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गुरुवार, 4 अक्टूबर 2018

karya shala- kundaliya

कार्य शाला- दोहा / रोला / कुण्डलिया 
*
खिलना झड़ना बिखरना जीवन क्रम है खास। 
कविता ही कहती नहीं, कहते सब इतिहास।। -पं. गिरिमोहन गुरु

कहता युग-इतिहास, न 'गुरु' होता हर कोई 
वही काटता फसल, समय पर जिसने बोई
'सलिल' करे 'संजीव', न आधे मन से मिलना
बनो नर्मदा लहर, पत्थरों पर भी खिलना।   - संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
संदेहों की देह में, जब से उगे बबूल।
खिल पाते तब से नहीं, विश्वासों के फूल।।  - पं.गिरिमोहन गुरु

विश्वासों के फूल​​​​​​​​​​​​​​​​,​'सलिल' बिन मुरझा जाते​।
​नेह-नर्मदा मिले, ​शिलाओं पर मुस्काते​​।​​।​​
​समय साक्ष्य दे उमर, नहीं घटती गेहों की​​।​

​लिखे कहानी नई, फसल मिटती देहों की।​​। 
- संजीव वर्मा 'सलिल'

*
......पं. गिरिमोहन गुरु
  

karya shala- doha / rola / kundaliya

कार्यशाला- दोहा / रोला / कुण्डलिया ​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​
*
मन डूबा ही जा रहा,​ ​भावों भरा अपार​​
बोझ तले है दब गया,​ ​दुनिया है व्यापार।।​ -शशि त्यागी
दुनिया है व्यापार, न क्या ईश्वर सौदागर?
भटकाता है जनम-जनम क्यों कर यायावर
घाट न घर का रहे जीव, भटके हो उन्मन
भाव भरा संसार, जा रहा है डूबा मन​ -संजीव वर्मा 'सलिल' ​
*

doha salila

दोहा सलिला
मिली न मिलकर भी कभी, कहाँ छिपी तकदीर
जीवन बीता जा रहा, कब तक धारूँ धीर?
*
गुरु गुड़ चेला शर्करा, तोड़ मोह के पाश
पैर जमकर धरा पर, छुए नित्य आकाश
*
ऐसा भाव अभाव का, करा रहा आभास
पूनम से भी हो रहा अमावसी अहसास
*

doha salila

दोहा सलिला
*
लिखा बिन लिखे आज कुछ, पढ़ा बिन पढ़े आज।
केर-बेर के संग से, सधे न साधे काज।।
*
अर्थ न रहे अनर्थ में, अर्थ बिना सब व्यर्थ।
समझ न पाया किस तरह, समझा सकता अर्थ।।
*
सजे अधर पर जब हँसी, धन्य हो गयी आप।
पैमाना कोई नहीं, जो खुशियाँ ले नाप।।
*
सही करो तो गलत क्यों, समझें-मानें लोग?
गलत करो तो सही, कह; बढ़ा रहे हैं रोग।।
*
दिल के दिल में क्या छिपा, बेदिल से मत बोल।
संग न सँगदिल का करो, रह जाएगी झोल।।
*
प्राण गए तो देह के, अंग दीजिए दान।
जो मरते जी सकेंगे, ऐसे कुछ इंसान।।
*
कंकर भी शंकर बने, कर विराट का संग।
रंग नहीं बदरंग हो, अगर करो सत्संग।।
*
कृष्णा-कृष्णा सब करें, कृष्ण हँस रहे देख।
मैं जन्मा क्यों द्रुपदसुता,का होता उल्लेख?
*
मटक-मटक जो फिर रहे, अटक रहे हर ठौर।
फटक न; सटके सफलता, अटके; करिए गौर।।
*


३.८.२०१८, ७९९९५५९६१८

doha salila

दोहा सलिला
*
गुरु गुड़ चेला शर्करा, तोड़ मोह के पाश। 
पैर जमा कर धरा पर, नित्य छुए आकाश।।
*
संगीता हर श्वास थी, परिणीता हर आस। 
'सलिल' जिंदगी जिंदगी, तभी हुआ आभास।।
*  
श्वास-श्वास हो प्रदीपा, आस-आस हो दीप। 
जीवन-सागर से चुनें, जूझ सफलता-सीप।।

