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रविवार, 30 मई 2021

घनाक्षरी / मनहरण कवित्त

घनाक्षरी / मनहरण कवित्त

... झटपट करिए

संजीव 'सलिल'

*

लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो,

काम जो भी करना हो, झटपट करिए.

तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं,

मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए.

आम आदमी हैं आप, सोच मत चुप रहें,

खास बन आगे बढ़, देशभक्त बनिए-

गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें,

'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिये.

*

छंद विधान: वर्णिक छंद, आठ चरण,

८-८-८-७ पर यति, चरणान्त लघु-गुरु.
३०-५-२०११ 

***

मुक्तिका

मुक्तिका
.....डरे रहे.
संजीव 'सलिल'
*
हम डरे-डरे रहे.
तुम डरे-डरे रहे.
दूरियों को दूर कर
निडर हुए, खरे रहे.
हौसलों के वृक्ष पा
लगन-जल हरे रहे.
रिक्त हुए जोड़कर
बाँटकर भरे रहे.
नष्ट हुए व्यर्थ वे
जो महज धरे रहे.
निज हितों में लीन जो
समझिये मरे रहे.
सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे.
३०-५-२०१०
**************

मुक्तिका

: मुक्तिका :मन का इकतारा
संजीव 'सलिल'
*
मन का इकतारा तुम ही तुम कहता है.
जैसे नेह नर्मदा में जल बहता है..
*
सब में रब या रब में सब को जब देखा.
देश धर्म भाषा का अंतर ढहता है..
*
जिसको कोई गैर न कोई अपना है.
हँस सबको वह, उसको सब जग सहता है..
*
मेरा बैरी मुझे कहाँ बाहर मिलता?
देख रहा हूँ मेरे भीतर रहता है..
*
जिसने जोड़ा वह तो खाली हाथ गया.
जिसने बाँटा वह ही थोड़ा गहता है..
*
जिसको पाया सुख की करते पहुनाई.
उसको देखा बैठ अकेले दहता है..
*
सच का सूत न समय कात पाया लेकिन
सच की चादर 'सलिल' कबीरा तहता है.
३०-५-२०१० 
****

