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सोमवार, 2 नवंबर 2020

पुरोवाक बुधिया लेता टोह, बसंत मिश्रा

 बुधिया लेता टोह : चीख लगे विद्रोह

पुरोवाक
स्वातंत्र्योत्तर भारतीय साहित्य छायावादी रूमानियत (पंत, प्रसाद, महादेवी, बच्चन), राष्ट्रवादी शौर्य (मैथिली शरण गुप्त, माखन लाल चतुर्वेदी, दिनकर, सोहनलाल द्विवेदी) और प्रगतिवादी यथार्थ (निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध) के संगुफन का परिणाम है। गीत के संदर्भ में परंपरा और नवता के खेमों में बँटे मठाधीश अपनी सुविधा और दंभ के चलते कुछ भी कहें और करें, यह सौभाग्य है कि हिंदी का बहुसंख्यक नव रचनाकार उन पर ध्यान नहीं देता, अनुकरण करना तो दूर की बात है। अपनी आत्म चेतना को साहित्य सृजन का मूलाधार मानकर, वरिष्ठों के विमर्श को अपने बौद्धिक तर्क के धरातल पर परख कर स्वीकार या अस्वीकार करने वाले बसन्त कुमार शर्मा ऐसे ही नव-गीतकार हैं जो नव-गीत और नवगीत को भारत पकिस्तान नहीं मानते और वह रचते हैं जो कथ्य की आवश्यकता है। नर्मदा तीर पर चिरकाल से स्वतंत्र चिंतन-मनन-सृजन की परंपरा रही है। रीवा नरेश रघुराज सिंह से लेकर गुजराती कवि नर्मद तक की यह परंपरा वर्तमान में भी निरंतर गतिमान है। बसन्त कुमार शर्मा राजस्थान की मरुभूमि से आकर इस सनातन प्रवाह की लघुतम बूँद बनने हेतु यात्रारंभ कर रहे हैं।
गीत-प्रसंग में तथाकथित प्रगतिवादी काव्य समीक्षकों द्वारा गीत को नकारने ही नहीं गीत के मरने की घोषणा करने और नवान्वेषण के पक्षधरों द्वारा गीत-तत्वों के पुनरावलोकन और पुनर्मूल्यांकन के स्थान पर निजी मान्यताओं को आरोपित करने ने नव रचनाकारों के समक्ष दुविधा उपस्थित कर दी है। 'मैं इधर जाऊँ कि उधर जाऊँ?' की मन:स्थिति से मुक्त होकर बसन्त ने शीत-ग्रीष्म के संक्रांति काल में वैभव बिखेरने का निर्णय किया तो यह सर्वथा उचित ही है। पारंपरिक गीत-तनय के रूप में नवगीत के सतत बदलते रूप को स्वीकारते हुए भी उसे सर्वथा भिन्न न मानने की समन्वयवादी चिंतन धारा को स्वीकार कर बसन्त ने अपनी गीति रचनाओं को प्रस्तुत किया है। नवगीत के संबंध में महेंद्र भटनागर के नवगीत: दृष्टि और सृष्टि की भूमिका में श्रद्धेय देवेंद्र शर्मा ने ठीक ही लिखा है "वह रचना जो बहिरंग स्ट्रक्चर के स्तर पर भले ही गीत न हो किन्तु वस्तुगत भूमि पर नवोन्मेषमयी हो उसे नवगीतात्मक ही कहना संगत होगा.... गीत के लिए जितना छंद आवश्यक है, उतनी लय। लय यदि आत्मा है तो छंद उसको धारण करने वाला कलेवर है। प्रकारांतर से लय यदि जनक है तो छंद उसको धारण करने वाला कलेवर है। कविकर्म के संदर्भ में कहा गया है- "छंदोभंग न कारयेत" और छंदोभंग की स्थिति जब रचनाकार का 'लय' पर अभीष्ट अधिकार न हो।... नवगीत विद्वेषी पारम्परिक (मंचीय) गीतकारों और नयी कविता के पक्षपाती इधर एक भ्रामक प्रचार करते नहीं थक रहे कि नवगीत में जिस बोध-पक्ष और चेतना-पक्ष का उन्मेष हुआ वह प्रयोगवाद और नयी कविता का ही 'उच्छिष्ट' है। ऐसी सोच पर हँसा या रोया ही जा सकता है।...'नवगीत' नयी 'कविता' का 'सहगामी' तो है, 'अनुगामी' कतई नहीं है।"
कवि बसन्त ने परंपरानुपालन करते हुए शारद-स्तवनोपरांत उन्हें समर्पित इन रचनाओं में 'लय' के साथ न्याय करते हुए 'निजता', 'तथ्यपरकता', 'सोद्देश्यता' तथा 'संप्रेषणीयता' के पंच पुष्पों से सारस्वत पूजन किया है। इनमें 'गीत' और 'नवगीत' गलबहियाँ कर 'कथ्य' को अभिव्यक्त करते हैं। नर्मदांचल में गीत-नवगीत को भारत-पाकिस्तान की तरह भिन्न और विरोधी नहीं नीर-क्षीर की तरह अभिन्न और पूरक मानने की परंपरा है। जवाहर लाल चौरसिया तरुण, यतीन्द्र नाथ राही, संजीव वर्मा 'सलिल', राजा अवस्थी, विजय बागरी की श्रृंखला में बसन्त कुमार शर्मा और अविनाश ब्योहार अपनी निजता और वैशिष्ट्य के साथ जुड़े हैं। बसन्त की रचनाओं में लोकगीत की सुबोधता, जनगीत का जुड़ाव, पारम्परिक गीत का लावण्य और नागर गीत की बदलाव की चाहत वैयक्तिक अभिव्यक्ति के साथ संश्लिष्ट है। वे अंतर्मन की उदात्त भावनाओं को काल्पनीयक बिम्ब-प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करते हुए देते हैं । यथार्थ और कल्पना का सम्यक सम्मिश्रण इन गीतों-नवगीतों को सहज ग्राह्य बना देते हैं।
धौलपुर राजस्थान में जन्मे बसन्त जी भारतीय रेल सेवा में चयनित होकर परिचालन प्रबंधन के सिलसिले में देश के विभिन्न भागों से जुड़े रहे हैं। उनके गीतों में ग्रामीण उत्सवधर्मिता और नागर विसंगतियाँ, प्रकृति चित्रण और प्रशासनिक विडम्बनाएँ, विशिष्ट और आम जनों का मत-वैभिन्न्य रसमयता के साथ अभिव्यक्त होता है। गौतम बुद्ध कहते हैं 'दुःख ही सत्य है।' आंग्ल उपन्यासकार थॉमस हार्डी के अनुसार 'हैप्पीनेस इज ओनली एन इण्टरल्यूड इन द जनरल ड्रामा ऑफ़ पेन.' अर्थात दुःखपूर्ण जीवन नाटक में सुख केवल क्षणिक पट परिवर्तन है। इसीलिये शैलेन्द्र लिखते हैं 'दुनिया बनाने वाले काहे को दुनिया बनाई?' बसन्त इनसे पूरी तरह सहमत नहीं हैं। उनका हीरो 'बुधिया' बादलों की टोह लेते हुए साहब को विद्रोह लगने पर भी चीख-पुकार करता है क्योंकि उसे अपने पुरूषार्थ पर भरोसा है-
आये बादल, कहाँ गए फिर,
बुधिया लेता टोह ...
... आढ़तियों ने मिल फसलों की
सारी कीमत खाई
सूख गयी तुलसी आँगन की
झुलस गयी अमराई
चीख पुकार कृषक की ल
साहब को विद्रोह
परम्परा से कृषि प्रधान देश भारत को बदल कर चंद उद्योगपतियों के हित साधन हेतु किसानी को हानि का व्यवसाय बनाने की नीति ने किसानों को कर्जे के पाश में जकड़कर पलायन के लिए विवश कर दिया है-
बैला खेत झौंपडी गिरवी
पर खाली पॉकेट
छोड़ा गाँव आज बुधिया ने
बिस्तर लिया लपेट ....
... रौंद रहीं खेतों को सड़कें
उजड़ रहे हैं जंगल
सूख गया पानी झरनों का
कैसे होगा मंगल?
आदम ने कर डाला नालों-
नदियों का आखेट
प्रकृति और पर्यावरण की चिंता 'बुधिया' को चैन नहीं लेने देती। खाट को प्रतीक बनाकर कवि सफलतापूर्वक गीत नायक की विपन्नता 'कम कहे से ज्यादा समझना' की तर्ज पर उद्घाटित करता है-
जैसे-तैसे ढाँक रही तन,
घर में टूटी खाट
ठा उकड़ू तर बारिश में
बुधिया जोहे बाट
गाँव से पलायन कर सुख की आस में शहर आनेवाला यह कहाँ जानता है कि शहर की आत्मा पर भी गाँव की तरह अनगिन घाव हैं। अपनी जड़ छोड़कर भागने वाले पूर्व की जड़ पश्चिम के मूल्यों को अपनाकर भी जम नहीं पातीं-
पछुआ हवा शहर से चलकर,
गाँवों तक आई
देख सड़क को पगडंडी ने
ली है अँगड़ाई
बग्घी घोड़ी कार छोड़कर
मटक रहा दूल्हा
नई बहुरिया भागे होटल
छोड़ गैस-चूल्हा
जींस पहनकर नाच रही हैं
सासू - भौजाई
ठौर-ठिकाना ढूँढते गाँव झाड़-पेड़-परिंदों के बिना निष्प्राण हैं। कोढ़ में खाज है- "संबंधों के मुख्य द्वार पर / शक कठोर प्रहरी।" सरकारी लाल-फीताशाही की असलियत कवि से छिप नहीं पाती-
"बजता लेकिन कौन उठाये
सच का टेलीफून?"
पैसे लिए बिना कोई भी
कब थाने में हिलता
बिना दक्षिणा के पटवारी
कब किसान से मिलता
लगे वकीलों के चक्कर तो
उतर गई पतलून
जीवन केवल दर्द-दुःख का दस्तावेज नहीं है, सुख के शब्द भी इन पर अंकित-टंकित हैं। इन गीतों का वैशिष्टय दुःख के साथ सुख को भी समेटना है। इनमें फागुन मोहब्बतों की फसल उगाने आज भी आता है
गीत-प्रीत के हमें सुनाने
आया है फागुन
मोहब्बतों की फसल उगाने
आया है फागुन
सरसों के सँग गेहूं खेले,
बथुआ मस्त उगे
गौरैया के साथ खेत में
दाने काग चुने
हिल-मिलकर रहना सिखलाने