navgeet

नवगीत:
लछमी मैया! 
पैर तुम्हारे 
पूज न पाऊँ 
*
तुम कुबेर की
कोठी का
जब नूर हो गयीं
मजदूरों की
कुटिया से तब
दूर हो गयीं
हारा कोशिश कर
पल भर
दीदार न पाऊँ
*
लाई-बताशा
मुठ्ठी भर ले
भोग लगाया
मृण्मय दीपक
तम हरने
टिम-टिम जल पाया
नहीं जानता
पूजन, भजन
किस तरह गाऊँ?
*
सोना-चाँदी
हीरे-मोती
तुम्हें सुहाते
फल-मेवा
मिष्ठान्न-पटाखे
खूब लुभाते
माल विदेशी
घाटा देशी
विवश चुकाऊँ
*
तेज रौशनी
चुँधियाती
आँखें क्या देखें?
न्यून उजाला
धुँधलाती
आँखें ना लेखें
महलों की
परछाईं से भी
कुटी बचाऊँ
*
कैद विदेशी
बैंकों में कर
नेता बैठे
दबा तिजोरी में
व्यवसायी
खूबई ऐंठे
पलक पाँवड़े बिछा
राह हेरूँ
पछताऊँ
*
कवि मजदूर
न फूटी आँखों
तुम्हें सुहाते
श्रद्धा सहित
तुम्हें मस्तक
हर बरस नवाते
गृह लक्ष्मी
नन्हें-मुन्नों को
क्या समझाऊँ?
***
salil.sanjiv@gmail.com


