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सोमवार, 11 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र' हास्य-व्यंग्य में छंद


हास्य,व्यंग्य काव्य में छंद

विवेक रंजन श्रीवास्तव 
       
हास्य , व्यंग्य एक सहज मानवीय प्रवृति है . दैनिक व्यवहार में भी हम जाने अनजाने कटाक्ष , परिहास , व्यंग्योक्तियो का उपयोग करते हैं . साहित्य की दृष्टि से  मानवीय वृत्तियों को आधार मानकर व्याकारणाचार्यों ने ९ मूल मानवीय भावों हेतु  ९ रसों का वर्णन किया है . श्रंगार रस अर्थात रति भाव , हास्य रस अर्थात हास्य की वृत्ति  , करुण रस अर्थात शोक का भाव , रौद्र रस     अर्थात क्रोध , वीर रस अर्थात उत्साह , भयानक रस अर्थात भय , वीभत्स रस अर्थात घृणा या जुगुप्सा , अद्भुत रस अर्थात आश्चर्य का भाव  तथा शांत रस अर्थात निर्वेद भाव में सारे साहित्य को विवेचित किया जा सकता है . वात्सल्य रस को १० वें रस के रूप में कतिपय विद्वानो ने अलग से विश्लेषित किया है , किन्तु मूलतः वह श्रंगार का ही एक सूक्ष्म उप विभाजन है . रसो की  यह मान्यता विवादास्पद भी रही है, परंतु हास्य की रसरूपता को सभी ने निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है.  मनोविज्ञान के विशेषज्ञों ने भी हास्य को मूल प्रवृत्ति के रूप में समुचित स्थान दिया है . आनंद के साथ हास्य का सीधा संबंध है .हास्य तन मन के तनाव दूर करता है, स्वभाव की कर्कशता मिटाता है, व्यंग्य  आत्मनिरीक्षण और आत्मपरिष्कार के साथ ही मीठे ढंग से समाज सुधार का मार्ग प्रशस्त करता है, व्यक्ति और समाज की थकान दूर कर उनमें ताजगी भरता  है.भरत का नाट्यशास्त्र , भाव प्रकाश , साहित्य दर्पणकार , दशरूपककार आदि  हमारे साहित्य में रसछंद के प्रामाणिक पुरातन ग्रंथ हैं . 
हास्यरस के लिए भरत मुनि का नाट्यशास्त्र कहता है-
       विपरीतालंकारैर्विकृताचाराभिधान वेसैश्च
       विकृतैरर्थविशेषैहंसतीति रस: स्मृतो हास्य:।।
भावप्रकाश के अनुसार -
       प्रीतिर्विशेष: चित्तस्य विकासो हास उच्यते।
साहित्य दर्पणकार का कथन है-
       वर्णदि वैकृताच्चेतो विकारो हास्य इष्यते
   विकृताकारवाग्वेशचेष्टादे: कुहकाद् भवेत्।।
दश रूपककार की उक्ति है-
       विकृताकृतिवाग्वेरात्मनस्यपरस्य वा
       हास: स्यात् परिपोषोऽस्य हास्य स्त्रिप्रकृति: स्मृत:।।

निष्कर्ष यह है कि हास्य एक प्रीतिपरक भाव है . हास्य का प्रादुर्भाव असामान्य आकार, असामान्य वेष, असामान्य आचार, असामान्य अभिधान, असामान्य अलंकार, असामान्य अर्थविशेष, असामान्य वाणी, असामान्य चेष्टा आदि भाव भंगिमा द्वारा होता है .  इन वैचित्र्य  के परिणाम स्वरूप जो असामान्य स्थितियां बनती हैं वे  चाहे अभिनेता की हो, वक्ता की हो,या अन्य किसी की उनसे हास्य का उद्रेक होता है .   कवि कौशल द्वारा हमें  रचना में इस तरह के अनुप्रयोग से  आल्हाद होता है , यह विचित्रता हमारे मन को पीड़ा न पहुंचाकर ,  हमें गुदगुदाती है , यह अनुभूति ही हास्य कहलाता है. हास्य के भाव का उद्रेक देश-काल-पात्र-सापेक्ष होता है. घर पर कोई खुली देह बैठा हो तो दर्शक को हँसी न आवेगी किंतु किसी उत्सव में भी वह इसी तरह पहुँच जाए तो उसका आचरण प्रत्याशित से विपरीत या विकृत माना जाने के कारण उसे हँसी का पात्र बना  देगा. युवा महिला श्रंगार करे तो उचित ही है किंतु किसी  बुढ़िया का अति श्रंगार परिहास का कारण होगा  कुर्सी से गिरनेवाले को देखकर  हम हँसने लगेंगे परंतु छत से गिरने वाले बच्चे पर हमारी करुणापूर्ण सहानुभूति ही उमड़ेगी. अर्थात  हास्य का भाव परिस्थिति के अनुकूल होता है . 

