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सोमवार, 18 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी ३. लोकनाट्य और करमा-गीतों में वाचिक छंद परंपरा


शोधलेख:
३. लोकनाट्य और करमा-गीतों में वाचिक छंद परंपरा   
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
परिचय: पृष्ठ     पर। 
लोक-काव्य और लोक-नाट्य का साथ चोली-दामन का सा है। मनुष्य के जन्म के साथ रुदन अर्थात ध्वनि में लय और गति-यति का समन्वय छंद का तथा नेत्र, हाथ-पैर आदि अंग सञ्चालन में अभिनय अर्थात नाट्य का उद्भव देखा जा सकता है मनुष्य के तन और मन के विकास के साथ इन दोनों का भी विकास होता रहता है आदि मानव ने पशु-पक्षियों से अलग होकर उन्नति पथ पर पग रखते समय उनकी विशेषताओं को आत्मसात करने का अथक प्रयास ही नहीं किया अपितु उन्हें अधिक विकसित भी किया शेर के आगमन की सूचना हूक-हूककर देते वानरों से मानव ने ध्वनि का उपयोग सीखा होगा पशु-पक्षियों की अपेक्षा अधिक बुद्धि के कारण मानव ने कलकल बहते निर्जर, सनन-सनन-सन चलती पवन, मेघगर्जन, विद्युत्पात,  बरसात आदि की ध्वनियों को मस्तिष्क में संगृहीत कर अन्य मानव समूहों को सूचित किया होगाइन ध्वनियों के उच्चारण के साथ उनकी लय, गति-विराम, उतार-चढ़ाव आदि में पारंगत होने के साथ उन्हें उच्चारित करना और सुनने पर पहचानकर तदनुसार आचरण करना मानव-स्वभाव हो गया कालांतर में ध्वनि उच्चारण ने भाषा और लिपि के साथ समन्वित होकर लोक-काव्य तथा आचरण ने लोक-नाट्य को जन्म दिया होगाइसलिए लोक-काव्य की आत्मा छंद और लोक-नाट्य के मध्य अनुभूति और प्रतिक्रिया के तंतु उन्हें सहोदर सिद्ध करते हैं। ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं’, ‘काव्येषु नाटकं रम्यं’, जैसी अभिव्यक्तियाँ इसी नाते की पुष्टि करती हैं समय के साथ दोनों विधाओं का स्वतंत्र विकास होना स्वाभाविक है आज स्थिति यह है कि अधिकांश जन लोक-नाट्य में छंद की अनुभूति कठिनाई से ही करते हैं जबकि छंद में लोक- नाट्य की उपस्थिति को असंभव मान लिया गया है
काव्य:
शास्त्रानुसार काव्य मन-रंजन का उत्तम साधन है भारतीय आचार्यों ने आदिकाल से काव्य का सूक्ष्म विवेचन कर स्वरूप निर्धारण का कार्य किया है ‘तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुन: क्वपि’ –मम्मट (काव्य रचना के शब्दार्थों में दोष कतई न हों, गुण अवश्य हों, अलंकार कहीं-कहीं न भी हो हों),  ‘काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते’ –दंडी (काव्य की शोभा अलंकार से है), अलंकारा एव काव्ये प्रधानमिति प्रच्यानाम मतं’ –रुय्यक (अलंकार ही काव्य में मुख्य है), ‘काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम. व्यसनेषु च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा.’ (काव्य शास्त्रर विनोद हेतु है), रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यं’ –पं. जगन्नाथ (रमणीय अर्थ प्रतिपादित करनेवाले शब्द काव्य हैं), लोकोत्तरानंददाता प्रबंध: काव्यनामभाक’ –अंबिकादत्त व्यास (लोकोत्तर आनंद देनेवाली रचना काव्य है’), ‘रसात्मकं वाक्यं काव्यं’ –महापात्र विश्वनाथ (रसपूर्ण वाक्य काव्य है), ‘रीतिरात्मा काव्यस्य’ –वामन (रीति काव्य की आत्मा है), वक्रोक्ति काव्यजीवितं’ –कुंतक (काव्य वक्रोक्ति में जीवित है), काव्यस्यात्मा ध्वनिरति: -आनंदवर्धन (काव्य की आत्मा ध्वनि और रति में है), औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितं; -क्षेमेन्द्र ( रस सिद्धि के औचित्य में काव्य जीवित है) तथा ‘वाग्वैदग्ध्यप्रधानेsपि रस एवात्र जीवितं’ –आग्निपुरंकार (वाग्वैधदग्ध्य प्रधान होते हुए भी काव्य का प्राण रस है) कहकर काव्याचार्यों ने समय-समय पर काव्यांगों और काव्य-रूप का चिंतन किया है
दृश्य काव्य:  
पूर्व के वन मानुष या आज के आदिवासियों में शिकार करने, शिकार मिलने पर नाचने-गाने, मिल-बाँटकर खाने की परंपरा लोकनाट्य और लोककाव्य का संगम ही है जिसके मूल में छंद समाहित है आरंभ में वाचिक परंपरा में पले-पुसे काव्य रूपी छंद और लोक-जीवन में घुले-मिले लोकाचार रूपी नाट्य को भाषा और लिपि के विकास ने उसी तरह अलग-अलग किया जैसे एक साथ पलते शिशु विकास के क्रम में किशोर-किशोरी के रूप में अलग-अलग हो जाते हैं छंद, गीत, नृत्य और वाद्य एक-दूसरे के पूरक और रस के कारक हैं ई. पू. तीसरी सदी में ऋषि नंदिकेश्वर ने काव्य और नाट्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर ‘नांदीपाठ श्री गणेश किया भरत मुनि द्वारा रचित ‘नाट्यशास्त्र तथा महर्षि पिंगल द्वारा रचित ‘छंदशास्त्र’ विश्व वांग्मय की निधि हैं वैदिक ज्ञान राशि के संहिताकरण में लोक का अभूतपूर्व योगदान रहा किन्तु सत्ता सूत्र आभिजत्यों के हाथों में केंद्रित होने पर ज्ञान और अस्त्र संपन्नों और पुरोहितों के हाथ में केंद्रित हो गए फलत:, उपेक्षित लोक के आक्रोश का शमन करने हेतु वेदेतर ज्ञान-विधाओं को वेदांग बताकर लोक को उपलब्ध कराया गया इस तरह वेद का पैर ’पिंगल या छंदशास्त्र’ तथा पंचम वेद आयुर्वेद व नाट्यशास्त्र को कहा गया. ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय तथा अथर्ववेद से रस लेकर नाट्य-वेद रचना की संकल्पना में लोक-काव्य (छंद) और लोक-नाट्य (रंगमंच) समाहित हैं