शनिवार, 29 मई 2021

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समीक्षा भगवत दुबे



पुस्तक चर्चा:
'बुंदेली दोहे' सांस्कृतिक शब्द छवियाँ मन मोहे
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: बुंदेली दोहे, दोहा संग्रह , आचार्य भगवत दुबे, प्रथम संस्करण २०१६, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १५२, मूल्य ५०/-, ISBN ९७८-९३-८३८९९-१८-०, प्रकाशक आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, म. प्र. संस्कृति परिषद्, श्यामला हिल्स, भोपाल ४६२००२, कृतिकार संपर्क- ९३००६१३९७५]
*
विश्ववाणी हिंदी का कालजयी छंद दोहा अपनी मिसाल आप है। संक्षिप्तता, सारगर्भितता, लाक्षणिकता, मर्मबेधकता, कालजयिता, उपयोगिता तथा लोकप्रियता के सप्त सोपानी निकष पर दोहा जन सामान्य से लेकर विद्वज्जनों तक अपनी प्रासंगिकता निरंतर बनाए रख सका है। बुंदेली के लोककवियों ने दोहे का महत्त्व पहचान कर नीतिपरक दोहे कहे. घाघ-भड्डरी, ईसुरी, जगनिक, केशव, जायसी, घनानंद, राय प्रवीण प्रभृति कवियों ने दोहा के माध्यम से बुंदेली साहित्य को समृद्ध किया। आधुनिक काल के बुंदेली दोहकारों में अग्रगण्य रामनारायण दास बौखल ने नारायण अंजलि भाग १ में ४०८३ तथा भाग २ में ३३८५ दोहों के माध्यम से साहित्य और आध्यात्म का अद्भुत समागम करने में सफलता अर्जित की है।
बौखल जी की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए बहुमुखी प्रतिभा और बहुविधायी स्तरीय कृतियों के प्रणेता आचार्य भगवत दुबे ने विवेच्य कृति में बुंदेली लोक जीवन और लोक संस्कृति के वैविध्य को उद्घाटित किया है। इसके पूर्व दुबे जी 'शब्दों के संवाद' दोहा संकलन में शुद्ध साहित्यिक हिंदी के अभिव्यंजनात्मक दोहे रचकर समकालिक दोहकारों की अग्रपंक्ति में स्थापित हो चुके हैं। यह दोहा संग्रह दुबे जी को बुंदेली का प्रथम सांस्कृतिक दोहाकार के रूप में प्रस्तुत करता है। 'किरपा करियो शारदे' शीर्षक अध्याय में कवि ने ईशवंदना करने के साथ-साथ लोकपूज्य खेडापति, जागेसुर, दुल्हादेव तथा साहित्यिक पुरखों लोककवियों ईसुरी, गंगाधर, जगनिक, केशव, बिहारी, भूषण, राय प्रवीण, आदि का स्मरण कर अभिनव परंपरा का सूत्रपात किया है।
'बुंदेली नौनी लगे' शीर्षक के अंतर्गत 'बुंदेली बोली सरस', 'बुंदेली में लोच है', 'ई में भरी मिठास', 'अपनेपन कौ भान' आदि अभिव्यक्तियों के माध्यम से दोहाकार ने बुंदेली के भाषिक वैशिष्ट्य को उजागर किया है। पाश्चात्य संस्कृति तथा नगरीकरण के दुष्प्रभावों से नवपीढ़ी की रक्षार्थ पारंपरिक जीवन-मूल्यों, पारिवारिक मान-मर्यादाओं, सामाजिक सहकार भाव का संरक्षण किये जाने की महती आवश्यकता है। दुबे जी ने ने यह कार्य दोहों के माध्यम से संपन्न किया है किन्तु बुंदेली को संयुक्त राष्ट्र संघ तक पहुँचाने की कामना अतिरेकी उत्साह भाव प्रतीत होता है। आंचलिक बोलिओं का महत्त्व प्रतिपादित करते समय यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि वे हिंदी के उन्नयन पथ में बाधक न हों। वर्तमान में भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी आदि के समर्थकों द्वारा अपनी क्षेत्रीय बोलि हिंदी पर वरीयता दिए जाने और उस कारण हिंदी बोलनेवालों की संख्या में कमी आने से विश्व में प्रथम स्थान से च्युत होकर तृतीय होने को देखते हुए ऐसी कामना न की जाए तो हिंदी के लिए बेहतर होगा।
