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रविवार, 5 जुलाई 2020

हास्य षट्पदी

दोहा सलिला:
*
रमा रमा में मन रहा, किसको याद रमेश?
छोड़ विष्णु श्री लक्ष्मी, पुजतीं संग गणेश
*
हास्य षट्पदी:
*
ब्रह्मा-विष्णु-सदाशिव को जप, पी ब्रांडी-व्हिस्की-शैम्पेन,
रम पी राम-राम जप प्यारे, भाँग छान ले भोले मैन।
चिलम धतूरा चंचल चित ले, चिन्मय से साक्षात् करे-
चकित-भ्रमित या थकित अगर तू, खुद में डूब न हो बेचैन।
सुर-नर-असुर सुरा पीने हित, तज मतभेद एक होते
पी स्कोच चढ़ा ठर्रा सँग दीन-धनी दूरी खोते।।
***

अचल छंद

रसानंद दे छंद नर्मदा ३८ : छन्द
अचल छंद
*
अपने नाम के अनुरूप इस छंद में निर्धारित से विचलन की सम्भावना नहीं है. यह मात्रिक सह वर्णिक छंद है। इस चतुष्पदिक छंद का हर पद २७ मात्राओं तथा १८ वर्णों का होता है। हर पद (पंक्ति) में ५-६-७ वर्णों पर यति इस प्रकार है कि यह यति क्रमशः ८-८-११ मात्राओं पर भी होती है। मात्रिक तथा वार्णिक विचलन न होने के कारण इसे अचल छंद कहा गया है। छंद प्रभाकर तथा छंद क्षीरधि में दिए गए उदाहरणों में मात्रा बाँट १२१२२/१२१११२/२११२२२१ रखी गयी है। तदनुसार
उदाहरण -
१.
सुपात्र खोजे, तभी समय दे, मौन पताका हाथ।
कुपात्र पाये, कभी न पद- दे, शोक सभी को नाथ।।
कभी नवायें, न शीश अपना, छूट रहा हो साथ-
करें विदा क्यों, सदा सजल हो, नैन- न छोड़ें हाथ।।
*
वर्ण तथा मात्रा बंधन यथावत रखते हुए मात्रा बाँट में परिवर्तन करने से इस छंद में प्रयोग की विपुल सम्भावनाएँ हैं.
उदाहरण-
१.
मौन पियेगा, ऊग सूर्य जब, आ अँधियारा नित्य।
तभी पुजेगा, शिवशंकर सा, युगों युगों आदित्य।।
चन्द्र न पाये, मान सूर्य सम, ले उजियारा दान-
इसीलिये तारक भी नभ में, करें न उसका मान।।
*
इस तरह के परिवर्तन करने पर उसे अचल छंद ही कहा जाए या कोइ नया नामकरण किया जाए? विद्वज्जनों के अभिमत आमंत्रित हैं।
***
५-७-२०१६
अब तक प्रस्तुत छंद: दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा, सखी, वासव, अचल तथा धृति।

षट्पदी

एक षट्पदी
- संजीव 'सलिल'
*
जिन्हें हमारी फ़िक्र, उन्हें हम रहे रुलाते.
रोये उनके लिए, न जिनके मन हम भाते..
करते उनकी फ़िक्र, न जिनको फ़िक्र हमारी-
है अजीब, पर सत्य समझ-स्वीकार न पाते..
'सलिल' समझ सच को, बदलें हम खुद को फ़ौरन.
कभी नहीं से देर भली, कहते विद्वज्जन..
***********************

शनिवार, 4 जुलाई 2020

नए लेखकों तथा कवियों के लिए प्रेरणास्रोत सलिल जी सुजीत जी महाराज


नए लेखकों तथा कवियों के लिए प्रेरणास्रोत सलिल जी 
सुजीत जी महाराज 
*

संजीव वर्मा सलिल जी की रचनाएं नए लेखकों तथा कवियों के लिए प्रेरणास्रोत रही हैं।आज काव्य से छन्द लुप्त होते जा रहे हैं।सलिल जी ने इस दिशा में बहुत बड़ा कार्य किया है।यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि आप किसी विषय के बड़े विद्वान हैं ,महत्वपूर्ण तो यह है कि आपके विद्वता रूपी गंगा का जलपान किसने किसने किया।आपने किसी को कुछ सिखाया या नहीं।मैं तो मैथ्स व विज्ञान के साथ ज्योतिष तथा आध्यात्म के फील्ड में कार्य करता हूं।मेरा ये सदैव प्रयास रहता है कि मैं अपने पीछे एक बड़ी संख्या में शिष्यों को अपना सर्वस्व ज्ञान दे सकूं।अभी कुछ महीने पूर्व मैं काठमांडू में था वहां एक छात्र ने सलिल जी की रचना संसार का जिक्र किया।उसने कहा मैं उनके फेसबुक वाल से ही बहुत कुछ का कविताओं की बारीकियां सीख लेता हूं।व्यंग्य,गीत,दोहा,सोरठा,आलोचना सभी विधाओं पर इनकी पकड़ इतनी जबरजस्त है कि सलिल सर अपने आप में एक चलते फिरते हिंदी के विश्वविद्यालय हैं।आप जो समय समय पर विभिन्न जानकारियां प्रदान करते हैं वह इतनी लाभप्रद होती हैं कि उसका महत्व कोई हिंदी सीखने वाला ही बता सकता है।
आपका रचना संसार बहुत वृहद है।अनुकरणीय है।संग्रहणीय है।आप इंजीनियर रहे हैं।विज्ञान क्रमबद्ध ज्ञान की बात करता है।अनुशासन की बात करता है।धर्म के नियम भी अनुशासित हैं।कर्म के प्रति समर्पण तथा ईश्वर की शरणागति ही गीता का मूल उपदेश है।ऐसे महान साहित्यकार व संत हृदय कवि के 108 वर्ष के आयु की श्री कृष्ण से प्रार्थना करता हूं।
सुजीत जी महाराज