आया है फागुन
'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' की विरासत वाले देश को श्रम की महत्ता बतानी पड़े इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है-
रिद्धि-सिद्धि तो वहीं दौड़तीं,
श्रम हो जहाँ अकूत
बसन्त जी समय के साथ कदमताल करते हुए तकनीक को इस्तेमाल ही नहीं करते, उसे अपनी नवगीत का विषय भी बनाते हैं-
वाट्स ऐप हो या मुखपोथी
सबके अपने-अपने मठ हैं
रहते हैं छत्तीस अधिककतर
पड़े जरूरत तो तिरसठ हैं
रंग निराले, ढंग अनोखे
ओढ़े हुए मुखौटे अनगिन
लाइक और कमेंट खटाखट
चलते ही रहते हैं निश-दिन
छंद हुए स्वच्छंद युवा से
गीत-ग़ज़ल के भी नव हठ हैं
कृति नायक 'बुधिया' उसी तरह बार-बार विविध बिम्बों-प्रतीकों के साथ भिन्न-भिन्न भावनाओं को शब्दित करता है जैसे मेरे नवगीत संग्रहों "काल है संक्रांति का" में 'सूर्य' तथा "सड़क पर" में 'सड़क' में गया है। हो सकता है शब्द-युग्म प्रयोगों की तरह यह चलन भी नए नवगीतकारों में प्रचलित हो। आइये, बुधिया की अर्जी पर गौर करें-
अर्जी लिए खड़ा है बुधिया
दरवाजे पर खाली पेट
राजाजी कुर्सी पर बैठे
घुमा रहे हैं पेपरवेट
कहने को तो 'लोकतंत्र' है,
मगर 'लोक' को जगह कहाँ है?
मंतर सारे पास 'तंत्र' के
लोक भटकता यहाँ-वहाँ
रोज दक्षिणा के बढ़ते हैं
सुरसा के मुँह जैसे रेट
राजाजी प्रजा को अगड़ी-पिछड़ी में बाँट कर ही संतुष्ट नहीं होते, एक-एक कर सबका शिकार करना अपन अधिकार मानते हैं। प्यासी गौरैया और नालों पर लगी लंबी लाइन उन्हें नहीं दिखती लेकिन बुढ़िया मिट्टी के घड़े को चौराहे पर तपते और आर ओ वाटर को फ्रिज में खिलवाड़ करते देखता है-
घट बिन सूनी पड़ी घरौंची
बुधिया भरता रोज उसासी
इन रचनाओं में देश-काल समाज की पड़ताल कर विविध प्रवृत्तियों को इंगित सम्प्रेषित किया गया है। कुछ उदाहरण देखें-
लालफीताशाही-
फाइलों में सज रही हैं / दर्द दुःख की अर्जियाँ/ चीख-पुकार कृषक की लगती / साहब को विद्रोह।
भ्रष्टाचार-
दाम है मुश्किल चुकाना / ऑफिसों में टीप का, पैसे लिए बिना कोई भी / कब थाने में हिलता, बिना दक्षिणा के पटवारी / कब किसान से मिलता।
न्यायालय-
लगे वकीलों के चक्कर तो / उतर गई पतलून।
कुंठा-
सबकी चाह टाँग खूँटी पर / कील एक ठोंके।
गरीबी-
जैसे-तैसे ढाँक रही तन / घर में टूटी खाट / बैठा उकड़ूँ तर बारिश में / बुधिया जोहे बाट, बैला खेत झोपड़ी गिरवी / पर खाली पॉकेट, बिना फीस के, विद्यालय में / मिला न उसे प्रवेश।
राजनैतिक-
जुमले लेकर वोट माँगने / आते सज-धज नेता।
जन असंतोष- कहीं सड़क पर, कहीं रेल पर / चल रास्ता रोकें रोकें।
पर्यावरण-
कूप तड़ाग बावली नदियाँ / सूखीं, सूने घाट, खड़ा गाँव से दूर सूखता / बेबस नीम अकेला, चहक नहीं अब गौरैया की / क्रंदन पड़े सुनाई।
किसान समस्या- पानी सँग सिर पर सवार था / बीज खाद का चक्कर, रौंद रहीं खेतों को सड़कें / उजड़ रहे हैं जंगल, आढ़तियों ने मिल फसलों की / सारी कीमत खाई।
सामाजिक-
उड़े हुए हैं त्योहारों से / अपनेपन के रंग, हुई कमी परछी-आँगन की / रिश्तों का दीवाला, सूख गई तुलसी आँगन की / झुलस गई अमराई अमराई, जींस पहनकर नाच रही हैं / बड़की भौजाई, संबंधों के मुख्य द्वार पर / शक कठोर प्रहरी।
जनगण की व्यथा-कथा किन्ही खास शब्दों की मोहताज नहीं होती। नीरज भले ही 'मौन ही तो भावना की भाषा है' कहें पर आज जब चीत्कार भी अनसुना किया जा रहा है, नवगीत को पूरी शिद्दत के साथ वह सब कहना ही होगा जो वह कहना चाहता है। बसन्त जी नवगीतों में शब्दों को वैसे ही पिरोते हैं जैसे माला में मोती पिरोये जाते हैं। इन नवगीतों में नोन, रस्ता, बैला, टोह, दुबारा, बहुरिया, अँगनाई, पँखुरियाँ, फिकर, उजियारे, पसरी, बिजूका, भभूका, परजा, लकुटी, घिरौंची, उससे, बतियाँ रतियाँ, निहारत जैसे शब्दों के साथ वृषभ, आरोह, अवरोह, तृषित, स्वप्न, अट्टालिकाएँ, विपदा, तिमिर, तृष्णा, संगृहीत, ह्रदय, गगन, सद्भावनाएँ, आराधनाएँ, वर्जनाएँ, कलुष, ग्रास जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों को पूरी स्वाभाविकता के साथ प्रयोग करते हैं। इन गीतों में जितनी स्वाभाविकता के साथ साहब, फाइलों, ऑफिसों, पॉकेट, लैपटॉप, रॉकेट, जींस, बार्बी डॉल, मोबाईल, रेस, चैटिंग, सैटिंग, चेन, स्विमिंग पूल, डस्टबिन, बुलडोजर, गफूगल, रेट, जैकेट, वेट, वाट्स ऐप, लाइक, कमेंट, फ्रिज, आर ओ वाटर, बोतल, इंजीनियरिंग, होमवर्क आदि अंगरेजी शब्द प्रयोग में लाए गए हैं, उतने ही अपनेपन के साथ उम्र, अर्जियां, लबों, रिश्तों, हर्जाने, कर्जा, मूरत, कश्मकश, ज़िंदगी, दफ्तर, कोशिश, चिट्ठी, मंज़िल, साजिश, सरहद, इमदाद, रियायत समंदर, अहसान जैसे अरबी-फ़ारसी-तुर्की व् अन्य भाषाओँ के प्रचलित शब्द भी बेहिचक-बखूबी प्रयोग किये गए हैं।
नवगीतों में पिछले कुछ वर्षों से निरंतर बढ़ रही शब्द-युग्मों को प्रयोग करने की प्रवृत्ति बसन्त जी के नवगीतों में भी हैं। नव युग्मों के विविध प्रकार इन गीतों में देखे जा सकते हैं यथा- दो सार्थक शब्दों का युग्म, पहला सार्थक दूसरा निरर्थक शब्द, पहला निरर्थक दूसरा सार्थक शब्द, दोनों निरर्थक शब्द, पारिस्थितिक शब्द युग्म, संबंध आधारित शब्द युग्म, मौलिक शब्द युग्म, एक दूसरे के पूरक, एक दूसरे से असम्बद्ध, तीन शब्दों का युग्म आदि। रोटी-नोन, जैसे-तैसे, चीख-पुकार, हरा-भरा, ठौर-ठिकाना, मुन्ना-मुन्नी, भाभी-भैया, काका-काकी, चाचा-ताऊ, जीजा-साले, दादी-दादा, अफसर-नेता, पशु-पक्षी, नाली-नाला, मंदिर-मस्जिद, सज-धज, गम-शूम, झूठ-मूठ, चाल-ढाल, खाता-पीता, छुआ-छूत, रोक-थाम, रात-दिन, पाले-पोज़, आँधी-तूफ़ान, आरोह-अवरोह, गिल्ली-डंडा, सर-फिरी, घर-बाहर, तन-मन, जाती-धर्म, हाल-चाल, साँझ-सकारे, भीड़-भड़क्का, कौरव-पांडव, आस-पास, रंग-बिरंगे, नाचे-झूमे, टैग-तपस्या, बग्घी-घोडा, खेत-मढ़ैया, निश-दिन, नाचो-गाओ, पोखर-कूप-बावड़ी, ढोल-मँजीरा, इसकी-उसकी-सबकी, रिद्धि-सिद्धि, तहस-नहस, फूल-शूल, आदि।
बसन्त जी शब्दावृत्तियों के प्रयोग में भी पीछे नहीं हैं। हर-हर, हँसते-हँसते, मचा-मचा, दाना-दाना, खो-खो, साथ-साथ, संग-संग, बिछा-बिछा, टुकुर-टुकुर, कटे-कटे, हँस-हँस, गली-गली, मारा-मारा, बारी-बारी आदि अनेक शब्दावृत्तियाँ विविध प्रसंगों में प्रयोग कर भाषा को मुहावरेदार बनाने का सार्थक प्रयास किया गया है।
अलंकार
अन्त्यानुप्रास सर्वत्र दृष्टव्य है। यमक, उपमा व श्लेष का भी प्रयोग है। विरोधाभास- जितने बड़े फ़्लैट-कारें / मन उतना ज्यादा छोटा। व्यंजना- बहुतई अधिक विकास हो रहा।
मुहावरे
कहीं-कहीं मुहावरों के प्रयोग ने रसात्मकता की वृद्धि की है- दिल ये जल जाए, मेरी मुर्गी तीन टाँग की आदि।
आव्हान
इस कृति का वैशिष्ट्य विसंगतियों के गहन अन्धकार में आशा का दीप जलाए रखना है। संकीर्ण मानसिकता के पक्षधर भले ही इस आधार पर नवता में संदेह करें पर गत कुछ दशकों से नवगीत का पर्याय अँधेरा और पीड़ा बना दिए जाने के काल में नवता उजाले हुए हर्ष का आव्हान करना ही है। ''आइये, मिलकर बनायें / एक भारत, श्रेष्ठ भारत'' के आव्हान के साथ गीतों-नवगीतों की इस कृति का समापन होना अपने आप में एक नवत्व है। छंद और लय पर बसन्त जी की पकड़ है। व्यंजनात्मकता और लाक्षणिकता का प्रभाव आगामी कृतियों में और अधिक होगा। बसन्त जी की प्रथम कृति उनके उज्जवल भविष्य का संकेत करती है। पाठक निश्चय ही इन गीतों में अपने मन की बात पाएँगे हुए कहेंगे- ''अल्लाह करे जोरे-कलम और जियादा।''
***

