न करो बनो हैवान नहीं -सलिल
गीत / नवगीत का शिल्प, कथ्य और छंद-
गीत और नवगीत शैल्पिक संरचना की दृष्टि से समगोत्रीय है। अन्य अनेक उपविधाओं की तरह यह दोनों भी कुछ समानता और कुछ असमानता रखते हैं। नवगीत नामकरण के पहले भी गीत और दोनों नवगीत रचे जाते रहे आज भी रहे जा रहे हैं और भविष्य में भी रचे जाते रहेंगे। अनेक गीति रचनाओं में गीत और नवगीत दोनों के तत्व देखे जा सकते हैं। इन्हें किसी वर्ग विशेष में रखे जाने या न रखे जाने संबंधी समीक्षकीय विवेचना बेसिर पैर की कवायद कही जा सकती है। इससे पाचनकाए या समीक्षक विशेष के अहं की तुष्टि भले हो विधा या भाषा का भला नहीं होता।
गीत - नवगीत दोनों में मुखड़े (स्थाई) और अंतरे का समायोजन होता है, दोनों को पढ़ा, गुनगुनाया और गाया जा सकता है। मुखड़ा अंतरा मुखड़ा अंतरा यह क्रम सामान्यत: चलता है। गीत में अंतरों की संख्या प्राय: विषम यदा-कदा सम भी होती है । अँतरे में पंक्ति संख्या तथा पंक्ति में शब्द संख्या आवश्यकतानुसार घटाई - बढ़ाई जा सकती है। नवगीत में सामान्यतः २-३ अँतरे तथा अंतरों में ४-६ पंक्ति होती हैं। बहुधा मुखड़ा दोहराने के पूर्व अंतरे के अंत में मुखड़े के समतुल्य मात्रिक / वर्णिक भार की पंक्ति, पंक्तियाँ या पंक्त्यांश रखा जाता है। अंतरा और मुखड़ा में प्रयुक्त छंद समान भी हो सकते हैं और भिन्न भी। गीत के प्रासाद में छंद विधान और अंतरे का आकार व संख्या उसका विस्तार करते हैं। नवगीत के भवन में स्थाई और अंतरों की सीमित संख्या और अपेक्षाकृत लघ्वाकार व्यवस्थित गृह का सा आभास कराते हैं। प्रयोगधर्मी रचनाकार इनमें एकाधिक छंदों, मुक्तक छंदों अथवा हिंदीतर भाषाओँ के छंदों का प्रयोग करते रहे हैं।गीत में पारम्परिक छंद चयन के कारण छंद विधान पूर्वनिर्धारित गति-यति को नियंत्रित करता है। नवगीत में छान्दस स्वतंत्रता होती है अर्थात मात्रा सन्तुलनजनित गेयता और लयबद्धता पर्याप्त है। दोहा, सोरठा, रोला, उल्लाला, त्रिभंगी, आल्हा, सखी, मानव, नरेंद्र छंद (फाग), जनक छंद, लावणी, हाइकु आदि का प्रयोग गीत-नवगीत में किया जाता रहा है।
गीत - नवगीत दोनों में कथ्य के अनुसार रस, प्रतीक और बिम्ब चुने जाते हैं। गेयता या लयबद्धता दोनों में होती है। गीत में शिल्प को वरीयता प्राप्त होती है जबकि नवगीत में कथ्य प्रधान होता है। गीत में कथ्य वर्णन के लिये प्रचुर मात्र में बिम्बों, प्रतीकों और उपमाओं के उपयोग का अवकाश होता है जबकि नवगीत में गागर में सागर, बिंदु में सिंधु की तरह इंगितों में बात कही जाती है। 'कम बोले से अधिक समझना' की उक्ति नवगीत पर पूरी तरह लागू होती है। नवगीत की विषय वस्तु सामायिक और प्रासंगिक होती है। तात्कालिकता नवगीत का प्रमुख लक्षण है जबकि सनातनता, निरंतरता गीत का। गीत रचना का उद्देश्य सत्य-शिव-सुंदर की प्रतीति तथा सत-चित-आनंद की प्राप्ति कही जा सकती है जबकि नवगीत रचना का उद्देश्य इसमें बाधक कारकों और स्थितियों का इंगित कर उन्हें परिवर्तित करने की सरचनात्मक प्रयास कहा जा सकता है। गीत महाकाल का विस्तार है तो नवगीत काल की सापेक्षता।​

