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शनिवार, 1 मई 2021

श्रमिक दिवस पर गीत

श्रमिक दिवस पर
गीत


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आदिशक्ति हम करो अनुकरण
अन्य युक्ति तज करो पथ वरण
करो परिश्रम स्वेद बहाओ
तब दो रोटी खाओ-पचाओ
इंसानों बढ़ तजो आवरण
कंकर-कंकर में शंकर है
द्रोह करे तो प्रलयंकर है
डरो, लोभ निज करो संवरण
तुमसे हम कब?, हमसे तुम हो
हम बिन महलों पल में गुम हो
तोंदों पिचको, तभी संतरण
***
संजीव
१-५-२०२०
९४२५१८३२४४

यादें बनी लिबास

कृति चर्चा:
दोहों में प्रणय-सुवास: यादें बनी लिबास
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: यादें बनीं लिबास, दोहा संग्रह, डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र', प्रथम संकरण, २०१७, आई.एस.बी.एन. ९७८-८१-७६६७-३४६-४, पृष्ठ १०४ मूल्य २००/-, आवरण बहुरंगी, सजिल्द, आकर २१ सेमी x १४ सेमी,भावना प्रकाशन, १०९-ए पटपड़गंज दिल्ली ११००९२, दूरभाष ९३१२८६९९४७, दोहाकार संपर्क ११२ सराफा, मोतीलाल नेहरू वार्ड, निकट कोतवाली जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २६५२०२७, ९३००१२१७०२]
*
बाँच सको तो बाँच लो आँखों का अखबार दोहा हिंदी ही नहीं बहुतेरी भारतीय भाषाओँ का कालजयी सर्वाधिक लोकप्रिय ही नहीं लोकोपयोगी छंद भी है। हर काल में दोहा कवियों की काव्याभिव्यक्ति का समर्थ माध्यम रहा है। आदिकाल (१४०० सदी से पूर्व) चंदबरदाई आदि कवियों ने रासो काव्यों में वीर रस प्रधान दोहों की रचना कर योद्धाओं को पराक्रम हेतु प्रेरित किया। भक्तिकाल (१३७५ से ११७०० ई. पू.) में निर्गुण भक्ति धारांतर्गत ज्ञानाश्रयी भाव धारा के कबीर, नानक, दादूदयाल, रैदास, मलूकदास, सुंदरदास, धर्मदास आदि ने तथा प्रेमाश्रयी भाव धारा के मलिक मोहम्मद जायसी, कुतुबन, मंझन, शेख नबी, कासिम शाह, नूर मोहम्मद आदि ने आध्यात्मिक भाव संपन्न दोहे प्रभु-अर्पित किए। सगुण भावधारा की रामाश्रयी शाखा में तुलसीदास, रत्नावली, अग्रदास, नाभा दास, केशवदास, हृदयराम, प्राणचंद चौहान, महाराज विश्वनाथ सिंह, रघुनाथ सिंह आदि ने कृष्णाश्रयी शाखा के सूरदास, नंददास,कुम्भनदास, छीतस्वामी, गोविन्द स्वामी, चतुर्भुज दास, कृष्णदास, मीरा, रसखान, रहीम के साथ मिलकर दोहा को इष्ट के प्रति समर्पण का माध्यम बनाया। रीतिकाल (१७००-१९०० ई. पू. मे केशव, बिहारी, भूषण, मतिराम, घनानन्द, सेनापति आदि ने मुख्यत: श्रृंगार तथा आलंकारिकता की अभिव्यक्ति करने के लिए दोहा को सर्वाधिक उपयुक्त पाया। आधुनिक काल (१८५० ईस्वी के पश्चात) छायावादी, प्रगतिवादी, प्रयोगवादी और यथार्थवादी युग में पारम्परिक हिंदी छंदों की उपेक्षा का शिकार दोहा भी हुआ। नव्योत्तर काल (१९८० ईस्वी के पश्चात) में तथाकथित प्रगतिवादी कविता से मोह भंग होने के साथ-साथ आंग्ल साहित्य के अनुकरण की प्रवृत्ति भी घटी। अंतरजाल पर हिंदी भाषा और साहित्य को नव प्रतिष्ठा मिली। गीत और दोहा फिर उत्कर्ष की ओर अग्रसर हुए।
सनातन सलिला नर्मदा के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ कवि डॉ. राजकुमार तिवारी सुमित्र का काव्य प्रवेश लगभग १९५० में हुआ। शिक्षक तथा पत्रकार रहते हुए आपने कलम को तराशा। पारिवारिक संस्कार, अध्ययन वृत्ति तथा साहित्यकारों की संगति ने उम्र के साथ अध्ययन और सृजन के क्षेत्र में उन्हें गहराई और ऊँचाई की ओर बढ़ते रहने की प्रेरणा दी। दोहा संग्रह ''यादें बनीं लिबास'' में यत्र-तत्र ही नहीं सर्वत्र व्याप्ति है उनकी जिन्होंने कवी के जीवन में प्रवेश कर उसे पूर्णता प्रदान की, जो जाकर भी जा न सकी, जिसकी उपस्थिति की प्रतीति कवि को पल-पल होती है। उसे उपस्थित मानते ही अनुपस्थिति अपना अस्तित्व बताने लगती है और तब उसकी संगति के समय की यादें कवि-मन को उसी तरह आवृत्त कर लेती हैं जैसे लिबास तन को ढाँकता है। शीर्षक की सार्थकता पूरी कृति में उसी तरह अनुभव की जा सकती है जैसे बगिया में सुमन-सुरभि। प्रेम, रूप-सौंदर्य, देह-दर्शन, नयन, स्वप्न, वसंत, सावन, फागुन आदि अनेक शीर्षकों के अंतर्गत सहेजे गए दोहे कहे-अनकहे उन्हीं के लिए कहे गए हैं जो विदेह होकर भी जानना छाती हैं कि उनका स्मरण सायास है या अनायास? उन्हें निश्चय ही संतुष्टि होगी यह जानकर कि जब स्मृतियाँ अभिन्न हों तो लिबास बन जाती हैं, तब याद नहीं करना पड़ता।
याद हमारी आ गई, या कुछ किया प्रयास।
अपना तो ये हाल है, यादें बनीं लिबास।।
जिसने आजीवन शैया से उठाकर धरा पर पग रखने से आरंभ कर धरा को छोड़ शैया पर जाने तक पल-पल रीति-रिवाजों का पालन मन-प्राण से किया ही उसे स्मृतियों के दोहांजलि समर्पित करने के पूर्व ईश स्मरण की विरासत की रीति न निभाकर उपालंभ का अवसर नाराज कैसे करें अग्रजवत सुमित्र जी। 'वीणापाणि स्तवन' तथा 'प्रार्थना के स्वर' शीर्षकांतर्गत पाँच-पाँच दोहों से शब्द ब्रम्ह आराधना का श्री गणेश कर बिना कहे कह दिया कि तुम्हारी जीवन पद्धति से ही जीवन जिया जा रहा है। -
वाणी की वरदायिनी, दात्री विमल विवेक।
सुमन अश्रु अक्षर करें, दिव्योपम अभिषेक।।
सुमित्र जी 'रस' को 'काव्य' ही नहीं 'जीवन' का भी 'प्राण' मानते हैं। वे जानते-मानते हैं की प्रकृति बिना पुरुष भले ही वह परम् पुरुष हो, सृष्टि की रचना नहीं कर सकता।
रस ही जीवन-प्राण है, सृष्टि नहीं रसहीन।
पृथ्वी का मतलब रसा, सृष्टि स्वयं रसलीन।।
सामान्यत: प्रकृति के समर्पण की गाथा कवी लिखते आये हैं किन्तु सत्य यह भी है समर्पण तो पुरुष भी करता है। इस सत्य की प्रतीति और अभिव्यक्ति सुमित्र ही कर सकता है, स्वामी नहीं-
साँसों में हो तुम बसे, बचे कहाँ हम शेष।
अहम् समर्पित कर दिया, और करें आदेश।।
कृति में श्रृंगार का इंद्रधनुष विविध रंगों और छटाओं का सौंदर्य बिखरता है। संयोग (रूप ज्योति की दिव्यता) तथा वियोग (तुम बिन दिन पतझर लगें, यादें बनीं लिबास) बिना देखे दिख जाने की तरह सुलभ है।
निर्गुण श्रृंगार को कबीरी फकीरी के बिना जीना दुष्कर है किंतु सुमित्र जी सांसारिकता का निर्वाह करते हुए भी निर्गुण को सगुण में पा सके हैं-
निराकार की साधना, कठिन योग पर्याय।
योग शून्य का शून्य में, शून्य प्रेम संकाय।।
सगुण श्रृंगार को लिखना तलवार पर धार की तरह है। भाव जरा डगमगाया कि मांसलता की राह से होते हुए नश्वरता और क्षण भंगुरता की नियति का शिकार हो जाता है जबकि कोई 'चाहक' अपनी 'चाह' को अकाल काल कवलित होते नहीं देखना चाहता। सुमित्र का तन की बात करते हुए भी मन को रंगारंग रखकर 'नट-कौशल' का परिचय देते हुए बच निकलते हैं-
अनुभव होता प्रेम का जैसे जलधि तरंग।
नस नस में लावा बहे, मन में रंगारंग।।
शिक्षक (टीचर नहीं) रहकर बरसों सिखाने के पूर्व सीखने की नर्मदा में बार-बार डुबकी लगा चुके कवि का शब्द-भंडार समृद्ध होना स्वाभाविक है। वह संस्कृत निष्ठ शब्दों( उच्चार, विन्यास, मकरंद, कुंतल, सुफलित, ऊर्ध्वमुख, तन्मयता, अध्यादेश, जलजात, मनसिज, अवदान, उत्पात, मुक्माताल, शैयाशायी, कल्याणिका, द्युतिमान, विन्यास, तिष्यरक्षिता, निर्झरी, उत्कटता आदि) के साथ देशज शब्दों (गैल, अरगनी, कथरी, मजूर, उजास, दहलान, कुलाँच, कातिक, दरस-परस, तिरती, सँझवाती, अँकवार आदि) का प्रयोग पूरी सहजता के साथ करता है। यही नहीं आंग्ल शब्दों (वैलेंटाइन, स्वेटर, सीट, कूलर, कोर्स, मोबाइल, टाइमपास, इंटरनेटी आदि) यथा स्थान सही अर्थों में प्रयोग करते हुए भी उससे चूक नहीं होती। कवि का पत्रकार समाज में प्रचलित अन्य भाषाओँ के शब्द संपदा से सुपरचित होने के नाते उन्हें पूरी उदारता के साथ यथावसर प्रयोग करता है।अरबी (मतलब, इबादत, तासीर, तकदीर, सवाल, गायब, किताब, कंदील, मियाद, ख़याल, इत्र, फरोश, गलतफहमी, उम्र, करीब, सलीब, नज़ीर, सफर, शरीर, जिला आदि), फ़ारसी (आवाज़, ज़िंदगी, ख्वाब, जागीर, बदर) शब्दों को प्रयोग करने में भी कवि को कोई हिचक नहीं है। अरबी 'जिला' और फ़ारसी 'बदर' को मिलाकर 'जिलाबदर', उम्र (अरबी) और दराज (फारसी) का प्रयोग करने में भी कवि कोताही नहीं करता। स्पष्ट है कि कवि खैरात की उस भाषा का उपयोग कर रहा है जिसे आधुनिक हिंदी कहा जाता है, वह भाषिक शुद्धता के नाम पर भाषिक साम्प्रदायिकता का पक्षधर नहीं है। यहाँ उल्लेखनीय है कि आंग्ल शब्द 'लेन्टर्न' का हिंदीकृत रूप 'लालटेन' भी कवि को स्वीकार है।