समीक्षा मौसम अंगार है

समीक्षा 
मौसम अंगार है, नवगीत संग्रह 
*
नवगीत सामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की खबर लेते हुए आम आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष व संकल्प को अपनी विषय वस्तु बनाता है। 
नवगीत की शक्ति को पहचानते हुए अविनाश ब्यौहार ने अपने आस-पास घटते अघट को कभी समेटा है, कभी बिखेर कर दर्द को भी हँसना सिखाया है। अविनाश ब्यौहार के नवगीत रुदाली मात्र नहीं, सोहर भी हैं। इन नवगीतों में अंधानुकरण नहीं, अपनी राह आप बनाने की कसक है। युगीन विसंगतियों को शब्द का आवरण पहनाकर नवगीत मरती हुई नदी में सदी को धूसरित होते देखता है।
मृतप्राय पड़ी हुई / रेत की नदी 
धूसरित होती / इक्कीसवीं सदी 
पंछी कास कलरव / अहेरी का जाल
सूरज ने ताना / धूप का तिरपाल
यहाँ विसंगति में विसंगति यह कि तिरपाल सिर के ऊपर ताना जाता है, जबकि धूप सूरज के नीचे होती है। 
अविनाश के गीत गगन विहारी ही नहीं, धरती के लाल भी हैं। वे गोबर से लिपे आँगन में उजालों के छौनों को लाते हैं।
उजियारे के / छौने लाए / पर्व दिवाली
आँगन लिपे / हुए हैं / गोबर से
पुरसा करे / दिवाली / पोखर से
खुलते में हैं / गौएँ बैठे / करें जुगाली
इन नवगीतों को नवाशा से घुटन नहीं होती। वे दिन तो दिन, रात के लिए भी सूरज उगाना चाहते हैं-
रात्रि के लिए / एक नया सा / सूर्य उगायें
जो अँधियारा / धो डालेगा 
उजला किरनें / बो डालेगा
दुर्गम राहों / की भी कटी / सभी बाधाएँ
कविता का आनंद तब ही है, जब कवि का कहने का तरीका किसी और से सादृश्य न रखता हो। इसीलिए ग़ालिब के बारे में कहा जाता है 'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और'। इन नवगीतों की कहन बोलचाल के साधारण शब्दों में असाधारण अर्थ भर देती है।
मौसम अंगार है / सुआ कुतरे आम
कुत्ते सा हाँफ रहे / हैं आठों याम 
रातों का / सुरमा है / आँजती हवाएँ
अविनाश कल्पना के कपोल कल्पना न होने देकर उसे यथार्थ जोड़े रखते हैं-
सुख दुख / दूर खड़े 
सब कुछ / मोबाइल है 
कब किस पर / क्या गाज गिरी है
बहरों से आवाज / गिरी है
अविनाश के लिए शब्द अर्थ की अभिव्यक्ति की साधन मात्र है, वह किसी भी भाषा-नदिया बोली का हो। वे पचेली, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी के शब्दों को हिंदी के शब्दों की तरह बिना किसी भेदभाव के वापरते हैं। मोबाइल, फर्टाइल, फाइल, नेचर, फ्लर्ट, पैट्रोलिंग, रोलिंग जैसे अंग्रेज़ी शब्द, एहतियात, फ़ितरत, बदहवास, दहशत, महसूल जैसे उर्दू लफ्ज, लबरी, घिनौची, बिरवा, अमुआ, लुनाई जैसे देशज शब्द गले मिलकर इन नवगीतों में चार चाँद लगाते हैं पर पाठ्य-त्रुटियाँ केसर की खीर में कंकर की तरह है। बिंदी और चंद्र बिंदी का अंतर न समझा जाए तो रंग में भंग हो जाता है।
नवगीत का वैशिष्ट्य लाक्षणिकता है। इन नवगीतों में बिंब, प्रतीक अनूठे और मौलिक हैं। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कह सकने का माद्दा नवगीतकार को असीम संभावनाओं का पथ दिखाता है। 
***
संजीव

लकार

 *लकार*

*

संस्कृत में लट् , लिट् , लुट् , लृट् , लेट् , लोट् , लङ् , लिङ् , लुङ् , लृङ् – ये दस लकार होते हैं। वास्तव में ये दस प्रत्यय हैं जो धातुओं में जोड़े जाते हैं। इन दसों प्रत्ययों के प्रारम्भ में 'ल' है इसलिए इन्हें 'लकार' कहते हैं (ठीक वैसे ही जैसे ॐकार, अकार, इकार, उकार इत्यादि)। इन दस लकारों में से आरम्भ के छः लकारों के अन्त में 'ट्' है- लट् लिट् लुट् आदि इसलिए ये टित् लकार कहे जाते हैं और अन्त के चार लकार ङित् कहे जाते हैं क्योंकि उनके अन्त में 'ङ्' है। व्याकरणशास्त्र में जब धातुओं से पिबति, खादति आदि रूप सिद्ध किये जाते हैं तब इन टित् और ङित् शब्दों का बहुत बार प्रयोग किया जाता है। इन लकारों का प्रयोग विभिन्न कालों की क्रिया बताने के लिए किया जाता है। जैसे – जब वर्तमान काल की क्रिया बतानी हो तो धातु से लट् लकार जोड़ देंगे, परोक्ष भूतकाल की क्रिया बतानी हो तो लिट् लकार जोड़ेंगे। (१) लट् लकार वर्तमान काल) जैसे :- श्यामः खेलति । ( श्याम खेलता है।) (२) लिट् लकार अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) जो अपने साथ न घटित होकर किसी इतिहास का विषय हो । जैसे :-- रामः रावणं ममार । ( राम ने रावण को मारा ।) (३) लुट् लकार अनद्यतन भविष्यत् काल) जो आज का दिन छोड़ कर आगे होने वाला हो । जैसे :-- सः परश्वः विद्यालयं गन्ता । ( वह परसों विद्यालय जायेगा ।) (४) लृट् लकार सामान्य भविष्य काल) जो आने वाले किसी भी समय में होने वाला हो । जैसे :--- रामः इदं कार्यं करिष्यति । (राम यह कार्य करेगा।) (५) लेट् लकार यह लकार केवल वेद में प्रयोग होता है, ईश्वर के लिए, क्योंकि वह किसी काल में बंधा नहीं है।) (६) लोट् लकार ये लकार आज्ञा, अनुमति लेना, प्रशंसा करना, प्रार्थना आदि में प्रयोग होता है ।) जैसे :- भवान् गच्छतु । (आप जाइए ) ; सः क्रीडतु । (वह खेले) ; त्वं खाद । (तुम खाओ ) ; किमहं वदानि । (क्या मैं बोलूँ ?) (७) लङ् लकार अनद्यतन भूत काल ) आज का दिन छोड़ कर किसी अन्य दिन जो हुआ हो । जैसे :- भवान् तस्मिन् दिने भोजनमपचत् । (आपने उस दिन भोजन पकाया था।) (८) लिङ् लकार = इसमें दो प्रकार के लकार होते हैं :-- (क) आशीर्लिङ् किसी को आशीर्वाद देना हो) जैसे :- भवान् जीव्यात् (आप जीओ ) ; त्वं सुखी भूयात् । (तुम सुखी रहो।) (ख) विधिलिङ् किसी को विधि बतानी हो ।) जैसे :- भवान् पठेत् । (आपको पढ़ना चाहिए।) ; अहं गच्छेयम् । (मुझे जाना चाहिए।) (९) लुङ् लकार सामान्य भूत काल) जो कभी भी बीत चुका हो । जैसे :- अहं भोजनम् अभक्षत् । (मैंने खाना खाया।) (१०) लृङ् लकार ऐसा भूत काल जिसका प्रभाव वर्तमान तक हो) जब किसी क्रिया की असिद्धि हो गई हो । जैसे :- यदि त्वम् अपठिष्यत् तर्हि विद्वान् भवितुम् अर्हिष्यत् । (यदि तू पढ़ता तो विद्वान् बनता।) इस बात को स्मरण रखने के लिए कि धातु से कब किस लकार को जोड़ेंगे, निम्नलिखित श्लोक स्मरण कर लीजिए- लट् वर्तमाने लेट् वेदे भूते लुङ् लङ् लिटस्तथा । विध्याशिषोर्लिङ् लोटौ च लुट् लृट् लृङ् च भविष्यति ॥ (अर्थात् लट् लकार वर्तमान काल में, लेट् लकार केवल वेद में, भूतकाल में लुङ् लङ् और लिट्, विधि और आशीर्वाद में लिङ् और लोट् लकार तथा भविष्यत् काल में लुट् लृट् और लृङ् लकारों का प्रयोग किया जाता है।) *लकारों के नाम याद रखने की विधि-* ल् में प्रत्याहार के क्रम से ( अ इ उ ऋ ए ओ ) जोड़ दें और क्रमानुसार ( ट् ) जोड़ते जाऐं । फिर बाद में ( ङ् ) जोड़ते जाऐं जब तक कि दश लकार पूरे न हो जाएँ । जैसे लट् लिट् लुट् लृट् लेट् लोट् लङ् लिङ् लुङ् लृङ् ॥ इनमें लेट् लकार केवल वेद में प्रयुक्त होता है । लोक के लिए नौ लकार शेष रहे । अब इन नौ लकारों में लङ् के दो भेद होते हैं :-- आशीर्लिङ् और विधिलिङ् । इस प्रकार लोक में दश के दश लकार हो गए ।

नर्मदा कथा १

 नर्मदा कथा १

*
माँ नर्मदा! जगतारिणी।
सुरमोहिनी, शिवभावनी।।
हे चंद्रबिंदु सुसज्जिता।
हे स्वेद-धार निमज्जिता।।
गिरि अमरकंटक से बहीं।
युग-चेतना अनगिन तहीं।।
हे वंशलोचनवंशिनी।
रुद्राक्षतनया हंसिनी।।
हर कष्ट लूँ सब सृष्टि के।
दूँ मिटा क्लेश अवृष्टि के।।
प्रगटीं पुलक मेकलसुता।
भवतारिणी माँ अमृता।।
माई की बगिया मन रुची।
थी साथ प्रिय जुहिला सखी।।
गुलबकावली लाया-खिला।
था शोणभद्र लगा भला।।
दुर्भाग्य जुहिला-शोण का।
छिप मिले; सोन मुड़ा वृथा।।
मुँह मोड़, शिव को था भजा।
जा कपिलधारा दुःख तजा।।
शिव ने दिए वरदान दो।
कर प्रलय-जय, माँ-क्वाँरि हो।।
कंकर बने शंकर जहाँ।
सुर-नर-असुर तापस तहाँ।।
सँग ऋक्ष-वानर-नाग हो।
मनु-संस्कृति की फसल बो।।
तुम दूध धारा तृप्तिदा।
मिलती शिवानी भक्तिदा।।
जा घाट चंदन ले नहा।
मठ कुकर्रा हर दुःख दहा।।
डिम-डिम सतत डमरू बजा।
तहँ ग्राम डिंडोरी बसा।।
यश नंदिकेश गगन छुए।
दे नाँदि-पाठ अमर हुए।।
है बाँध बरगी, पायली।
छवि नयन को लगती भली।।
टेमर मिले, झट गौर भी।
रव करें 'रेवा' शोर भी।।
है घाट सिद्ध व जिलहरी।
गौरी तपस्या जहँ करी।।
क्रमश:
संजीव
२.११.२०१८, ७९९९५५९६१८
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समीक्षा-- काल है संक्रांति का...डा श्याम गुप्त