अनुभवजन्य प्रेरणा स्त्रोत--आचार्य ई. संजीव वर्मा सलिल जी


🏵🏵अनुभवजन्य प्रेरणा स्त्रोत--आचार्य ई. संजीव वर्मा सलिल जी --🏵🏵
मानव जीवन में अनुभव की अन औपचारि क पाठशाला अत्यन्तB महत्वपूर्ण होती है। अनुभव का पाठ किसी निर्धारित पाठ्यक्रम के अन्तर्गत किसी निर्धारित पाठशाला में प्राप्त नहीं किया जा सकता है ।यह तो मानव जीवन के सांसों की गिनती बढ़ने के साथ साथ प्राप्त होता है। उम्र एवं कार्य अभ्यास की परिपक्वता अनुभवजन्यता को बढ़ाती है। ऐसे ही अनभवजन्य प्रेरणा स्रोत एक सशक्त मिशाल हैं हमारे अग्रज भाई श्रधेय आचार्य ई. संजीव वर्मा सलिल। आप अध्यन के क्षेत्र में अभियांत्रिकी,न्याय एवं कानून आदि अनेकों क्षेत्रों में प्रवीण हैं। विभिन्न भाषओं के साहित्य की जानकारी में भी आप महारथ हासिल किये हैं। हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं में भी आपकी गहरी पकड़ है। अनेंक वर्षों से आप हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं पर अपनी लेखनी चला रहें हैं।आपको सरस्वती जी का वरदान प्राप्त है।आपनें कविता,कहानी, गीत ,गजल,दोहा,सोरठा, छन्द,चोपाई,छप्पये,चौपाइ, आलेख,निबंध,रिपोर्टज, समीक्षा, साक्षात्कार आदि अनेकों विधाओं में विशेषज्ञता हासिल की है। आपअनुभवजन्य प्रेरक के रूप में सभी को सदैव उपलब्ध रहते है। विविध विषयों,विविध क्षेत्रों में आप लेखन कार्य करते रहते है। चित्रकारी,फोटोग्राफी प्राचीन एवं नवीन उपकरण तकनीकी आदि विभिन्न कला कौशल में आप उत्क्रष्टता से प्रवीण हैं। अनेकों साहित्यक,सामाजिक सांस्कृतिक,वैज्ञानिक, शिक्षा,कला, क्रीड़ा आदि अनेंक क्षेत्रों में आपको सम्मान,पुरुस्कार प्राप्त हुऐ है। अनेकों संस्थाओं द्वारा आपको अभिनन्दित किया गया है।आप जैसे अनुभवजन्य प्रेरणायुक्त प्रेरक की आज अत्यंत आवश्कता है।
🏵🏵डॉ. मुकुल तिवारी।
बलमुकुन्द त्रिपाठी मार्ग
राम मंदिर के पास, दीक्षितपुरा,जबलपुर,म.प्र.।
मो.९४२४८३७५८५।

मुक्तक कसूर

मुक्तक  
मंगलवार, दिनांक ४-७-२०१७
विषय कसूर
*
ओ कसूरी लाल! तुझको कया कहूँ?
चुप कसूरों को क्षमाकर क्यों दहूँ?
नटखटी नटवर न छोडूँ साँवरे!
रास-रस में साथ तेरे हँस बहूँ.
*
तू कहेगा झूठ तो भी सत्य हो.
तू करे हुडदंग तो भी नृत्य है.
साँवरे ओ बाँवरे तेरा कसूर
जगत कहता ईश्वर का कृत्य है.
*
कौन तेरे कसूरों से रुष्ट है?
छेड़ता जिसको वही संतुष्ट है.
राधिका, बाबा या मैया जशोदा-
सभी का ऐ कसूरी तू इष्ट है.
***

बाल कविता

: बाल कविता :
संजीव 'सलिल'
*
आन्या गुडिया प्यारी,
सब बच्चों से न्यारी।
.
गुड्डा जो मन भाया,
उससे हाथ मिलाया।
.
हटा दिया मम्मी ने,
तब दिल था भर आया।
.
आन्या रोई-मचली,
मम्मी थी कुछ पिघली।
.
''नया खिलौना ले लो'',
आन्या को समझाया।
.
शाम को पापा आए
मम्मी पर झल्लाए।
*
हुई रुआँसी मम्मी
आन्या ने ली चुम्मी।
*
बोली: ''इनको बदलो
साथ नये के हँस लो''।
*