अलंकार संपन्नता इस दोहा संग्रह का वैशिष्ट्य है। अनुप्रास, यमक, उपमा, रूपक, श्लेष, संदेह आदि अलंकार यत्र-तत्र पूरी स्वाभाविकता सहित प्रयुक्त हुए हैं। कुछ अलंकारों के एक-एक उदाहरण देखें। दोहा छंद में अन्त्यानुप्रास आवश्यक होता है, अत: वह सर्वत्र है ही। छेकानुप्रास अधरों पर रख बाँसुरी, और बाँध भुजपाश / नदी आग की पी गया, फिर भी बुझी न प्यास, वृत्यानुप्रास (चंचल चितवन चंद्रमुख, चारु चंपई चीर / चौंक चकित चपला चले, चले चाप चौतीर), श्रुत्यानुप्रास ( नींद निगोड़ी बस गई, जाकर उनके पास / धीरे-धीरे कह गई, निर्वासन इतिहास) , लाटानुप्रास (संजीवन की शक्ति है, प्यार प्यार बस प्यार) तथा पुनरुक्ति प्रकाश (आँखों आँखों दे दिया / मन का चाहा दान) की छटा मोहक है।
वृत्नुयाप्रास काबू का प्रिय अलंकार है-
मुख मयंक, मंजुल मुखर, मधुर मदिर मुस्कान।
मन-मरल मोहित मुदित, मनसिज मुक्त मान।।
सुमुखि सलौनी सांवरी, सुखदा सुषमा सार।
सुरभित सुमन सनेह सर, सपन सरोज संवार।।
चंचल चितवन चन्द्रमुख, चारु चंपई चीर।
चौंक चकित चपला चले, चले चाप चौतीर।।
सभंग मुख यमक (कहनी अनकहनी सुनी, भरते रहे हुंकार ) तथा अभंग गर्भ यमक (बालों में हैं अंगुलियाँ, अधर अधर के पास) दृष्टव्य हैं।
उपमा के १६ प्रकारों में से कुछ की झलक देखें- धर्म लुप्तोपमा (नयन तुम्हारे वेद सम), उपमेय लुप्तोपमा (हिरन सरीखी याद है, चौपाई सी चारुता), धर्मोपमेय लुप्तोपमा (अनुप्रास सी नासिका, उत्प्रेक्षा सी छवि-छटा, अक्षर से लगते अधर, मन महुआ सा हो गया)।
यमक अलंकार दोहा दरबार में हाजिरी बजा रहा है-वेणु वेणुधर की बजी, रेशम रेशम तो कहा, हुई रेशमी शाम। / रेशम रेशम सुन कहा, रेशम किसका नाम।। आदि।
श्लेष भी छूटा नहीं है, यहाँ खेत द्विअर्थी है -
सपने बोये खेत में, दी आँसू की खाद।
जब लहराती है फसल, तुम आते हो याद।।
रूपक की छवि मत्तगयंदी चाल लख, काया रस-आगार आदि में है।
कुंतल मानो काव्य घन में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
संदेह अलंकार जाग रही है आँख या जाग रही है पीर, मुख सरोज या चन्द्रमा में है।
कवि अपनी प्रेयसी में सर्वत्र अलंकारों का सादृश्य देखता है-
यमक सरीखी दृष्टि है, वाणी श्लेष समान।
अतिशयोक्ति सी मधुरता, रूपक सी मुस्कान।।
विरोधाभास अलंकार 'शब्दों का है मौन व्रत', 'एकाकी संवाद' आदि में है।
दोहे जैसी देह, अनुभव होता प्रेम का, जैसे जलधि तरंग, कोलाहल का कोर्स, यादों के स्तूप, फूल तुम्हारी याद के, कोलाहल का कोर्स, आँखों के आकाश, आँखों का अखबार, पलक पुराण आदि सरस् अभिव्यक्तियाँ पाठक को बाँधती हैं।
कवि ने शब्द युग्मों (रंग-बिरंग, भाषा-भूषा, नदी-नाव, ऊंचे-नीचे, दरस-परस, तन-मन, हर्ष-विषाद, रात-दिन, किसने-कब-कैसे आदि) का प्रयोग कुशलता से लिया है।
इन दोहों में शब्दावृत्ति (धीरे-धीरे कह गई, प्यार प्यार बस प्यार, देख-देखकर विकलता, आँखों-आँखों दे दिया, अभी-अभी जो था यहाँ, अभी-अभी है दूर, सच्ची-सच्ची बताओ, महक-महक मेंहदी कहे, मह-मह करता प्यार, खन-खन करती चूड़ियाँ, उखड़ी-उखड़ी साँस, सुंदर-सुंदर दृश्य हैं, सुंदर-सुंदर लोग, सर-सर चलती पवनिया, फर-फर उड़ते केश, घाटी-घाटी गूँजती, उजली-उजली धूप, रात-रात भर जागता, कभी-कभी ऐसा लगे, सूना-सूना घर मगर, मन-ही-मन, युगों-युगों की प्यास, अश्रु-अश्रु में फर्क है आदि) माधुर्य और लालित्य वृद्धि करती है।
ऐसा प्रतीत होता है कि इन दोहों की रचना भिन्न काल तथा मन:स्थितियों में हुई तथा मुद्रण के पूर्व पाठ्य शुद्धि में सजगता नहीं रखे जा सकी। इससे उपजी त्रुटियाँ खीर में कंकर की तरह बदमजगी उत्पन्न करती हैं। अनुनासिक तथा अनुस्वार सम्बन्धी त्रुटियों के अतिरिक्त कुछ अन्य दोष भी हैं।
दोहे के विषम चरण में १४ मात्रा होने का या अधिकत्व दोष पर्वत हो जाएंगे, प्रेम रंग में जो रंगी, डूब गए मंझधार में, बहुरूपिया बन आ गया आदि में है। सम चरण में १२ मात्रा का मात्राधिक्य दोष जीवन का एहसास, पी गई कविता प्यास आदि में है। सम चरण में न्यूनत्व दोष रूपराशि अमीतिया १२ मात्रा में है।
आँखों के आकाश में, घूमें सोच-विचार में तथ्य दोष है चूँकि सोच-विचार आँख नहीं मन की क्रिया है।
अपवाद स्वरुप पदांत दोष भी है। ऐसा लगता नवोदितों के लिए काव्य दोषों के उदाहरण रखे गए हैं। इन्हें काव्य दोष शीर्षक के अंतर्गत रखा जाता तो उपयोगी होता।
ओर-छोर मन का नहीं, छोटा है आकाश।
लघुतम निर्मल रूप है, जैसे किरन उजास।।
संशय प्रिय करना नहीं, अर्पित जीवन पुण्य।
जनम-जनम तक प्रीती यह, बनी रहे अक्षुण्य।।
मन का विद्यापीठ में लिंग दोष, अक्षुण्य (अक्षुण्ण), रूचता (रुचता) अदि में टंकण दोष है।
औगुनधर्मी, मधुवंती, मधुता, पवनिया आदि नव प्रयोग मोहक हैं।
पत्रकार रहा कवि अख़बार, खबर (बाँच सको तो बाँच लो आँखों का अखबार, शरणार्थी फागुन हुआ, यही ख़बर है आज) और चर्चा (फागुन की चर्चा करो) की अर्चा न करे, यह कैसे संभव है?
कवि स्मरण वैशिष्ट्य-
सुमित्रजी ने कई दोहों में कवियों का स्मरण स्थान-स्थान पर इस तरह किया है कि वह मूल कथ्य के साथ संगुफित होकर समरस हो गया है, आरोपित नहीं प्रतीत होता-
कालिदास का कथाक्रम, तेरा ही संकेत।
पृथ्वी का मतलब रसा, सृष्टि स्वयं रसलीन।।
पारिजात विद्योत्तमा, कालिदास वनगन्ध।
हो दोनों का मिलन जब मिटे द्वैत की धुंध।।
मन मोती यों चुन लिया, जैसे चुने मराल।
मान सरोवर जिंदगी मन हो गया मराल।
रूप-धूप है सिरजती, घनानंद रसखान।।
ले वसंत से मधुरिमा, मन होता रसखान।।
मन के हाथों बिक गए, कितने ग़ालिब-मीर।।
पलक पुलिन अश्रुज तुहिन, पुतली पंकज भान।
नयन सरोवर में बसें, साधें सलिल समान।।
खुसरो ने दोहे कहे, कहे कबीर कमाल।
फिर तुलसी ने खोल दी, दोहों की टकसाल।।
गंग वृन्द दादू वली, या रहीम मतिमान।
दोहों के रसलीन से कितने हुए इमाम।।
किन्तु बिहारी की छटा, घटा न पाया एक।।
तुलसी सूर कबीर के, अश्रु बने इतिहास।
कौन कहे मीरा कथा, आँसू का उपवास।।
घनानंद का अश्रुधान, अर्पित कृष्ण सुजान।
उसी अहज़रु की धार में, डूबे थे रसखान।।
आँसू डूबी साँस से, रचित ईसुरी फाग।
रजऊ ब्रम्ह थी जीव थी, ऐसा था अनुराग।।
आंसू थे जयदेव के, ढले गीत गोविन्द।
विद्यापति का अश्रुदल, खिला गीत अरविन्द।।
सारत: 'यादें बनी लिबास' सुमित्र जी के मानस पटल पर विचरते विचार-परिंदों के कलरव का गुंजन है जो दोहा की लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, नव्यता, माधुर्य तथा संप्रेषणीयता के पंचतत्वों का सम्यक सम्मिश्रण कर काव्यानंद की प्रतीति कराती है। पठनीय, मननीय तथा संग्रहणीय कृति से हिंदी के सारस्वत कोष की अभिवृद्धि हुई है।
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संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेन्ट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४, अणुडाक: salil.sanjiv@gmail.com
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मुक्तिका पारिजात छंद