कालिदास के अनुसार नाट्यवेद का उद्देश्य ‘नाट्यं भिन्न रुचेर्जनस्य बहुधाप्येकं समाराधनं’ अर्थात भिन्न रुचि के लोगों का बहुत प्रकार से मन-रंजन करना है गीत-संगीत, नृत्य और अभिनय की त्रिवेणी से लोक-नाट्य को जन्म मिला. तीसरी सदी में सीतावेंगरा सरगुजा तथा मोगीमारा की गुफाओं में प्रेक्षागृहों की उपलब्धता है पाणिनि के सूत्रों में नटों का उल्लेख, पतंजलि के महाभाष्य में नाट्य मंचन, बौद्ध भिक्षुओं के लिए नाट्य-निषेध, उत्तर भारत में ‘रामलीला’ व ‘रासलीला’, मालवा में ‘माच’, राजस्थान में ‘ख़याल’, पंजाब में ‘स्वांग’, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नौटंकी, ग्राम्यांचलों में ‘स्वांग’, बृज में ‘भगत’, गुजरात में ‘भवाई’, बुंदेलखंड में आल्हा, बम्बुलिया और राई, बंगाल में ‘जात्रा’ और ‘गंभीरा’, महाराष्ट्र में ‘तमाशा’ और ‘बहुरूपिया’, दक्षिण भारत में ‘यक्षगान’ आदि लोककाव्य और लोकनाट्य के सम्मिलित रूप रहे हैं जिनके मूल में लोक-छंद धड़कन की तरह रचा-बसा था लोक-नाट्य और लोक-काव्य में सरल-सहज लोक-भाषा, ग्रामीण-देशज शब्दावली, न्यूनतम आलंकारिकता, बोधगम्यता, पारदर्शिता, धार्मिक व सामाजिक प्रसंग, प्रवाहपूर्ण भाषा शैली, गति-यति-लय का सम्मिश्रण दृष्टव्य है अभिव्यक्ति के इन दोनों रूपों में छंद की उपस्थिति ही नहीं, चेतना भी आद्योपांत अनुभव की जा सकती है
आदिवासी बाल लोक-नाट्य बाघ-बकरी खेलते समय बच्चे गाते हैं: ‘अड्डल गड्डल काठे क माला/टेंकीचीरो तोड़ो बाला/ कडुवा तेल कवल की बाती/ठांय-ठूँय ठस्स/उंचकी छाती दर्द’ यहाँ प्रथम तीन पंक्तियों में संस्कारी जातीय पादाकुलक छंद की अनगढ़ उपस्थिति सहज दृष्टव्य है
अन्य बाल लोक नाट्य दोल्हा-पाती में बच्चे गाते हैं: ‘अक्कड़-बक्कड़ बंबे बो/अस्सी-नब्बे पूरे सौ/सौ में लागा धागा/चोर निकल के भागा’ यहाँ प्रथम दो पद मानव जातीय हाकलि छंद की तथा अंतिम दो पंक्तियाँ आदित्य जातीय छंद की हैंआजकल नवगीतों में विविध छंदों के मिश्रण (फ्यूजन) को अपनी खोज बतानेवाले देखें कि यह कार्य उनसे सदियों वर्ष पूर्व अनपढ़ कहे जानेवाले लोक-गायक कर चुके हैं
बिहार तथा मध्यप्रदेश के घसिया आदिवासियों स्त्री-पुरुषों द्वारा किये जानेवाले लोकनाट्य ‘डोमकच’ के समय गाये जानेवाले गीत ‘हँकावे ननदा हो रे!/बछरू चरना हम जाब रे!/हरंका ननदों सातो कियारी/सूगा लागे हो रे!’ में क्रमश:१३-१५-१८-१२ मात्रा की पंक्तियाँ तथा ८-११-११-६ वर्ण हैं ‘डोमकच’ नृत्य-गीत की एक अन्य अभिव्यक्ति देखिए- ‘आपन मैना हो मैनाधन,/काहे मैना हो?/काहे भूँजि गइल मैना भुटाना हो/भूँजि देला तीला चउरवा-/मैना आइ गइला हो.’ १६-१०-२१-१६-१३ मात्रा (१०-५-१३-१०-८ वर्ण) के इस लोकगीत का छंद खोजने और रचने की चुनौती क्या कभी वे कूप-मंडूक स्वीकार सकेंगे जो दोहे के विषम चरण में ‘सरन’ के अतिरिक्त अन्य गण प्रयोग देखकर छाती कूटने लगते हैं, वह भी तब जबकि छंद प्रभाकर के पूर्व और पश्चात् भी तुलसी, कबीर और बिहारी जैसे कालजयी दोहाकारों के बीसियों दोहों में ऐसा किया गया है
आषाढ़ की पहली बूँदों के साथ क्वाँरी आदिवासी कन्या वन में किसी धारदार हथियार से एक ही वार में ‘कदंब’ वृक्ष की तीन डालियाँ काटती हैं। इन्हें अन्य क्वाँरी कन्याएँ भूमि पर गिरने से पूर्व हवा में पकड़कर मादलवादन के साथ देवस्थान पर बने मंडप में लाती हैं। यहाँ घी, गुड, जल-कलश, त्रिशूल तथा पक्की शराब आदि पूजा सामग्री एकत्र कर बैगा भूमि में दो वार कर गड्ढा बनाता है। अन्य व्यक्ति ३ गड्ढे बनाकर युवतियों द्वारा लाई गयी डालियाँ तथा एक डाल ‘भेला’ वृक्ष की गाड़ देते हैं। डाली काटी जाते समय दो पंक्तियाँ गई जाती हैं: ‘करमा जे कटले धांगर तोरे हाथे पगेरा पड़ जाय/आज क रहले करम खूंटा, कालि जइबे गंगा-तीरे.’ अर्थात हे धांगर! तुमने कदंब की शाख काटी तुम्हारे हाथ में पगेरा पड़ जाएगा। तुम गंगा-स्नान करो। मात्रा पतन को उर्दू की बपौती माननेवाले देखें कि उर्दू का जन्म होने के सदियों पहले से वनवासी-आदिवासी अपने गीतों में मात्रा-पतन करते रहे हैं. ३२-३० मात्रा की इन काव्य पंक्तियों का छंद वर्तमान में उपलब्ध किसी पिंगल-पोथी में नहीं है। कर्म देव की स्थापना करते समय गीत गाया जाता है: ‘के खनल?, के खनल?/अहरा पोखरे बदग/राजा खनल. पूजा हेतु लाई गयी शराब में भक्तों द्वारा लाई गयी शराब मिलकर देव को अर्पित करने के बाद प्रसाद के रूप में बाँटी जाती है जिसे पीकर सब आदिवासी रात्रीपर्यंत नाचते-गाते हैं:‘जोगिया भिच्छा माँगे कि/झिलमिल पोखरी क पानी.’(१४-१४ मात्रा)
जौ को बालू में मिलाकर गाँव के हर जाति-वर्ग के घर में नौ दिन पूर्व बाँट दिया जाता है। उसी दिन जौ जमा (बो) दी जाती है। करमा के दिन उसे देवस्थान पर लाकर अर्धरात्रि में पूजा की जाती है। इस समय का गीत है: ‘हे! हो! हाथी-घोड़ा से कइले सिंगार/हे! हो! बैगा के देबो सीधा सेर/घरे रहबू, घर अगोरबू/ना देखबू, काम बिगड़ि जाइ.’(२२-२२, १५-१५ मात्राएँ) अर्थात हाथी-घोड़े आदि ले जाकर देवस्थान की सजावट की गयी है बैगा को सेर भर सीधा दिया गया है हे सखी! तुम घर की रक्षा के लिए रुक गईं, पूजा के लिए नहीं गईं जाओ, दर्शन कर आओ, अन्यथा देव रूठ गए तो सब काम बिगड़ जाएँगे
करमा समरसता, सहभागिता और सहकारिता का लोकपर्व है। कर्मा गीतों में सामान्य जन के जीवन से सम्बंधित सुख-दुख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, हास-परिहास आदि के दृश्य संगीत की भाव-लहरियों में अभिव्यक्त किए जाते हैं करमा गीतों में आलाप की महती भूमिका है मात्रिक अथवा वार्णिक असंतुलन आलाप द्वारा संतुलित कर लिया जाता है। वाचिक छंद को मात्रिक या वार्णिक छंद की कसौटी पर कसें तो बहुधा पंक्तियाँ समान न होने से दुविधा उपस्थित होती है किंतु गायक को कहीं असंतुलन नहीं प्रतीत होता इसलिए वाचिक लोक-काव्य को छंद की कसौटी पर कसते समय आलाप तथा टेर को भी गणना में लेना होगा पहार तरे मुगिया मो बनके/साईं मोंगिया हरल झबरा के डार/ननदी सिरी किसुना बंसिया बजावे/ ब्रिन्दावन सिरी किसुना बंसिया हो बजावे/कवन बन गइया रे चरावे/ननदी कवन घट पनिया हो पियावे/ननदी धीरे-धीरे गइया ठुकरावे/ननदी कदम तरे गइया रखवावे/नीबी तारे बछरू छ्नावे/ननदी अपने कदम चढ़ि जावे/जब लगि अपने कदम चढ़ि जाई/बाघिन लपसत आवे/केकर धइले छेरिया बछरुवा/ननदी हो केकर धइले धेनुगाय/ननदों हो लइकवा में कइले बा गोहार/ननद हो कोई नाहीं धवले गोहार/ननदी हो राम-लछिमन धवले गोहार। भावार्थ: वृंदावन में धेनु चराते हुए श्रीकृष्ण  कदंब वृक्ष पर चढ़ जाते हैं तभी एक बाघिन आकर गाय-बछड़ों को मारकर खा जाना चाहती है, गुहार मचने पर राम-लक्षमण रक्षा के लिए आ जाते हैं