जन का पैगाम - जन नायक के नाम

जन का पैगाम - जन नायक के नाम
प्रिय नरेंद्र जी!, उमा जी!
सादर वन्दे मातरम।
मुझे आपका ध्यान नदी घाटियों के दोषपूर्ण विकास की ओर आकृष्ट करना है।
मूलतः नदियां गहरी तथा किनारे ऊँचे पहाड़ियों की तरह और वनों से आच्छादित थे। कालिदास का नर्मदा तट वर्णन देखें। मानव ने जंगल काटकर किनारों की चट्टानें, पत्थर और रेत खोद लिये तो नदी का तक और किनारों का अंतर बहुत कम बचा। इससे भरनेवाले पानी की मात्रा और बहाव घट गया, नदी में कचरा बहाने की क्षमता न रही, प्रदूषण फैलने लगा, जरा सी बरसात में बाढ़ आने लगी, उपजाऊ मिट्टी बाह जाने से खेत में फसल घट गयी, गाँव तबाह हुए।
इस विभीषिका से निबटने हेतु कृपया, निम्न सुझावों पर विचार कर विकास कार्यक्रम में यथोचित परिवर्तन करने हेतु विचार करें:
१. नदी के तल को लगभग १० - १२ मीटर गहरा, बहाव की दिशा में ढाल देते हुए, ऊपर अधिक चौड़ा तथा नीचे तल में कम चौड़ा (U आकार) में खोदा जाए। इस खुदाई के पूर्व नदी के बहाव क्षेत्र में वर्षा का अनुमान कर पानी की मात्रा निकाल कर तदनुसार बहाव मार्ग खोदना होगा। इससे सर्वाधिक वर्षा होने पर भी पानी नदी से बहेगा तथा समीपस्थ शहरों में न घुसेगा।
२. खुदाई में निकली सामग्री से नदी तट से १-२ किलोमीटर दूर संपर्क मार्ग तथा किनारों को पक्का बनाया जाए ताकि वर्षा और बाढ़ में किनारे न बहें।
३. घाट तक आने के लिये सड़क की चौड़ाई छोड़कर शेष किनारों पर घने जंगल लगाए जाएँ जिन्हें घेरकर प्राकृतिक वातावरण में पशु-पक्षी रहें मनुष्य दूर से देख आनंदित हो सके।
४. गहरी हुई बड़ी नदियों में बड़ी नावों और छोटे जलयानों से यात्री और छोटी नदियों में नावों से यातायात और परिवहन बहुत सस्ता और सुलभ हो सकेगा। बहाव की दिशा में तो नदी ही अल्प ईंधन में पहुँचा देगी। सौर ऊर्जा चलित नावों (स्टीमरों) से वर्ष में ८-९ माह पेट्रोल-डीज़ल की तुलना में लगभग एक बटे दस ढुलाई व्यय होगा। प्राचीन भारत में जल संसाधन का प्रचुर प्रयोग होता था।
५. घाटों पर नदी धार से ३००-५०० मीटर दूर स्नानागार-स्नान कुण्ड तथा पूजनस्थल हों जहाँ जलपात्र या नल से नदी का पानी उपलब्ध हो। नदी के दर्शन करते हुए पूजन-तर्पण हो। प्रयुक्त दूषित जल व् अन्य सामग्री घाट पर बने लघु शोधन संयंत्र में उपचारित का शुद्ध जल में परिवर्तित की जाने के बाद नदी के तल में छोड़ा जाए। इस तरह जन सामान्य अपने पूजा-पाठ सम्पादित कर सकेगा तथा नदी भी प्रदूषित न होगीi। इस परिवर्तन के लिये संतों-पंडों तथा स्थानीय जनों को पूर्व सहमत करने से जन विरोध नहीं होगा।
६. नदी के समीप हर शहर, गाँव, कस्बे, कारखाने, शिक्षा संस्थान, अस्पताल आदि में हर भवन का अपना लघु जल-मल निस्तारण केंद्र हो। पूरे शहर के लिए एक वृहद जल-नल केंद्र मँहगा, जटिल तथा अव्यवहार्य है जबकि लघु ईकाइयाँ कम देख-रेख में सुविधा से संचालित होने के साथ स्थानीय रोजगार भी सृजित करेंगी। इनके द्वारा उपचारित जल य्द्य्नों की सिंचाई, सडकों -भवनों की ढुलाई आदि में प्रयोग के बाद साफ़ कर नदियों में छोड़ना सुरक्षित होगा।
७. एक से अधिक राज्यों में बहने वाली नदियों पर विकास योजना केंद्र सरकार की देख-रेख और बजट से हो जबकि एक राज्य की सीमा में बह रही नदियों की योजनाओं की देख-रेख और बजट केंद्र सरकार तथा एक राज्य में बाह रहे नदियों के परियोजनाएं राज्य सरकारें देखें। जिन स्थानों पर निवासी २५ प्रतिशत जन सहयोग उपलब्ध कराएँ, उन्हें प्राथमिकता दी जाए। देश के कुछ हिस्सों में स्थानीय जनों ने बाँध बनाकर या पहाड़ खोदकर बिना सरकारी सहायता के अपनी समस्या का निदान खोज लिया है और इनसे लगाव के कारण वे इनकी रक्षा व मरम्मत भी खुद करते हैं जबकि सरकारी मदद से बनी योजनाओं को आम जन ही लगाव न होने से हानि पहुँचाते हैं। इसलिए श्रमदान अवश्य हो। सन ७५ के दशक तक सरकारी विकास योजनाओं पर ५० प्रतिशत श्रमदान की शर्त थी, जो क्रमशः कम कर शून्य कर दी गयी तो आमजन लगाव ख़त्म हो जाने के कारण सामग्री की चोरी करने लगे और कमीशन माँगा जाने लगा। इस योजना से सप्ताह में एक दिन की मजदूरी श्रमदान करनेवालों को आजीवन शत-प्रतिशत रोजगार मिलेगा।
८. नर्मदा में गुजरात से जबलपुर तक, गंगा में बंगाल से हरिद्वार तक तथा राजस्थान, महाकौशल, बुंदेलखंड और बघेलखण्ड में छोटी नदियों से जल यातायात होने पर इन पिछड़े क्षेत्रों का कायाकल्प हो जाएगा।
९. इससे भूजल स्तर बढ़ेगा और सदियों के लिए पेय जल की समस्या हल हो जाएगी। भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ेगी।
नदियों के तटों पर जंगल लगाकर उन्हें अभयारण्य बना दिया जाए जिनमें मनुष्य बड़ी - बड़ी रोप-ट्रोली में सुरक्षित रहकर वन्य जीवन को देखे और जानवर खुले रहें।
अभयारण्यों में सर्प्पालन केंद्र बनाकर सर्प विष का व्यवसाय किया जा सकेगा। मत्स्य पालन कर आजीविका अवसर के साथ-साथ भोज्य सामग्री का भी उत्पादन होगा। अभयारण्यों में आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों के वन लगाने पर वर्षा जल उनकी जड़ों से होकर नदी में मिलेगा, इससे नदी के पानी में रोग निवारण क्षमता होगी तथा जन सामान्य बिना किसी इलाज के अधिक स्वास्थ्य होगा। जड़ी-बूटियों से आजीविका के अवसर बढ़ेंगे।
कृपया, इन बिन्दुओं पर गंभीरतापूर्वक विचारण कर, क्रियान्वयन की दिशा में त्वरित कदम उठाये जाने हेतु निवेदन है। संसाधन उपलब्ध कार्य जाने पर मैं इस परियोजना का प्रादर्श (मॉडल) बनाकर दिख सकता हूँ अथवा परियोजना को क्रियान्वित करा सकता हूँ।
संजीव वर्मा
एक नागरिक
संपर्क: ९४२५१ ८३२४४