मुक्तिका
पारिजात छंद
गण सूत्र: रगण + लघु
मापनी: २१२१
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तीन चार
बाँट प्यार
.
खेल खेल
आर-पार
.
जा न भूल
ले उधार
*
रीति नीति
हैं न भार
*
लोक लाज
हो सिंगार
.
मित्र-शत्रु
हैं हजार
.
फूल-शूल
जीत-हार
*
संवस
७९९९५५९६१८

मुक्तिका

मुक्तिका
*
पर्वत नहीं गिराना
पौधे नए लगाना
जुमले नहीं बताना
वादे किए निभाना
चाहा जिन्हें हँसाना
वे कर रहे बहाना
तूफां न तोड़ पाए
दिल में किया ठिकाना
मंजूर कर लिया है
बिन मोल ही बिकाना
करना न याद यारों
आँसू नहीं बहाना
लाया यहाँ मुझे जो
भूला नहीं भुलाना
१-५-२०१९ 
***

दोहा, मुक्तक

एक दोहा
*
भाषा वाहक भाव की, अंतर्मन का चित्र
मित्र शत्रु है कौन-कब, कहे बिन कहे मित्र
*
एक मुक्तक
*
चढ़ी काठ की हांडी तजकर ममता-बंधन सारे
खलिश न बाकी, कुसुम हो रहे उसे शूल भी सारे
अगन हुई राकेशी शीतल, भव-बाधा कब व्याधे
कर्माहुति दे धर्मदेव को वह पल-पल आराधे.
***१-५-२०१७

मुक्तिका चाँदनी

मुक्तिका
चाँदनी फसल..
संजीव 'सलिल'
*
इस पूर्णिमा को आसमान में खिला कमल.
संभावना की ला रही है चाँदनी फसल..
*
वो ब्यूटी पार्लर से आयी है, मैं क्या कहूँ?
है रूप छटा रूपसी की असल या नक़ल?
*
दिल में न दी जगह तो कोई बात नहीं है.
मिलने दो गले, लोगी खुदी फैसला बदल..
*
तुम 'ना' कहो मैं 'हाँ' सुनूँ तो क्यों मलाल है?
जो बात की धनी थी, है बाकी कहाँ नसल?
*
नेता औ' संत कुछ कहें न तू यकीन कर.
उपदेश रोज़ देते न करते कभी अमल..
*
मन की न कोई भी करे है फ़िक्र तनिक भी.
हर शख्स की है चाह संवारे रहे शकल..
*
ली फेर उसने आँख है क्यों ताज्जुब तुझे.?
होते हैं विदा आँख फेरकर कहे अज़ल..
*
माया न किसी की सगी थी, है, नहीं होगी.
क्यों 'सलिल' चाहता है, संग हो सके अचल?
*
२८.०४.२०१५

नवगीत

नवगीत:
संजीव
.
जो हुआ सो हुआ
.
बाँध लो मुट्ठियाँ
चल पड़ो रख कदम
जो गये, वे गये
किन्तु बाकी हैं हम
है शपथ ईश की
आँख करना न नम
नीलकण्ठित बनो
पी सको सकल गम
वृक्ष कोशिश बने
हो सफलता सुआ
.
हो चुका पूर्व में
यह नहीं है प्रथम
राह कष्टों भरी
कोशिशें हों न कम
शेष साहस अभी
है बहुत हममें दम
सूर्य हैं सच कहें
हम मिटायेंगे तम
उठ बढ़ें, जय वरें
छोड़कर हर खुआ
.
चाहते क्यों रहें
देव का हम करम?
पालते क्यों रहें
व्यर्थ मन में भरम?
श्रम करें तज शरम
साथ रहना धरम
लोक अपना बनाएंगे
फिर श्रेष्ठ हम
गन्स जल स्वेद है
माथ से जो चुआ
**
१-५-२०१७ 

