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मंगलवार, 23 फ़रवरी 2021

मुक्तिका

मुक्तिका:
संजीव
.
गीतों से अनुराग न होता
जीवन कजरी-फाग न होता
रास आस से कौन रचाता?
मौसम पहने पाग न होता
निशा उषा संध्या से मिलता
कैसे सूरज आग न होता?
बाट जोहता प्रिय प्रवास की
मन-मुँडेर पर काग न होता
सूनी रहती सदा रसोई
गर पालक का साग न होता
चंदा कहलातीं कैसे तुम
गर निष्ठुरता-दाग न होता?
गुणा कोशिशों का कर पाते
अगर भाग में भाग न होता
नागिन क्वारीं मर जाती गर
बीन सपेरा नाग न होता
'सलिल' न होता तो सच मानो
बाट घाट घर बाग़ न होता
***
२३-२-२०१८ 

समीक्षा हिंदी ग़ज़ल विश्वंभर शुक्ल

कृति चर्चा:
'उम्र जैसे नदी हो गई' हिंदी गजल का सरस प्रवाह
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
. [कृति विवरण: उम्र जैसे नदी हो गई, हिंदी ग़ज़ल / गीतिका संग्रह, प्रो. विश्वंभर शुक्ल, प्रथम संस्करण, २०१७, आई एस बी एन ९७८.९३.८६४९८.३७.३, पृष्ठ ११८, मूल्य २२५/-, आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, अनुराधा प्रकाशन, जनकपुरी, नई दिल्ली, रचनाकार संपर्क ८४ ट्रांस गोमतीए त्रिवेणी नगर, प्रथम, डालीगंज रेलवे क्रोसिंग, लखनऊ २२६०२०, चलभाष ९४१५३२५२४६]
*
. विश्ववाणी हिंदी का गीति काव्य विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में अधिक व्यापक, गहन, उर्वर, तथा श्रेष्ठ है। इस कथन की सत्यता हेतु मात्र यह इंगित करना पर्याप्त है कि हिंदी में ३२ मात्रा तक के मात्रिक छंदों की संख्या ९२, २७, ७६३ तथा २६ वर्णों तक के वर्णिक छंदों की संख्या ६,७१,०८,८६४ है। दंडक छंद, मिश्रित छंद, संकर छंद, लोक भाषाओँ के छंद असंख्य हैं जिनकी गणना ही नहीं की जा सकी है। यह छंद संख्या गणित तथा ध्वनि-विज्ञान सम्मत है। संस्कृत से छान्दस विरासत ग्रहण कर हिंदी ने उसे सतत समृद्ध किया है। माँ शारदा के छंद कोष को संस्कृत अनुष्टुप छंद के विशिष्ट शिल्प के अंतर्गत समतुकांती द्विपदी में लिखने की परंपरा के श्लोक सहज उपलब्ध हैं। संस्कृत से अरबी-फारसी ने यह परंपरा ग्रहण की और मुग़ल आक्रान्ताओं के साथ इसने भारत में प्रवेश किया। सैन्य छावनियों व बाज़ार में लश्करी, रेख्ता और उर्दू के जन्म और विकास के साथ ग़ज़ल नाम की यह विधा भारत में विकसित हुई किंतु सामान्य जन अरबी-फारसी के व्याकरण-नियम और ध्वनि व्यवस्था से अपरिचित होने के कारण यह उच्च शिक्षितों या जानकारों तक सीमित रह गई। उर्दू के तीन गढ़ों में से एक लखनऊ से ग़ज़ल के भारतीयकरण का सूत्रपात हुआ।
. . हरदोई निवासी डॉ. रोहिताश्व अस्थाना ने हिंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोध ग्रन्थ 'हिंदी ग़ज़ल उद्भव और विकास' प्रस्तुत किया। सागर मीराजपुरी ने गज़लपुर, नवग़ज़लपुर तथा गीतिकायनम के नाम से तीन शोधपरक कृतियों में हिंदी ग़ज़ल के सम्यक विश्लेषण का कार्य किया। हिंदी ग़ज़ल को स्वतंत्र विधा के रूप में पहचान देने की भावना से प्रेरित रचनाकारों ने इसे मुक्तिका, गीतिका, तेवरी, अनुगीत, लघुगीत जैसे नाम दिए किंतु नाम मात्र बदलने से किसी विधा का इतिहास नहीं बदला करता।
. हिंदी ग़ज़ल को महाप्राण निराला द्वारा प्रदत्त 'गीतिका' नाम से स्थापित करने के लिए प्रो . विश्वंभर शुक्ल ने अपने अभिन्न मित्र ओम नीरव के साथ मिलकर अंतरजाल पर निरंतर प्रयत्न कर नव पीढ़ी को जोड़ा। फलत: 'गीतिका है मनोरम सभी के लिए' तथा 'गीतिकालोक' शीर्षक से दो महत्वपूर्ण कृतियाँ प्रकाशित हुईं जिनसे नई कलमों को प्रोत्साहन मिला।
. . विवेच्य कृति 'उम्र जैसे नदी हो गयी' इस पृष्ठभूमि में हिंदी छंदाधारित हिंदी ग़ज़ल की परिपक्वता की झलक प्रस्तुत करती पठनीय-मननीय कृति है। गीतिका, रोला, वाचिक भुजंगप्रयात, विजात, वीर/आल्ह, सिंधु, मंगलवत्थु, दोहा, आनंदवर्धक, वाचिक महालक्ष्मी, वाचिक स्रग्विणी, जयकरी चौपाई, वर्णिक घनाक्षरी, राधाश्यामी चौपाई, हरिगीतिका, सरसी, वाचिक चामर, समानिका, लौकिक अनाम, वर्णिक दुर्मिल सवैया, सारए लावणी, गंगोदक, सोरठा, मधुकरी चौपाई, रारायगा, विजात, विधाता, द्वियशोदा, सुखदा, ताटंक, बाला, शक्ति, द्विमनोरम, तोटक, वर्णिक विमोहाए आदि छंदाधारित सरस रचनाओं से समृद्ध यह काव्य-कृति रचनाकार की छंद पर पकड़, भाषिक सामर्थ्य तथा नवप्रयोगोंमुखता की बानगी है। शुभाशंसान्तर्गत प्रो . सूर्यप्रकाश दीक्षित ने ठीक ही कहा है: 'इस कृति में वस्तु-शिल्पगत यथेष्ट वैविध्यपूर्ण काव्य भाषा का प्रयोग किया गया है, जो प्रौढ़ एवं प्रांजल है.... कृति में विषयगत वैविध्य दिखाई देता है। कवि ने प्रेम, सौन्दर्य, विरह-मिलन एवं उदात्त चेतना को स्वर दिया है। डॉ. उमाशंकर शुक्ल 'शितिकंठ' के अनुसार इन रचनाओं में विषय वैविध्य, प्राकृतिक एवं मानवीय प्रेम-सौन्दर्य के रूप-प्रसंग, भक्ति-आस्था की दीप्ति, उदात्त मानवीय मूल्यों का बोध, राष्ट्रीय गौरव की दृढ़ भावनाएँ विडंबनाओं पर अन्वेषी दृष्टि, व्यंग्यात्मक कशाघात से तिलमिला देनेवाले सांकेतिक चित्र तथा सुधारात्मक दृष्टिकोण समाहित हैं।'