क्षणिका आभार

क्षणिका
आभार
*
आभार ही
आ भार.
वही कहे
जो सके
भार स्वीकार.
***

शब्द, पर्याय और अर्थ


शब्द, पर्याय और अर्थ
साभार सामग्री स्रोत : अर्थान्तर न्यास - डॉ. सुरेश कुमार वर्मा 
*
वाक् (भाषा) : 
भाषा मनुष्य की शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक शक्तियों का संघात है। मनुष्य जन्म से परिवार की शाला में भाषा के पाठ सीखता है।सीखने की भावना मनुष्य ( वअन्य जीव-जंतुओं) के रक्त में जन्मजात वृत्ति के रूप में रहती है।  वह वस्तु जगत के विविध पदार्थों का ज्ञान प्राप्त और व्यक्त करता है। भाषा ज्ञेय भी है और ज्ञान भी। शैशवावस्था में भाषा ज्ञातव्य वस्तु है और जबकि विकास की परिणत अवस्थाओं में दृश्य एवं सूक्ष्म जगत के नाना स्तरों का ग्राहक ज्ञान। वस्तु जगत की क्रमशः: वर्धित जानकारी मनुष्य के मानसिक क्षेत्र में जटिल आवर्त उत्पन्न करती है जो क्रमश: भाषा के अरण्य में जटिलता उत्पन्न करते हैं। अरण्य के विरल, सघन एवं सघनतम क्षेत्रों के समान्तर भाषा के अंतर्गत अर्थों के सरल, गूढ़ एवं रहस्यात्मक स्तर निविष्ट रहते हैं। शब्दों के सजग-सतर्क नियोजन से भाषा शुद्ध, सुचारु और सहज बनती है। सतत प्रयोग से भाषा जीवन का अविभाज्य अंग बनकर लोक जीवन, दैनंदिन व्यवहार एवं आत्म-चिंतन का आधार और अंग बन जाती है। भाषा और शब्द विशेष परिस्थिति की उपज है। वह विज्ञान विशेष परिस्थिति में ही अपनी मूल भावना को व्यक्त करता है। पर्यायवाचिता उसे किसी दूसरी परिस्थिति और प्रयोग के निकट लाकर उसकी मूल भावना को आहत कर देती है। एक पर्याय सभी परिस्थितियों में प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। पर्यायवाचिता एक सीमा तक ही क्रियाशील रह सकती है। हिंदी पर्यायवाचिता को विकास के कारण हैं - विविध भाषाओं-बोलिओं की एक क्षेत्र में एक ही समय में प्रचलित होना, आरोपित अर्थ, सांस्कृतिक प्रभाव, अपस्तरीय वाक् आदि। विशेषणों की पर्यायभावना, व पर्यायपद भी अर्थपरक दृष्टि से विचारणीय है। अर्थ की विलोमस्थिति सैद्धांतिक कम व्यावहारिक अधिक है। अर्थांतर की दृष्टि से विदेशी शब्दों (जिनसे हिंदी पर्याय युग्मों की रचना हुई) का अनुशीलन महत्वपूर्ण है। भाषा और संस्कृति में अनिवार्य समाश्रयता है। भाषा संस्कृति की पोषिका और उसके विकास की संवाहिनी है। यह संवहन अर्थ के माध्यम से होता है।  
अर्थ 
ध्वनि के सामान की भी परिवर्तन शील सत्ता है। ध्वनिशास्त्र के कठोर परीक्षण में किसी ध्वनि का यथावत (हू-ब-हू ) उच्चारण कठिन माना गया है। अभिव्यक्ति की भी यही स्थिति है। प्रत्येक प्रेषण में वक्त अर्थ को उसी आयाम और इयत्ता से व्यक्त कर रहा है, कहना कठिन है। अर्थ मन और बुद्धि की जटिल सारणियों से प्रवाहित होता है, उसे प्रवाहित करनेवाली बाह्य एवं आंतरिक शक्तियाँ असंख्य हैं। व्यक्ति के आशय को नाना प्रकार के ध्वनि संयोजनों में रूपायित होना पड़ता है। इससे अर्थ के विचलन की संभावना बढ़ जाती है। यह विचलित अर्थ फिर-फिर प्रयोगों से नवीन अर्थ के रूप में प्रतिष्ठित और लोकमान्य हो जाता है। अर्थ का इतिहास अर्थ परिवर्तन का इतिहास है। अर्थान्तर वाक् की मूलभूत संवेदनाओं में से एक है। 
अर्थ वाक् का आरंभ भी है और अंत भी। वक्ता अपने आशय को व्यक्त करने के लिए धवनियों का संयोजन करता है और उसकी प्राप्ति के पश्चात् उसका लोप। अर्थ पद और वाक्य की केंद्रीय सत्ता है। अर्थ एक अभौतिक स्थिति है। उसकी प्रक्रिया जटिल और सूक्ष्म है। उसकी प्रवृत्तियों और परिस्थितियों के अध्ययन और मानकीकरण का प्रयास ध्वनिशास्त्र, ध्वनिग्रामशास्त्र, रूपग्रामशास्त्र आदि की तरह प्रचलित और प्रसिद्ध नहीं हो सका। हिंदी अर्थ विज्ञा पर केवल डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या, डॉ. बाबूराम सक्सेना, डॉ. हरदेव बाहरी, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ, उदय नारायण तिवारी, डॉ. सुरेश कुमार वर्मा आदि ने ही कार्य किया है।  डॉ. बाहरी ने ने अंग्रेजी में लिखित शोध प्रबंध 'हिंदी सेमेंटिक्स' हिंदी भाषा को अर्थविज्ञान के विविध कोणों से स्पर्श किया गया है। डॉ. केशवराम पाल का हिंदी अर्थ से सम्बद्ध शोध प्रबंध 'हिंदी में प्रयुक्त संस्कृत शब्दों के अर्थ परिवर्तन' की परिधि सीमित है। अर्थान्तर की नींव वस्तु - नामांकन के समय ही पड़ जाती है। एक नामांकन दूसरे नामांकन को जन्म देता है। इससे प्रथम में अर्थान्तर की छाया उत्पन्न हो जाती है। 
वाक्य और अर्थ में अर्थवैज्ञानिक एवं व्याकरणिक संबंध है। वाक्य के भेद-प्रभेद अर्थ को भिन्न-भिन्न स्तर प्रदान करते हैं। शब्द शक्तियों काव्य वैभव में वृद्धि करती हैं। हिंदी अर्थ परिवर्तन में लक्षणा और व्यंजना का अभूतपूर्व योगदान है। 
हिंदी क्रियाओं के अंतर्गत अर्थ के लक्षणात्मक परिवर्तन, विशेषार्थक व्यंजनाओं, तथा संध्वनीय भिन्नार्थी रूपों का ज्ञान रचनाकार को होना आवश्यक है।
अर्थ की दृष्टि से विशेषणों की अस्पष्टता व विसंगति, उनके प्रयोग भेद, विरुद्धार्थी विशेषणों की सापेक्ष स्थिति का परिचय स्थिर अर्थ को गतिमान कर सकता है। विशेषणों के अर्थों को प्रत्यय योजना भी प्रभावित करती है। संज्ञा और विशेषण की भिन्नार्थक समध्वनीयता  रचनाओं में रोचकता और लालित्य की वृद्धि करती हैं।
 
क्रमश:











      

दोहा गीत

दोहा गीत
*
जो अव्यक्त हो,
व्यक्त है
कण-कण में साकार
काश!
कभी हम पा सकें,
उसके भी दीदार
*
कंकर-कंकर में वही
शंकर कहते लोग
संग हुआ है किस तरह
मक्का में? संजोग
जगत्पिता जो दयामय
महाकाल शशिनाथ
भूतनाथ कामारि वह
भस्म लगाए माथ
भोगी-योगी
सनातन
नाद वही ओंकार
काश!
कभी हम पा सकें,
उसके भी दीदार
*
है अगम्य वह सुगम भी
अवढरदानी ईश
गरल गहे, अमृत लुटा
भोला है जगदीश
पुत्र न जो, उनका पिता
उमानाथ गिरिजेश
नगर न उसको सोहते
रुचे वन्य परिवेश
नीलकंठ
नागेश हे!
बसो ह्रदय-आगार
काश!
कभी हम पा सकें,
उसके भी दीदार
***
४-७-२०१६   