भोजपुरी दोहा

भोजपुरी दोहा का रचना विधान:
दोहा में दो पद (पंक्तियाँ) तथा हर पंक्ति में २ चरण होते हैं. विषम (प्रथम व तृतीय) चरण में १३-१३ मात्राएँ तथा सम (२रे व ४ थे) चरण में ११-११ मात्राएँ, इस तरह हर पद में २४-२४ कुल ४८ मात्राएँ होती हैं. दोनों पदों या सम चरणों के अंत में गुरु-लघु मात्र होना अनिवार्य है. विषम चरण के आरम्भ में एक ही शब्द जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित है. विषम चरण के अंत में सगण,रगण या नगण तथा सम चरणों के अंत में जगण या तगण हो तो दोहे में लय दोष स्वतः मिट जाता है. अ, इ, उ, ऋ लघु (१) तथा शेष सभी गुरु (२) मात्राएँ गिनी जाती हैं
*
कइसन होखो कहानी, नहीं साँच को आँच.
कंकर संकर सम पूजहिं, ठोकर खाइल कांच..
*
कोई किसी भी प्रकार से झूठा-सच्चा या घटा-बढाकर कहे सत्य को हांनि नहीं पहुँच सकता. श्रद्धा-विश्वास के कारण ही कंकर भी शंकर सदृश्य पूजित होता है जबकि झूठी चमक-दमक धारण करने वाला काँच पल में टूटकर ठोकरों का पात्र बनता है.
*
कतने घाटल के पियल, पानी- बुझल न प्यास.
नेह नरमदा घाट चल, रहल न बाकी आस..
*
जीवन भर जग में यहाँ-वहाँ भटकते रहकर घाट-घाट का पानी पीकर भी तृप्ति न मिली किन्तु स्नेह रूपी आनंद देनेवाली पुण्य सलिला (नदी) के घाट पर ऐसी तृप्ति मिली की और कोई चाह शेष न रही.
*
गुन अवगुन कम- अधिक बा, ऊँच न कोई नीच.
मिहनत श्रम शतदल कमल, मोह-वासना कीच..
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अलग-अलग इंसानों में गुण-अवगुण कम-अधिक होने से वे ऊँचे या नीचे नहीं हो जाते. प्रकृति ने सबको एक सम़ान बनाया है. मेंहनत कमल के समान श्रेष्ठ है जबकि मोह और वासना कीचड के समान त्याग देने योग्य है. भावार्थ यह की मेहनत करने वाला श्रेष्ठ है जबकि मोह-वासना में फंसकर भोग-विलास करनेवाला निम्न है.
*
नेह-प्रेम पैदा कइल, सहज-सरल बेवहार.
साँझा सुख-दुःख बँट गइल, हर दिन बा तिवहार..
*
सरलता तथा स्नेह से भरपूर व्यवहार से ही स्नेह-प्रेम उत्पन्न होता है. जिस परिवार में सुख तथा दुःख को मिल बाँटकर सहन किया जाता है वहाँ हर दिन त्यौहार की तरह खुशियों से भरा होता है..
*
खूबी-खामी से बनल, जिनगी के पिहचान.
धूप-छाँव सम छनिक बा, मान अउर अपमान..
*
ईश्वर ने दुनिया में किसी को पूर्ण नहीं बनाया है. हर इन्सान की पहचान उसकी अच्छाइयों और बुराइयों से ही होती है. जीवन में मान और अपमान धुप और छाँव की तरह आते-जाते हैं. सज्जन व्यक्ति इससे प्रभावित नहीं होते.
*
सहरन में जिनगी भयल, कुंठा-दुःख-संत्रास.
केई से मत कहब दुःख, सुन करिहैं उपहास..
*
शहरों में आम आदमी की ज़िन्दगी में कुंठा, दुःख और संत्रास की पर्याय बन का रह गयी है किन्तु अपना अपना दुःख किसी से न कहें, लोग सुनके हँसी उड़ायेंगे, दुःख बाँटने कोई नहीं आएगा. इसी आशय का एक दोहा महाकवि रहीम का भी है:
*
रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही रखियो गोय.
सुन हँस लैहें लोग सब, बाँट न लैहें कोय..
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फुनवा के आगे पड़ल, चीठी के रंग फीक.
सायर सिंह सपूत तो, चलल तोड़ हर लीक..
समय का फेर देखिये कि किसी समय सन्देश और समाचार पहुँचाने में सबसे अधिक भूमिका निभानेवाली चिट्ठी का महत्व दूरभाष के कारण कम हो गया किन्तु शायर, शेर और सुपुत्र हमेशा ही बने-बनाये रास्ते को तोड़कर चलते हैं.
*
बेर-बेर छटनी क द स, हरदम लूट-खसोट.
दुर्गत भयल मजूर के, लगल चोट पर चोट..
*
दुनिया का दस्तूर है कि बलवान आदमी निर्बल के साथ बुरा व्यव्हार करते हैं. ठेकेदार बार-बार मजदूरों को लगता-निकलता है, उसके मुनीम कम मजदूरी देकर मजदूरों को लूटते हैं. इससे मजदूरों की उसी प्रकार दशा ख़राब हो जाती है जैसे चोट लगी हुई जगह पर बार-बार चोट लगने से होती है.
*
दम नइखे दम के भरम, बिटवा भयल जवान.
एक कमा दू खर्च के, ऊँची भरल उडान..
*
किसी व्यक्ति में ताकत न हो लेकिन उसे अपने ताकतवर होने का भ्रम हो तो वह किसी से भी लड़ कर अपनी दुर्गति करा लेता है. इसी प्रकार जवान लड़के अपनी कमाई का ध्यान न रखकर हैसियत से अधिक खर्च कर परेशान हो जाते हैं..
*
१-५-२०१५

हाइकु

हाइकु सलिला 
संजीव
*
करूँ वंदन
हे कलम के देव!
श्रद्धा सहित
*
वृष देव को
नमन मनुज का
सदा छाँव दो
*
'सलिल' सुमिर
प्रभु पद पद्मों को
बन भ्रमर
*
सब में रब
कभी न भूलना
रब के सब
*
ईंट-रेट का
मंदिर मनहर
ईश लापता
*
मितवा दूँ क्य?
क्षण भंगुर जग
भौतिक सारा
*
है उद्गाता
मनुज धरम की
भारत माता
*
(रचना काल १९९८

राधिका छंद

छंद सलिला:
राधिका छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति महारौद्र , प्रति चरण मात्रा २२ मात्रा, यति १३ - ९ ।
लक्षण छंद:
सँग गोपों राधिका के / नंदसुत - ग्वाला
नाग राजा महारौद्र / कालिया काला
तेरह प्रहार नौ फणों / पर विष न बाकी
गंधर्व किन्नर सुर नरों / में कृष्ण आला
*
राधिका बाईस कला / लख कृष्ण मोहें
तेरह - नौ यति क़ृष्ण-पग / बृज गली सोहें
भक्त जाते रीझ, भय / से असुर जाते काँप
भाव-भूखे कृष्ण कण / कण जाते व्याप
उदाहरण:
१. जब जब जनगण ने फ़र्ज़ / आप बिसराया
तब तब नेता ने छला / देश पछताया
अफसर - सेठों ने निजी / स्वार्थ है साधा
अन्ना आंदोलन बना / स्वार्थ पथ-बाधा
आक्षेप और आरोप / अनेक लगाये
जनता को फ़िर भी दूर / नहीं कर पाये
२. आया है आम चुनाव / चेत जनता रे
मतदान करे चुपचाप / फ़र्ज़ बनता रे
नेता झूठे मक्कार / नहीं चुनना रे
ईमानदार सरकार / स्वप्न बुनना रे
३. नारी पर अत्याचार / जहाँ भी होते
अनुशासन बिन नागरिक / शांति-सुख खोते
जननायक साधें स्वार्थ / न करते सेवा
धन रख विदेश में खूब / उड़ाते मेवा
गणतंत्र वहाँ अभिशाप / सदृश हो जाता
अफसर -सेठों में जुड़े / घूस का नाता
अन्याय न्याय का रूप / धरे पलता है
विश्वास - सूर्य दोपहर / लगे ढलता है
४. राजनीति कोठरी, काजल की कारी
हर युग हर काल में, आफत की मारी
कहती परमार्थ पर, साधे सदा स्वार्थ
घरवाली से अधिक, लगती है प्यारी
५. बोल-बोल थक गये, बातें बेमानी
कोई सुनता नहीं, जनता है स्यानी
नेता और जनता , नहले पर दहला
बदले तेवर दिखा, देती दिल दहला
६. कली-कली चूमता, भँवरा हरजाई
गली-गली घूमता, झूठा सौदाई
बिसराये वायदे, साध-साध कायदे
तोड़े सब कायदे, घर मिला ना घाट
*********
टीप राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त जी ने साकेत में राधिका छंद का प्रयोग किया है.
हा आर्य! भरत का भाग्य, रजोमय ही है,
उर रहते उर्मि उसे तुम्हीं ने दी है.
उस जड़ जननी का विकृत वचन तो पाला
तुमने इस जन की ओर न देखा-भाला।
******************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
।। हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल । 'सलिल' संस्कृत सान दे, पूरी बने कमाल ।।
******************************