सहोक्ति अलंकार, छंद, ३६ मात्रिक, छंद २३ वार्णिक, नवगीत, प्रतिवस्तूपमा अलंकार,


एक मुक्तक
*
हमारा टर्न तो हरदम नवीन हो जाता
तुम्हारा टर्न गया वक्त जो नहीं आता
न फिक्र और की करना हमें सुहाता है
हमारा टर्म द्रौपदी का चीर हो जाता
२९-११-२०१९
***
दोहा सलिला
दिया बाल मत सोचना, हुआ तिमिर का अंत.
तली बैठ मौका तके, तम न भूलिए कंत.
नारी के दो-दो जगत, वह दोनों की शान
पाती है वरदान वह, जब हो कन्यादान.
.
नारी को माँगे बिना, मिल जाता नर-दास.
कुल-वधु ले नर दान में, सहता जग-उपहास.
.
दल-बल सह जा दान ले, भिक्षुक नर हो दीन.
नारी बनती स्वामिनी, बजा चैन से बीन.
.
चीन्ह-चीन्ह आदेश दे, बीन-बीन ले हक.
समता कर सकता न नर, तज कोशिश नाहक.
.
दो-दो मात्रा अधिक है, नारी नर से जान.
कुशल चाहता तो कभी, बैर न उससे ठान.
.
यह उसका रहमान है, वह इसकी रसखान.
उसमें इसकी जान है, इसमें उसकी जान.
.
लिखते-पढ़ते थक गया, बैठ गया हो मौन
पूछ रहा चलभाष से, बोलो मैं हूँ कौन?
बोलो मैं हूँ कौन मिला तब मुझको उत्तर
खुद को जान न पाए क्यों अब तक घनचक्कर?
तुम तुम हो, तुम नहीं अन्य जैसे हो दिखते
बेहतर होता भटक न यदि चुप कविता लिखते।
***
अलंकार सलिला ३५
विनोक्ति अलंकार
*
बिना वस्तु उपमेय को, जहाँ दिखाएँ हीन.
है 'विनोक्ति' मानें 'सलिल', सारे काव्य प्रवीण..
जहाँ उपमेय या प्रस्तुत को किसी वस्तु के बिना हीन या रम्य वर्णित किया जाता है वहाँ विनोक्ति अलंकार होता है.
१. देखि जिन्हें हँसि धावत हैं लरिकापन धूर के बीच बकैयां.
लै जिन्हें संग चरावत हैं रघुनाथ सयाने भए चहुँ बैयां.
कीन्हें बली बहुभाँतिन ते जिनको नित दूध पियाय कै मैया.
पैयाँ परों इतनी कहियो ते दुखी हैं गोपाल तुम्हें बिन गैयां.
२. है कै महाराज हय हाथी पै चढे तो कहा जो पै बाहुबल निज प्रजनि रखायो ना.
पढि-पढि पंडित प्रवीणहु भयो तो कहा विनय-विवेक युक्त जो पै ज्ञान गायो ना.
अम्बुज कहत धन धनिक भये तो कहा दान करि हाथ निज जाको यश छायो ना.
गरजि-गरजि घन घोरनि कियो तो कहा चातक के चोंच में जो रंच नीर नायो ना.
३. घन आये घनघोर पर, 'सलिल' न लाये नीर.
जनप्रतिनिधि हरते नहीं, ज्यों जनगण की पीर..
४. चंद्रमुखी है / किन्तु चाँदनी शुभ्र / नदारद है.
५. लछमीपति हैं नाम के / दान-धर्म जानें नहीं / नहीं किसी के काम के
६. समुद भरा जल से मगर, बुझा न सकता प्यास
मीठापन जल में नहीं, 'सलिल' न करना आस
७. जनसेवा की भावना, बिना सियासत कर रहे
मिटी न मन से वासना, जनप्रतिनिधि कैसे कहें?
***
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अलंकार सलिला: ३४
प्रतिवस्तूपमा अलंकार
*
एक धर्म का शब्द दो, करते अगर बखान.
'प्रतिवस्तुपमा' हो 'सलिल', अलंकार रस-खान..
'प्रतिवस्तुपमा' में कहें, एक धर्म दो शब्द.
चमत्कार लख काव्य का, होते रसिक निशब्द..
जहाँ उपमेय और उपमान वाक्यों का विभिन्न शब्दों द्वारा एक ही धर्म कहा जाता है, वहाँ
प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है.
जब उपमेय और उपमान वाक्यों का एक ही साधारण धर्म भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा कहा
जाय अथवा जब दो वाक्यों में वस्तु-प्रति वस्तु भाव हो तो वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता
है.
प्रतिवस्तूपमा में दो वाक्य होते हैं- १) उपमेय वाक्य, २) उपमान वाक्य. इन दोनों वाक्यों का
एक ही साधारण धर्म होता है. यह साधारण धर्म दोनों वाक्यों में कहा जाता है पर अलग-
अलग शब्दों से अर्थात उपमेय वाक्य में जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उपमान वाक्य
में उस शब्द का प्रयोग न कर किसी समानार्थी शब्द द्वारा समान साधारण धर्म की
अभिव्यक्ति की जाती है.
प्रतिवस्तूपमा अलंकार का प्रयोग करने के लिए प्रबल कल्पना शक्ति, सटीक बिम्ब-विधान
चयन-क्षमता तथा प्रचुर शब्द-ज्ञान की पूँजी कवि के पास होना अनिवार्य है किन्तु प्रयोग में
यह अलंकार कठिन नहीं है.
उदाहरण:
१. पिसुन बचन सज्जन चितै, सकै न फेरि न फारि.
कहा करै लगि तोय मैं, तुपक तीर तरवारि..
२. मानस में ही हंस किशोरी सुख पाती है.
चारु चाँदनी सदा चकोरी को भाती है.
सिंह-सुता क्या कभी स्यार से प्यार करेगी?
क्या पर नर का हाथ कुलस्त्री कभी धरेगी?
यहाँ प्रथम व चतुर्थ पंक्ति में उपमेय वाक्य और द्वितीय-तृतीय पंक्ति में उपमान वाक्य है.
३. मुख सोहत मुस्कान सों, लसत जुन्हैया चंद.
यहाँ 'मुख मुस्कान से सोहता है' यह उपमेय वाक्य है और 'चन्द्र जुन्हाई(चाँदनी) से लसता
