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सोमवार, 20 अप्रैल 2020

दोहा सलिला

दोहा सलिला

नियति रखे क्या; क्या पता, बनें नहीं अवरोध 
जो दे देने दें उसे, रहिए आप अबोध 
*
माँगे तो आते नहीं , होकर बाध्य विचार
मन को रखिए मुक्त तो, आते पा आधार
*
सोशल माध्यम में रहें, नहीं हमेशा व्यस्त 
आते नहीं विचार यदि, आप रहें संत्रस्त 
*
एक भूमिका ख़त्म कर, साफ़ कीजिए स्लेट 
तभी दूसरी लिख सकें,समय न करता वेट 
*
रूचि है लोगों में मगर, प्रोत्साहन दें नित्य
आप करें खुद तो नहीं, मिटे कला के कृत्य 
*
विश्व संस्कृति के लगें, मेले हो आनंद 
जीवन को हम कला से, समझें गाकर छंद
*
भ्रमर करे गुंजार मिल, करें रश्मि में स्नान 
मन में खिलते सुमन शत, सलिल प्रवाहित भान 
*
हैं विराट हम अनुभूति से, हुए ईश में लीन 
अचल रहें सुन सकेंगे, प्रभु की चुप रह बीन 
*
२०-४-२०२० 
   

स्वरूप कुमारी बक्शी

पर्यावरण संरक्षण पर आधारित, प्रस्तुत कविता "उषा किरण और निर्झर धारा" मेरी पूज्य माताश्री स्व.श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी द्वारा
रचित है। 
'prof_umalaviya' prof_umalaviya@rediffmail.com

उषा किरण और निर्झर धारा

प्रस्तुत कविता में प्रकृति के सौन्दर्य का मानवीकरण किया गया
है। उषा की किरण एवं निर्झर की धारा को दो सखियों के रूप में
दर्शाया गया है जो अपने हर्ष-विषाद के अनुभव पर परस्पर विचार
विमर्श करती हैं।

जब उतंग गिरि शृंगों से निर्झर धारा बहती झर-झर,
मणि-नूपुर बजने लगते रुनझुन झुन शैल शिला पथ पर।

आह्लादित उल्लास भरी रस रूप भरी आनन्द भरी,
हीरे मोती माणिक कण-कण जल फुहार लहरी-लहरी।

नील व्योम के स्वर्ण-द्वार से, उषा किरण पट से निकली,
दो सखियों की लोल-किलोलें बोली भोली भली-भली।

बोली प्रात की अरुणाई, ‘‘आओ सखि हम किल्लोल करें,
निर्मल जल की लहरों में बातें गुमसुम अनमोल करें।

जिधर चली तुम निर्झर धारा फूल लता झूमे झूमे,
भ्रमरों की अवली कमलों की कली-कली चूमें चूमें।

फल-फूलों से सजती जाती घाटी सुषमा हरी-हरी,
क्यारी-क्यारी की झोली मधुमय पुष्पों से भरी भरी।’’

वन वल्लरियाँ महक भरी मकरन्द मधुर मृदु बहे पवन,
पतझर की झाड़ी से झाँके सरस वसन्त सुख सुमन-सुमन।

गिरि-निर्झर-धारा हर्षित कटु काँटों पर बहती जाये,
जिधर चले शत पुष्प खिले अधखिली कली खिलती जाये।

निर्झर धारा बोली:—
‘‘तारा मण्डित निशि-महलों से उषा किरण प्रिय सखि निकलो,
कुञ्ज निकुञ्जों की सुगन्ध फुहारों में तुम टहलो टहलो।

नभ से उतरो मन्द-मन्द धरती पर चरण सरोज धरो,
पुष्प-पराग अपनी झोली मन की पुलकन में भरो भरो।

सरस सुहावन प्रिय मन भावन सतरंगी स्वर मृदु वेला,
मोर मयूरी ठुमके वन में पिक-शुक का रुमझुम मेला।

व्योम-व्योम अनुप्राणित अनुरंजित अणु-अणु सुषमा निखरी,
आओ सखि अभिनन्दन है धरती देखो आनन्द भरी।