बुधवार, 3 अक्टूबर 2018

kahani- chhoti si bhool -sushil das

कहानी-
छोटी सी भूल
स्व. सुशील दास
*
[स्व. सुशील दास म. प्र. लोक निर्माण विभाग में अभियंता तथा म. प्र. डिप्लोमा इंजीनियर्स एसोसिएशन के कर्मठ पदाधिकारी थे। वे आजीवन अविवाहित रहे, समर्पित देवी भक्त तथा अपनी माता श्री की हर आज्ञा का पालन करनेवाले पुत्र थे। स्व. दास कुशल कहानीकार भी थे। बांग्लाभाषी होने के कारण भाषिक त्रुटियाँ होना स्वाभाविक है, यह सत्य जानकर वे अपनी कहानियों को छिपाकर रखते थे। स्व. दास के अनुजवत अभिन्न मित्र इंजी. संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा संपादित यह कहानी 'कम में अधिक कहने की कला' दर्शाती है। श्री सलिल के सौजन्य से इसे प्रकाशित किया जा रहा है। स्व. दास का कहानी संग्रह समाज द्वारा प्रकाशित किया जा सके तो यह नई पीढ़ी के लिए उपयोगी सौगात होगी- सं. ]
***
भूल किससे नहीं होती किन्तु बहुत ही कम व्यक्ति अपनी भूल को स्वीकार कर सुधारने की हिम्मत कर पाते हैं। कभी-कभी मनुष्य एक भूल सुधारने के नाम पर अन्य अनेक भूलें कर बैठता है, फिर उसके पश्चाताप में शेष जिन्दगी विषमय कर लेता है। यह विषमय जिन्दगी, उसके मन को गलित कोढ़ की तरह दुर्गंधमय कर लोकालय से दूर रहने के लिए मजबूर कर देती है। ऐसा ही इस कहानी के नायक गोपाल बाबू के साथ हुआ। वे आज भी जन-समाज से दूर, निर्जन स्थान पर साधना का नाम लेकर प्रस्तर मूर्ति के सामने अपनी अतीत की भूल के लिए पश्चाताप तथा आत्म विश्लेषण करते हैं कि इस जिंदगी के लिए जिम्मेदार है उनकी वही छोटी सी भूल।
गोपाल बाबू का एकांतवास, प्रस्तर मूर्तिके सामने निश्चल बैठे रहना, अश्रु प्लावित मुख मंडल, धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन भले ही साधारण मनुष्य के मन पर उनकी धार्मिकता की छाप छोड़ते हैं परन्तु मैं उनका बाल-साथी हूँ, जानता हूँ कि जिंदगी की एक छोटी सी भूल के कारण आज वे इस स्थिति को प्राप्त हुए हैं। धार्मिक के स्थान पर मैं उन्हें एक पश्चातापी व्यक्ति के रूप में ज्यादा मानता हूँ। कभी-कभी उनकी इस बेवकूफी के लिए मन ही मन उन्हें कोसता भी हूँ। जो व्यक्ति समाज से ताल-मेल रखकर चलते हैं, वे हर समय समाज द्वारा ठुकराए जाते हैं। आज की समाज-व्यवस्था को देखकर निस्संदेह यह कहा जा सकता है कि कानून का पालन करनेवाले एवं आदर्शवादी के लिए जी पाना भी दुश्वार है।
जब गोपाल बाबू कोलेज में पढ़ते थे तो वे लज्जालु स्वभाव के व्यक्ति थे और सबके सामने अपने मन की भावनाएँ व्यक्त करने में असमर्थ रहते थे, विशेषकर लड़कियों के सामने। किसी एक घड़ी में किसी एक हँसमुख लड़की ने उनकी जिंदगी की धारा बदल दी, वे अपना परिवेश और समाज भूलकर सुख-संसार के सपने देखने लगे। वे भूल गए कि 'सम्राट एडवर्ड', भले ही 'एलिजाबेथ' के लिए राज सिंहासन त्यागकर जंगल चले गए थे किंतु कभी कोई 'एलिजाबेथ' किसी 'एडवर्ड' के लिए जरा सा भी त्याग नहीं कर सकी। इसलिए, जब समय आया तो उस लड़की ने किसी दूसरे व्यक्ति से शादी कर ली और इस दुःख को भूलने के लिए गोपाल बाबू संसार एवं समाज से दूर रहने लगे। जब कभी शादी की बात आती तो वे कोई न कोई बहाना बना कर टाल देते थे। उनके शादीशुदा अमित्र उन्हें यह कहकर चिढ़ाते रहते 'bachlor live like a king but die like a dog' अर्थात कुँवारे राजा की तरह जीते और कुत्ते की तरह मरते हैं। ये शब्द भी गोपाल बाबू को विचलित नहीं कर पाते थे क्योंकि उनकी यह धारणा हो गयी थी कि नारी एक धोखा है।
एकांतवास से बचने के लिए वे किताबी कीड़ा बन गए। फिर भी मन अशांत रहने पर धार्मिक पुस्तकें पढ़ने के साथ-साथ अधिक से अधिक समय पूजा-पाठ में व्यतीत करने लगे। लोग सोचते कि गोपाल बाबू धार्मिक व्यक्ति हैं पर लोगों की यह भावना उनके मन की ग्लानि को और अधिक उभाड़ने लगी। वे एकांत में देवी की प्रतिमा के समक्ष रोते रहते, मन ही मन में प्रार्थना करते ' हे महामाया! अपनी मायाशक्ति के परे जाने का आत्मबल दो'। मनुष्य स्वजन, परिजन, समाज सबसे दूर रह सकता है पर अपने मन से दूर नहीं रह सकता। गोपाल बाबू यह भूल गए थे कि विचार शक्ति से केवल विचार ही किये जा सकता है, दूसरी भूलों से बच सकते हैं, आत्मग्लानि से नहीं।
गोपाल बाबू भूल गये थे महामाया की श्री चंडी की यह बात "ॐ ग्यानिमामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा, बलादाकृष्णमोहाय महामाया प्रयच्छति।' अर्थात ज्ञानियों के मन में भी माया प्रवेश कराकर महामाया अपने मायाजाल में इस विश्व के समस्त प्राणियों को मुग्ध करती हैं। केवल पूजा-पाठ व धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन मनुष्य को दुःख से तब तक नहीं बचा सकते जब तक उसके मन से अनुराग की भावना दूर नहीं होती।श्री श्री चंडी में यह उक्ति भी है 'शरणागतदीनार्त परित्राणाय परायणे सर्वस्यातिर्हरेदेवि! नारायणी नमोस्तुते' अर्थात जब तक दीन होकर आर्त भाव से देवी के शरणागत नहीं होते तब तक मनुष्य जागतिक सुख-दुःख से नहीं बच सकते। गोपाल बाबु अपनी एक छोटी सी भूल के कारण अपने आपको धोखा दे रहे हैं औए शांति पाने में असमर्थ हैं। क्या महाशक्ति उनकी आत्मग्लानि के अश्रुओं से अपने चरण धुलवाकर भी उनकी भूल का सुधार कर आत्म-शांति नहीं प्रदान करेंगी?
***