 हास्य के दो भेद बताए गये हैं। एक है आत्मस्थ और दूसरा है परस्थ.  हास्य पात्र की दृष्टि से  पात्र का स्वत: हँसना आत्मस्थ हास्य है और दूसरों को हँसाना परस्थ हास्य है .नाट्य दर्शकों की दृष्टि से आत्मस्थ हास्य है , स्वत:  उद्भुत हास्य और परस्थ हास्य है दूसरों को हँसता हुआ देखकर उत्पन्न हास्य.  
 हास्य के छह प्रकार वर्णित हैं - स्मित, हसित, विहसित, उपहसित, अवहसित और अतिहसित.  ये  हंसने कि तीव्रता के ही भेद हैं .  होंठों की मुस्कराहट स्मित है. स्मित मृदुहास के भी दो भाग किए जा सकते हैं, एक  गुप्त हास जिसका आनंद मन ही मन लिया जाता है , और दूसरा  स्फुट हास्य जिस मुस्कराहट को दूसरे लोग भी समझ सकते हैं.  दांत दीख पड़ना हसित है, हंसी की ध्वनि निकल पड़ना विहसित है। अंग हिल उठना अवहसित है। पेट पकड़ने वाली हँसी अवहसित है और पूरे ठहाके वाली  हँसी अतिहसित कही गई है।अतिहसित अर्थात अट्टहास के भी दो भेद किए जा सकते हैं पहला मर्यादित हंसी जो हँसनेवाले की परिस्थिति से नियंत्रित रहे और दूसरा अमर्यादित हास्य जिसमें परिस्थिति सापेक्षता का भान नहीं रहता .
 इन दिनो स्वास्थ्य की दृष्टि से दिन में एक बार पूरे मनोयोग से हँसने को यौगिक क्रियाओ का हिस्सा माना जाता है .यह हँसी सायास भौतिक रूप से उत्पन्न की जाती है .  भौतिक रूप से गुदगुदाने से उत्पन्न हंसी और किसी रचना के माध्यम से उत्पन्न की गई हंसी में अंतर यह होता है कि भौतिक रूप से गुदगुदाहट या  सायास  पैदा की गई हंसी में बौद्धिक चेष्टा शून्य होती है जबकि किसी रचना के माध्यम से उत्पन्न की गई हंसी में बौद्धिक चेतना ही शारीरिक रूप से प्रगट होने वाली हंसी का प्रादुर्भाव करती है . अपनी रचना द्वारा पाठक में हास्य के ये अनुभाव उत्पन्न करा देना हास्यरस की  रचना की सफलता  है .
विदेशी विद्वानों ने हास्य रचना  के पाँच प्रमुख प्रकार बताये हैं  - ह्यूमर (शुद्ध हास्य), विट (वाग्वैदग्ध्य), सैटायर (व्यंग्य), आइरनी (वक्रोक्ति) और फार्स (प्रसहन)। ह्यूमर और फार्स हास्य के विषय से संबंधित हैं जबकि विट, सैटायर और आइरनी का संबंध उक्ति के कौशल से है .  पैरोडी (रचना परिहास अथवा विरचनानुकरण) भी हास्य की एक विधा है जिसका संबंध रचना कौशल से है. आइरनी का अर्थ कटाक्ष या परिहास है. विट अथवा वाग्वैदाध्य को एक विशिष्ट अलंकार कहा जा सकता है. 
 आकृति का बेतुकापन मोटापा, कुरूपता, भद्दापन, अंगभंग, अतिरिक्त नजाकत, तोंद, कूबड़, नारियों का शारीरिक रंग, आदि विषयों पर हास्यरस की रचनाएँ हो चुकी हैं. उल्लेखनीय है कि एक समय का हास्यास्पद विषय शाश्वत हास्यास्पद विषय हो , ऐसा नहीं होता. सामाजिक स्थितियो के अनुरूप मान्यतायें बदल जाती हैं .  आज अंग भंग, विकलांगता आदि हास्य के विषय नहीं माने जा सकते अतएव अब इन पर हास्य रचनाएँ करना हास्य की सुरुचि का परिचायक नही माना जाएगा , संवेदनशीलता ने इन प्राकृतिक शारीरिक  व्याधियों को हास्य की अपेक्षा करुणा का विषय बना दिया है . नारी के प्रति सम्मान के भाव के चलते उन पर किये जाने वाले व्यंग्य भी अब साहित्यिक दृष्टि से प्रश्नचिन्ह के घेरे में आ चुके हैं . 
 प्रकृति या स्वभाव का बेतुकापन  उजड्डपन, बेवकूफी, पाखंड, झेंप, चमचागिरी, अमर्यादित फैशनपरस्ती, कंजूसी, दिखावा पांडित्य का बेवजह प्रदर्शन , अनधिकार अहं, आदि बेतुके स्वभाव पर भी रचनाकारों ने अच्छे व्यंग किए हैं .   
परिस्थिति का वैचित्र्य ,  समय की चूक ,समाज की असमंजसता में व्यक्ति की विवशता आदि विषय भी हास्य के विषय बनते हैं . वेश का बेतुकापन, हास्य पात्रों नटों और विदूषकों का प्रिय विषय  रहा है और प्रहसनों, रामलीलाओं, रासलीलाओं, "गम्मत", तमाशों आदि में इस तरह के हास्य प्रयोग बहुधा प्रस्तुत किये जाते हैं. 
नाटकीय साधु वेश, अंधानुकरण करनेवाले फैशनपरस्तों का वेश,बेतरतीब पहनावे ,  "मर्दानी औरत" का वेश आदि ऐसे बेतुके वेश हैं जो रचना के विषय बनते हैं। वेश के बेतुकेपन की रचना भी आकृति के बेतुकेपन की रचना के समान प्राय: हल्केपन की ही प्रतीक होती है . कपिल शर्मा के प्रसिद्ध हास्य टी वी शो में वे दो पुरुष पात्रो को नारी वेश में निरंतर प्रस्तुत कर फूहड़ हास्य ही उत्पन्न करते हैं  ।
 हकलाना वाणी का वैचित्र्य है , इसी तरह बात बात पर तकिया कलाम लगा कर बोलना जैसे "जो है सो" , शब्द स्खलन करना जैसे हाल ही राहुल जी के भाषणो में हमें सुनने मिला  अर्थात स्लिप आफ टंग , अमानवी ध्वनियाँ निकालना जैसे मिमियाना, रेंकना, अथवा फटे बांस की सी आवाज, बैठे गले की फुसफुसाहट आदि, शेखी के प्रलाप, गप्पबाजी, पंडिताऊ भाषा, गँवारू भाषा, अनेक भाषा के शब्दों की खिचड़ी, आदि को भी हास्य का विषय बनाया जाता है . 
 फूहड़ हरकतें, अतिरंजना, चारित्रिक विकृति, सामाजिक उच्छ्रंखलताएँ, कुछ का कुछ समझ बैठना, कह बैठना या कर बैठना, कठपुतलीपन  या रोबोट की तरह यंत्रवत् व्यवहार जिसमें विचार या विवेक का प्रभाव शून्य हो,  इत्यादि व्यवहारो को भी हास्य का विषय बनाये जाते हैं . 
 हास्य के लिए, चाहे वह परिहास की दृष्टि से हो या उपहास अर्थात संशुद्धि की दृष्टि से, किसी भी तरह की असामान्यता  बहुत महत्वपूर्ण है. कटाक्ष तथा व्यंग्य की मूल विषय वस्तु ही पात्र का व्यवहार होता है . प्रभाव की दृष्टि से  हास्य या तो  परिहास की कोटि का होता है या उपहास की कोटि का.  अनेक रचनाओं में हास परिहास , संतुष्टि और संशुद्धि दोनों भावो का मिश्रण भी होता है। परिहास और उपहास दोनों के लिए लक्ष्य पाठक को ध्यान में  रखना आवश्यक है.  धार्मिक मान्यताओ या विद्रूपताओ पर व्यंग्य समान धर्मावलंबियों को तो हँसा सकता है पर दूसरे धर्म के अनुयायियो पर व्यंग्य उनकी भावनाओ को आहत कर सकता है .  व्यंग्य की सफलता इसमें  है कि उपहास का पात्र  व्यक्ति हो या समाज वह  अपनी त्रुटियाँ समझ ले परंतु संकेत करने वाले रचनाकार का अनुगृहीत भी हो  और उसे "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" की तरह  न देखे.  बिना व्यंग्य के हास्य को परिहास समझा जा सकता है.  
 हमारा प्राचीन संस्कृत साहित्य भी हास्य व्यंग्य से भरपूर है . कालिदास के रचना कौशल का यह एक उदाहरण दृष्टव्य है . 
राजा भोज ने घोषणा की थी कि जो नया श्लोक रचकर लाएगा उसे एक लाख मुद्राएँ पुरस्कार में मिलेंगी परंतु पुरस्कार किसी को मिल ही नहीं पाता था क्योंकि  मेधावी दरबारी पंडित नया श्लोक सुनते ही उसे दुहरा देते और इस प्रकार उसे पुराना घोषित कर देते थे। किंवदंती के अनुसार कालिदास ने निम्न श्लोक सुनाकर दरबारियो की  बोलती बंद कर दी थी। श्लोक में कवि ने दावा किया है कि राजा निन्नानबे करोड़ रत्न देकर पिता को ऋणमुक्त करें और इस पर पंडितों का साक्ष्य ले लें। यदि पंडितगण कहें कि यह दावा उन्हें विदित नहीं है तो फिर इस नए श्लोक की रचना के लिए एक लाख दिए ही जाएँ। इसमें "कैसा छकाया" का भाव बड़ी सुंदरता से सन्निहित है :
       स्वस्तिश्री भोजराज! त्रिभुवनविजयी धार्मिक स्ते पिताऽभूत्
       पित्रा ते मे गृहीता नवनवति युता रत्नकोटिर्मदीया।
       तान्स्त्वं मे देहि शीघ्रं सकल बुधजनैज्र्ञायते सत्यमेतत्
       नो वा जानंति केचिन्नवकृत मितिचेद्देहि लक्षं ततो मे।।    
पिंगल शास्त्र की दृष्टि से यह श्लोक ..... छंद है . 
हिंदी के वीरगाथाकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल प्राय: छंद बद्ध  रचनाओ के ही काल रहे हैं। इस लंबे काल में हास्य की रचनाएँ यदा कदा होती ही रही हैं परंतु वे प्राय: फुटकर रचनाएँ रही हैं। तुलसीदास जी के रामचरिमानस का नारद मोह प्रसंग शिव विवाह प्रसंग, परशुराम प्रसंग आदि और सूरदास जी के सूरसागर का माखन चोरी प्रसंग, उद्धव-गोपी-संवाद  आदि हास्य के अच्छे उदाहरण हैं। तुलसीदास जी का निम्न छंद, जिसमें जरा जर्जर तपस्वियों की श्रंगार लालसा पर मजेदार चुटकी ली गई है, उल्लेखनीय है .
       विंध्य के वासी उदासी तपोव्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे
       गौतम तीय तरी तुलसी सो कथा सुनि भे मुनिवृंद सुखारे।
       ह्वै हैं सिला सब चंद्रमुखी, परसे पद मंजुल कंज तिहारे
       कीन्हीं भली रघुनायक जू जो कृपा करि कानन को पगु धारे।।
यह रचना पिंगलशास्त्रीय दृष्टि से  ..... छंद है . 
बीरबल के चुटकुले, लाल बुझक्कड़ के लटके, घाघ और भड्डरी की सूक्तियाँ, गिरधर कविराज और गंग के छंद, बेनी कविराज के भड़ौवे तथा और भी कई रचनाएँ इस काल की प्रसिद्ध हास्य व्यंग्य रचनायें हैं। भारत जीवन प्रेस ने इस काल की फुटकर हास्य रचनाओं का कुछ संकलन अपने "भड़ोवा संग्रह" में प्रकाशित किया था। इस काल में, विशेषत: दान के प्रसंग को लेकर, कुछ मार्मिक रचनाएँ हुई हैं जिनकी रोचकता आज भी कम नहीं कही जा सकती। उदाहरण देखिए -
       चीटे न चाटते मूसे न सूँघते, बांस में माछी न आवत नेरे,
       आनि धरे जब से घर मे तबसे रहै हैजा परोसिन घेरे,
       माटिहु में कछु स्वाद मिलै, इन्हैं खात सो ढूढ़त हर्र बहेरे,
       चौंकि परो पितुलोक में बाप, सो आपके देखि सराध के पेरे।।
यह श्लोक ..... छंद है . 