. 'गीतिका है मनोरम सभी के लिए' में ९० रचनाकारों की १८० रचनाओं के अतिरिक्त, दृगों में इक समंदर है तथा मृग कस्तूरी हो जाना दो गीतिका शतकों के माध्यम से इस विधा के विकास हेतु निरंतर सचेष्ट प्रो. विश्वंभर शुक्ल आयु के सात दशकीय पड़ाव पार करने के बाद भी युवकोचित उत्साह और ऊर्जा से छलकते हुए उम्र के नद-प्रवाह को इस घाट से घाट तक तैरकर पराजित करते रहते हैं। भाव-संतरण की महायात्रा में गीतिका की नाव और मुक्तकों के चप्पू उनका साथ निभाते हैं। प्रो. शुक्ल के सृजन का वैशिष्ट्य देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप भाषा- शैली और शब्दों का चयन करना है। वे भाषिक शुद्धता के प्रति सजग तो हैं किंतु रूढ़-संकीर्ण दृष्टि से मुक्त हैं। वे भारत की उदात्त परंपरानुसार परिवर्तन को जीवन की पहचान मानते हुए कथ्य को शिल्प पर वरीयता देते हैं। 'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा' और 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' की सनातन परंपरा के क्रम में वे कहते हैं-
. 'कर्म के खग पंख खोलें व्योम तक विचरण करें
. शिथिल हैं यदि चरण तब यह जीवनी कारा हुई
. काटकर पत्थर मनुज अब खोजता है नीर को
. दग्ध धरती कुपित यह अभिशप्तए अंगारा हुई
. पर्वतों को सींचता है देवता जब स्वेद से
. भूमि पर तब एक सलिला पुण्य की धारा हुई '
. जीवन में सर्वाधिक महत्व स्नेह का हैण् तुलसीदास कहते है-
. 'आवत ही हरसे नहींए नैनन नहीं सनेह
. तुलसी तहाँ न जाइए कंचन बरसे नेह'
शुक्ल जी इस सत्य को अपने ही अंदाज़ में कहते हैं.
. 'आदमी यद्यपि कभी होता नहीं भगवान है
. किंतु प्रिय सबको वही जिसके अधर मुस्कान है
. सूख जाते हैं समंदर जिस ह्रदय में स्नेह के
. जानिए वह देवता भी सिर्फ रेगिस्तान है
. पाहनों को पूज लेताए मोड़ता मुँह दीन से
. प्यार.ममता के बिना मानव सदा निष्प्राण हैण्
. प्रेम करुणा की सलिल सरिता जहाँ बहती नहीं
. जीव ऐसा जगत में बस स्वार्थ की दूकान है'
प्रकृति के मानवीकरण ओर रूपक के माध्यम से जीवन-व्यापार को शब्दांकित करने में शुक्ल जी का सानी नहीं है. भोर में उदित होते भास्कर पर आल्हाध्वीर छंद में रचित यह मुक्तिका देखिए-
. 'सोई हुई नींद में बेसुध, रजनी बाला कर श्रृंगार
. रवि ने चुपके से आकर के, रखे अधर पर ऊष्ण अंगार
. अवगुंठन जब हटा अचानक, अरुणिम उसके हुए कपोल
. प्रकृति वधूटी ले अँगड़ाई, उठी लाज से वस्त्र सँवार
. सकुचाई श्यामा ने हँसकर, इक उपहार दिया अनमोल
. प्रखर रश्मियों ने दिखलाए, जी भर उसके रंग हजार
. हुआ तिरोहित घने तिमिर का, फैला हुआ प्रबल संजाल
. उषा लालिमा के संग निखरी, गई बिखेर स्वर्ण उपहार
. प्रणय समर्पण मोह अनूठे, इनसे खिलती भोर अनूप
. हमें जीवनी दे देता है, रिश्तों का यह कारोबार'
. पंचवटी में मैथिलीशरण जी गुप्त भोर के दृश्य का शब्दांकन देखें-
. 'है बिखेर देती वसुंधरा मोती सबके सोने पर
. रवि बटोर लेता है उनको सदा सवेरा होनेपर
. और विरामदायिनी अपनी संध्या को दे जाता है
. शून्य श्याम तनु जिससे उसका नया रूप झलकाता है'
दो कवियों में एक ही दृश्य को देखकर उपजे विचार में भिन्नता स्वाभाविक है किंतु शुक्ल जी द्वारा किए गए वर्णन में अपेक्षाकृत अधिक सटीकता और बारीकी उल्लेखनीय है।
उर्दू ग़ज़ल के चुलबुलेपन से प्रभावित रचना का रंग अन्य से बिलकुल भिन्न है-
'हमारे प्यार का किस्सा पुराना है
कहो क्या और इसको आजमाना है
गज़ब इस ज़िंदगी के ढंग हैं प्यारे
पता चलता नहीं किस पर निशाना है।'
एक और नमूना देखें -
'फिर से चर्चा में आज है साहिब
दफन जिसमें मुमताज है साहिब
याद में उनके लगे हैं मेले
जिनके घर में रिवाज़ है साहिब'
भारतीय आंचलिक भाषाओँ को हिंदी की सहोदरी मानते हुए शुक्ल जी ने बृज भाषा की एक रचना को स्थान दिया है। वर्णिक दुर्मिल सवैया छंद का माधुर्य आनंदित करता है-
करि गोरि चिरौरि छकी दुखियाए छलिया पिय टेर सुनाय नहीं
अँखियाँ दुइ पंथ निहारि थकींए हिय व्याकुल हैए पिय आय नहीं
तब बोलि सयानि कहैं सखियाँ ए तनि कान लगाय के बात सुनो
जब लौं अँसुआ टपकें ण कहूँए सजना तोहि अंग लगाय नहीं
ग्रामीण लोक मानस ऐसी छेड़-छाड़ भरी रचनाओं में ही जीवन की कठिनाइयों को भुलाकर जी पाता है।
राष्ट्रीयता के स्वर बापू और अटल जी को समर्पित रचनाओं के अलावा यत्र-तत्र भी मुखर हुए हैं-
'तोड़ सभी देते दीवारें बंधन सीमाओं के
जन्मभूमि जिनको प्यारी वे करते नहीं बहाना
कब-कब मृत्यु डरा पाई है पथ के दीवानों को
करते प्राणोत्सर्ग राष्ट्र-हित गाते हुए तराना
धवल कीर्ति हो अखिल विश्व में, नवोन्मेष का सूरज
शस्य श्यामला नमन देश को वन्दे मातरम गाना'
यदा-कदा मात्रा गिराने, आयें और आएँ दोनों क्रिया रूपों का प्रयोग, छुपे, मुसकाय जैसे देशज क्रियारूप खड़ी हिंदी में प्रयोग करना आदि से बचा जा सकता तो आधुनिक हिंदी के मानक नियमानुरूप रचनाएँ नव रचनाकारों को भ्रमित न करतीं।
शुक्ल जी का शब्द भण्डार समृद्ध है। वे हिंदीए संस्कृत, अंगरेजी, देशज और उर्दू के शब्दों को अपना मानते हुए यथावश्यक निस्संकोच प्रयोग करते हैं , कथ्य के अनुसार छंद चयन करते हुए वे अपनी बात कहने में समर्थ हैं-
'अब हथेली पर चलो सूरज उगाएँ
बंद आँखों में अमित संभावनाएँ
मनुज के भीतर अनोखी रश्मियाँ है
खो गयी हैंए आज मिलकर ढूँढ लाएँ
एक सूखी झील जैसे हो गए मन
है जरूरी नेह की सरिता बहाएँ
आज का चिंतन मनन अब तो यही है
पेट भर के ग्रास भूखों को खिलाएँ
तोड़ करके व्योम से लायें न तारे
जो दबे कुचले उन्हें ऊपर उठाएँ'
सारत: 'उम्र जैसे नदी हो गयी' काव्य-पुस्तकों की भीड़ में अपनी अलग पहचान स्थापित करने में समर्थ कृति है। नव रचनाकारों को छांदस वैविध्य के अतिरिक्त भाषिक संस्कार देने में भी यह कृति समर्थ है। शुक्ल जी का जिजीविषाजयी व्यक्तित्व इन रचनाओं में जहाँ-तहाँ झलक दिखाकर पाठक को मोहने में कोई कसर नहीं छोड़ता।
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com, वेब: www.divyanarmada.in