(अच्छा लगता) है' यह उपमान वाक्य है. दोनों का साधारण धर्म है 'शोभा देता है'. यह
साधारण धर्म प्रथम वाक्य में 'सोहत' शब्द से तथा द्वितीय वाक्य में 'लसत' शब्द से कहा
गया है.
४. सोहत भानु-प्रताप सों, लसत सूर धनु-बान.
यहाँ प्रथम वाक्य उपमान वाक्य है जबकि द्वितीय वाक्य उपमेय वाक्य है.
५. तिन्हहि सुहाव न अवध-बधावा, चोरहिं चाँदनि रात न भावा.
यहाँ 'न सुहाना साधारण धर्म है जो उपमेय वाक्य में 'सुहाव न ' शब्दों से और उपमान वाक्य
में 'न भावा' शब्दों से व्यक्त किया गया है.
पाठकगण कारण सहित बताएँ कि निम्न में प्रतिवस्तूपमा अलंकार है या नहीं?
६. नेता झूठे हो गए, अफसर हुए लबार.
७. हम अनुशासन तोड़ते, वे लाँघे मर्याद.
८. पंकज पंक न छोड़ता, शशि ना ताजे कलंक.
९. ज्यों वर्षा में किनारा, तोड़े सलिला-धार.
त्यों लज्जा को छोड़ती, फिल्मों में जा नार..
१०. तेज चाल थी चोर की, गति न पुलिस की तेज
***
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अलंकार सलिला: ३३
सहोक्ति अलंकार
*
कई क्रिया-व्यापार में, धर्म जहाँ हो एक।
मिले सहोक्ति वहीं 'सलिल', समझें सहित विवेक।।
एक धर्म, बहु क्रिया ही, है सहोक्ति- यह मान।
ले सहवाची शब्द से, अलंकार पहचान।।
सहोक्ति अपेक्षाकृत अल्प चर्चित अलंकार है। जब कार्य-कारण रहित सहवाची शब्दों द्वारा अनेक व्यापारों
अथवा स्थानों में एक धर्म का वर्णन किया जाता है तो वहाँ सहोक्ति अलंकार होता है।
जब दो विजातीय बातों को एक साथ या उसके किसी पर्याय शब्द द्वारा एक ही क्रिया या धर्म से अन्वित
किया जाए तो वहाँ सहोक्ति अलंकर होता है। इसके वाचक शब्द साथ अथवा पर्यायवाची संग, सहित, समेत, सह, संलग्न आदि होते हैं।
१. नाक पिनाकहिं संग सिधायी।
धनुष के साथ नाक (प्रतिष्ठा) भी चली गयी। यहाँ नाक तथा धनुष दो विजातीय वस्तुओं को एक ही शब्द
'साथ' से अन्वित कर उनका एक साथ जाना कहा गया है।
२. भृगुनाथ के गर्व के साथ अहो!, रघुनाथ ने संभु-सरासन तोरयो।
यहाँ परशुरराम का गर्व और शिव का धनुष दो विजातीय वस्तुओं को एक ही क्रिया 'तोरयो' से अन्वित
किया गया है।
३. दक्खिन को सूबा पाइ, दिल्ली के आमिर तजैं, उत्तर की आस, जीव-आस एक संग ही।।
यहाँ उत्तर दिशा में लौट आने की आशा तथा जीवन के आशा इन दो विजातीय बैटन को एक ही शब्द 'तजना' से अन्वित किया गया है।
४. राजाओं का गर्व राम ने तोड़ दिया हर-धनु के साथ।
५. शिखा-सूत्र के साथ हाय! उन बोली पंजाबी छोड़ी।
६. देह और जीवन की आशा साथ-साथ होती है क्षीण।
७. तिमिर के संग शोक-समूह । प्रबल था पल-ही-पल हो रहा।
८. ब्रज धरा जान की निशि साथ ही। विकलता परिवर्धित हो चली।
९. संका मिथिलेस की, सिया के उर हूल सबै, तोरि डारे रामचंद्र, साथ हर-धनु के।
१०. गहि करतल मुनि पुलक सहित कौतुकहिं उठाय लियौ।
नृप गन मुखन समेत नमित करि सजि सुख सबहिं दियौ।।
आकर्ष्यो सियमन समेत, अति हर्ष्यो जनक हियौ।
भंज्यो भृगुपति गरब सहित, तिहुँलोक बिसोक कियौ।।
११. छुटत मुठिन सँग ही छुटी, लोक-लाज कुल-चाल।
लगे दुहन एक बेर ही, चल चित नैन गुलाल।।
१२. निज पलक मेरी विकलता साथ ही, अवनि से उर से, मृगेक्षिणी ने उठा।
१३. एक पल निज शस्य श्यामल दृष्टि से, स्निग्ध कर दी दृष्टि मेरी दीप से।।
१४. तेरा-मेरा साथ रहे, हाथ में साथ रहे।
१५. ईद-दिवाली / नीरस-बतरस / साथ न होती।
१६. एक साथ कैसे निभे, केर-बेर का संग?
भारत कहता शांति हो, पाक कहे हो जंग।।
उक्त सभी उदाहरणों में अन्तर्निहित क्रिया से सम्बंधित कार्य या कारण के वर्णन बिना ही एक धर्म (साधारण धर्म) का वर्णन सहवाची शब्दों के माध्यम से किया गया है.
२९-११-२०१५
***
नवप्रयोग
३६ मात्रिक / २३ वार्णिक छंद
नाक
नाक के बाल ने, नाक रगड़ दी, नाक कटाने का काम किया है
नाकों चने चबवाए, घुसेड़ के नाक, न नाक का मान रखा है
नाक न ऊँची रखें अपनी, दम नाक में हो तो भी नाक दिखा लें
नाक पे मक्खी न बैठन दें, है सवाल ये नाक का, नाक बचा लें
नाक के नीचे अघट न घटे, जो घटे तो जुड़े कुछ राह निकालें
नाक नकेल भी डाल सखे हो, न कटे जंजाल तो बाँह चढ़ा लें
***
नवगीत:
कौन बताये
नाम खेल का?
.
तोल-तोल के बोल रहे हैं
इक-दूजे को तोल रहे हैं
कौन बताये पर्दे पीछे
किसके कितने मोल रहे हैं?
साध रहे संतुलन
मेल का
.
तुम इतने लो, हम इतने लें
जनता भौचक कब कितने ले?
जैसी की तैसी है हालत
आश्वासन चाहे जितने ले
मेल नीर के
साथ तेल का?
.
केर-बेर का साथ निराला
स्वार्थ साधने बदलें पाला
सत्ता खातिर खेल खेलते
सिद्धांतों पर डाला ताला
मौसम आया
धकापेल का