आओ उषे प्रिय सखि आओ, हमसे हिलमिल कर तुम खेलो,
अपना गीत सुनाओ मधुरम बुलबुल की वाणी बोलो।

मेरी लहरों के झूले में झूम-झूम सखि तुम झूलो,
आनन्दम-आनन्दम रजनी तम घन के बन्धन खोलो।

नभ से पर्वत फिर धरती पर जब तुम थिरक छलकती हो,
दिशि-दिशि आलोकित जब तुम चट चटक कली सी हँसती हो।’’

दोनों सखियाँ हिलमिल लहर-लहर में लोल-किलोल करें,
दोनों के नयनों से हर्ष विषाद के अश्रु झरें-झरें।

उषा किरण बोली, ‘‘ए सखि तुम क्यों उदास हो कहो कहो,
गुमसुम सुख दुख मन की बात कहो, उर अन्तर शान्त करो।’’

निर्झर धारा बोली, ‘‘सखि री मेरे दु:ख से भरी कहानी,
कुछ व्यापारी मेरे वृक्षों से करते रहते मनमानी।

हरे भरे वृक्षों को सींचा मेरे बच्चे मुखड़े प्यारे,
लिये कुल्हाड़ी काटा उनको दुष्ट पुष्ट निर्मम हत्यारे।

मुझे लगा जैसे दुष्टों ने मेरा हाथ पाँव सिर काटा,
आँखों में आँसू की धारा, हाय रे मेरा सब कुछ लूटा।

फिर भी सखि मैं नहीं निराश, उद्यम करना मेरा काम,
नये-नये मैं वृक्ष सजाऊँ जल से सींचूँ दिन या शाम।

रजनीगन्धा कुन्द मनोहर रात की रानी हरसिंगार,
मधुमालती चाँदनी चन्दन गुलदाउदी औ सदाबहार।

मैं माली बन उनको सींचूँ अपने नयनों के पानी से,
मोर मयूरी ठुमके-ठुमके गायें गीत मधुर वाणी से।

धरती को मैं स्वर्ग बना दूँ मेरी आस यही है,
ऋषि मुनियों वेदों की भूमि तुलसीदास यहीं हैं।

उषे अपनी कहो कहानी तेरी महिमा अपरम्पार,
सारे जग से मिट जाता है अन्धकार का तमस अपार।

जब तुम उदित होती अम्बर में छा जाता सब ओर उजास,
फिर भी जाने क्यों लगती हो कभी-कभी तुम उषे उदास।’’

उषा बोली, ‘‘सुनो सखी री मेरी अश्रु से भरी कहानी,
झील झरोखे झिलमिल झूले झुकि-झुकि रुनझुन रश्मि सुहानी।

स्वर्ण दण्ड लेकर मैं उतरूँ द्वारे-द्वारे खटकाऊँ ,
कोई जागे कोई सोये मन में सुख-दु:ख दोनों पाऊँ।

कभी-कभी हे प्रिय सखी री मेरा मन हो जात उदास,
किन्तु फिर भी मेरे मन में विजयश्री औ आत्मविश्वास।

कहती जाऊँ द्वारे-द्वारे जागो जागो हुआ प्रभात,
बीत रही है झिलमिल-झिलमिल तारों भरी सुनहरी रात।

प्रात:काले ब्रह्म मुहूर्त स्नान ध्यान मन प्रभु का गान,
गिरि उतंग में सूर्य रश्मियाँ नीलाम्बर में अरुण विहान।

रामचरितमानस श्रीमद्भगवद्गीता का अनुशीलन,
गायत्री माता का आसन जप तप मन में ले लो प्रण।

दुर्गा सप्तशती श्री विष्णु-सहस्र्नाम का कर लो पाठ,
रामनाम की ग्यारह माला प्रतिदिन जप लो देखो ठाठ।

तुम ही केवट बन जाओगे दर्शन देंगे तुमको राम,
सदा सवेरा मन में झिलमिल कभी न होगी दु:ख की शाम।’’

रचनाकार: श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी
[काव्य निकुंज, पृष्ठ सं. 72-75 प्रकाशन वर्ष 2016