इस कृति में 'जेवर हैं बुन्देल के' शीर्षक अध्याय में कवि ने लापता होते जा रहे पारंपरिक आभूषणों को तलाशकर दोहों में नगों की तरह जड़ दिया है। इनमें से अधिकांश जेवर ग्राम्यांचलों में आज भी प्रचलित हैं किन्तु नगरीकरण के प्रभाव ने उन्हें युवाओं के लिए अलभ्य बना दिया है।
नौ गज की धुतिया गसैं, लगै ओई की काँछ।
खींसा बारो पोलका, धरें नोट दस-पाँच।।
*
सोन पुतरिया बीच में, मुतियन की गुनहार।
पहरै मंगलसूत जो, हर अहिबाती नार।।
*
बीच-बीच में कौडियाँ, उर घुमची के बीज।
पहरैं गुरिया पोत के, औ' गंडा-ताबीज़।।
*
इन दोहों में बुंदेली समाज के विविध आर्थिक स्तरों पर जी रहे लोगों की जीवंत झलक के साथ-साथ जीवन-स्तर का अंतर भी शब्दित हुआ है। 'बनी मजूरी करत हैं' अध्याय में श्रमजीवी वर्ग की पीड़ा, चिंता, संघर्ष, अभाव, अवदान तथा वैशिष्ट्य पंक्ति-पंक्ति में अन्तर्निहित है-
कोदों-कुटकी, बाजरा, समा, मका औ' ज्वार।
गुजर इनई में करत हैं, जुरैं न चाउर-दार।।
*
महुआ वन की लकडियाँ, हर्र बहेरा टोर।
और चिरौंजी चार की, बेचें जोर-तंगोर।।
*
खावैं सूखी रोटियाँ, नून मिर्च सँग प्याज।
हट्टे-कट्टे जे रहें,महनत ई को राज।।
*
चंद्र, मंगल और अब सूर्य तक यान भेजनेवाले देश में श्रमिक वर्ग की विपन्नावस्था चिंतनीय है। बैद हकीमों खें रओ' शीर्षक के अंतर्गत पारंपरिक जड़ी-बूटी चिकित्सा, 'बनन लगत पकवान' में उत्सवधर्मी जीवनपद्धति, 'कई नेंग-दस्तूर', 'जब बरात घर सें कढ़े', 'खेलें बाबा-बाइयें', 'बधू खें चढ़े चढ़ाव', 'पाँव पखारे जांय', 'गारी गावै औरतें', 'सासू जी परछन करैं', 'गोद भराई होत है', 'मोंड़ा हों या मोंड़ियाँ', आदि अध्यायों में बुंदेली जन-जीवन की जीवंत पारिवारिक झलकियाँ मन मोह लेती हैं। दोहाकार ने चतुरतापूर्वक रीति-रिवाजों के साथ-साथ दहेज़ निषेध, कन्या संरक्षण, पक्षी संरक्षण, पौधारोपण, प्रदुषण निवारण जैसे समाज सुधारक विचारों को दोहा में पिरोकर 'सहकार में कुनैन लपेटकर खिलाने और मलेरिया को दूर करने का सार्थक और प्रभावी प्रयोग किया है।
'नौनिहाल कीआँख में', 'काजर आंजे नन्द', 'मामा करैं उपासनी', 'बुआ झालिया लेय', बुआ-सरहजें देत हैं', बाजे बजा बधाव' आदि में रिश्तों की मिठास घुली है। 'तुलसी चौरा स्वच्छ हो', 'सजे सातिया द्वार', 'आँखों से शीतल करैं', 'हरी छिछ्लती दूब', 'गौरैया फुदकत रहे', मिट्ठू सीताराम कह', 'पोसें कुत्ता-बिल्लियाँ', गाय-बैल बांधे जहाँ', 'कहूँ होय अखंड रामान', 'बुंदेली कुस्ती कला', 'गिल्ली नदा डाबरी चर्रा खो-खो खेल' आदि में जन जीवन की मोहक और जीवंत झलकियाँ हैं। 'बोनी करैं किसान', 'भटा टमाटर बरबटी', 'चढ़ा मलीदा खेत में', 'करैं पन्हैया चर्र चू', 'फूलें जेठ-असाढ़ में', 'खेतों में पानी भरे', 'पशुओं खें छापा-तिलक' आदि अध्यायों में खेती-किसानी से सम्बद्ध छवियाँ मूर्तिमंत हुई हैं। आचार्य भगवत दुबे जी बुंदेली जन-जीवन, परम्पराओं, जीवन-मूल्यों ही नहीं क्षेत्रीय वैशिष्ट्य आदि के भी मर्मज्ञ हैं। बंजारी मनिया बरम, दतिया की पीताम्बरा, खजराहो जाहर भयो, मैया को दरबार आदि अध्यायों का धार्मिक-अध्यात्मिक दृष्टि से ही नहीं पर्यटन की दृष्टि से भी महत्त्व है। इस संग्रह के हर दोहे में कथ्य, शिल्प, कहन, सारल्य तथा मौलिकता के पंच तत्व इन्हें पठनीय और संग्रहनीय बनाते हैं। ऐसी महत्वपूर्ण कृति के प्रकाशन हेतु आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास परिषद् अकादमी भी बधाई की पात्र है।
***