***

नवगीत:
कब रूठें
कब हाथ मिलायें?
नहीं, देव भी
कुछ कह पायें
.
ये जनगण-मन के नायक हैं
वे बमबारी के गायक हैं
इनकी चाह विकास कराना
उनकी राह विनाश बुलाना
लोकतंत्र ने
तोपतंत्र को
कब चाहा है
गले लगायें?
.
सारे कुनबाई बैठे हैं
ये अकड़े हैं, वे ऐंठे हैं
उनका जन आधार बड़ा पर
ये जन मन मंदिर पैठे हैं
आपस में
सहयोग बढ़ायें
इनको-उनको
सब समझायें
. . .
(सार्क सम्मलेन काठमांडू, २६.१.२०१४ )

शनिवार, 27 नवंबर 2021

पुरोवाक, हाइकु, शशि पुरवार

पुरोवाक :
'जोगिनी गंध' - त्रिपदिक हाइकु प्रवहित निर्बंध
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भाषा सतत प्रवाहित सलिला की तरह निरंतर परिवर्तनशील होती है। लोकोक्ति है 'बहता पानी निर्मला', जिस नदी में जल स्रोतों से निरंतर ताजा जल नहीं आता और सागर में जल राशि विसर्जित नहीं होती वह नदी सूखकर समाप्त हो जाती है। भाषा और साहित्य भी सतत प्रवाहित नदियों की तरह हैं। जिस भाषा में समयानुकूल नए शब्द नहीं जुड़ते और निरुपयोगी हुए शब्द बाहर नहीं किये जाते, वह मृतप्राय हो जाती है। जिस साहित्य में अन्य भाषाओँ के साहित्य से ग्रहण करने योग्य साहित्य रचने की सामर्थ्य नहीं रहती, वह क्रमश: समाप्त हो।मानव सभ्यता भाषाओँ और साहित्य के सृजन और विनाश की कहानी है। जिस काल में श्रेष्ठ साहित्य रचा गया वह स्वर्णयुग कहलाया जबकि जिस काल में साहित्य का ह्रास हुआ वह पतन काल हुआ। सनातन मूल्यों के संधान और अनुकरण हेतु सजग रहे भारत ने समय-समय पर विविध भाषाओँ का उत्थान और पतन ही नहीं देखा अपितु सुकाल में स्वयं विश्व को ज्ञान प्रदान और दुष्काल में ज्ञान को ग्रहण किया है। भारत में संस्कृत पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, पैशाची, गोंडी, भीली, कोरकू, कौरवी, जैसी अगणित भाषाएँ विकसित हुईं। अधिकाँश काल के गाल में समां गयीं। वर्तमान में लगभग ५०० भाषाएँ-बोलियाँ व्यवहार में हैं। हिंदी भारत में जन्मी हुई नवीनतम भाषा है।
जन्म के साथ ही हिंदी को संस्कृत और अपभृंश की विरासत प्राप्त हुई। हिंदी की समकालिक उर्दू फ़ारसी-अरबी और सीमान्त प्रदेश की भाषाओँ के शब्दों का सम्मिश्रण मात्र होकर रह गयी किन्तु हिंदी ने २० से अधिक भाषाओँ और ५० से अधिक बोलिओं से शब्द संपदा, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, तत्सम-तद्भव शब्द आदि ग्रहणकर खुद को समृद्ध किया। यह क्रिया केवल भारत तक सीमित नहीं रही अपितु पूरे विश्व से आदान-प्रदान हुआ। फलत: हिंदी आज विश्ववाणी बनने की रह पर दिन-ब-दिन आगे बढ़। हिंदी ने केवल शब्द ही ग्रहण नहीं किये अपितु सृजन विधाएँ भी ग्रहण कीं। गद्य में किस्सागोई, निबंध, रिपोर्ताज, यात्रावृत्त आदि तथा पद्य में विविध छंद ग्रहण करने में हिंदी को किंचित भी परहेज नहीं हुआ। फ़ारसी से रुबाई, नज़्म, ग़ज़ल आदि, अंग्रेजी से कप्लेट, सोनेट आदि तथा जापानी से हाइकु, ताँका, बाँका आदि को हिंदी ने केवल ग्रहण ही नहीं किया अपितु उनका भारतीयकरण कर अपने व्याकरण और भाषिक प्रवृत्ति अनुसार नया रूप भी दे दिया। फलत:, मूल भाषा की तुलना में हिंदी में उन छंदों के दो रूप मूल की तरह तथा भारतीय रूप विकसित होने लगे हैं। यह प्रवृत्ति हाइकु लेखन में सहज ही देखी जा सकती है। हिंदी में 'हाइकु चंद ध्वनियों का उपयोग कर एक छवि निखारना है' की पारम्परिक धारणा से हटकर मुक्तक, गीत, ग़ज़ल, समीक्षा, भूमिका और खंड काव्य का भी माध्यम बने हैं। यहाँ यह उल्लेख अप्रासंगिक न होगा कि संस्कृत से गायत्री, कुकुप आदि तथा पंजाबी से माहिया जैसे त्रिपदिक छंद हाइकु के पहले से ही हिंदी में रचे जाते रहे हैं।
हाइकु (Haiku 俳句 high-koo) ऐसी लघु कवितायेँ हैं जो एक अनुभूति या छवि को व्यक्त करने के लिए संवेदी भाषा प्रयोग करती हैं। हाइकु बहुधा प्रकृति के तत्व, सौंदर्य के पल या मार्मिक अनुभव से प्रेरित होते हैं। मूलतः जापानी कवियों द्वारा विकसित हाइकु काव्यविधा अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओँ द्वारा ग्रहण की गयी। पाश्चात्य काव्य से भिन्न हाइकु में सामान्यतः तुकसाम्य, छंद बद्धता या काफ़िया नहीं होता। हाइकु को असमाप्त काव्य चूँकि हर हाइकु में पाठक / श्रोता के मनोभावों के अनुसार पूर्ण किये जाने की अपेक्षा होती है। हाइकु का उद्भव 'रेंगा नहीं हाइकाइ (haikai no renga) सहयोगी काव्य समूह' जिसमें शताधिक छंद होते हैं से हुआ है। 'रेंगा' समूह का प्रारंभिक छंद 'होक्कु' मौसम तथा अंतिम शब्द का संकेत करता है। हाइकु अपने काव्य-शिल्प से परंपरा के नैरन्तर्य बनाये रखता है। समकालिक हाइकुकार कम शब्दों से लघु काव्य रचनाएँ करते हैं. ३-५-३ सिलेबल (ध्वनिखंड या उच्चार) के लघु हाइकु भी रचे जाते हैं।
हाइकु का वैशिष्ट्य
१. ध्वन्यात्मक संरचना: पारम्परिक जापानी हाइकु १७ ध्वनियों का समुच्चय है जो ५-७-५ ध्वनियों की ३ पंक्तियों में विभक्त होते हैं। अंग्रेजी के कवि इन्हें सिलेबल (लघुतम उच्चरित ध्वनि, उच्चार) कहते हैं। समय के साथ विकसित हाइकु काव्य के अधिकांश हाइकुकार अब इस संरचना का अनुसरण नहीं करते। जापानी या अंग्रेजी के आधुनिक हाइकु न्यूनतम एक से लेकर सत्रह से अधिक ध्वनियों तक के होते हैं। अंग्रेजी सिलेबल लम्बाई में बहुत परिवर्तनशील होते हैं जबकि जापानी सिलेबल एकरूपेण लघु होते हैं। हाइकु लेखन में सिलेबल निर्धारण के लिये जापानी अवधारणा "हाइकु एक श्वास में अभिव्यक्त कर सके" उपयुक्त है। अंग्रेजी में सामान्यतः इसका आशय १० से १४ सिलेबल लंबी पद्य रचना से है। अमेरिकन उपन्यासकार जैक कैरोक का एक हाइकू देखें -