शिव-दोहावली

शिव-दोहावली
*
हर शंका को दूर कर, रख शंकर से आस.
श्रृद्धा-शिवा सदय रहें, यदि मन में विश्वास.
*
शिव नीला आकाश हैं, सविता रक्त सरोज
रश्मि-उमा नित नमन कर, देतीं जीवन-ओज
*
शिव जीवों में प्राण है, विष्णु जीव की देह
ब्रम्हा मति को जानिए, जीवन जिएँ विदेह
*
उमा प्राण की चेतना, रमा देह का रूप
शारद मति की तीक्ष्णता, जो पाए हो भूप
*
चिंतन-लेखन ब्रम्ह है, पठन विष्णु को जान
मनन-कहाँ शिव तत्व है, नमन करें मतिमान
*
अक्षर-अक्षर ब्रम्ह है, शब्द विष्णु अवतार
शिव समर्थ दें अर्थ तब, लिख-पढ़ता संसार
*
अक्षर की लिपि शारदा, रमा शब्द का भाव
उमा कथ्य निहितार्थ हैं, मेटें सकल अभाव
*
कलम ब्रम्ह, स्याही हरी, शिव कागज विस्तार
शारद-रमा-उमा बनें, लिपि कथ्यार्थ अपार
*
नव लेखन से नित्य कर, तीन-देव-अभिषेक
तीन देवियाँ हों सदय, जागे बुद्धि-विवेक
*
जो न करे रचना नई, वह जीवित निर्जीव
नया सृजन कर जड़ बने, संचेतन-संजीव
*
सविता से ऊर्जा मिले, ऊषा करे प्रकाश
वसुधा हो आधार तो, कर थामें आकाश
*
२३-२-२०१८