नवगीत: शिरीष

 नवगीत:

शिरीष
संजीव
.
क्षुब्ध टीला
विजन झुरमुट
झाँकता शिरीष
.
गगनचुम्बी वृक्ष-शिखर
कब-कहाँ गये बिखर
विमल धार मलिन हुई
रश्मिरथी तप्त-प्रखर
व्यथित झाड़ी
लुप्त वनचर
काँपता शिरीष
.
सभ्य वनचर, जंगली नर
देख दंग शिरीष
कुल्हाड़ी से हारता है
रोज जंग शिरीष
कली सिसके
पुष्प रोये
झुलसता शिरीष
.
कर भला तो हो भला
आदम गया है भूल
कर बुरा, पाता बुरा ही
जिंदगी है शूल
वन मिटे
बीहड़ बचे हैं
सिमटता शिरीष
.
बीज खोजो और रोपो
सींच दो पानी
उग अंकुर वृक्ष हो
हो छाँव मनमानी
जान पायें
शिशु हमारे
महकता शिरीष
...
टिप्पणी: इस पुष्प का नाम शिरीष है। बोलचाल की भाषा में इसे सिरस कहते हैं। बहुत ही सुंदर गंध वाला... संस्कृत ग्रंथों में इसके बहुत सुंदर वर्णन मिलते हैं। अफसोस कि इसे भारत में काटकर जला दिया जाता है। शारजाह में इसके पेड़ हर सड़क के दोनो ओर लगे हैं। स्व. हजारी प्रसाद द्विवेदी का ललित निबंध 'शिरीष के फूल' है -http://www.abhivyakti-hindi.org/.../lali.../2015/shirish.htm वैशाख में इनमें नई पत्तियाँ आने लगती हैं और गर्मियों भर ये फूलते रहते हैं... ये गुलाबी, पीले और सफ़ेद होते हैं. इसका वानस्पतिक नाम kalkora mimosa (albizia kalkora) है. गाँव के लोग हल्के पीले फूल वाले शिरीष को, सिरसी कहते हैं। यह अपेक्षाकृत छोटे आकार का होता है। इसकी फलियां सूखकर कत्थई रंग की हो जाती हैं और इनमें भरे हुए बीज झुनझुने की तरह बजते हैं। अधिक सूख जाने पर फलियों के दोनों भाग मुड़ जाते हैं और बीज बिखर जाते हैं। फिर ये पेड़ से ऐसी लटकी रहती हैं, जैसे कोई बिना दाँतो वाला बुजुर्ग मुँह बाए लटका हो।इसकी पत्तियाँ इमली के पेड़ की पत्तियों की भाँति छोटी छोटी होती हैं। इसका उपयोग कई रोगों के निवारण में किया जाता है। फूल खिलने से पहले (कली रूप में) किसी गुथे हुए जूड़े की तरह लगता है और पूरी तरह खिल जाने पर इसमें से रोम (छोटे बाल) जैसे निकलते हैं, इसकी लकड़ी काफी कमजोर मानी जाती है, जलाने के अलावा अन्य किसी उपयोग में बहुत ही कम लाया जाता है।बडे शिरीष को गाँव में सिरस कहा जाता है। यह सिरसी से ज्यादा बडा पेड़ होता है, इसकी फलियां भी सिरसी से अधिक बडी होती हैं। इसकी फलियां और बीज दोनों ही काफी बडे होते हैं, गर्मियों में गाँव के बच्चे ४-५ फलियां इकठ्ठा कर उन्हें खूब बजाते हैं, यह सूखकर सफेद हो जाती हैं, और बीज वाले स्थान पर गड्ढा सा बन जाता है और वहाँ दाग भी पड जाता है ... सिरस की लकड़ी बहुत मजबूत होती है, इसका उपयोग चारपाई, तख्त और अन्य फर्नीचर में किया जाता है ... गाँव में ईंट पकाने के लिए इसका उपयोग ईधन के रूप में भी किया जाता है।गाँव में गर्मियों के दिनों में आँधी चलने पर इसकी पत्ती और फलियां उड़ कर आँगन में और द्वारे पर फैल जाती हैं, इसलिए इसे कूड़ा फैलाने वाला रूख कहकर काट दिया जाता है.
२९-५-२०१६

गीत तुम

गीत तुम

*
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
कुछ हाँ-हाँ, कुछ ना-ना
कुछ देना, कुछ पाना।
पलक झुका, चुप रहना
पलक उठा, इठलाना।
जीभ चिढ़ा, छिप जाना
मंद अगन सुलगाना
पल-पल युग सा लगना
घंटे पल हो जाना।
बासंती बह बयार
पल-पल दे नव निखार।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
तुम-मैं हों दिक्-अम्बर
स्नेह-सूत्र श्वेताम्बर।
बाती मिल बाती से
हो उजास पीताम्बर।
पहन वसन रीत-नीत
तज सारे आडम्बर।
धरती को कर बिछात
आ! ओढ़ें नीलाम्बर।
प्राणों से, प्राणों को
पूजें फिर-फिर पुकार।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
श्वासों की ध्रुपद-चाल
आसें नर्तित धमाल।
गालों पर इंद्रधनुष
बालों के अगिन व्याल।
मदिर मोगरा सुजान
बाँहों में बँध निढाल
कंगन-पायल मिलकर
गायें ठुमरी - ख़याल।
उमग-सँकुच बहे धार
नेह - नर्मदा अपार ।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
तन तरु पर झूल-झूल
मन-महुआ फूल-फूल।
रूप-गंध-मद से मिल
शूलों को करे धूल।
जग की मत सुनना, दे
बातों को व्यर्थ तूल
अनहद का सुनें नाद
हो विदेह, द्वैत भूल।
गव्हर-शिखर, शिखर-गव्हर
मिल पूजें बार-बार।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
प्राणों की अगरु-धूप
मनसिज का प्रगट रूप।
मदमाती रति-दासी
नदी हुए काय - कूप।
उन्मन मन, मन से मिल
कथा अकथ कह अनूप
लूट-लुटा क्या पाया?
सब खोया, हुआ भूप।
सँवर-निखर, सिहर-बिखर
ले - दे, मत रख उधार ।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
२९-५-२०१५

नवगीत

नवगीत:
मातृभाषा में
संजीव
*
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
*
ढोल सुहाने दूर के
होते सबको ज्ञात
घर का जोगी जोगड़ा
आन सिद्ध विख्यात
घरवाली की बचा नजरें
अन्य से अँखियाँ लड़ाओ
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
*
आम आदमी समझ ले
मत बोलो वह बात
लुका-दबा काबिज़ रहो
औरों पर कर घात
दर्द अन्य का बिन सुने
स्वयं का दुखड़ा सुनाओ
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
*
२९-५-२०१५