Snow in my shoe मेरे जूते में बर्फ
Abandoned परित्यक्त
Sparrow's nest गौरैया-नीड़
२. वैचारिक सन्निकटता: हाइकु में दो विचार सन्निकट हों: जापानी शब्द 'किरु' / 'किरेजी' (हिन्दी में विभाजक शब्द) का आशय है कि हाइकु में दो सन्निकट विचार हों जो व्याकरण की दृष्टि से स्वतंत्र तथा कल्पना प्रवणता की दृष्टि से भिन्न हों। सामान्यतः जापानी हाइकु 'किरेजी' (विभाजक शब्द) द्वारा विभक्त दो सन्निकट विचारों को समाहित कर एक सीधी पंक्ति में रचे जाते हैं। किरेजी एक ध्वनि पदावली (वाक्यांश) के अंत में आती है। अंग्रेजी में किरेजी की अभिव्यक्ति डैश '-' से की जाती है. बाशो के निम्न हाइकु में दो भिन्न विचारों की संलिप्तता देखें:
how cool / the feeling of a wall / against the feet — siesta
कितनी शीतल / दीवार की अनुभूति / पैर के सामने
आम तौर पर अंग्रेजी हाइकु ३ पंक्तियों में रचे जाते हैं। २ सन्निकट विचार (जिनके लिये २ पंक्तियाँ ही आवश्यक हैं) पंक्ति-भंग, विराम चिन्ह अथवा रिक्त स्थान द्वारा विभक्त किये जाते हैं। अमेरिकन कवि ली गर्गा का एक हाइकु देखें-
fresh scent- ताज़ा सुगंध
the lebrador's muzzle लेब्राडोर की थूथन
deepar into snow गहरे बर्फ में
"किरेजि" जापानी कविता में शब्द-संयम की आवश्यकता से उत्पन्न रूढ़ि-शब्द है जो अपने आप में किसी विशिष्ट अर्थ का द्योतक न होते हुए भी पद-पूर्ति में सहायक होकर कविता के सम्पूर्णार्थ में महत्त्वपूर्ण योगदान करता है। सोगि (१४२०-१५०२) के समय में १८ किरेजि निश्चित हो चुके थे। समय के साथ इनकी संख्या बढ़ती रही। महत्वपूर्ण किरेजि है- या, केरि, का ना, और जो। "या" कर्ता का अथवा अहा, अरे, अच्छा आदि का बोध कराता है।
यथा-
आरा उमि या / सादो नि योकोतोओ / आमा नो गावा [ "या" किरेजि]
अशांत सागर / सादो तक फैली है / नभ गंगा
३. विषय चयन और मार्मिकता: पारम्परिक हाइकु मनुष्य के परिवेश, पर्यावरण और प्रकृति पर केंद्रित होता है। हाइकु को ध्यान की एक विधि के रूप में देखें जो स्वानुभूतिमूलक व्यक्तिनिष्ठ विश्लेषण या निर्णय आरोपित किये बिना वास्तविक वस्तुपरक छवि को सम्प्रेषित करती है। जापानी कवि क्षणभंगुर प्राकृतिक छवियाँ यथा मेंढक का तालाब में कूदना, पत्ती पर जल वृष्टि होना, हवा से फूल का झुकना आदि को ग्रहण व सम्प्रेषित करने के लिये हाइकु का उपयोग करते हैं। कई कवि 'गिंकगो वाक' (नयी प्रेरणा की तलाश में टहलना) करते हैं। भारतीय हाइकु प्रकृति से परे हटकर शहरी वातावरण, भावनाओं, अनुभूतियों, संबंधों, उद्वेगों, आक्रोश, विरोध, आकांक्षा, हास्य आदि को हाइकु की विषयवस्तु बना रहे हैं।
४. मौसमी संदर्भ:
जापान में 'किगो' (मौसमी बदलाव, ऋतु परिवर्तन आदि) हाइकु का अनिवार्य तत्व है। मौसमी संदर्भ स्पष्ट या प्रत्यक्ष (सावन, फागुन आदि) अथवा सांकेतिक या परोक्ष (ऋतु विशेष में खिलने वाले फूल, मिलनेवाले फल, मनाये जाने वाले पर्व आदि) हो सकते हैं. फुकुडा चियो नी रचित हाइकु देखें:
morning glory! भोर की दमक
the well bucket-entangled, कूप - बाल्टी गठबंधन
I ask for water मैंने पानी माँगा
५. विषयांतर: हाइकु में दो सन्निकट विचारों की अनिवार्यता को देखते हुए चयनित विषय का परिदृश्य के २ भाग होते हैं। जैसे लकड़ी के लट्ठे पर रेंगती दीमक पर केंद्रित होते समय उस छवि को पूरे जंगल या दीमकों के निवास के साथ जोड़ें। सन्निकटता तथा संलिप्तता हाइकु को सपाट वर्णन के स्थान पर गहराई तथा लाक्षणिकता प्रदान करती हैं. रिचर्ड राइट का यह हाइकु देखें:
A broken signboard banging टूटा साइनबोर्ड तड़का
In the April wind. अप्रैल की हवाओं में
Whitecaps on the bay. खाड़ी में झागदार लहरें
इस पृष्ठभूमि में हिंदी की उदीयमान रचनाकार शशि पुरवार के हाइकु संकलन ''जोगिनी गंध'' को पढ़ने से पूर्व यह जान लें कि शशि जी जापानी ''उच्चार'' को हिंदी में ''वर्ण'' में बदल लेनेवाली पद्धति से हाइकु रचती हैं। शशि जी सुशिक्षित, संभ्रांत, शालीन व्यक्तित्व की धनी होने के साथ-साथ शब्द संपदा और अभिव्यक्ति सामर्थ्य की धनी हैं। वे जीवन और सृष्टि को खुली आँखों से देखते हुए चैतन्य मस्तिष्क से दृश्य का विवेचन कर हिंदी के त्रिपदिक वर्णिक छंद हाइकु की रचना ५-७-५ वर्ण संख्या को आधार बनाकर करती हैं। स्वलिखित भूमिका में शशि जी ने हाइकु की उद्भव और रचना प्रक्रिया पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कुछ हाइकुकारों के हाइकुओं का उल्लेख किया है। संभवत: अनावश्यक विस्तार भय से उन्होंने लगभग ३ दशक पूर्व से हिंदी में मेरे द्वारा रचित हाइकु मुक्तकों, ग़ज़लों, गीतों, समीक्षाओं आदि का उल्लेख नहीं किया तथापि स्वलिखित हाइकु गीत, हाइकु चोका गीत प्रस्तुत कर इस परंपरा को आगे बढ़ाया है।
'जोगिनी गंध' में शशि जी के हाइकु जोगनी गंध (प्रेम, मन, पीर, यादें/दीवानापन), प्रकृति (शीत, ग्रीष्म व फूल पत्ती-लताएं, पलाश, हरसिंगार, चंपा, सावन, रात-झील में चंदा, पहाड़, धूप सोनल, ठूँठ, जल, गंगा, पंछी, हाइगा), जीवन के रंग (जीवन यात्रा, तीखी हवाएँ, बंसती रंग, दही हांडी, गाँव, नंन्हे कदम-अल्डहपन, लिख्खे तूफान, कलम संगिनी) तथा विविधा (हिंद की रोली, अनेकता में एकता, ताज, दीपावली, राखी, नूतन वर्ष, हाइकु गीत, हाइकु चोका गीत, नेह की पाती, देव नहीं मैं, गौधुली बेला में, यह जीवन, रिश्तों में खास, तांका, सदोका, डाॅ. भगवती शरण अग्रवाल के मराठी में, मेरे द्वारा अनुवादित कुछ हाइकु) शीर्षकों-उपशीर्षकों में वर्गीकृत हैं। शशि जी ने प्रेम को अपने हाइकू में अभिनव दृष्टि से अंकित किया है - सूखें हैं फूल / किताबों में मिलती / प्रेम की धूल।