कविता काव्य और जन-वेदना

एक रचना
काव्य और जन-वेदना
*
काव्य क्या?
कुछ कल्पना
कुछ सत्य है.
यह नहीं जड़,
चिरंतन चैतन्य है।
देख पाते वह अदेखा जो रहा,
कवि मनीषी को न कुछ अव्यक्त है।
रश्मि है
अनुभूतिमय संवेदना।
चतुर की जाग्रत सतत हो चेतना
शब्द-वेदी पर हवन मन-प्राण का।
कथ्य भाषा भाव रस संप्राणता
पंच तत्त्वों से मिले संजीवनी
साधना से सिद्धि पाते हैं गुनी।
कहा पढ़ सुन-गुन मनन करते रहे
जो नहीं वे देखकर बाधा ढहे
चतुर्दिक क्या घट रहा,
क्या जुड़ रहा?
कलम ने जो किया अनुभव
वह कहा।
पाठकों!
अब मौन व्रत को तोड़ दो।
‘तंत्र जन’ का है
सदा सच-शुभ ही कहो।
अशुभ से जब जूझ जाता ‘लोक’ तो
‘तन्त्र’ में तब व्याप जाता शोक क्यों?
‘प्रतिनिधि’ जिसका
न क्यों उस सा रहे?
करे सेवक मौज, मालिक चुप दहे?
शब्द-शर-संधान कर कवि-चेतना
चाहती जन की हरे कुछ वेदना।
***