भुइंया आदिवासियों का करमा गीत:
लीप-लीप पिपरी क पात डोले/दीप-दीप उगेले जोन्हइया/तील-तील बढ़ेले गोरी के देहिया/ दड़हर खोजै, बड़हर खोजै कतहूँ न मिलल जोड़ी जवान/केकर घरे तेल माड़े, केकर घरे ककही/केकर घरे मान सँवारे/बाँह ले सुरूजा मंड़र खीया/भरि माँग सेन्हुआ भरावै/भरि माथ टिकुल ढमकावै/टक-टक मथवा निहारे निलजिया। 
भावार्थ: पीपल का पत्ता धीरे-धीरे डोल रहा है, चाँदनी दिपदिपा रही है। किशोरी का तन तिल-तिल कर बढ़ रहा है। यहाँ-वहाँ खोजने पर भी सुयोग्य वर नहीं मिल रहा। किसी के घर से तेल, किसी के घर से कंघी माँगकर, सिंदुर से माँग भरकर, माथे पर टिकुली लगाकर लाज छोड़कर गोरी अपना रूप आप ही निहारती है। 
धांगर आदिवासियों का करमा गीत:
देवरा दुलरू हव हो/कहि के आवें आधी रतिया/देवरा दुलरू हव हो/घरवा में सूतल रहली/ भउजी एक दिन दुपहरिया/देवरा खिड़की में ठाढ़/तूंत बइठ देवरा माया के पलंगिया/देवरा दुलरू कहें/भउजी हमत बइठब तोहरे पलंगिया/भउजी बइठावे देवरा हो / देवरा दुलरू तूं अइसन मजा पइबा/बहरा तूं घूंमबा अकेल/घरवा म गाव ला गीत हो/देवरा दुलरू हवं हो। 
भावार्थ: दुलारा देवर आधी रात में भाभी के पास क्यों आता है? एक दोपहर देवर खिड़की में खड़ा, घर में सोती भौजी को निहारता है। भाभी देख लेती है और कहती है कि वह माँ के पलंग पर सो जाए। देवर जिद करता है कि वह भाभी के पलंग पर ही बैठेगा। भाभी उसे बैठा लेती है। देवर बाहर अकेला घूमता रहता है पर घर में गीत गाता रहता है। देवर दुलारा है। 
इस गीत का मुखड़ा तथ अंतिम पंक्तियाँ भागवतजातीय तथा संस्कारीजातीय सिंह छंद में निबद्ध हैं. पदों में क्रमश:३७ मात्रिक दंडक छंद का प्रयोग है। 
वाचिक परंपरा के लोकगीत पिंगलशास्त्रीय ग्रंथ-सृजन के पूर्व रचे गए या उसी परंपरा में रचे जा रहे हैं। इन गीतों की रचना मात्रा संख्या या वर्ण संख्या पर आधारित न होकर उस अंचल विशेष में प्रचलित उच्चारणों और गायन के तरीके पर निर्भर है। इनमें मात्रा पतन तथा मात्रा जोड़ने की छूट ली गई है। इनकी रचना गायन शैली के आधार पर की जाती है। लोकनाट्य के कथ्य को उभारने, रोचकता तथा सरसता वृद्धि के लिए अनजाने ही छंदों का प्रयोग चिरकाल से होता रहा है।  वर्तमान काल में चलचित्रों के गीतों में छंद-प्रयोग निरंतर हो रहा है किंतु आधुनिक रंगमंच पर छंद-प्रयोग सीमित हो गया है। ग्राम्यांचलों में लोकमंच पर छांदस गीतों का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है किंतु उनकी विषयवस्तु स्तरीय नहीं है। 
संदर्भ: १. लोकनाट्य मंच की पीठिका- डॉ. अर्जुनदास केसरी व मोहनलाल बाबुलकर,   

गीत,तेरा-मेरा???

एक रचना
तेरा-मेरा???
*
क्या तेरा?
क्या मेरा? साधो!
क्या तेरा?
क्या मेरा? रे!....
*
ताना-बाना कौन बुन रहा?
कहो कपास उगाता कौन?
सूत-कपास न लट्ठम-लट्ठा,
क्यों करते हम, रहें न मौन?
किसका फेरा?
किसका डेरा?
किसका साँझ-सवेरा रे!.... 
*
आना-जाना, जाना-आना
मिले सफर में जो; बेगाना। 
किसका अब तक रहा?, रहेगा 
किसका हरदम ठौर-ठिकाना?
जिसने हेरा,
जिसने टेरा
उसका ही पग-फेरा रे!.... 
*
कालकूट या अमिय; मिले जो 
अँजुरी में ले; हँसकर पी। 
जीते-जीते मर मत जाना,
मरते-मरते जीकर जी। 
लाँघो घेरा,
लगे न फेरा
लूट, न लुटा बसेरा रे!.... 
***
१८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८, 
salil.sanjiv@gmail.com

रविवार, 17 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी १९ . सुषमा निगम, अन्नपूर्णा बाजपेयी बाल काव्य में छंद

१९. बाल साहित्य में छंद
सुषमा निगम, अन्नपूर्णा बाजपेई 

बच्चों में अनुकरणशीतला, जिज्ञासा और कल्पनाशीलता बहुत अधिक होती है। अनुकरण से उनके चरित्र का विकास, जिज्ञासा से ज्ञान-वृद्धि होती है।  कल्पनाशीलता से वे जीवन व जगत के विषय में अपेक्षित ज्ञान प्राप्त करने की ओर स्वयमेव उन्मुख होते हैं। अत:, आवश्यक है कि बच्चों के चारित्रिक विकास और ज्ञानवर्धन हेतु शैशव, बचपन और कैशोर्य तीनों अवस्थाओं के अनुरूप बाल साहित्य लिखाजाए। आज के बच्चे ही कल परिवार, समाज एवं देश के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन कर योग्य नागरिक बनेंगे किंतु तभी जब उनके सामने आदर्श हों, उनकी जिज्ञासाओं का सम्यक समाधान हो और उनके कल्पना जगत को यथार्थ की भूमि पर पैर जमाकर प्रयासों के हाथों से उपलब्धियों के आकाश को छूने का अवसर मिले। बच्चों को सद्विचार से आचार की प्रेरणा देने का कार्य बाल साहित्यकार ही कर सकते हैं। बालमन को ध्यान में रखकर कविता, कहानी, नाटक, लेख, जीवनी, संस्मरण, पहेली, चुटकुले आदि रचे जाना आवश्यक है। गद्य की तुलना में पद्य अधिक सरस तथा आसानी से याद रखने योग्य होता है। पद्य के लिए छंद आवश्यक है। 
बाल साहित्यकारों द्वारा सरल भाषा में शिशु गीत, बाल गीत, कविता आदि की रचना इस प्रकार हो कि बाल पाठकों का शब्द ज्ञान व शब्द भंडार बढ़े और वे नए नए शब्दों का उपयोग करें। बाल साहित्य सृजन के लिये काल्पनिकता और यथार्थता का समन्वय अपेक्षित है। बाल साहित्यकारों, अभिभावकों, शिक्षकों और प्रकाशकों के समवेत प्रयास से ही बाल साहित्य को उचित प्रतिष्ठा मिल सकेगी। विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित बाल साहित्य के पारस्परिक आदान-प्रदान से बाल साहित्य के विकास व राष्ट्रीय समन्वय भाव को नई दिशा मिल सकती है। अच्छे बालसाहित्य का अध्ययन बच्चों को साहित्य में वर्णित समाज, पर्यावरण, अतीत और भविष्य से संवाद करने के अवसर प्रदान करता है। इससे बच्चों के भाषिक और संज्ञानात्मक कौशल तथा भावनात्मक बुद्धिमत्ता का विकास होता है।
शिशु गीत:
बाल साहित्य लेखन में सर्वाधिक कठिनाई शिशु गीत लेखन में होती है क्योंकि शिशु का शब्द ज्ञान अत्यल्प होता है। शिशु लंबी रचनाएँ याद नहीं कर पाता। सार्थक और उपयोगी शिशु गीत बहुत कम लिखे गए हैं। शिशु गीत का कथ्य बच्चे को परिवेश से जोड़नेवाला होना आवश्यक है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने इस दिशा में  सार्थक प्रयास किया है। उनके शिशु गीतों में छंद और कथ्य दोनों का प्रभावी प्रस्तुतीकरण हुआ है। भारत धर्म प्रधान देश है। बुद्धि के देवता गणेश, विद्या की देवी सरस्वती, पंच मातृका (धरती माता, भारत माता, हिंदी माता, गौ माता तथा माँ) पर शिशु गीतों का भाषिक प्रवाह और सरसता शिशुओं के लिए उपयुक्त है:
श्री गणेश की बोलो जय, / पाठ पढ़ो होकर निर्भय। / अगर सफलता पाना है- / काम करो होकर तन्मय।। (१४ मात्रिक, मानव जातीय, हाकलि छंद)
माँ सरस्वती देतीं ज्ञान, / ललित कलाओं की हैं खान। / जो जमकर करता अभ्यास - / वही सफल हो, पा वरदान।। (१५ मात्रिक, तैथिक जातीय, पुनीत छंद) 
धरती सबकी माता है, / सबका इससे नाता है। / जगकर सुबह प्रणाम करो- / फिर उठ बाकी काम करो।। (१४ मात्रिक, मानव जातीय, हाकलि छंद)
सजा शीश पर मुकुट हिमालय, /  नदियाँ जिसकी करधन। / सागर चरण पखारे निश-दिन- / भारत माता पावन। (२८ मात्रिक, यौगिक जातीय, सार छंद १६-१२ पर यति, पदांत कर्णा, अंत के गुरु को दो लघु किया गया है) 
हिंदी भाषा माता है, / इससे सबका नाता है। / सरल, सहज मन भाती है- / जो पढ़ता मुस्काता है।। (१४ मात्रिक, मानव जातीय, हाकलि छंद)
देती दूध हमें गौ माता, / घास-फूस खाती है। / बछड़े बैल बनें हल खीचें / खेती हो पाती है। (२८ मात्रिक, यौगिक जातीय, सार छंद १६-१२ पर यति, पदांत कर्णा) 
माँ ममता की मूरत है, / देवी जैसी सूरत है। / लोरी रोज सुनाती है, /सबसे ज्यादा भाती है।। (१४ मात्रिक, मानव जातीय, हाकलि छंद) 
अंग्रेजी भाषा की शिक्षा के साथ पश्चिमी कुसंस्कार भी घर-घर में घर कर रहे हैं। इन शिशु गीतों में बच्चों को भारतीय संस्कृति और परिवेश से जोड़ने की सजगता सहज दृष्टव्य है। महानगरों में 'अंकल-आंटी' के अलावा अन्य नाते बच्चे नहीं जानते। इस समस्या को सुलझाने के लिए सलिल जी ने नातों को ही शिशु गीतों का विषय बना कर अभिनव और उपयोगी पहल की है। इन शिशु गीतों में प्राय: मानव जातीय, हाकली छंद का प्रयोग हुआ है।     
पापा चलना सिखलाते, / सारी दुनिया दिखलाते। / रोज बिठाकर कंधे पर- / सैर कराते मुस्काते।।
मेरा भैया प्यारा है, / सारे जग से न्यारा है। / बहुत प्यार करता मुझको- / आँखों का वह तारा है।।
बहिन गुणों की खान है, / वह प्रभु का वरदान है। / अनगिन खुशियाँ देती है- / वह हम सबकी जान है।।
पापा सूरज, माँ चंदा, / ध्यान सभी का धरते हैं। / मैं तारा, चाँदनी बहिन- / घर में जगमग करते हैं।।
बब्बा ले जाते बाज़ार, / दिलवाते टॉफी दो-चार। / पैसे नगद दिया करते- / कुछ भी लेते नहीं उधार।।
राम नाम जपतीं दादी, / रहती हैं बिलकुल सादी। / दूध पिलाती-पीती हैं- / खूब सुहाती है खादी।।
मम्मी के पापा नाना, / खूब लुटाते हम पर प्यार। / जब भी वे घर आते हैं- / हम भी करते बहुत दुलार।।
कहतीं रोज कहानी हैं, / माँ की माँ ही नानी हैं। / हर मुश्किल हल कर लेतीं- / सचमुच बहुत सयानी हैं।।
चाचा पापा के भाई, / हमको लगते हैं अच्छे। / रहें बड़ों सँग, लगें बड़े- /बच्चों में  लगते बच्चे।।
प्यारी लगतीं मुझे बुआ, / मुझे न कुछ हो- करें दुआ। / प्यारी बहिना पापा की- / पाला घर में हरा सुआ।।
मामा मुझको मन भाते, / माँ से राखी बँधवाते।  / सब बच्चों को बैठाकर  / गप्प मारते-बतियाते।।
मौसी माँ सी ही लगती, / मुझको गोद उठा हँसती। / ढोलक खूब बजाती है, / केसर-खीर खिलाती है।
बाल-काव्य पर विचार करने के लिए यह जरूरी है कि हमारे मन में बच्चों व बचपन के बारे में एक स्पष्ट समझ हो जिसमें बच्चे को एक जागरूक व जिज्ञासु इंसान के रूप देखना, बाल विकास से जुड़े मुद्दों को समझना व समाज को समझना आदि बातें शामिल हो। बाल काव्य में यथार्थ की अभिव्यक्ति मज़े-मज़े में, खेल-खेल में होना आवश्यक है। बच्चे जानकारी से नहीं, नई कल्पना से आनंदित होते हैं। १६-११ २७ मात्रिक नाक्षत्रिक जातीय सरसी छंद में रचे निम्न शिशु गीत में कल्पना की उड़ान देखें:
सुनो मजे की बातें भैया / सुनो मजे की बात        
हाथी दादा दबा रहे हैं / चींटी जी के पाँव              
चूहे जी के डर से भागी / बिल्ली अपने गाँव       
रौब जमाता फिरता सब पर / नन्हा सा खरगोश   
चीता सहमा हुआ खड़ा है / भूला अपने होश          
एक सात-आठ साल का बच्चा भी यह जानता है कि धरती गोल है और यह सूरज के चारों ओर चक्कर लगाती है। वह इस जानकारी से खुश नहीं होता। उसे तो कहानी में कोई ऐसा पात्र चाहिए जो धरती पर पाँव रखकर उसे चपटा बना दे या धरती को उल्टी दिशा में घुमा दे। ऐसी स्थिति में धरती पर क्या होगा?, इस कल्पना से वह रोमांचित होता है। यह फैंटेसी कल्पनात्मक और कलात्मक आनंद की सृष्टि करती है, जो बालसाहित्य की आत्मा है। यथार्थ बताते हुए असंभव कल्पनाओं को चित्रित करना और फैंटेसी रचना ही बाल साहित्य है।
बाल-काव्य में बच्चों या बचपन की छवि को उभारा जाना जरूरी है। ऐसी रचनाओं में बच्चे और पशु-पक्षी हों किंतु बड़ों की सोच न हो क्योंकि बच्चे उसका पूर्वानुमान लगा लें तो उत्सुकता नहीं जग पाती, 'आगे क्या होने वाला है' का कौतूहल समाप्त हो जाता है।
पाखी ने बिल्ली पाली. / सौंपी घर की रखवाली../ फिर पाखी बाज़ार गई. / लाई किताबें नई-नई / तनिक देर जागी बिल्ली. / हुई तबीयत फिर ढिल्ली../ लगी ऊंघने फिर सोई. / सुख सपनों में थी खोई. / मिट्ठू ने अवसर पाया./ गेंद उठाकर ले आया../ गेंद नचाना मन भाया. / निज करतब पर इठलाया../ घर में चूहा आया एक./ नहीं इरादे उसके नेक../ चुरा मिठाई खाऊँगा./ ऊधम खूब मचाऊँगा../ आहट सुन बिल्ली जागी./ चूहे के पीछे भागी../ झट चूहे को जा पकड़ा./ भागा चूहा दे झटका../ बिल्ली खीझी, खिसियाई./ मन ही मन में पछताई..