 पुस्तक समीक्षा-- काल है संक्रांति का...डा श्याम गुप्त

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समीक्ष्य कृति- काल है संक्रांति का...रचनाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण- २०१६, मूल्य- २००/-, आवरण– मयंक वर्मा, रेखांकन- अनुप्रिया, प्रकाशक-समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, जबलपुर.. समीक्षक- डा. श्याम गुप्त, लखनऊ|
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साहित्य जगत में समन्वय के साहित्यकार, कवि हैं आचार्य संजीव वर्मा सलिल | प्रस्तुत कृति ‘काल है संक्रांति का’ की सार्थकता का प्राकट्य मुखपृष्ठ एवं शीर्षक से ही होजाता है | वास्तव में ही यह संक्रांति-काल है, जब सभी जन व वर्ग भ्रमित अवस्था में हैं | एक और अंग्रेज़ी का वर्चस्व जहां चमक-धमक वाली विदेशी संस्कृति दूर से सुहानी लगती है; दूसरी और हिन्दी –हिन्दुस्तान का, भारतीय स्व संस्कृति का प्रसार जो विदेश बसे को भी अपनी मिट्टी की और खींचता है | या तो अँगरेज़ होजाओ या भारतीय –परन्तु समन्वय ही उचित पंथ होता है हर युग में जो विद्वानों, साहित्यकारों को ही करना होता है | सलिल जी की साहित्यिक समन्वयक दृष्टि का एक उदाहरण प्रस्तुत है- गीत अगीत प्रगीत न जानें / अशुभ भुला शुभ को पहचानें |
माँ शारदा से पहले, ब्रह्म रूप में चित्रगुप्त की वन्दना भी नवीनता है | कवि की हिन्दी भक्ति वन्दना में भी छलकती है –‘हिन्दी हो भावी जग वाणी / जय जय वीणापाणी’ |
यह कृति लगभग १४ वर्षों के लम्बे अंतराल में प्रस्तुत हुई है | इस काल में कितनी विधाएं आईं–गईं, कितनी साहित्यिक गुटबाजी रही, सलिल मौन दृष्टा की भांति गहन दृष्टि से देखने के साथ साथ उसकी जड़ों को, विभिन्न विभागों को अपने काव्य व साहित्य-शास्त्रीय कृतित्वों से पोषण दे रहे थे, जिसका प्रतिफल है यह कृति|
कितना दुष्कर है बहते सलिल को पन्ने पर रोकना उकेरना | समीक्षा लिखते समय मेरा यही भाव बनता था जिसे मैंने संक्षिप्त में काव्य-रूपी समीक्षा में इस प्रकार व्यक्त किया है-
“शब्द सा है मर्म जिसमें, अर्थ सा शुचि कर्म जिसमें |
साहित्य की शुचि साधना जो, भाव का नव धर्म जिसमें |
उस सलिल को चाहता है, चार शब्दों में पिरोना ||”
सूर्य है प्रतीक संक्रांति का, आशा के प्रकाश का, काल की गति का, प्रगति का | अतः सूर्य के प्रतीक पर कई रचनाएँ हैं | ‘जगो सूर्य लेकर आता है अच्छे दिन’ ( -जगो सूर्य आता है ) में आशावाद है, नवोन्मेष है जो उन्नाकी समस्त साहित्य में व इस कृति में सर्वत्र परिलक्षित है | ‘मानव की आशा तुम, कोशिश की भाषा तुम’ (-उगना नित) ‘छंट गए हैं फूट के बादल, पतंगें एकता की उडाओ”(-आओ भी सूरज ) |
पुरुषार्थ युत मानव, शौर्य के प्रतीक सूर्य की भांति प्रत्येक स्थित में सम रहता है | ‘उग रहे या ढल रहे तुम, कान्त प्रतिपल रहे सूरज’ तथा ‘आस का दीपक जला हम, पूजते हैं उठ सवेरे, पालते या पल रहे तुम ‘(-उग रहे या ढल रहे ) से प्रकृति के पोषण-चक्र, देव-मनुज नाते का कवि हमें ज्ञान कराता है | शिक्षा की महत्ता – ‘सूरज बबुआ’ में, सम्पाती व हनुमान की पौराणिक कथाओं के संज्ञान से इतिहास की भूलों को सुधारकर लगातार उद्योग व हार न मानने की प्रेरणा दी गयी है ‘छुएँ सूरज’ रचना में | शीर्षक रचना ‘काल है संक्रांति का’ प्रयाण गीत है, ‘काल है संक्रांति का, तुम मत थको सूरज’ ..सूर्य व्यंजनात्मक भाव में मानवता के पौरुष का,ज्ञान का व प्रगति का प्रतीक है जिसमें चरैवेति-चरैवेति का सन्देश निहित है | यह सूर्य स्वयं कवि भी होसकता है | “
युवा पीढ़ी को स्व-संस्कृति का ज्ञान नहीं है कवि व्यथित हो स्पष्टोक्ति में कह उठता है –
‘जड़ गँवा जड़ युवापीढी, काटती है झाड, प्रथा की चूनर न भाती, फैकती है फाड़ /
स्वभाषा भूल इंग्लिश से लड़ाती लाड |’
यदि हम शुभ चाहते हैं तो सभी जीवों पर दया करें एवं सामाजिक एकता व परमार्थ भाव अपनाएं | कवि व्यंजनात्मक भाव में कहता है ---‘शहद चाहैं, पाल माखी |’ (-उठो पाखी )| देश में भिन्न भिन्न नीतियों की राजनीति पर भी कवि स्पष्ट रूप से तंज करता है..’धारा ३७० बनी रहेगी क्या’/ काशी मथुरा अवध विवाद मिटेंगे क्या’ | ‘ओबामा आते’ में आज के राजनीतिक-व्यवहार पर प्रहार है |
अंतरिक्ष पर तो मानव जारहा है परन्तु क्या वह पृथ्वी की समस्याओं का समाधान कर पाया है यह प्रश्न उठाते हुए सलिल जी कहते हैं..’मंगल छू / भू के मंगल का क्या होगा |’ ’सिंधी गीत ‘सुन्दरिये मुंदरिये ’...बुन्देली लोकगीत ‘मिलती कायं नें’ कवि के समन्वयता भाव की ही अभिव्यक्ति है |
प्रकृति, पर्यावरण, नदी-प्रदूषण, मानव आचरण से चिंतित कवि कह उठता है –
‘कर पूजा पाखण्ड हम / कचरा देते डाल |..मैली होकर माँ नदी / कैसे हो खुशहाल |’
‘जब लौं आग’ में कवि उत्तिष्ठ जागृत का सन्देश देता है कि हमारी अज्ञानता ही हमारे दुखों का कारण है-
‘मोड़ तोड़ हम फसल उगा रये/ लूट रहे व्यौपार |जागो बनो मशाल नहीं तो / घेरे तुमें अन्धेरा |
धन व शक्ति के दुरुपयोग एवं वे दुरुपयोग क्यों कर पा रहे हैं, ज्ञानी पुरुषों की अकर्मण्यता के कारण | सलिल जी कहते हैं हैं---‘रुपया जिसके पास है / उद्धव का संन्यास है /सूर्य ग्रहण खग्रास है |’ (-खासों में ख़ास है )
पेशावर के नरपिशाच..तुम बन्दूक चलाओ तो..मैं लडूंगा ..आदि रचनाओं में शौर्य के स्वर हैं| छद्म समाजवाद की भी खबर ली गयी है –‘लड़वाकर / मामला सुलझाए समाजवादी’ |
पुरखों पूर्वजों के स्मरण बिना कौन उन्नत हो पाया है, अतः सभी पूर्व, वर्त्तमान, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष पुरखों , पितृजनों के एवं उनकी सीख का स्मरण में नवता का एक और पृष्ठ है ‘स्मरण’ रचना में –
‘काया माया छाया धारी / जिन्हें जपें विधि हरि त्रिपुरारी’
‘कलम थमाकर कर में बोले / धन यश नहीं सृजन तब पथ हो |’ क्योंकि यश व पुरस्कार की आकांक्षा श्रेष्ठ सृजन से वंचित रखती है | नारी-शक्ति का समर्पण का वर्णन करते हुए सलिल जी का कथन है –
‘बनी अग्रजा या अनुजा तुम / तुमने जीवन सरस बनाया ‘ (-समर्पण ) | मिली दिहाड़ी रचना में दैनिक वेतन-भोगी की व्यथा उत्कीर्णित है |
‘लेटा हूँ ‘ रचना में श्रृंगार की झलक के साथ पुरुष मन की विभिन्न भावनाओं, विकृत इच्छाओं का वर्णन है | इस बहाने झाडूवाली से लेकर धार्मिक स्थल, राजनीति, कलाक्षेत्र, दफ्तर प्रत्येक स्थल पर नारी-शोषण की संभावना का चित्र उकेरा गया है | ‘राम बचाए‘ में जन मानस के व्यवहार की भेड़चाल का वर्णन है –‘मॉल जारहे माल लुटाने / क्यों न भीड़ से भिन्न हुए हम’| अनियंत्रित विकास की आपदाएं ‘हाथ में मोबाइल’ में स्पष्ट की गयी हैं|
‘मंजिल आकर’ एवं ‘खुशियों की मछली’ नवगीत के मूल दोष भाव-सम्प्रेषण की अस्पष्टता के उदाहरण हैं | वहीं आजकल समय बिताने हेतु, कुछ होरहा है यह दिखाने हेतु, साहित्य एवं हर संस्था में होने वाले विभिन्न विषयों पर सम्मेलनों, वक्तव्यों, गोष्ठियों, चर्चाओं की निरर्थकता पर कटाक्ष है—‘दिशा न दर्शन’ रचना में ...
‘क्यों आये हैं / क्या करना है |..ज्ञात न पर / चर्चा करना है |’
राजनैतिक गुलामी से मुक्त होने पर भी अभी हम सांस्कृतिक रूप से स्वतंत्र नहीं हुए हैं | वह वास्तविक आजादी कब मिलेगी, कृतिकार के अनुसार, इसके लिए मानव बनना अत्यावश्यक है ....
‘सुर न असुर हम आदम यदि बन जायेंगे इंसान, स्वर्ग तभी होपायेगा धरती पर आबाद |’
सार्वजनिक जीवन व मानव आचरण में सौम्यता, समन्वयता, मध्यम मार्ग की आशा की गयी है ताकि अतिरेकता, अति-विकास, अति-भौतिक उन्नति के कारण प्रकृति, व्यक्ति व समाज का व्यबहार घातक न हो जाए-
‘पर्वत गरजे, सागर डोले / टूट न जाएँ दीवारें / दरक न पायें दीवारे |’
इस प्रकार कृति का भावपक्ष सबल है | कलापक्ष की दृष्टि से देखें तो जैसा कवि ने स्वयं कहा है ‘गीत-नवगीत‘ अर्थात सभी गीत ही हैं | कई रचनाएँ तो अगीत-विधा की हैं –‘अगीत-गीत’ हैं| वस्तुतः इस कृति को ‘गीत-अगीत-नवगीत संग्रह’ कहना चाहिए | सलिल जी काव्य में इन सब छंदों-विभेदों के द्वन्द नहीं मानते अपितु एक समन्वयक दृष्टि रखते हैं, जैसा उन्होंने स्वयम कहा है- ‘कथन’ रचना में --
‘गीत अगीत प्रगीत न जानें / अशुभ भुला शुभ को पहचाने |’
‘छंद से अनुबंध दिखता या न दिखता / किन्तु बन आरोह या अवरोह पलता |’
‘विरामों से पंक्तियाँ नव बना / मत कह, छंद हीना / नयी कविता है सिरजनी |’
सलिल जी लक्षण शास्त्री हैं | साहित्य, छंद आदि के प्रत्येक भाव, भाग-विभाग का व्यापक ज्ञान व वर्णन कृति में प्रतुत किया गया है| विभिन्न छंदों, मूलतः सनातन छंदों –दोहा, सोरठा, हरिगीतिका, आल्ह छंद, लोकधुनों के आधार पर नवगीत रचना दुष्कर कार्य है | वस्तुतः ये विशिष्ट नवगीत हैं, प्रायः रचे जाने वाले अस्पष्ट सन्देश वाले तोड़ मरोड़कर लिखे जाने वाले नवगीत नहीं हैं | सोरठा पर आधारित एक गीत देखें-
‘आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता |
करता नहीं ख़याल, नयन कौन सा फड़कता ||’
कृति की भाषा सरल, सुग्राह्य, शुद्ध खड़ीबोली हिन्दी है | विषय, स्थान व आवश्यकतानुसार भाव-सम्प्रेषण हेतु देशज व बुन्देली का भी प्रयोग किया गया है- यथा ‘मिलती कायं नें ऊंची वारी/ कुरसी हमकों गुइयाँ |’ उर्दू के गज़लात्मक गीत का एक उदाहरण देखें—
‘ख़त्म करना अदावत है / बदल देना रवायत है /ज़िंदगी गर नफासत है / दीन-दुनिया सलामत है |’
अधिकाँश रचनाओं में प्रायः उपदेशात्मक शैली का प्रयोग किया गया है | वर्णानात्मक व व्यंगात्मक शैली का भी यथास्थान प्रयोग है | कथ्य-शैली मूलतः अभिधात्मक शब्द भाव होते हुए भी अर्थ-व्यंजना युक्त है | एक व्यंजना देखिये –‘अर्पित शब्द हार उनको / जिनमें मुस्काता रक्षाबंधन |’ एक लक्षणा का भाव देखें –
‘राधा हो या आराधा सत शिव / उषा सदृश्य कल्पना सुन्दर |’
विविध अलंकारों की छटा सर्वत्र विकिरित है –‘अनहद अक्षय अजर अमर है /अमित अभय अविजित अविनाशी |’ में अनुप्रास का सौन्दर्य है | ‘प्रथा की चूनर न भाती ..’ व उनके पद सरोज में अर्पित / कुमुद कमल सम आखर मनका |’ में उपमा दर्शनीय है | ‘नेता अफसर दुर्योधन, जज वकील धृतराष्ट्र..’ में रूपक की छटा है तो ‘कुमुद कमल सम आखर मनका’ में श्लेष अलंकार है | उपदेशात्मक शैली में रसों की संभावना कम ही रहती है तथापि ओबामा आते, मिलती कायं नें, लेटा हूँ में हास्य व श्रृंगार का प्रयोग है | ‘कलश नहीं आधार बनें हम..’ में प्रतीक व ‘आखें रहते भी सूर’ व ‘पौवारह’ कहावतों के उदाहरण हैं | ‘गोदी चढ़ा उंगलियाँ थामी/ दौड़ा गिरा उठाया तत्क्षण ‘.. में चित्रमय विम्ब-विधान का सौन्दर्य दृष्टिगत है |
पुस्तक आवरण के मोड़-पृष्ठ पर सलिल जी के प्रति विद्वानों की राय एवं आवरण व सज्जाकारों के चित्र, आचार्य राजशेखर की काव्य-मीमांसा का उद्धरण एवं स्वरचित दोहे भी अभिनव प्रयोग हैं | अतः वस्तुपरक व शिल्प सौन्दर्य के समन्वित दृष्टि भाव से ‘काल है संक्रांति का’ एक सफल कृति है | इसके लिए श्री संजीव वर्मा सलिल जी
बधाई
के पात्र हैं |
. ----डा श्याम गुप्त
लखनऊ . दि.११.१०.२०१६
विजय दशमी सुश्यानिदी , के-३४८, आशियाना , लखनऊ-२२६०१२.. मो.९४१५१५६४६४