लेख: हिग्स-बोसॉन कण

लेख:
हिग्स-बोसॉन कण – धर्म और विज्ञान की सांझी विरासत
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
.
भारतीय दर्शन सृष्टि निर्माता को सृष्टि के प्रत्येक सूक्ष्मतम कण में उपस्थित तथा सकल सृष्टि का कर्म विधायक मानता है. अहम् ब्रम्हास्मि, शिवोsssहं, अयमात्मा ब्रम्ह, कंकर में शंकर, आत्मा सो परमात्मा आदि उक्तियाँ यही दर्शाती हैं कि सृष्टिकर्ता परमात्मा ही कण-कण की मूल चेतना है. परमात्मा हो कण-कण के कर्म विधान का लेखाजोखा रखता है तथा कर्मानुसार फल देता है. कर्म योग का यह सिद्धांत परमात्मा को मूलतः निर्गुण, निराकार, अजर, अमर, अनादि, अनंत, अनश्वर बताता है. आकार का जन्म कणों के समुच्चय से होता है, इसलिए कण-कण में भगवान् कहा जाता है. आकार से चित्र बनता है. जो निराकार या आकारहीन हो उसका चित्र नहीं हो सकता. उसका चित्र गुप्त है इसलिए उस परमसत्ता को चित्र गुप्त कहा गया, वह परम सत्य है इसलिए उसे सत्य नारायण (सच्चा स्वामी) भी कहा गया.
भारतीय आर्ष ग्रंथों में सृष्टि उत्पत्ति का जो सिद्धांत वर्णित है वही विज्ञान भी मानता है. वैज्ञानिक मानते हैं कि सृष्टि भार युक्त भौतिक परमाणुओं के सम्मिलन से बनी है. भार युक्त परमाणुओं को संयुक्त करनेवाली शक्ति अस्तित्व में हुए बिना परमाणुओं के पदार्थ कैसे बन सकता है? भार रहित परमाणुओं को भार देनेवाले कणों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व अथवा भार नहीं होता. भारतीय दर्शन इस शक्ति को विश्वकर्मा (विश्व का निर्माता) कहती है. वैज्ञानिकों के अनुसार शून्यता के रहते हुए पदार्थों के परमाणु गतिवान होते हुए भी आपस में जुड़ नहीं सकते. हिग्स-बोसॉन सिद्धांत के अनुसार रिक्त स्थान में परमाणु को भार देनेवाले कण उपस्थित होते हैं. इनका कोई भार या द्रव्यमान नहीं होता. वैज्ञानिकों ने इन्हीं कणों की अनुभूति की है और इन्हें हिग्स-बोसॉन कण या देव कण (गॉड पार्टिकल) कहा है.
भारतीय चिन्तन काया और चेतना का अलग-अलग अस्तित्व मानता है. ऋग्वेद से लेकर उपनिषदों, ब्राम्हण ग्रंथों, आरण्यकों, पुराणों आदि में इस विषय पर वैज्ञानिक दृष्टि और जिज्ञासा से परिपूर्ण व्यापक चर्चा है. ऋग्वेद में विश्वकर्मा की स्तुति करते हुए जिज्ञासा है कि श्रृष्टि के सृजन से पूर्व सृष्ट-रचना की सामग्री कहाँ से लायी गयी? नारदीय सूक्त (ऋ. १० / १२९) में असत और सत के भी पूर्व काल के संबंध में प्रश्न है. अणु जैसे सूक्ष्म घटक की जानकारी उपनिषद काल में भी थी. कठोपनिषद में कहा गया है कि ‘वह’ अणु से भी छोटा और विराट से भी बड़ा है, वह शरीर में रहकर भी अशरीरी अर्थात भारविहीन है. वैज्ञानिक प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्षों के अनुसार भाररहित उपपरमाणुओं तथा भाररहित परमाणुओं की टकराहट से पृथ्वी, चन्द्र, तारामंडल, ग्रहों आदि का निर्माण हुआ. यह निष्कर्ष अंतिम न होने पर भी ध्यान देने योग्य है. भारत में ज्योतिष शास्त्र परंपरागत रूप से मंगल को पृथ्वी से उत्पन्न (पुत्र) मानता है तथा उज्जैन में मंगल के पृथक होने का स्थान मान्य है.
ऋग्वेद (१०.७२.६) में परमाणुओं को देव कहा गया है: ‘हे देव! आपके नृत्य से उत्पन्न धूलि से पृथ्वी का निर्माण हुआ. यह प्रतीक सरल-सहज बोधगम्य है. देव यही भारहीन कण है. इन्हीं की हलचल और टकराव से भार्राहित परमाणुओं में जुड़ने की प्रवृत्ति और शक्ति उत्पन्न हुई. ऋग्वेद में इस मन्त्र के पहले (१०.७२.२) कहा गया है की परम सत्ता ने अव्यक्त को लोहार की धौंकनी की तरह पकाया. आचार्य श्री राम शर्मा ने इसे वर्त्तमान विज्ञान सम्मत ‘बिग बैंग’ (महाविस्फोट) ठीक ही कहा है. ऋग्वेद (१०.७२.३) कहता है असत से सत आया. असत भारहीनता आर्थर अदृश्यता की स्थिति है, सत भारयुक्तता अर्थात दृश्यमान अस्तित्व की.
मुन्डकोपनिषद (२.९) के अनुसार ‘वह’ परम आकाश में सब जगह उपस्थित है, कलाओं से रहित है, अवयवशून्य और निर्मल है. कलारहित अवयवशून्य से तात्पर्य भारहीनता ही है. श्वेताश्वतर उपनिषद (६.१९) उसे निष्कलं (कलाराहित), शांतं, निरवद्यं तथा निरंजनं कहता है. भारहीन के लिए वैदिक रिश्यों के ये शब्द प्रयोग विज्ञानसम्मत होने के साथ-साथ मधुर भी हैं. परमात्मा की अनुभूति इसी शरीर सी होने पर भी उसे ‘अशरीरी’ (शरीर से परे) कहा गया है. ईशावास्योपनिषद के अष्टम खंड में उसे अकायं (कायारहित) तथा अस्रविरं (स्रावरहित) अर्थात शुद्ध बताया गया है.
हिग्स-बोसॉन कण ही देव कण है क्योंकि इसके अभाव में सृष्टि में सृजन असंभव है. सृष्टि के हर पदार्थ के सृजन में इं कानों की भूमिका है. ईशावास्योपनिषदकार घोषणा करता है ‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्’ अर्थात सकल सृष्टि में सर्वत्र ईश्वर की ही उपस्थिति है. ईशावास्योपनिषद का ईश्वर ही कण रूप में भाररहित होकर भी अनंत को आच्छादित करता है. ऐसा देव कण केवल एक ही है या ऐसे अनेक देव कण हैं? इस संबंध में विज्ञान निरुत्तर है. विज्ञानं की सीमा है किन्तु परमसत्ता असीम है. ईशावास्योपनिषद (मन्त्र ५) कहता है ‘तद्दूरे तद्वन्तिके तदन्तस्य सर्वस्य तदु सर्वस्याय बाह्यतः’ अर्थात बह अति दूर होते हुए भी अति निकट है, वह हमारे अंदर होते हुए भी सबको बाहर से भी घेरता है.
विज्ञान भौतिक जगत की शोध करता है जबकि परमसत्ता जद भौतिक पदार्थ मात्र नहीं हो सकती, वह ‘सत’ और ‘असत’ दोनों है और दोनों से परे भी है. अतः, वह कण मात्र कैसे हो सकता है? सृष्टि का हर एक और सभी कण, अणु, परमाणु, छंद, वाणी, स्पन्दन, स्थिरता, गति स्पर्श, गंध आदि में वही है और होते हुए भी नहीं है. विज्ञान पदार्थ, गति, ऊर्जा, समय और अंतरिक्ष में अंतर्संबंध और बाह्यसंबंध की खोज करता है. वह अज्ञात को ज्ञात की परिधि में समाविष्ट करता है किन्तु सृष्टि के कण-कण में अंतर्भूत सृष्टा का रहस्य अज्ञात की परिधि मात्र नहीं, अज्ञेय का विस्तार भी है. विश्व विख्यात चीनी दार्शनिक लाओत्से रचित ‘ताओ तेह चिंग’ के अनुसार अन्धकार से प्रकाश, अरूप से रूप अस्तित्व में आया. यह ऋग्वेद में बहुत पहले वर्णित ‘असत से सत’ आगमन के सत्य की पुनरावृत्ति है. लाओत्से ब्रम्ह या ईश्वर के स्थान पर ‘ताओ’ शब्द का प्रयोग कर लिखता है की ज्ञान या तर्क से उसका बोध नहीं होता, उसमें कितना भी जोड़ो या घटाओ उसमें फर्क नहीं पड़ता.
ताओ से सहस्त्रों वर्ष पूर्व वृहदारण्यकोपनिषद कहता है ‘ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते’ अर्थात परमसत्ता पूर्ण था, पूर्ण है, पूर्ण में से पूर्ण को घटा देने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है. मुंडकोपनिषद (२.२१०) के अनुसार न सूर्य है, न चाँद, न तारे, न अग्नि, न विद्युत् केवल उसकी आभा से ही यह सब प्रकाशवान है. वृहदारण्यकोपनिषद (१.५.२) कहता है ‘संचरण च असन्चरण च- अर्थात वह गतिशील भी है, गतिहीन स्थिर भी है. तैत्तरीयोपनिषद (२.६) के अनुसार वह वह निरुक्त है, अनिरुक्त है, निलयन है, अनिलयन है, विज्ञान है, अविज्ञान है. श्रीमद्भगवद्गीता का आत्म तत्व भी भारहीन कण जैसा ही है जिसे मार महीन सकते, अग्नि जला नही सकती, पानी गीला नहीं कर सकता, हवा सुखा नहीं सकती. यह ‘आत्म’ परमात्म का ही अंश है इसलिए यह समय सर्वथा न्यायसंगत है.
केनोपनिषदकार उदात्त घोषणा करता है: ‘नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च’ अर्थात मैं नहीं मानता कि मैं उसे ठीक से जानता हूँ, न यह मानता हूँ कि मैं उसे नहीं जानता.’ विज्ञान ने अभी उस परमसत्ता की ओर यात्रा का आरम्भ मात्र किया है. योगियों ने अनाहद नाद के रूप में उस गुंजार की प्रतीति की है जो सतत गुंजरित और अधिकाधिक सघन होकर बिग-बैंग को जन देता है, जिसे ॐ से अभिव्यक्त किया जाता है और जिसके सृष्टि की हर काया में स्थित होने के सत्य को जानने और माननेवाले खुद को ‘कायस्थ’ (कायास्थिते सः कायस्थ: अर्थात जो सत्ता काया कसृजन कर उसमें स्थित होती है कायस्थ कही जाती है) याने ईश्वर का अंश मानकर अन्यों को समभाव से देखते हैं. वे हर रूप में परमसत्ता को पूजनीय मानते हैं, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, देश, भाषा, भूषा, लिंग, नस्ल, वंश आदि के आधार पर अपना-पराया मानने को स्वीकार नहीं करते. वे ‘विश्वैक नीडं’ (विश्व एक नीड है), ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ (सकल वसुधा एक कुटुंब है) ‘श्रद्धावान लभते ज्ञानं’ (परमसत्ता के प्रति श्रद्धा रखनेवाला ही उसका ज्ञान पा सकता है) तथा ‘विश्वासं फलदायकं’ (परमसत्ता के प्रति विश्वास ही फल देनेवाला होता है) जैसे आर्ष जीवनदर्शक सिद्धांतों का अनुसरण करते हैं. उनका इष्ट ‘श्रृद्ध-विश्वास रूपिणौ’ (श्रृद्धा-विश्वास के रूप में) ही होता है. विज्ञान श्रृद्धा-विश्वास पर नहीं तर्क पर विश्वास करता है. इसलिए विज्ञान और धर्म एक दूसरे के विरोधी नहीं पूरक हैं. हिग्स-बोसॉन कण (देव कण) ने धर्म और विज्ञान को उनकी सांझी विरासत के निकट लाकर एक-दूसरे को अधिक समझने का अवसर उपलब्ध कराया है.