प्रेम की सुकोमल प्रतीति की अनुभूति और अभिव्यक्ति करने में शशि जी के नारी मन ने अनेक मनोरम शब्द-चित्र उकेरे हैं। एक झलक देखें -
छेड़ो न तार / रचती सरगम / हिय-झंकार।
तन्हा पलों में / चुपके से छेडती / यादें तुम्हारी।
शशि जी हाइकु रचना में केवल प्रकृति दृश्यों को नहीं उकेरतीं। वे कल्पना, आशा-आकांक्षा, सुख-दुःख आदि मानवीय अनुभूतियों को हाइकु का विषय बना पाती हैं-
सुख की धारा / रेत के पन्नों पर / पवन लिखे।
दुःख की धारा / अंकित पन्नों पर / जल में डूबी।
बनूँ कभी मैं / बहती जल धारा / प्यास बुझाऊँ।
हाइकु के शैल्पिक पक्ष की चर्चा करें तो शशि जी ने हिंदी छंदों की पदान्तता को हाइकू से जोड़ा है। कही पहली-दूसरी पंक्ति में तुक साम्य है, कहीं पहली तीसरी पंक्ति में, कहीं दूसरी-तीसरी पंक्ति में, कहीं तीनों पंक्तियों में किन्तु कहीं -कहीं तुकांत मुक्त हाइकु भी हैं-
प्यासा है मन / साहित्य की अगन / ज्ञान पिपासा।
दिल दीवाना / छलकाते नयन / प्रेम पैमाना।
अँधेरी रात / मन की उतरन / अकेलापन।
अनुगमन / कसैला हुआ मन / आत्मचिंतन।
तेरे आने की / हवा ने दी दस्तक / धडके दिल।
शशि जी के ये हाइकु प्रकृति और पर्यावरण से अभिन्न हैं। स्वाभाविक है कि इनमें प्रकृति के सौंदर्य का चित्रण हो।
स्नेह-बंधन / फूलों से महकते / हर सिंगार।
हरसिंगार / महकता जीवन / मन प्रसन्न।
पत्रों पे बैठे / बारिश के मनके / जड़ा है हीरा।
ले अंगडाई / बीजों से निकलते / नव पत्रक।
काली घटाएँ / सूरज को छुपाए / आँख मिचोली।
प्रकृति के विविध रूपों का हाइकुकरण करते समय बिम्बों, प्रतीकों और मानवीकरण करते समय कृत्रिमता अथवा पुनरावृत्ति का खतरा होता है। शशि के हाइकु इस दोष से मुक्त ही नहीं विविधता और मौलिकता से संपन्न भी हैं।
सिंधु गरजे / विध्वंश के निशान / अस्तित्व मिटा।
नभ ने भेजी / वसुंधरा को पाती / बूँदों ने बाँची।
राग-बैरागी / सुर गाए मल्हार / छिड़ी झंकार ।
धरा-अम्बर / तारों की चूनर का / सौम्य शृंगार।
हाइकू के माध्यम से नवाशा और नवाचार को स्पर्श करने का सफल प्रयास करती हैं शशि-
हौसले साथ / जब बढे़ कदम / छू लो आसमां ।
हरे भरे से / रचे नया संसार / धरा का स्नेह।
संग खेलते / ऊँचे होते पादप / छू ले आंसमा।
शशि का शब्द भंडार समृद्ध है। तत्सम-तद्भव शव्दों के साथ वे आवश्यक अंग्रेजी या अरबी शब्दों का सटीक प्रयोग करती हैं -
रूई सा फाहा / नजरो में समाया / उतरी मिस्ट।
जमता खून / हुई कठिन साँसे / फर्ज-इन्तिहाँ।
हिम-से जमे / हृदय के ज़ज़्बात / किससे कहूँ?
करूँ रास का काव्य से गहरा नाता है। कविता का उत्स मिथुनरत क्रौंच युगल के नर का बहेलिया द्वारा वध करने पर क्रौंची के चीत्कार को सुनकर आदिकवि वाल्मीकि के मुख से नि:सृत श्लोक से हुआ है। शशि के हाइकु करुण रस से भी संपृक्त हैं।
उड़ता पंछी / पिंजरे में जकड़ा / है परकटा।
दरख्तों को / जड़ से उखडती / तूफानी हवा।
शशि परंपरा का अनुकरण ही करतीं, आवश्यकता होने पर उसे तोड़ती भी हैं। उन्होंने ६-७-५ वर्ण लेकर भी हाइकु लिखा है -
शूलों-सी चुभन / दर्द भरा जीवन / मौन रुदन।
हाइकु के लघु कलेवर में मनोभावों को शब्दित कर पाना आसान नहीं होता। शशि ने इस चुनौती को स्वीकार कर मनोभाव केंद्रित हाइकु रचे हैं -
अवचेतन / लोलुपता की प्यास / ठूँठ बदन।
सूखी पत्तियाँ / बेजार होता तन / अंतिम क्षण।
वर्तमान समय का संकट सबसे बड़ा पर्यावरण का असंतुलन है। शशि का हाइकुकार इस संकट से जूझने के लिए सन्नद्ध है-
कम्पित धरा / विषैली पोलिथिन / मानवी भूल।
जगजननी / धरती की पुकार / वृक्षारोपण।
पर्वत पुत्री / धरती पे जा बसी / सलोना गाँव।
मानुष काटे / धरा का हर अंग / मिटते गाँव।
केदारनाथ / बेबस जगन्नाथ / वन हैं कटे।
सामाजिक टकराव और पारिवारिक बिखराव भी चिंता का अंग हैं -
बेहाल प्रजा / खुशहाल है नेता / खूब घोटाले।
चिंता का नाग / फन जब फैलाये / नष्ट जीवन।
पति-पत्नी में / वार्तालाप सीमित / अटूट रिश्ता।
जोगिनी गंध में नागर और ग्रामीण, वैयक्तिक और सामूहिक, सांसारिक और आध्यात्मिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक अर्थात परस्पर विरोध और भिन्न पहलुओं को समेटा गया है। गागर में सागर की तरह शशि का हाइकुकार त्रिपदियों और सत्रह वर्णों में अकथनीय भी कह सका है। प्रथम हाइकु संग्रह अगले संकलनों के प्रतिउत्सुकता जाग्रत करता है। पाठकों को यह संकलन निश्चय भायेगा और ख्याति दिलाएगा।
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संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,
चलभाष - ७९९९५५९६१८, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com
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साँसे x - सांसें, ख्वावों x -ख्वाबों, सांवरिया x - साँवरिया, उष्णता x - ऊष्णता, तर्फ x इसकी जगह ओर , इन्तिहाँ x - इंतिहा, प्रदुषण x - प्रदूषण,
सुझाव
धोखा पाकर / पहाड़ जैसी बनी / नाजुक कन्या। 'पहाड़' के स्थान पर 'कटार' पर विचार करें।