मुक्तिका

मुक्तिका:
मौन क्यों हो?
संजीव 'सलिल'
*
मौन क्यों हो पूछती हैं कंठ से अब चुप्पियाँ.
ठोकरों पर स्वार्थ की, आहत हुई हैं गिप्पियाँ..
*
टँगा है आकाश, बैसाखी लिये आशाओं की.
थक गये हैं हाथ, ले-दे रोज खाली कुप्पियाँ..
*
शहीदों ने खून से निज इबारत मिटकर लिखी.
सितासत चिपका रही है जातिवादी चिप्पियाँ..
*
बादशाहों को किया बेबस गुलामों ने 'सलिल'
बेगमों की शह से इक्के पर हैं हावी दुप्पियाँ..
*
तमाचों-मुक्कों ने मानी हार जिद के सामने.
मुस्कुराकर 'सलिल' जीतीं, प्यार की कुछ झप्पियाँ..
*
१-५-२०११ 

दोहा

दोहा दुनिया
*
महल खंडहर हो रहे, देख रहे सब मौन
चाह न महलों की करें, ऐसे कितने? कौन?
*
चाह करी शिवराज की, मिला हाय! शवराज 
चिड़ियों के रक्षक बने, खूनी शाही बाज 

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

मुक्तिका राजीव छंद

मुक्तिका
पंच मात्रिक - त्रिवार्णिक राजीव छंद
गण सूत्र: तगण
मापनी २२१
*
दो तीन
क्यों दीन?
.
खो चैन
हो चीन
.
दो झेल
दे तीन
.
पा नाग
हो बीन
.
दीदार
हो लीन
.
गा रोज
यासीन
.
जा बोल
आमीन
.
(यासीन कुरआन की एक आयत)
***
संवस
३०-४-२०१९

क्षणिका

स्तंभ : रस, छंद, अलंकार

*
काहे को रोना?
कोरो ना हाथ मिला
सत्कार सखे!
कोरोना झट
भेंट शत्रु को कर
उद्धार सखे!
*
को विद? पूछे
कोविद हँसकर
विद जी भागे
हाथ समेटे
गले भी न मिलते
करें नमस्ते!
*
गीत-अगीत
प्रगीत लिख रहे
गद्य गीत भी
गीतकार जी
गीत करे नीलाम
नवगीत जी
*
टाटा करते
हाय हाय रुचता
बाय बाय भी
बाटा पड़ते
हाय हाय करते
बाय फ्रैंड जी
*
केक लाओ जी!
फरमाइश सुन
पति जी हैरां
मी? ना बाबा
मीना! बाहर खड़ा
सिपाही मोटा
*
रस - हास्य, छंद वार्णिक षट्पदी, यति ५७५५७५, अलंकार - अनुप्रास, यमक, पुनरुक्ति, शक्ति - व्यंजना।
*

दोहा

दोहा
'हर' ने 'बैंड' किया जिसे, कहा उसे 'हजबैंड'।
'हज' तो जा पाया नहीं, बेचारा 'हर बैंड'।।
*