दोहे का रंग मुँह के संग

दोहा सलिला:
दोहे का रंग मुँह के संग
संजीव
*
दोहे के मुँह मत लगें, पल में देगा मात
मुँह-दर्पण से जान ले, किसकी क्या है जात?
*
मुँह महीप से महल पर, अँखियाँ पहरेदार
बली-कली पर कटु-मृदुल, करते वार-प्रहार
*
सीता का मुँह लाल लख, आये रघुकुलनाथ
'धनुष-भंग कर एक हों', मना रहीं नत माथ
*
गये उठा मुँह जब कहीं, तभी हुआ उपहास
आमंत्रित हो जाइए, स्वागत हो सायास
*
दस मुँह भी काले हुए, मति न रही यदि शुद्ध
काले मुँह उजले हुए, मानस अगर प्रबुद्ध
*
मुँह की खाकर लौटते, दुश्मन सरहद छोड़
भारतीय सैनिक करें, जांबाजी की होड़
*
मुँह में पानी आ रहा, माखन-मिसरी देख
मैया कब जाएँ कहीं, करे कन्हैया लेख
*
बैठ गये मुँह फुलाकर, कान्हा करें न बात
राधा जी मुस्का रहीं, मार-मार कर पात
*
छिपा रहे मुँह आप क्यों?, करें न काज अकाज
सच को यदि स्वीकार लें, रहे शांति का राज
*
बेहतर है मुँह में रखो, अपने 'सलिल' लगाम
बड़बोलापन हानिप्रद, रहें विधाता वाम
*
जो मुँहदेखी कह रहे, उन्हें न मानें मीत
दुर्दिन में तज जायेंगे, यह दुनिया की रीत
*
मददगार का हम करें, किस मुँह से आभार?
मदद अन्य जन की करें, सुख पाये संसार
*
आपद-विपदा में गये, यार-दोस्त मुँह मोड़
उनको कर मजबूत मन, तत्क्षण दें हँस छोड़
*
मुँह-माँगा वरदान पा, तापस करता भोग
लोभ मोह माया अहं, क्रोध ग्रसे बन रोग
*
मुँह दिखलाना ही नहीं, होता है पर्याप्त
हाथ बटायें साथ मिल, तब मंजिल हो प्राप्त
*
मुँह पर करिए बात तो, मिट सकते मतभेद
बात पीठ पीछे करें, बढ़ बनते मनभेद
*
मुँह-देखी कहिए नहीं, सुनना भी है दोष
जहाँ-तहाँ मुँह मारता, जो- खोता संतोष
*
मुँहजोरी से उपजता, दोनों ओर तनाव
श्रोता-वक्ता में नहीं, शेष रहे सद्भाव
*
मुँह की खाते हैं सदा, अहंकार मद लोभ
मुँहफट को सहना पड़े, असफलता दुःख क्षोभ
*




२९-५-२०१५

हाइकु

 हाइकु सलिला:

संजीव
*
कमल खिला
संसद मंदिर में
पंजे को गिला
*
हट गयी है
संसद से कैक्टस
तुलसी लगी
*
नरेंद्र नाम
गूँजा था, गूँज रहा
अमरीका में
*
मिटा कहानी
माँ और बेटे लिखें
नयी कहानी
*
नहीं हैं साथ
वर्षों से पति-पत्नी
फिर भी साथ
*
२९-५-२०१४

विमर्श : राष्ट्रीय सरकार

विमर्श : राष्ट्रीय सरकार
क्या चुनाव में दलीय स्पर्धा से उपजी कड़वाहट और नेताओं में दलीय हित को राष्ट्रीय हित पर वरीयता देने को देखते हुए राष्ट्रीय सरकार भविष्य में अधिक उपयुक्त होगी?
संविधान नागरिक को अपना प्रतिनिधि चुनने देता है. दलीय उम्मीदवार को दल से इतनी सहायता मिलती है की आम आदमी उम्मीदवार बनने का सोच भी नहीं सकता।

स्वतंत्रता के बाद गाँधी ने कांग्रेस भंग करने की सलाह दी थी जो कोंग्रेसियों ने नहीं मानी, अटल जी ने प्रधान मंत्री रहते हुए राष्ट्रीय सरकार की बात थी किन्तु उनके पास स्पष्ट बहुमत नहीं था और सहयोगी दलों को उनकी बात स्वीकार न हुई. क्यों न इस बिंदु के विविध पहलुओं पर चर्चा हो. 