बाल गीत और पात्र: 
मुझे याद आता है एक बार मैंने जैसे ही बाल-कथा सुनाते समय पात्रों का परिचय दिया- एक थी गिलहरी ...बच्चे बोल पड़े 'बड़ी नटखट और चुलबुली थी।' सचमुच कहानी में ऐसा ही था मगर कहानी में मजा बनाए रखने के लिए मुझे गिलहरी के पात्र को फिर से गढ़ना पड़ा। अतः, बाल-शिक्षण की दृष्टि से रचनाओं का चयन करते समय देखना चाहिए कि क्या इन रचनाओं में पात्रों की प्रचलित छवियों (लोमड़ी चालाक ही होगी, खरगोश चतुर ही होगा, शेर बहादुर ही होगा, बच्चे बड़ो के निर्देश पर ही काम करेंगे, सौतेली माँ दुष्ट ही होगी आदि) को तोड़ते हुए किसी स्वतन्त्र छवि को गढ़ा जा रहा है? ख्यात बाल साहित्यकार डॉ. शेषपाल सिंह 'शेष' ने एक कथा-गीत में बिल्ली की चूहे पकड़ने की परम्पराबद्ध छवि से मुक्त कर नव युग के अनुरूप नयी छवि दी है: 'सोचो-बदलो बिल्ली मौसी / हमें बदलने दो / चलते हुए समय को अपनी / गति से चलने दो /  मेल-जोल से बुरी बात को / दूर हटाना है / टी. वी., टेलीफोन, मेल-ई, / इंटरनेट हुए / एरोप्लेन, टैंकर, अणुबम , युद्धक-जेट हुए / बढ़ें वेब-कंप्यूटर युग में / देश उठाना है.' २६ मात्रिक, महाभागवत जातीय, विष्णुपद छंद ने इस कथा-गीत में चार चाँद लगा दिए हैं।    
बाल साहित्य और चित्रांकन:
बच्चों की किताबों में चित्रांकन एक आवश्यक पहलू है। चित्र गीत या कहानी का अटूट हिस्सा होते हैं। बच्चे चित्रों के आधार पर ही पढ़ने की शुरुआत कर लिखे गए का अर्थ ग्रहण करते हैं। अतः, छोटे बच्चों की किताबों में चित्र स्पष्ट, बड़े और बोलते हुए होने चाहिए। चित्रों के साथ उनके बारे में कुछ काव्य-पंक्तियाँ या वाक्य लिखे हों  तो प्रभाव और भी बढ़ जाता है। छोटे बच्चों की किताबों में अक्षरों का आकार बड़ा हो ताकि उन्हें आसानी से पढ़ा जा सके। चित्रों के बारे में हमें यह भी समझना होगा कि चित्र इस तरह के हों जो पाठ की हू-ब-हू नकल जैसे न हों वरन लिखी गई बात को और आगे बढ़ाएँ जिससे बच्चों को सोचने व कल्पना करने का मौका मिले। इसके साथ ही स्थिर व रूढि़वादी चित्रों की बजाय चित्रों में गतिशीलता हो जो वास्तविकता में कुछ घट रहा हो ऐसा महसूस करा सकें। वरिष्ठ साहित्यकार श्री सदाशिव कौतुक ने चहक-महक में 'हम पौधे हैं' गीत के साथ पौधे लगाते हुए बच्चों का चित्र दिया है जो गीत का प्रभाव बढ़ाता है- 'हम दुनिया के पौधे हैं / दुनिया हमसे है आबाद / हम महकेंगे; हम चहकेंगे / शुद्ध मिलेगा पानी-खाद।'  
राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत श्रेष्ठ शिक्षक तथा प्राचार्य रहे डॉ. रमेशचंद्र खरे ने शब्दों को ही चित्रांकन का माध्यम बनाया है। शब्द चित्र उपस्थित करने के लिए कवि की सामर्थ्य असाधारण होना चाहिए- 'पौ फूटी, भोर हो गया / जागे सब, शोर हो गया। / चिड़ियों की चूं-चूं-चूं / कौओं की काँव-काँव / मुर्गों की बांग-बिगुल / बजता है गाँव-गाँव / अब तो मन मोर हो गया' इस रचना में पूरा परिवेश जीवन हो उठा है। (मुखड़ा १४ मात्रिक मानव जातीय हाकलि छन्द, अंतरा २४ मात्रिक अवतारी जातीय छंद, यति १२-१२)
बालसाहित्य और चेतना-जागृति:
ख्यात शिक्षक और प्राचार्य रहे कृष्णवल्लभ पौराणिक बच्चों को बहुराष्ट्रीय उत्पादों के प्रति विमुख करने के लिए गीत को माध्यम बनाते हैं: 'बोलो बच्चों! तुम्हें चाहिए? / जेम्स गोलियां? केडबरीज? / चुईन्गम गोली?, फिफ्टी-फिफ्टी? / चोकलेट फाइवस्टार?, पार्ले बिस्किट? / और कहो जो तुम्हें चाहिए / नहीं, हमें ये नहीं चाहिए / हमें दीजिए खीर दूध की / सब्जी-रोटी डाल व चांवल / अचार, भुट्टा, गुलाब जामुन / और जलेबी, मथुरा पेड़े '  (सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय छंद)
डॉ. बलजीत सिंह पुस्तक संस्कृति के प्रति बच्चों के लगाव को १६ मात्रिक संकरी जातीय छंद में रचित गीत के माध्यम से बढ़ा रहे हैं- पुस्तक है अनमोल खज़ाना / बता रहे थे मेरे नाना / पढ़-पढ़कर वे मुझे सुनाते / बात-बात में ज्ञान बढ़ाते / और न इन सा साथी-संगी / इनकी दुनिया रंग-बिरंगी।  / कभी हँसा दें, कभी रुला दें / मीठी-मीठी नींद सुला दें' (१६ मात्रिक संस्कारी जातीय छंद)
डॉ. दिनेश चमोला 'शैलेश' बालगीत के माध्यम से राष्ट्रीय भावधारा का बीजारोपण करते हैं: 'जहाँ हिमालय प्रहरी बनकर, करता सबका मान है / जिसकी रज तक प्यार बाँटती, मेरा हिन्दुस्तान है / हर युग में गौतम-गाँधी बन / लेते सुत अवतार हैं / जहाँ ह्रदय से होती माँ की / एक कंठ जयकार है।  / जहाँ देश के लिए लाड़ले, हँसकर देते जान हैं / शांति-ज्ञान का अमर कोष वह मेरा हिन्दुस्तान है' (मुखड़ा-अंतरा   २९ मात्रीय महायौगिक जातीय छंद, १६-१३ पर यति)
बाल चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ. प्रदीप शुक्ल ने बाल गीतों के स्वास्थ्य-चेतना जगाने का उपकरण बनाया है। एक अमीबा शीर्षक गीत में वे क्रिकेट की गेंद नाली में गिरने, उसे निकालते समय नाखूनों में अमीबा लगने और खाने के साथ पेट में जाने और गड़बड़ मचाने की घटना के माध्यम से स्वच्छता का संदेश देते हैं: 'एक अमीबा बड़े मजे से नाले में था रहता / अरे! वही गंदा नाला जो सड़क पार था बहता / कहने को तो एक अमीबा ढेरों उसके बच्चे / नाली में उनकी कोलोनी रहते गुच्छे-गुच्छे / क्रिकेट खेलते हुए गेंद नाली में गिरी छपाक /  आव न देखा, ताव न देखा पप्पू गया तपाक / साथ गेंद के कई अमीबा पप्पू लेकर आया / बड़े-बड़े नाखून, भूल से उनको वहीं छुपाया / हाथ नहीं धोया अच्छे से पप्पू ने घर जाकर / खुश थे बहुत अमीबा सारे उसके पेट में आकर / रात हुई पप्पू चिल्लाया हुई पेट में गुड़गुड़ / सारे बच्चे समझ रहे हैं कहाँ-कहाँ थी गड़बड़ / तो बच्चों गलती ना करना पप्पू जैसी तुम भी / वरना प्यारे बच्चों तुम फिर सजा पाओगे लंबी।' ( २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंद, १६-१२ पर यति)  
बाल-रचनाओं की भाषा:
बच्चों को रचना पढ़ने का आनंद तभी आएगा जब भाषा आसानी से समझ में आती हो और दिल तक उतर जाती हो। कॉमिक्स और परीकथाएँ अपनी भाषाई सहजता और बोलचाल के शब्दों के उपयोग के कारण बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। तात्पर्य यही है कि बच्चों की पुस्तकों में उपयोग में लाई जा रही रचनाओं की भाषा बनावटी व कठिन न हो वरन् सहज और प्रवाहपूर्ण हो बच्चे ऐसी रचनाएँ पसंद करते हैं जिनमें बात नए तरीके से कही जा रही हो, नई कल्पनाएँ हों, असंभव को संभव बनाने के लिए फैंटेसी रची गई हो। वे ऐसी रचनाएँ भी पसंद करते हैं जिनमें एक ही बात का दोहराव हो और दोहराते समय उनमें नए पात्र या घटना जोड़ दी गई हो। बाल कविताओं मे भी ध्वनियों के साथ विविध प्रयोग जैसे: 'बादल गरजा धम धम धडाम / बिजली चमकी कड़ कड़ कड़ाम' आदि हो तो वे बच्चों को आकर्षित करते हैं। बच्चे भाषा से पूरी तरह से वाकिफ नहीं हो पाते, अतः उनके लिए लिखी गई रचनाओं में सरल शब्द हों जिन्हें बच्चे आसानी से समझ पाएँ। बच्चों के लिए लिखे गए गीतों की भाषा में प्रवाह, लय और छांदस सहजया आवश्यक है। उक्त सभी गीतों में सरसता, सरलता, शब्द-चयन में सटीकता, छंद के गेयता तथा अर्थ की स्पष्टता देखी जा सकती है। बालोपयोगी रचना गद्य, पद्य, नाट्य या नृत्य किसी भी विधा में हो उसमें छंद का होना शरबत में शक्कर का होना है। 
संदर्भ: दिव्य नर्मदा नेट पत्रिका, झूमे नाचें गीति कथाएँ -शेषपाल सिंह शेष, चहक-महक -सदाशिव कौतुक, आओ सीखें मैदानों में गाते-गाते गीत -डॉ. रमेश चंद्र खरे, रेल चली भई रेल चली -कृष्णवल्लभ पौराणिक, हम बगिया के फूल -डॉ. बलजीत सिंह, एक सौ एक बाल गीत -डॉ. दिनेश चमोला 'शैलेश', गुल्लू का गाँव -डॉ. प्रदीप शुक्ल
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पिता पर दोहे

पिता पर दोहे:
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पिता कभी वट वृक्ष है, कभी छाँव-आकाश।
कंधा, अँगुली हैं पिता, हुए न कभी हताश
*
पूरा कुनबा पालकर, कभी न की उफ़-हाय
दो बच्चों को पालकर, हम क्यों हैं निरुपाय?