शुक्रवार, 3 जुलाई 2020

संजीव वर्मा सलिल एक जुनूनी साहित्यकार राजेश अरोरा शलभ


संजीव वर्मा सलिल एक जुनूनी साहित्यकार
राजेश अरोरा शलभ 
संजीव वर्मा सलिल एक जुनूनी साहित्यकार हैं...जैसा पिछले लगभग 25 वर्षों से मैंने उन्हें जाना ।उनसे मेरी पहली मुलाकात अभियंता साहित्यकारों की संस्था, 'अभियान' म.प्र.की लखनऊ शाखा के एक कार्यक्रम में हुई थी जब हम दोनों ने एक दूसरे को समझा और जाना था।हुआ यूं कि वर्ष 1996 में मेरी एक पुस्तक 'हास्य बम ' प्रकाशित हुई थी और सलिल जी ने मुझे इस पुस्तक को अभियान जबलपुर,मध्यप्रदेश (जो संस्था का मुख्यालय था ) द्वारा आयोजित होने वाली प्रकाशित पुस्तकों की एक प्रतियोगिता में भेजने के लिए प्रेरित किया ।बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि प्रतियोगिता साहित्य की सभी विधाओं हेतु अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित हो रही है और निर्णयोपरांत विजेताओं के लिए एक भव्य पुरस्कार व सम्मान कार्यक्रम प्रस्तावित है, साथ हीक्षअन्य सत्रों में कवि सम्मेलन व नाटक आदि भी आयोजित थे ।कुल मिलाकर मुझे यह प्रतियोगिता उचित और निष्पक्ष लगी क्योंकि प्रतियोगिता के निर्णायक मंडल में मैं किसी को भी जानता - पहचानता नहीं था !अतः मैंने पुस्तक प्रविष्टि प्रतियोगिता हेतु भेज दी ।

उसके बाद सलिल जी से इस विषय पर कोई बातचीत नहीं हुई ।
लगभग एक माह के पश्चात मुझे उनके एक औपचारिक पत्र से ज्ञात हुआ कि निर्णायक मंडल ने सर्व सम्मति से हास्य विधा में 10 हिन्दी भाषी राज्यों से प्राप्त 107 हास्य व्यंग्य की पुस्तकों में से सम्यक् विचारोपरांत 'हास्य बम 'को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया है और सम्मान व पुरस्कार कार्यक्रम जबलपुर, म.प्र. में फलां फलां तारीख को होना सुनिश्चित है ,जिसमें मैं सादर आमंत्रित किया गया था ।


निर्धारित तिथि पर मैं जबलपुर पहुंच गयाऔर मुझे स्टेशन पर रिसीव करने पूरी विनम्रतापूर्वक सलिल जी स्वयं आये । मैंने उनसे पूछा कि मैं कहा रुकूंगा तो उन्होंने बड़ी सदाशयता से कहा कि उनके रहते हुए आपको कोई परेशानी नहीं होगी।जहाँ तक रुकने की बात है तो आपके रुकने की व्यवस्था तोअन्य अतिथियों की भांति होटल में भी की गई है परंतु यदि आप उचित समझें तो मेरे घर भी रुक सकते हैं ,वहां आपको कदाचित अधिक आराम मिले ।मैंने भी सोचा कि सलिल जी ठीक ही कह रहे हैं, क्योंकि मैंने सुन रखा था कि उनकी पत्नी भी साहित्य प्रेमी हैं ,तो उनके घर से अच्छा साहित्यिक वातावरण और कहां हो सकता था ,अतः मैंने भी घरपर रुकने के लिए अपनी सहमति दे दी,जिससे सलिल जी प्रसन्न दिखे । तात्पर्य यह कि जबलपुर में मेरे प्रवास की सम्पूर्ण अवधि के दौरान सलिल जी ने मेरे आतिथ्य और आवभगत में कोई कसर नहीं छोड़ी वरन् यह भी उलाहना दी कि मैं साथ अपनी धर्मपत्नी को क्यों नहीं लाया ? यही नहीं ,कार्यक्रम के उपरांत भी उन्होंने मुझे दो दिन जबलपुर में रोककर नर्मदा जी के दर्शन सहित पूरे जबलपुर नगर के रमणीक स्थलों की सैर भी कराई ।बाद में स्टेशन तक छोड़ने भी स्वयं आए ,जबकि अगर वह इतनी सदाशयता न भी दिखाते, तो भी मुझे उनसे मिलकर उनके व्यवहार से महती प्रसन्नता हुई थी ।

कदाचित सलिल जी के साथ मेरा यह संस्मरण उनके समूचे सरल व्यक्तित्व को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है ।
कालांतर में जब मेरी एक अन्य पुस्तक 'अनंत हसंत' को 2001में अभियान ,जबलपुर द्वारा सभी विधाओं में सम्मिलित रूप से सर्वश्रेष्ठ निर्णीत किया गया तो सलिल जी ने लखनऊ में कार्यक्रम आयोजित करने की इच्छा व्यक्त की और मुख्य अतिथि के रूप में तत्कालीन राज्यपाल, उ.प्र. आचार्य विष्णुकांत शास्त्री जी को आमंत्रित करने का आग्रह मुझसे किया तब मैंने भी उनके उस कार्यक्रम हेतु तत्कालीन काबीना मंत्री,उ.प्र., शीमा रिज़्वी से (जो मुझसे व्यक्तिगत रूप से भली भांति परिचित थीं ) निवेदन कर राज्यपाल जी से इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के लिए उनकी सहमति सहजता से अल्प समय में ही प्राप्त कर ली ।इस कार्यक्रम के बाद सलिल जी से मेरे व्यक्तिगत संबंध और प्रगाढ़ हो गये ।राज्यपाल आचार्य विष्णु कांत शास्त्री जी ने भी जबलपुर से आकर लखनऊ में भव्य कार्यक्रम आयोजित करने हेतु अभियान संस्था और उसके संस्थापक संजीव वर्मा सलिल की भूरि- भूरि प्रशंसा की।