एक कंजूस व्यक्ति ने संकट आने पर  तुलादान अर्थात स्वयं के वजन के बराबर का दान  करना कबूल कर लिया था। उसके लिए अपना वजन घटाने की उसकी तरकीबें देखिए -
       बारह मास लौं पथ्य कियो, षट मास लौं लंघन को कियो कैठो
       तापै कहूँ बहू देत खवाय, तो कै करि द्वारत सोच में पैठो
       माधौ भनै नित मैल छुड़ावत, खाल खँचै इमि जात है ऐंठो
       मूछ मुड़ाय कै, मूड़ घोटाय कै, फस्द खोलाय, तुला चढ़ि बैठो।।
यह श्लोक ..... छंद है . 
        वर्तमान काल में हास्य के विषयों और उनकी अभिव्यक्ति करने की शैलियों का  विस्तार हुआ है।आज पद्य के साथ ही गद्य की भी अनेक विधाओं का विकास हुआ है। नाटक तथा एकांकी, उपन्यास तथा कहानियाँ, एवं निबंध, स्वतंत्र सामयिक कटाक्ष के व्यंग्य लेख आदि  विधाओं में हास्यरस के अनुकूल साहित्य लिखा जा रहा है। वर्तमान युग के प्रारंभ के सर्वाधिक यशस्वी साहित्यकार भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के नाटकों में विशुद्ध हास्यरस कम, वाग्वैदग्ध्य कुछ अधिक और उपहास पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति", "अंधेर नगरी" आदि उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। उनका "चूरन का लटका" प्रसिद्ध है। उनके ही युग के लाला श्रीनिवास दास, श्री प्रतापनारायण मिश्र, श्री राधाकृष्णदास, श्री प्रेमधन, श्री बालकृष्ण भट्ट आदि ने भी हास्य की रचनाएँ की हैं। श्री प्रतापनारायण मिश्र ने "कलिकौतुक रूपक" नामक सुंदर प्रहसन लिखा . "बुढ़ापा" नामक उनकी कविता शुद्ध हास्य की उत्तम कृति है।
व्यंग्य सदा से सत्ता के विरोधी पक्ष में शोषित के साथ खड़ा रहा है . जब देश में अंग्रेजी साम्राज्य था उनकी प्रत्यक्ष आलोचना का सीधाअतएव साहित्यका सा अर्थ कारागार होता था तब रचनाकारों ने, विशेषत: व्यंग्य और उपहास का मार्ग ही पकड़ था और स्यापा, हजो, वक्रोक्ति, व्यंगोक्ति आदि के माध्यम से सुधारवादी सामाजिक चेतना जगाने का प्रयत्न किया था , जिनमें प्रतीक के माध्यम से आलोचना तथा ब्याज स्तुति की जाती थी .सिनेमा से पहले विभिन्न नाटक मंडलियां तम्बू लगाकर शहर शहर घूम कर हास्य नाटक करती थीं , जिनके लिये प्रचुर हास्य साहित्य परिवेश , समय के अनुरूप लिखा गया . इनमें बीच बीच में गीतो की प्रस्तुति भी होती थी जिसमें जन सामान्य  के मनोरंजन के लिये हल्का हास्य होता था .  
    भारतेंदुकाल के बाद महावीरप्रसाद व्दिवेदी काल आया जिसमें हास्य के विषयों और उनकी अभिव्यंजना प्रणालियों का  परिष्कार एवं विस्तार हुआ.  नाटकों में केवल हास्य का उद्देश्य लेकर मुख्य कथा के साथ जो एक अंतर्कथा या उपकथा विशेषत: पारसी थिएट्रिकल कंपनियों के प्रभाव से चला करती थी वह व्दिवेदीकाल में प्राय: समाप्त हो गई और हास्य के उद्रेक के लिए विषय अनिवार्य न रह गया। काव्य में "सरगौ नरक ठेकाना नाहिं" सदृश रचनाएँ सरस्वती आदि पत्रिकाओं में सामने आई। उस युग के बावू बालमुकुंद गुप्त और पं. जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी हास्य के अच्छे लेखक थे। बावू बालमुकुंद गुप्त ने "भाषा की अनस्थिरता" नामक अपनी लेखमाला "आत्माराम" नाम से लिखी और  पं. जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी ने "निरंकुशता-निदर्शन" नामक लेखमाला "मनसाराम" नाम से लिखी .दोनों ने इन लेख मालाओं में द्विवेदी जी का प्रतिवाद किया और उनकी इस नोकझोंक की चर्चा साहित्य जगत में  चर्चित रही। श्री बालमुकुंद गुप्त जी का शिवशंभु का चिट्ठा, श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी का कछुवा धर्म, श्री मिश्रबंधु और बदरीनाथ भट्ट जी के अनेक नाटक, श्री हरिशंकर शर्मा के निबंध, नाटक आदि, श्री जी. पी. श्रीवास्तव और उग्र जी के अनेक प्रहसन और अनेक कहानियाँ, अपने अपने समय में जनसाधारण में लोकप्रिय हुई। जी. पी. श्रीवास्तव ने उलटफेर, लंबी दाढ़ी आदि लिखकर हास्यरस के क्षेत्र में धूम मचा दी थी. निराला जी ने सुंदर व्यंगात्मक रचनाएँ लिखी हैं और उनके कुल्ली भाठ, चतुरी चमार, सुकुल की बीबी, बिल्लेसुर बकरिहा, कुकूरमुत्ता आदि प्रसिद्ध है। पं. विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक निश्चय ही विजयानंद दुबे की चिट्ठियाँ आदि लिखकर इस क्षेत्र में भी  प्रसिद्ध हैं। शिवपूजन सहाय और हजारीप्रसाद व्दिवेदी ने "हास्यरस के साहित्य की श्रीवृद्धि की है। अन्नपूर्णानंद वर्मा को हम हास्यरस का ही विशेष लेखक कह सकते हैं। उनके "महाकवि चच्चा", "मेरी हज़ामत," "मगन रहु चोला", मंगल मोद", "मन मयूर" सभी सुरुचिपूर्ण हैं।
    वर्तमान काल में उपेंद्रनाथ अश्क ने "पर्दा उठाओ, परदा गिराओ" आदि कई नई सूझवाले एकांकी लिखे हैं। डॉ॰ रामकुमार वर्मा का एकांकी संग्रह "रिमझिम" इस क्षेत्र में मील का पत्थर माना गया है। उन्होंने स्मित हास्य के अच्छे नमूने दिए हैं। देवराज दिनेश, उदयशंकर भट्ट, भगवतीचरण वर्मा, प्रभाकर माचवे, जयनाथ नलिन, बेढब बनारसी, कांतानाथ चोंच," भैया जी बनारसी, गोपालप्रसाद व्यास, काका हाथरसी, आदि  रचनाकारों ने अनेक विधाओं में रचनाएँ की हैं और हास्य साहित्य को समृद्ध किया है। भगवतीचरण वर्मा का "अपने खिलौने" हास्य उपन्यासों में विशिष्ट स्थान रखता है। यशपाल का "चक्कर क्लब" व्यंग के लिए प्रसिद्ध है। कृष्णचंद्र ने "एक गधे की आत्मकथा" आदि लिखकर व्यंग्य लेखकों में यश प्राप्त किया . गंगाधर शुक्ल का "सुबह होती है शाम होती है" की विधा नई है।
राहुल सांकृत्यायन, सेठ गोविंद दास, श्रीनारायण चतुर्वेदी, अमृतलाल नागर, डॉ॰ बरसानेलाल जी, वासुदेव गोस्वामी, बेधड़क जी, विप्र जी, भारतभूषण अग्रवाल आदि के नाम भी गिनाए जा सकते हैं जिन्होंने किसी न किसी रूप में साहित्य में हास्य लेखन भी किया है।
        अन्य भाषाओं की कई विशिष्ट कृतियों के अनुवाद भी हिंदी में हो चुके हैं। केलकर के "सुभाषित आणि विनोद" नामक गवेषणापूर्ण मराठी ग्रंथ के अनुवाद के अतिरिक्त मोलिये के नाटकों का, "गुलिवर्स ट्रैवेल्स" का, "डान क्विकज़ोट" का, सरशार के "फिसानए आज़ाद" का, रवींद्रनाथ टैगोर के नाट्यकौतुक का, परशुराम, अज़ीमबेग चग़ताई आदि की कहानियों का, अनुवाद हिंदी में उपलब्ध है।
आधुनिक युग में जहां हरिशंकर परसाई , शरद जोशी , श्रीलाल शुक्ल , रवीन्द्र नाथ त्यागी जैसे व्यंग्यकारो ने व्यंग्य आलेखो को स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित किया वहीं हास्य कवितायें मंच पर बहुत लोकप्रिय हुईं . इनमें अनेक कवियो ने तो छंद बद्ध रचनायें की जो प्रकाशित भी हुईं पर इधर ज्यादातर ने चुटकुलों को ही थोड़ी सी तुकबंदी करके मुक्त छंद में अपने हाव भाव तथा मंच पर प्रस्तुति  की नाटकीयता व अभिनय से लोकप्रियता हासिल की . हास्य , मंचीय कविता में अधिक लोकप्रिय हुआ .गद्य के रूप में  हास्य व्यंग्य ज्यादातर अखबारो के संपादकीय पृष्ठो पर नियमित स्तंभो के रूप में प्रकाशित हो रहा है . विशुद्ध व्यंग्य की पत्रिकायें भी छप रही हैं जिनमें प्रेम जनमेजय की व्यंग्य यात्रा , अनूप श्रीवास्तव की अट्टहास , व्यंग्यम ,  सुरेश कांत ने हाल ही हैलो इण्डिया शुरू की है . कार्टून पत्रिकायें तथा बाल पत्रिकायें जैसे लोटपोट , नियमित पत्रिकाओ के हास्य व्यंग्य विशेषांक , हास्य के टी वी शो , इंटरनेट पर ब्लाग्स में हास्य व्यंग्य लेखन , फेस बुक पर इन दिनो जारी व्यंग्य की जुगलबंदी सामूहिक तथा व्यक्तिगत व्यंग्य संकलन आदि आदि तरीको से हास्य व्यंग्य साहित्य समृद्ध हो रहा है .   ज्यादातर मंचीय कवि इनी गिनी रचनाओ के लिये ही प्रसिद्ध हुये हैं . जिस कवि ने जो छंद पकड़ा उसकी ज्यादातर रचनायें उसी छंद में हैं . महिला रचनाकारों ने सस्वर पाठ व प्रस्तुति के तरीको से मंचो पर पकड़ बनाई है . 
कुछ प्रमुख हास्य कवियो के उदाहरण इस तरह हैं . 
ओम व्यास की रचना "मज़ा ही कुछ और है" .......
दांतों से नाखून काटने का
छोटों को जबरदस्ती डांटने का
पैसे वालों को गाली बकने का
मूंगफली के ठेले से मूंगफली चखने का
कुर्सी पे बैठ कर कान में पैन डालने का
और डीटीसी की बस की सीट में से स्पंज निकालने का
मज़ा ही कुछ और है
एक ही खूंटी पर ढेर सारे कपड़े टांगने का
नये साल पर दुकानदार से कलैंडर मांगने का
चलती ट्रेन पर चढ़ने का
दूसरे की चिट्ठी पढ़ने का
मांगे हुए स्कूटर को तेज भगाने का
और नींद न आने पर पत्नी को जगाने का
मज़ा ही कुछ और है
चोरी से फल फूल तोड़ने का
खराब ट्यूब लाइट और मटके फोड़ने का
पड़ोसिन को घूर घूर कर देखने का
अपना कचरा दूसरों के घर के सामने फेंकने का
बथरूम में बेसुरा गाने का
और थूक से टिकट चिपकाने का
मज़ा ही कुछ और है
आफिस से देर से आने का
फाइल को जबरदस्ती दबाने का
चाट वाले से फोकट में चटनी डलवाने का
बारात में प्रैस किये हुए कपड़ों को फिर से प्रैस करवाने का
ससुराल में साले से पान मंगवाने का
और साली की पीठ पर धौल जमाने का
मज़ा ही कुछ और है
पंगत में एक सब्जी के लिये दो दौने लगाने का
अपना सबसे फटा नोट आरती में चढ़ाने का
दूसरों के मोबाइल से चिपकने का
पान और गुटके को इधर उधर पिचकने का
कमजोर से बेमतलब लड़ने का
और पत्नी को रोज रोज परेशान करने का
मज़ा ही कुछ और है

