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मंगलवार, 19 नवंबर 2019

हाइकु, सरस्वती

हाइकु
*
माँ सरस्वती!
अमल-विमल मति
दे वरदान।
*
हंसवाहिनी!
कर भव से पार
वीणावादिनी।
*
श्वेत वसना !
मन मराल कर
कालिमा हर।
*
ध्वनि विधात्री!
स्वर-सरगम दे
गम हर ले।
*
हे मनोरमा!
रह सदय सदा
अभयप्रदा।
*
मैया! अंकित
छवि मन पर हो
दैवी वंदित।
*
शब्द-साधना
सत-शिव-सुंदर
पा अर्चित हो।
*
नित्य विराजें
मन-मंदिर संग
रमा-उमा के।
*
चित्र गुप्त है
सुर-सरगम का
नाद सुना दे।
*
दो वरदानी
अक्षर शिल्प कला
मातु भवानी!
*
सत-चित रूपा!
विहँस दिखला दे
रम्य रूप छवि।
**
संजीव
१८-९-२०१९


सोमवार, 18 नवंबर 2019

समीक्षा नवता

कृति चर्चा :
''नवता'' लीक से हटकर भाव सविता 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: नवता, नवगीत संग्रह, देवकीनंदन 'शांत', प्रथम संस्करण, २०१९, आकार २१ से.मी. x  १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ५८, मूल्य १५०/-, रचनाकार संपर्क - शान्तं, १०/३०/२ इंदिरा नगर, लखनऊ २२६०१६, चलभाष - ८८४०५४९२९६, ९९३५२१७८४१, ईमेल - shantdeokin@gmail.com] 
*
                             हिंदी साहित्य की लोकप्रिय काव्य विधाओं में से एक गीत रचनाकारों के आकर्षण का केंद्र था, है और रहेगा। गीत रचना प्रकृति और लोक से होकर अध्येताओं और विद्वज्जनों में प्रतिष्ठित हुई है। गीत की जड़ माँ की लोरी, पर्व गीतों, वंदना गीतों, संस्कार गीतों, ऋतु गीतों, कृषि गीतों, जन गीतों, क्रांति गीतों आदि में है। वीरगाथा काल, भक्ति काल, रीति काल और छायावादी काल साक्षी हैं कि गीत हमेशा साहित्य के केंद्र में रहा है। देश-काल-परिस्थितियों तथा रचनाकार की रुचि के अनुरूप गीत का कलेवर तथा चोला परिवर्तित होता रहा है। पानी की तरह गीत अपने आप को बदलता, ढलता हुआ चिरजीवी रहा है। पद्य की थाली में गीत स्वतंत्र और अन्य तत्वों के अभिन्न अंग दोनों रूपों में भोजन में पानी की तरह रहा है। गीत की गेयता ला लयबद्धता से न तो छंद मुक्त हैं न कविता। चिरकाल से पारम्परिक गीतों के साथ नवप्रयोग धर्मी गीत रचे जाते रहे हैं जिन्हें आरंभ में अमान्य करते-करते थक-चूक कर विरोध कर रहे तत्व पस्त हो जाते हैं और परिवर्तन को क्रमश: लोक और विद्वज्जनों की मान्यता मिल जाती है। लगभग ७ दशकों पूर्व गीत  को छायावादी अस्पष्टता से स्पष्टता की ओर, अमूर्तता से मूर्तता की ओर, भाव से कथ्य की ओर, आध्यात्मिकता से सांसारिकता की ओर, वैयक्तिक अभिव्यक्ति से सार्वजनिक अभिव्यक्ति की ओर उन्मुख होने की आवश्यकता प्रतीत हुई।

                            'गेयता' गीत का मूल तत्व है जबकि 'नवता' समय सापेक्ष तत्व है। जो आज नया है वही भविष्य में पुराना होकर परंपरा बन जाता है। नवता जड़ या स्थूल नहीं होती। गीतकार गीत की रचना कथ्य को कहने के लिए करता है। कथ्य गीत ही नहीं किसी भी रचना का मूल तत्व है। कुछ कहना ही नहीं हो तो रचना नहीं हो सकती। अनुभूति को अभिव्यक्त करना ही कथ्य को जन्म देता है। यह अभिव्यक्ति लयता और गेयता से संयुक्त होकर पद्य का रूप लेती है। पद्य रचना मुखड़ा - अंतरा - मुखड़ा के क्रमबद्ध रूप में गीत कही जाती है। गीत के तत्व कथ्य और शिल्प हैं। कथ्य को विषय अनुसार वर्गीकृत किया जा सकता है। शिल्प के अंग छंद, भाषा शैली, शब्द-चयन, अलंकार, शब्द शक्ति, गुण, बिम्ब, प्रतीक आदि हैं। गीत में नवता का प्रवेश इन सब में एक साथ प्राय: नहीं होता। एकाधिक तत्वों में नवता का प्रभाव प्रभावी हो तो उस गीति रचना को नवगीत कहा जाता है। मऊरानी पुर झाँसी में जन्मे, लखनऊ निवासी वरिष्ठ गीत-ग़ज़लकार देवकीनंदन 'शांत' हिंदी, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी के जानकर हैं। आजीविका से अभियंता होते हुए भी उनकी प्रवृत्ति साहित्य और आध्यात्म की ओर उन्मुख रही है। सृजन के उत्तरार्ध में नवगीत की और आकृष्ट  होकर शांत जी ने प्रचलित मान्यताओं और विधानों की अनदेखी कर अपनी राह आप बनाने की कोशिश की है। इस कोशिश में उनकी गीति रचनाएँ गीत-नवगीत की सीमारेखा पर हैं। संकलन की हर रचना को नवगीत नहीं कहा जा सकता किन्तु अधिकांश रचनाओं में सामान्य से भिन्न पथ अपनाने का प्रयास उन्हें नवगीत से सन्निकटता बनाता है।