समीक्षा काल है संक्रांति का, राकेश खंडेलवाल

समीक्षा 
'काल है संक्रांति का'' एक काव्य-समीक्षा 
-राकेश खंडेलवाल


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[पुस्तक परिचय - काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ म. प्र., प्रकाशन वर्ष २०१६,मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैंक २००/-, 
चलभाष ९४२५१८३२४४, दूरलेख salil.sanjiv@gmail.com ]
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जिस संक्रान्ति काल की अब तक जलती हुई प्रतीक्षायें थीं
आज समय के वृहद भाल पर वह हस्ताक्षर बन कर उभरा
नवगीतों ने नवल ताल पर किया नई लय का अन्वेषण
एक छन्द में हुआ समाहित बरस-बरस का अन्तर्वेदन
सहज शब्द में गुँथा हुआ जो भाव गूढ़, परिलक्ष हो रहा
उपन्यास जो कह न सके हैं, वह रचना में व्यक्त हो रहा
शारद की वीणा के तारों की झंकृत होती सरगम से
सजा हुआ हर वाक्य, गीत में मुक्तामणियों जैसा सँवरा 
हर रस के भावों को विस्तृत करते हुये शतगुणितता में
शब्द और उत्तर दोनों ही चर्चित करते हर कविता में
एक शारदासुत के शब्दों का गर्जनस्वर और नियोजन
वाक्य-वाक्य में मंत्रोच्चारों सा परिवर्तन का आवाहन
जनमानस के मन में जितना बिखरा सा अस्पष्ट भाव था
बहते हुये सलिल-धारा में शतदल कमल बना, खिल निखरा
अलंकार के स्वर्णाभूषण, मधुर लक्षणा और व्यंजना
शब्दों की संतुलित प्रविष्टि कर, हाव-भाव से छंद गूँथना
सहज प्रवाहित काव्य सुधामय गीतों की अविरल रस धारा
जितनी बार पढो़, मन कहता एक बार फिर पढें दुबारा
इतिहासों पर रखी नींव पर नव-निर्माण नई सोचों का
नई कल्पना को यथार्थ का दिया कलेवर इसने गहरा.
***

समीक्षा काल है संक्रांति का, संतोष कुमार माथुर

समीक्षा-
"काल है संक्रांति का" आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की अनुपम नवगीत कृति 
- इंजी. संतोष कुमार माथुर, लखनऊ 
*
एक कुशल अभियंता, मूर्धन्य साहित्यकार, निष्णात संपादक, प्रसिद्ध समीक्षक, कुशल छंदशास्त्री, समर्पित समाजसेवी पर्यावरणप्रेमी, वास्तुविद अर्थात बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी की नवीनतम पुस्तक "काल है संक्रांति का" पढ़ने का सुअवसर मिला। गीत-नवगीत का यह संग्रह अनेक दृष्टियों से अनुपम है। 
'संक्रांति' का अर्थ है एक क्षेत्र, एक पद्धति अथवा एक व्यवस्था से दूसरे क्षेत्र, व्यवस्था अथवा पद्धति में पदार्पण। इंजी. सलिल की यह कृति सही अर्थों में संक्रांति की द्योतक है। 
प्रथम संक्रांति- गीति 
सामान्यत: किसी भी कविता संग्रह के आरम्भ में भूमिका के रूप में किसी विद्वान द्वारा कृति का मूल्यांकन एवं तदोपरांत रचनाकार का आत्म निवेदन अथवा कथन होता है। इस पुस्तक में इस प्रथा को छोड़कर नई प्रथा स्थापित करते हुए गद्य के स्थान पर पद्य रूप में कवि ने 'वंदन', 'स्मरण', 'समर्पण' और 'कथन' सम्मिलित करते हुए गीत / नवगीत के शिल्प और कथ्य के लक्षण इंगित किये हैं - 
'नव्यता संप्रेषणों में जान भरती 
गेयता संवेदनों का गान करती 
कथ्य होता तथ्य का आधार खाँटा 
सधी गति-यति अंतरों का मान बनती 
अंतरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता
.
छंद से संबंध दिखता या न दिखता 
किंतु बन आरोह या अवरोह पलता' 
.
'स्मरण' के अंतर्गत सृष्टि आरम्भ से अब तक अपने पूर्व हुए सभी पूर्वजों को प्रणिपात कर सलिल धरती के हिंदी-धाम होने की कामना करने के साथ-साथ नवरचनाकारों को अपना स्वजन मानते हुए उनसे जुड़कर मार्गदर्शन करने का विचार व्यक्त करते हैं- 
'मिटा दूरियाँ, गले लगाना 
नवरचनाकारों को ठानें 
कलश नहीं, आधार बन सकें 
भू हो हिंदी धाम'
'समर्पण' में सलिल जी ने यह संग्रह अनंत शक्ति स्वरूपा नारी के भगिनी रूप को समर्पित किया है। नारी शोषण की प्रवृत्ति को समाप्त कर नारी सशक्तिकरण के इस युग में यह प्रवृत्ति अभिनंदनीय है। 
'बनीं अग्रजा या अनुजा तुम 
तुमने जीवन सरस बनाया 
अर्पित शब्द-सुमन स्वीकारे 
नेहिल नाता मन को भाया' 
द्वितीय संक्रांति-विधा 
बहुधा काव्य संग्रह या तो पारंपरिक छंदों में रचित 'गीत संग्रह' होता है, या नये छंदों में रचित 'नवगीत संग्रह' अथवा छंदहीन कविताओं का संग्रह होता है। इंजी. सलिल जी ने पुस्तक के शीर्षक के साथ ही गीत-नवगीत लिखकर एक नयी प्रथा में पदार्पण किया है कि गीत-नवगीत एक दूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं, एक दूसरे के पूरक हैं और इसलिए एक घर में रहते पिता-पुत्र की तरह उन्हें एक संकलन में रखा जा सकता हैं। उनके इस कदम का भविष्य में अन्यों द्वारा अनुकरण होगा।
तृतीय संक्रांति- भाषा 
एक संकलन में अपनी रचनाओं हेतु कवि बहुधा एक भाषा-रूप का चयन कर उसी में कविता रचते हैं। सलिल जी ने केवल 'खड़ी बोली' की रचनाएँ सम्मिलित न कर 'बुंदेली' तथा लोकगीतों के उपयुक्त देशज भाषा-रूप में रचित गीति रचनाएँ भी इस संकलन में सम्मिलित की हैं तथा तदनुसार ही छन्द-विधान का पालन किया है। यह एक नयी सोच और परंपरा की शुरुआत है। इस संग्रह की भाषा मुख्यत: सहज एवं समर्थ खड़ी बोली है जिसमें आवश्यकतानुसार उर्दू, अंग्रेजी एवं बुंदेली के बोलचाल में प्रचलित शब्दों का निस्संकोच समावेश किया गया है। 
प्रयोग के रूप में पंजाब के दुल्ला भट्टी को याद करते हुई गाये जानेवाले लोकगीतों की तर्ज पीर 'सुंदरिये मुंदरिये होय' रचना सम्मिलित की गयी है। इसी प्रकार बुंदेली भाषा में भी तीन रचनाएँ जिसमें 'आल्हा' की तर्ज पर लिखी गयी रचना भी है, इस संग्रह में संग्रहीत हैं।
इस संग्रह में काव्यात्मक 'समर्पण' एवं 'कथन' को छोड़कर ६३ रचनाएँ हैं।यह एक सुखद संयोग ही है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के समय कविवर सलिल जी की आयु भी ६३ वर्ष ही है। 
चतुर्थ संक्रांति- विश्वात्म दृष्टि और विज्ञान
कवि ने आरम्भ में निराकार परात्पर परब्रम्ह का 'वन्दन' करते हुए महानाद के विस्फोट से व्युत्पन्न ध्वनि तरंगों के सम्मिलन-घर्षण के परिणामस्वरूप बने सूक्ष्म कणों से सृष्टि सृजन के वैज्ञानिक सत्य को इंगित कर उसे भारतीय दर्शन के अनुसार अनादि-अनंत, अक्षय-अक्षर कहते हुए सुख-दुःख के प्रति समभाव की कामना की है-
'आदि-अंत, क्षय-क्षर विहीन हे! 
असि-मसि, कलम-तूलिका हो तुम 
गैर न कोई सब अपने हैं-
काया में हैं आत्म सभी हम 
जन्म-मरण, यश-अपयश चक्रित 
छाया-माया, सुख-दुःख हो सम' 
पंचम संक्रांति- छंद वैविध्य 
कवि ने अपनी नवगीत रचनाओं में छन्द एवं लयबद्धता का विशेष ध्यान रखा है जिससे हर रचना में एक अविकल भाषिक प्रवाह परिलक्षित होता है। प्रचलित छन्दों यथा दोहा-सोरठा के अतिरिक्त कवि ने कतिपय कम प्रचलित छंदों में भी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। आचार्यत्व का निर्वहन करते हुए कवि ने जहाँ विशिष्ट छंदों का उपयोग किया है वहाँ जिज्ञासु पाठकों एवं छात्रों के हितार्थ उनका स्पष्ट उल्लेख भी रचना के अंत में नीचे कर दिया है। यथा महाभागवत जातीय सार छंद, हरिगीतिका छंद, आल्हा छंद, मात्रिक करुणाकर छंद, वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद आदि। कुछ रचनाओं में कवि ने एकाधिक छन्दों का प्रयोग कर अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया है। यथा एक रचना में मात्रिक करुणाकर तथा वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद दोनों के मानकों का पालन किया है जबकि दो अन्य रचनाओं में मुखड़े में दोहा तथा अंतरे में सोरठा छंद का समन्वय किया है। 
विषयवस्तु-
विषय की दृष्टि से कवि की रचनाओं यथा 'इतिहास लिखें हम', 'मन्ज़िल आकर' एवं 'तुम बन्दूक चलाओ' में आशावादिता स्पष्ट परिलक्षित होती है। 
'समाजवादी', 'अगले जनम', 'लोकतन्त्र का पंछी', 'ग्रंथि श्रेष्ठता की', 'जिम्मेदार नहीं हैं नेता' एवं 'सच की अर्थी' में व्यवस्था के प्रति आक्रोश है। जीवन का कड़वा सच 'मिली दिहाड़ी' एवं 'वेश सन्त का' जैसी रचनाओं में भी उजागर हुआ है। 'राम बचाये' एवं 'हाथों में मोबाइल' रचनाएँ आधुनिक जीवनशैली पर कटाक्ष हैं। 'समर्पण' एवं 'काम तमाम' में नारी-प्रतिभा को उजागर किया गया है। कुछ रचनाओं यथा 'छोड़ो हाहाकार मियाँ', 'खों-खों करते' तथा 'लेटा हूँ' आदि में तीखे व्यंग्य बाण भी छोड़े गये हैं। सामयिक घटनाओं से प्रभावित होकर कवि ने 'ओबामा आते', पेशावर के नरपिशाच' एवं 'मैं लड़ूँगा' जैसी रचनाएँ भी लिपिबद्ध की हैं। 
विषयवस्तु के संबंध में कवि की विलक्षण प्रतिभा का उदाहरण है एक ही विषय 'सूरज' पर लिखे सात तथा अन्य विषय 'नव वर्ष' पर रचित पाँच नवगीत। इस रचनाओं में यद्यपि एकरसता परिलक्षित नहीं होती तथापि लगातार एक ही विषय पर अनेक रचनाएँ पाठक को विषय की पुनरावृत्ति का अभ्यास अवश्य कराती हैं।
कुछ अन्य रचनाओं में भी शब्दों की पुरावृत्ति दृष्टिगोचर होती है। उदाहरणार्थ पृष्ठ १८ पर 'उठो पाखी' के प्रथम छंद में 'शराफत' शब्द का प्रयोग खटकता है। पृष्ठ ४३ पर 'सिर्फ सच' की १० वीं व ११ वीं पंक्ति में 'फेंक दे' की पुनरावृत्ति छपाई की भूल है। 
कुल मिलाकर कवि-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' का यह संग्रह अनेक प्रकार से सराहनीय है। ज्ञात हुआ है कि संग्रह की अनेक रचनाएँ अंतर्जाल पर बहुप्रशंसित और बहुचर्चित हो चुकी हैं। सलिल जी ने अंतरजाल पर हिंदी भाषा, व्याकरण और पिंगल के प्रसार-प्रचार और युवाओं में छन्द के प्रति आकर्षण जगाने की दिशा में सराहनीय प्रयास किया है। छन्द एवं विषय वैविध्य, प्रयोगधर्मिता, अभिनव प्रयोगात्मक गीतों-नवगीतों से सुसज्जित इस संग्रह 'काल है संक्रांति का' के प्रकाशन हेतु इंजी, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' बधाई के पात्र हैं।
*****
समीक्षक सम्पर्क- अभियंता संतोष कुमार माथुर, कवि-गीतकार, सेवा निवृत्त मुख्य अभियंता, लखनऊ।