लघुकथा बर्दाश्तगी

लघुकथा
बर्दाश्तगी
*
एक शायर मित्र ने आग्रह किया कि मैं उनके द्वारा संपादित किये जा रहे हम्द (उर्दू काव्य-विधा जिसमें परमेश्वर की प्रशंसा में की गयी कवितायेँ) संकलन के लिये कुछ रचनाएँ लिख दूँ, साथ ही जिज्ञासा भी की कि इसमें मुझे, मेरे धर्म या मेरे धर्मगुरु को आपत्ति तो न होगी? मैंने तत्काल सहमति देते हुए कहा कि यह तो मेरे लिए ख़ुशी का वायस (कारण) है।
कुछ दिन बाद मित्र आये तो मैंने लिखे हुए हम्द सुनाये, उन्होंने प्रशंसा की और ले गये।
कई दिन यूँ ही बीत गये, कोई सूचना न मिली तो मैंने समाचार पूछा, उत्तर मिला वे सकुशल हैं पर किताब के बारे में मिलने पर बताएँगे। एक दिन वे आये कुछ सँकुचाते हुए। मैंने कारण पूछा तो बताया कि उन्हें मना कर दिया गया है कि अल्लाह के अलावा किसी और की तारीफ में हम्द नहीं कहा जा सकता जबकि मैंने अल्लाह के साथ- साथ चित्रगुप्त जी, शिव जी, विष्णु जी, ईसा मसीह, गुरु नानक, दुर्गा जी, सरस्वती जी, लक्ष्मी जी, गणेश जी व भारत माता पर भी हम्द लिख दिये थे। कोई बात नहीं, आप केवल अल्लाह पर लिख हम्द ले लें। उन्होंने बताया कि किसी गैरमुस्लिम द्वारा अल्लाह पर लिख गया हम्द भी क़ुबूल नहीं किया गया।
किताब तो आप अपने पैसों से छपा रहे हैं फिर औरों का मश्वरा मानें या न मानें यह तो आपके इख़्तियार में है -मैंने पूछा।
नहीं, अगर उनकी बात नहीं मानूँगा तो मेरे खिलाफ फतवा जारी कर हुक्का-पानी बंद दिया जाएगा। कोई मेरे बच्चों से शादी नहीं करेगा -वे चिंताग्रस्त थे।
अरे भाई! फ़िक्र मत करें, मेरे लिखे हुए हम्द लौटा दें, मैं कहीं और उपयोग कर लूँगा। मैंने उन्हें राहत देने के लिए कहा।
उन्हें तो कुफ्र कहते हुए ज़ब्त कर लिया गया। आपकी वज़ह से मैं भी मुश्किल में पड़ गया -वे बोले।
कैसी बात करते हैं? मैं आप के घर तो गया नहीं था, आपकी गुजारिश पर ही मैंने लिखे, आपको ठीक न लगते तो तुरंत वापिस कर देते। आपके यहां के अंदरूनी हालात से मुझे क्या लेना-देना? मुझे थोड़ा गरम होते देख वे जाते-जाते फिकरा कस गये 'आप लोगों के साथ यही मुश्किल है, बर्दाश्तगी का माद्दा ही नहीं है।'

***

शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

लघुकथा नैवेद्य

लघुकथा
नैवेद्य
*
- प्रभु! मैं तुम सबका सेवक हूँ। तुम सब मेरे आराध्य हो। मुझे आलीशान महल दो। ऊँचा वेतन, निशुल्क भोजन, भत्ते, गाड़ी, मुफ्त इलाज का व्यवस्था कर दो ताकि तुम्हारी सेवा-पूजा कर सकूँ। बच्चे ने प्रार्थना की।
= प्रभु की पूजा तो उनको सुमिरन से होती है। इन सुविधाओं की क्या जरूरत है?
- जरूरत है, प्रभु त्रिलोक के स्वामी हैं। उन्हें छप्पन भोग अर्पण तभी कर सकूँगा जब यह सब होगा।
= प्रभु भोग नहीं भाव के भूखे होते हैं।
- फिर भाव अर्पित करनेवालों को अभाव में क्यों रखते हैं?
= वह तो उनकी करनी का फल है।
- इसीलिये तो, प्रभु से माँगना गलत कैसे हो सकता है? फिर जो माँगा उन्हीं के लिए
= लेकिन यह गलत है। ऐसा कोई नहीं करता ।
- क्यों नहीं करता? किसान का कर्जा उतारने के लिए एक दल से दूसरे दल में जाकर सरकार बनाने की जनसेवा हो सकती है तो प्रभु से माँगकर प्रभु की जन सेवा क्यों नहीं हो सकती?
मंदिर में दो बच्चों की वार्ता सुनकर स्तब्ध थे प्रभु लेकिन पुजारी प्रभु को दिखाकर ग्रहण कर रहा था नैवेद्य।
***
संजीव
७९९९५५९६१८
२६-११-२०१९