सलिल की साहित्य साधना

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यह तो सलिल जी के व्यक्तित्व की एक झलक थी..यदि बात करें उनकी साहित्य साधना की , उनकी रचनात्मकता की ,तो मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि शायद ही कोई दिन ऐसा होता होगा जब संजीव कुछ न कुछ रचना न करते हों..दोहा छंद तो उनके लिए बायें हाथ के एक खेल की तरह है.उन्हें चलते फिरते गूढ़ से गूढ़ बातों को दोहों में व्यक्त करने में महारथ प्राप्त है।विज्ञान के विद्यार्थी होने के कारण साहित्य में तर्कसंगत कथ्य रचने में उन्हें सहायता मिलती है । "भूकम्प से कैसे बचें "उनकी पुस्तक इसका एक अच्छा उदाहरण है।वे बीसियों साल "नर्मदा" साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन कर अपनी सम्पादन क्षमता का सबल परिचय देते रहे ।यहीं पर एक और बात का उल्लेख करना चाहूंगा ,वह यह कि नर्मदा का गेट अप देखकर मुझे लगता था कि शायद वह ज़रूरत से ज़्यादा घना था और उससे कुछ अधिक दर्शनीय बनाया जा सकता था , परंतु साथ ही मैंने ग़ौर किया कि कदाचित सलिल जी की सोच यह रही हो कि अधिक से अधिक पठनीय सामग्री को कम से कम स्थान व मूल्य में पाठकों को पहुंचाया जाये।बहरहाल, तात्पर्य यह है कि सलिल का वैज्ञानिक आधार उनकी रचनात्मकता में बाधक न होकर सहायक होता रहता है और अधिकतम प्राप्ति के सिद्धांत को पुष्ट करता है ।
सलिल जी को समय के साथ चलना भी बख़ूबी आता है ।जब सोशल मीडिया अपनी शैशवावस्था में था, तभी उन्होंने इसके भविष्य को भांपकर अपना लिया और नर्मदा का प्रकाशन इंटरनेट पर करना प्रारम्भ कर दिया जो एक दूरदर्शी कदम था और जिसका लाभ अब उन्हें मिल रहा है ।वे एक अभियंता से आचार्य के रूप में स्थापित हो चुके हैं और अपने ज्ञान,विज्ञान और वृहत साहित्य सृजनात्मकता से सैकड़ों साहित्यप्रेमियों के हृदयों पर राज कर रहे हैं..उनका सृजन अब काफी समृद्ध हो चुका है और उनकी ख्याति दिन ब दिन बढ़ती जा रही है जो अनायास नहीं, सायास प्रतीत होती है और उनके परिश्रम को प्रमाणित करती है ।
मैं सलिल जी के स्वस्थ व सक्रिय साहित्यिक दीर्घायु की कामना करता हूं ।

संजीव वर्मा सलिल मेरी दृष्टि में डॉ. कुँवर वीरसिंह मार्तण्ड


संजीव वर्मा सलिल मेरी दृष्टि में
एशिया का सबसे बड़ा गाँव.. उत्तर प्रदेश का गहमर..। फौजी गाँव , .. कई बार दूरदर्शन पर देखा सुना....। उपन्यासकार गोपाल राम गहमरी का गाँव....। ...अब, अखंड गहमरी ( अखंड प्रताप सिंह) का साहित्यिक कार्यक्रम। ... हॉल में फोल्डिंग चार पाइयां लगी हुई हैं। .. साहित्यकार एक-एक कर आते जा रहे हैं।
दो व्यक्ति आये। एक की दाड़ी बढ़ी हुई सी, कुछ छितरी हुई सी। पैंट शर्ट पहने। दूसरे की दाड़ी-मूँछ सफाचट, सिर के अधपके बाल कुछ बिखरे हुए से। कुर्ता-पाजामा पहने बहुत साधारण से। .... अपने बगल में पड़े खाली पलंगों पर बैठने का इशारा करता हूँ। दुआ सलाम के बाद, सामान्य सा परिचय ....। सामान रखकर ...बहुत गर्मी है... कहकर अपने कपड़े खोलकर पंखे की हवा लेने का प्रयास करते हैं दोनों। .... बातों का सिलसिला शनैः शनैः आगे बढ़ता है। परिचय की परतें खुलने लगती हैं। पता लगता है, जबलपुर से हैं, संस्मरण लेखिका एवं छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा के भतीजे...। जबलपुर के कवि आचार्य भगवत दुबे एवं गार्गीशरण मिश्र से परिचय होने की बात कहता हूँ .... बात और आगे बढ़ती है। धीरे धीरे नाम पता चलता है ... संजीव वर्मा सलिल। .. एक बार कोलकाता के श्यामलाल उपाध्याय के मुँह से सुना था उनका नाम...। उनके दो संकलनों की भूमिका लेखक यही थे। बड़ी ही विद्वता पूर्ण भूमिका थी।
आधुनिक कविता को लेकर काफी चर्चा होती रही। प्रश्न था.. आजकल के कवियों की कविताओं में छंद भंग का दोष..., छंद के व्याकरण की जानकारी का अभाव...। कविताओं में रसानुभूति की कमी...। मंच पर बढ़ती हुई लप्फाजी .... आदि आदि। उनका विचार था कि कविता पर चर्चा के लिए कार्यशाला होना अति आवश्यक है। एक समय था जब गोष्ठियों में समस्या पूर्तियाँ दी जाती थीं, सुनी जाती थीं, कविताओं की आलोचना की जाती थी, वरिष्ठ कवि कनिष्ठों को समझाते थे और कनिष्ठ बड़े अदब के साथ उनके सुझावों को सुनते, गुनते व मानते थे। मगर अब स्थिति बदल गई है। अब तो “आपै गुरु आपै चेला” वाली स्थिति आ गई है। कोई किसी की सुनता ही नहीं। दो चार लाइनें लिख कर .. महाकवि होने का भ्रम पाल लेते हैं। बहुत सारी बातें हुईं.... कार्यक्रम समाप्त हुआ। जो जहाँ से आये थे, वापस चले गये।
अखिल भारतीय साहित्य परिषद का जबलपुर अधिवेशन....। साढ़े छह सौ लोगों का जमावड़ा...। मैं भी पहुँचा हुआ था। प्रवेश द्वार पर एक सज्जन दिखे....। वही कुर्ता पाजामा वाले सज्जन ...। पुरानी यादें ताजा हो गईं। दुआ सलाम के बाद चले गये। हम लोग भी कार्यक्रम के विभिन्न सत्रों में व्यस्त हो गये।
दूसरे दिन सूचना मिली ... बसंत कुमार शर्मा जी के निवास पर एक गोष्ठी है, आप को आना है। रामेश्वर शर्मा उर्फ रामू भैया (कोटा), डॉ. राम सनेही लाल शर्मा यायावर जी (फीरोजाबाद), श्रीमती क्रान्ति कनाटे (ग्वालियर) , मैं (कोलकाता) और भी कई लोग विशेष रूप से आमंत्रित थे। गाड़ी भेज दी थी। हम लोग समय से थोड़े बाद में पहुंचे। कार्यक्रम आरंभ हुआ, सबका परिचय दिया गया। कविता पाठ हुए। कविता पर फिर कुछ चर्चा हुई। “साहित्य त्रिवेणी” के एक अंक का विमोचन भी हुआ।
मेरे मस्तिष्क में गहमर में छन्दों पर हुई चर्चा .... उमड़ घुमड़ रही थी। मैंने सलिल के सामने प्रस्ताव रखा कि “भारतीय छंद विधा” को लेकर “साहित्य त्रिवेणी” का एक विशेषांक निकाला जाय और आप उसके अतिथि संपादन का भार संभालें। उससे पहले यायावर जी के अतिथि संपादन में “साहित्य त्रिवेणी” का “नवगीत विशेषांक” भी आ चुका था। जिसमें सलिल जी का भी नवगीत छपा था। वे पत्रिका के स्तर को देख चुके थे। अतः तुरंत तैयार हो गये।
विशेषांक की तैयारी शुरू हो गई। रचनाएं मंगाई जाने लगीं। उन्होंने अथक परिश्रम किया। मैं शनैः शनैः उनके ज्ञान के अपार भंडार से परिचित होता चला गया। मुझे पता लगा वे वाट्सएप पर ‘अभियान जबलपुर’, ‘हिन्दी व्याकरण और साहित्य’, ‘सवैया सलिला’ और फेसबुक पर ‘विश्व वाणी हिन्दी संस्थान’ का संचालन-परिचालन करते हैं। इसके अलावा अंतर्जाल पर ‘हिन्द युग्म’ पर ‘छंद-शिक्षण’, ‘साहित्य शिल्पी’ पर ‘काव्य का रचना शास्त्र’ सिखाते आ रहे हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने छंद और अलंकारों पर अनेक लेख भी लिखे हैं। तात्पर्य यह है वे पूर्णरूपेण साहित्य को समर्पित हैं। उनकी एक-एक सांस साहित्य सेवा में संलग्न है।
उनका अपना रचना संसार तो है ही, संपादन आदि के लिए भी समय निकालते हैं। उनका एक-एक पल साहित्यमय बन गया है। इसमें कोई शक नहीं।
मैं उनके दीर्घ जीवन, अच्छे स्वास्थ्य, यशस्वी व कीर्तिमय जीवन की कामना करते हुए ‘ट्रू मिडिया’ एवं उसके संपादक मण्डल को भी धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने अपने विशेषांक हेतु उचित व्यक्ति को चुना है। उनका जीवन हम सबके लिए प्रेरणा का स्रोत बनेगा। इन्ही शब्दों के साथ..
डॉ. कुँवर वीरसिंह मार्तण्ड
संपादक : साहित्य-त्रिवेणी ( बहुभाषिक त्रैमाषिक साहित्य-पत्रिका)
डी-1, 94/A, पश्चिम पुटखाली, मंडलपाड़ा, पो.- दौलतपुर वाया विवेकानंद पल्ली, महेशतला, कोलकाता– 700139,
मो.– 9831062362, email: sahityatriveni@gmail।.com