उपरोक्त रचना ..... छंद है . ओम व्यास सफल मंचीय कवि थे . 

बलबीर सिंग कुरुक्षेत्र से हैं उनकी एक हास्य रचना ...

परीक्षा-हाल में अक्सर मेरा, अंतर्रात्मा से मिलन होता है ।
पेपर तो छात्र देते हैं, परन्तु मूल्यांकन हमारा भी होता है ।
एक दिन गणित के पेपर में, डयूटी मेरी आन लगी थी 
समय जैसे ही शुरु हुआ, घण्टी मोबाईल की बोलने लगी थी
मोबाईल को देख सिर मेरा चकराया, क्योंकि फोन था अर्धांगिनी ने लगाया
दहाड़ती हुई शेरनी सी बोली, दूध खत्म हो गया है
जल्दी से घर आ जाओ, मुन्ना भूखा ही सो गया है
इस मोबाईल डाट से बालक के, दस मिनट खराब हो चुके थे
जिन्हें कुछ नहीं आता था, उनके भी तीन उत्तर पूरे हो चुके थे
तभी मेज पर, रखे अखबार पर व मुख्य शीर्षक पर
जैसे ही दृष्टि मेरी पड़ी, आंखें रह गयी खड़ी की खड़ी
खबर में लिखा था ‘घरेलू वस्तुओं के भाव और बढ़ेंगे’
चिन्ता मेरी बढ़ने लगी, कैसे गुजारा हम करेंगे
इधर अगले माह बेटी की शादी, करने की सोचा है
उधर लड़के के माँग-पत्र में, होन्डा सिटी का नाम भी लिखा है

   काका हाथरसी छंद बद्ध हास्य रचनाओ के सुस्थापित नाम हैं उनकी किताबें काका की फुलझड़ियाँ , काका के प्रहसन , लूटनीति मंथन करि ,  खिलखिलाहट ,  काका तरंग ,जय बोलो बेईमान की , यार सप्तक , काका के व्यंग्य बाण आदि सभी किताबें मूलतः हास्य से भरपूर रचनायें हैं . प्रायः काका हाथरसी की कुण्डलियां बहुत चर्चित रही हैं . 

पत्रकार दादा बने, देखो उनके ठाठ।
कागज़ का कोटा झपट, करें एक के आठ।।
करें एक के आठ, चल रही आपाधापी ।
दस हज़ार बताएं, छपें ढाई सौ कापी ।।
विज्ञापन दे दो तो, जय-जयकार कराएं।
मना करो तो उल्टी-सीधी न्यूज़ छपाएं ।।
2)
कभी मस्तिष्क में उठते प्रश्न विचित्र।
पानदान में पान है, इत्रदान में इत्र।।
इत्रदान में इत्र सुनें भाषा विज्ञानी।
चूहों के पिंजड़े को, कहते चूहेदानी।
कह 'काका' इनसान रात-भर सोते रहते।
उस परदे को मच्छरदानी क्योकर कहते।।
3)
नगरपालिका के लिए पड़ने लागे वोट।
कहीं बोतलें खुल रही, कहीं बट रहे नोट।।
कहीं बट रहे नोट, और सब रहे अभागे।
वोट गिने तो कम्यूनिस्ट पार्टी थी सबसे आगे।।
कामरेड बोले - "प्रस्ताव हमारा धर दो।
कल से इसका नाम, 'कम्यूनिसिपल्टी' कर दो।।"
4)
कुत्ता बैठा कार में, मानव मांगे भीख।
मिस्टर दुर्जन दे रहे, सज्जनमल को सीख।।
सज्जनमल को सीख, दिल्लगी अच्छी खासी।
बगुला के बंगले पर, हंसराज चपरासी।।
हिंदी को प्रोत्साहन दे, किसका बलबुत्ता।
भौंक रहा इंगलिश में, मन्त्री जी का कुत्ता।।
5)
पढ़ना-लिखना व्यर्थ है, दिन-भर खेलो खेल।
होते रह दो साल तक, फर्स्ट इयर में फेल ।।
फर्स्टइयर में फेल, तेल जुल्फों मे डाला ।
साइकिल से चल दिए, लगा कमरे का ताला ।।
कह ‘काका' कविराय, गेट-कीपर से लड़कर।
मुफ्त सिनेमा देख, कोच पर बैठ अकड़कर ।।