नवगीत डॉ. इसाक ‘अश्क’

नवगीत
डॉ. इसाक ‘अश्क’
*
१. 
गमलों खिले गुलाब
हर सिंगार
फिर झरे
कुहासों के.
दिन जैसे
मधु रंगों में-
बोरे,
गौर
गुलाबी-
नयनों के डोरे,
आँगन
लौटे विहग
सुहासों के.
उमड़ी
गंधोंवाली-
मौन नदी,
देख जिसे
विस्मित है-
समय-सदी
गमलों
खिले गुलाब
उजासों के.
२. 
पुलोवर बुनती
यह जाड़े की धूप
पुलोवर
बुनती सी.
सुबह
चंपई-
तौर-तरीके जीने के,
सिखा रही
अँजुरी भर
आसव पीने के,
चीड़ वनों में
ओस कणों को
चुनती सी.
गंधों का
उत्सव-
फूलों की बस्ती में,
मना रहे
दिन-रात-
डूबकर मस्ती में,
वंशी मादल की
थापों को
सुनती सी
.
३. 
तक्षक सी हवा
भोर ने
तालों लिखे
आलेख गहरी धुंध के.
लोग बैठे
देह को-
गठरी बनाये,
खोल सकती हैं
जिन्हें बस-
ऊष्माएं,
ओसकण
जैसे की कोमल
अंतरे हों छंद के.
तेज तक्षक सी हवा-
फुंफकारती है,
डंक
बिच्छू सा उठाकर-
मारती है,
प्राण संकट में पड़े हैं
सोनचिड़िया गंध के
.
एक कविता
धरती
आचार्य संजीव संजीव 'सलिल'
*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.
बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.
समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.
न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है
लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बंधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है
सभ्यता को,
धरती जन्म देती है
संस्कृति को.
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.
धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..
**************
२३-२-२०११ 

सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

मुक्तिका

मुक्तिका
*
कुछ सपने हैं, कुछ सवाल भी
सादा लेकिन बाकमाल भी
सावन - फागुन, ईद - दिवाली
मिलकर हो जाते निहाल जी
मौन निहारा जब जब तुमको
चेहरा क्यों होता गुलाल जी
हो रजनीश गजब ढाते हो
हाथों में लेकर मशाल जी
ब्रह्मानंद अगर पाना है
सलिल संग कर लो धमाल जी
*
संजीव
२२-२-२०२०