मंगलवार, 2 अक्टूबर 2018

chhandotsav 2018

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अभिव्यक्ति विश्वम लखनऊ - विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर
---------:: छ्न्दोत्सव २०१८ ::------------
स्थान: गुलमोहर ग्रीन स्कूल, ओमेक्स सिटी, बिजनौर मार्ग,
शहीद पथ लखनऊ।
रविवार २१.१०,२०१८, प्रात: ११ बजे से। पंजीयन राशि ५००/-
विषय: छंद क्या, क्यों कैसे? दोहा, सोरठा, रोला, कुण्डलिया के संदर्भ में
संयोजन / संचालन: पूर्णिमा बर्मन जी, लखनऊ,
वार्ताकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', जबलपुर
कार्यावली:
उपस्थिति पंजीयन, चाय पूर्वान्ह ११ बजे-११.३० बजे
पूर्वान्ह सत्र: पूर्वान्ह ११.३० बजे-अपरान्ह १.३० बजे
सरस्वती पूजन
परिचय
कृति लोकार्पण- दोहा शतक मञ्जूषा ३ भाग
विमर्श- छंद: उद्भव, प्रासंगिकता और दोहा का रचना विधान
अंतराल: भोजन - अपराह्न १:३० से २:३० तक
अपराह्न सत्र- अपराह्न २:३० से ४:३० तक
विमर्श- सोरठा, रोला और कुण्डलिया का रचना विधान। 
        - प्रश्नोत्तर। 
        - सहभागियों द्वारा दोहा, सोरठा, रोला, कुण्डलिया पाठ। 
 समापन- चाय।  
टीप- लोकार्पित कृतियाँ ५०% रियायती मूल्य पर उपलब्ध होंगी। 
पंजीयन राशि ५००/- भेजकर यथा शीघ्र पंजीकारण करा लें।
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chhand karya shala: radhika chhand

छंद कार्य शाला :
राधिका छंद  
लक्षण: २२ मात्रिक, द्विपदिक, समतुकांती छंद। 
विधान: यति १३-९, पदांत यगण १२२ , मगण २२२।  
अभिनव प्रयोग 
गीत 
*
क्यों मूल्य हुए निर्मूल्य, 
कौन बतलाए?
क्यों अपने ही रह गए,
न सगे; पराए।।  
*
तुलसी न उगाई कहाँ,
नवाएँ माथा?
'लिव इन' में कैसे लगे 
बहू का हाथा? 
क्या होता अर्पण और 
समर्पण क्यों हो?
जब बराबरी ही मात्र, 
लक्ष्य रह जाए?
क्यों मूल्य हुए निर्मूल्य, 
कौन बतलाए?
*
रिश्ते न टिकाऊ रहे,
यही है रोना। 
संबंध बिकाऊ बना
चैन मत खोना।। 
मिल प्रेम-त्याग का पाठ 
न भूल पढ़ाएँ।    
बिन दिशा तय किए कदम, 
न मंजिल पाए।।
क्यों मूल्य हुए निर्मूल्य, 
कौन बतलाए?
*
संजीव, २.१०.२०१८

chhand karya shala radhika chhand

छंद कार्य शाला :
राधिका छंद १३-९ 
लक्षण: २२ मात्रिक, द्विपदिक, समतुकांती छंद.
विधान: यति १३-९, पदांत यगण १२२ , मगण २२२ 
उदाहरण:
१. 
जिसने हिंदी को छोड़, लिखी अंग्रेजी 
उसने अपनी ही आन, गर्त में भेजी 
निज भाषा-भूषा की न, चाह क्यों पाली?
क्यों दुग्ध छोड़कर मय, प्याले में ढाली 
*
नवप्रयोग 
२. मुक्तक 
गाँधी की आँधी चली, लोग थे जागे 
सत्याग्रहियों में होड़, कौन हो आगे?
लाठी-डंडों को थाम, सिपाही दौड़े- 
जो कायर थे वे पीठ, दिखा झट भागे 
*
३. मुक्तिका 
था लालबहादुर सा न, दूसरा नेता 
रह सत्ता-सुख से दूर, नाव निज खेता 
.
अवसर आए अनगिनत, न किंतु भुनाए
वे जिए जनक सम अडिग, न उन सा जेता 
.
पाकी छोटा तन देख, समर में कूदे 
हिमगिरि सा ऊँचा अजित, मनोबल चेता 
.
व्रत सोमवार को करे, देश मिल सारा 
अमरीका का अभिमान, कर दिया रेता 
.
कर 'जय जवान' उद्घोष, गगन गुंजाया 
फिर 'जय किसान' था जोश, नया भर देता
*
असमय ही आया समय, विदा होने का 
क्या समझे कोई लाल, विदा है लेता
***
२-१०-२०१८