     हुल्लड़ मुरादाबादी देश के विभाजन पर पाकिस्तान से विस्थापित होकर मुरादाबाद आये . उनका मूल नाम  सुशील कुमार चड्ढा है . उनके लिए हास्य व्यंग्य की यह  कला बड़ी सहज है . भाषा ऐसी है कि हिन्दी उर्दू में भेदभाव नहीं,  भाव ऐसा है कि हृदय को छू जाए.  समय के साथ हुये तकनीकी परिवर्तनो को हास्य रचनाकारो द्वारा बड़ी सहजता से अपनाया गया . हुल्लड़ जी ने किताबें या मंचीय प्रस्तुतियां ही नही एच एम वी के माध्यम से ई पी , एल पी , कैसेट के माध्यम से भी उनकी हास्य रचनायें प्रस्तुत की और देश के सुदूर ग्रामीण अंचलो तक सुने व सराहे गये .  हुल्लड़ जी  पहले हास्य कवि हैं जिनका (L.P) रेकार्ड एच.एम.वी.कम्पनी ने तैयार किया . 
एच.एम.वी.द्वारा रिलीज किए गए हुल्लड़ जी के रिकार्ड 
1. हँसी का खजाना 7 ई.पी.ई.2156
2. हुल्लड़ का हंगामा 7 ई.पी.ई.2159
3. कहकहे 7 ई.पी.ई.2171
4. हुल्लड़ मुरादाबादी से मिलिए 7 ई.पी.ई.2172
5. लौंग प्ले रिकार्ड (L.P)
एच.एम.वी.कैसेट 4 टी.सी.1916
एच.एम.वी.कैसेट 4 टी.सी.501 वी 2028
 स्वयं काका हाथरसी के कैसेट के साथ सुरेन्द्र शर्मा के चार लाइणा कैसेट में भी प्रथम स्वर हुल्लड़ जी का ही है।
हास्य व्यंग्य का चर्चित और सुविख्यात काका हाथरसी पुरस्कार और हास्य रत्न की उपाधि से हुल्लड़ को विभूषित किया जा चुका है। 
 हुल्लड़ के चमत्कारिक प्रभाव और लोकप्रियता को देखकर स्वयं काका ने उसका परिचय कुछ पंक्तियों में इस प्रकार दिया है :
श्रोताओं को हँसाते खुद रहते गंभीर
कैसेट इनका बज रहा, वहाँ लग रही भीड़
वहाँ लग रही भीड़, खींचते ऐसे खाके
सम्मेलन हिल जाए, इस कदर लगे ठहाके
रेकार्ड और कैसेट के साथ-साथ हुल्लड़ फिल्म ‘संतोष’ (मनोज कुमार, हेमामालिनी, शत्रुघ्न सिन्हा, प्रेम चोपड़ा) तथा बंधन बाँहों का (राजकिरण, स्वप्ना, राजेशपुरी ब्रह्मचारी) में अभिनय कर चुके हैं तथा आई.एस.जौहर कृत नसबंदी का टाइटिल सौंग ‘क्या मिल गया सरकार इमरजेंसी लगा के’ उन्होंने ही लिखा है। देश के लाखों-करोड़ों श्रोताओं को आज इस आपाधापी से भरे भयाक्रांत माहौल में हँसाना टेढ़ी खीर है। पर हुल्लड़ जी इस मुश्किल काम को बड़ी खूबसूरती से और कारीगरी के साथ पूरा करने में लगे हुए हैं।
प्रचार-प्रसार के सारे माध्यमों का सहारा लेकर वे न केवल  देश वरन विदेशो में भी हास्य कविता के आयोजन करते रहे हैं .  अमेरिका में पहली बार 18 नगरों में सन् 84 और सन् 86 में न्यूयार्क ड्रैटोयट, हयूस्टन तथा शिकागो, दो बार हांगकांग तथा बैंकाक और नेपाल की काव्य यात्रा करके चर्चित और लोकप्रिय हो चुके हैं। 
उनके हँसी के खजाने से निकली हास्य व्यंग्य की प्रकाशित पुस्तकें  हैं 
 हुल्लड़ का हुल्लड़ ,. तथाकथित भगवानों के नाम (पुरस्कृत) ,  सत्य की साधना ,  हज्जाम की हजामत,  इतनी ऊँची मत छोड़ो ,  त्रिवेणी (सभी लाइब्रेरी संस्करण)
डायमंड पाकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित हुल्लड़ की श्रेष्ठ हास्य-व्यंग्य रचनाएँ हैं  हुल्लड़ के कहकहे ,  ढूँढ़ते रह जाओगे ,  हुल्लड़ के जोक्स,  त्रिवेणी , हज्जाम की हजामत तथा ,ढोलवती एंड पोलवती सुबोध पाकेट बुक्स दिल्ली ,  हुल्लड़ की हरकतें राहुल पेपर बैक्स दिल्ली
ये पुस्तकें आम आदमी के मन को छूने वाले हास्य प्रस्तुत करती हैं , इसीलिये वे बिकीं . 

उनकी एक रचना है 
चार बच्चों को बुलाते तो दुआएँ मिलतीं, 
साँप को दूध पिलाने की जरूरत क्या थी ?
‍‍‍===
मत करो बुढ़ापे में, इश्क की तमन्नाएँ
क्योंकि फ्यूज बल्बों में, बिजलियाँ नहीं होतीं।।
===
हुल्लड़ जी में  तात्क्षणिक रचनाधर्मिता की अद्भुत प्रतिभा है , एक बार उनसे किसी श्रोता ने लालू जी पर कुछ सुनाने की मांग की , हुल्लड़ जी मंच से "अच्छा है पर कभी कभी " उन्मान की रचना पढ़ रहे थे , उन्होने तुरंत ही ये पंक्तियां सुना दीं ...

हमने देखा कल सपने में लालू जी ने दूध दिया
गाय, भैंस का चारा खाना अच्छा है पर कभी-कभी।।
यह तात्कालिक प्रयोग की योग्यता विलक्षण है . आशुकविता एक अलग ही मंचीय विधा है , जिसमें भी वे पारंगत हैं . 

हुल्लड़ जी मानते हैं कि  कविता का मूल उद्देश्य केवल हँसी या मनोरंजन ही नहीं होना चाहिए। यदि श्रोता या पाठक को हँसी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता तो वह कविता बेमानी है, व्यर्थ है। हुल्लड़ के रचनाओ का दूसरा पहलू इसी संजीदगी और संस्कार को उजागर करता है। एक तरफ आप उसकी हैरतअंगेज हंगामापरक कविताओं से फुक्का फाड़ हँसी के लिए मजबूर हो जाएँगे तो दूसरी तरफ उसी कविता की करुणाजन्य संवेदनाएँ आपको भीतर तक हिलाकर रख देंगी यही हुल्लड़ की मौलिक विशिष्टता है। उनकी कविताओं में एक सूफियाना अंदाज और आध्यात्म भी दृष्टिगोचर है .  कुण्डलियों, मुक्तकों और ग़ज़लों में उनकी सहज मानसिकता का पता चलता है। हुल्लड़ की कुण्डलियाँ, छंदशास्त्र की दृष्टि से कसौटी पर खरी उतरती हैं।
हुल्लड़जी को कुछ वर्ष तक भौतिक तापों की प्रबल आँच से निकलना पडा, किंतु उनकी आशावादी जिजीविषा और सृजनात्मक कर्मनिष्ठा ने उस जीवन संघर्ष पर विजय पाई जिसमें कोई अन्य व्यक्ति टूट जाता. एक कुंडली में उन्होंने इसकी चर्चा की है ..
बीता हर गम मर चुका, मत ढो उसकी लाश।
वर्तमान में जिए जा, छू लेगा आकाश।।
छू लेगा आकाश, समय जो आनेवाला,
कैसा होगा कौन, तुझे बतलाने वाला।
सुख-दु:ख मन के खेल, व्यर्थ मत करो फजीता,
अब आगे की सोच भूल जा जो भी बीता।

अपनी इस अनुभूति का परिचय देते हुए एक कुंडली में सलाह दी है :
यार हथेली पे तुम, सरसों नहीं उगाओ।
तुम खुद से लड़ो, समय से मत टकराओ।।

आज के महाकवि कहलाने वाले थोथे कवियों पर उनका एक व्यंग्य देखिए ..
लोटे दर्शन में लगे, बहुत बड़ा था नाम।
दस हजार में कर गए, ढाई सौ का काम।।
ढाई सौ का काम, देर तक भाषण झाड़ा।
फिर भी न जम सके, तो अपना कुर्ता फाड़ा।।
बाकी सब था लेकिन, थे कविता के टोटे।
जिन्हें समंदर समझा, हमने निकले लोटे।।

वे एक सफल छंद प्रणेता हैं।

अल्‍हड़ बीकानेरी भी उनके समकालीन हास्य व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं . छंद, गीत, गजल और ढ़ेरों पैरोडियों के रचयिता अल्‍हड़ जी ऐसे अनूठे कवि थे, जिन्‍होंने हास्‍य को गेय बनाने की परंपरा की भी शुरुआत की . अल्हड़ जी एक ऐसे छंद शिल्पी थे, जिन्हें छंद शास्त्र का व्यापक ज्ञान था। अपनी पुस्‍तक 'घाट-घाट घूमे' में अल्‍हड़ जी लिखते हैं, ''नई कविता के इस युग में भी छंद का मोह मैं नहीं छोड़ पाया हूं, छंद के बिना कविता की गति, मेरे विचार से ऐसी ही है, जैसे घुंघरुओं के बिना किसी नृत्‍यांगना का नृत्‍य..... '' वे अपनी हर कविता को छंद में लिखते थे और कवि सम्‍मेलनों के मंचों पर उसे गाकर प्रस्‍तुत करते थे. यही नहीं गज़ल लिखने वाले कवियों और शायरों के लिए उन्‍होंने गज़ल का पिंगल शास्‍त्र भी लिखा, जो उनकी पुस्‍तक 'ठाठ गज़ल के' में प्रकाशित हुआ।   
17 मई, 1937 को हरियाणा के रेवाड़ी जिले के बीकानेर गांव में जन्‍मे प्रख्‍यात हास्‍य कवि अल्‍हड़ जी का असली नाम श्री श्‍याम लाल शर्मा था। सन् 1954 में उन्‍होंने हरियाणा की मैट्रिक परीक्षा में 86 प्रतिशत अंक प्राप्‍त करके पूरे प्रदेश में पहला स्‍थान प्राप्‍त किया था। मैट्रिक करने के पश्‍चात उन्‍होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरू की लेकिन ईश्‍वर को तो कुछ और ही मंजूर था और इंजीनियरिंग के दूसरे वर्ष की परीक्षा में वे फेल हो गये। इसी दौरान मैट्रिक की परीक्षा में सर्वश्रेष्‍ठ प्रदर्शन की वजह से उन्‍हें डाक तार विभाग में क्‍लर्क की नौकरी मिल गई और दिल्‍ली के कश्‍मीरी गेट स्थित जी.पी.ओ. पोस्‍ट आफिस में उन्‍होंने डाक तार विभाग में नौकरी शुरू की. 'रेत पर जहाज' गजल संग्रह में प्रकाशित एक गजल दिल को छूने वाली है :
 
     ''मरुस्‍थल तो मनाता है नदी को
      तरस लेकिन कब आता है नदी को
      नए शाइर-सा ये गुस्‍ताख झरना
      गजल अपनी सुनाता है नदी को
      हिमाकत देखिए इक बुलबुले की
      इशारों पर नचाता है नदी को''
      एक कवि सम्‍मेलन में हास्‍य कवि काका हाथरसी की फुलझडि़यां सुनकर वे अत्‍यधिक प्रभावित हुये। अपनी पुस्‍तक ''अभी हंसता हूं'' में अल्‍हड़ जी लिखते हैं, मैंने भी गम्‍भीर गीतों और गजलों को विराम देते हुए ''कह अल्‍हड़ कविराय'' की शैली में सैंकड़ों फुलझडि़यां लिख मारीं।''  यही वह मोड़ था, जिसने उन्‍हें माहिर बीकानेर बना दिया और उन्‍होंने हास्‍य कवितायें लिखनी शुरू की। धर्मयुग में उनका मुक्‍तक पहली बार प्रकाशित हुआ। वह इस प्रकार था-

   ''कोई कोठी है न कोई प्‍लाट है
   दोस्‍तो अपना निराला ठाठ है।
   एक बीवी तीन बच्‍चे और हम
   पाँच प्राणी एक टूटी खाट है। ''

इसी तरह एक अन्‍य खूबसूरत गजल में अल्‍हड़ जी कहते हैं :