                            नवता की भूमिका में सुधी समीक्षक डॉ. सुरेश ठीक ही लिखते हैं - "अछूते प्रतीक, नए बिम्ब,,
कथ्य, शिल्प, भाषा-शैली, की अनूठी अभिव्यक्ति किसी छान्दसिक रचना को नवगीत बनाती है। यह निर्विवाद सच है कि सपाटबयानी, वक्तव्यबाजी, घिसे-पिटे प्रतीक, पारस्परिक द्वेष, वैचारिक किलेबंदी, टकराव-बिखरावपरक नकारात्मकता नवगीत को दिग्भर्मित कर, सामाजिक-सद्भाव को क्षति पहुँचाकर असहिष्णुता की और ढकेलती है। शांत जी की गीति रचनाएँ ही नहीं, गज़लें भी सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और साहचर्य को प्रोत्साहित करते हैं। इस अर्थ में शांत जी नवगीतों में वर्ग वैमनस्य, सामाजिक विसंगतियों, वैयक्तिक कुंठाओं, सार्वजनिक टकरावों को अधिक प्रभावी बनाने की प्रवृत्ति के विरुद्ध ताज़ा हवा के झोंके की तरह सद्भाव और सहिष्णुता की वकालत करते हैं।

                         डॉ. किशारीशरण शर्मा नवगीतों में शब्द शक्तियों के प्रभाव की चर्चा करते हुए लिखते हैं - "नवगीत में लक्षणा एवं व्यंजना शब्दों का विशेष प्रयोग होता है। बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से 'कही पे निगाहें, कहीं पे निशाना' की उक्ति चरितार्थ की जाती है। लक्षणा या व्यंजना का तीर चलाकर व्यक्ति (गीतकार) जोखिम से बचता है जबकि स्वयं को जोखिम में डालता है। कर्मयोगी कृष्ण के कर्मपथ के अनुयायी शांत जी जोखिम उठाने में नहीं हिचकते और अपनी बात अमिधा में कहकर नवगीत में नवता का संचार करते हैं। प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. जगदीश गुप्त के अनुसार "कविता वही है जो प्रकथनीय कहे।" इस निकष पर शांत जी की रचनाएँ खरी उतरती हैं।   

                                   शांत जी अभियंता हैं, जानते हैं कि प्रकृति के उत्पादों के उत्पादों की नकल के मनुष्य काया भले बना ले, प्राण नहीं डाल सकता। वे इसी तथ्य को फूलों के माध्यम से सामने लाते हैं-

कागज़ के फूलों से
खुशबू आना मुश्किल है।

छूने की कोशिश
करने पर दूर लहार जाती
बूँद किनारे की
इस डर से सिहर-सिहर जाती

                                    प्रश्न 'शीर्षक' रचना में शांत जी अपनी कार्यस्थलियों पर निरंतर कार्यरत श्रमिकों को देखकर एक सवाल उठाते हैं -

ऐसा क्यों होता?
तन तो श्रम करता मन सोता।

शोर करे न 'शांत' समन्दर
भीतर-भीतर ज्वर उठे।
दैत्य, अग्नि, पशु से क्या डरना
जब अंतस में प्यार जगे।
ऐसा क्यों होता?
नीलकंठ क्यों अमृत बोता?

                            यहाँ शांत जी ने अपने साहित्यिक उपनाम का शब्दकोशीय अर्थ में प्रयोग कर अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया है। विष पीकर अमृत देने की विरासत का वारिस कवि ही होता है। वह जानता है कि अहम् का वहम ही सारे टकरावों की जड़ है। 'रूठना' जिंदगी जीने का सही ढंग नहीं है। 'मनाना' और मान जाना ही को आगे बढ़ाता है। विडंबनाओं को नवगीत का कलेवर मान कर निरंतर विखण्डन की खेती कर रहे, तथाकथित गीतकार मानें न मानें गीतसृजन पथ का अनुगामी बना रहेगा और गीत का श्रोता सनातन मूल्यों की अवहेला सहन न कर ऐसे गीतों को हृदयंगम करता रहेगा।  शांत जी संवाद को समस्याओं के समाधान में सहायक मानते हुए लिखते हैं-

फिर संवाद करें,
आओ, फिर से बात करें हम....
...रत्ती भर ना डरें,
ना आघात, ना घात करें हम।

                           शांत जी ने नवगीतों में राष्ट्रीय भावधारा को उपेक्षित होते देखते हुए, खुद नवता पथ पर पग रखकर राष्ट्रीयता का रंग घोलने का प्रयास किया है। अपने इस प्रथम प्रयास में भले ही कवि गीत-नवगीत की संधि रेखा पर खड़ा दिखता है किन्तु  'गिरते हैं शह-सवार ही मैदाने-जंग में  वह तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले?' शांत जी चुनौती को स्वीकारकर आगे बढ़ते हैं -