radhika chhand

कार्य शाला
राधिका छंद
*
लक्षण: बाईस मात्रिक द्विपदिक समतुकांती छंद।
विधान: १३, ९ पर यति, पदांत यगण या मगण। 
*
लक्षण छंद:
तेरा पै सज नव कला, राधिका रानी।
लखि रूप अलौकिक मातु, कीर्ति हरखानी।।
कहुं बर याके अनुहार, अहै बृजबाला।
सुनि सब कहतीं व्हें मुदित, एक नंदलाला।। -जगन्नाथप्रसाद 'भानु', छंद प्रभाकर
उदाहरण-
१.  हा आर्य! भारत का भाग्य, रजोमय ही है। 
    उर रहते उर्वी उसे, तुम्हीं ने दी है।। 
    उस जड़ जननी का विकृत, वचन तो पाला।
    तुमने इस जन की ओर, न देखा भाला।।   -मैथिलीशरण गुप्त, साकेत 
२. सब सुधि-बुधि गइ क्यों भूलि, गई मति मारी।
    माया को चेरो भयो, भूल असुरारी।।
    कटि जैहें भव के फंद, पाप नसि जाई।
    रे! सदा भजौ श्रीकृष्ण-राधिका माई।।    -जगन्नाथप्रसाद 'भानु', छंद प्रभाकर 
टिप्पणी-पदांत के दो या एक गुरु को लघु में बदलने से छंद बदल जाएगा।  

सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

vimarsh- gan kya hai?

विमर्श:
गण क्या है?
*
अ. गण और वेद
गण मूलत: वैदिक शब्द है। 'गणपति' और 'गणनांगणपति' शब्दों का आशय 'जन जातीय समूह' है। देवगण, ऋषिगण, पितृगण, कविगण इन समस्त पदों में यही अर्थ अभिप्रेषित है।

सृष्टि मूल में अव्यक्त स्रोत (परब्रम्ह) से प्रवृत्त हुई है। वह एक था, उस एक का बहुधा भाव या गण रूप में आना ही विश्व है। सृष्टि-रचना के लिए गणतत्व अनिवार्य है। नानात्व (विविधता) से ही जगत् बनता है। बहुधा, नाना, गण इन सबका लक्ष्य अर्थ एक ही है। वैदिक सृष्टिविद्या के अनुसार मूलभूत एक प्राण सर्वप्रथम था, उससे अनेक (ऋषि, पितर, देव आदि) उत्पन्न हुए पर वह प्रमुख बना रहा इसलिए वह गणपति कहा गया। मूलभूत गणपति ही पुराण की भाषा में गणेश है। शुद्ध विज्ञान की परिभाषा में उसे समष्टि (युनिवर्सल) कहेंगे। उससे जिन अनेक व्यष्टि भावों का जन्म होता है, उसकी संज्ञा गण है। गणपति या गणेश को महत्ततत्व भी कहते हैं। जो निष्कलरूप से सर्वव्यापक हो वही गणपति है। उसका खंड भाव में आना या पृथक्-पृथक् रूप ग्रहण करना गणभाव की सृष्टि है। समष्टि और व्यष्टि दोनों एक दूसरे से अविनाभूत या मिले हुए रहते है। यही संतति संबंध गणेश की सूँड से इंगित है। हाथी का मस्तक महत् या महान का प्रतीक है और व या चूहा पार्थित व्यष्टि पदार्थों या केंद्रों का प्रतीक है। वही पुराण की भाषा में गणपति का पशु है। वस्तुत: गणपति तत्व मूलभूत रुद्र का ही रूप है। जिसे महान कहा जाता है उसकी संज्ञा समुद्र भी थी। उसे ही पुराणों ने एकार्णव कहा है। वह सोम का समुद्र था और उसी तत्व के गणभावों का जन्म होता है। सोम का ही वैदिक प्रतीक मधु या अपूप था, उसी का पौराणिक या लोकगत प्रतीक मोदक है जो गणपति को प्रिय कहा जाता है। यही गण और गणपति की मूल कल्पना थी।

गण-स्वामी गणेश के प्रधान वीरभद्र सप्तमातृका मूर्तियों की पंक्ति के अंत में दंड धारण कर खड़े होते हैं। शिव के अनंत गण हैं जिनके वामन तथा विचित्र स्वरूपों का गुप्तकालीन कला में पर्याप्त आकलन हुआ है। खोह (म. प्र.) से प्राप्त, इलाहाबाद के संग्रहालय में सुरक्षित स्थूल वामन गणों की संख्या अपरिमित है। विकृत रूपधारीगण पट्टिकाओं पर उत्खचित हैं। शिव-बारात में इन अप्राकृतिक रूपधारी गणों का विशेष महत्व है।