महाभारतकालीन भारत


महाभारतकालीन भारत 
१. गांधार
आज के कंधार को कभी गांधार के रूप में जाना जाता था। यह देश पाकिस्तान के रावलपिन्डी से लेकर सुदूर अफगानिस्तान तक फैला हुआ था। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी वहाँ के राजा सुबल की पुत्री थीं। गांधारी के भाई शकुनी दुर्योधन के मामा थे। कौरव सेनापति भीष्म ने गांधार नरेश को विवश कर अंधे धृतराष्ट्र से विवाह हेतु विवश किया। शकुनि ने बहिन के साथ हुए अन्याय का बदला कौरव कुल का नाश कराकर लिया। 
२ . तक्षशिला
तक्षशिला गांधार देश की राजधानी थी। इसे वर्तमान में रावलपिन्डी कहा जाता है। तक्षशिला को ज्ञान और शिक्षा की नगरी भी कहा गया है। तक्षशिला में विश्व विख्यात पुस्तकालय था। मुग़ल आक्रांताओं ने यहाँ के आचार्यों, अध्येताओं का कत्ले-आम कर पुस्तकालय में आग लगा दी थी। कहा जाता है की कई वर्षों तक पुस्तकें जलती रही थीं। 
३. केकय प्रदेश
जम्मू-कश्मीर के उत्तरी इलाके का उल्लेख महाभारत में केकय प्रदेश के रूप में है। त्रेता में केकय नरेश की अति वीरांगना अद्वितीय सुंदरी पुत्री कैकेयी ने देव संस्कृति की रक्षार्थ अपने पिता की उम्र के पूर्व विवाहित अयोध्या नरेश दशरथ से विवाह इस शर्त पर किया था कि उनका पुत्र अयोध्या की गाड़ी पर बैठेगा। केकय प्रदेश के राजा जयसेन का विवाह वसुदेव की बहन राधादेवी के साथ हुआ था। उनका पुत्र विन्द जरासंध, दुर्योधन का मित्र था। महाभारत के युद्ध में विन्द ने कौरवों का साथ दिया था।
४. मद्र देश
केकय प्रदेश से ही सटा हुआ मद्र देश का आशय जम्मू-कश्मीर से ही है। एतरेय ब्राह्मण के मुताबिक, हिमालय के नजदीक होने की वजह से मद्र देश को उत्तर कुरू भी कहा जाता था। महाभारत काल में मद्र देश के राजा शल्य थे, जिनकी बहन माद्री का विवाह राजा पाण्डु से हुआ था। नकुल और सहदेव माद्री के पुत्र थे।
५. उज्जनक
आज के नैनीताल का जिक्र महाभारत में उज्जनक के रूप में किया गया है। गुरु द्रोणचार्य यहां पांडवों और कौरवों की अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देते थे। कुन्ती पुत्र भीम ने गुरु द्रोण के आदेश पर यहां एक शिवलिंग की स्थापना की थी। यही वजह है कि इस क्षेत्र को भीमशंकर के नाम से भी जाना जाता है। यहां भगवान शिव का एक विशाल मंदिर है। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यह शिवलिंग 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक है।

६. शिवि देश
महाभारत काल में दक्षिण पंजाब को शिवि देश कहा जाता था। महाभारत में महाराज उशीनर का जिक्र है, जिनके पौत्र शैव्य थे। शैव्य की पुत्री देविका का विवाह युधिष्ठिर से हुआ था। शैव्य एक महान धनुर्धारी थे और उन्होंने कुरुक्षेत्र के युद्ध में पांडवों का साथ दिया था।
७. वाणगंगा
कुरुक्षेत्र से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है वाणगंगा। कहा जाता है कि महाभारत की भीषण लड़ाई में घायल पितामह भीष्म को यहां सर-सैय्या पर लिटाया गया था। कथा के मुताबिक, भीष्ण ने प्यास लगने पर जब पानी की मांग की तो अर्जुन ने अपने वाणों से धरती पर प्रहार किया और गंगा की धारा फूट पड़ी। यही वजह है कि इस स्थान को वाणगंगा कहा जाता है।
८. कुरुक्षेत्र
हरियाणा में कुरुक्षेत्र स्थित है। यहां महाभारत की प्रसिद्ध लड़ाई हुई थी। यही नहीं, आदिकाल में ब्रह्माजी ने यहां यज्ञ का आयोजन किया था। इस स्थान पर एक ब्रह्म सरोवर या ब्रह्मकुंड भी है। श्रीमद् भागवत में लिखा हुआ है कि महाभारत के युद्ध से पहले भगवान श्रीकृष्ण ने यदुवंश के अन्य सदस्यों के साथ इस सरोवर में स्नान किया था।
९. हस्तिनापुर
महाभारत में उल्लिखित हस्तिनापुर का इलाका मेरठ के आसपास है। यह स्थान चन्द्रवंशी राजाओं की राजधानी थी। सही मायने में महाभारत युद्ध की पटकथा यहीं लिखी गई थी। महाभारत युद्ध के बाद पांडवों ने हस्तिनापुर को अपने राज्य की राजधानी बनाया।