हो संपन्न राष्ट्र अपना
सबको अधिकार मिले
सोच-विचार मूक प्राणी को
एक नया संसार मिले अब तक नवगीतों में मानवीय पीड़ा और इंसानी परेशानियाँ हो कथ्य का विषय बनती आई हैं। शांत जी मनुष्य मात्र तक सीमित रहते, उनकी संवेदनाएँ मूक प्राणियों  विस्तार पाती है। नवगीत के कथ्य में यह एक नव्य प्रयोग है। शांत जानते हैं कि  'लकीर के फ़कीर' ऐसी रचनाओं को नवगीत मानने से इंकार कर सकते हैं, फिर भी वे 'वैचारिक प्रतिबद्धों' के गिरोह में सत्य कहने का साहस करते हैं। वे ऐसे गिरोहबाजों को ललकारते हैं-

जिसे तुम कविता कहते हो
 क्या
वही बस कविता है?

जिसमें तुम गोते लगाते हो
क्या
वही सरिता है?...

.... कविता, सरिता और सविता
सिर्फ वही नहीं है
जो तुम्हारी परिभाषा में बँधा है।

                         नवगीत को नश्वर सांसारिक अभिव्यक्तियों तक सीमित रखने के पक्षधरों को शांत जी का कवि मन, आवरण-ेयह बताता है कि नवता सांसारिक होते हुए आध्यात्मिक  भी है। आवरण चित्र में कदम्ब शाख पर वेणुवादन करते हुए श्रीकृष्ण विराजमान हैं, उनके सम्मुख सुन्दर वस्त्रों में सज्जित बृज वनिताएँ हैं। वस्त्रहीन स्नान करने की कुप्रथा को वस्त्र-हरण कर छुड़वाने का वचन लेने के बाद कृष्ण लौटा चुके हैं। कुप्रथा को छोड़कर सुवस्त्रों से सज्जित बृज बालाएँ  नवता का वरण कर चुकी हैं। संदेश स्पष्ट है कि नवगीत की नवता वैचारिक, आचारिक मौलिक तथा  सर्व हितकारी हो तभी  लोक - मान्य होगी।

                        कठमुल्लेपन की हद तक जड़ता का वरण कर रहे तथाकथित प्रगतिवादियों (वास्तव में साम्यवादियों) की वैचारिक दासता स्वीकार कर नवगीत को वैचारिक प्रतिबद्धता के पिंजरे में कैद  रखने के आग्रही नवगीतकारों को शांत जी सर्वहितकारी नव-पथ अपनाने का सन्देश देते हैं। 'सुधियों के  गीत' शीर्षक  के अंतर्गत शांत जी नवगीत के माध्यम से मानवीय संबंधों की संवेदनाओं को पारंपरिकता से हटकर अभिव्यक्ति  देते हैं-

साथी रूठ गया
अब सपने सूली लटकेंगे

प्रतिबंधों की ज़ंजीरों से
खूब कसे
उसके ज़ज़्बात
अनुबंधों के संकेतों से
घिर आई 
दिन में ही रात 

धीरज छूट गया
जीवन भर दर-दर भटकेंगे

                         विषय, विषय-वस्तु, कहन, शब्द चयन आदि में शांत  जी किसी का अनुकरण नहीं करते। शांत जी के आत्मीय मित्र मधुकर अष्ठाना जी प्रगतिशील विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं तो, मनोज श्रीवास्तव राष्ट्रीय ओज के प्रतिनिधि , राजेश अरोरा 'शलभ' हास्य के महारथी हैं तो अमरनाथ हिंदी छांदस भावधारा के दिग्गज है, राजेंद्र वर्मा उर्दू उरूज के उस्ताद हैं तो नरेश सक्सेना अपने राह  बनाने वाले शिखर हस्ताक्षर हैं। शांत इनमें से किसी का अनुकरण, यहाँ तक कि अपने उस्ताद शायरे-आज़म कृष्ण बिहारी 'नूर'  के शागिर्दे-ख़ास  होने के बाद भी शायरी बुंदेली और हिंदी लेखन की राह खुद बनाते नज़र आते हैं। अपने प्रश्नों के उत्तर खुद तलाशने की प्रवृत्ति उन्हें उनके अभियंता  है। लिपिकीय और अध्यापकीय प्रवृत्ति पीछे देखकर आगे बढ़ने की होती है। जो पहले चुका है,  पुनरावृत्ति सहज, सरल शीघ्र परिणामदायी होने के बावजूद इंजीनियर को हर निर्माणस्थली पर भिन्न आधारभूमि, समस्याएँ और संसाधन चुनकर नव प्रविधि का चयन करना होता है। शांत जी अभियंता होने के नाते प्रकृति से निकटता से जुड़े हैं। प्रकृति मानवीय भाषा न जानते हुए  बहुधा सब कुछ बोल देती है, बशर्ते आप प्रकृति से जुड़कर सुन-समझ सकें। नारी प्रकृति भी कहा जाता है। शांत जी कहते हैं-