आ. गण और ज्योतिष

ज्‍योतिष शास्‍त्र में इंसान के गण को तीन भागों में वर्गीकृत गया है – देव गण, मनुष्‍य गण और राक्षस गण। मनुष्य के जन्‍म नक्षत्र एवं जन्‍मकुंडली के आधार पर उसके गण की पहचान की जा सकती है।                                                                                            क. देव गण से संबंधित जातक उदार, बुद्धिमान, साहसी, अल्‍पाहारी, समृद्ध और दान-पुण्‍य करने वाले होते हैं। 'सुंदरो दान शीलश्च मतिमान् सरल: सदा। अल्पभोगी महाप्राज्ञो तरो देवगणे भवेत्।।' अर्थात देवगण में उत्पन्न पुरुष दानी, बुद्धिमान, सरल हृदय, अल्पाहारी व विचारों में श्रेष्ठ, मेधावी, सरल, दयालु, परोपकारी, सुंदर और आकर्षक व्‍यक्‍तित्‍व के होते हैं। अश्विनी, मृगशिरा, पुर्नवासु, पुष्‍य, हस्‍त, स्‍वाति, अनुराधा, श्रावण, रेवती नक्षत्र में जन्में बालक देव गण के होते हैं।                                                        ख. मनुष्‍य गण के व्यक्ति अभिमानी, समृद्ध और धनुर्विद्या में निपुण होते हैं। 'मानी धनी विशालाक्षो लक्ष्यवेधी धनुर्धर:। गौर: पोरजन ग्राही जायते मानवे गणे।।' अर्थात मनुष्य गण में उत्पन्न पुरुष मानी, धनवान, विशाल नेत्र वाला, धनुर्विद्या का जानकार, ठीक निशाने बेध करने वाला, गौर वर्ण, नगरवासियों को वश में करने वाला होता है। ऐसे जातक किसी समस्या या नकारात्मक स्थिति में भयभीत हो जाते हैं। परिस्थितियों का सामना करने की क्षमता कम होती है। भरणी, रोहिणी, आर्दा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तर फाल्गुनी, पूर्व षाढ़ा, उत्तर षाढा, पूर्व भाद्रपद, उत्तर भाद्रपद में मनुष्य गण के जातक जन्म लेते हैं।                                                                                ग. राक्षस गण के मनुष्य विलक्षण प्रतिभा के धनी, अपने आसपास की अशुभ ऊर्जा को शीघ्रता से भाँप लेते हैं। इनकी छठी इंद्रिय काफी शक्‍तिशाली और सक्रिय होती है। इस गण वाले लोग कठिन परिस्थिति में भी धैर्य और साहस से काम लेते हैं। ये लोग अपने जीवन में हर मुश्किल का डटकर सामना करना जानते हैं। राक्षस गण कृत्तिका, अश्लेषा, मघा, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, मूल, धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र में बनता है। 'उन्मादी भीषणाकार: सर्वदा कलहप्रिय:। पुरुषो दुस्सहं बूते प्रमे ही राक्षसे गण।।' अर्थात राक्षस गण में उत्पन्न बालक उन्मादयुक्त, भयंकर स्वरूप, झगड़ालु, प्रमेह रोग से पीड़ि‍त और कटु वचन बोलने वाला होता है। भविष्य में होने वाली घटनाओं का पूर्वाभास इन्हें पहले ही हो जाता है।
गण और विवाह-                                                                                                                                                       विवाह के समय गणों का सही मिलान होने पर दांपत्‍य जीवन में सुख  और आनंद बना रहता है। वर-कन्‍या का समान गण होने पर दोनों के मध्‍य उत्तम सामंजस्य से विवाह सर्वश्रेष्ठ रहता है। वर-कन्या देव तथा मनुष्य गण के हों तो वैवाहिक जीवन संतोषप्रद होता है, विवाह किया जा सकता है। वर-कन्या के देव गण और राक्षस गण होने पर दोनों के बीच सामंजस्य नहीं रहता है। विवाह नहीं करना चाहिए।
गण और जीव विज्ञान                                                                                                                                            (अंग्रेज़ी: order, ऑर्डर; लातिनी: ordo, ओर्दोजीववैज्ञानिक वर्गीकरण में जीवों के वर्गीकरण की एक श्रेणी होती है। एक गण में एक-दुसरे से समानताएँ रखने वाले कई सारे जीवों के कुल आते हैं। ध्यान दें कि हर जीववैज्ञानिक कुल में बहुत सी भिन्न जीवों की जातियाँ-प्रजातियाँ सम्मिलित होती हैं। गणों के नाम लातिनी भाषा में हैं क्योंकि जीववैज्ञानिक वर्गीकरण की प्रथा १७वीं और १८वीं सदियों में यूरोप में शुरू हुई थी और उस समय वहाँ लातिनी ज्ञान की भाषा मानी जाती थी। आधुनिक काल में इस्तेमाल होने वाली वर्गीकरण व्यवस्था १८वीं शताब्दी में कार्ल लीनियस नामक स्वीडी वैज्ञानिक ने की थी। उदाहरण: मानव एक जीववैज्ञानिक जाति है जिसका वैज्ञानिक नाम 'होमो सेपियन्ज़' (Homo sapiens) है। होमो (Homo) एक जीववैज्ञानिक वंश है जिसमें मानव और मानव से मिलती-जुलती निअंडरथल मानव जैसी कई और जातियाँ थीं - आधुनिक काल में मानवों को छोड़कर इस वंश की अन्य सभी जातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। होमिनिडाए (Hominidae), जिसे हिन्दी में 'मानवनुमा' कह सकते हैं, एक जीववैज्ञानिक कुल है जिसमें मनुष्य, चिम्पान्ज़ी, गोरिल्ला और ओरन्गउटान जैसे सभी बड़े आकार वाले वानर वंश आते हैं। प्राइमेट (Primate), जिसे हिन्दी में 'नरवानर' कह सकते हैं, एक जीववैज्ञानिक गण है जिसमें मानव और सारे मानवनुमा कपियों के अलावा, सभी बन्दर, लीमर, तारसियर जैसे सदस्यों वाले सभी कुल आते हैं। स्तनधारी (Mammalia, मैमेलिया) एक जीववैज्ञानिक वर्ग है जिसमें स्तनधारी जानवरों वाले सभी गण आते हैं - यानी इस वर्ग में मनुष्य, भेड़िये, व्हेल, चूहे, घोड़े और कुत्ते सभी सम्मिलित हैं। कोरडेटाए (Chordatae), जिसे हिन्दी में 'रज्जुकी' कहते हैं, एक जीववैज्ञानिक संघ है जिसमें वे सभी वर्ग आते हैं जिनके सदस्य जानवरों के पास रीढ़ की हड्डी होती है - इसमें मनुष्य, गिरगिटमेंढक, मछली, वग़ैरह शामिल हैं। ऐनीमेलिया (Animalia), जिसे हिन्दी में 'जंतु' कहा जा सकता है, एक जीववैज्ञानिक जगत है जिसमें सभी जंतुओं वाले संघ आते हैं, लेकिन पौधे, इत्यादि नहीं आते - इसमें मनुष्यमकड़ी, ओक्टोपस वग़ैराह सभी प्राणी शामिल हैं।                       