      ''इठलाई घास
      तभी लेखनी की प्‍यास जगी
      लिख मारी घास पे गजल
      मेरे राम जी''
      यह अल्‍हड़ जी की प्रतिभा और लगन का ही करिश्‍मा था कि सन् 1970 आते-आते वे देश में एक लोकप्रिय हास्‍य कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गये। काव्‍य गुरू श्री गोपाल प्रसाद व्‍यास जी के मार्गदर्शन में अल्‍हड़ जी ने अनूठी हास्‍य कवितायें लिख कर उनकी अपेक्षाओं पर अपने को खरा साबित किया। अल्‍हड़ जी ने हिन्‍दी हास्‍य कविता के क्षेत्र में जो विशिष्‍ट उपलब्धियां प्राप्‍त कीं, उनमें 'साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान' के सम्‍पादक श्री मनोहर श्‍याम जोशी, 'धर्मयुग' के सम्‍पादक श्री धर्मवीर भारती और 'कादम्बिनी' के संपादक श्री राजेन्‍द्र अवस्‍थी की विशेष भूमिका रही। अल्‍हड़ जी अपनी हास्‍य कविताओं में सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों पर तीखा प्रहार किया। अपनी बात को कविता के माध्‍यम से वे बहुत ही सहज रूप से अभिव्‍यक्‍त करते थे।  अल्‍हड़ बीकानेरी ने हास्‍य- व्‍यंग्‍य कवितायें न सिर्फ हिन्‍दी बल्कि ऊर्दू, हरियाणवी संस्कृत भाषाओं में भी लिखीं और ये रचनायें कवि-सम्‍मेलनों में अत्‍यंत लोकप्रिय हुईं। उनके पास कमाल का बिंब विधान था। राजनीतिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्‍य में उनकी यह टिप्‍पणी देखिए :

      ''उल्‍लू ने बढ़ के हंस की थामी नकेल है
      कुदरत का है कमाल मुकद़्दर का खेल है''

      इसी तरह महंगाई पर पौराणिक संदर्भों का सहारा लेकर वे खूबसूरती से अपनी बात कहते हैं :

      ''बूढ़े विश्‍वामित्रों की हो सफल तपस्‍या कैसे
      चपल मेनका-सी महंगाई फिरे फुदकती ऐसे
      जैसे घोड़ी बिना लगाम, सीताराम, राधेश्‍याम
      भज मन, बमभोले का नाम, सीताराम, राधेश्‍याम''

      अल्‍हड़ जी को 'ठिठोली पुरस्‍कार', 'काका हाथरसी पुरस्‍कार', 'टेपा समान', हरियाणा गौरव समान' आदि पुरस्‍कारों से सम्‍मानित किया गया। अनेकों पुरस्‍कार तथा सम्‍मान प्राप्‍त करने वाले अल्‍हड़ जी विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे और वे बहुत ही सरल स्‍वभाव के थे। अल्‍हड़ जी की प्रकाशित पुस्‍तकें हैं- 'भज प्‍यारे तू सीताराम', 'घाट-घाट घमू', 'अभी हंसता हूं', 'अब तो आंसू पोंछ', 'भैंसा पीवे सोमरस', 'ठाठ गज़ल के', 'रेत पर जहाज़', 'अनझुए हाथ', 'खोल न देना द्वार', 'जय मैडम की बोल रे', 'बैस्‍ट ऑफ अल्‍हड़ बीकानेरी' और 'मन मस्‍त हुआ'। अल्‍हड़ जी की हास्‍य-कव्‍वाली' 'मत पूछिये फुर्सत की घडि़या हम कैसे गुजारा करते हैं' और हरियाणावी कविता 'अनपढ़ धन्‍नों' ने कवि-सम्‍मेलनों के मंचों पर लोकप्रियता के नये कीर्तिमान स्‍थापित किये . लगभग 50 वर्षों से अधिक की काव्‍य यात्रा में उनकी 12 पुस्‍तकें प्रकाशित हुईं और वे जीवन के अंतिम समय तक काव्‍य रचना में व्‍यस्त रहे। डाक तार विभाग में अपनी नौकरी भी उन्होंने पूरी की और वे दिल्ली के पटेल चौक स्थित डाक तार मुख्‍यालय से सहायक पोस्ट मास्टर के पद से सेवानिवृत्‍त हुये। वर्ष 2009 के जून मास में क्रूर काल ने देश के हास्य व्यंग्य के इस महान कवि को हमसे छीन लिया।

माणिक वर्मा का जन्म मध्यप्रदेश के खंडवा में हुआ था। वे हास्य की गद्य कविता के लिए जाने जाते हैं। 

सब्जी वाला हमें मास्टर समझता है
चाहे जब ताने कसता है
‘आप और खरीदोगे सब्जियां!
अपनी औकात देखी है मियां!
हरी मिर्च एक रुपए की पांच
चेहरा बिगाड़ देगी आलुओं की आंच
आज खा लो टमाटर
फिर क्या खाओगे महीना-भर?
बैगन एक रुपए के ढाई
भिंडी को मत छूना भाई‚
पालक पचास पैसे की पांच पत्ती
गोभी दो आने रत्ती‚
कटहल का भाव पूछोगे
तो कलेजा हिल जाएगा
ये नेताओं का चरित्र नहीं है जो
चार आने पाव मिल जाएगा!’

ओम प्रकाश आदित्य की गजल है ....

छंद को बिगाड़ो मत, गंध को उजाड़ो मत
कविता-लता के ये सुमन झर जाएंगे।
शब्द को उघाड़ो मत, अर्थ को पछाड़ो मत,
भाषण-सा झाड़ो मत गीत मर जाएंगे।
हाथी-से चिंघाड़ो मत, सिंह से दहाड़ो मत
ऐसे गला फाड़ो मत, श्रोता डर जाएंगे।
घर के सताए हुए आए हैं बेचारे यहां
यहां भी सताओगे तो ये किधर जाएंगे। 

शैल चतुर्वेदी की अनेक किताबें छपीं . वे अपने डील डौल से ही मंचो पर हास्य का माहौल बना देते हैं . मैदान / महिला वर्ष / लेन-देन /  भविष्य /  माँ पर गया है / बाप पर गया है / वाक़ई गधे हो / बीस बच्चो वाला बाप / पेट का सवाल है / हे वोटर महाराज / मूल अधिकार / दफ़्तरीय कविता / देश के लिये नेता / चल गई कविता/ पुराना पेटीकोट /  औरत पालने को कलेजा चाहिये / उल्लू बनाती हो? / तू-तू, मैं-मैं / एक से एक बढ़ के / "कब मर रहे हैं?" / अप्रेल फूल / यहाँ कौन सुखी है / गांधी की गीता /मजनूं का बाप / शायरी का इंक़लाब / दागो, भागो / कवि सम्मेलन, टुकड़े-टुकड़े हूटिंग /  फ़िल्मी निर्माताओं से / देवानन्द से प्रेमनाथ / परसेनिलिटी का सवाल है / भ्रष्टाचार / बाप का बीस लाख फूँक कर /  कवि फ़रोश /  व्यंग्यकार से / मूल मंत्र / तलाश नये विषय की / हमारे ऐसे भाग्य कहाँ / देश जेब में / शादी भी हुई तो कवि से / बाज़ार का ये हाल है / हिन्दी का ढोल आदि व्यंग्य व हास्य की रचनाओ को उन्होने दुर्गोत्सव , व अन्य आयोजनो के मंचो से इतनी बार सुनाया है कि ये कवितायें  उन्हें कंठस्थ थीं . मंचो पर लोग उनसे रचना की एक पंक्ति  कहकर डिमांड करते और वे वह रचना प्रस्तुत कर देते . 
उनकी एक रचना 

जिन दिनों हम पढ़ते थे
एक लड़की हमारे कॉलेज में थी
खूबसूरत थी, इसलिए
सबकी नॉलेज में थी
मराठी में मुस्कुराती थी
उर्दू में शर्माती थी
हिन्दी में गाती थी
और दोस्ती के नाम पर
अंग्रेज़ी में अँगूठा दिखाती थी
एम.ए. करने के बाद
हमने उससे कहा-
तुम भी एम.ए.
हम भी एम.ए.
अब तो इस अँगूठे को हटाओ
हम तुम में डूब जाए
तुम हममें डूब जाओ!"
वह मुस्कुराकर बोली-
शौक़ से डूबिए भाईसाहब! मुझे तो जीना है
हिन्दी वाले की बीबी बनकर
आँसू नहीं पीना है.

रचना लम्बी है , इसी तरह संवाद शैली में गद्य की पद्यात्मक प्रस्तुति है . 

इसी तरह अरुण जैमिनी  हरियाणा के हैं  . उनके एक कवि सम्मेलन में अपनी प्रस्तुति से पहले का संवाद देखें ... दरअसल, हरियाणे में हर काम अलग अंदाज में किया जाता है। किसी दूसरे प्रदेश का आदमी वहां काम कर ही नहीं सकता। जैसे किसी और प्रदेश का आदमी वहां डॉक्टरी करना चाहे, तो कर ही नहीं सकता। क्योंकि मरीज बीमारी ही ऐसी बताएगा।
मरीज बोलेगा, 'डॉक्टर साब! कलेजे में धुम्मा-सा उट्ठै है। अब कर ले डॉक्टर, क्या इलाज करेगा! अच्छा, डॉक्टर भी ऐसे ही हैं वहां। एक डॉक्टर मरीज का इलाज कर रहा था, तो देखा मरीज की दोनों टांगें नीली पड़ गईं। डॉक्टर बोला, 'जहर चढ़ रहा है, टांगें काटनी पड़ेंगी।' दोनों टांगें काटी गईं साहब, नकली टांगें लगवाई गईं। कुछ दिन बाद वो नकली टांगें भी नीली पड़ गईं। डॉक्टर बोला, 'ओहो! तुम्हारी तो जींस ही रंग छोड़ती है।' ऐसा मस्त प्रदेश है साहब हरियाणा। आइए मैं इसी हरियाणवी मस्ती की एक छोटी-सी कविता सुना देता हूं...

इंटरव्यू देने पहुंचा
हरियाणे का एक बेरोजगार
एक पोस्ट के लिए
आए थे अस्सी उम्मीदवार
किसे रखना है, यह बात तय थी,
इसलिए चयनकर्ताओं के सवालों में
न सुर, न ताल और न लय थी।
एक चयनकर्ता ने
हरियाणवी छोरे से पूछा-
बताओ
ताजमहल कहां है?
हरियाणवी छोरा बोला-
'जी... रोहतक में'
'बहुत अच्छा... बहुत अच्छा...
इतना भी नहीं जानता
नौकरी क्या खाक करेगा?'
'आगरे में बता दूं
तो क्या रख लेगा?'

इसी तरह प्रदीप चौबे की एक रचना  

हर तरफ गोलमाल है साहब।
हर तरफ गोलमाल है साहब
आपका क्या खयाल है साहब
कल का भगुआ चुनाव जीता तो
आज भगवत दयाल है साहब
लोग मरते रहें तो अच्छा है
अपनी लकड़ी की टाल है साहब
आपसे भी अधिक फले फूले
देश की क्या मजाल है साहब
मुल्क मरता नहीं तो क्या करता
आपकी देखभाल है साहब
रिश्वतें खाके जी रहे हैं लोग
रोटियों का अकाल है साहब
इसको डेंगू, उसे चिकनगुनिया
घर मेरा अस्पताल है साहब
तो समझिए कि पात-पात हूं मैं
वो अगर डाल-डाल हैं साहब
गाल चांटे से लाल था अपना
लोग समझे गुलाल है साहब
मौत आई तो जिंदगी ने कहा-
'आपका ट्रंक कॉल है साहब'

प्रदीप चौबे की यह रचना हिन्दी  गजल या हजल के सांचे मेंहै . 