समीक्षा काल है संक्रांति का, रोहिताश्व अस्थाना

पुस्तक समीक्षा 
आधुनिक समय का प्रमाणिक दस्तावेज 'काल है संक्रांति का' 
समीक्षक- डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, हरदोई 



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गीत संवेदनशील हृदय की कोमलतम, मार्मिक एवं सूक्ष्मतम अभिव्यक्तियों की गेयात्मक, रागात्मक एवं संप्रेषणीय अभिव्यक्ति का नाम है। गीत में प्रायः व्यष्टिवदी एवं नवगीत में समष्टिवादी स्वर प्रमुख होता है। गीत के ही शिल्प में नवगीत के अंतर्गत नई उपमाओं, एवं टटके बिंबों के सहारे दुनिया जहान की बातों को अप्रतिम प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। छन्दानुशासन में बँधे रहने के कारण गीत शाश्वत एवं सनातन विधा के रूप में प्रचलित रहा है किंतु प्रयोगवादी काव्यधारा के अति नीरस स्वरूप के विद्रोह स्वरूप नवगीत, ग़ज़ल, दोहा जैसी काव्य विधाओं का प्रचलन आरम्भ हुआ। 
अभी हाल में भाई हरिशंकर सक्सेना कृत 'प्रखर संवाद', सत्येंद्र तिवारी कृत 'मनचाहा आकाश' तथा यश मालवीय कृत 'समय लकड़हारा' नवगीत के श्रेष्ठ संकलनों के रूप में प्रकाशित एवं चर्चित हुए हैं। इसी क्रम में समीक्ष्य कृति 'काल है संक्रांति का' भाई आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के गीतों और नवगीतों की उल्लेखनीय प्रस्तुति है। सलिल जी समय की नब्ज़ टटोलने की क्षमता रखते हैं। वस्तुत: यह संक्रांति का ही काल है। आज सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में टूटने एवं बिखरने तथा उनके स्थान पर नवीन मूल्यों की प्रतिस्थापना का क्रम जारी है। कवि ने कृति के शीर्षक में इन परिस्थितियों का सटीक रेखांकन करते हुए कहा है- "काल है संक्रांति / तुम मत थको सूरज / प्राच्य पर पाश्चात्य का / चढ़ गया है रंग / शराफत को शरारत / नित का कर रही है तंग / मनुज-करनी देखकर खुद नियति भी है दंग' इसी क्रम में सूरज को सम्बोधित कई अन्य गीत-नवगीत उल्लेखनीय हैं।
कवि सत्य की महिमा के प्रति आस्था जाग्रत करते हुए कहता है- 
''तक़दीर से मत हों गिले 
तदबीर से जय हों किले 
मरुभूमि से जल भी मिले
तन ही नहीं, मन भी खिले 
करना सदा- वह जो सही।''
इतना ही नहीं कवि ने सामाजिक एवं आर्थिक विसंगति में जी रहे आम आदमी का जीवंत चित्र खींचते हुए कहा है-
"मिली दिहाड़ी 
चल बाजार। 
चवल-दाल किलो भर ले ले,
दस रुपये की भाजी। 
घासलेट का तेल लिटर भर 
धनिया मिर्ची ताज़ी।" 
सचमुच रोज कुआं खोदकर पानी पीनेवालों की दशा अति दयनीय है। इसी विषय पर 'राम बचाये' शीर्षक नवगीत की निम्न पंक्तियाँ भी दृष्टव्य है -
"राम-रहीम बीनते कूड़ा 
रजिया-रधिया झाड़ू थामे 
सड़क किनारे बैठे लोटे 
बतलाते कितने विपन्न हम ?"
हमारी नयी पीढ़ी पाश्चात्य सभ्यता के दुष्प्रभाव में अपने लोक जीवन को भी भूलती जा रही है। कम शब्दों में संकेतों के माध्यम से गहरे बातें कहने में कुशल कवि हर युवा के हाथ में हर समय दिखेत चलभाष (मोबाइल) को अपसंस्कृति का प्रतीक बनाकर एक और तो जमीन से दूर होने पर चिंतित होते हैं, दूसरी और भटक जाने की आशंका से व्यथित भी हैं- 
" हाथों में मोबाइल थामे 
गीध-दृष्टि पगडण्डी भूली,
भटक न जाए। 
राज मार्ग पर जाम लगा है 
कूचे-गली हुए हैं सूने। 
ओवन-पिज्जा का युग निर्दय
भटा कौन चूल्हे में भूने ?"
सलिल जी ने अपने कुछ नवगीतों में राजनैतिक प्रदूषण के शब्द-चित्र कमाल के खींचे हैं। वे विविध बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से बहुत कुछ ऐसा कह जाते हैं जो आम-ख़ास हर पाठक के मर्म को स्पर्श करता है और सोचने के लिए विवश भी करता है-
"लोकतंत्र का पंछी बेबस 
नेता पहले दाना डालें 
फिर लेते पर नोच। 
अफसर रिश्वत-गोली मारें
करें न किंचित सोच।"
अथवा 
"बातें बड़ी-बड़ी करते हैं,
मनमानी का पथ वरते हैं। 
बना-तोड़ते संविधान खुद 
दोष दूसरों पर धरते हैं।"
इसी प्रकार कवि के कुछ नवगीतों में छोटी-छोटी पंक्तियाँ उद्धरणीय बन पड़ी हैं। जरा देखिये- "वह जो खासों में खास है / रूपया जिसके पास है। ", "तुम बंदूक चलो तो / हम मिलकर कलम चलायेंगे। ", लेटा हूँ मखमल गादी पर / लेकिन नींद नहीं आती है। ", वेश संत का / मन शैतान। ", "अंध श्रृद्धा शाप है / बुद्धि तजना पाप है। ", "खुशियों की मछली को। / चिंता बगुला / खा जाता है। ", कब होंगे आज़ाद? / कहो हम / कब होंगे आज़ाद?" आदि। 
अच्छे दिन आने की आशा में बैठे दीन-हीन जनों को सांत्वना देते हुए कवि कहता है- "उम्मीदों की फसल / उगाना बाकी है 
अच्छे दिन नारों-वादों से कब आते हैं ?
कहें बुरे दिन मुनादियों से कब जाते हैं??"
इसी प्रकार एक अन्य नवगीत में कवि द्वारा प्रयुक्त टटके प्रतीकों एवं बिम्बों का उल्लेख आवश्यक है- 
"खों-खों करते / बादल बब्बा 
तापें सूरज सिगड़ी। 
पछुआ अम्मा / बड़बड़ करतीं 
डाँट लगातीं तगड़ी।"
निष्कर्षत: कृति के सभी गीत-नवगीत एक से बरहकर एक सुन्दर, सरस, भाव-प्रवण एवं नवीनता से परिपूर्ण हैं। इन सभी रचनाओं के कथ्य का कैनवास अत्यन्त ही विस्तृत और व्यापक है। यह सभी रचनाएँ छन्दों के अनुशासन में आबद्ध और शिल्प के निकष पर सौ टंच खरी उतरने वाली हैं। 
कविता के नाम पर अतुकांत और व्याकरणविहीन गद्य सामग्री परोसनेवाली प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं को प्रस्तुत कृति आइना दिखने में समर्थ है। कुल मिलाकर प्रस्तुत कृति पठनीय ही नहीं अपितु चिन्तनीय और संग्रहणीय भी है। इस क्षेत्र में कवि से ऐसी ही सार्थक, युगबोधक परक और मन को छूनेवाली कृतियों की आशा की सकती है। 
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[पुस्तक परिचय - काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ म. प्र., प्रकाशन वर्ष २०१६,मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैंक २००/-, चलभाष ९४२५१८३२४४]
समीक्षक- डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, निकट बावन चुंगी चौराहा, हरदोई २४१००१ उ. प्र. दूरभाष ०५८५२ २३२३९२। 
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समीक्षा काल है संक्रांति का, रामदेव लाल 'विभोर'