नवगीत

नवगीत :
नीले-नीले कैनवास पर
बादल-कलम पकड़ कर कोई
आकृति अगिन बना देता है
*
मोह रही मन द्युति की चमकन
डरा रहा मेघों का गर्जन
सांय-सांय-सन पवन प्रवाहित
जल बूँदों का मोहक नर्तन
लहर-लहर लहराता कोई
धूसर-धूसर कैनवास पर
प्रवहित भँवर बना देता है
*
अमल विमल निर्मल तुहिना कण
हरित-भरित नन्हे दूर्वा तृण
खिल-खिल हँसते सुमन सुवासित
मधुकर का मादक प्रिय गुंजन
अनहद नाद सुनाता कोई
ढाई आखर कैनवास पर
मन्नत कफ़न बना देता है
***

एक रचना :
*
अपने मुँह
अपना यश-गान।
*
अब भी हैं
धृतराष्ट्र धरा पर
आत्म-मोह से ग्रस्त।
जाते जिसके निकट
उसी को
करते हैं संत्रस्त।
अहंकार के
मारे को हो
कैसे सुख-संतोष?
देख न निज के दोष
दूसरों को
देते हैं दोष।
जनगण-जनमत
को ठुकराते
कर-पाते अपमान
अपने मुँह
अपना यश-गान।
*
आधा देखें,
आधा लेखें,
मुँह-देखी बोलें।
विष-रस भरा
कनक-घट दिखता
जब भी मुँह खोलें।
परख रहे
औरों की कृतियाँ,
छिपा रहे हैं
खुद की त्रुटियाँ।
माइक पकड़ें
जमकर जकड़ें
मन माना बोलें।
सीख सयानों की
बिसरादी
बात तनिक तोलें।
क्षमा न करता
समय, कुयश का
कोई नहीं निदान
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नवगीत :
*
आत्म मोह से
रहे ग्रस्त जो
उनकी कलम उगलती विष है
करें अनर्थ
अर्थ का पल-पल
पर निन्दाकर
हँस सोते हैं
*
खुद को
कहते रहे मसीहा
औरों का
अवदान न मानें
जिसने गले लगाया उस पर
कीच डालने का हठ ठानें
खुद को नहीं
तोलते हैं जो
हल्कापन ही
जिनकी फितरत
खोल न पाते
मन की गाँठें
जो पाया आदर खोते हैं
*
मनमानी
व्याख्याएँ करते
लिखें उद्धरण
नकली-झूठे
पढ़ पाठक, सच समझ
नहीं क्यों
ऐसे लेखक ऊपर थूके?
सबसे अधिक
बोलते हैं वे
फिर भी शिकवा
बोल न पाए
ऐसे वक्ता
अपनी गरिमा खो
जब भी मिलते रोते हैं
***
सामयिक नवगीत
*
नाग, साँप, बिच्छू भय ठाँड़े,
धर संतन खों भेस।
*
हात जोर रय, कान पकर रय,
वादे-दावे खूब।
बिजयी हो झट कै दें जुमला,
मरें नें चुल्लू डूब।।
की को चुनें, नें कौनउ काबिल,
कपटी, नकली भेस।
*
सींग मार रय, लात चला रय,
फुँफकारें बिसदंत।
डाकू तस्कर चोर बता रय,
खुद खें संत-महंत।
भारत मैया हाय! नोच रइ
इनैं हेर निज केस।
*
जे झूठे, बे लबरा पक्के,
बाकी लुच्चे-चोर।
आपन माँ बन रय रे मिट्ठू,
देख ठठा रय ढोर।
टी वी पे गरिया रय
भत्ते बढ़वा, सरम नें सेस।
*
संजीव,
२६-११-२०१८
नवगीत 
*
जै जै बोलो
संविधान की
फिर बाँधो ठठरी
*
दीन-हीन जन के प्रतिनिधि बन मतदाता का चूसो खून।
मौज करो सरकारी धन पर
कहो पाँच होते दो दून।
स्वार्थों की मैदा
लालच का तेल
तलो मठरी
*
आदर्शों की कर नीलामी बेच-खरीदो खुल्लेआम।
नियम-कायदे तोड़-मरोड़ो बढ़ा-चढ़ाकर माँगो दाम।
मुँह काला हो
तो क्या चिंता
लाद मोह-गठरी
*
जनता मरती तो मरने दो, जाये भाड़ में देश।
बनो बेहया भाषण झाड़ो शर्म न करना लेश।
नीरो बनकर
बजा बाँसुरी
पुलिस चला लठरी
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संजीव
२६-११-२०१९
७९९९५५९६१८
एक रचना:
चढ़ा, बैठ फिर उतर रहा है
ये पहचाना,
वो अनजाना
दुनिया एक मुसाफिर खाना
*
साँसों का कर सफर मौन रह
औरों की सुन फिर अपनी कह
हाथ आस का छोड़ नहीं, गह
मत बन गैरों का दीवाना
दुनिया एक मुसाफिर खाना
*
जो न काम का उसे बाँट दे
कोई रोके डपट-डाँट दे
कंटक पथ से बीन-छाँट दे
बन मधुकर कुछ गीत सुनाना
दुनिया एक मुसाफिर खाना
*
कौन न माँगे? सब फकीर हैं
केवल वे ही कुछ अमीर हैं
जिनके मन रमते कबीर हैं
ज्यों की त्यों चादर धर जाना
दुनिया एक मुसाफिर खाना
*
गैर आज, कल वही सगा है
रिश्ता वह जो नेह पगा है
साये से ही पायी दगा है
नाता मन से 'सलिल' निभाना
दुनिया एक मुसाफिर खाना
*