रोला छंद

छंद सलिला:
रोला छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, चार पद, प्रति चरण दो पद - मात्रा २४ मात्रा, यति ग्यारह तेरह, पदांत गुरु (यगण, मगण, रगण, सगण), विषम पद सम तुकांत,
लक्षण छंद:
आठ चरण पद चार, ग्यारह-तेरह यति रखें
आदि जगण तज यार, विषम-अंत गुरु-लघु दिखें
गुरु-गुरु से सम अंत, जाँचकर रचिए रोला
अद्भुत रस भण्डार, मजा दे ज्यों हिंडोला
उदाहरण:
१. सब होंगे संपन्न, रात दिन हँसें-हँसायें
कहीं न रहें विपन्न, कीर्ति सुख सब जन पायें
भारत बने महान, श्रमी हों सब नर-नारी
सद्गुण की हों खान, बनायें बिगड़ी सारी
२. जब बनती है मीत, मोहती तभी सफलता
करिये जमकर प्रीत, न लेकिन भुला विफलता
पद-मद से रह दूर, जमाये निज जड़ रखिए
अगर बन गए सूर, विफलता का फल चखिए
३.कोटि-कोटि विद्वान, कहें मानव किंचित डर
तुझे बना लें दास, अगर हों हावी तुझपर
जीव श्रेष्ठ निर्जीव, हेय- सच है यह अंतर
'सलिल' मानवी भूल, न हों घातक कम्प्यूटर
टीप:
रोल के चरणान्त / पदांत में गुरु के स्थान पर दो लघु मात्राएँ ली जा सकती हैं.
सम चरणान्त या पदांत सैम तुकान्ती हों तो लालित्य बढ़ता है.
रचना क्रम विषम पद: ४+४+३ या ३+३+२+३ / सम पद ३+२+४+४ या ३+२+३+३+२
कुछ रोलाकारों ने रोला में २४ मात्री पद और अनियमित गति रखी है.
नविन चतुर्वेदी के अनुसार रोला की बहरें निम्न हैं:
अपना तो है काम छंद की करना
फइलातुन फइलात फाइलातुन फइलातुन
२२२ २२१ = ११ / २१२२ २२२ = १३
भाषा का सौंदर्य, सदा सर चढ़कर बोले
फाइलुन मफऊलु / फ़ईलुन फइलुन फइलुन
२२२ २२१ = ११ / १२२ २२ २२ = १३
२९-५-२०१४
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, रोला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
संजीव
*
एक न सबको कर सके, खुश है सच्ची बात
चयनक जाने पात्रता, तब ही चुनता तात
*
सिर्फ किताबी योग्यता, का ही नहीं महत्व
समझ, लगन में भी 'सलिल', कुछ तो है ही तत्व
*
संसद से कैक्टस हटा, रोपी तुलसी आज
बने शरीफ शरीफ अब, कोशिश का हो राज
*
सुख कम संयम की अधिक, शासक में हो चाह
नियम मानकर आम सम, चलकर पाये वाह
*
जो अरविन्द वही कमल, हुए न फिर भी एक
अपनी-अपनी राह चल, कार्य करें मिल नेक
*
वृद्धा-रुग्णा संगिनी, घर- बाहर कर प्यार
शर्म नहीं आती जिन्हें, उनको दें दुत्कार
*
पैर कब्र की राह पर, हाथ भर रहा माँग
हवस साथ ले जा रहा, समय काँध पर टाँग
*
२९-५-२०१४ 

गीत

गीत
तुम
*
तुमको देखा, खुदको भूला
एक स्वप्न सा बरबस झूला
मैं खुद को ही खोकर हँसता
ख्वाब तुम्हारे में जा बसता
तुमने जब दर्पण में देखा
निज नयनों में मुझको लेखा
हृदय धड़कता पड़ा सुनाई
मुझ तक बंसी की ध्वनि आई
दूर दूर रह पास पास थे
कुछ हर्षित थे, कुछ उदास थे
कौन कहे कैसे कब क्या घट
देख रहा था जमुन तीर वट
वेणु नाद था कहीं निनादित
नेह नर्मदा मौन प्रवाहित
छप् छपाक् वर्तुल लहराए
मोर पंख शत शत फहराए
सुरभि आ रही वातायन से
गीत सुन पड़ा था गुंजन से
इंद्रधनुष तितली ले आई
निज छवि तुममें घुलती पाई
लगा खो गए थे क्या मैं तुम?
विस्मित सस्मित देख हुए हम
खुद ने खुद को पाया था गुम
दर्पण में मैं रहा न, धीं तुम।
***
२९-५-२०२१