पुस्तक चर्चा- 
नवगीत के निकष पर "काल है संक्रांति का"
रामदेव लाल 'विभोर' 

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[पुस्तक परिचय - काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ म. प्र. दूरभाष ०७६१ २४१११३१, प्रकाशन वर्ष २०१६, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैंक २००/-, कवि संपर्क चलभाष ९४२५१८३२४४, दूरलेख salil.sanjiv@gmail.com ]
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आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' विरचित गीत-कृति "काल है संक्रांति का" पैंसठ गीतों से सुसज्जित एक उत्तम एवं उपयोगी सर्जना है। इसे कृतिकार ने गीत व नवगीत संग्रह स्वयं घोषित किया है। वास्तव में नवगीत, गीत से इतर नहीं है किन्तु अग्रसर अवश्य है। अब गीत की अजस्र धारा वैयक्तिकता व अध्यात्म वृत्ति के तटबन्ध पर कर युगबोध का दामन पकड़कर चलने लगी है। गीतों में व्याप्त कलात्मकता व भावात्मकता में नवता के स्वरूप ने उसे 'नवगीत' नामित किया है। युगानुकूल परिवर्तन हर क्षेत्र में होता आ रहा है। अत:, गीतों में भी हुआ है। नवगीत में गीत के कलेवर में नयी कविता के भाव-रंग दिखते हैं। नए बिंब, नए उपमान, नए विचार, नयी कहन, वैशिष्ट्य व देश-काल से जुडी तमाम नयी बातों ने नवगीत में भरपूर योगदान दिया है। नवगीत प्रियतम व परमात्मा की जगह दीन-दुखियों की आत्मा को निहारता है जिसे दीनबन्धु परमात्मा भी उपयुक्त समझता होगा। 
स्वर-देव चित्रगुप्त तथा वीणापाणी वंदना से प्रारंभ प्रस्तुत कृति के गीतों का अधिकांश कथ्य नव्यता का पक्षधर है। अपने गीतों के माध्यम से कृतिकार कहता है कि 'नव्यता संप्रेषणों में जान भरती' है और 'गेयता संवेदनों का गान करती' है। नवगीत को एक प्रकार से परिभाषित करनेवाली कृतिकार की इन गीत-पंक्तियों की छटा सटीक ही नहीं मनोहारी भी है। निम्न पंक्तियाँ विशेष रूप से दृष्टव्य हैं-
''नव्यता संप्रेषणों में जान भरती / गेयता संवेदनों का गान करती''
''सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती / मर्मबेधकता न हो तो रार ठनती''
''लाक्षणिकता, भाव, रस, रूपक सलोने, बिम्ब टटकापन मिले बारात सजती''
''नाचता नवगीत के संग लोक का मन / ताल-लय बिन बेतुकी क्यों रहे कथनी?''
''छंद से अनुबंध दिखता या न दिखता / किंतु बन आरोह या अवरोह पलता'' -पृष्ठ १३-१४ 
इस कृति में 'काल है संक्रांति का' नाम से एक बेजोड़ शीर्षक-गीत भी है। इस गीत में सूरज को प्रतीक रूप में रख दक्षिणायन की सूर्य-दशा की दुर्दशा को एक नायाब तरीके से बिम्बित करना गीतकार की अद्भुत क्षमता का परिचायक है। गीत में आज की दशा और कतिपय उद्घोष भरी पंक्तियों में अभिव्यक्ति की जीवंतता दर्शनीय है- 
''दक्षिणायन की हवाएँ कँपाती हैं हाड़ 
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी काटती है झाड़'' -पृष्ठ १५
"जनविरोधी सियासत को कब्र में दो गाड़ 
झोंक दो आतंक-दहशत, तुम जलाकर भाड़" -पृष्ठ १६ 
कृति के गीतों में राजनीति की दुर्गति, विसंगतियों की बाढ़, हताशा, नैराश्य, वेदना, संत्रास, आतंक, आक्रोश के तेवर आदि नाना भाँति के मंज़र हैं जो प्रभावी ही नहीं, प्रेरक भी हैं। कृति से कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
"प्रतिनिधि होकर जन से दूर / आँखें रहते भी हो सूर" -पृष्ठ २० 
"दोनों हाथ लिए लड्डू / रेवड़ी छिपा रहा नेता
मुँह में लैया-गजक भरे / जन-गण को ठेंगा देता" - पृष्ठ २१ 
"वह खासों में खास है / रुपया जिसके पास है.... 
.... असहनीय संत्रास है / वह मालिक जग दास है" - पृष्ठ ६८ 
"वृद्धाश्रम, बालश्रम और / अनाथालय कुछ तो कहते है 
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ / आँसू क्यों बहते रहते हैं?" - पृष्ठ ९४ 
"करो नमस्ते या मुँह फेरो / सुख में भूलो, दुःख में हेरो" - पृष्ठ ४७ 
ध्यान आकर्षण करने योग्य बात कि कृति में नवगीतकार ने गीतों को नव्यता का जामा पहनाते समय भारतीय वांग्मय व् परंपरा को दृष्टि में रखा है। उसे सूरज प्रतीक पसन्द है। कृति के कई गीतों में उसका प्रयोग है। चन्द पंक्तियाँ उद्धरण स्वरूप प्रस्तुत हैं - 
"चंद्र-मंगल नापकर हम चाहते हैं छुएँ सूरज"
"हनु हुआ घायल मगर वरदान तुमने दिए सूरज" -पृष्ठ ३७ 
"कैद करने छवि तुम्हारी कैमरे हम भेजते हैं" 
"प्रतीक्षा है उन पलों की गले तुमसे मिलें सूरज" - पृष्ठ ३८ 
कृति के गीतों में लक्षणा व व्यंजना शब्द-शक्तियों का वैभव भरा है। यद्यपि कतिपय यथार्थबोधक बिम्ब सरल व स्पष्ट शब्दों में बिना किसी लाग-लपेट के विद्यमान हैं किन्तु बहुत से गीत नए लहजे में नव्य दृष्टि के पोषक हैं। निम्न पंक्तियाँ देखें- 
"टाँक रही है अपने सपने / नए वर्ष में धूप सुबह की" - पृष्ठ ४२ 
"वक़्त लिक्खेगा कहानी / फाड़ पत्थर मैं उगूँगा" - पृष्ठ ७५ 
कई गीतों में मुहावरों का का पुट भरा है। कतिपय पंक्तियाँ मुहावरों व लोकोक्तियों में अद्भुत ढंग से लपेटी गई हैं जिनकी चारुता श्लाघनीय हैं। एक नमूना प्रस्तुत है- 
"केर-बेर सा संग है / जिसने देखा दंग है 
गिरगिट भी शरमा रहे / बदला ऐसा रंग है" -पृष्ठ ११५
कृति में नवगीत से कुछ इतर जो गीत हैं उनका काव्य-लालित्य किंचित भी कम नहीं है। उनमें भी कटाक्ष का बाँकपन है, आस व विश्वास का पिटारा है, श्रम की गरिमा है, अध्यात्म की छटा है और अनेक स्थलों पर घोर विसंगति, दशा-दुर्दशा, सन्देश व कटु-नग्न यथार्थ के सटीक बिम्ब हैं। एक-आध नमूने दृष्टव्य हैं -
"पैला लेऊँ कमिसन भारी / बेंच खदानें सारी 
पाछूँ घपले-घोटालों सौं / रकम बिदेस भिजा री!" - पृष्ठ ५१ 
"कर्म-योग तेरी किस्मत में / भोग-रोग उनकी किस्मत में" - पृष्ठ ८० 
वेश संत का मन शैतान / खुद को बता रहे भगवान" - पृष्ठ ८७ 
वही सत्य जो निज हित साधे / जन को भुला तन्त्र आराधें" - पृष्ठ ११८ 
कृति की भाषा अधिकांशत: खड़ी बोली हिंदी है। उसमें कहीं-कहीं आंचलिक शब्दों से गुरेज नहीं है। कतिपय स्थलों पर लोकगीतों की सुहानी गंध है। गीतों में सम्प्रेषणीयता गतिमान है। माधुर्य व प्रसाद गुण संपन्न गीतों में शांत रस आप्लावित है। कतिपय गीतों में श्रृंगार का प्रवेश नेताओं व धनाढ्यों पर ली गयी चुटकी के रूप में है। एक उदाहरण दृष्टव्य है -
इस करवट में पड़े दिखाई / कमसिन बर्तनवाली बाई 
देह साँवरी नयन कँटीले / अभी न हो पाई कुड़माई 
मलते-मलते बर्तन खनके चूड़ी / जाने क्या गाती है?
मुझ जैसे लक्ष्मीपुत्र को / बना भिखारी वह जाती है - पृष्ठ ८३ 
पूरे तौर पर यह नवगीत कृति मनोरम बन पड़ी है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' को इस उत्तम कृति के प्रणयन के लिए हार्दिक साधुवाद।
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समीक्षक संपर्क- ५६५ के / १४१ गिरिजा सदन,
अमरूदही बाग़, आलमबाग, लखनऊ २२६००५, चलभाष- ९३३५७५११८८
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समीक्षा काल है संक्रांति का, अंसार क़म्बरी

पुस्तक समीक्षा -
नव आयामी नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' 
डाॅ. अंसार क़म्बरी