गण और छंद                                                                                                                                           आग्नेय महापुराण अध्याय ३२८ छंदों के गण और गुरु-लघु की व्यवस्था                                                                "अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं वेद मन्त्रों के अनुसार पिन्गलोक्त छंदों का क्रमश: वर्णन करूँगा। मगण, नगण, भगण, यगण, जगण, रगण, सगण, और तगण ये ८ गण होते हैं। सभी गण ३-३ अक्षरों के हैं। इनमें मगण के सभी अक्षर गुरु (SSS) और नगण के सब अक्षर लघु होते हैं। आदि गुरु (SII) होने से 'भगण' तथा आदि लघु (ISS) होने से 'यगण' होता है। इसी प्रकार अन्त्य गुरु होने से 'सगण' तथा अन्त्य लघु होने से 'तगण' (SSI) होता है। पाद के अंत में वर्तमान ह्रस्व अक्षर विकल्प से गुरु माना जाता है। विसर्ग, अनुस्वार, संयुक्त अक्षर (व्यंजन), जिव्हामूलीय तथाउपध्मानीय अव्यहित पूर्वमें स्थित होने पर 'ह्रस्व' भी 'गुरु' माना जाता है, दीर्घ तो गुरु है ही। गुरु का संकेत 'ग' और लघु का संकेत 'ल' है। ये 'ग' और 'ल' गण नहीं हैं। 'वसु' शब्द ८ की और 'वेद' शब्द ४ की संज्ञा हैं, इत्यादि बातें लोक के अनुसार जाननी चाहिए। १-३।।                                                                                                            इस प्रकार आदि आग्नेय पुराण में 'छंदस्सार का कथन' नामक तीन सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।।३२८।।                            छंदों का विभाजन वर्णों और मात्राओं के आधार पर किया गया है। छंद प्रथमत: दो प्रकार के माने गए है: वर्णिक और मात्रिक।            वर्णिक छन्द:  इनमें वृत्तों की संख्या निश्चित रहती है। इसके दो भी प्रकार हैं- गणात्मक और अगणात्मक।                                   गणात्मक वणिंक छंदों को वृत्त भी कहते हैं। इनकी रचना तीन लघु और दीर्घ गणों से बने हुए गणों के आधार पर होती है। लघु तथा दीर्घ के विचार से यदि वर्णों क प्रस्तारव्यवस्था की जाए आठ रूप बनते हैं। इन्हीं को "आठ गण" कहते हैं इनमें भ, न, म, य शुभ गण माने गए हैं और ज, र, स, त अशुभ माने गए हैं। वाक्य के आदि में प्रथम चार गणों का प्रयोग उचित है, अंतिम चार का प्रयोग निषिद्ध है। यदि अशुभ गणों से प्रारंभ होनेवाले छंद का ही प्रयोग करना है, देवतावाची या मंगलवाची वर्ण अथवा शब्द का प्रयोग प्रथम करना चाहिए - इससे गणदोष दूर हो जाता है। इन गणों में परस्पर मित्र, शत्रु और उदासीन भाव माना गया है। छंद के आदि में दो गणों का मेल माना गया है। वर्णों के लघु एवं दीर्घ मानने का भी नियम है। लघु स्वर अथवा एक मात्रावाले वर्ण लघु अथवा ह्रस्व माने गए और इसमें एक मात्रा मानी गई है। दीर्घ स्वरों से युक्त संयुक्त वर्णों से पूर्व का लघु वर्ण भी विसर्ग युक्त और अनुस्वार वर्ण तथा छंद का वर्ण दीर्घ माना जाता है।                                                                                                                                                         अगणात्मक वर्णिक वृत्त वे हैं जिनमें गणों का विचार नहीं रखा जाता, केवल वर्णों की निश्चित संख्या का विचार रहता है विशेष मात्रिक छंदों में केवल मात्राओं का ही निश्चित विचार रहता है और यह एक विशेष लय अथवा गति (पाठप्रवाह अथवा पाठपद्धति) पर आधारित रहते हैं। इसलिये ये छंद लयप्रधान होते हैं।                                                                                                                       गण और यमाताराजभानसलगाः  वर्णिक छन्दों में वर्ण गणों के हिसाब से रखे जाते हैं। तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं। इन गणों के नाम हैं: यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण और सगण। अकेले लघु को ‘ल’ और गुरु को ‘ग’ कहते हैं। किस गण में लघु-गुरु का क्रम जानने के लिए सूत्र - यमाताराजभानसलगा जिस गण को जानना हो उसका वर्ण इस में देखकर अगले दो वर्ण और साथ जोड़ लेते हैं और उसी क्रम से गण की मात्राएँ लगा लेते हैं, जैसे: यगण - यमाता =। ऽ ऽ आदि लघु, मगण - मातारा = ऽ ऽ ऽ सर्वगुरु, तगण - ताराज = ऽ ऽ। अन्तलघु, रगण - राजभा = ऽ। ऽ मध्यलघु, जगण - जभान =। ऽ। मध्यगुरु, भगण - भानस = ऽ।। आदिगुरु, नगण - नसल =।। । सर्वलघु, सगण - सलगाः =।। ऽ अन्तगुरु।  मात्राओं में जो अकेली मात्रा है, उस के आधार पर इन्हें आदिलघु या आदिगुरु कहा गया है। जिसमें सब गुरु है, वह ‘मगण’ सर्वगुरु कहलाया और सभी लघु होने से ‘नगण’ सर्वलघु कहलाया।