हास्य कविता की धार को व्यंग्य से  पैना करने वाले , शब्दों के खिलाड़ी  अशोक चक्रधर की  एक कविता 

नदी में डूबते आदमी ने
पुल पर चलते आदमी को
आवाज लगाई- 'बचाओ!'
पुल पर चलते आदमी ने
रस्सी नीचे गिराई
और कहा- 'आओ!'
नीचे वाला आदमी
रस्सी पकड़ नहीं पा रहा था
और रह-रह कर चिल्ला रहा था-
'मैं मरना नहीं चाहता
बड़ी महंगी ये जिंदगी है
कल ही तो एबीसी कंपनी में
मेरी नौकरी लगी है।'
इतना सुनते ही
पुल वाले आदमी ने
रस्सी ऊपर खींच ली
और उसे मरता देख
अपनी आंखें मींच ली
दौड़ता-दौड़ता
एबीसी कंपनी पहुंचा
और हांफते-हांफते बोला-
'अभी-अभी आपका एक आदमी
डूब के मर गया है
इस तरह वो
आपकी कंपनी में
एक जगह खाली कर गया है
ये मेरी डिग्रियां संभालें
बेरोजगार हूं
उसकी जगह मुझे लगा लें।'
ऑफिसर ने हंसते हुए कहा-
'भाई, तुमने आने में
तनिक देर कर दी
ये जगह तो हमने
अभी दस मिनिट पहले ही
भर दी
और इस जगह पर हमने
उस आदमी को लगाया है
जो उसे धक्का देकर
तुमसे दस मिनिट पहले
यहां आया है।'
बेरोजगारी पर यह तंज जहाँ हंसाता है वहीं झकझोरता भी है . अशोक चक्रधर की हास्य कवितायें कई फ्रेम में कसी गई हैं , पर अधिकांश मुक्त छंद ही हैं . 

 पद्मश्री  सुरेंद्र शर्मा हिंदी की मंचीय कविता में स्वनाम धन्य हैं , वे हरियाणवी बोली में चार लाईणा सुनाकर और अधिकांशतः अपनी पत्नी को व्यंग्य का माध्यम बनाकर कविता करते हैं .

हमने अपनी पत्नी से कहा-
'तुलसीदास जी ने कहा है-
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी
ये सब ताड़न के अधिकारी
-इसका अर्थ समझती हो
या समझाएं?'
पत्नी बोली-
'इसका अर्थ तो बिल्कुल ही साफ है
इसमें एक जगह मैं हूं
चार जगह आप हैं।'

चार लैन और 

'पत्नी जी!
मेरो इरादो बिल्कुल ही नेक है
तू सैकड़ा में एक है।'
वा बोली-
'बेवकूफ मन्ना बणाओ
बाकी निन्याणबैं कूण-सी हैं
या बताओ।'

इन चार लाइणा में ट्रेन का सीन है...

घराली बोली-
'एजी!
ऊपर की बर्थ पे कैंया जाऊं
डर लागै है, गिर जाऊंगी।'
मैं बोल्यो- 'री भागवान!
थै ऊपर नै तो जाओ,
थारे जाते ही
बर्थ नीचै आ जावेगी।'


आचार्य संजीव वर्मा सलिल पेशे से इंजीनियर  हैं , अंतर्जाल पर दिव्य नर्मदा आदि ब्लाग्स के माध्यम से बहुआयामी साहित्यिक गतिविधियो में निरंतर सक्रिय हैं उनके कुछ हास्य दोहे .........




मण्डला के प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध जी की पहचान मूलतः संस्कृत ग्रंथो के हिन्दी काव्यअनुवाद तथा समसामयिक विषयो पर देश प्रेम की भावना वाली कविताओ को लेकर है , उन्होने भी हास्य रचनायें की हैं . उनकी रचना .. 
होली का त्यौहार है सभी खेलते रंग 
मैं भी इससे आ गया ले पिचकारी संग 
उनकी एक संदेश पूर्ण व्यंग्य कविता है ...
हो रहा आचरण का निरंतर पतन,राम जाने कि क्यो राम आते नहीं
हैं जहां भी कहीं हैं दुखी साधुजन देके उनको शरण क्यों बचाते नहीं


विवेक रंजन श्रीवास्तव के हास्य व्यंग्य सारे देश के अखबारो में संपादकीय पृष्ठ पर छप रहे हैं . व्यंग्य लेखो की उनकी किताबें छप चुकी हैं . उनकी व्यंग्य कविता की ये पंक्तियां उधृत हैं ... 
 फील गुड 
सड़क हो न हो मंजिलें तो हैं फील गुड 
अपराधी को सजा मिले न मिले 
अदालत है , पोलिस भी फील गुड 
उद्घाटन हो पाये न हो पाये 
शिलान्यास तो हो रहे हैं फील गुड 

 डा. अजय जनमेजय की हजल "बात बनाना सीख गया" 

संबंधों को यार निभाना सीख गया
हाँ, मैं भी अब आँख चुराना सीख गया
वो है मदारी, मैं हूं जमूरा दुनिया का
पा के इशारा बात बनाना सीख गया
नंगे सच पर डाल के कंबल शब्दों का
अपनी हर करतूत छिपाना सीख गया
सीख गया सुर-ताल मिलाना मैं भी ‘अजय’
वो भी मुझको नाच नचाना सीख गया

अरुण मित्तल की रचनायें मुक्त छंद की बानगी हैं .. 

कमबख्त
गम जुदाई सब साथ कर गया
अच्छे अच्छों को माफ कर गया
मैंने सोचा दिल पर रख रहा है हाथ
कमबख्त जेब साफ कर गया
=
विशेष छूट
हेयर ड्रेसर ने, विशेष छूट के शब्द, इस तरह बताए
बाल काले करवाने पर, मुंह फ्री काला करवाएं


अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर' के हास्य-व्यंग्य दोहे:

चिमटा बेलन प्रेम का, खुलकर करें बखान.
जोश भरें हर एक में, ले भरपूर उड़ान.
 जगनिंदक घर राखिये, ए सी रूम बनाय.
चाहे सिर पर ही चढ़े, वहीं बीट करि जाय..
 चमचों से डरते रहें, कभी करें नहिं बैर.
चमचे पीछे यदि पड़े, नहीं आपकी खैर..
नैनों से सुख ले रहे, नाप रहे भूगोल.
सारे भाई बंधु हैं, नहीं इन्हें कुछ बोल.
गलती कर नहिं मानिए, बने खूब पहचान.
अड़े रहें हल्ला करें, सही स्वयं को मान..
अहंकार दिखता बड़ा, ‘मैं’ छाया बिन प्राण.
‘मैं’ ‘मैं’ ‘मैं’ ही कीजिये, होगा अति कल्याण..
जब तक सीखें गुरु कहें, नहीं करें कुछ पाप.
गुरु हो बैठे आप जब, बनें गुरू के बाप..
 गलत सही साबित करें, अगर चले नहिं जोर.
गुटबंदी तब कीजिये, और मचा दें शोर..
कूटतंत्र की राह पर, छूटतंत्र का राज.
लोकतंत्र है सामने रामराज्य है आज..
हास्य व्यंग्य सम-सामयिक. करते दोहे आज.

हास्य रचना करना इतना सहज भी नही जितना लगता है , और रचना हो भी तो उसे दर्शको के मन तक उतार देने की प्रस्तुति भी सबके बस की बात नही होती .अच्छी रचनायें भी मंच पर हूट हो जाती हैं , क्योकि मंचीय प्रस्तुतियों में दर्शक दीर्घा की मानसिक योग्यता के साथ ही स्थिति के अनुरूप माहौल बनाकर रोचक तरीके से प्रस्तुति देने की चुनौती भी अतिरिक्त रूप से  होती है, इसलिये न केवल लिखना वरन कविता को कंठस्थ रखना भी आवश्यक होता है . 
 किसी कवि ने लिखा है ..
अपने जख्मों को भी आइना बनाया हमने
आपको हंसता हुआ चेहरा दिखाने के लिए
इतना आसान नहीं खुद का तमाशा करना
कलेजा चाहिए औरों को हंसाने के लिए
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ए १ , शिला कुंज , रामपुर , जबलपुर ४८२००८  मो ७०००३७५७९८, vivekranjan.vinamra@gmail.com

कार्यशाला: रचना-प्रतिरचना राकेश खंडेलवाल-संजीव

कार्यशाला:
रचना-प्रतिरचना राकेश खंडेलवाल-संजीव
*
गीत
संस्कार तो बंदी लोक कथाओं में
रिश्ते-नातों का निभना लाचारी है
*
जन्मदिनों से वर्षगांठ तक सब उत्सव
वाट्सएप की एक पंक्ति में निपट गये
तीज और त्योहार, अमावस पूनम भी
एक शब्द "हैप्पी" में जाकर सिमट गये
सुनता कोई नही, लगी है सीडी पर
कथा सत्यनारायण कब से जारी है
*
तुलसी का चौरा, अंगनाई नहीँ रहे
अब पहले से ब​हना-भाई नहीं रहे
रिश्ते जिनकी छुअन छेड़ती थी मन में
मधुर भावना की शहनाई, नहीं रहे
दुआ सलाम रही है केवल शब्दो में
और औपचारिकता सी  व्यवहारी हैं
*
जितने भी थे फेसबुकी संबंध हुए
कीकर से मन में छाए मकरंद हुये
भाषा के सब शब्द अधर की गलियों से
फिसले, जाकर कुंजीपट में बंद हुए
बातचीत की डोर उलझ कर टूट गई
एक भयावह मौन हर तरफ तारी है
***
प्रतिगीत:
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
भाव भूलकर क्यों शब्दों में सिमट गए? 
शिव बिसराकर, शव से ही क्यों लिपट गए?
फ़िक्र पर्व की, कर पर्वों को ठुकराया-
खुशी-खुशी खुशियों से दबकर चिपट गए। 
व्यथा-कथा के बने पुरोहित हम खुद ही- 
तिनका हो, कहते: "पर्वत पर भारी" क्यों? 
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
किसकी इच्छा है वह सच को सही कहे?
कौन यहाँ पर जो न स्वार्थ की बाँह गहे?
देख रहे सब अपनेपन के किले ढहे-
किंतु न बदले, द्वेष-घृणा के वसन तहे। 
यक्ष-प्रश्न का उत्तर, कहो! कौन देगा-
हुई निराशा हावी, आशा हारी क्यों?
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
क्षणभंगुर है सृष्टि सत्य यह जान लिया। 
अचल-अटल निज सत्ता-संतति मान लिया।
पानी नहीं आँख में किंचित शेष रहा-
धानी रहे न धरती, हठ यह ठान लिया।   
पूज्या रही न प्रकृति, भोग्या मान उसे
शोषण कर बनते हैं हमीं पुजारी क्यों?
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
कक्का-मम्मा, मौसा-फूफा हार गए,
'अंकल' बिना लड़े रण सबको मार गए।  
काकी-मामी, मौसी-फूफी भी न रहीं-
'आंटी' के पाँसे नातों को तार गए। 
हलो-हाय से हाय-हाय के पथ पर चल-
वाह-वाह की सोचें चाह बिसारी क्यों?.
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
मुखपोथी से जुड़े, न आँखों में देखा 
नेह निमंत्रण का करते कैसे लेखा?
देह देह को वर हँस पुलक विदेह हुई-
अंतर्मन की भूल गयी लछमन रेखा।  
घर ही जिसमें जलकर ख़ाक हुआ पल में-
उन शोलों को कहा कहो अग्यारी क्यों?
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
***
११.६.२०१८, ७९९९५५९६१८ 

                                                                     

दोहा

दोहा मुक्तिका 
*
कब क्या करना किसलिए, कहाँ सोच अंजाम।
किस विधि करना तय करें, हो निश्चित परिणाम।।
*
किसने किससे क्या कहा, ध्यान न दे कर काम।
इसकी उससे मत लगा, भला करेंगे राम।।
*
क्या पाया; क्या खो दिया, दिया-लिया क्या दाम? 
जो इसमें उलझा रहा, उससे वामा वाम।।
*
किया न होता अनकिया, मिले-मत मिले नाम।
करने का संतोष ही, कर्ता का ईनाम।।
*
कह न किस दिवस सुबह हो, कब न हुई कह शाम।
बीती बातें यादकर, क्यों बैठा मृत थाम।।
*
कौन उगा? यह देखकर, दुनिया करे प्रणाम।
कभी न लेती डूबते, सूरज का वह नाम।।
*
कल रव हो; या शांति हो, रखे न किंचित काम।
कलकल कर रेवा कहे, रखो काम से काम।।
***
11.6.2018, 7999559618
http://divyanarmada.blogspot.in