*

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी का गीत-नवगीत संग्रह ‘‘काल है संक्रांति का’’ प्राप्त कर हार्दिक प्रसन्नता हुई। गीत हिन्दी काव्य की प्रभावी एवं सशक्त विधा है । इस विधा में कवि अपनी उत्कृष्ट अनुभूति एवं उन्नत अभिव्यक्ति व्दारा काव्य का ऐसा उदात्त रूप प्रस्तुत करता है जिसके अंतर्गत तत्कालीन, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों को साकार करते हुये मानव-मनोवृृत्तियों की अनेक प्रतिमायें (बिम्ब)चित्रित करता है। आत्मनिरीक्षण और शुक्ताचरण की प्रेरणा देते हुये कविवर आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है तथा नवगीत को नए आयाम दिए हैं। 
इधर समकालीन कवियों ने भी विचार बोझिल गद्य-कविता की शुष्कता से मुक्ति के लिये गीत एवं नवगीत मात्रिक छंद को अपनाना श्रेष्ठकर समझा है, जैसा कि सलिल जी ने प्रस्तुत संग्रह में बड़ी सफलता से प्रस्तुत किया हैं। प्रस्तुत संग्रह में उनकी भाषा भाव-सम्प्रेषण में कहीं अटकती नहीं है। उन्होंने आम बोलचाल के शब्दों को धड़ल्ले से प्रयोग करते हुये आंचलिक भाषा का भी समावेश किया है जो उनके गीतों का प्राण है। उनके गीत नवीन विषयों को स्वयम् में समाहित करने के उपरान्त अपनी अनुशासनबध्दता यथा- आत्माभिव्यंजकता, भाव-प्रवणता, लयात्मकता, गेयता, मधुरता एवं सम्प्रेषणीयता आदि प्रमुख तत्वों से सम्पूरित हैं अर्थात उन्होंने हिन्दी-गीत की निरंतर प्रगतिशील बहुभावीय परम्परा एवं नवीनतम विचारों के साथ गतिमान होने के बावजूद गीति-काव्य की सर्वांगीणता को पूर्णरुपेण समन्वित किया है। 
'काल है संक्रान्ति का' में नवगीतकार ने प्रत्येक गीत को एक शीर्षक दिया है जो कथ्य तक पहुँचने में सहायक होता है। आचार्य जी, चित्रगुप्त प्रभु एवं वीणापाणि के चरणों में बैठकर रचनाधर्मिता, जीवंतता तथा युगापेक्षी सारस्वत साधनारत समर्थ प्रतीक रस सिध्द कवि हैं। वंदन करते हुये वो अपनी लेखनी से विनती करते हैं:
शरणागत हम
चित्रगुप्त प्रभु !
हाथ पसारे आये।
अनहद, अक्षय, अजर, अमर हे !
अमित, अभय, अविजित, अविनाशी
निराकार-साकार तुम्हीं हो
निर्गुण-सगुण देव आकाशी।
पथ-पग, लक्ष्य, विजय-यश तुम हो
तुम मत-मतदाता प्रत्याशी।
तिमिर मिटाने
अरुणागत हम
व्दार तिहारे आये।
$ः$ः$ः
माॅै वीणापाणि को - स्तवन
सरस्वती शारद ब्रम्हाणी।
जय-जय वीणापाणी।।
अमल-धवन शुचि, विमल सनातन मैया।
बुध्दि-ज्ञान-विज्ञान प्रदायिनी छैंया।
तिमिरहारिणी, भयनिवारिणी सुखदा,
नाद-ताल, गति-यति खेलें तब कैंया।
अनहद सुनवा दो कल्याणी।
जय-जय वीणापाणी।।
उनके नवीन गीत-सृजन समसामयिक चेतना की अनुभूति एवं अभिव्यक्ति से संपन्न हैं किंतु वे प्रारम्भ में पुरखों को स्मरण करते हुए कहते है। यथा:
सुमिर लें पुरखों को हम
आओ ! करें प्रणाम।
काया-माया-छायाधारी
जिन्हें जपें विधि-हरि-त्रिपुरारी
सुर, नर, वानर, नाग, द्रविण, मय
राजा-प्रजा, पुरुष-शिशु-नारी
मूर्त-अमूर्त, अजन्मा-जन्मा
मति दो करें सुनाम।
आओ! करें प्रणाम।
पुस्तक शीर्षक को सार्थकता प्रदान करते हुये ‘संक्रांति काल है’ रचना में जनमानस को कवि झकझोरते हुये जगा रहा है। यथा:
संक्रांति काल है
जगो, उठो
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आॅैखें रहते भी हो सूर
संसद हो चैपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर।
अब भ्रांति टाल दो
जगो, उठो।
उक्त भावों को शब्द देते हुये कवि ने सूरज के माध्यम से कई रचनाएँ दी हैं जैसे - उठो सूरज, हे साल नये, जगो सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे, सूरज बबुआ, छुएँ सूरज आदि - यथा:
आओ भी सूरज।
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ।
गाओ भी सूरज।
$ः$ः$ः$ः$ः
उग रहे या ढल रहे तुम
क्रान्त प्रतिपल रहे तुम ।
उगना नित
हँस सूरज।
धरती पर रखना पग
जलना नित, बुझना मत।
उनके गीत जीवन में आये उतार-चढ़ाव, भटकाव-ठहराव, देश और समाज के बदलते रंगों के विस्तृत व विश्वसनीय भावों को उकेरते हुये परिलक्षित होते हैं। इस बात की पुष्टि के लिये पुस्तक में संग्रहीत उनके गीतों के कुछ मुखड़े दे रहा हूँ। यथा:
तुम बंदूक चलाओ तो
हम मिलकर
क़लम चलायेंगे।
$ः$ः$ः$ः
अधर पर धर अधर छिप
नवगीत का मुखड़ा कहा।
$ः$ः$ः$ः
कल के गैर
आज हैं अपने।
$ः$ः$ः$ः
कल का अपना
आज गैर है।
$ः$ः$ः$
काम तमाम, तमाम का
करतीं निश-दिन आप।
मम्मी, मैया, माॅै, महतारी
करुॅै आपका जाप।
अंत में इतना ही कह सकता हूॅै कि आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ आदर्शवादी संचेतना के कवि हैं लेकिन यथार्थ की अभिव्यक्ति करने में भी संकोच नहीं करते। अपने गीतों में उन्होंने भारतीय परिवेश की पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि विसंगतियों को सटीक रूप में चित्रित किया है। निस्संदेह, उनका काव्य-कौशल सराहनीय एवं प्रशंसनीय है। उनके गीतों में उनका समग्र व्यक्तित्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। निश्चित ही उनका प्रस्तुत गीत-नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ साहित्य संसार में सराहा जायेगा। मैं उन्हें कोटिशः बधाई एवं शुभकामनाएँ देता हूॅै और ईश्वर से प्रार्थना करता हूॅै कि वे निरंतर स्वस्थ व सानंद रहते हुए चिरायु हों और माँ सरस्वती की ऐसे ही समर्पित भाव से सेवा करते रहें।
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काल है संक्रांति का, नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', पृष्ठ १२८, रचनाएँ ६५, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपर बैंक २००/-, डाक व्यय निशुल्क, संपर्क समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४ 
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संपर्क - ज़फ़र मंज़िल’, 11/116, ग्वालटोली, कानपुर-208001, चलभाष 9450938629

समीक्षा काल है संक्रांति का, चंद्रसेन विराट

पुस्तक समीक्षा-
संक्रांति-काल की सार्थक रचनाशीलता 
कवि चंद्रसेन विराट

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' वह चमकदार हस्ताक्षर हैं जो साहित्य की कविता विधा में तो चर्चित हैं ही किन्तु उससे कहीं अधिक वह सोशल मीडिया के फेसबुक आदि माध्यमों पर बहुचर्चित, बहुपठित और बहुप्रशंसित है। वे जाने-माने पिंगलशास्त्री भी हैं। और तो और उन्होंने उर्दू के पिंगलशास्त्र 'उरूज़' को भी साध लिया है। काव्य - शास्त्र में निपुण होने के अतिरिक्त वे पेशे से सिविल इंजिनियर रहे हैं। मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग में कार्यपालन यंत्री के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। यही नहीं वे मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के अधिवक्ता भी रहे हैं। इसके पूर्व उनके चार ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। यह पाँचवी कृति 'काल है संक्रांति का' गीत-नवगीत संग्रह है। 'दिव्य नर्मदा' सहित अन्य अनेक पत्रिकाओं का सफल संपादन करने के अतिरिक्त उनके खाते में कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का संपादन अंकित है। 
गत तीन दशकों से वे हिंदी के जाने-माने प्रचलित और अल्प प्रचलित पुराने छन्दों की खोज कर उन्हें एकत्रित कर रहे हैं और आधुनिक काल के अनुरूप परिनिष्ठित हिंदी में उनके आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। यही उनके सारस्वत कार्य का वैशिष्ट्य है जो उन्हें लगातार चर्चित रखता आया है। फेसबुक तथा अंतरजाल के अन्य कई वेब - स्थलों पर छन्द और भाषा-शिक्षण की उनकी पाठशाला / कार्यशाला में कई - कई नव उभरती प्रतिभाओं ने अपनी जमीन तलाशी है। 
१२७ पृष्ठीय इस गीत - नवगीत संग्रह में उन्होंने अपनी ६५ गीति रचनाएँ सम्मिलित की हैं। विशेष रूप से उल्लेखनीय तथ्य यह है कि संग्रह में किसी की भूमिका नहीं है। और तो और स्वयं कवि की ओर से भी कुछ नहीं लिखा गया है। पाठक अनुक्रम देखकर सीधे कवि की रचनाओं से साक्षात्कार करता है। यह कृतियों के प्रकाशन की जानी-मानी रूढ़ियों को तोड़ने का स्वस्थ्य उपक्रम है और स्वागत योग्य भी है। 
गीत तदनंतर नवगीत की संज्ञा बहुचर्चित रही है और आज भी इस पर बहस जारी है। गीत - कविता के क्षेत्र में दो धड़े हैं जो गीत - नवगीत को लेकर बँटे हुए हैं। कुछ लेखनियों द्वारा नवगीत की जोर - शोर से वकालत की जाती रही है जबकि एक बहुत बड़ा तबका ' नव' विशेषण को लगाना अनावश्यक मानता रहा है। वे 'गीत' संज्ञा को ही परिपूर्ण मानते रहे हैं एवं समयानुसार नवलेखन को स्वीकारते रहे हैं। इसी तर्क के आधार पर वे 'नव' का विशेषण अनावश्यक मानते हैं। इस स्थिति में जो असमंजस है उसे कवि अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर अवधारणा का परिचय देता रहा है। चूँकि सलिल जी ने इसे नवगीत संग्रह भी कहा है तो यह समुचित होता कि वे नवगीत संबंधी अपनी अवधारणा पर भी प्रकाश डालते। संग्रह में उनके अनुसार कौन सी रचना गीत है और कौन सी नवगीत है, यह पहचान नहीं हो पाती। वे केवल 'नवगीत' ही लिखते तो यह दुविधा नहीं रहती, जो हो।
विशेष रूप से उल्लेख्य है कि उन्होंने किसी - किसी रचना के अंत में प्रयुक्त छन्द का नाम दिया है, यथा पृष्ठ २९, ५६, ६३, ६५, ६७ आदि। गीत रचना को हर बार नएपन से मण्डित करने की कोशिश कवि ने की है जिसमें 'छन्द' का नयापन एवं 'कहन' का नयापन स्पष्ट दिखाई देता है। सूरज उनका प्रिय प्रतीक रहा है और कई गीत सूरज को लेकर रचे गए हैं। 'काल है संक्रांति का, तुम मत थको सूरज', 'उठो सूरज! गीत गाकर , हम करें स्वागत तुम्हारा', 'जगो सूर्य आता है लेकर अच्छे दिन', 'उगना नित, हँस सूरज!', 'आओ भी सूरज!, छँट गए हैं फूट के बादल', 'उग रहे या ढल रहे तुम, कान्त प्रतिपल रहे सूरज', सूरज बबुआ चल स्कूल', 'चंद्र-मंगल नापकर हम चाहते हैं छुएँ सूरज' आदि।
कविताई की नवता के साथ रचे गए ये गीत - नवगीत कवि - कथन की नवता की कोशिश के कारणकहीं - कहीं अत्यधिक यत्नज होने से सहजता को क्षति पहुँची है। इसके बावजूद छन्द की बद्धता, उसका निर्वाह एवं कथ्य में नवता के कारण इन गीत रचनाओं का स्वागत होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
१-६-२०१६ 
***
समीक्षक संपर्क- १२१ बैकुंठधाम कॉलोनी, आनंद बाजार के पीछे, इंदौर ४५२०१८, चलभाष ०९३२९८९५५४०