प्रसंग

प्रसंग जबलपुर की २६ वी वर्ष ग्रंथि पर
अनंत शुभकामना   
*
छबीला छब्बीस साल का हुआ प्रसंग
मनोहर छवि देख-देख जग हुआ है दंग 
साहित्य-कला-संस्कृति हर एक क्षेत्र में 
कीर्तिमान रच रहा, बिखेर नवल रंग 
छबीला छब्बीस साल का हुआ प्रसंग
*
कर विनोद नयन में सहेजता है ख्वाब 
मक़बूल बसे रूह में, रूही सदा जनाब 
वास्तव में श्री विनीता श्वास-श्वास है 
शब्द-शब्द सुरभि लिए ज्यों खिले गुलाब  
आलोक दे बसंत ख़ुशी द्वार रहे संग
छबीला छब्बीस साल का हुआ प्रसंग
विश्ववाणी संस्थान कदम-कदम साथ 
है यही अभियान लिए हाथ में हों हाथ 
कंकरों से शंकरों को रच सकें प्रयास 
जीव हो संजीव सलिल सिक्त रहे माथ 
नेह नर्मदा प्रवाह दे सतत उमंग 
छबीला छब्बीस साल का हुआ प्रसंग
*
कामना है आसमान छुएँ साथ मिल 
भावना है बाग़ को महका सकेंगे खिल 
आशना प्रसंग की हो हर कलम यहाँ 
साधना सफल हो सजे नित्य ही महफ़िल 
जबलपुर में सदा बहे सृजन की तरंग 
छबीला छब्बीस साल का हुआ प्रसंग
*   

नवगीत है दुर्योधन

नवगीत

है दुर्योधन
*
गुरु से
काम निकाल रहा,
सम्मान जताना
सीख न पाया
है दुर्योधन.
*
कहते हैं इतिहास स्वयं को दुहराता है.
सुनते हैं जो सबक न सीखे पछताता है.
लिखते हैं कवि-लेखक, पंडित कथा सुनाते-
पढ़ता है विद्यार्थी लेकिन बिसराता है.
खुद ही
नाम उछल रहा,
पर दाम चुकाना
जान न पाया
है दुर्योधन.
*
जो बोता-उपजाता, वह भूखा मरता है.
जो करता मेहनत वह पेट नहीं भरता है.
जो प्रतिनिधि-सेवक वह करता ऐश हमेशा-
दंदी-फंदी सेठ ना डर, मन की करता है.
लूट रहा,
छल-कपट, कर्ज
लेकर लौटाना
जान न पाया
है दुर्योधन.
*
वादा करता नेता, कब पूरा करता है?
अपराधी कब न्याय-पुलिस से कुछ डरता है?
जो सज्जन-ईमानदार है आम आदमी-
जिंदा रहने की खातिर पल-पल मरता है.
बात विदुर की
मान शकुनी से
पिंड छुड़ाना
जान न पाया
है दुर्योधन.
***
२१.२.२०१८

सदोका

ॐ​
सदोका पंचक
*
ई​ कविता में
करते काव्य स्नान ​
कवि​-कवयित्रियाँ .
सार्थक​ होता
जन्म निरख कर
दिव्य भाव छवियाँ।
*
ममता मिले
मन-कुसुम खिले,
सदोका-बगिया में।
क्षण में दिखी
छवि सस्मित मिले
कवि की डलिया में।
*
​न​ नौ नगद ​
न​ तेरह उधार,
लोन ले, हो फरार।
मस्तियाँ कर
किसी से मत डर
जिंदगी है बहार।
*
धूप बिखरी
कनकाभित छवि
वसुंधरा निखरी।
पंछी चहके
हुलस, न बहके
सुनयना सँवरी।
* ​
श्लोक गुंजित
मन भाव विभोर,
पूज्य माखनचोर।
उठा हर्षित
सक्रिय नीरव भी
क्यों हो रहा शोर?
***
२२-२-२०१८ 

मैथिली हाइकु

मैथिली हाइकु
(त्रुटियों हेतु क्षमा प्रार्थना सहित)
१.
ई दुनिया छै
प्रभुक बनाओल
प्रेम स रहू
२.
लिट्टी-चोखा
मधुबनी पेंटिंग
मिथिला केर
३.
सभ सs प्यार
घृणा ककरो सय
नैई करब
४.
संपूर्ण क्रांति
जयप्रकाश बाबू
बिसरि गेल
५.
बिहारी जन
भगायल जैतई
दोसर राज?
६.
चलि पड़ल
विकासक राह प'
बिहारी बाबू
७.
चलै लागल
विकासक बयार
नीक धारणा
८.
हम्मर गाम
भगवाने के नाम
लSक चलब
९.
हाल-बेहाल
जनता परेशान
मँहगाई से
१०.
लोकतंत्र में
चुनावक तैयारी
बड़का बात
***
२२-२-२०१७ 

नवगीत

नवगीत
भैया जी की जय
*
भाभी जी भाषण में बोलीं
भैया जी की जय बोलो.
*
फ़िक्र तुम्हारी कर वे दुबले
उतने ही जिंतने हैं बगुले
बगुलों जैसा उजला कुरता
सत्ता की मछली झट निगले
लैपटॉप की भीख तुम्हें दी
जुबां नहीं अपनी खोलो
भाभी जी भाषण में बोलीं
भैया जी की जय बोलो.
*
बहिना पीछे रहती कैसे?
झपट उठी झट जैसे-तैसे
आम लोग लख हक्के-बक्के
अटल इरादे इनके पक्के
गगनविहारी साईकिलधारी
वजन बात का मत तोलो
भाभी जी भाषण में बोलीं
भैया जी की जय बोलो.
*
धन्य बुआ जी! आग उगलतीं
फूट देख, चुप रहीं सुलगतीं
चाह रहीं जनता को ठगना
चलता बस कुर्सियाँ उलटतीं
चल-फिर कर भी क्या कर लोगे?
बनो मूर्ति सब, मत डोलो
भाभी जी भाषण में बोलीं
भैया जी की जय बोलो.
*
भाई-भतीजा मिल दें गच्चा
क्या कर लेंगे बोलो चच्चा?
एक जताता है हक अपना
दूजा कहे चबा लूँ कच्चा
दाग लग रहा है निष्ठा पर
कथनी-करनी भी तोलो
भाभी जी भाषण में बोलीं
भैया जी की जय बोलो.
*
छप्पन इंची छाती-जुमले
काले धन की रौंदी फसलें
चैन न ले, ना लेने देता
करे सर्जिकल, रोके घपले
मत मत-दान करो, मत बेचो
सोच-समझ दो, फिर सो लो
भाभी जी भाषण में बोलीं
भैया जी की जय बोलो.
*