10. वर्नावत
यह स्थान भी उत्तर प्रदेश के मेरठ के नजदीक ही माना जाता है। वर्णावत में पांडवों को छल से मारने के लिए दुर्योधन ने लाक्षागृह का निर्माण करवाया था। यह स्थान गंगा नदी के किनारे है। महाभारत की कथा के मुताबिक, इस ऐतिहासिक युद्ध को टालने के लिए पांडवों ने जिन पांच गांवों की मांग रखी थी, उनमें एक वर्णावत भी था। आज भी यहां एक छोटा सा गांव है, जिसका नाम वर्णावा है।
११. वृन्दावन
यह स्थान मथुरा से करीब 10 किलोमीटर दूर है। वृन्दावन को भगवान कृष्ण की बाल-लीलाओं के लिए जाना जाता है। यहां का बांके-बिहारी मंदिर प्रसिद्ध है।


१२. गोकुल
यमुना नदी के किनारे बसा हुआ यह स्थान भी मथुरा से करीब 8 किलोमीटर दूर है। कंस से रक्षा के लिए कृष्ण के पिता वसुदेव ने उन्हें अपने मित्र नंदराय के घर गोकुल में छोड़ दिया था। कृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम गोकुल में साथ-साथ पले-बढ़े थे।
१३. मगध
दक्षिण बिहार में मौजूद मगध जरासंध की राजधानी थी। जरासंध की दो पुत्रियां अस्ती और प्राप्ति का विवाह कंस से हुआ था। जब भगवान श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया, तब वह अनायास ही जरासंध के दुश्मन बन बैठे। जरासंध ने मथुरा पर कई बार हमला किया। बाद में एक मल्लयुद्ध के दौरान भीम ने जरासंध का अंत किया। महाभारत के युद्ध में मगध की जनता ने पांडवों का समर्थन किया था।

१४. द्वारका
माना जाता है कि गुजरात के पश्चिमी तट पर स्थित यह स्थान कालान्तर में समुन्दर में समा गया। कथाओं के मुताबिक, जरासंध के बार-बार के हमलों से यदुवंशियों को बचाने के लिए कृष्ण मथुरा से अपनी राजधानी स्थानांतरित कर द्वारका ले गए।
१५. अंग देश
इसका क्षेत्र बिहार के मुंगेर से लेकर भागलपुर के जनपद एवं संतालपरगना(झारखन्ड) के क्षेत्र में फैला था। दुर्योधन ने कर्ण को इस देश का राजा घोषित किया था। मान्यताओं के मुताबिक, जरासंध ने अंग देश दुर्योधन को उपहारस्वरूप भेंट किया था। इस स्थान को शक्तिपीठ के रूप में भी जाना जाता है।

चंदेरी
चंदेरी मध्यप्रदेश के अशोक नगर जिले में स्थित है। आज के दौर में चंदेरी की पहचान यहां की कशीदाकारी और साडिय़ों के लिए है, लेकिन चंदेरी का इतिहास भी उतना ही गौरवशाली है, जितनी प्रसिद्ध यहांं की कशीदाकारी है। इस ऐतिहासिक शहर का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है। 11वीं शताब्दी में यह एक महत्वपूर्ण सैनिक केंद्र था और प्रमुख व्यापारिक मार्ग भी यहीं से होकर गुजरता था। कहा जाता है कि विख्यात संगीतकार बैजू बावरा की कब्र भी यहीं पर है। यहां ऐसी कई ऐतिहासिक इमारतें हैं, जो पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं।