तुमने  बिन बोले
आँखों से
सब कुछ कह डाला।

सदियों से 
प्यासे मरुथल को
कर डाला पानी-पानी।
जल को ही
मीठा कर खारेपन के
बदल दिए मानी।
होंठ बिना खोले
रिक्त किया
विष सिक्त प्याला।

                        विश्व ऊर्जा संकट से जूझ और ऊर्जा प्राप्ति के नए साधन खोज रहा है। ऊर्जा  के लिए ईंधन और  ईंधन की खपत पर्यावरण प्रदूषण का खतरा, शांत इंगित करते हैं -

साइकिल पर चल हैं
दीप से हम जल रहे हैं
गीत गाते हैं
गुनगुनाते हैं
ऊर्जा अपनी बचाते हैं।

                       'सत्य होता है चिरंतन' शीर्षक से शांत कहते हैं -

देख ले तू
करके  चिंतन
सत्य  चिरंतन
चाह तुझको है पुरातन
स्वर लहरियों की।

                        'नवता' के नवगीत और गीत नीर-क्षीर  समरस हैं, उनके बीच में भारत  की तरह सीमा रेखा खींची जा सकती। नवता के नवगीतकार को परिपक्व होने में समय लगेगा। संतोष की बात यह है कि वह सस्ती लोकप्रियता और शीघ्र फल प्राप्ति  के लिए  स्थापितों अंधानुकरण न कर अपनी राह आप बना रहा है।  **********************
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, 
जबलपुर ४८२००१, चलभाष - ९४२५१८३२४४, ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com 
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दोहे -मुक्तक


दोहे -मुक्तक 
अजर अमर अक्षर अजित, अमित असित अनमोल।
अतुल अगोचर अवनिपति, अंबरनाथ अडोल।।
*
रहजन - रहबर रट रहे, राम राम रम राम।
राम रमापति रम रहो, राग - रागिनी राम।।
*
ललित लता लश्कर लहक, लक्षण लहर ललाम।                                                                                  लिप्त लड़कपन लजीला, लतिका लगन लगाम।।
*
संजीव
१६-११-२०१९
उग, बढ़, झर पत्ते रहे, रहे न कुछ भी जोड़                                                                                      सीख न लेता कुछ मनुज, कब चाहे दे छोड़
*                                                                                                                                              लट्टू पर लट्टू हुए, दिया न आया याद                                                                                                जब बिजली गुल हो गई, तब करते फरियाद
*
नम आँख देखकर हमारी आँख नम हुई
दिल से करी तारीफ मगर वह भी कम हुई
हमने जलाई फुलझड़ी 'सलिल' ये क्या हुआ
दीवाला हो गया है वो जैसे ही बम हुई.
*

नवगीत

नवगीत
*
लगें अपरिचित
सारे परिचित
जलसा घर में
है अस्पृश्य आजकल अमिधा
नहीं लक्षणा रही चाह में
स्वर्णाभूषण सदृश व्यंजना
बदल रही है वाह; आह में
सुख में दुःख को पाल रही है
श्वास-श्वास सौतिया डाह में
हुए अपरिमित
अपने सपने
कर के कर में
सत्य नहीं है किसी काम का
नाम न लेना भूल राम का
कैद चेतना हो विचार में
दक्षिण-दक्षिण, वाम-वाम का
समरसता, सद्भाव त्याज्य है
रिश्ता रिसता स्रोत दाम का
पाल असीमित
भ्रम निज मन में
शक्कर सागर में
चोटी, टोपी, तिलक, मँजीरा
हँसिया थामे नचे जमूरा
ए सी में शोलों के नगमे
छोटे कपड़े, बड़ा तमूरा
चूरन-डायजीन ले लिक्खो
भूखा रहकर मरा मजूरा
है वह वन्दित
मन अभद्र जो
है तन नागर में
***
संजीव
१६-११-२०१९

कीर्ति छंद

छंद सलिला :
संजीव
*
कीर्ति छंद
छंद विधान:
द्विपदिक, चतुश्चरणिक, मात्रिक कीर्ति छंद इंद्रा वज्रा तथा उपेन्द्र वज्रा के संयोग से बनता है. इसका प्रथम चरण उपेन्द्र वज्रा (जगण तगण जगण दो गुरु / १२१-२२१-१२१-२२) तथा शेष तीन दूसरे, तीसरे और चौथे चरण इंद्रा वज्रा (तगण तगण जगण दो गुरु / २२१-२२१-१२१-२२) इस छंद में ४४ वर्ण तथा ७१ मात्राएँ होती हैं.
उदाहरण:
१. मिटा न क्यों दें मतभेद भाई, आओ! मिलाएं हम हाथ आओ
आओ, न जाओ, न उदास ही हो, भाई! दिलों में समभाव भी हो.
२. शराब पीना तज आज प्यारे!, होता नहीं है कुछ लाभ सोचो
माया मिटा नष्ट करे सुकाया, खोता सदा मान, सुनाम भी तो.
३. नसीहतों से दम नाक में है, पीछा छुड़ाएं हम आज कैसे?
कोई बताये कुछ तो तरीका, रोके न टोके परवाज़ ऐसे.
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छंद-बहर दोउ एक हैं २

कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं २
*
गीत
फ़साना
(छंद- दस मात्रिक दैशिक जातीय, षडाक्षरी गायत्री जातीय सोमराजी छंद)
[बहर- फऊलुन फऊलुन १२२ १२२]
*
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हें देखता हूँ
तुम्हें चाहता हूँ
तुम्हें माँगता हूँ
तुम्हें पूजता हूँ
बनाना न आया
बहाना बनाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हीं जिंदगी हो
तुम्हीं बन्दगी हो
तुम्हीं वन्दना हो
तुम्हीं प्रार्थना हो
नहीं सीख पाया
बिताया भुलाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हारा रहा है
तुम्हारा रहेगा
तुम्हारे बिना ना
हमारा रहेगा
कहाँ जान पाया
तुम्हें मैं लुभाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
***

छंद-बहर दोउ एक हैं ३

कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं ३
*
मुक्तिका
चलें साथ हम
(छंद- तेरह मात्रिक भागवत जातीय, अष्टाक्षरी अनुष्टुप जातीय छंद, सूत्र ययलग )
[बहर- फऊलुं फऊलुं फअल १२२ १२२ १२, यगण यगण लघु गुरु ]
*
चलें भी चलें साथ हम
करें दुश्मनों को ख़तम
*
न पीछे हटेंगे कदम
न आगे बढ़ेंगे सितम
*
न छोड़ा, न छोड़ें तनिक
सदाचार, धर्मो-करम
*
तुम्हारे-हमारे सपन
हमारे-तुम्हारे सनम
*
कहीं और है स्वर्ग यह
न पाला कभी भी भरम
***

दोहा सलिला

दोहा सलिला 
*
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.

*
मन में क्या?, कैसे कहें? हो न सके अनुमान.
राजनीति के फेर में, फिल्मकार कुर्बान.

*
सही-गलत जाने बिना, बेमतलब आरोप.
लगा, दिखाते नासमझ, अपनों पर ही कोप.

*


रविवार, 17 नवंबर 2019

दिल्लीवालो

एक रचना
दिल्लीवालो
*
दिल्लीवालो!
भोर हुई पर
जाग न जाना

घुली हवा में प्रचुर धूल है
जंगल काटे, पर्वत खोदे
सूखे ताल, सरोवर, पोखर
नहीं बावली-कुएँ शेष हैं
हर मुश्किल का यही मूल है
बिल्लीवालो!
दूध विषैला
पी मत जाना

कल्चर है होटल में खाना
सद्विचार कह दक़ियानूसी
चीर-फाड़कर वस्त्र पहनना
नहीं लाज से नज़र झुकाना
बेशर्मों को कहो कूल है
इल्लीवालो!
पैकिंग बढ़िया
कर दे जाना

आज जुडो कल तोड़ो नाता
मनमानी करना विमर्श है
व्यापे जीवन में सन्नाटा
साध्य हुआ केवल अमर्ष है
वाक् न कोमल तीक्ष्ण शूल है
किल्लीवालो!
ठोंको ताली
बना बहाना
*
संजीव
१७-११-२०१९

शनिवार, 16 नवंबर 2019

अलंकार दोहा

कार्यशाला
अलंकार बताइये
*
अजर अमर अक्षर अजित, अमित असित अनमोल।
अतुल अगोचर अवनिपति, अंबरनाथ अडोल।।
*
ललित लता लश्कर लहक, लक्षण लहर ललाम।
लिप्त लड़कपन लजीला, लतिका लगन लगाम।।
संजीव

१६-११-२०१९

नवगीत

नवगीत 
*
लगें अपरिचित
सारे परिचित
जलसा घर में

है अस्पृश्य आजकल अमिधा
नहीं लक्षणा रही चाह में
स्वर्णाभूषण सदृश व्यंजना
बदल रही है वाह; आह में
सुख में दुःख को पाल रही है
श्वास-श्वास सौतिया डाह में
हुए अपरिमित
अपने सपने
कर के कर में

सत्य नहीं है किसी काम का 
नाम न लेना भूल राम का
कैद चेतना हो विचार में
दक्षिण-दक्षिण, वाम-वाम का  
समरसता, सद्भाव त्यज्य है 
रिश्ता रिसता स्रोत दाम का 
पाल असीमित 
भ्रम निज मन में
शक्कर सागर में

चोटी, टोपी, तिलक, मँजीरा
हँसिया थामे नचे जमूरा
ए सी में शोलों के नगमे
छोटे कपड़े, बड़ा तमूरा
चूरन-डायजीन ले लिक्खो 
भूखा रहकर मरा मजूरा
है वह वन्दित  
मन अभद्र जो 
है तन नागर में
***
संजीव
१६-११-२०१९ 

शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

नवगीत सुनो शहरियों!