*
थके, न हारे थे कभी, रहे निभाते फर्ज
पूत चुका सकते नहीं, कभी पिता का कर्ज
*
गिरने से रोका नहीं, चुपा; कहा: 'जा घूम'
कर समर्थ सन्तान को, लिया पिता ने चूम
*
माँ ममतामय चाँदनी, पिता सूर्य की धूप
दोनों से मिलकर बना, जीवन का शुभ रूप
*
पिता न उँगली थामते, होते नहीं सहाय
तो हम चल पाते नहीं, रह जाते असहाय
*
माता का सिंदूर थे, बब्बा का अरमान
रक्षा बंधन बुआ का, पिता हमारी शान
*
कभी न लगने दी पता, पितृ-ह्रदय ने पीर
दुख सह; सुख बाँटा सदा, चुकी न किंचित धीर
*
दीवाली पर दिया थे, होली पर थे रंग
पिता किताबें-फीस थे, रक्षा हित बजरंग
*
पिता नमन शत-शत करें, संतानें नत माथ
गये न जाकर भी कहीं, श्वास-श्वास हो साथ
*
१७.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com

LAST a journey,short film by Anugunja

शनिवार, 16 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी १९. संजीव वर्मा ‘सलिल लोकनाट्य और करमा-गीतों में वाचिक छंद परंपरा


शोधलेख:
लोकनाट्य और करमा-गीतों में वाचिक छंद परंपरा   
संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
लोक-काव्य और लोक-नाट्य का साथ चोली-दामन का सा है. मनुष्य के जन्म के साथ रुदन अर्थात ध्वनि में लय और गति-यति का समन्वय छंद का तथा नेत्र, हाथ-पैर आदि अंग सञ्चालन में अभिनय अर्थात नाट्य का उद्भव देखा जा सकता है. मनुष्य के तन और मन के विकास के साथ इन दोनों का भी विकास होता रहता है. आदि मानव ने पशु-पक्षियों से अलग होकर उन्नति पथ पर पग रखते समय उनकी विशेषताओं को आत्मसात करने का अथक प्रयास ही नहीं किया अपितु उन्हें अधिक विकसित भी किया. शेर के आगमन की सूचना हूक-हूककर देते वानरों से मानव ने ध्वनि का उपयोग सीखा होगा. पशु-पक्षियों की अपेक्षा अधिक बुद्धि के कारण मानव ने कलकल बहते निर्जर, सनन-सनन-सन चलती पवन, मेघगर्जन, विद्युत्पात,  बरसात आदि की ध्वनियों को मस्तिष्क में संगृहीत कर अन्य मानव समूहों को सूचित किया होगा. इन ध्वनियों के उच्चारण के साथ उनकी लय, गति-विराम, उतार-चढ़ाव आदि में पारंगत होने के साथ उन्हें उच्चारित करना और सुनने पर पहचानकर तदनुसार आचरण करना मानव-स्वभाव हो गया. कालांतर में ध्वनि उच्चारण ने भाषा और लिपि के साथ समन्वित होकर लोक-काव्य तथा आचरण ने लोक-नाट्य को जन्म दिया होगा. इसलिए लोक-काव्य की आत्मा छंद और लोक-नाट्य के मध्य अनुभूति और प्रतिक्रिया के तंतु उन्हें सहोदर सिद्ध करते हैं. ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं’, ‘काव्येषु नाटकं रम्यं’, जैसी अभिव्यक्तियाँ इसी नाते की पुष्टि करती हैं. समय के साथ दोनों विधाओं का स्वतंत्र विकास होना स्वाभाविक है. आज स्थिति यह है कि अधिकांश जन लोक-नाट्य में छंद की अनुभूति कठिनाई से ही करते हैं जबकि छंद में लोक- नाट्य की उपस्थिति को असंभव मान लिया गया है.
काव्य:
शास्त्रानुसार काव्य मनरंजन का उत्तम साधन है. भारतीय आचार्यों ने आदिकाल से काव्य का सूक्ष्म विवेचन कर स्वरूप निर्धारण का कार्य किया है. ‘तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुन: क्वपि’ –मम्मट (काव्य रचना के शब्दार्थों में दोष कतई न हों, गुण अवश्य हों, अलंकार कहीं-कहीं न भी हो हों),  ‘काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते’ –दंडी (काव्य की शोभा अलंकार से है), अलंकारा एव काव्ये प्रधानमिति प्रच्यानाम मतं’ –रुय्यक (अलंकार ही काव्य में मुख्य है), ‘काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम. व्यसनेषु च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा.’ (काव्य शास्त्रर विनोद हेतु है), रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यं’ –पं. जगन्नाथ (रमणीय अर्थ प्रतिपादित करनेवाले शब्द काव्य हैं), लोकोत्तरानंददाता प्रबंध: काव्यनामभाक’ –अंबिकादत्त व्यास (लोकोत्तर आनंद देनेवाली रचना काव्य है’), ‘रसात्मकं वाक्यं काव्यं’ –महापात्र विश्वनाथ (रसपूर्ण वाक्य काव्य है), ‘रीतिरात्मा काव्यस्य’ –वामन (रीति काव्य की आत्मा है), वक्रोक्ति काव्यजीवितं’ –कुंतक (काव्य वक्रोक्ति में जीवित है), काव्यस्यात्मा ध्वनिरति: -आनंदवर्धन (काव्य की आत्मा ध्वनि और रति में है), औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितं; -क्षेमेन्द्र ( रस सिद्धि के औचित्य में काव्य जीवित है) तथा ‘वाग्वैदग्ध्यप्रधानेsपि रस एवात्र जीवितं’. –आग्निपुरंकार (वाग्वैधदग्ध्य प्रधान होते हुए भी काव्य का प्राण रस है) कहर कव्यचार्यों ने समय-समय पर काव्यांगों और काव्य-रूप का चिंतन किया है.