चित्र पर रचना

एक अभिनव अनुष्ठान: चित्र पर रचना














प्रसंग है एक नवयुवती छज्जे पर क्रोधित मुख मुद्रा में है जैसे वह छत से कूदकर आत्महत्या करने वाली है। विभिन्न कवियों से अगर इस पर लिखने को कहा जाता तो वो कैसे लिखते? बानगी देखिए और आप भी अपने प्रिय कवि की शैली में लिखिए।
*
मैथिलीशरण गुप्त
अट्टालिका पर एक रमणी अनमनी सी है अहो
किस वेदना के भार से संतप्त हो देवी कहो?
धीरज धरो संसार में, किसके नहीं दुर्दिन फिरे
हे राम! रक्षा कीजिए, अबला न भूतल पर गिरे।
*
रामधारी सिंह दिनकर
दग्ध ह्रदय में धधक रही,
उत्तप्त प्रेम की ज्वाला,
हिमगिरी के उत्स निचोड़,
फोड़ पाताल, बनो विकराला,
ले ध्वंसों के निर्माण त्राण से,
गोद भरो पृथ्वी की,
छत पर से मत गिरो,
गिरो अम्बर से वज्र सरीखी.
*
श्याम नारायण पांडे
ओ घमंड मंडिनी, अखंड खंड मंडिनी
वीरता विमंडिनी, प्रचंड चंड चंडिनी
सिंहनी की ठान से, आन बान शान से
मान से, गुमान से, तुम गिरो मकान से
तुम डगर डगर गिरो, तुम नगर नगर गिरो
तुम गिरो अगर गिरो, शत्रु पर मगर गिरो।
*
गोपाल दास नीरज
रूपसी उदास न हो, आज मुस्कुराती जा
मौत में भी जिन्दगी, के फूल कुछ खिलाती जा
जाना तो हर एक को, यद्यपि जहान से यहाँ
जाते जाते मेरा मगर, गीत गुनगुनाती जा..
*
गोपाल प्रसाद व्यास
छत पर उदास क्युं बैठी है
तू मेरे पास चली आ री!
जीवन का सुख दुख कट जाए,
कुछ मैं गाऊं,कुछ तू गा री। तू
जहां कहीं भी जाएगी
जीवन भर कष्ट उठायेगी ।
यारों के साथ रहेगी तो
मथुरा के पेड़े खाएगी।
*
सुमित्रानन्दन पंत
स्वर्ण सौध के रजत शिखर पर
चिर नूतन चिर सुन्दर प्रतिपल
उन्मन उन्मन अपलक नीरव
शशि मुख पर कोमल कुन्तल पट
कसमस कसमस चिर यौवन घट
पल पल प्रतिपल
छल छल करती ,निर्मल दृग जल
ज्यों निर्झर के दो नीलकमल
यह रूप चपल, ज्यों धूप धवल
अतिमौन, कौन?
रूपसि बोलो,प्रिय, बोलो न?
______________________
काका हाथरसी
गोरी छज्जे पर चढ़ी, कूदन को तैयार
नीचे पक्का फर्श है, भली करें करतार
भली करें करतार, सभी जन हक्का बक्का
उत चिल्लाये सास, कैच ले लीजो कक्का
कह काका कविराय, अरी मत आगे बढ़ियो
उधर कूदियो नार, मुझे बख्शे ही रहियो।
**
उपरोक्त सभी कविताओं के रचनाकार ओम प्रकाश 'आदित्य' जी हैं। इस प्रसंग पर वर्तमान कवि भी अपनी बात कहें तो आनंद में वृद्धि होगी।
इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
गोरी छज्जे पर चढ़ी, एक पाँव इस पार.
परिवारीजन काँपते, करते सब मनुहार.
करते सब मनुहार, बख्श दे हमको देवी.
छज्जे से मत कूद. मालकिन हम हैं सेवी.
तेरा ही है राज, फँसा मत हमको छोरी.
धाराएँ बहु एक, लगा मत हम पर गोरी..
छोड़ूंगी कतई नहीं, पहुँचाऊँगी जेल.
सात साल कुनबा सड़े, कानूनी यह खेल.
कानूनी यह खेल, पटकनी मैं ही दूँगी.
रहूँ सदा स्वच्छंद, माल सारा ले लूँगी.
लेकर प्रेमी साथ, प्रेम-रुख मैं मोड़ूँगी.
होगी अपनी मौज, तुम्हें क्योंकर छोडूँगी..
लड़की करती मौज है, लड़के का हो खून.
एक आँख से देखता, एक-पक्ष क़ानून.
एक-पक्ष क़ानून, मुक़दमे फर्जी होते.
पुलिस कचहरी मस्त, नित्य प्रति लड़के रोते.
लुट जाता घर बार, हाथ आती बस कड़की.
करना नहीं विवाह, देखना मत अब लड़की..
*
बुआश्री महीयसी महादेवी वर्मा से क्षमा प्रार्थना सहित
क्यों कूदूँ मैं छत से रे?
तुझ में दम है तो आ घर में बात डैड से कर ले रे!
चरण धूल अम्मा की लेकर माँग आप ही भर ले रे!
पदरज पाकर तर जायेगा जग जाएगा भाग रे!
देर न कर मेरे दिल में है लगी विरह की आग रे!
बात न मानी अगर समझ तू अवसर जाए चूक रे!
किसी और के दिल को देगी छेद नज़र बंदूक रे!
कई और भी लाइन में हैं सिर्फ न तुझसे प्यार रे!
प्रिय-प्रिय जपते तुझसे ढेरों करते हैं मनुहार रे!
*
टीप: महीयसी की मूल रचना:
क्या पूजा क्या अर्चन रे!
उस असीम का सुंदर मंदिर मेरा लघुतम जीवन रे!
मेरी श्वासें करती रहतीं नित प्रिय का अभिनन्दन रे!
पदरज को धोने उमड़े आते लोचन में जलकण रे!
अक्षत पुलकित रोम, मधुर मेरी पीड़ा का चन्दन रे!
स्नेहभरा जलता है झिलमिल मेरा यह दीपक-मन रे!
मेरे दृग के तारक में नव उत्पल का उन्मीलन रे!
धूप बने उड़ते जाते हैं प्रतिपल मेरे स्पंदन रे
प्रिय-प्रिय जपते अधर, ताल देता पलकों का नर्तन रे!
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल':
स्थिति १ :
सबको धोखा दे रही, नहीं कूदती नार
वह प्रेमी को रोकती, छत पर मत चढ़ यार
दरवाज़े पर रुक ज़रा, आ देती हूँ खोल
पति दौरे पर, रात भर, पढ़ लेना भूगोल
स्थिति २
खाली हाथों आये हो खड़े रहो हसबैंड
द्वार नहीं मैं खोलती बजा तुम्हारा बैंड
शीघ्र डिनर ले आओ तो दोनों लें आनंद
वरना बाहर ही सहो खलिश, लिखो कुछ छंद
स्थिति ३:
लेडी गब्बर चढ़ गयी छत पर करती शोर
मम्मी-डैडी मान लो बात करो मत बोर
बॉय फ्रेंड से ब्याह दो वरना जाऊँ भाग
छिपा रखा है रूम में भरवा लूँगी माँग
भरवा लूँगी माँग टापते रह जाओगे
होगा जग-उपहास कहो तो क्या पाओगे?
कहे 'सलिल' कवि मम्मी-डैडी बेबस रेड़ी
मनमानी करती है घर-घर गब्बर लेडी
*
श्याम कुँवर भारती
आओ देवी कूदा छत से लेला अवतार  हो
आवा देवी कूदा झट से रोके ना यार हो
झाँक मुँडेरे देखा धमकावा नाहीं रे
हिम्मत कर कूद पड़ेला थम जावा नाहीं रे 
*
अनिल बाजपेई 
धमकाना जीवन का सार
धमकी प्राणों का आधार 
धमकी बिन जीवन मरुभूमि
धमकी ईश्वर का उपहार 
*
श्रीधर प्रसाद
देवी दिखावें अब वीरता को, कूदकर करें संकट दूर मेरा।
हाथ-पैर टूट जाए अकल आए, मानिए न बात दर्द हो घनेरा
*
कबीर 
कूद तहाँ मत जाइए, जहँ कूंजर की हाट।
रस्सी गाँठी बाँधि लै, कूद ठठा हो ठाठ ।।
*
मुकुल तिवारी
ऐ डॉक्टर कम्पाउंडर नर्सों , मेरा कारज सिद्ध करो।
क्वारेंटाइन नहीं सुहाता, कूदूँ या तुम मुक्त करो।
*
मिथलेश बड़गैया
मत सोचो क्यों कूद रहीं, झट कूद समझ जग लूट लिया।
साथ छोड़ती साँसों ने, अलविदा कहा जग लूट लिया।।
ब्लैकमेल कर कितने लूटे, कितनों को भिजवाया जेल
पोल खुल गई खुद की तो, धमकी दे झट कह लूट लिया।।
*
बसंत शर्मा
नहीं कोई रोके कहाँ जाऊँ मैया
न कोई बचैया कहाँ जाऊँ मैया
हवा विषभरी जो है तुमने करी है
धमकाया जिसने वही अब डरी है
तुम्हें नीड़ पिंजरा, वफा है अनजानी 
न रोके चिरैया कहाँ जाऊँ मैया
*
निरुपमा वर्मा
पारब्रह्म की अद्भुत रचना, मैं कोरोना हाहाकार।
जितनी जल्दी मैं करता हूँ, कोई कर न सके उद्धार।।
छत पर चढ़कर कूद बचोगी, मत सोचो टूटेंगे पैर।
बाँह बढ़ाए खड़ा गली में, नहीं रहेगी तेरी खैर।।
दवा ओषजन कमरों लाशों, का करवाता हूँ व्यापार। 
छोड़ देवता मुझको पूजो, वंदन कर लो बारंबार 
*
पुष्पा अवस्थी
मकां छत की बाउंड्री हुई अरुणित
रूपसी छत पर चढ़ी, हुई क्रोधित 
चंडिका सी धरे सिर पर आसमान 
कालिका सी डराती हो रही युद्धरत
*
(महादेवी जी तथा बाद की रचनाएँ द्वारा आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' )
२९-४-२०२१ 

मुक्तक

मुक्तक:
पाँव रख बढ़ते चलो तो रास्ता मिल जाएगा
कूक कोयल की सुनो नवगीत खुद बन जाएगा
सलिल लहरों में बसा है बिम्ब देखो हो मुदित
ख़ुशी होगी विपुल पल में, जन्म दिन मन जाएगा
*

विमर्श सहिष्णुता

विमर्श 
अब तो मानेंगे कि देश में घट रही है सहिष्णुता -
*
सहिष्णुता के प्रश्न पर आक्रामकता अख्तियार करनेवाले और अभद्र भाषा बोलनेवाले अब बगलें झाँकते नजर आयेंगे। पिछले दिनों विश्वख्यात संगीतकार ए. आर. रहमान ने उनके खिलाफ फतवा जरी होने की घटना का ज़िक्र कर सहिष्णुता कम होने की शिकायत की। लोगों को नज़रें आमिर की बात पर दिए गए समर्थन पर टिक गयीं किन्तु फतवे की बात भूल गये। क्या बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद् इस फतवे के समर्थन में है? यदि नहीं हैं तो खुलकर बोलते क्यों नहीं? इतना ही डर लगता है तो चुप रहें वातावरण ख़राब न करें।
केरल की एक महिला पत्रकार वीपी राजीना जमात-ए-इस्लामी के मलयाली दैनिक मध्यमम में उप-संपादक हैं। उन्होंने 21 नवंबर २०१५ को फेसबुक पर कोझीकोड के सुन्नी मदरसा में लड़कों के साथ उस्ताद (टीचर) द्वारा यौन शोषण का मामला उठाया तथा जिसमें उन्होंने मदरसे में अपनी दो दशक पहले की जिंदगी का हवाला देते हुए लिखा था कि कैसे मदरसों में टीचर छात्रों का यौन उत्पीड़न करते थे? उन्होंने लिखा, ‘जब मैं पहली क्लास में पहली बार मदरसे गई तो वहाँ मौजूद अधेड़ शिक्षक ने पहले तो सभी लड़कों को खड़ा किया और बाद में उन्हें पैंट खोलकर बैठने को कहा। इसके बाद वह हर सीट पर गये और और गलत इरादे से उनके प्राइवेट पार्ट को छुआ। राजीना ने दावा किया, ‘उन्होंने यह काम आखिरी छात्र को छेड़ने के बाद ही बंद किया। राजीना ने यह भी कहा था कि खुद उन्होंने मदरसा में 6 साल तक पढ़ाई की और वे जानती थीं कि उस्ताद लड़कियों को भी नहीं बख्शते थे। उन्होंने इस मामले में एक घटना का जिक्र भी किया, जिसमें बताया कि किस तरह से एक उम्रदराज उस्ताद (टीचर) ने बिजली गुल होने के दौरान क्लास में नाबालिग लड़कियों के साथ अभद्र व्यवहार किया था। ज्या‍दातर छात्राएं डर की वजह से कुछ नहीं बोलती थीं। कोई छात्र या छात्रा आवाज उठाने की कोशिश करता भी था तो उसे धमकी दे कर डराया धमकाया जाता था।
इस पोस्ट के बाद राजीना मुस्लिम कट्टरपंथियों के निशाने पर आ गई हैं, न केवल उनके फेसबुक अकाउंट को ब्लॉक करा दिया गया बल्कि मुस्लिम कट्टरपंथियों से लगातार जान से मारने की धमकियाँ भी मिल रही हैं। क्या इस बहादुर महिला पत्रकार और रहमान के साथ खड़े होने की हिम्मत दिखा सकेंगे हम भारतीय??
इस जज्बे और हौसले को सलाम।