श्री सलिल जी एक प्रकाश पुंज

श्री सलिल जी  एक प्रकाश पुंज


हृदय हुआ गद् गद् अनुज सुन कर शुभ सम्वाद।
शीर्ष हुआ उन्नत अधिक प्रभु की कृपा प्रसाद।
हिन्दी के उत्थान में अमर रहेगा नाम।
भाषा के विज्ञान में की सेवा निष्काम।।
डॉ. सतीश सक्सेना 'शून्य'

ग्वालियर  
*संजीव वर्मा "सलिल"* एक ऐसा नाम जिसे सुनते ही मस्तिष्क में हिंदी का व्याकरण नृत्य कर उठता है। सोचते रह जायेंगे पर कुछ भी ऐसा है क्या जो नहीं जानते वे। प्रकांड विद्वान, प्रत्येक विधा उनकी चारिणी है।
इस साहित्य शिल्पी की शिक्षा है , बी.ई.., एम. आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ.., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा ।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री सलिल जी स्वयं में एक प्रकाश पुंज हैं। जाने कितनी बार कितनी जगहों पर इन्हें सम्मानित किया जा चुका हैं। जो मुझे ज्ञात हैं वे यह हैं
सलिल जी को देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, कायस्थ कीर्तिध्वज, कायस्थ भूषण २ बार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, वास्तु गौरव, सर्टिफिकेट ऑफ़ मेरिट ५ बार, उत्कृष्टता प्रमाण पत्र २, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, सत्संग शिरोमणि, साहित्य श्री ३ बार, साहित्य भारती, साहित्य दीप, काव्य श्री, शायर वाकिफ सम्मान, रासिख सम्मान, रोहित कुमार सम्मान, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, नोबल इन्सान, मानस हंस, हरी ठाकुर स्मृति सम्मान, बैरिस्टर छेदी लाल स्मृति सम्मान, सारस्वत साहित्य सम्मान २ बार . उनकी प्रतिभा को उत्तर प्रदेश, राजस्थान, एवं गोवा के महामहिम राज्यपालों, म.प्र. के विधान सभाध्यक्ष, राजस्थान के माननीय मुख्या मंत्री, जबलपुर - लखनऊ एवं खंडवा के महापौरों, तथा हरी सिंह गौर विश्व विद्यालय सागर, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के कुलपतियों तथा अन्य अनेक नेताओं एवं विद्वानों ने विविध अवसरों पर उनके बहु आयामी योगदान के लिए सम्मानित किया है.
बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी हैं ये। इतना कुछ लिखा है इन्होंने किन्तु अहंकार नाममात्र को नहीं। सरल और सहज व्यक्ति।
काशित पुस्तकें:- काव्य संग्रह - मनमीत, दर्द के फ़लक से,
ग्रंथ - रविदास भक्ति सागर

Dr. Jyoti Mishra
Saptshringi Apartment
#402, 4th Floor,
Behind Surya Hotel
Karbala Road
Bilaspur (Chhattisgarh)
495001