दृश्य काव्य:  
पूर्व के वन मानुष या आज के आदिवासियों में शिकार करने, शिकार मिलने पर नाचने-गाने, मिल-बाँटकर खाने की परंपरा लोकनाट्य और लोककाव्य का संगम ही है जिसके मूल में छंद समाहित है. आरंभ में वाचिक परंपरा में पले-पुसे काव्य रूपी छंद और लोक-जीवन में घुले-मिले लोकाचार रूपी नाट्य को भाषा और लिपि के विकास ने उसी तरह अलग-अलग किया जैसे एक साथ पलते शिशु विकास के क्रम में किशोर-किशोरी के रूप में अलग-अलग हो जाते हैं. छंद, गीत, नृत्य और वाद्य एक-दूसरे के पूरक और रस के कारक हैं. ई. पू. तीसरी सदी में ऋषि नन्दिकेश्वर ने काव्य और नाट्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर ‘नान्दीपाथ का श्री गणेश किया. भरत मुनि द्वारा रचित ‘नाट्यशास्त्र तथा महर्षि पिंगल द्वारा रचित ‘छंदशास्त्र’ विश्व वांग्मय की निधि हैं. वैदिक ज्ञान राशि के संहिताकरण में लोक का अभूतपूर्व योगदान रहा किन्तु सत्ता सूत्र आभिजत्यों के हाथों में केंद्रित होने पर ज्ञान और अस्त्र संपन्नों और पुरोहितों के हाथ में केंद्रित हो गए. फलत: उपेक्षित लोक के आक्रोश का शमन करने हेतु वेदेतर ज्ञान-विधाओं को वेदांग बताकर लोक को उपलब्ध कराया गया. इस तरह वेद का पैर ’पिंगल या छंदशास्त्र’ तथा पंचम वेद आयुर्वेद व नाट्यशास्त्र को कहा गया. ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय तथा अथर्ववेद से रस लेकर नाट्य-वेद रचना की संकल्पना में लोक-काव्य (छंद) और लोक-नाट्य (रंगमंच) समाहित हैं.
कालिदास के अनुसार नाट्यवेद का उद्देश्य ‘नाट्यं भिन्न रुचेर्जनस्य बहुधाप्येकं समाराधनं’ अर्थात भिन्न रुचि के लोगों का बहुत प्रकार से मन-रंजन करना है. गीत-संगीत, नृत्य और अभिनय की त्रिवेणी से लोक-नाट्य को जन्म मिला. तीसरी सदी में सीतावेंगरा सरगुजा तथा मोगीमारा की गुफाओं में प्रेक्षागृहों की उपलब्धता है. पाणिनि के सूत्रों में नटों का उल्लेख, पतंजलि के महाभाष्य में नाट्य मंचन, बौद्ध भिक्षुओं के लिए नाट्य-निषेध, उत्तर भारत में ‘रामलीला’ व ‘रासलीला’, मालवा में ‘माच’, राजस्थान में ‘ख़याल’, पंजाब में ‘स्वांग’, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नौटंकी, ग्राम्यांचलों में ‘स्वांग’, बृज में ‘भगत’, गुजरात में ‘भवाई’, बुंदेलखंड में आल्हा, बम्बुलिया और राई, बंगाल में ‘जात्रा’ और ‘गंभीरा’, महाराष्ट्र में ‘तमाशा’ और ‘बहुरूपिया’, दक्षिण भारत में ‘यक्षगान’ आदि लोककाव्य और लोकनाट्य के सम्मिलित रूप रहे हैं जिनके मूल में लोक-छंद धड़कन की तरह रचा-बसा था. लोक-नाट्य और लोक-काव्य में सरल-सहज लोक-भाषा, ग्रामीण-देशज शब्दावली, न्यूनतम आलंकारिकता, बोधगम्यता, पारदर्शिता, धार्मिक व सामाजिक प्रसंग, प्रवाहपूर्ण भाषा शैली, गति-यति-लय का सम्मिश्रण दृष्टव्य है. अभिव्यक्ति के इन दोनों रूपों में छंद की उपस्थिति ही नहीं, चेतना भी आद्योपांत अनुभव की जा सकती है.
आदिवासी बाल लोक-नाट्य बाघ-बकरी खेलते समय बच्चे गाते हैं: ‘अड्डल गड्डल काठे क माला / टेंकीचीरो तोड़ो बाला / कडुवा तेल कवल की बाती / ठांय-ठूँय ठस्स / उंचकी छाती दर्द.’ यहाँ प्रथम तीन पंक्तियों में संस्कारी जातीय पादाकुलक छंद की अनगढ़ उपस्थिति सहज दृष्टव्य है.
अन्य बाल लोक नाट्य दोल्हा-पाती में बच्चे गाते हैं: ‘अक्कड़-बक्कड़ बंबे बो / अस्सी-नब्बे पूरे सौ / सौ में लागा धागा / चोर निकल के भागा’ यहाँ प्रथम दो पद मानव जातीय हाकलि छंद की तथा अंतिम दो पंक्तियाँ आदित्य जातीय छंद की हैं. आजकल नवगीतों में विविध छंदों के मिश्रण (फ्यूजन) को अपनी खोज बतानेवाले देखें कि यह कार्य उनसे सदियों वर्ष पूर्व अनपढ़ कहे जानेवाले लोक-गायक कर चुके हैं.
बिहार तथा मध्यप्रदेश के घसिया आदिवासियों स्त्री-पुरुषों द्वारा किये जानेवाले लोकनाट्य ‘डोमकच’ के समय गाये जानेवाले गीत ‘हँकावे ननदा हो रे! / बछरू चरना हम जाब रे! / हरंका ननदों सातो कियारी / सूगा लागे हो रे!’ में क्रमश:१३-१५-१८-१२ मात्रा की पंक्तियाँ तथा ८-११-११-६ वर्ण हैं. ‘डोमकच’ नृत्य-गीत की एक अन्य अभिव्यक्ति देखिए- ‘आपन मैना हो मैनाधन, / काहे मैना हो? / काहे भूँजि गइल मैना भुटाना हो / भूँजि देला तीला चउरवा - / मैना आइ गइला हो.’ १६-१०-२१-१६-१३ मात्रा (१०-५-१३-१०-८ वर्ण) के इस लोकगीत का छंद खोजने और रचने की चुनौती क्या कभी वे कूप-मंडूक स्वीकार सकेंगे जो दोहे के विषम चरण में ‘सरन’ के अतिरिक्त अन्य गण प्रयोग देखकर छाती कूटने लगते हैं, वह भी तब जबकि तुलसी, कबीर और बिहारी जैसे कालजयी दोहाकारों के बीसियों दोहों में ऐसा किया गया   है.