नवगीत

नवगीत
संजीव
.
दहकते पलाश
फिर पहाड़ों पर.
.
हुलस रहा फागुन
बौराया है
बौराया अमुआ
इतराया है
मदिराया महुआ
खिल झाड़ों पर
.
विजया को घोंटता
कबीरा है
विजया के भाल पर
अबीरा है
ढोलक दे थपकियाँ
किवाड़ों पर
.
नखरैली पिचकारी
छिप जाती
हाथ में गुलाल के
नहीं आती
पसरे निर्लज्ज हँस
निवाड़ों पर
*
२२-२-२०१५

चौबोला छंद

छंद सलिला:
१५ मात्रा का तैथिक छंद : चौबोला
संजीव
*
लक्षण: २ पद, ४ चरण, प्रतिचरण १५ मात्रा, चरणान्त लघु गुरु
लक्षण छंद:
बाँचौ बोला तिथि पर कथा, अठ-सत मासा भोगे व्यथा
लघु गुरु हो तो सब कुछ भला, उलटा हो तो विधि ने छला
(संकेत: तिथि = १५ मात्रा, अठ-सत = आठ-सात पर यति, लघु-गुरु चरणान्त)
उदाहरण:
१. अष्टमी-सप्तमी शुभ सदा, हो वही विधि लिखा जो बदा
कौन किसका हुआ कब कहो, 'सलिल' जल में कमल सम रहो
२. निर्झरिणी जब कलकल बहे, तब निर्मल जल धारा गहे
रुके तड़ाग में पंक घुले, हो सार्थक यदि पंकज खिले
३. लोकतंत्र की महिमा यही, ताकत जन के हाथों रही
जिसको चाहा उसको चुना, जिसे न चाहा बाहर किया
___________

रविवार, 21 फ़रवरी 2021

अठ म ग ल सवैया

नया छंद
अठ म ग ल सवैया
विधान: ८ मगण + गुरु लघु
प्रकार: २६ वार्णिक, ५१ मात्रिक छंद
बातों ही बातों में, रातों ही रातों में, लूटेंगे-भागेंगे, व्यापारी घातें दे आज
वादों ही वादों में, राजा जी चेलों में, सत्ता को बाँटेंगे, लोगों को मातें दे आज
यादें ही यादें हैं, कुर्सी है प्यादे हैं, मौका पा लादेंगे, प्यारे जो लोगों को आज
धोखा ही धोखा है, चौका ही चौका है, छक्का भी मारेंगे, लूटेंगे-बाँटेंगे आज
***

दोहा सलिला

 दोहा

शुभ प्रभात अरबों लुटा, कहो रहो बेफिक्र।
चौकीदारी गजब की, सदियों होगा जिक्र।।
*
पिया मेघ परदेश में, बिजली प्रिय उदास।
धरती सासू कह रही, सलिल बुझाए प्यास।।
*
बहतरीन सर हो तभी, जब हो तनिक दिमाग।
भूसा भरा अगर लगा, माचिस लेकर आग।।
*

मैथिली गीत कांता राय

मैथिली गीत 
कांता राय 
*
आई अप्पन भाषाक दिन अछि।
चैत मास मोन छल
गाम जैतहूँ एही बेर
नबका भातक संग खैइतहूँ
पटुआ सागक लेर
चैताबर में गबितहूँ
होरी औ मघुमास
बटगबनि में चौमासा
विद्यापतिक बारहमास
जईतहूँ बहिना काकी अँगना
चूड़ा कूटय लेल
बड़का बाबा के मढ़िया पर
फुटहा लाबै लेल
बाधे बने रणे बने
चलु छिछियाऊ
मौनी भैर कय बथुआ तोड़ब
कनि जल्दी चलि आऊ
सासूर सय एलखिन
लाल दीदी पिरिकिया लय क
सनेश पुरलखिन काकी
जरल गुड़ पूरी दय क
कान्ता रॉय
जय मिथिला जय मैथिली।

नवगीत

 नवगीत:

अंतर में
पल रही व्यथाएँ
हम मुस्काएँ क्या?
*
चौकीदार न चोरी रोके
वादे जुमलों को कब टोंके?
संसद में है शोर बहुत पर
नहीं बैंक में कुत्ते भौंके।
कम पहनें
कपड़े समृद्ध जन
हम शरमाएँ क्या?
*
रंग बदलने में हैं माहिर
राजनीति में जो जगजाहिर।
मुँह में राम बगल में छूरी
कुर्सी पूज रहे हैं काफिर।
देख आदमी
गिरगिट लज्जित
हम भरमाएँ क्या?
*
लोक फिर रहा मारा-मारा,
तंत्र कर रहा वारा-न्यारा।
बेच देश को वही खा रहे
जो कहते यह हमको प्यारा।।
आस भग्न
सांसों लेने को भी
तड़पाएँ क्या?
***

हाइकु / सदोका

 आज की रचना-

हाइकु
हिंदी का फूल
मैंने दिया, उसने
अंग्रेजी फूल।
*
सदोका
है चौकीदार
वफादार लेकिन
चोरियाँ होती रही।
लुटती रहीं
देश की तिजोरियाँ
जनता रोती रही।
*