1974.mysoul@gmail.com
9827924340

संस्मरण : पहली मुलाकात

संस्मरण : पहली मुलाकात।
मैं बैंक का सेवानिवृत्त प्रबंधक साहित्य पाठन से तो जुडा़ था, पर लेखन और साहित्यकारों से दूर था। बैंक सेवा के दौरान आपा- धापी में समय द्रुत गति से दौड़ता जा रहा था। सेवा निवृत्ति के बाद फेसबुक समूहों से जुड़ा और लघुकथाएँ लिखने लगा। फेसबुक पर 'लघुकथा के परिंदे' समूह की संचालिका सुश्री कांता राय ने बताया कि साहित्य की दुनिया में आचार्य संजीव वर्मा सलिल का बडा़ नाम है और वे जबलपुर में रहते हैं, उन्होंने मुझे उनसे मिलने की सलाह दी।यह तीन वर्ष पुरानी बात है
जबलपुर में होमसाईंस कालेज रोड़ जाना पहचाना स्थान है, बिना किसी परेशानी के पहुँच गया एक दिन उनके निवास पर।
दरवाजा खुलते ही देखा पूरा कमरा चारों तरफ से पुस्तकों से भरा हुआ है, कुर्सी पर विराजमान थे आचार्य जी सामने टेबिल, टेबिल पर कम्प्यूटर, उन्होंने गर्मजोशी से स्वागत किया। मेरे दिमाग में एक छवि थी कि गंवई तकिया लगाए तख्त पर अधलेटे विचार मुद्रा में किसी व्यक्ति से परिचय होगा। परंतु आचार्य जी तो वर्तमान युग के साहित्य कार है जिनके पास बुजुर्गों के संस्कार भी हैं और कम्प्यूटर युग की तकनीक भी। वे लगातार परिचयात्मक बात करते रहे, और अंगुलियाँ कम्प्यूटर पर चलती रही। उन्होंने कहा बस दो मिनट यह लेख पूरा कर लूँ। मेरी नजर कमरे में रखी पुस्तकों को टटोल रही थी, मेरी पसंद की पुस्तकों का खजाना देख कर मन ही मन प्रसन्न हो रहा था। नये कवर की कई पुस्तकों, लेखकों से मैं अन्जान था।
उन्होंने नजर उठाई और बातों का सिलसिला चल पडा़, पाँच मिनिट बाद ही ऐसा महसूस होने लगा कि हम तो बरसों से एक दूसरे से परिचित हैं, जबलपुर और उसके विकास से जुडी़ बातों पर सहभागिता होना लाजिमी है। तभी मालूम हुआ कि आप पेशे से इंजीनियर हैं।
साहित्य है ही इतना विशाल उससे हर वर्ग, जाति, समुदाय और पेशे के लोग जुडे़ हैं। साहित्य पर चर्चा होने लगी, लघुकथा विधा पर इसके इतिहास और वर्तमान पर उन्होंने भरपूर जानकारी दी।
तीन घंटे कब निकल गये मालूम ही नहीं पडा़।
तब से विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान की गोष्ठियाँ में मेरी पत्नी मधु जैन के साथ सहभागिता होने लगी। अब उनका सान्निध्य और स्नेह हम दोनों को प्राप्त है।

पवन जैन,
593 संजीवनी नगर, जबलपुर।
jainpawan9954@gmail.com

मुक्तिका

मुक्तिका
तू है शांत, चंचल है सलिल
तू गगन है, ये अबाबील है
तू प्रताप है जो न हारता
दुख पैरों पड़ा ज्यों भील है
तू रमा रमा में न पर रमा
सलिल तुझको अर्पित खील है
जुबां शीरी तेरी ये कह रही
कहीं और न ऐसा फील' है
तुझे देखकर मुझे यूँ लगा
तू ही कायदा है, तू शील है
मैं शरण में जिसकी हूँ आ गया
तू वो रास्ता है, तू मील है
मैं हूँ देखता जिसे रोज ही
तू ही फिल्म की वह रील है
***
३-७-२०१९ 

सड़गोड़ासनी

बुंदेली छंद:
सड़गोड़ासनी
शुभ प्रभात
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सूरज नील गगन से झाँक
शुभ-प्रभात कहता है।
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उषा-माथ सिंदूरी सूरज
दिप्-दिप्-दिप् दहता है।
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धूप खेलती आँखमिचौली,
पवन हुलस बहता है।
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चूँ-चूँ चहक रही गौरैया,
आँगन सुख गहता है।
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नयनों से नयनों की बतियाँ,
बज कंगन तहता है।
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नदी-तलैया देख सूखती
घाट विरह सहता है।
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पत्थर की नगरी में यारों!
सलिल-ह्रदय रहता है।
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(टीप: सड़गोड़ासनी बुंदेली बोली का छंद है. मुखड़ा १५-१२ मात्रिक, चार मात्रा पश्चात् गुरु-लघु आवश्यक, अंतरा १६-१२,तथा मुखड़ा-अंतरा समतुकांती होते हैं. इस छंद को आधुनिक हिंदी खड़ी बोली में प्रस्तुत करने के इस प्रयास पर पाठकों की राय आमंत्रित है. अन्य देशज बोलिओं के छंद रचना विधान सहित हिंदी में रचे जाएं तो उन्हें अपने 'छंद कोष' में सम्मिलित कर सकूँगा।)
२.७.२०१८, ७९९९५५९६१८

द्विपदी

एक द्विपदी:
आदमी है, फ़रिश्ता रश्क करे
काश संजीव शांत' हो पाता
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हास्य मुक्तिका

हास्य मुक्तिका:
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हाय मल्लिका!, हाय बिपाशा!!
हाउसफुल पिक्चर की आशा
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तुम बिन बोलीवुड है सूना
तुम हो गरमागरम तमाशा
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तोला-माशा रूप तुम्हारा
झीने कपड़े रत्ती-माशा
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फ़िदा खुदा, इंसां, शैतां भी
हाय! हाय!! क्या रूप तराशा?
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गले लगाने ह्रदय मचलता
आँख खुले तो मिले हताशा
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मानें हार अप्सरा-हूरें
उर्वशियों को हुई हताशा
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नहा नीर में आग लगा दो
बूँद-बूँद हो मधुर बताशा
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३-७-२०१७ 

मुक्तिका

मुक्तिका-
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सवाल तुमने किये सौ बिना रुके यारां
हमने चाहा मगर फिर भी जवाब हो न सके
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हमें काँटों के बीच बागबां ने ठौर दिया
खिले हम भी मगर गुल-ए-गुलाब हो न सके
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नसीब बख्श दे फुटपाथ की शहंशाही
किसी के दिल के कभी हम नवाब हो न सके
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उठाये जाम जमाना मिला, है साकी भी
बहा पसीना 'सलिल' ही शराब हो न सके
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जमीन पे पैर तो जमाये, कोशिशें भी करीं
मगर अफ़सोस 'सलिल' आफताब हो न सके
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३-७-२०१६