नवगीत 
सुनो शहरियों!
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सुनो शहरियों! 
पिघल ग्लेशियर 
सागर का जल उठा रहे हैं 
जल्दी भागो। 

माया नगरी नहीं टिकेगी 
विनाश लीला नहीं रुकेगी 
कोशिश पार्थ पराजित होगा 
श्वास गोपिका पुन: लुटेगी 
बुनो शहरियों !
अब मत सपने 
खुद से खुद ही ठगा रहे हो 
मत अनुरागो

संबंधों के लाक्षागृह में  
कब तक खैर मनाओगे रे! 
प्रतिबंधों का, अनुबंधों का  
कैसे क़र्ज़ चुकाओगे रे! 
उठो शहरियों !
बेढब नपने 
बना-बना निज श्वास घोंटते  
यह लत त्यागो 

साँपिन छिप निज बच्चे सेती   
झाड़ी हो या पत्थर-रेती  
खेत हो रहे खेत सिसकते  
इमारतों की होती खेती 
धुनो शहरियों !
खुद अपना सिर  
निज ख्वाबों का खून करो 
सोओ, मत जागो 
***
संजीव 
१५-११-२०१९ 

समीक्षा, नवगीत, अशोक 'अज्ञानी'

कृति चर्चा -
'अपने शब्द गढ़ो' तब जीवन ग्रन्थ पढ़ो 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण - अपने शब्द गढ़ो, गीत-नवगीत संग्रह, डॉ. अशोक अज्ञानी, प्रथम संस्करण २०१९, आईएसबीएन ९७८-८१-९२२९४४-०-७, आकार २१ से.मी. x १४ से.मी., आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १३८, मूल्य १५०/-, प्रकाशक - न्यू आस्था प्रकाशन, लखनऊ। गीतकार संपर्क - सी ३८८७ राजाजीपुरम, लखनऊ १७, चलभाष ९४५४०८२१८१। ]    
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              संवेदनाओं को अनुभव कर, अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की कला और विज्ञान जानकर प्रयोग करने ने ही मनुष्य को अन्य जीवों की तुलना में अधिक उन्नत और मानवीय सभ्यता को अधिक समृद्ध किया है। सभ्यता और संस्कृति के उन्नयन में साहित्य की महती भूमिका होती है। साहित्य वह विधा है जिसमें सबका हित समाहित होता है। जब साहित्य किसी वर्ग विशेष या विचारधारा विशेष के हित को लक्ष्यकर रचा जाता है तब वह अकाल काल कवलित होने लगता है। इतिहास साक्षी है कि ऐसा साहित्य खुद ही नष्ट नहीं होता, जिस सभ्यता और संस्कृति से जुड़ा होता है उसके पराभव का कारण भी बनता है। विविध पंथों, धर्मों, सम्प्रदायों, राजनैतिक दलों का उत्थान तभी तक होता है जब तक वे सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय को लक्ष्य मानते हैं। जैसे ही वे व्यक्ति या वर्ग के हित को साध्य मानने लगते हैं, नष्ट होने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाते है। इस सनातन सत्य का सम-सामयिक उदाहरण हिंदी साहित्य में प्रगतिशील कविता का उद्भव और पराभव है। 

              मानवीय अनुभूतियों की अभिव्यक्ति गद्य की तुलना में पद्य अधिक सहजता, सरलता और सरसता से कर पाता है। प्रकृति पुत्र मानव ने कलकल, कलरव, नाद, गर्जन आदि ध्वनियों का श्रवण और उनके प्रभावों का आकलन कर उन्हें स्मृति में संचित किया। समान परिस्थितियों में समान ध्वनियों का उच्चारण कर, साथियों को सजग-सचेत करने की क्रिया ने वाचिक साहित्य तथा अंकन ने लिखित साहित्य परंपरा को जन्म दिया जो भाषा, व्याकरण और पिंगल से समृद्ध होकर वर्तमान स्वरूप ग्रहण कर सकी। गीति साहित्य केंद्र में एक विचार को  रखकर मुखड़े और अंतरे के क्रमिक प्रयोग के विविध प्रयोग करते हुए वर्तमान में गीत-नवगीत के माध्यम से जनानुभूतियों को जन-जन तक पहुँचा रही हैं। 

              इस पृष्ठभूमि में हिंदी में शोधोपाधि प्राप्त, शिक्षा जगत से जुड़े और वर्मन में प्राचार्य के रूप में कार्यरत डॉ. अशोक अज्ञानी के गीत-नवगीत संग्रह 'अपने शब्द गढ़ो' का पारायण एक सुखद अनुभव है। संकलन का शीर्षक ही रचनाकार और रचनाओं के उद्देश्य का संकेत करता है कि 'हुए' का अंधानुकरण न कर 'होना चाहिए' की दिशा में रचना कर्म को बढ़ना होगा। पुरातनता की आधारशिला पर नवीनता का भवन निर्मित किये बिना विकास नहीं होता। 'गीत' नवता  का वरण कर जब 'नवगीत' का बाना धारण करता है तो समय के साथ उसे परिवर्तित भी करता रहता है। यह परिवर्तन कथ्य और शिल्प दोनों में होता है। अशोक जी दोनों आयामों में परिवर्तन के पक्षधर होते हुए भी 'कल' को नष्ट कर  'कल' बनाने की नासमझी से दूर रहकर 'कल' के साथ समायोजन कर 'कल' का निर्माण कर 'कल' प्राप्ति को साहित्य का लक्ष्य मानते हैं, वे मानव के 'कल' बनने के खतरे से चिंतित हैं। इन नवगीतों में यह चिंता यत्र-तत्र अन्तर्निहित है। 'सत्य की समीक्षा में' गीतकार कहता है- 