लघुकथा अंगार

लघुकथा
अंगार
*
वह चिंतित थी, बेटा कुछ दिनों से घर में घुसा रहता, बाहर निकलने में डरता। उसने बेटे से कारण पूछा। पहले तो टालता रहा, फिर बताया उसकी एक सहपाठिनी भयादोहन कर रही है।
पहले तो पढ़ाई के नाम पर मिलना आरंभ किया, फिर चलभाष पर चित्र भेज कर प्रेम जताने लगी, मना करने पर अश्लील संदेश और खुद के निर्वसन चित्र भेजकर धमकी दी कि महिला थाने में शिकायत कर कैद करा देगी। बाहर निकलने पर उस लड़की के अन्य दोस्त मारपीट करते हैं।
स्त्री-विमर्श के मंच पर पुरुषों को हमेशा कटघरे में खड़ा करती आई थी वह। अभी भी पुत्र पर पूरा भरोसा नहीं कर पा रही थी। बेटे के मित्रों तथा अपने शुभेच्छुओं से- विमर्श कर उसने बेटे को अपराधियों को सजा दिलवाने का निर्णय लिया और बेटे को महाविद्यालय भेजा। उसके सोचे अनुसार उस लड़की और उसके यारों ने लड़के को घेर लिया। यह देखते ही उसका खून खौल उठा। उसने आव देखा न ताव, टूट पड़ी उन शोहदों पर, बेटे को अपने पीछे किया और पकड़ लिया उस लड़की को, ले गई पुलिस स्टेशन। उसने वकील को बुलाया और थाने में अपराध पंजीकृत करा दिया। आधुनिका का पतित चेहरा देखकर उसका चेहरा और आँखें हो रही थीं अंगार।
***
संवस
३०-४-२०१९