आषाढ़ की पहली बूंदों के साथ क्वांरी आदिवासी कन्या वन में किसी धारदार हथियार से एक ही वार में ‘कदंब’ वृक्ष की तीन डालियाँ काटती हैं जिन्हें अन्य क्वांरी कन्याएँ भूमि पर गिरने से पूर्व हवा में पकड़कर मादलवादन के साथ देवस्थान पर बने मंडप में लाती हैं. यहाँ घी, गुड, जल-कलश, त्रिशूल तथा पक्की शराब आदि पूजा सामग्री एकत्र कर बैगा भूमि में दो वार कर गड्ढा बनाता है, अन्य व्यक्ति ३ गड्ढे बनाकर युवतियों द्वारा लाई गयी डालियाँ तथा एक डाल ‘भेला’ वृक्ष की गाड़ देते हैं. डाली काटी जाते समय दो पंक्तियाँ गई जाती हैं: ‘करमा जे कटले धांगर तोरे हाथे पगेरा पड़ जाय / आज क रहले करम खूंटा, कालि जइबे गंगा-तीरे.’ अर्थात हे धांगर! तुमने कदंब की शाख काटी तुम्हारे हाथ में पगेरा पड़ जाएगा. तुम गंगा-स्नान करो. मात्रा पतन को उर्दू की बपौती माननेवाले देखें कि उर्दू का जन्म होने के सदियों पहले से वनवासी-आदिवासी अपने गीतों में मात्रा-पतन करते रहे हैं. ३२-३० मात्रा की इन काव्य पंक्तियों का छंद वर्तमान में उपलब्ध किसी पिंगल-पोथी में नहीं है. कर्म देव की स्थापना करते समय गीत गाया जाता है: ‘के खनल?, के खनल? / अहरा पोखरे बदग / राजा खनल. पूजा हेतु लाई गयी शराब में भक्तों द्वारा लाई गयी शराब मिलकर देव को अर्पित करने के बाद प्रसाद के रूप में बांटी जाती है जिसे पीकर सब आदिवासी रात्रीपर्यंत नाचते हुए गाते हैं: ‘जोगिया भिच्छा माँगे कि / झिलमिल पोखरी क पानी.’ (१४-१४ मात्रा)
जौ को बालू में मिलाकर गाँव के हर जाती-वर्ग के घर में नौ दिन पूर्व बाँट दिया जाता है. उसी दिन जौ जमा (लगा) दी जाती है. करमा के दिन उसे देवस्थान पर लाकर अर्धरात्रि में पूजा की जाती है. इस समय का गीत है: ‘हे! हो! हाथी-घोड़ा से कइले सिंगार / हे! हो! बैगा के देबो सीधा सेर / घरे रहबू, घर अगोरबू / ना देखबू, काम बिगड़ि जाइ.’ (२२-२२, १५-१५ मात्राएँ) अर्थात हाथी-घोड़े आदि को ले जाकर देवस्थान की सजावट की गयी है. बैगा को सेर भर सीधा दिया गया है. हे सखी! तुम घर की रक्षा के लिए रह गईं, पूजा के लिए नहीं गईं. जाओ, दर्शन कर आओ, अन्यथा देव रुष हो जायेंगे और सब कार्य बिगड़ जाएँगे.
करमा समरसता, सहभागिता और सहकारिता का लोकपर्व है. कर्मा गीतों में सामान्य जन के जीवन से सम्बंधित सुख-दख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, हास-परिहास आदि के दृश्य संगीत की भाव-लहरियों में अभिव्यक्त किए जाते हैं. करमा गीतों में आलाप की महती भूमिका है. मात्रिक अथवा वार्णिक असंतुलन आलाप द्वारा संतुलित कर लिया जाता है. वाचिक छंद को मात्रिक या वार्णिक छंद की कसौटी पर कसें तो बहुधा पंक्तियाँ सामान न होने से दुविधा उपस्थित होती है किंतु गायक को कहीं असंतुलन नहीं प्रतीत होता. इस लिए वाची लोक-काव्य को छंदा-शास्त्र की कसैती पर कसते समय आलाप तथा टेर को भी गणना में लेना होगा.  
पहार तरे मुगिया मो बनके / साईं मोंगिया हरल झबरा के डार / ननदी सिरी किसुना बंसिया बजावे / ब्रिन्दावन सिरी किसुना बंसिया हो बजावे / कवन बन गइया रे चरावे / ननदी कवन घट पनिया हो पियावे / ननदी धीरे-धीरे गइया ठुकरावे / ननदी कदम तरे गइया रखवावे / नीबी तारे बछरू छ्नावे / ननदी अपने कदम चढ़ि जावे / जब लगि अपने कदम चढ़ि जाई / बाघिन लपसत आवे / केकर धइले छेरिया बछरुवा / ननदी हो केकर धइले धेनुगाय / ननदों हो लइकवा में कइले बा गोहार / ननद हो कोई नाहीं धवले गोहार / ननदी हो राम-लछिमन धवले गोहार. भावार्थ: वृन्दावन में धेनु चराते श्रीकृष्ण  कदम वृक्ष पर चढ़ जाते हैं. तभी एक बाघिन आकर गाय-बछड़ों को मारकर खा जाना चाहती है, गुहार मचने पर राम-लक्षमण रक्षा के लिए आ जाते हैं.
भुइंया आदिवासियों का करमा गीत:
लीप-लीप पिपरी क पात डोले/ दीप-दीप उगेले जोन्हइया/ तील-तील बढ़ेले गोरी के देहिया/ दड़हर खोजे, बड़हर खोजै कतहूँ न मिलल जोड़ी जवान./ केकर घरे तेल माड़े, केकर घरे ककही / केकर घरे मान सँवारे / बांह ले सुरूजा मंड़र खीया / भरि माँग सेन्हुआ भरावै / भरि माथ टिकुल ढमकावै / टक-टक मथवा निहारे निलजिया.
भावार्थ: पीपल का पत्ता धीरे-धीरे डोल रहा है, चाँदनी दिपदिपा रही है. किशोरी का तन तिल-तिल कर बढ़ रहा है. यहाँ-वहाँ खोजने पर भी सुयोग्य वर नहीं मिल रहा. किसी के घर से तेल, किसी के घर से कंघी माँगकर, सिन्दूर से माँग भरकर, माथे पर टिकुली लगाकर गोरी निर्लज्ज की तरह अपना रूप निहारती है.
धांगर आदिवासियों का करमा गीत:
देवरा दुलरू हव हो / कहि के आवें आधी रतिया / देवरा दुलरू हव हो / घरवा में सूतल रहली /  भउजी एक दिन दुपहरिया / देवरा खिड़की में ठाढ़ / तूंत बइठ देवरा माया के पलंगिया / देवरा दुलरू कहें / भउजी हमत बइठब तोहरे पलंगिया / भउजी बइठावे देवरा हो / देवरा दुलरू तूं अइसन मजा पइबा / बहरा तूं घूंमबा अकेल / घरवा म गाव ला गीत हो / देवरा दुलरू हवं हो.
भावार्थ: दुलारा देवर आधी रात में भाभी के पास क्यों आता है? एक दोपहर देवर खिड़की में खड़ा, घर में सोती भौजी को निहारता है. भाभी देख लेती है और कहती है कि वह माँ के पलंग पर सो जाए. देवर जिद करता है कि वह भाभी के पलंग पर ही बैठेगा. भाभी उसे बैठा लेती है. देवर बाहर अकेला घूमता रहता है पर घर में गीत गाता रहता है. देवर दुलारा है. 
इस गीत का मुखड़ा तथ अंतिम पंक्तियाँ भागवतजातीय तथा संस्कारीजातीय सिंह छंद में निबद्ध हैं. पदों में क्रमश: ३७ मात्रिक दंडक छंद का प्रयोग है.
वाचिक परंपरा के लोकगीत पिंगलशास्त्रीय ग्रंथ-सृजन के पूर्व रचे गए या उसी परंपरा में रचे जा रहे हैं. इन गीतों की रचना मात्रा संख्या या वर्ण संख्या पर आधारित न होकर उस अंचल विशेष में प्रचलित उच्चारणों और गायन के तरीके पर निर्भर है. इनमें मात्रा पतन तथा मात्र जोड़ने की छूट ली गयी है. इनकी रचना गायन शैली के आधार  पर है. लोकनाट्य के कथ्य को उभारने, रोचकता तथा सरसता वृद्धि के लिए छंदों का प्रयोग चिरकाल से होता रहा है. वर्तमान काल में चलचित्रों के गीतों में छंद-प्रयोग निरंतर हो रहा है किंतु आधुनिक रंगमंच पर छंद-प्रयोग सीमित हो गया है. ग्राम्यांचलों में लोकमंच पर छांदस गीतों का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है किंतु उनकी विषयवस्तु स्तरीय नहीं है.
सन्दर्भ: १. लोकनाट्य मंच की पीठिका- डॉ. अर्जुनदास केसरी व मोहनलाल बाबुलकर,   

कार्यशाला

कार्यशाला:
कुछ अपनी, कुछ आपकी
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मिला था ईद पे उससे गले हुलसकर मैं
किसे पता था वो पल में हलाल कर देगा
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ये मेरी तिश्नगी, लेकर कहाँ चली आई?
यहाँ तो दूर तक सहरा दिखाई देता है.
- डॉ.अम्बर प्रियदर्शी
चला था तोड़ के बंधन मिलेगी आजादी
यहाँ तो सरहदी पहरा दिखाई देता है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'
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तिश्नगी का न पूछिए आलम
मैं जहाँ हूँ, वहाँ समंदर है.
- अम्बर प्रियदर्शी
राह बारिश की रहे देखते सूने नैना
क्या पता था कि गया रीत सारा अम्बर है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'
salil.sanjiv@gmail.com
७९९९५५९६१८