झूठे का सर ऊँचा / कितने दिन रह पाया। 
पुष्प कंटकों के ही / मध्य सदा मुस्काया। 
प्रातिभ ही करते हैं / प्रतिभा का अभिनंदन 
खुशियाँ है हड़ताली / निश्चित किरदार नहीं। 
सामाजिक मंचों को / समता स्वीकार नहीं। 
विकट परिस्थितियों का  प्रक्षालन।  

              नवगीत को जन्म के तुरंत बाद से है 'वैचारिक प्रतिबद्धता' के असुर से जूझना पड़ रहा है। सतत तक न पहुँच सका साम्यवादी विचारधारा समर्थक वर्ग पहले कविता और फिर नवगीत के माध्यम से विसंगतियों के अतिरेकी चित्रण द्वारा जनअसंतोष को भड़काने का असफल प्रयास करता रहा है। अशोक जी संकेतों में कहते हैं- 'इस नदी में नीर कम / कीचड़ बहुत है।' वे चेताते हुए कहते हैं- 

स्वार्थ के पन्ने पलटकर देख लेना 
शीर्षक हरदम रहे है हाशिये पर। 
पंथ पर दिनमान उसको मिले, जिसने 
कर लिया विश्वास माटी के दिए पर...
... द्वन्द के पूजाघरों में मत भटकना 
पूजने को एक ही कंकर बहुत है। 

           द्वन्द वाद के प्रणेताओं को अशोक जी का संदेश बहुत स्पष्ट है- 

इस डगर से उस डगर तक / गाँव से लेकर शहर तक 
छक रहे हैं लोग जी भरकर / चल रहे हैं प्यार के लंगर 
आस्था की पूड़ियाँ हैं, रायता विश्वास का है। 
ख्वाब सारे हैं पुलावी और गहि एहसास का है। 
कामनाओं का है छोला, भावनाओं की मिठाई। 
प्रेम के है प्लेट जिस पर कपट की कुछ है खटाई।  

अशोक जी के नवगीतों में उनका 'शिक्षक' सामने न होकर भी अपना काम करता है। \तनो बंधु' में कवि समाज को राह दिखाता है-

वीणा के सुर मधुरिम होंगे / तुम तारों सा तो तनो बंधु!
ज्ञापन-विज्ञापन का युग है / नूतन उद्घाटन का युग है 
हर और खड़े हैं यक्ष प्रश्न / सच के सत्यापन का युग है 
जनहित में जारी होने से पहले / खुद के तो बनो बंधु! 

               शिक्षक की दृष्टि समष्टिपरक होती है, वह एक विद्यार्थी को नहीं पूरी कक्षा को अध्ययन कराता है। यह समष्टिपरक चिंतन अशोक जी के नवगीतों में सर्वत्र व्याप्त है. वे श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित 'कर्मवाद' को अपने नवगीत में पिरोते हैं-

मन किसान जब लड़ा अकाल से / अकाल से 
क्यारियाँ सँवर गयीं,  कर्म की कुदाल से 
फ़र्ज़ का न फावड़ा डरा / खेत हो गया हरा-भरा 

          विसंगतियों के अतिरेकी-छद्म चित्रण के खतरे के प्रति सजग अशोक जी इस विडंबना को बखूबी पहचानकर उसको चिन्हित करते हैं- 

दोष दृश्य में है अथवा खुद दोष दृष्टि का है
गर्मी का मौसम, मौसम लग रहा वृष्टि का है 
अर्थ देखकर अर्थ बदल डाले हैं शब्दों ने  
विघटन लिए हुए यह कैसा सृजन सृष्टि का है 
रोते हैं कामवर, नामवर मौज उड़ाते हैं
पोखर को सागर, सागर को पोखर कहते हैं 

           अशोक जी छंद को नवगीत का अपरिहार्य तत्व मानते हैं। साक्षी उनके नवगीत हैं।  वे किसी छंद विशेष में गीत न रचकर, मात्रिक छंदों की जाती के विविध छंदों का प्रयोग विविध पंक्तियों में करते हैं। इससे कल बाँट भिन्न होने पर भी गीतों में छंद भंग नहीं होता। गीतकार समस्याओं का सम्यक समाधान निकलने का पक्षधर है- 
समाधान कब निकल सके हैं / विधि-विधान उलझाने से 
सीमित संसाधन हैं फिर भी / छोटा सही निदान लिखें 

वह अतीतजीवी भी नहीं है-

आखिर कब तक धनिया-होरी / के  किस्से दोहरायेंगे
कलम कह रही वर्तमान का / कोई नव गोदान लिखें। 

           फ़ारसी अशआर की तरह  अशोक जी के नवगीतों के मुखड़े अपना मुहावरा आप बनाते हैं। उन्हें गीत से अलग स्वतंत्र रूप से भी पढ़कर अर्थ ग्रहण किया जा - 

किसी परिधि में जिसे बाँधना / संभव  नहीं हुआ 
उस उन्मुक्त प्रेम को ढाई / अक्षर कहते लोग।    


खुली खिड़कियाँ, खुले झरोखे / खुले हैं दरवाज़े 
आम आदमी की किस्मत का / ताला नहीं खुला 