दोहा सलिला

रविवार, 10 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी १५. डॉ. साधना वर्मा बुंदेली छंद परंपरा और चौकड़िया फाग

शोधलेख:
बुंदेली छंद परंपरा और चौकड़िया फाग
प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा
परिचय: जन्म १२.९.१९५६ बिलासपुर छत्तीसगढ़, अर्थशास्त्र में सोयाबीन उद्योग पर शोध कार्य, प्रकाशन: अनश शोध पत्र, बीज वक्तव्य आदि। सम्प्रति: सहायक प्राध्यापक शासकीय मानकुंवर बाई स्वशासी स्नातकोत्तर अर्थ-वाणिज्य महाविद्यालय जबलपुर, संपर्क: समन्वय २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष:०७९९९८५४३५४
*
आधुनिक हिंदी की आधारशिला रखनेवाली लोकभाषाओं में बुंदेली का स्थान अग्रगण्य है। बुंदेली साहित्यिक हिंदी और लोक भाषाओँ के मध्य सेतु बनाने में समर्थ है। इसका आशय यह कदापि नहीं है कि बुंदेली या अन्य कोई लोक भाषा हिंदी की स्पर्धी हो सकती है। हिंदी का कल्पवृक्ष भारतीय लोकभाषाओं की भूमि से प्राणशक्ति लेकर ही अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित हुआ है।बुंदेली, बघेली, बृज, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, मगही, छत्तीसगढ़ी, मारवाड़ी, हाडौती, मेवाड़ी, शेखावाटी, काठियावाड़ी, मालवी, निमाड़ी, बिजनौरी, कन्नौजी, मिर्जापुरी, लश्करी, बाँगरू (हरयाणवी), कुमाऊनी, गढ़वाली आदि-आदि अनेक लोक भाषाएँ हिंदी के वर्तमान रूप के विकास में सहायक रही हैं। हिंदी के शब्द भंडार में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, पैशाची, नेपाली, पंजाबी, सिंधी, कोंकडी, उड़िया, असमिया, कश्मीरी, मणिपुरी, मराठी, गुजराती, बांगला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, अरबी, फारसी, तुर्की, रूसी, अंग्रेजी, जापानी, जर्मन आदि-आदि भाषाओँ के शब्द सम्मिलित हैं और नित नए शब्द जुड़ते जा रहे हैं। हिंदी अपनी प्रबल पाचन शक्ति से जितने अधिक शब्दों को पचा सकेगी उतनी ही अधिक प्रभावी होकर विश्ववाणी बन सकेगी
बुंदेली का विकास और इतिहास
बुंदेली अंचल को पौराणिक काल से अब तक चेदी, दाहल, दशार्ण (१० नदियों नर्मदा, यमुना, चंबल, केन, टौंस या तमस, हिरन, तवा, सुनार, धसान, बेतवा का क्षेत्र), पुलिंद, सावर तथा विंध्य क्षेत्र आदि अनेक संज्ञाओं से अभिषिक्त किया गया है। आधुनिक बुंदेलखंड दसवीं सदी के पश्चात् अस्तित्व में आने लगा था। चंदेलों और बुंदेलों ने इस क्षेत्र के शौर-पराक्रम की विजय पताका दूर-दूर तक फहराई। इस क्षेत्र के विविध अंचलों में बुंदेली के विविध रूप प्रचलित हैं। उत्तर में मुरैना में विजयपुरी तथा सिकरवारी, पश्चिमी मुरैना में बड़ोदई, ग्वालियर में ग्वालियरी तथा आगरा के दक्षिणी भाग में बृज मिश्रित भदावरी, श्योपुर मुरैना में राजस्थानी मिश्रित बुंदेली प्रचलित है. दक्षिण में छिंदवाड़ा जिले के अमरवाडा–चौरई तथा मध्य सिवनी में शुद्ध बुंदेली, सौंसर तथा दक्षिणी सिवनी में मराठी मिश्रित बुंदेली बोली जाती है। पूर्व में उत्तर प्रदेश के जालौन, हमीरपुर मध्यप्रदेश के पूर्वी छतरपुर, पन्ना, उत्तरी-पूर्वी जबलपुर में बुंदेली का बोलबाला है। उत्तर-पश्चिमी हमीरपुर और दक्षिणी जालौन में लोधान्ती, रात में राठौरी, केन नदी के तटवर्ती क्षेत्र में कुंडरी, यमुना नदी के तटवर्ती क्षेत्र में तिरहारी, इसके दक्षिण-पश्चिमी भाग में बनाफरी, पूर्वी जालौन में निभट्टा, कटनी के निकट पचेली आदि लोकभाषाएँ बुंदेली के ही रूप हैं। पश्चिम में मुरैना, श्योपुर, शिवपुरी, गुना में बुंदेली राजस्थानी से गलबहियाँ डाले है। सीहोर में बुंदेली और मालवी तथा हरदा में बुंदेली और निमाड़ी मिश्रित हैं जिसे ‘भुवाने की बोली' कहा जाता है। मध्य में दतिया, छतरपुर, झाँसी, टीकमगढ़, सागर, दमोह, जबलपुर, रायसेन, होशंगाबाद, और नरसिंहपुर जिलों में शुद्ध बुंदेली के साथ खड़ी हिंदी का शुद्ध रूप प्रचलित है।
बृज, कन्नौजी और बुंदेली का उद्भव पांचाली शौरसेनी के पाली, प्राकृत तथा मध्यदेशीय अपभ्रंश से छठवीं से बारहवीं सदी के मध्य हुआ है। डॉ. हरदेव बाहरी ने इस अंचल को आर्यों का प्राचीनतम स्थान सारस्वत प्रदेश, ब्रम्ह्वर्त या ब्रम्ह्पीठ कहा है। डॉ. होनार्ल के अनुसार पंजाबी-राजस्थानी और पूर्वी हिंदी प्रथम आर्य समुदाय की तथा पश्चिमी हिंदी द्वितीय आर्य समुदाय की भाषा थी। डॉ. ग्रियर्सन के अनुसार पतंजलि के काल तक उत्तर भारत में अनेक बोलियाँ थीं। इनमें से एक बोली का विकास संस्कृत के रूप में हुआ। आर्यों के संपर्क की भाषाएँ प्राकृत (लोक प्रकृति में विकसित) कही गईं, संस्कृत अप्राकृत (देवताओं और ऋषियों की) भाषा थी। नाट्यशास्त्र के रचयिता भरत ने प्राकृत के ७, साहित्यदर्पणकार ने १२, लंकेश्वरकार ने १६ तथा प्राकृत चंद्रिकाकार ने २७ प्रकार बताये हैं। मध्यदेशीया प्राकृत ही बुंदेली का मूल है। इस काल में वाचिक परंपरा का बोलबाला था
बुंदेलखंड की वाचिक छंद परंपरा:
बुंदेलखंड में वाचिक लोकगीतों, लोककथाओं तथा लोककाव्य की प्रवृत्ति इसी काल की देन है। प्राकृत के प्रथम विकास काल में बुंदेलखंड में पाली के बीज जमने लगे। नाग, वाकाटक राजवंशों ने प्राचीन वैदिक धर्म को पौराणिक कहकर पुनर्स्थापित करने के प्रयास किये तथा खुद को अधिक सुसंस्कृत मानते हुए पाली का प्रयोग कर रहे प्रथम आर्य समुदाय को पिशाच और उनकी भाषा को पैशाची कहा। विंध्य प्रदेश में इसी पैशाची में ‘बड्डकहा’ की रचना हुई। व्याकरणकार वररुचि ने ‘पैशाची प्रकृति: शौरसेनी’ लिखकर दोनों में साम्य को इंगित किया है। भरत मुनि (३ री सदी) ने अपभ्रंश नहीं ‘देशभाषा’ का उल्लेख किया है। वररुचि ने भी अपभ्रंश का उल्लेख नहीं किया किंतु गुहसेन (विक्रम ६५० से पूर्व) तथा भामह (७वी सदी) ने संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश तीनों का उल्लेख किया है। १० वीं-११ वीं सदी में शौरसेनी तथा बुंदेली का उद्भव हुआ। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार अपभ्रंश कोई स्वतंत्र भाषा नहीं लोक भाषा थी। बुंदेली लोककाव्य का उद्भव इसी काल का है। १२ वीं सदी में जगनिक रचित आल्हा लगभग ७०० वर्षों तक वाचिक परंपरा में गाया जाकर १८६५ में लिपिबद्ध किया गया। १८९८ विक्रम (१८४१ ईस्वी) में जन्में ईसुरी की फागें भी वाचिक परंपरा में ही जन-स्मृति में सुरक्षित रहीं। बुंदेली का अनन्य छंद सड़गोड़ा (सड़गोड़ासनी) भी लोक-कंठ में ही पलता-पुसता रहा
आशुकवि ईसुरी
चैत्र शुक्ल १० गुरुवार, संवत १८९८ (१८४१ ईस्वी) को ग्राम मेंड़की, तहसील मउरानीपुर, जिला झाँसी में जन्मे मूर्धन्य आशुकवि ईसुरी (ईश्वर प्रसाद तिवारी) का निधन अगहन बदी ७ शनिवार, संवत १९९६ (१९०९ ईस्वी) को ग्राम गुरन धवार में हुआ। वे पं. भोलानाथ अरजरिया (तिवारी) तथा गंगादेवी के ३ पुत्रों में सबसे छोटे थे। ईसुरी की फागें बुंदेली लोक जीवन की जीवंत छवियों, श्रृंगारपरकता, वैयक्तिक जीवनानुभवों तथा दार्शनिक अभिव्यक्तियों के लिए प्रसिद्ध हैं। सामन्यत: फागें वसंतोत्सव पर गाई जानेवाली काव्य रचनाएँ हैं पर दैवी प्रतिभा संपन्न ईसुरी ने उन्हें व्यापक उच्च पीठिका पर प्रतिष्ठित कर रूप-सौंदर्य, प्रेम-तत्व, भाव-सौष्ठव, लोक-रंग, नीति-दर्शन, सांस्कृतिक चेतना, लोक कला और गायकी की सनातन वाचिक परंपरा का पर्याय बना दिया। आंग्ल कवि वर्ड्सवर्थ के शब्दों: ‘पोएट्री इज द स्पोनटेनियस फ्लो ऑफ़ पावरफुल फीलिंग्स.’ (कविता प्रबल अनुभूतियों का तात्कालिक प्रवाह है) को चरितार्थ करते ईसुरी का आशु कवित्व बेमिसाल था। वे जहाँ जो देखते उस पर तत्क्षण ही फाग कह देते थे। इस संदर्भ में वे आदिकवि वाल्मीकि (जिन्होंने मिथुनरत क्रौंच व्याध द्वारा वध किये जाने पर क्रौंची के करुण क्रंदन को सुनकर प्रथम काव्य कहा: ‘माँ निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती समा:. / यत्क्रौंच मिथुनादेकमवधी: कामंमोहितम..’) के वंशज थे
ईसुरी और फाग:
ईसुरी के माता-पिता का निधन हो जाने के पश्चात् उनके मामा उन्हें अपने साथ ले गए और दत्तक पुत्र की तरह रखा। ईसुरी की शिक्षा सुव्यवस्थित हो सकी। संभवत: उन्हें पिंगल/छंद शास्त्र की भी शिक्षा मिली और जन्मजात रुचि होने के कारण वे अल्प प्रयास से इसमें पारंगत हो गए। डॉ. श्यामसुंदर ‘बादल’ के अनुसार “चौकड़िया फाग-गीतों का उद्भव ईसुरी के ह्रदय से हुआ, तदनंतर उनमें छंद की खोज की गयी।” यह मत ईसुरी के प्रति अति श्रद्धा से प्रेरित प्रतीत होता है। इस मत की स्वीकार्यता के लिए आवश्यक है कि फाग में प्रयुक्त छंद ईसुरी के पहले किसी अन्य कवी ने प्रयोग में न लाया हो। इसका परीक्षण करने के लिए ईसुरी द्वारा छंद प्रयोग के समय और अन्य कवियों वारा छंद प्रयोग के समय की तुलना करनी होगी तथा ईसुरी को फाग लिखते समय उनकी जानकारी में छंद था या नहीं यह भी देखना होगा।
अयोध्याप्रसाद गुप्त ‘कुमुद’ के अनुसार “समृद्ध परिवार में ईसुरी की शिक्षा-दीक्षा भी शास्त्रोक्त विधि से उसी गाँव के पंडित जमुनाप्रसाद तिवारी की ग्रामीण पाठशाला में हुई।” बुंदेलखंड में आल्हा गायकी, फाग गायकी, कजरी गायकी, राई गायकी आदि के ‘फड़’ (वह स्थान जहाँ विविध कलाकार या दल अपनी कला का प्रदर्शन करते थे) जमते थे यह परंपरा चिरकाल से है।भारतीय शिक्षा प्रणाली में चिरकाल से संस्कृत और हिंदी की शिक्षा में व्याकरण के अंतर्गत प्रमुख छंद पढ़ाए जाते हैं। ईसुरी को बचपन से काव्य में रुचि थी। स्वाभाविक है कि उन्होंने पूर्व पीढ़ी के फाग-गायकों की फागें सुनी- गुनी होंगी और उस लय का स्मरण-अनुकरण कर फागें बनाना आरंभ किया होगा। उल्लेखनीय है कि हिंदी छंदशास्त्र का सर्वमान्य ग्रंथ जगन्नाथप्रसाद ‘भानु’ (जन्म ८-८-१८५९, निधन २५ अक्टूबर १९४५) कृत “छंद प्रभाकर” है जिसका प्रथम संस्करण जून १८९४ में प्रकाशित हुआ। इसके पूर्व छंदोमंजरी, वृत्तरत्नाकर, छंदोंविनोद, छंदसार तथा छंदविचार आदि पिंगल ग्रंथ पहले से उपलब्ध होने की जानकारी भानु जी ने स्वयं प्रथम संस्करण के परिचय में दी है। स्पष्ट है कि ईसुरी के शिक्षाकाल में पिंगल संबंधी कृतियाँ सहज उपलब्ध थीं। बाल्यकाल में अन्य कवियों की फागें सुनने के अतिरिक्त ईसुरी ने छंद शास्त्र से भी छंदों की जानकारी ली।
मेरा मत है कि ईसुरी के पहले भी फागें रची और गाई गईं। सूरदास रचित निम्न फाग २८ मात्रिक यौगिक जातीय,
काके द्वार जाय सर नाऊँ, परहथ कहाँ बिकाऊँ?
ऐसो को है राजा समरथ, जाके दिये अघाऊँ? –सूरदास (जन्म संवत १४७८, १५३५)
देहु कलाली एक पियाला, अवधू है मतवाला। –रैदास (जन्म संवत १३९८)
जाके प्रिय न राम बैदेही, पाप पंथ को नेही।
तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही। –तुलसीदास (जन्म संवत १५५४)
साधो की संगत दुख भारी, मानौ बात हमारी
छाप-तिलक मल-माल उतारौ, पहिरौ हार हजारी। –मीराबाई (१४९८ / १५७३)
गुरु बिन होरी कौन खिलावै, कोई पंथ लगावै– कायम
स्पष्ट है कि ईसुरी के जन्म से लगभग ४०० वर्ष पूर्व से वह छंद कवियों द्वारा लिखा जा रहा था जिसे ईसुरी ने 'फागण में प्रयोग किया। ईसुरी फाग रचना में प्रवृत्त होते समय इस छंद से ही नहीं अन्य छंदों से भी परिचित थे। बुंदेलखंड के गाँव-गाँव में आल्हा गाया जाता है, राम चरित मानस, हनुमान चालीसा, शिव चालीसा का पाठ होता है। नैष्ठिक ब्राम्हण परिवार में जन्में ईसुरी इन ग्रंथों या उनमें प्रयुक्त छंदों से अपरिचित कैसे हो सकते हैं? फागें भी ईसुरी के पहले कई लोकगायक लिखते रहे थे। इसलिए यह निर्विवाद है कि ईसुरी फागों या उनमें प्रयुक्त छंद के आविष्कारक नहीं हैं यद्यपि इससे उनका महत्त्व नहीं घटता।
ईसुरी का अवदान:
निस्संदेह फाग लेखन में ईसुरी का अवदान सर्वोपरि है। सामान्यत: निम्न वर्ग के मनोरंजन का माध्यम मानकर उपेक्षित और तिरुस्कृत कर दी जाने वाली फाग विधा को ईसुरी ने समाज के श्रेष्ठि वर्ग में प्रतिष्ठा दिलाई। ईसुरी ने फागों को उस ऊँचाई पर पहुँचा दिया जहाँ अन्य कोई उनके समकक्ष न रहा अत:, ईसुरी ही उसके पर्याय व जन्मदाता कहे गए ईसुरी की अधिकांश फागें केवल ४ कड़ियों में पूरी हो जाती हैं। इसीलिये इन्हें चौकड़िया फाग कहा जाता है सूर के पदों में ६-७ कड़ियाँ तथा विनय पत्रिका में तुलसी रचित पदों में १०-१५ कड़ियों तक हैं ईसुरी स्वयं निपुण फाग गायक थे भक्त कवियों के पद मंदिरों में गाए जाते थे जहाँ सभ्य-सुसंस्कृत-शिष्ट जन भाव-भक्ति में डूबकर सुनते थे ईसुरी की फागें ठेठ देहाती ठाठ में फडों, चौतरों पर गाई-सुनी जाती थीं इनके साथ नर्तकी या नर्तक झूम-झूमकर नाचते भी थे ईसुरी ने फागों के कलेवर को नवता देते हुए जीवन के हर रंग को इनमें चित्रित कियाईसुरी रचित एक श्रृंगार परक फाग में नायिका का अनूठा सौंदर्य दर्शनीय है:
तनके सुभ लच्छन सब जागे, दया करन हैं ताके
जनवाई, जड़-पेड़ धीरता, साखा सीलन छाके
अर्थ, धरम अरु काम, मोक्ष फल, पुण्य पुरातन जाके
पतिव्रता के कर्म-धर्म में, उन जस होत उमा के
होत चीकने पात ईसुरी, होनहार बिरवा के
अर्थ: नायिका के तन में सभी शुभ लक्षण हैं दया करनेवाले प्रभु इसकी देख-रेख कर रहे हैं इसकी देह रूपी वृक्ष की जड़ बुद्धिमानी, तना धैर्य है, शाखाएँ शील से भरी-पूरी हैं पूर्व कर्मों का सुफल अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष के रूप में प्राप्य है पातिव्रत्य धर्म के पालन में यह पार्वती जी के समान है ईसुरी कहते हैं कि होनहार वृक्ष के पत्ते चिकने होते हैं
फाग का रचना विधान:
उक्त फाग की हर पंक्ति में २८ मात्राएँ तथा १६-१२ पर यति है पदांत में दो गुरु हैं ये लक्षण सार (अन्य नाम नरेंद्र, ललितपद, दोवै, मराठी छंद साकी) छंद के हैं सार छंद में पदांत में कर्णा (दो गुरु SS) के स्थान पर ISS या SII भी रखा जा सकता है भानु जी ने इससे लय में न्यूनता होने की सम्भावना इंगित की है किंतु तुलसी ने “सादर सुनिए, सादर गुनिए, मधुर कथा रघुबर की”’ में लघु लघु गुरु रखा है, ‘सार यही नर जन्म लहे को, हर पद प्रीति निरंतर’ में गुरु लघु लघु रखा गया है
ईसुरी रचित एक और फाग देखें जिसमें खजुराहो का मेला देखने जा रही नायिका को केंद्र में रखा गया है-
मेला खजुराहो को भारी, चलो देखिये प्यारी।
महादेव के दरसन करियो, पूजै आस तुमारी
भाँत-भाँत के लोग जुरे हैं, कर-कर अपनी त्यारी
कात ईसुरी चल कें देखो, दिल खुस हूहे भारी
ईसुरी ने जिस प्रकार बुंदेली फाग की प्राण प्रतिष्ठा की, उसका अनुकरण करने की आज फिर आवश्यकता है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली, विदेशों में नौकरी का लोभ और अंग्रेजी बोल कर खुद को गौरवान्वित अनुभव करने की भावना ने हिंदी की राह रोकने का दुष्प्रयास किया है। भौतिकता के मोहपाश में काव्य कला को बिसरा रही युवा पीढ़ी के सम्मुख छंद का महत्त्व फिर स्थापित किया जाना आवश्यक है। यह तभी संभव है जब समर्थ कलमें ईसुरी को आदर्श मानकर उनकी तरह स्वभाषा और स्वकाव्य को लोकमानस में प्रतिष्ठित करे। अपने गीत-नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' में चौकड़िया फागों में प्रयुक्त नरेन्द्र छंद के आधार पर नवगीत प्रस्तुतकर इस दिशा में एक कदम आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने उठाया है। देखें एक रचना:
मिलती काय नें ऊँचीवारी / कुर्सी हमखों गुइयाँ...
हमखों बिसरत नईं बिसरे / अपनी मन्नत प्यारी
जुलुस, बिसाल भीर जैकारा / सुबिधा, संसद न्यारी
मेल जाती, मन की कई लेते / रिश्वत ले-दे भइया...
पैले लेऊँ कमीसन भारी / बेंच खदानें सारी
पाछूँ घपले-घोटाले सौ / रकम बिदेश भिजा री
होटल, फैक्ट्री, टाउनसिप / कब्ज़ा लौं गैल-तलैया...
कौनऊ सैगो हमाओ नैयां / का काऊ सेन काने
अपनी दस पीढ़ी कहें लाने / हमें जोड़ धर जानें।
बना लई सोने की लंका / ठेंगे पे राम रमैया ...
ईसुरी की विरासत को सम सामायिक सन्दर्भों में रचित रचनाओं में प्रयुक्त कर नव पीढ़ी के लिए उपयोगी बनाने की चुनौती को स्वीकार कर अपनी भाषा, अपना छंद, अपना संस्कार, अपना संविधान नयी पीढ़ी के मानस में स्थापित करने की राह पर तुरंत बढ़ना ही पहली प्राथमिकता हो।
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दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
अग्रज के आशीष से, जीव हुआ संजीव
सदा सदय हों शारदा, गणपति करुणासींव
*
अनिल अनल से मिल सलिल, भू नभ को ले साथ।  
जीवन को दे जीवनी, जिए उठाकर माथ।। 
*
मिल रहा आशीष भौजी का मिला है सुख नवल।  
कांति शुक्ला हो जहाँ, है वहाँ ही हिंदी गज़ल।। 
*
योगा कह लें योग को, भोगा कहें न भोग।  
प्रीतम पी तम हो नहीं, तज अंग्रेजी रोग।। 
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पानी दुर्ग बचा सके, नारी हो दुर्गेश।  
अपव्यय तनिक न जो करे, वह विदेह मिथलेश।। 
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शशि त्यागी हर निशा हो, सिर्फ अमावस-रात 
शशि सज्जित हर रात का, अमर रहे अहिवात
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कार्यशाला: रचना एक रचनाकार दो

कार्यशाला: 
रचना एक रचनाकार दो 
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पथरीले थे रास्ते, दुख का नहीं हिसाब ।
अनुभव अनुभव जोड़कर, छाया बनी किताब ।। -छाया शुक्ला

छाया बनी किताब, धूप हँस पढ़ने बैठी।  
छोड़ न पाई चाह, ह्रदय में छाया पैठी।।  
देखें दर्पण सलिल, न टिकते बिंब हठीले।  
लिख कविता संजीव, स्वप्न पाए नखरीले।।  -संजीव 
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१०.६.२०१८