कोविद विमर्श २ : तुलसी, मानस और कोविद

कोविद विमर्श २

तुलसी, मानस और कोविद
भविष्य दर्शन की बात हो तो लोग नॉस्ट्राडेमस या कीरो की दुहाई देते हैं। गो. तुलसीदास की रामभक्ति असंदिग्ध है, वर्तमान कोविद प्रसंग तुलसी के भविष्य वक्ता होने की भी पुष्टि करता है। कैसे? कहते हैं 'प्रत्यक्षं किं प्रमाणं', हाथ कंगन को आरसी क्या? चलिए मानस में ही उत्तर तलाशें। कहाँ? उत्तर उत्तरकांड में न मिलेगा तो कहाँ मिलेगा? तुलसी के अनुसार :

सब कई निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं।
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुःख पावहिं सब लोग।। १२० / १४

वाइरोलोजी की पुस्तकों व् अनुसंधानों के अनुसार कोविद १९ महामारी चमगादडो से मनुष्यों में फैली है।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।। १२० / १५

सब रोगों की जड़ 'मोह' है। कोरोना की जड़ अभक्ष्य जीवों (चमगादड़ आदि) का को खाने का 'मोह' और भारत में फैलाव का कारण विदेश यात्राओं का 'मोह' ही है। इन मोहों के कारण बहुत से कष्ट उठाने पड़ते हैं। आयर्वेद के त्रिदोषों वात, कफ और पित्त को तुलसी क्रमश: काम, लोभ और क्रोध जनित बताते हैं। आश्चर्य यह की विदेश जानेवाले अधिकांश जन या तो व्यापार (लोभ) या मौज-मस्ती (काम) के लिए गए थे। यह कफ ही कोरोना का प्रमुख लक्षण देखा गया। जन्नत जाने का लोभ पाले लोग तब्लीगी जमात में कोरोना के वाहक बन गए। कफ तथा फेंफड़ों के संक्रमण का संकेत समझा जा सकता है।

प्रीती करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई।।
विषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब स्कूल नाम को जाना।। १२०/ १६

कफ, पित्त और वात तीनों मिलकर असंतुलित हो जाएँ तो दुखदायी सन्निपात (त्रिदोष = कफ, वात और पित्त तीनों का एक साथ बिगड़ना। यह अलग रोग नहीं ज्वर / व्याधि  बिगड़ने पर हुई गंभीर दशा है। साधारण रूप में रोगी का चित भ्रांत हो जाता है, वह अंड- बंड बकने लगता है तथा उछलता-कूदता है। आयुर्वेद के अनुसार १३ प्रकार के सन्निपात - संधिग, अंतक, रुग्दाह, चित्त- भ्रम, शीतांग, तंद्रिक, कंठकुब्ज, कर्णक, भग्ननेत्र, रक्तष्ठीव, प्रलाप, जिह्वक, और अभिन्यास हैं।) मोहादि विषयों से उत्पन्न शूल (रोग) असंख्य हैं। कोरोना वायरस के असंख्य प्रकार वैज्ञानिक भी स्वीकार रहे हैं। कुछ ज्ञात हैं अनेक अज्ञात।

जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका।।१२० १९

इस युग (समय) में मत्सर (अन्य की उन्नति से जलना) तथा अविवेक के कारण अनेक विकार उत्पन्न होंगे। देश में राजनैतिक नेताओं और सांप्रदायिक शक्तियों के अविवेक से अनेक सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक विकार हुए और अब जीवननाशी विकार उत्पन्न हो गया।

एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥१२१ क

एक ही व्याधि (रोग कोविद १९) से असंख्य लोग मरेंगे, फिर अनेक व्याधियाँ (कोरोना के साथ मधुमेह, रक्तचाप, कैंसर, हृद्रोग आदि) हों तो मनुष्य चैन से समाधि (मुक्ति / शांति) भी नहीं पा सकता।