एक रचना

पुरुखों!                       
तुम्हें तिलोदक अर्पित 
*
मन-प्राणों से लाड़-प्यार दे 
तुमने पाला-पोसा             
हमें न भाये मूल्य, विरासत
पिछड़ापन कह कोसा           
पश्चिम का परित्यक्त ग्रहणकर 
प्रगतिशील खुद को कह     
दिशाहीनता के नाले को   
गंगा कह जाते बह           
सेवा भूल, चाहते मेवा       
स्वार्थ
साधकर हों गर्वित
*
काया-माया साथ न देगी
छाया छोड़े हाथ
सोच न पाए, पीट रहे अब
पछता अपना माथ
थोथा चना, घना बजता है
अब समझे चिर सत्य
याद आ रहा पल-पल बचपन
लाड़ मिला जो नित्य
नाते-ममता मिली अपरिमित
करी न थी अर्जित
*
श्री-समृद्धि दी तुमने हमको
हम देते तिल-पानी
भूल विरासत दान-दया की
जोड़ रहे अभिमानी
भोग न पाते, अगिन रोगों का
देह बनी है डेरा
अपयश-अनदेखी से अाहत
मौत लगाती फेरा
खाली हाथ न फैला पाते
खुद के बैरी दर्पित
***
संजीव
१-१०-२०१८