आ गए जब से किलोमीटर
खो गए हैं मील  पत्थर

           अनुप्रास, उपमा, रूपक, विरोधाभास, यमक आदि अलंकारों का यथास्थान उपयोग इन नवगीतों को समृद्ध करता है। मौलिक बिम्ब, प्रतीक यत्र-तत्र शोभित हैं। अशोक जी के नवगीतों का वैशिष्ट्य उनकी लयात्मक कहन है- 
उनसे बोलो / पर इतना सच है 
अपनी बोली-बानी जैसे / घर के बूढ़े लोग 

बँधी पांडुलिपियाँ हों जैसे / फटही गठरी में 
वैसे पड़ी हुई हैं दादी / गिरही कोठरी में 
वैसे ही बेकार हो गयी / दादा की काठी 
घर के कोने पड़ी हुई हो / ज्यों टुटही लाठी 
सुनो-ना सुनो, गुनो-ना गुनो /  मन की मर्जी है 
किस्सा और कहानी जैसे / घर के बूढ़े लोग 

          'काल है संक्रांति का' और 'सड़क पर' नवगीत संग्रहों में मैंने लोकगीतों  छंदो के आधार पर नवगीत कहे हैं। अशोक जी भी इसी राह के राही हैं। वे  लोकोक्तियों और मुहावरों को कच्ची मिट्टी की तरह उपयोग कर अपने गीतों में ढाल लेते हैं। लोकमंच का कालजयी खेल 'कठपुतली'  अशोक जी के लिए मानवीय संवेदनाओं का जीवंत दस्तावेज बन जाता है - 

बीत गए दिन लालटेन के / रहा न नौ मन तेल 
आखिर कब तक खेलेंगे हम / कठपुतली का खेल 
नेता बन बैठा दलगंजन / जमा रहा है धाक 
गाजर खां ने भी दे डाली / हमको तीन तलाक 
गौरैया सा जीवन अपना / सबके हाथ गुलेल 
आखिर कब तक खेलेंगे हम / कठपुतली का खेल 

         शिव प्रसाद लाल जी ने ठीक ही आकलन किया है कि अशोक जी की काव्य प्रतिभा शास्त्रों की परिचारिका नहीं, खेत-खलिहानों से होकर निकली है। अशोक जी अपने गीतों में प्रयुक्त भाषा के शाहकार हैं। 'रट्टू तोता बहुत बने / अब अपने गढ़ो, शोध की इतिश्री नहीं करना / कुछ अभी संदर्भ छूटे हैं, तुम हमारे गाँव आकर क्या करोगे? / अब अहल्या सी शिलायें भी नहीं हैं, प्यार की छिछली नदी में मत उतरना / इस नदी में नीर कम कीचड़ बहुत है' जैसी पंक्तियाँ पाठक की जुबान पर चढ़ने का माद्दा रखती हैं। 

          'अनपढ़ रामकली' अशोक जी की पहचान स्थापित करनेवाला नवगीत है-

रूप-राशि की हुई अचानक / चर्चा गली-गली 
जिस दिन से  गयी आधुनिक / अनपढ़ रामकली 

चाँदी लुढ़की, सोना लुढ़का / लुढ़क गया बाज़ार 
रामकली की एक अदा पर / उछल पड़ा व्यापार 
एकाएक बन गयी काजू / घर की मूँगफली
जिस दिन से  गयी आधुनिक / अनपढ़ रामकली

धरम भूलने लगीं कंठियाँ / गये जनेऊ टूट 
पान लिए मुस्कान मिली तो / मची प्रेम की लूट 
ऊँची दूकानों को छोटी / गुमटी  बहुत खली 
जिस दिन से  गयी आधुनिक / अनपढ़ रामकली

           नवगीतों के कथ्याधारित विविध प्रकार इस संकलन में देखे जा सकते हैं। लक्षणा, व्यंजना तथा अमिधा तीनों अशोक जी के द्वारा यथास्थान प्रयोग की गयी हैं। 'अपने शब्द गढ़ो' का रचयिता गीत-नवगीत को भारत-पाकिस्तान नहीं, गंगा-जमुना मानता है। इन नवगीतों में पाठक के मन तक पहुँचने की काबलियत है।
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संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष - ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com
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गीत

गीत
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जो चाहेंगे
वह कर लेंगे
छू लेंगे
कदम रोक ले
नहीं कहीं भी
कोई ऐसा पाश।
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शब्द
निशब्द
देख तितली को
भरते नित्य उड़ान।
रुकें
चुकें झट
क्यों न जूझते
मुश्किल से इंसान?
घेर
भले लें
शशि को बादल
उड़ जाएँगे हार।
चटक
चाँदनी
फैला भू पर
दे धरती उजियार।
करे सलिल को
रजताभित मिल
बिछुड़ न जाए काश।
कदम रोक ले
नहीं कहीं भी
कोई ऐसा पाश।
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दर्द
न व्यापे
हृदय न कांपे
छू ले नया वितान।
मोह
न रोके
द्रोह न झोंके
भट्टी में ईमान।
हो
सच व्यक्त
ज़िंदगी का हर
जयी तभी हो गीत।
हर्ष
प्रीत
उल्लास बिना
मर जाएगा नवगीत।
भूल विसंगति
सुना सुसंगति
जीवित हो तब लाश।
कदम रोक ले
नहीं कहीं भी
कोई ऐसा पाश।
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संजीव
१४-११-२०१९
९४२५१८३२४४