मौलिकता बलराम अग्रवाल

रविवार, 28 अप्रैल 2019
विमर्श 
भारतीय और भारतेतर आचार्यों की दृष्टि में ‘मौलिकता’
बलराम अग्रवाल
*
[प्रस्तुत लेख काव्य के भारतीय और भारतेतर आचार्यों के आलोचना सिद्धांतों पर आधारित है। यहाँ ‘काव्य’ से तात्पर्य साहित्य की समूची भूमि से है, कविता मात्र से नहीं। नाट्य और कथा साहित्य ने भी आलोचना के टूल्स काव्यालोचना से ही लिये हैं। ये सभी विचार पूर्व आचायों के हैं। किसी भी विचार-विशेष के पक्ष में अथवा विपक्ष में इसमें कुछ नहीं लिखा है। किसी भी विचार-विशेष से अपनी सहमति/असहमति व्यक्त करने से यथासम्भव बचा गया है।
प्रस्तुत लेख में काव्य के स्थान पर आवश्यकता और सु्विधा के अनुसार लघुकथा, कहानी, उपन्यास शब्द का प्रयोग करने को पाठक स्वत: स्वतंत्र हैं।]
संपादकीय कार्यालय अपने पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ हमेशा ही ‘मौलिक’ रचना की माँग करते हैं। लेकिन ‘मौलिक’ सृजन से उनका तात्पर्य क्या है, इसे वे कितने व्यापक अथवा सीमित अर्थ में जानते हैं, यह एक बड़ा सवाल है। विभिन्न विद्वानों के कथन और शब्दकोशों में दिये गये अर्थों के आधार पर यदि ‘मौलिक’ शब्द पर विचार करें तो इसका मतलब होगा—विचार में स्वतंत्र सृजनात्मक कार्य। रूप और शैली में इस कार्य के भव्य तथा सर्वथा नवीन होने की अपेक्षा की जाती है। यह बात उल्लेखनीय है कि साहित्य में विचार, दृष्टि और विवेचन की नवीनता भी मौलिक ही कही जाती है।
भारतीय आलोचकों का मत :
मौलिकता के संबंध में आनन्दवर्द्धन ने अपने ग्रंथ ‘ध्वन्यालोक’ में लिखा है—‘जहाँ नवीन स्फुरित होने वाली काव्यवस्तु पुरानी यानी प्राचीन कवि द्वारा निबद्ध वस्तु आदि की रचना के समान निबद्ध की जाती है तो वह निश्चित रूप से दूषित नहीं होती।’ यानी उसे मौलिक ही माना जाता है। इसी प्रकार प्राचीन भाव को अपनी निराली नूतनता द्वारा चमत्कृत करने वाले कवि को भी आनन्दवर्धन ने मौलिक की श्रेणी में रखा है। उन्होंने कहा है कि जहाँ सहृदयों को ‘यह कोई नया स्फुरण है’, ऐसी अनुभूति होती है, तो नयी या पुरानी जो भी हो, वही वस्तु रम्य कहलाती है। उनके अनुसार, पुराने कवियों से कुछ भी अछूता नहीं रह गया है, इसलिए नये कवियों को पुरानी उक्तियों का संस्कार करना चाहिए। इसमें कोई भी बुराई वे नहीं देखते हैं।
अभिनव गुप्त के अनुसार भी—‘पूर्व प्रतिष्ठापितयोजनासु मूल प्रतिष्ठाफलमामनन्ति’ यानी पूर्व आचार्यों द्वारा स्थापित सिद्धान्तों की मूल प्रतिष्ठा तथा उनकी प्रकृत विवेचना में भी मौलिक सिद्धांतों की विवेचना जैसा फल परिलक्षित होता है।’ राजशेखर ने भी लगभग ऐसा ही मत प्रकट किया है; तथा अन्य विद्वानों ने भी राजशेखर और आनन्दवर्द्धन के सिद्धांत का समर्थन किया है। उन्होंने इसे कवि-प्रतिभा के रूप में स्वीकार किया है। वे तो यह भी मानते हैं कि शब्द भी वही रह सकते हैं, अर्थ विभूति या काव्य विषय भी वही, अन्तर केवल कहने के ढंग यानी शैली में आता है।
मौलिकता की दृष्टि से राजशेखर ने कवियों के चार प्रकार गिनाये हैं—
1॰ उत्पादक
2॰ परिवर्तक
3॰ आच्छादक, और
4॰ संवर्गक।
इनमें उत्पादक कवि अपनी प्रतिभा के बल पर काव्य में नवीन अर्थवत्ता का समावेश करता है। परिवर्तक कवि पूर्व कवि के भावों में इच्छानुरूप परिवर्तन करके उन्हें अपना लेता है। आच्छादक पूर्व कवि की उक्ति को छिपाकर उसी के अनुरूप उक्ति को अपनी रचना के रूप में प्रस्तुत करता है और संवर्गक कवि बिना किसी परिवर्तन के दूसरों की कृति को अपना लेता है। इस चौथे को राजशेखर ने चोर अथवा डकैत की संज्ञा दी है। मौलिकता की दृष्टि से राजशेखर ने उत्पादक कवि को ही श्रेष्ठ माना है। अन्य तीन प्रकार के कवियों में, उनका मानना है कि, मौलिकता का अंश नहीं होता। अर्थ का अपहरण करने वाले कवियों का भी राजशेखर ने अपने ग्रंथ में विस्तार से वर्णन किया है।
माना यह जाता है कि भाव-साम्य और अर्थ का अपहरण यदि काव्यगत उक्ति के सौंदर्य में वृद्धि करने में योग करता है, तो उसे मौलिकता की श्रेणी में रखा जा सकता है। भाव-साम्य के डॉ॰ नगेन्द्र ने तीन प्रकार गिनाये हैं—
1॰ समान मानसिक परिस्थितियाँ, संस्कार, विचार-पद्धति और सामाजिक वातावरण के कारण आया भाव-साम्य।
2॰ दो या दो से अधिक कवियों द्वारा पूर्ववर्ती भावों को ग्रहण किये जाने के कारण आया भाव-साम्य; तथा
3॰ पूर्ववर्ती साहित्य के गम्भीर अध्ययन द्वारा संस्कार ग्रहण करने के कारण आया भाव-साम्य।
कभी-कभी समान मन:स्थिति के कारण समान्तर प्रतीत होने वाली बहुत-सी रचनाओं में एक ही प्रयास और एक ही अन्त:प्रेरणा महसूस हो सकती है।
विद्वानों ने भाव-साम्य के तीन प्रभाव गिनाये हैं—
1॰ सौन्दर्य सुधार
2॰ सौन्दर्य रक्षा, और
3॰ सौन्दर्य संहार।
इनमें से प्रथम दो में भी सौंदर्य सुधार की भूरि-भूरि प्रशंसा होती है, इसलिए साहित्य मर्मज्ञों ने इन्हें ‘अच्छा’ स्वीकार किया है; लेकिन ‘सौंदर्य संहार’ को ‘साहित्यिक चोरी’ बताया है। रीति युग की काव्यगत मौलिक चेतना से असहमति जताने वाले आलोचकों ने रीति कवियों को भाव-साम्य और अर्थ-अपहरण दोनों का दोषी माना है। बावजूद इसके, पुरानी उक्तियों में अपनी सहज रसग्राहिता का समावेश करते हुए रीति-कवियों ने रस-चयन में जो कुशलता दिखायी है, वह अप्रतिम है। इस तथ्य को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी स्वीकार किया है।
काव्य की मौलिक चेतना का प्रादुर्भाव एक विशिष्ट जन्म-नक्षत्र में होता है; और उसी में जन्म लेकर कोई कवि या कथाकार सौंदर्यपूर्ण अभिव्यक्ति के द्वारा लोकप्रियता को प्राप्त होता है। आचार्यों ने प्रतिभा को लोकोत्तर शक्ति के रूप में चिह्नित किया है; और कवि-प्रतिभा के आधार पर ही उन्होंने किसी रचना में मौलिकता के अंश का विवेचन प्रस्तुत किया है। यह तो निश्चित है कि काव्य सृजन की नव-प्रेरणा प्रतिभा के अभाव में तनिक भी संभव नहीं है। प्रतिभा अंत:करण का वह आलोक है जिसके कारण समस्त रचना मौलिकता के सौंदर्य से जगमगा उठती है। भारतीय काव्यशास्त्रियों में रुद्रट ने प्रतिभा को ऐसी शक्ति माना है जो चित्त के सम्मिलन से अभिधेय अर्थ को अनेक प्रकार से स्फुरित करती है।
आचार्य कुन्तक ने कहा है—‘वस्तुओं में अन्तर्निहित सूक्ष्म और सुन्दर तत्व को जो अपनी वाणी से खींच लाता है, उसे; और जो वाणी द्वारा ही इस विश्व की बाह्यत: अभिव्यक्ति करता है, उसे भी मैं प्रणाम करता हूँ।’ इस कथन से स्पष्ट है कि अभिव्यक्ति के स्तर पर व्यंजना और अभिधा दोनों पुरातन काल से ही प्रणम्य रही हैं।
प्राचीन रचनाशीलता के आलोक में विद्वानों ने माना है कि विषय की सीमा और शास्त्रीयता के कड़े अंकुश के कारण रचनाकार की अन्तश्चेतना पूरी तरह स्फुटित नहीं हो पाती और भीतर ही भीतर कुण्ठित हो जाती है। ‘हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास’ में एक स्थान पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि ‘शास्त्रीय मत को श्रेष्ठ और अपने मत को गौण मान लेने के कारण उनमें (यानी पूर्व काल के अनेक कवियों में) अपनी स्वाधीन चिन्ता के प्रति अवज्ञा का भाव आ गया है।’
भारतेतर आलोचकों का मत :
लगभग इसी मत का प्रतिपादन ‘द्विवेदी अभिनन्दन ग्रंथ’ के अपने एक अंग्रेजी लेख में मि॰ ग्रीव्स ने भी किया है। वे लिखते हैं—‘मौलिक सृजन की अपेक्षा संस्कृत अनुवाद के कार्यों में अनेक (पूर्वकालीन कवियों) ने अपनी प्रतिभा को प्राय: नष्ट कर दिया।’
ग्रियर्सन का कहना है कि कवि यदि प्रतिभा सम्पन्न है और उसमें मौलिक रचने की क्षमता है, तो उसे अधिकार है कि वह दूसरों की रचना का उपयोग अपनी इच्छा के अनुसार कर ले। वह प्रतिभा-शक्ति के अभाव में मौलिकता को अस्वीकार करते हैं। कान्ट और कॉलरिज ने प्रतिभा को ‘कल्पना’ शक्ति (इमेजिनेशन पॉवर) के रूप में स्वीकार किया है।
19वीं सदी के अंतिम चरण की अंग्रेजी समीक्षा, कृति के बजाय कवि और उसकी वैयक्तिकता को महत्व देती थी। वाल्टर पीटर और ऑस्कर वाइल्ड ने ‘कलावाद’ को ही महत्व दिया। टी॰ एस॰ इलियट का मानना था कि ‘परम्परा के अभाव में कवि छाया मात्र है और उसका कोई अस्तित्व नहीं होता।’ उसने कहा कि ‘परम्परा को छोड़ देने पर वर्तमान भी हमसे छूट जाता है।’ परम्परा की परिभाषा करते हुए इलियट ने कहा—‘इसके अंतर्गत उन सभी स्वाभाविक कार्यों, स्वभावों, रीति-रिवाजों का समावेश होता है जो स्थान-विशेष पर रहने वाले लोगों के सह-संबंध का प्रतिनिधित्व करते हैं। परंपरा के भीतर विशिष्ट धार्मिक आचारों से लेकर आगन्तुक के स्वागत की पद्धति और उसको संबोधित करने का ढंग, सब-कुछ समाहित है। परंपरा अतीत की वह जीवन-शक्ति है जिससे वर्तमान का निर्माण होता है और भविष्य का अंकुर फूटता है।’ अपनी इसी विचारधारा के आधार पर उसने कहा कि कोई भी रचनाकार स्वयं में महत्वपूर्ण नहीं होता, उसका मूल्यांकन परम्परा की सापेक्षता में किया जाना चाहिए। वह अपने पूर्ववर्ती रचनाकार की तुलना में ही अपनी महत्ता सिद्ध कर सकता है। लेकिन ध्यातव्य यह है परम्परा से इलियट का तात्पर्य प्राचीन रूढ़ियों का मूक अनुमोदन या अनुमोदन कभी नहीं रहा, बल्कि परम्परा से उसका तात्पर्य वस्तुत: प्राचीन काल के इतिहास और धारणाओं का सम्यक् बोध रहा है। वह परम्परा से प्राप्त ज्ञान के अर्जन और उसके विकास का पक्षधर है। यही परम्परा का गत्यात्मक रूप है। इसके अभाव में हम नहीं जान सकते कि मौलिकता क्या है, कहाँ है? इस सिद्धांत के अनुसार, अतीत को वर्तमान में देखना रूढ़ि नहीं, मौलिकता की तलाश है। रचना की मौलिकता और श्रेष्ठता का आकलन तत्संबंधी अतीत को जाने बिना संभव नहीं है। इसी बिंदु पर परम्परा का संबंध संस्कृति से जुड़ता है जिसमें किसी जाति या समुदाय के जीवन, कला, दर्शन आदि के उत्कृष्ट अंश समाहित रहते हैं। परम्परा बोध से ही साहित्यकार को अपने कर्तव्य तथा दायित्व का बोध, और लेखन का मूल्य मालूम रहता है।
इस तरह, इलियट ने मौलिकता को परम्परा-सापेक्ष माना है। उनका कहना है कि परम्परा अपने आप में व्यापक अर्थ से युक्त है। उससे विहीन मौलिकता मूल्यहीन है। अपने सुप्रसिद्ध निबंध ‘परम्परा और वैयक्तिक प्रतिभा’ में उसने स्पष्ट संकेत किया है, कि ‘परम्परा को उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं किया जा सकता; इसे कड़े श्रम से कमाना पड़ता है, अर्जित करना पड़ता है’ तथा ‘परम्परा के मूल में एक ऐतिहासिक चेतना (हिस्टोरिकल सेंस) गुँथी रहती है।’
इलियट का सवाल है कि परम्परा की समग्र मान्यताओं को जाने बिना कोई भी व्यक्ति उनके रूढ़ और गलित अंशों को हटाने के बारे में सोच भी कैसे सकता है?
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साभार: 'लघुकथा-वार्ता'