शुक्रवार, 28 मई 2021

विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर दिल्ली शाखा

ॐ  
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर दिल्ली शाखा 
काव्य गोष्ठी 
अध्यक्ष आचार्य  संजीव वर्मा 'सलिल' 
संयोजन अंजू खरबंदा, संचालन सदानंद कवीश्वर 
*
दोहा सलिला 
सदाs नंद हो अयति मन, श्याम शोभना श्वास
अंजु अंजुरी में भरे, रश्मि विभा ज्यों आस 
*
गीता सरला सुगम्या, कह रमेश हैं मौन 
पद्म पद्मधर दे दरश, कहें कवीश्वर कौन?
*
शेख जहाँ जिज्ञासु हो, उत्तर हो बारीक 
प्रश्न दिखाते राह नित, नवनि नीविआ लीक 
*
तन्मय ले नवनीत कर, कृष्ण नाचते नित्य 
इंद्र न हिस्सा पा रहे, इंद्रा हर्षित सत्य  
पूनम की सुषमा करे, सपना शशि का पूर्ण
रेणु वेणु सुन रचाती, रास रचें संपूर्ण 
*
नेह नर्मदा सम जिए, किया राष्ट्र निर्माण
नमन जवाहर लाल को, रहे देश के प्राण
पंचशील दे रच दिया, एक नया इतिहास 
हर पीड़ित के पोंछकर, अश्रु दे दिया हास 
नमन करे हर मन तुम्हें, संकट में कर याद
किसको हम चाचा कहें, किससे पाएँ दाद  
सकल विश्व में कराई, भारत की पहचान 

*
सावरकर 
उन सा वर कर पंथ हम, करें देश की भक्ति
सावरकर को प्रिय नहीं, रही स्वार्थ अनुरक्ति
वीर विनायक ने किया, विहँस आत्म बलिदान
डिगे नहीं संकल्प से, कब चाहा प्रतिदान?
भक्तों! तजकर स्वार्थ हों, नीर-क्षीर वत एक
दोषारोपण बंद कर, हों जनगण मिल एक
मोटी-छोटी अँगुलियाँ, मिल मुट्ठी हों आज
गले लगा-मिल साधिए, सबके सारे काज
*
 
एक गीत 
*
सरहद से 
संसद तक 
घमासान जारी है 
*
सरहद पर आँखों में
गुस्सा है, ज्वाला है.
संसद में पग-पग पर
घपला-घोटाला है.
जनगण ने भेजे हैं
हँस बेटे सरहद पर.
संसद में.सुत भेजें
नेता जी या अफसर.
सरहद पर
आहुति है
संसद में यारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर धांय-धांय
जान है हथेली पर.
संसद में कांव-कांव
स्वार्थ-सुख गदेली पर.
सरहद से देश को
मिल रही सुरक्षा है.
संसद को देश-प्रेम
की न मिली शिक्षा है.
सरहद है
जांबाजी
संसद ऐयारी है
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर ध्वज फहरे
हौसले बुलंद रहें.
संसद में सत्ता हित
नित्य दंद-फंद रहें.
सरहद ने दुश्मन को
दी कड़ी चुनौती है.
संसद को मिली
झूठ-दगा की बपौती है.
सरहद जो
रण जीते
संसद वह हारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*** 
गीत 
नदी मर रही है
*
नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,
नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी
नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-
भुलाया है हमने नदी माँ हमारी
नदी ही मनुज का
सदा घर रही है।
नदी मर रही है
*
नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी
नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,
नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-
नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी
नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है
नदी मर रही है
*
नदी है तो जल है, जल है तो कल है
नदी में नहाता जो वो बेअकल है
नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा
नदी में बहाता मनुज मैल-मल है
नदी अब सलिल का नहीं घर रही है
नदी मर रही है
*
नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ
नदी के किनारे सघन वन लगाओ
नदी को नदी से मिला जल बचाओ
नदी का न पानी निरर्थक बहाओ
नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है
नदी मर रही है
***
२८-५-२०२१ 

सरस्वती वंदना अलंकार युक्त

सरस्वती वंदना में अलंकार  
*
वाग्देवि वागीश्वरी, वरदा वर दे विज्ञ
- वृत्यानुप्रास (आवृत्ति व्)
कोकिल कंठी स्वर सजे, गीत गा सके अज्ञ
-छेकानुप्रास (आवृत्ति क, स, ग)
*
नित सूरज दैदीप्य हो, करता तव वंदन
- श्रुत्यनुप्रास (आवृत्ति दंतव्य न स द त)
ऊषा गाती-लुभाती, करती
अभिनंदन