नेम धर्म आचार तप, ज्ञान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं, रोग जाहिं हरिजान।। १२१ ख

नियम (एकांतवास, क्वारेंटाइन), धर्म (समय पर औषधि लेना), सदाचरण (स्वच्छता, सामाजिक दूरी, सेनिटाइजेशन,गर्म पानी पीना आदि ), तप (व्यायाम आदि से प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाना), ज्ञान (क्या करें या न करें जानना), यज्ञ (मनोबल हेतु ईश्वर का स्मरण), दान (गरीबों को या प्रधान मंत्री कोष में) आदि अनेक उपाय हैं तथापि व्याधि सहजता से नहीं जाती।

एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी।।
मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेहिं पाए।।१२१ / १

इस प्रकार सब जग रोग्रस्त होगा (कोरोना से पूरा विश्व ग्रस्त है) जो शोक, हर्ष, भय, प्यार और विरह से ग्रस्त होगा। हर देश दूसरे देश के प्रति शंका, भय, द्वेष, स्वार्थवश संधि, और संधि भंग आदि से ग्रस्त है। तुलसी ने कुछ मानसिक रोगों का संकेत मात्र किया है, शेष को बहुत थोड़े लोग (नेता, अफसर, विशेषज्ञ) जान सकेंगे।

जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी।।
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे।। १२१ / २

जिनके बारे में पता च जाएगा ऐसे पापी (कोरोनाग्रस्त रोगी, मृत्यु या चिकित्सा के कारण) कम हो जायेंगे , परन्तु विषाणु का पूरी तरह नाश नहीं होगा। विषय या कुपथ्य (अनुकूल परिस्थिति या बदपरहेजी) की स्थिति में मुनि (सज्जन, स्वस्थ्य जन) भी इनके शिकार हो सकते हैं जैसे कुछ चिकित्सक आदि शिकार हुए तथा ठीक हो चुके लोगों में दुबारा भी हो सकता है।

तुलसी यहीं नहीं रुकते, संकेतों में निदान भी बताते हैं।

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥ १२१ / ३

ईश्वर की कृपा से संयोग (जिसमें रोगियों की चिकित्सा, पारस्परिक दूरी, स्वच्छता, शासन और जनता का सहयोग) बने, सद्गुरु (सरकार प्रमुख) तथा बैद (डॉक्टर) की सलाह मानें, संयम से रहे, पारस्परिक संपर्क न करें तो रोग का नाश हो सकता है।
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥

ईश्वर की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते।

छंद बहर का मूल है: ७

छंद बहर का मूल है: ७
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS SIS IS / SISS ISIS
सूत्र: ररलग।
आठ वार्णिक जातीय छंद।
तेरह मात्रिक जातीय छंद।
बहर: फ़ाइलुं फ़ाइलुं फ़अल / फ़ाइलातुं मुफ़ाइलुं ।
*
देवता है वही सही
जो चढ़ा वो मँगे नहीं
*
बाल सारे सफेद हैं
धूप में ये रँगे नहीं
*
लोग ईसा बनें यहाँ
सूलियों पे टँगे नहीं
*
दर्द नेता न भोगता
सत्य है ये सभी कहीं
*
आम लोगों न हारना
हिम्मतें ही जयी रहीं
*
SISS ISIS
जी न चाहे वहीं चलो
धार ही में बहे चलो
*
दूसरों की न बात हो
हाथ खाली मले चलो
*
छोड़ भी दो तनातनी
ख्वाब हो तो पले चलो
*
दुश्मनों की निगाह में
शूल जैसे चुभे चलो
*
व्यर्थ सीना न तान लो
फूल पाओ झुके चलो
***
२०.४.२०१७
***

मुक्तक

मुक्तक
पीर पराई हो सगी, निज सुख भी हो गैर.
जिसको उसकी हमेशा, 'सलिल' रहेगी खैर..
सबसे करले मित्रता, बाँट सभी को स्नेह.
'सलिल' कभी मत किसी के, प्रति हो मन में बैर..
***