- अन्त्यानुप्रास (गाती-भाती)
*
शुभदा सुखदा शांतिदा, कर मैया उपकार
- वैणसगाई (श, क)
हंसवाहिनी हो सदा, हँसकर हंससवार
- लाटानुप्रास (हंस)
*
बार-बार हम सर नवा, करते जय-जयकार
- पुनरुक्तिप्रकाश (बार, जय)
जल से कर अभिषेक नत, नयन बहे जलधार
- यमक (जल = पानी, आँसू)
*
मैया! नृप बनिया नहीं, खुश होते बिन भाव
- श्लेष (भाव = भक्ति, खुशामद, कीमत)
रमा-उमा विधि पूछतीं, हरि-शिव से न निभाव?
- वक्रोक्ति (विधि = तरीका, ब्रह्मा)
*
कनक सुवर्ण सुसज्ज माँ, नतशिर करूँ प्रणाम
- पुनरुक्तवदाभास (कनक = सोना, सुवर्ण = अच्छे वर्णवाली)
मीनाक्षी! कमलांगिनी, शारद शारद नाम
- उपमा (मीनाक्षी! कमलांगिनी), - अनन्वय (शारद)
*
सुमन सुमन मुख-चंद्र तव, मानो 'सलिल' चकोर
- रूपक (मुख-चंद्र), उत्प्रेक्षा (मान लेना)
शारद रमा-उमा सदृश, रहें दयालु विभोर
- व्यतिरेक (उपमेय को उपमान से अधिक बताया जाए)
***
२८-५-२०२०

रचना-प्रतिरचना चंद्रकांता अग्निहोत्री

रचना-प्रतिरचना
चंद्रकांता अग्निहोत्री:
चाँद का टीका लगाकर, माथ पर उसने मुझे,
ओढ़नी दे तारिकाओं की, सुहागिन कह दिया।
संजीव वर्मा 'सलिल'
बिजलियों की, बादलों की, घटाओं की भेंट दे
प्रीत बरसा, स्वप्न का कालीन मैंने तह दिया।
चंद्रकांता अग्निहोत्री:
कैसे कहूँ तुझसे बच के चले जायेंगे कहीं।
पर यहाँ तो हर दर पे तेरा नाम लिखा है।।
संजीव वर्मा 'सलिल'
चाहकर भी देख पाया, जब न नैनों ने तुझे।
मूँद निज पलकें पढ़ा, पैगाम दिखा है।।
चंद्रकांता अग्निहोत्री:
आज फिर तेरी मुहब्बत ने शरारत खूब की है
नाम तेरा ले रही पर वो बुला मुझको रही है।।
संजीव वर्मा 'सलिल'
आज फिर तेरी शराफत ने बगावत खूब की है
काम तेरा ले रही पर वो समा मुझमें रही है।।
२८.५.२०१८
***

गीत

गीत:
जाग जाओ!
भाग जाओ!!
*
साँस जाने का समय आने न पाए।
रास गाने का समय जाने न पाए।
बेहतर है; पेश्तर
मन-राग गाओ!
जाग जाओ!
भाग जाओ!!
*
हीरकों की खदानों से बीन पत्थर।
फोड़ते क्यों हाय! अपने हाथ निज सर?
समय पूरा हो न पाए
आग लाओ!
जाग जाओ!
भाग जाओ!!
*
२८.५.२०१८

ओशो चिंतन

ओशो चिंतन:
देता हूँ आकाश मैं सारा भरो उड़ान।
भुला शास्त्र-सिद्धांत सब, गाओ मंगल गान।।
*
खुद पर निर्भर हो उठो, झट नापो आकाश।
पंख खोल कर तोड़ दो, सीमाओं के पाश।।
*
मानव के अस्तित्व की, गहो विरासत नाम।
बाँट वसीयत अन्य को, हो गुमनाम अनाम।।
*
ओ शो यह बढ़िया हुआ, अधरों पर मुस्कान।
निर्मल-निश्छल गा रही, ओशो का गुणगान।।
*
जिससे है नाराजगी, करें क्षमा का दान।
खुलते आज्ञा-ह्रदय के, चक्र शीघ्र मतिमान।।
*
संप्रभु जैसे आओ रे, प्रेम पुकारे मीत।
भिक्षुक जैसे पाओगे, वास्तु जगत की रीत।।
*
२८.५.२०१८

दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
चित्रगुप्त का गुप्त है, चित्र न पाओ देख।
तो निज कर्मों का करो, जाग आप ही लेख।।
*
असल-नक़ल का भेद क्या, समय न पाया जान।
असमय बूढ़ा हो गया, भुला राम-रहमान।।
*
अकल शकल के फेर में, गुम हो हुई गुलाम।
अकल सकल के फेर में, खुद खो हुई अनाम।।
*
कल-कल करते कल हुआ, बेकल मन बेचैन।
कलकल जल सम बह सके, तब पाए कुछ चैन।।
*
२८.५.२०१८